खग्रास/भूभौतिक वर्ष

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भूभौतिक वर्ष

१ जुलाई, सन् १९५७ से ३१ दिसम्बर, १९५८ तक संसार के वैज्ञानिक अन्तर्राष्ट्रीय भूभौतिक वर्ष मना रहे थे। इस अन्तर्राष्ट्रीय योजना में संसार के ६४ राष्ट्रों के ५ हज़ार से भी अधिक वैज्ञानिक भाग ले रहे थे।

अब से ७५ वर्ष पूर्व सन् १८८२-८३ मे वैज्ञानिकों ने पहला भूभौतिक वर्ष मनाया था। इसके ५० वर्ष बाद १९३२-३३ में बारह राष्ट्रों ने दूसरा भूभौतिक वर्ष मनाया। इसके २५ वर्ष बाद सन् ५० में वाशिंगटन में वैज्ञानिकों की एक बैठक में गम्भीर विचार विमर्श करके ५७-५८ में भूभौतिक वर्ष मनाने का प्रस्ताव किया गया था जिसका मुख्य कारण यह था कि सन् ५७-५८ में सूर्य मण्डल में अनेक उथल-पुथल और विस्फोट होने की सम्भावना थी। सन् ५४-५५ और ५६ के अन्तर्राष्ट्रीय भूभौतिक की अनेक समितियों की जो अनेक बैठक हुईं, उनके फलस्वरूप ही वाशिंगटन में बनी योजना के अन्तर्गत इस अन्तर्राष्ट्रीय भूभौतिक वर्ष का कार्यक्रम निश्चित किया गया था। अमरीकी काँग्रेस ने अन्तर्राष्ट्रीय भूभौतिक कार्यक्रम के लिए कोई चार करोड़ डालर मंजूर किए थे। साथ ही प्रतिरक्षा विभाग भी इस कार्य पर लाखों डालर खर्च कर रहा था। [ २८ ]वैज्ञानिक भूभौतिक कार्यक्रम के अन्तर्गत ध्रुव-प्रभा, वायु-तेज, ब्रह्माण्ड किरण, हिमनद विज्ञान, अयन मण्डल, देशान्तर और अक्षाश, समुद्र विज्ञान, आकर्षण शक्ति आदि अनेक विषयों के पर्यवेक्षण के सम्बन्ध मे नई-नई जानकारी प्राप्त करने के भगीरथ प्रयत्न कर रहे थे। ससार के राष्ट्रों मे इस समय अग्रगण्य सोवियत रूस और अमेरिका थे जो विज्ञान और सामरिक शक्ति मे एक दुर्घर्ष उत्कर्ष का प्रदर्शन करते जा रहे थे। दोनो प्रबल राष्ट्रो मे इस समय व्योम विजय की होड़ मची हुई थी। और वे व्योम अभियान द्वारा चन्द्रमा, मगल, शुक्र आदि ग्रहो तक पहुँचने तथा सौर मण्डल पर अधिकार प्राप्त करने की स्पर्धा कर रहे थे। इस कार्य के लिए दोनो राष्ट्र असाधारण शक्तिशाली राकेट और अन्तर्राष्ट्रीय महाप्रक्षेपणास्त्र बनाते जा रहे थे। यह इस युग की अभूतपूर्व घटना थी जिसे संसार विमूढ होकर देख रहा था। इनके माध्यम से इन राष्ट्रो को इतने शक्तिशाली साधन प्राप्त हुए थे कि वह व्योम में उपग्रहो की स्थापना कर पाए थे। अमेरिका को अभी यद्यपि सफलता नहीं मिली थी और वह अपने प्रयास में विफल मनोरथ ही था परन्तु इन दोनों महाराष्ट्रों ने ससार पर यह तो प्रकट कर ही दिया था कि उनके पास अन्तर्वीपीय अमोघ महाप्रक्षेपणास्त्र मौजूद हैं जिनकी सहायता से यदि वे चाहें तो पृथ्वी के किसी भी भाग मे बैठे ही बैठे प्रलयकारी अणु बम और उद्जन बम फेक कर ससार के सब मनुष्यों को मार डाल सकते हैं।

भारत

अन्तर्राष्ट्रीय भूभौतिक वर्ष के निरीक्षण कार्यक्रम मे नवजागरित भारत के लगभग साठ केन्द्र भाग ले रहे थे। भूभौतिकी वर्ष का प्रारम्भ पहिली जुलाई से प्रारम्भ हुआ था। इसे यद्यपि वर्ष कहा गया था, परन्तु वास्तव में इसकी अवधि १८ महीने थी। यह तथाकथित वर्ष ३१ दिसम्बर सन् १९५८ को समाप्त होने वाला था।

इस अन्तर्राष्ट्रीय भूभौतिक वर्ष के भारतीय कार्यक्रम का संचालन उससे सम्बन्धित भारतीय राष्ट्रीय समिति कर रही थी जिसके बारह सदस्य [ २९ ]थे, जो डा॰ के॰ एस॰ कृष्णन की अध्यक्षता में कार्य कर रहे थे। इस भू-भौतिक वर्ष में विज्ञान की लगभग १३ शाखाओ द्वारा धरती के वातावरण के रहस्यो का अन्वेषण और अध्ययन किया जा रहा था।

जो भारतीय सस्थान इस कार्यक्रम में भाग ले रहे थे, वे थे—भारतीय ऋतु विभाग, भारतीय सर्वे विभाग, भूगर्भ सर्वे विभाग, आकाशवाणी, नौसैनिक गवेषणा प्रयोगशाला की समुद्र विज्ञान विषयक शाखा, राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला, नई दिल्ली, पूना और कर्नाटक विश्वविद्यालयो की भौतिक प्रयोगशालाएँ, अलीगढ़ विश्वविद्यालय की गुलमर्ग स्थित प्रयोगशाला, भौतिक गवेषणा शाला, अहमदाबाद और उत्तर प्रदेश की राजकीय वेधशाला। इनके अतिरिक्त थे कलकत्ते की बोस इन्स्टीट्यूट और कलकत्ता विश्वविद्यालय की इन्स्टीट्यूट आफ रेडियो फिजिकल एण्ड इलैक्ट्रोनिक्स। परन्तु सबसे अधिक प्रेक्षण कार्य भारतीय ऋतु विभाग द्वारा किया जा रहा था। यह विभाग अन्य अन्वेषण कार्यों के अतिरिक्त सूर्य के प्रभाव का भी अध्ययन कर रहा था। भारतीय भूगर्भ सर्वे विभाग कई हिमालयवर्ती केन्द्रों मे हिमनदियों से सम्बन्धित प्रेक्षण कार्य कर रहा था। कोचीन स्थित नौसैनिक गवेषणा प्रयोगशाला की समुद्र-विज्ञान शाखा मे तरङ्गो को मापने के लिए रिकार्डर यन्त्र लगाया गया था। अहमदाबाद की भौतिक गवेषणाशाला, गुलमर्ग केन्द्र की उइकनाल वेवशाला तथा दार्जिलिंग के गवेषणा केन्द्र मे ब्रह्माण्ड किरणों का विस्तृत अध्ययन हो रहा था। उत्तर प्रदेश की राजकीय वेधशाला मे कृत्रिम उपग्रहो का अध्ययन किया जा रहा था। इस तरह विभिन्न प्रेक्षण कार्यों के लिए भारत मे ६० केन्द्र स्थापित कर लिए गए थे।

ऋतु विभाग केन्द्र इनके अतिरिक्त थे। अन्तर्राष्ट्रीय भू-भौतिक वर्ष के अन्तर्गत वायुमण्डल की ऊपरी सतह के अध्ययन के लिए राकेटो का उपयोग किया जा रहा था तथा अन्तर्राष्ट्रीय कार्यक्रम के संचालन के लिए दिल्ली, टोकियो, खारतूम, बीरुत और सिंगापुर के बीच रेडियो सम्बन्ध स्थापित थे। [ ३० ]
विराट सूर्यलोक

जिस सूर्य के असाधारण विस्फोटो के कारण इस वर्ष यह महान् व्योम अभियान किया जा रहा था तथा अन्तर्राष्ट्रीय भू-भौतिक वर्ष मनाया जा रहा था, उसके सम्बन्ध मे भी हम यहाँ कुछ कहेगे। हमसे ६ करोड़ १६ लाख मील दूरी पर स्थित और हमारी पृथ्वी से आकार मे १३ लाख गुना बड़ा सूर्यलोक एक असाधारण ज्वलन्त पिण्ड है। उसमे सदा सौर आतिशबाजिया होती रहती है और वहाँ कभी-कभी मीलो तक जाने वाली ज्वाला की लपटे निकला करती है। उस समय अति भयानक गर्जन तर्जन होता है। सूर्य की इस गतिविधि का अध्ययन वैज्ञानिको ने अन्तर्राष्ट्रीय भू-भौतिक वर्ष के अन्तर्गत किया है जो १ जुलाई, १९५७ से प्रारम्भ हुआ था। इस वर्ष को इसी समय मे इसलिए मनाया गया था कि इस काल मे सूर्य मे महत्तम गतिविधियाँ हो रही थी।

चन्द्रमा की भाति सूर्य मे भी धब्बे है जो हर ग्यारहवे वर्ष बहुत बड़े हो जाते है। ये धब्बे सूर्य की तेज चमक के कारण आख से नहीं दिखाई देते। परन्तु इनके फलस्वरूप पृथ्वी के ऊपरी वायुमण्डल मे चुम्बकीय तूफान और विद्युत तूफान उत्पन्न होते रहते है। इसी से पृथ्वी पर रेडियो मे गड़बड़ी होती है और वह साफ सुनाई नही देता।

१० फरवरी सन् १९५६ के दिन सूर्य मे एक भारी विस्फोट हुआ था जिससे विराट ज्वालाए निकली थी। यह विस्फोट १० करोड उद्जन बमों के एक साथ किए गए विस्फोटों के बराबर था। इस समय सूर्य की गैसें अधिकाशत उद्जन की एक अरब टन मात्रा ७०० मील प्रति सैकण्ड या २५ लाख मील फी घण्टा की गति से निकली थी। इस गैस के गोले का व्यास ही २० हजार मील था और यह २ लाख मील तक गया था। यह विकट ज्वाला २० मिनट तक चैकोस्लोवाकिया के एक केन्द्र पर देखी गई। गत वर्ष भीषण गर्मी का उत्ताप पृथ्वी पर भी भोगा गया। इसी समय फोर्ट वेल्वियर, वजिनिया के विश्व-चेतावनी केन्द्र ने वैज्ञानिको को आगाह किया कि वे ब्रह्माण्ड [ ३१ ]किरणो, उत्तरी ज्योतियो, पृथ्वी के चुम्बकत्व तथा पृथ्वी के वायु मण्डल की विद्युन्मय पट्टी 'अयन मण्डल' का गहराई से अध्ययन करे। वैज्ञानिको ने जो छानबीन की तो ज्ञात हुआ कि इस काल मे चुम्बकीय तूफान आया था और अयन मण्डल मे भी बहुत उथल-पुथल हुई थी। कोलोरेडो विश्वविद्यालय की वेधशाला के निर्देशक तथा अखिल भू-वर्ष की अमरीकी समिति के सौर गति-विधि मण्डल के अध्यक्ष डा. वाल्टर राबर्ट्स ने पता लगाया था कि मार्च के अन्तिम सप्ताह मे सूर्य मे असाधारण विशालकाय ज्वालाए फैली हुई थी। इससे पूर्व १ जुलाई को भी ऐसा ही भयानक विस्फोट हुआ था।

सूर्य मण्डल मे जो धब्वे देखे गए थे, वे छोटे, बड़े अनेक थे। छोटे सैकडो और बड़े हजारो मील तक फैले हुए थे। सबसे बड़ा धब्बा जो ७ फरवरी सन् १९५६ मे देखा गया था, हमारी पृथ्वी से ३० गुना बडा था। यह पता लग गया है कि ये धब्बे स्थिर नहीं रहते, अपनी आकृति बदलते रहते हैं और चलते रहते है। बहुधा ये धब्बे सूर्य-पिण्ड के उत्तरी या दक्षिणी भागो मे उत्पन्न होकर मध्य भाग की ओर आकर विलीन हो जाते है। इसके बाद फिर दूसरे धब्बो की वही उत्पत्ति होती है जहाँ पूर्व धब्बे थे। यह क्रिया निरन्तर चलती रहती है।

यह एक महत्वपूर्ण बात है कि इन धब्बो का पृथ्वी के जीवों के जीवन से गहरा सम्बन्ध है। बहुधा जब ये धब्बे दिखाई पड़ते है तब या तो दुष्काल-सूखा पड़ता है, या कुतुबनुमा की सुई अपना काम नहीं करती। ये धब्बे वास्तव में क्या है, इस सम्बन्ध मे वैज्ञानिक भाति-भाति की अटकले लगाते है। एक अटकल यह भी है कि सूर्य मण्डल मे जो अति भीषण विराट ज्वालामुखी गह्वर हैं, उन्ही से जब भीषण उद्गार निकलते है तब ये गड्ढे दिखाई पड़ते है। इस के बाद ही ज्वाला की लपटें निकलती है। रूसी वैज्ञानिक डा॰ स्कोताकोविच का अनुमान है कि सूर्य के अधिक धब्बो का अर्थ है अधिक वर्षा। परन्तु यह वर्ष समूचे सौर मण्डल का असाधारण वर्ष था। सूर्य मे बड़े-बड़े भयकर विस्फोट होने वाले थे जिसके बड़े-बड़े परिणाम शीघ्र ही हमारे सामने आने वाले थे। [ ३२ ]

गुप्त बातचीत

लिजा अपने सुसज्जित कमरे मे तरुण को ले गई। अलस भाव से वह एक सोफे पर पड़ गया। ऐसा प्रतीत हुआ कि वर्षों बाद उसे इस तरह आराम से बैठना नसीब हुआ जबकि उसके सब अग उन्मुक्त थे। लिजा ने वोदका का जाम उसके होठों पर लगा दिया, और वह एक ही सास मे उसे पी गया।

इसके बाद एक बार उसने जाकर अपने कमरो का भी निरीक्षण किया जिन्हें उसने हर तरह व्यवस्थित और आराम-देह पाया। भारत की राजधानी का यह अशोक होटल अद्वितीय होटल है। सब आधुनिक साज सज्जा से सज्जित है। फिर लिजा की पसन्द, सुरुचि और व्यवस्था के क्या कहने। लिजा के किसी काम मे कोई कैसे मीन मेख निकाल सकता था। लिजा के कमरे से लौट कर तरुण ने कहा--"लिजा, मैं धन्य हूँ कि मुझे तुम्हारा सहयोग मिला। किन्तु क्या यह अच्छा नही होगा कि तुम अपनी सहायता के लिए किसी को नौकर रख लो।"

"तुमने मास्को मे भी यही बात कहीं थी। पर तुम जानते हो कि हम छद्मनाम से कितनी महत्वपूर्ण और नितान्त गोपनीय कार्यवाइया कर रहे है, केन्द्र से हमे सब कुछ नितान्त गोपनीय रखने के सख्त आदेश प्राप्त हैं। फिर ऐसी हालत में किसी तीसरे व्यक्ति का हमारे बीच रहना सर्वथा अवाच्छनीय है। किसी भी क्षण कोई अनहोनी घटना हो सकती है। उससे यदि हम दोनों की या किसी एक की तत्काल मृत्यु भी हो जाए तो वह योही कोई प्रेम का मामला या और साधारण व्यक्तिगत बात कह कर उड़ा दी जा सकती है, पर यदि किसी तीसरी आँख का जरा भी शक शुबहा हुआ तो सोवियत विज्ञान सघ के महान् आविष्कारो का भण्डाफोड़ हो जाएगा।"

“यह तो, डालिङ्ग, तुमने ठीक कहा, परन्तु क्या तुम्हें किसी बात का यहाँ खटका है?"

"खटका? तुम खटके की बात कहते हो, मैं कहती हूँ कि हमारे प्राण किसी भी क्षण लिए जा सकते है। हमारे पीछे पृथ्वी और आकाश में जासूसो का जाल बिछा है।" [ ३३ ]"क्या वे अमेरिकन है?"

"खामोश, जबान मे कोई शब्द निकालने से प्रथम अच्छी तरह सोचविचार लिया करो। हमे इस बात से क्या सरोकार है कि वे किस देश के हैं। हमारे लिए यही जानना यथेष्ट है कि वे हमारे शत्रु ओ द्वारा तैनात है।"

"तुम ठीक कहती हो डार्लिंग, हकीकत मे मै बड़ा असावधान हूँ। लेकिन अब मुझे तुम आध घन्टे का अवकाश दो ताकि मैं मास्को अपनी रिपोर्ट भेज सकू।"

लिजा ने एक नज़र अपनी कलाई की घड़ी पर डाली और उठते हुए कहा, "बहुत ठीक, तब तक डिनर का वक्त भी हो जाएगा। हम सार्वजनिक भोजनालय ही मे चल कर भोजन करेगे।"

ज़ोरोवस्की भी उठ खड़ा हुआ। उसने कहा, "ठीक है, लेकिन माई लव, एक चुम्बन तो मै अवश्य लूगा।" उसने खीचकर लिजा को अपने वक्ष से सटा लिया और उसके लाल-लाल अधरो पर अपने जलते हुए ओठ रख दिए। लिजा ने अपनी भुजवल्लरी उसके कण्ठ मे डालकर प्रतिचुम्बन लिया और हसते हुए कहा, 'मैं उधार खाता नहीं रखती, बस लेन-देन बराबर।"

लेकिन ज़ोरोवस्की ने बिजली की भाति लपककर उसे ऊपर उठा लिया और तडाक से एक और चुम्बन लेकर कहा, "मुझे तो उधार खाते की पुरानी आदत है, डार्लिंग। लेनदेन बराबर करना ठीक नही है।"

लिजा हस दी। एक शरारत भरी नज़र उसने तरुण पर डाली और द्वार तक उसे छोड़ गई।

अपने गुप्त कमरे मे जाकर जब ज़ोरोवस्की भीतर से ताले मे चाभी घुमाने लगा, तो उसने किवाड़ की दगर से मुस्करा कर कहा, "सावधान रहना प्रिये।"

"निश्चिन्त रहो, तुम्हारे द्वार पर मेरी एक हजार आँखें है और यह यन्त्र मेरे कानो पर लगा है जिससे मुझे यह पता लगता रहेगा कि विश्व में [ ३४ ]कही कोई गुप्त रहकर तो तुम्हारी बात नही सुन रहा। और तुम इत्मीनान रखो कि वह चोर पृथ्वी पर चाहे जहा भी हो, तत्क्षण मौत का शिकार हो जायगा। उसने जेब से हाथ बाहर निकाल कर अपने हाथो का एक छोटा सा यन्त्र दिखाया तथा आँखो-आँखों मे एक गुप्त सकेत किया।

अभिप्राय समझकर जोरोवस्की ने कहा, "किन्तु प्रिये, जल्दी न करना। जितनी अनिवार्यत आवश्यक हो उतनी हीव कार्यवाही हमें करनी चाहिए। केन्द्र का हमे यही आदेश है।"

"ओह, वह मैं जानती हूँ। और मुझे, ससार मे हमारे कौन-कौन और कहाँ कहाँ मित्र है, यह भी ज्ञात है। तुम निश्चिन्त रहो।" जोरोवस्की ने द्वार मे चाभी धुमादी और लिजा क्षणभर वही खड़ी रही। फिर एक सूक्ष्म तार का सिरा कार्पेट उठाकर उसने अपने यन्त्र से जोड़ा और अपने कमरे मे तेजी के साथ चली गई।


भोजन के कमरे में

सार्वजनिक भोजनगृह मे इस असाधारण युगल मूत्ति ने सब लोगो के साथ भोजन किया। भोजन का कमरा देश विदेश के सम्भ्रान्त स्त्री पुरुषों से खचाखच भरा था। छुरी कॉंटे की खटाखट के साथ आरकेस्ट्रा वाद्य ध्वनि, और लोगों की धीरे धीरे बात करने की मर्मर ध्वनि सब मिलकर वहाँ के धीमे पीले वातावरण को अत्यन्त प्रभावशाली बना रहे थे। सब लोगों की भाँति ये दोनो भी ऋतु तथा दिल्ली की दर्शनीय वस्तुप्रो के सम्बन्ध मे जबतब बातें कर लेते थे। लिजा ने जर्द रङ्ग का अमेरिकन स्टाइल का झाक पहना था। इस वेश मे वह भोजनालय के उस मन्द पीत प्रकाश मे अत्यन्त मोहक अँच रही थी। जोरोवस्की ने जरा झुककर सूप का सिप लेते हुए मन्द स्वर से कहा--"लिजा डार्लिंग, क्या तुम कह सकती हो कि यहां बैठे हुए कुछ लोगो की हम मे दिलचस्पी है?"

"तुम मे दिलचस्पी है या नहीं, परन्तु दो व्यक्ति यहाँ ऐसे बैठे हैं जो [ ३५ ]मुझमे गहरी दिलचस्पी रखते है। उनमे एक वह उस कोने मे टेबल पर तुम्हारे दाहिनी बाजू पीछे की ओर बैठा है मगर तुम मुँह फेर कर देखने मत लगना।"

"नहीं, पर वह" मेरे सामने भी एक आदमी बैठा है, जो नज़र छिपाकर हमे घूर रहा है।"

"वह लम्बा आदमी न, जिसकी तरासी हुई छोटी छोटी मूँछे है। सुर्ख टाई बाँधे है।"

"वही है। उसे कुछ अचरज और गुस्सा भी हो रहा है।"

"जरूर होगा। तीन दिन से वह मेरे साथ इसी टेबल पर खाना खाता था। आज भी उसे यही आशा थी। पर उसके आने से पहले ही तुमने उसकी कुर्सी दखल कर ली।"

"ठीक है। गुस्सा होने की बात ही है। लेकिन मेरे पीछे कौन है?"

"उठने के बाद देख लेना, वह ज्यादा गहरा आदमी प्रतीत होता है, वह मोटा ठिगना-सा आदमी काला अमेरिकन सूट पहने बैठा है।"

"क्या अमेरिकन है?" ठीक नही कह सकती। उच्चारण तो उसका अंग्रेज़ जैसा है।" "तुम्हारी उससे मुलाकात कहाँ हुई?"

"हागकाग में। तुम्हे तो मालूम है, मैं कोरिया और चीन की राह आ रही हूँ। वह दिल्ली तक मेरे साथ ही आया है।"

"हाँ, हाँ, खैर मैं उसे देख लूँगा। लेकिन अब हमे शायद यहाँ से जल्द ही रवाना होना पड़ेगा। और इसी बीच इन दोनो दोस्तो को खूब जाँच परख लेना है। लो वह तो इधर ही आ रहा है।"

थोड़ी ही देर मे उस लाल टाई वाले व्यक्ति ने लिजा को झुककर अभिवादन किया और जोरोवस्की की ओर तनिक झुककर कहा—"मुझे क्षमा कीजिए महाशय। लेकिन मिस, आप शायद यह रूमाल कल टेबल पर ही भूल गई थी।"

"बहुत बहुत धन्यवाद मिस्टर स्मिथ, कृपा कर बैठ जाइए। इनसे मिलिए मेरे साथी हैं जोरोवस्की।" [ ३६ ]दोनो आदमियों ने खड़े होकर हाथ मिलाया। लिजा उठ खड़ी हुई। उसने कहा—"आप लोग गप्पे लडाइये। मैं जरा आराम करूँगी।" वह चली गई। नए दोस्त खूब हँस हँसकर गप्पे लडाने और शराब पीने लगे।

स्मिथ ने हॅसते हुए कहा—"आपके स्पूतनिक की तो दुनियाँ मे खूब धूम मची हुई है साहब, हकीकत मे रशियन वैज्ञानिको ने कमाल कर दिखाया है।"

"मैं तो समझता था कि अमेरिका भी पीछे न रहेगा। सुना है, अमेरिका जल्द ही फिर उपग्रह छोड़ रहा है" जोरोवस्की ने मुस्कराकर कहा।

"दुर्भाग्य से हमारे दो प्रयोग असफल हुए। परन्तु हम निरन्तर उद्योग कर रहे है।"

"कामना करता हूँ कि अमेरिका को सफलता मिले। देखिए, वह महिला इधर ही को आ रही है।"

दोनो बाते बन्द करके उसी की ओर देखने लगे। वह स्त्री जब उनके पास से गुजरी तो स्मिथ ने उठकर नमस्कार किया। उसने मुस्कराकर प्रतिनमस्कार किया और चली गई।

जोरोवस्की ने कहा—"बहुत सुन्दर है। क्या आप उसे जानते है?"

"यह कोई रानी है। खूब ठाठ है इसके।"

"मैने तो सुना है कि भारतीय राजा रानियो के बड़े ठाठ-बाट होते थे?"

"वे दिन तो अब लद गए, पर अब भी आप इन रानी साहिबा के ठाठ देखेंगे तो दङ्ग रह जायेगे।"

"क्या आप इनसे परिचित है?"

"यो ही थोड़ा बहुत। इनके कमरे उसी मजिल पर है जिस पर मेरे है।"

"तब तो आप बड़े खुशकिस्मत है, मिस्टर स्मिथ। क्या आपको कभी किसी राजा महाराजा का मेहमान बनने का अवसर मिला है?" [ ३७ ]"नही, कभी नही। लेकिन मै हीरो का व्यापार करता हू। उस सिलेसिले मे बहुधा मेरी भेट राजा महाराजाओ से हो जाती थी, पर अब वे सब बाते तो हवा हो गई।"

"क्यो? यह रानी साहिबा जो मोतियो का नेकलेस गले मे पहने है, वह दो लाख से कम कीमत का क्या होगा?"

"अच्छा! देखता हूँ आप भी अच्छे खासे जौहरी है। पर यह कीमत आपने खालिस नेकलेस की लगाई है या जिस गले मे वह पडा है, उसकी कीमत भी इसमे सम्मिलित है।"

जोरोवस्की ने हँसते हुई कहा--"जैसा आप समझे। लेकिन घोडी के साथ ही जीन की भी कीमत होती है।"

"बहुत खासे। समझ गया, आप है दिलफेक। मुझे ऐसे आदमी पसन्द है। कहिये तो आपकी इनसे मुलाकात करा दूं?"

"क्या हर्ज है। एक बार फिर उनके कीमती मोतियो को देखने का अवसर मिल जायेगा।"

"खैर देखा जाएगा। लीजिए, ये फिर इधर ही को आ रही है।" स्मिथ कुर्सी छोडकर उठ खडा हुआ। जोरोवस्की भी उठ खडा हुआ।

वह सुन्दरी जब निकट आई तो एक मधुर मुस्कान डालती हुई चलने लगी। स्मिथ ने जरा आगे बढकर कहा--"आप कुछ परेशान नजर आ रही है, क्या मैं कुछ आपकी सहायता कर सकता हूँ?"

"धन्यवाद। आपकी बडी कृपा है। बात यह है कि मेरे नौकर का पता ही नही लग रहा। न जाने कहाँ गायब हो गया है। मुझे यह चिट्ठी अभी डाक मे भेजनी है।"

"तो मुझे दीजिए, मै अभी पोस्ट कर पाता हूँ।"

"नही, नही, आप क्यो कष्ट करेंगे, न होगा तो मैं खुद"

अब जोरोवस्की ने आगे बढकर कहा--"मेरी बेअदबी माफ हो, यह सेवा मुझे करने की प्रतिष्ठा दीजिए।"

युवती हँस दी। उस हास्य मे उसके मोतियो को लजानेवाले दाँतो की बहार युवक की ऑखो मे चकाचौध मचा गई। [ ३८ ]स्मिथ ने अवसर पाकर कहा--"ये है मेरे रूसी युवक मित्र जोरो."

"जोरोवस्की।"

"जी हॉ, ये आपके अद्भुत मोतियो की अभी अभी सराहना कर रहे थे और चाहते थे कि एक बार अच्छी तरह उन्हे देखे। ये बडे अच्छे रत्न पारखी है।"

"तो ये और आप आज रात मेरे साथ भोजन करने की कृपा करे।"

"बहुत खुशी से, लेकिन एक शर्त पर।"

"वह कौनसी?"

"कि यह चिट्ठी पोस्ट करने को मुझे दे दे।" जोरोवस्की ने कहा।

"लीजिये," युवती ने हँसते हँसते चिट्ठी युवक के हाथ मे पकडाकर कहा, "ठीक आठ बजे हम यहाँ लाउन्ज मे मिलेंगे।"

"बहुत अच्छा, नमस्कार।"

युवती ने भारतीय पद्धति से दोनो को नमस्कार किया और उसी तरह इठलाती हुई चली गई।

रानी के चले जाने पर भी ये दोनो नवीन दोस्त बडी देर तक शराब और सिगरेट पीते रहे। थोडी देर बाद स्मिथ, जैसे एकाएक कोई बात याद हो आई हो, इस तरह कहने लगा--"माफ कीजिये, मुझे एक जरूरी काम याद आ गया, अब आज्ञा चाहता हूँ। भोजन के समय हमारी फिर मुलाकत होगी।"

"जरूर, जरूर।"

स्मिथ नमस्कार करके चला गया। जोरोवस्की ने होटल के प्रधान वेटर को बुलाकर कुछ बाते पूंछी और वह भी फिर वहाँ से उठकर चला गया। [ ३९ ]

मास्को का खब्ती वैज्ञानिक

अब से कोई पचास बरस पूर्व मास्को के एक खराब खस्ता मकान की चौथी मजिल मे एक तग और अधेरे कमरे मे, जिसकी खिडकियो के शीशे टूटे हुए थे, एक अधेड अवस्था का पुरुष अस्तव्यस्त कपडे पहने किसी धुन मे एक साधारण मेज के पास बैठा पेन्सिल से एक कागज पर टेढी-मेढी रेखाएँ खीच रहा था। कभी उसके माथे पर बल आ जाते, कभी होठो पर मुस्कान फैल जाती, कभी वह बेचैन सा होकर कुर्सी पर से उछल कर खड़ा हो जाता था। यह अर्द्धविक्षिप्त-सा व्यक्ति महान् वैज्ञानिक स्त्यत्कोव्स्की था। वर्षों से यह व्यक्ति वायुमण्डलीय सीमा पार ब्रह्माण्ड यात्रा सम्बन्धी प्रश्नो का हल करने मे लगा था। वह आम तौर पर उससे मिलने आने वाले मित्रो से राकेट के द्वारा ब्रह्माण्ड की उडानो की चर्चा किया करता और वे उसकी बाते सुनकर खूब हंसते थे। मित्रो की हँसी पर कभी वह क्रुद्ध हो जाता और कभी गम्भीर होकर उन्हे समझाता कि अन्तर-तारक समस्याओ का समाधान करके किस प्रकार कृत्रिम उपग्रह छोडा जा सकता है।

धीरे-धीरे वैज्ञानिक उसकी बातो मे सत्यता का आभास पाने लगे और उनका एक दल स्त्यत्कोव्स्की के साथ मिलकर विविध वैज्ञानिक और इन्जीनियरिंग सम्बन्धी जटिल समस्या का समाधान करने लगा। बहुधा वे सब मिलकर रात रात भर बहस करते रहते। जारशाही का जमाना था जब बडी से बडी शक्तियां ऐश, मौजो और शराबखोरी मे लगी थी। जनता निरीह, दरिद्र और भुखमरी का शिकार हो रही थी। एकतन्त्री शासन था, जहाँ मनुष्य के प्राणो का मूल्य मक्खी के बराबर भी न था। कौन इस खब्ती वैज्ञानिक को सहारा देता? वे लोग बहुधा एक कृत्रिम ग्रह के डिजाइन और उसे आकाश कक्षा मे ले जाने वाले वाहक राकेट की चर्चा करते। अन्तत उन्होंने एक इतने बडे शक्तिशाली इजन का डिजाइन बना ही लिया जो आकाश की तीव्रतम-ताप-अवस्थामो मे भी काम कर सके। राकेट की गति और उसके सफल प्रयोग के लिए अधिक से अधिक अवस्थाओ का हिसाब लगाया गया और अत्यन्त सूक्ष्म शक्तिशाली, अपने आप चलने और नियन्त्रण [ ४० ]रखने वाले यन्त्रो की रूपरेखा रची गई जो राकेट को प्रक्षेप-वक्र द्वारा आकाश मे ले जा सके।

समय बीतता चला गया। पृथ्वी पर दो महा भीषण सग्राम हुए। रूस मे महान् क्रान्ति के दर्शन हुए और महान् वैज्ञानिक स्त्वत्कोव्स्की के स्वप्न सोवियत संघ मे क्रियात्मक रूप मे साकार होते चले गए। विज्ञान और इजीनियरिग के क्षेत्रो मे असाधारण सयुक्त प्रयोग हुए और राकेट-निर्माण टेक्नीकल उन्नति की चरम सीमा तक पहुंचा। सोवियत संघ मे उच्च वैज्ञानिक विचारणा, अन्वेषण सस्थाओ का सुसगठन, डिजाइनिग विभागो और व्यावसायिक औद्योगिकता के विकास ने अन्तत एक उपग्रह का निर्माण सचमुच ही कर डाला। इसके छोडे जाने से पूर्व इसके डिजाइन के बारे में बड़े व्यापक परीक्षण किए गए। ऐसी व्यवस्था की गई कि वह अपने पृथक् पृथक् भागो और उनके समूह रूप मे एक सुसचालित यन्त्र के रूप मे काम कर सके। उपग्रह की सफल यात्रा से सम्बन्धित गणित के हिसाबो और वाहक-राकेट और उपग्रह की डिजाइनिंग सम्बन्धी टेक्नीकल समस्याओ की मूलभूत शुद्धता का अत्यन्त सावधानी से विचार किया गया।

उपग्रह का यह निर्माण अन्तर-तारक आकाश और ब्रह्माण्ड उडान सम्बन्धी समस्याओ की विजय की ओर पहला कदम था। अन्तत ४ अक्टूबर १९५७ के दिन सारे ससार ने सोवियत संघ द्वारा छोडे हुए इस कृत्रिम भू-उपग्रह को देखा। जब इसके वाह्य अन्तरिक्ष मे छोडने की घोषणा ससार ने सुनी तो ससार के सब महाद्वीपीय निरीक्षको ने इसकी व्योम मण्डल की यात्रा को अकित किया। वह क्षण मानव जाति की उत्सुकता का महानतम क्षण था। इस घटना ने मानव मस्तिष्क को विज्ञान के एक नए शुभ और रचनात्मक दृष्टिकोण पर केन्द्रित कर दिया। और उसकी ध्वसात्मक भीषणतम विभीषिकाएँ, जिनमे विश्व की महत्तम शक्तियाँ व्यस्त थी, फीकी पड़ गई। मानव मस्तिष्क एक नए उत्थान, नई भावना, नई आशा से भर उठा।

इस कृत्रिम भू-उपग्रह का आकार गोल था। यह एक वाहक-राकेट के अगले भाग मे लगा था तथा उसका रक्षा-शकु ढका हुआ था। इस वाहक[ ४१ ]राकेट को आकाश मे शिरोबिन्दु की ओर छोडते ही यह धीरे-धीरे ऊपर लम्ब की ओर एक विशेष कक्षा मे कई सौ किलोमीटरो की ऊँचाई पर पहुच कर ८ हजार मीटर प्रति सेकेण्ड की गति से पृथ्वी के समानान्तर चक्कर काटने लगा। जब इसके इजनो ने काम करना बन्द कर दिया तो रक्षा-शकु उससे अलग हो गया और उससे लगा कृत्रिम भू-उपग्रह स्वतन्त्र रूप से अन्तरिक्ष मे विचरण करने लगा।

 

स्पूतनिक

 

इस भू-उपग्रह का नाम स्पूतनिक था।

इसकी कक्षा लगभग ऊनेन्द्र थी जिसके नाभीफनो मे से एक एक पृथ्वी केन्द्र मे थी। इस उपग्रह के प्रक्षेप-वक्र की ऊँचाई स्थायी न थी। समय-समय पर वह १ हजार किलोमीटर तक के उच्चतम बिन्दु पर पहुँच जाती थी। उसके छोडने के और अन्तरिक्ष मे पृथ्वी के चारो ओर विचरण करने के समय उसकी कक्षा का भू-समीपतम बिन्दु उत्तरीय गोलार्द्ध मे, और भू-दूरतम बिन्दु दक्षिणी गोलार्द्ध मे था। स्थिर-तारको के सम्बन्ध मे कक्षा-पृष्ठ का अनुस्थिति ज्ञान लगभग स्थिर था। क्योकि पृथ्वी अपने धुरे पर घूम रही थी, यह कृत्रिम भू-उपग्रह प्रत्येक अगले परिभ्रमण मे प्रति बार लगभग २४° दूरी पर रहने के कारण पृथक् पृथक् स्थानो पर दिखाई दिया। कक्षा-पृष्ठ केन्द्र से गुरुत्वाकर्षण-क्षेत्रो के विस्थापन के कारण पृथ्वी की गति की विपरीत दिशा मे हुआ। कक्षा-पृष्ठ की इस गति का महत्व न था। रेखाश-दिशा मे वह प्रत्येक चक्कर मे लगभग चौथाई अश था। पृथ्वी और कक्षा-पृष्ठ की सापेक्षिक गति के कारण यह उपग्रह कक्षा-पृष्ठ विषवत् तल से ६५° के कौण पर झुका हुआ था और मास्को की अक्षाश-रेखा से वह प्रत्येक पूर्ववर्ती चक्कर से लगभग १५०० किलोमीटर की ऊँचाई पर पश्चिम मे दीखता था। तथा इसका प्रक्षेप-वक्र लगभग उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवीय गोलो के ऊपरी प्रदेश पर था। पृथ्वी के अपने धुरे पर चक्कर काटने के कारण विषवत् रेखा से इसका प्रक्षेप-वक्र कोण कक्षा-पृष्ठ के कोण से भिन्न था। उत्तरीय गोलार्द्ध को पार करते [ ४२ ]हुए प्रक्षेप-वक्र विषुवत्-तल से उत्तर पश्चिम की ओर ७१ ५° से गुजरकर धीरे-धीरे पूर्व की ओर मुड़ता था और फिर ६५° उत्तरीय अंक्षाश पर पहुँच कर दक्षिण की ओर मुड़ जाता था। फिर दक्षिण पूर्व दिशा में ५९° अंश कोण से विषवत तल को पार कर जाता था। दक्षिणी गोलार्द्ध मे प्रक्षेप-वक्र ६५° दक्षिणी अंक्षाश पर पहुच, उत्तर की ओर झुक, पुन उत्तरी गोलार्द्ध को पार करता था।

समयान्तर तथा पृथ्वी वायुमण्डल की ऊपरी सतहो में प्रतिरोध के कारण उपग्रह-कक्षा का रूप और आकार धीरे-धीरे बदलता रहा। क्योकि वायु-मण्डल की इन परम ऊँचाइयो का घनत्व कम है, प्रारम्भ में उपग्रह कक्षा के भ्रमण बिल्कुल मन्द रहे। भू-दूरतम बिन्दु की ऊँचाई अपेक्षातया भू-समीपतम बिन्दु की ऊँचाई से गिरी और उपग्रह कक्षा वृत्ताकार बन गई। इसके बाद जब भू उपग्रह ने वायुमण्डल के सघन स्तरो मे प्रवेश किया तो उसका प्रतिरोध अत्यन्त बढ गया, जिससे वह अत्यन्त उत्तप्त होकर भस्म हो गया और अन्तर-तारकीय आकाश मे गिर कर पृथ्वी के वायुमण्डल में नष्ट हो गया।

इसके बाद ३ नवम्बर को रूस ने दूसरा उपग्रह छोड़ा जिसमे एक जीवित कुत्ता भी था। व्योम अभियान की यातनाएँ बहुत थी। जैसे पानी में रहने वाली मछली को समुद्र की सतह पर लाने पर वह तड़पने लगती है क्योकि वह पानी में ही जीवित रह सकती है उसी प्रकार पृथ्वी पर और पृथ्वी की परिस्थिति में रहने के आदी मनुष्य को व्योम में अजीब परिस्थिति का सामना करना था। व्योम की अज्ञात परिस्थितियो का शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है, यही जानने के लिए रूस ने कुत्ते को भेजा था, क्योकि कुत्ते के अंग प्रत्यग अच्छी तरह विकसित होते है। कुत्ते को भेजने से पूर्व अन्य जानवरो पर भी परीक्षण किए गए थे कुत्तो को एक दवाब कक्ष में रखा गया था जिसमे हवा का दवाब कम कर दिया गया था। तीस सैकेण्ड बाद देखा गया तो सब कुत्तो के शरीर मे सूजन हो गई थी। यह भी देखा गया कि पाँच मील तक ऊपर जाने में शरीर के तंतुओ में जो नाइट्रोजन घुली हुई होती है, वह गैस में बदल गई थी। कोषो पर फोड़े उठने लगे थे। लगभग बारह मील [ ४३ ]की ऊँचाई पर सभी तन्तु वाष्प बनने लगे थे। शरीर के सब अंगो में वाष्प नाइट्रोजन व कार्बन-डाइ-आक्साइड पैदा हो जाती थी। जैसे-जैसे प्राणी ऊपर जाता था, वैसे-वैसे तेजी से ये विनाशक प्रक्रिया होने लगती थी। इन प्रक्रियाओ का पशु या मनुष्य के शरीर पर कोई प्रभाव न पड़े, इसके लिए यह आवश्यक था कि उड़ान एयर-कण्डीशन्ड कक्षो मे की जाए। इसीलिए कुत्तो को भी एयर कण्डीशन्ड कक्षो में रखा गया था। उनके शरीर में विभिन्न यन्त्र लगाए गए थे जिससे उसके तापमान, दवाब, श्वास क्रिया-प्रक्रिया व दूसरी बातो का पता लग सके।

दूसरे उपग्रह में जो यन्त्र रखे गए थे, वे पहले उपग्रह में रखे गए यन्त्रो से संख्या में अधिक तथा भिन्न प्रकार के थे। इन यन्त्रो में सूर्य का विकिरण (रेडियेशन) ब्रह्माण्ड किरणो, तापमान दबावमापक यन्त्र जिनसे अनेक रहस्यो का पता लगाना था। इन सब बातो के लिए असाधारण परीक्षण ये दोनो राष्ट्र कर रहे थे जिनमे से कुछ प्रकट किए गए थे पर कुछ नितान्त गोपनीय रखे गए थे।

भेद की बाते

अपने कमरे में पहुँचकर लिज़ा ने एक छोटा-सा चमड़े का बक्स अपने सूटकेस से निकालकर सामने टेबल पर रख लिया फिर उसे खोला। बक्स में असंख्य छोटे-मोटे यन्त्र और तार लगे थे। साधारणतया वह एक छोटा-सा रेडियोसैट जैसा प्रतीत हो रहा था। उसे खास ढङ्ग से सामने टेबल पर रख लिज़ा ने एक स्विच खोल दिया। स्विच खोलते ही एक बहुत छोटा-सा नीले रङ्ग का बल्व मन्द प्रकाश से जल उठा और यन्त्र से एक अति मन्द झकार निकलने लगी। इसी समय जोरोवस्की भी आ गया। लिज़ा ने कमरे का भीतर से ताला बन्द कर लिया। और सोफे पर इत्मीनान से बैठकर कहा---"बड़ी देर लगाई तुमने, मैं तो काफी देर से प्रतीक्षा कर रही हूँ।"

"मैं एक दिलचस्प शाही डिनर का आनन्द ले रहा था। जिन राजा[ ४४ ]रानियो की बातें कहानियो में सुनी जाती है ऐसी ही एक रानी के साथ डिनर था।" जोरोवस्की ने हँसते-हँसते पूरा किस्सा कह सुनाया। सुनकर लिज़ा ने व्यंग्य से कहा--"क्या बहुत खूबसूरत थी वह रानी?" जोरोवस्की लिज़ा का व्यंग्य समझकर जोर से हँस दिया।

लिज़ा ने कहा---"खैर, वह कैफियत पीछे लूँगी, अभी तुम सुनायो तुम पर कैसी बीती? यहाँ कोई हमारी बात नहीं सुन सकता। भूमण्डल में जहाँ जो कोई भी हमारी बात सुनने की चेष्टा करेगा, हमे तुरन्त पता चल जाएगा।"

जोरोवस्की ने हँसकर कहा--"तो तुम इस यन्त्र को खूब काम में ला रही हो?"

"बड़े काम का यन्त्र बनाया है तुमने, जोरोवस्की। लेकिन इसमे एक नुक्स है।"

"वह क्या?"

"गैर आदमी को इसकी उपस्थिति का पता लग जाता है। इसकी मन्द झंकार वह सुन लेता है। इसी के कारण मैं आते समय हागकाग में बड़ी कठिनाई में पड़ी। यात्रा में हमेशा मैं इस यन्त्र को अपने सीने पर रखती हूँ। ज्योंही हमारा प्लेन हागकाग पहुँचा, पुलिस ने मुझे घेर लिया और सारे सामान की तलाशी ले डाली। बात यह हुई कि सारी राह मेरी बराबर की सीट पर ये महाशय जमे बैठे थे जिन्हें तुमने भोजन के समय देखा था। यन्त्र मेरा चालू था। बस ये बराबर उसकी आवाज सुनते रहे और सम्भवत वायरलैस से इन्होने हागकाग की पुलिस को खबर कर दी। पुलिस ने सामान की छानबीन अवश्य की। पर उन्हे यह क्या मालूम था कि मेरे सीने पर यह बंधा हुआ है।"

"खैर, तो इस बार मास्को पहुँचकर मै इसे दुरुस्त कर दूँगा। लो, अब तुम मेरी अजीबोगरीब दास्तान सुनो।"

"सुनाओ। लेकिन ठहरो, तुम कब उड़े थे?" लिज़ा ने एक छोटी-सी पाकेट बुक खोलते हुए कहा---"हाँ, ठीक है। बस २१ अक्टूबर को न?" [ ४५ ]"हाँ, २१ अबटूबर ही तो। आज नौ नवम्बर है, पूरे उन्नीस दिन मैं पृथ्वी से पृथक् रहा जिनमे से तीन दिन मैंने चन्द्र लोक में व्यतीत किए।"

"मानव इतिहास की सबसे निराली बात हुई।"

"हुई ही। परन्तु मुझे लौटकर फिर पृथ्वी पर आने की जरा भी आशा न रही थी। वह तो मुझे एक दैवी सहायता मिल गई।"

"दैवी सहायता?"

"निस्सदेह। हमारी सफलता का पूरा श्रेय हमारी वैज्ञानिक प्रगति को नही है। प्रकृति की अघटन घटना ही को है।"

"खैर, तो तुम मुझे सक्षेप में सारी बाते सुना दो।"

"जब हम चले थे, तुम्हे याद है न, मैंने एक आपत्ति की थी।"

"हाँ, हाँ, शून्याकाश में विचरण करती हुई उल्काओ के सम्बन्ध मे।"

"बेशक। अन्तरग्रह की यात्राओ के सम्बन्ध में सभी कठिनाइयो को हमने हल कर लिया था।"

"राकेट का ईंधन, जमी हुई वायु और प्राण वायु की आवश्यकता।"

"हाँ, ये सब कठिनाइयाँ तो विज्ञान के बल पर हम हल कर ही चुके थे। कास्मिक किरणो का मसला भी मैंने हल कर लिया था। पर शून्याकाश में विचरण करती हुई उल्काओ की टक्कर से बचने का हमारे पास कोई हल न था। और मैं वास्तव में इस विपत्ति का जोखिम सिर पर रख कर ही उड़ चला था।"

"लेकिन यह बात तुमने मुझसे नही कही थी।"

"कहता तो तुम क्या मुझे जाने देती?"

"हरिगिज़ नही जाने देती।"

"इसी से मैंने तुमसे नही कहा। हमारा राकेट छत्तीस हजार मील की यात्रा की सब सामग्रियो से सम्पूर्ण था। ईंधन और दूसरे उपकरण बहुत सावधानी से हमने रख लिए थे। यह तो तुमको मालूम ही है।"

"मुझे सब मालूम है। हमारी वैज्ञानिक धारणा यही तो थी कि पृथ्वी की आकर्षण शक्ति के विरुद्ध चलने के लिए कम से कम ३६ हजार मील प्रति घण्टा की गति आवश्यक होगी।" [ ४६ ]"बिल्कुल ठीक। और तुम्हे याद होगा कि वैज्ञानिको की उस सभा में मैंने इस मान्यता पर सन्देह किया था।"

"मुझे याद है। तुमने कहा था।"

"परन्तु हमारी इस यात्रा ने यह मान्यता सर्वथा निराधार प्रमाणित कर दी।"

"अच्छा? यह कैसे?"

"मैं शुरू से ही सब सुनाता हूँ। ज्यो ही राकेट छूटा, क्षण भर को मैं उसके भयंकर असह्य धक्के से बेहोश हो गया। परन्तु शीघ्र ही मैं होश में आ गया। पन्द्रह मिनट मेरे बड़े कष्ट से व्यतीत हुए। परन्तु अभी मैंने अपने नए आकाशीय कवच के यन्त्रो को चालू नही किया था। ज्यों ज्यों वायुमण्डल को अपनी दुर्घर्ष गति से हमारा राकेट चीरता जा रहा था उसके घर्षण से राकेट में असह्य उत्ताप बढता जा रहा था। इस भीषण उत्ताप से बचने के लिए प्रत्येक सम्भव वैज्ञानिक उपकरण मैंने प्रो० की सलाह से राकेट में रख लिए थे परन्तु मुझे पृथ्वी के वायुमण्डल के तीन सौ मील के चक्र को पार करने में तेरह मिनट लगे। इस काल का भीषण उत्ताप इतना बढ़ गया था कि यदि मुझे और एक मिनट वायुमण्डल में रहना पड़ता तो निश्चय ही हमारा राकेट जलभुनकर खाक हो गया होता।"

वायु मण्डल के उस पार

"और इसके बाद?"

"इसके बाद तो फिर मुझे कोई कष्ट न रहा। मेरे कवच में केवल यही व्यवस्था न थी कि यथेष्ठ प्राणावायु मुझे मिलती रहे, उसमे यह भी व्यवस्था थी कि वायु का दबाव भी उतना ही रहे जो पृथ्वी पर है।"

"वायु का दबाव उतना ही, जितना कि पृथ्वी पर है, रहना आवश्यक था?"

"बिल्कुल आवश्यक था। इसीलिए मैंने अपने कवच में उसका प्रबन्ध पूर्ण कर रखा था। तुम तो जानती ही हो कि वायु के दबाव को कायम रखने की आवश्यकता इसलिये है कि द्रव पदार्थों में गैसो की घुलनशीलता दबाव [ ४७ ]बढ़ने के साथ ही बढ़ती जाती है। और दबाव घटाने से घुलनशीलता कम हो जाती। वायु मण्डल के जिस दबाब में हम पृथ्वी पर रहते हैं, उसी के कारण हमारे रक्त में प्राणवायु, नाइट्रोजन, और कार्बन आक्साइड गैसे घुली रहती है।"

"किन्तु ऊपर के वायवीय स्तर में तो यह दबाव कम हो जाता होगा?"

"हॉ, भूग्रहो की ऊँचाई पर यह दबाव बहुत कम, नाममात्र को रह जाता है। भूमि के गुरुत्वाकर्षण के बाद तो कतई नही रहता।"

"तो इसकी क्या प्रतिक्रिया शरीर के रक्त पर पड़ती है?"

"उस अवस्था में ये गैसे रक्त में से निकलने लगती है।"

"ओफ, यह तो जीवन के लिए एकदम खतरनाक है।"

"इसमें क्या सन्देह है। रक्त में आवश्यक प्राणवायु विशेष दबाव पर ही घुलता है।"

"और यदि दबाव न रहे?"

"तो, उसमें प्राणवायु की प्राप्ति तो होती ही नहीं। रक्त में पहले ही से विद्यमान गैसे भी बाहर निकलने लगती है।"

"खैर, इस दबाब की कमी को तो कवच में वायु का दबाव रखकर पूरा कर लिया गया। पर जब अन्तरिक्ष में वायु हो ही नहीं तब?"

"तुम भूल गई। इसी मस्ले पर तो हमारी प्रौ०••••से तीन दिन तक बहस होती रही थी।"

"नही, भूली नही हू। उसी बहस का यह परिणाम हुआ था कि तुमने यथेष्ट मात्रा में द्रव प्राणवायु साथ रख ली थी।"

"खूब याद रखती हो तुम। इसमें बड़ा सुभीता रहा। एक लिटिर द्रव प्राणवायु के उड़ने से आठ सौ लिटर गैस प्राणवायु मुझे प्राप्त होती गई।"

"ओफ, ओ, यह तो बड़ी ही सुविधाजनक बात हुई।"

"परन्तु इस यात्रा के अनुभव से मुझे ज्ञात हुआ कि छोटी मोटी तथा अल्पकालीन यात्राओ के लिए तो खैर यह व्यवस्था सहायक है परन्तु [ ४८ ]यदि लम्बी और अधिक दिन की यात्रा करनी पड़े तो इससे कोई लाभ नहीं होगा।"

"यह क्यो?"

"समझी नहीं तुम महीनो और वर्षों तक के लिए तो हमें टनो द्रव प्राण वायु चाहिये। यदि हमें चन्द्रलोक ही में साल छः महीने रहना हो जाए तो इसके लिए टनो द्रव प्राणवायु राकेट द्वारा भला कैसे ले जाई जा सकती है।"

"तो तुमने इसका क्या प्रतिकार सोचा?"

"सीधी सी बात है। मैंने यह निश्चय कियाकि इस बार जो मुझे फिर चन्द्रलोक की यात्रा करनी पड़ेगी, उसमें अपने राकेट में मैं निश्चय ही ऐसा एक यन्त्र लगाऊँगा जो वायु में से कार्बोलिक डाई आक्साइड को चूसता चला जाय और केवल प्राणवायु को छोड़ दे।"

"निस्सदेह महत्वपूर्ण सूझ है।"

"वायु के दबाव का द्रवो के खोलने पर क्या असर पड़ता है, इस पर शायद तुमने विचार नहीं किया।"

"क्यों नहीं। पानी को यदि समुद्रतट पर खौलाया जाय तो वह शताश ताप पर खौलता है, परन्तु ऊँचे पहाड़ी स्थानो पर पानी कम ताप पर खौलता है।"

"इसका कारण भी तुम समझती हो?"

"यह तो सीधी सी बात है कि समुद्र तट के वातावरण में वायु का दबाव अधिक और ऊँचे पहाड़ों पर कम है। वायुमण्डल का दबाव जितना होगा, द्रव पदार्थों के खौलने का तापमान भी उतना ही नीचा होता जायगा।"

"बिल्कुल ठीक, यही बात है। अब देखो कि पृथ्वी से बारह मील की ऊँचाई पर द्रव ३७ अंश पर खौलने लगता है और हमारे शरीर का तापमान भी लगभग ३७ अंश ही है।"

लिज़ा एकदम उछल पड़ी। उसने घबराहट भरे स्वर मे कहा--"ओफ ओ, अब तो पृथ्वी से केवल बारह मील ऊपर अन्तरिक्ष में जाते ही मनुष्य का [ ४९ ]रक्त खौलने लगेगा। क्या तुम्हें ऐसी भयानक ताप यन्त्रणा का सामना करना पड़ा मेरे प्यारे जोरोवस्की।"

"मेरी प्यारी लिजा, मुझे तो तीन सौ मील से भी अधिक ऊँचाई तक अन्तरिक्ष में जाना पड़ा। तुम्हे ज्ञात ही है कि मानव शरीर उच्चतम तापमान ७० अंश और निम्नतम-७० अंश तक सहन कर सकता है। मैंने यथासम्भव ऐसी अनेक व्यवस्था अपने राकेट और कवच में कर रखी थी कि अन्तरिक्ष का वाह्य तापमान चाहे भी जो रहे पर राकेट में भीतर बैठे मनुष्य पर उसका सीधा प्रभाव न हो, और उसके शरीर का तापमान नियन्त्रित ही रहे।"

"तो इसी ने तुम्हारे प्राणो की रक्षा की?"

"प्राणो की रक्षा तो खैर हो ही गई। परन्तु मैने यह भी देख लिया, कि हमारे सारे ही प्रयत्न अति हीन थे। उस भीषण उत्ताप की बात जब भी याद आती है, बस प्राण सूखने लगते है। केवल तुम्हारे पुनर्मिलन की अभिलाषा के बल पर ही मैं उस महाज्वाला की जलन को झेल सका।"

"और अब तुम फिर वही भीषण यात्रा करने की अभिलाषा करते हो?"

"मैं तो प्रिये, यह ठान चुका हूँ कि हम दोनो के विवाह के बाद हमारी मधुयात्रा चन्द्रलोक में ही होगी। हनीमून का वास्तविक आनन्द तो संसार के सब मनुष्यों में केवल हमी दो प्राणी उठाएगे। इतना ही क्यो? हम फिर यहाँ जल्द लौटकर आयेगे ही नहीं। यह भी हो सकता है कि जीवन भर न लौटे, वही बस जाए। और वहाँ अपना साम्राज्य स्थापित करे?"

"बड़ी क्लिष्ट कल्पना करते हो प्रियतम। मेरा तो भीषण उत्ताप का यह विवरण सुनते ही दिल बैठ गया। यह तो मृत्यु से खिलवाड़ करना है।"

"परन्तु खतरा केवल यही तो नहीं है। और भी बाते है।"

"क्या ऐसी ही भयानक?"

"कदाचित् इससे भी अधिक।"

"वे बाते कौनसी है?" [ ५० ]"वे है सूर्य द्वारा विकीर्ण शक्तियाँ।"

"वे क्या है? क्या हम पृथ्वी पर रहने वाले प्राणी उनका अनुभव नहीं करते?"

"नहीं। सूर्य जितनी किरणे छोड़ता है, उनमे से बहुत कम पृथ्वी तक पहुँच पाती है। बहुत-सी किरणो को पृथ्वी तक पहुचने से प्रथम ही वायुमण्डल चूस लेता है। ऐसी ही एक अल्ट्रावायलेट किरण हे जो पूर्ण रूप से वायुमण्डल में समा जाती है। परन्तु वायुमण्डल के ऊपरी स्तर पर इन किरणो का विकिरण इतना घना है कि यदि वहाँ एक भी जीवित सेल पहुँच जाय तो तत्काल ही उसकी मृत्यु हो जायगी।"

"तब तो इन्हे एक प्रकार से मृत्यु किरण ही कहना चाहिए।"

"निस्सदेह, परन्तु प्रकृति का करिश्मा यह देखो कि कॉच का एक साधारण आवरण भी इन किरणो को पूर्ण रूपेण चूस लेता है।"

"और तुम तो उत्कृष्ट श्रेणी के स्टील और एल्यूमिनियम के प्रावरण मे सुरक्षित थे।"

"यही बात थी जिसने मेरी रक्षा कर ली। परन्तु जीवन की शत्रु केवल ये ही किरणे थोड़ी ही है, एक्स किरणे भी है। परन्तु इनसे भी रक्षा हो सकना कुछ कठिन नहीं। पर सबसे भीषण और प्रचण्ड घातक हे कास्मिक किरणे।"

"कास्मिक किरणो के सम्बन्ध में तो तुमने अपनी प्रयोगशाला में काफी अनुसन्धान किया है।

"वे मेरी नजर से ओझल थोड़ी ही थी। तुम्हे मालूम है कि मेरी इस अन्तरिक्ष यात्रा की तैयारी में सात बरस लगे जिनमे पूरे तीन बरस मैंने कास्मिक किरणो के अनुसन्धान में खर्च किए।"

"मैं तो तुम्हारे साथ ही इस अनुसन्धान में रही। मैं जानती कि ये अतिसूक्ष्म किरणे है और इनके सूक्ष्म कण विविध रासायनिक तत्वो के नाभिकेन्द्र होते है। इनमे अस्सी प्रतिशत हाइड्रोजन, नाभिकेन्द्र होते है परन्तु लोहे जैसे भारी तत्वो के नाभिकेन्द्र इसमे कम होते है।" [ ५१ ]"ऐसा ही है। अब इसमे बात यह है कि विभिन्न ऊँचाइयो पर इन किरणो का घनत्व एकसा नहीं होता। ज्यों ज्यों ऊँचाई बढ़ती जाती है, इनकी घनता भी बढ़ती जाती है। यहाँ तक कि पृथ्वी से १४० मील की ऊँचाई पर वह वायुमण्डल के निचले स्तर की अपेक्षा डेढ सौ गुना हो जाती है। किन्तु यह क्या? तुम्हारे संवेदन यन्त्र की लाल बत्ती कैसे जल उठी।"

"ओफ, कही कोई हमारी बाते सुन रहा है। जरा ठहरो, देखू तो।" इतना कहकर लिज़ा ने एक खास बटन दबाया और डायल की सुई तेजी से घूमकर एक स्थान पर रुक गई।

लिज़ा ने कहा--"नार्वे में कोई हमारी बात सुन रहा है।" उसने हैड फोन अपने कानो में लगा कर उसका सम्बन्ध यन्त्र से स्थापित किया। फिर उसने एक बटन दबाया और ध्यान से सुनने लगी। सुनते सुनते उसने कहा---"लन्दन आर न्यूयार्क दोनो ही स्थानो से उसका सम्पर्क स्थापित है। वह दोनो जगह संकेत भेज रहा है।" परन्तु इसी समय लालबत्ती बुझ गई। लिज़ा ने कहा--"लो, वह सावधान हो गया। परन्तु खैर, तुम कहो।"

"क्या फिर कोई अन्देशा तो नही है।"

"होगा तो हमे तुरन्त ज्ञात हो जाएगा। वह व्यक्ति भी हमसे छिपा न रहेगा।"

पृथ्वी और आकाश

"खैर, तो मैं कास्मिक किरणो के घनत्व की बात कह रहा था। इन किरणो का वेग भी बहुत प्रचण्ड है और प्रकाश किरणो के समान वह सर्वत्र दृष्टिमान हो सकता है। परन्तु अपने प्रचण्ड दुर्धर्ष वेग के कारण ये किरणे जिस किसी पदार्थ में प्रविष्ट होती हैं, उसी को छिन्न-भिन्न कर डालती है।"

"तो तुमने इनका कैसे सामना किया?"

"मैंने सुरक्षा की व्यवस्था प्रथम ही से कर ली थी। पर नहीं कह सकता हूँ कि सुरक्षा के बावजूद जो किरणे मेरे शरीर में घुस गई है, उनके क्या-क्या प्रवाछनीय परिणाम होगे।" [ ५२ ]"तुमने तो मुझे चिन्तित कर दिया।"

"चिन्ता की बात नहीं है। यदि मेरा जीवन इस यात्रा में समाप्त हो जाता तो भी मुझे सन्तोष था क्योंकि मैं अन्तरिक्ष और चन्द्रलोक की अत्यन्त महत्वपूर्ण सूचनाएँ केन्द्र को भेज चुका था।"

"क्या तुम बता सकते हो कि अन्तरिक्ष यात्रा की सबसे महत्वपूर्ण बात क्या है?"

"गुरुत्वाकर्षण।"

"किस दृष्टि से?"

"गति की दृष्टि से।"

"यह कैसे?"

"इस यात्रा में यह मेरा नितान्त नवीन और महत्वपूर्ण अनुभव रहा कि गति और गुरुत्वाकर्षण का प्राणी-शरीर पर गम्भीर प्रभाव पड़ता है।"

"यह तो मुझे भी मालूम है कि भू-उपग्रह अथवा अन्तरिक्ष विमान को अपने वृत्त पथ पर डालने के लिए गति वृद्धि का आश्रय लिया जाता है।"

"हॉ, परन्तु यह गति वृद्धि विमान में बैठे हुए प्राणी के शरीर के पैरो से सिर की ओर हो तो प्राणी शरीर का रक्त शरीर के निचले भाग की ओर आकर इकठ्ठा होने लगेगा और ज्यों ज्यों गति वृद्धि होगी, रक्त का यह निम्न संचय भी बढ़ता जायगा और इसका परिणाम यह होगा कि प्राणी के स्नायुमण्डल में अव्यवस्था उत्पन्न हो जायगी। और पहले वह बेहोश हो जायगा फिर उसी अवस्था में उसकी मृत्यु हो जायगी।"

"तब तो यह नितान्त आवश्यक है कि उन अन्तरिक्ष यानो तथा भू-उपग्रहो की गति की दिशा निश्चित रूप में प्राणी-शरीर के समानान्तर न रखकर लम्ब रूप में रखी जाय।"

"बेशक। परन्तु इतना ही यथेष्ट न होगा। हमें कवच में भी ऐसी व्यवस्था करनी आवश्यक है कि वह कवचधारी के शरीर-रक्त को एक स्थान पर एकत्र न होने से रोके।"

"तो तुमने यह व्यवस्था अपने कवच में कर रखी थी?" [ ५३ ]"नहीं की होती तो क्या में आज जीता जागता तुम्हारे सामने बैठा होता?"

"परन्तु तुमने इस सम्बन्ध में मुझे कुछ नहीं बताया था। न इसकी चर्चा उस दिन वैज्ञानिको की सभा में की थी।"

"किन्तु मैंने प्रो०--से परामर्श करके एक यन्त्र ऐसा ही लगा लिया था---वास्तव में यह एहतियातन कार्रवाई की गई थी। वास्तविक स्थिति का पता तो अन्तरिक्ष में जाने ही से लगा।"

"ओफ, कितना खतरा उठाया तुमने, मैं तो अब भी जब सोचती हूँ तो भय से काँप उठती हूँ। तुम नहीं जानते कि मेरे ये उन्नीस दिन कैसी दुश्चिन्ता में बीते है। सच पूछो तो मैं इन उन्नीस दिनो में एक दिन भी नहीं सोई।"

"और यदि मैं यह कहू कि ये सब बाते भी मुझे ज्ञात होती रही और मैं कभी-कभी तुम्हे देखता भी रहा तो तुम क्या विश्वास करोगी?"

"नही करूँगी?"

"अच्छा, तुम्हे वह घटना याद है जब हागकाग के वायुयान अड्डे के भोजन गृह में तुम्हारे उस मित्र ने तुम्हारा चुम्बन लेने की चेष्टा की थी और एक करारा चपत खाया था। आवेश के कारण तुम्हारा पर्स उस समय नीचे गिर गया था।"

"माई लव, क्या तुमने यह घटना अपनी आँखो से देखी थी?"

"उसी भाँति, जैसे अब देख रहा हू। मगर अफसोस मेरा वह अत्यन्त महत्वपूर्ण यन्त्र उल्का के धक्के से टूट गया।"

"क्या तुम्हे उल्का का धक्का भी लगा? और जीवित बच भी गए?"

"जीवित बच क्या गया। उसी धक्के की बदौलत तो आज मैं जीवित पृथ्वी पर लौट सका। नहीं तो कोई आशा ही नहीं रही थी।"

"अच्छा? यह तो बड़ी ही अद्भुत बात है। यह कैसे हुआ भला?"

"अभी मैं तुम्हे यह बात भी बताऊँगा कि सारा ही विज्ञान का [ ५४ ]चमत्कार जब व्यर्थ हो गया तो इस देवी चमत्कार ने ही मुझे फिर से पृथ्वी पर पहुँचा दिया?"

"तुम्हारा मतलब है कि उल्का की टक्कर से?"

"बेशक। उस चमत्कारिक घटना की बात तो मैं तुम्हे अभी बताऊँगा पहले गति के सम्बन्ध में जो मुझे नए अनुभव हुए वह सुन लो।"

अभी जोरोवस्की ने कहने को मुँह खोला ही था कि फिर अकस्मात् लाल बत्ती जल उठी। लिज़ा ने कहा--"लो, फिर कोई हमारी बाते सुनने लगा। ठहरो, देखती हू।"

उसने बटन दबाया। डायल की सुई ज़रा सी काप कर स्थिर हो गई।

"अच्छा, तो ये तो वही महाशय है जो अभी हमारे साथ भोजन कर रहे थे। कौन नम्बर है उनके कमरे का?" लिज़ा ने डायरी पर नज़र डाली। "३९, ठीक है। हागकाग में चपत खाई थी, एक चपत यहाँ भी सही।" उसने कोई एक तार दूसरे तार से छुआ दिया। क्षण भर के लिए एक तीव्र प्रकाश से कमरा आलौकित होकर अन्धकार में डूब गया। लालबत्ती भी बुझ गई।

"यह तुमने क्या किया लिज़ा, इतना भारी शाक लगा होगा उस गरीब को कि अजब नही, मर ही जाय।"

"मरने दो कम्बख्त चोर को। मगर है वह सख्त जान। उस दिन मेरा तमाचा खाकर ही नहीं मरा तो अब भला क्या मरेगा।" लिज़ा ने इठलाकर कहा, "हाँ, कह चलो तुम। अब कोई नहीं सुन रहा।"

"मैं यह कह रहा था कि गति यदि एक समान रहे तो उसका जीवन कोषो पर कोई प्रभाव नही पड़ता। पर ज्यों ज्यों ऊपर अन्तरिक्ष में यान का वेग बढ़ता जाता है, प्राणी के शरीर का रक्तचाप बढ़ता जाता है, और वह अपना शरीर का नियन्त्रण खो देता है।"

"इसका आभास तो हमे साधारण वायुयान में ही मिल जाता है। कमजोर स्नायु के लोग तो उसी में अपना सन्तुलन खो देते हैं और वमन करने लगते है।" [ ५५ ]"परन्तु असाधारण वेग और पृथ्वी से सैकड़ों मील ऊपर का वायु- मण्डल, गति और गुरुत्व का प्रभाव ऐसा है कि प्राणी अपने शरीर पर नियन्त्रण रख ही नहीं सकता। ऐसी अवस्था में एकमात्र उपाय यही है कि पृथ्वी पर ही वैद्युतिक और रेडियो उपसाधनो से यान और आरोही प्राणी के शरीर का सन्तुलन और नियन्त्रण किया जाय। मुझे यद्यपि इस बात का पूरा आभास नहीं था और गुरुत्वाकर्षण के सम्बन्ध मे मेरी प्रो०--से काफी बहस हुई थी परन्तु वस्तुस्थिति का पता न मुझे था न प्रोफेसर को। हम केवल कल्पना और अनुमान के आधार पर ही कुछ प्रबन्ध कर पाए। जो मेरे बहुत काम आया।"

"मुझे याद आता है, तुमने कुछ क्षणों के लिए गुरुत्वाकर्षण शून्य स्थिति पैदा करके उसमे वह समय व्यतीत किया था।"

"हाँ, मैं यह देखना चाहता था कि गुरुत्वाकर्षण शून्य स्थिति की प्राणी शरीर पर कैसी प्रतिक्रिया होती है। परन्तु यह तो मुझे ऊपर जाकर ही पता लगा कि क्षणिक काल की बात तो जुदा है परन्तु लम्बे काल के लिए गुरुत्वाकर्षण शून्य स्थिति की प्रतिक्रिया सर्वथा भिन्न ही है और इतने लम्बे उड़ानों में उसी की अनिवार्य आवश्यकता है।"

"यह तो स्पष्ट ही है कि हमारे शरीर की सारी ही अंग संचालन की क्रिया पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण की प्रतिक्रिया मात्र है।"

"निस्सदेह। बॉह को ऊपर उठाना, पैर को आगे बढ़ाना, खड़ा होना, आदि प्रत्येक शरीर संचालन सम्बन्धी क्रियायो में हमे पेशियो के द्वारा जो शक्ति लगानी पड़ती है, यदि गुरुत्वाकर्षण न हो तो वह शक्ति बहुत अधिक लगानी पड़ेगी। गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से हम अपनी बाँह को आसानी से नीचे कर लेते है परन्तु जहाँ गुरुत्वाकर्षण नहीं है, वहाँ ऐसा नही कर सकते। उसके लिए भी हमे उतनी ही शक्ति खर्च करनी पड़ेगी जितनी बॉह के उठाने के लिए। ऊपर जाकर मुझे एक यह रहस्य भी मालूम हुआ कि ज्यादातर शरीर गुरुत्वाकर्षण शून्य स्थिति के अनुकूल अपने को आसानी से कर सकता है। परन्तु एक बात है कि गुरुत्वाकर्षण शून्य स्थिति जीवकोषो के व्यवहार, [ ५६ ]श्वास प्रश्वास, रक्त-संवहन, शरीर के तापमान आदि पर प्रभाव डालती है, इस कारण रक्तचाप भी नीचा हो जाता है।"

"परन्तु क्या गति वृद्धि से जीवकोषो में गैसो का विनिमय नहीं बढ़ता?"

"बहुत बढ़ता है। गति वृद्धि के साथ ही साथ जीवकोषो में प्राणवायु की अधिकाधिक ग्रहण करने की प्रवृत्ति हो जाती है। साथ ही कार्बन डाइआक्साइड को अधिकाधिक छोड़ने की भी।"

"उसी भॉति कि जब हम दौड़ लगाते है तो जल्दी जल्दी श्वास लेते और छोड़ते है। इससे प्राणवायु का अधिक ग्रहण और कार्बोडाइआक्साइड का अधिक विसर्जन हम करते है।"

"बिल्कुल यही बात है। परन्तु गुरुत्वाकर्षण के अभाव में यह विनिमय कम हो जाता है। शुरू में यह विनिमय कुछ द्रुत रहता है, पर ज्यों-ज्यों जीवकोषो में गुरुत्वाकर्षण शून्य स्थिति का अभ्यस्त होने लगता है, त्यों त्यों विनिमय की यह द्रुतं गति मन्द पड़ने लगती है।"

"यह भी कुदरत का अद्भुत करिश्मा है। ऐसा न हो तो प्राणी हाँफते हॉफते मर न जाय।"

"मैने तो कुदरत के ऐसे करिश्मे देखे कि हमारा सारा ही विज्ञान ज्ञान का गर्व खर्व हो गया।"

"परन्तु प्रिय, तुम्हारा जीवित सही सलामत लौट आने का करिश्मा ही मुझे तो प्रकृति का सबसे बड़ा करिश्मा प्रतीत होता है।"

"बिल्कुल सच है मेरी प्यारी लिज़ा, हमारा विज्ञान तो अभी प्रकृति के गम्भीर रहस्यो को कुछ भी नहीं जानता।"

"खैर, तो अब तुम अपनी यात्रा का विवरण सुनाओ।"

"मैंने तुम्हे बताया कि ज्यों ही मेरा राकेट यान वायुमण्डल के उस पार पहुँचा, सारा कष्ट जाता रहा। असह्य उत्ताप तत्क्षण समाप्त हो गया। अब अद्भुत अनदेखे अकल्पित अन्तरिक्ष के क्षण-क्षण पर बदलते हुए चित्र मेरे नेत्रो के सम्मुख थे। मैं यद्यपि इस्पात और एल्युमिनियम के आवरण में बन्द था, परन्तु छविपट पर चारो ओर के दृश्य सिनेमा के चित्रो की भाँति [ ५७ ]आते जाते थे। चारो ओर अनन्त गहन नीलाम्बर, जिनमे बिखरे हुए अनगिनत नक्षत्र। जिनकी ज्योति और आकृति के सम्बन्ध में हम पृथ्वी पर रहकर कुछ भी नहीं जान पाते थे। पृथ्वी पर तो वायुमण्डल तथा धूल के कारण तीन चौथाई नक्षत्र तो हम देख ही नहीं पाते और जिन्हें देख पाते है, उनका स्वरूप प्रकाश-परावर्तन के कारण सर्वथा ही बदला रहता है।"

पृथ्वी की कक्षा में

अब मैं पृथ्वी से बारह हजार मील ऊपर जाकर भूमण्डल के चारो ओर चक्कर लगा रहा था। और मुझे पृथ्वी से चले पूरे नौ घण्टे हो चुके थे। मास्को की वेधशाला से बराबर मेरा सम्बन्ध कायम था, और हमारे सन्देशो का आदान प्रदान होता जाता था। मैं अब वायुमण्डल के भीषण संघर्ष से बच गया था। इसके लिए मुझे मास्को से वधाई के सन्देश दिए जा रहे थे। और मैं क्षण-क्षण पर बदलते हुए दृश्यो और परिस्थितियो के चित्र और विवरण मास्को भेज रहा था। वाह! कैसे अनदेखे दृश्य थे---पृथ्वी का चमकता हुआ गोला जब सामने आता था, तो महासागरो का अथाह जल पिघली हुई चाँदी का अनन्त विश्व सा लग रहा था। पृथ्वी के आकर्षण से बद्ध वह तरल जल सागर सघन पिण्ड सा लग रहा था। जब रात सामने आती थी, तब पृथ्वी का भीषण काला स्वरूप अनिर्वचनीय लगता था। प्रतिदिन बारह बार पृथ्वी का दिन और बारह रात देख रहा था। पृथ्वी से मैं बारह हजार मील के अन्तर पर था पर पृथ्वी के समुद्र पर्वत मैदान मेरे सामने से तीर की भॉति निकल रहे थे। परन्तु दूसरी ओर मेरे पास ऐसी टेलीवीजन व्यवस्था भी थी कि मैं पृथ्वी के चाहे भी जिस भीतरी भाग का प्रत्यक्ष दर्शन कर सकता था। मैंने दिन में कई बार तुम्हे देखा, प्रोफेसर को भी देखा। परन्तु मुझे अवकाश एक क्षण का भी न था। मुझे अनगिनत यन्त्रो पर नियन्त्रण रखना पड़ रहा था। सन्देश भेजने, ग्रहण करने, फोटो उतारने, ताप, दूरी और हवा के दबाव नापने पड़ते थे। मेरा प्रत्येक क्षण व्यस्त और सन्तुलित था। इस प्रकार पूरे बारह दिन मैं पृथ्वी की कक्षा मे पृथ्वी से समानान्तर १३ हजार मील के अन्तर पर घूमता रहा। [ ५८ ]"क्या तुम बिल्कुल स्वस्थ और ठीक होश हवास में थे और शून्याकाश में तुम्हे कुछ भी असुविधा न थी?"

"न, मेरी हालत ठीक वैसी ही थी जैसी माता के गर्भ मे शिशु की होती है। न तो अब मुझे श्वास प्रश्वास लेना पड़ता था क्योंकि वायु तो वहाँ थी ही नहीं। रक्षा कवच में सुरक्षित द्रव प्राणवायु थोड़ी थोड़ी गैस बनती जाती थी और शरीर के रोम कूप उसे चूसते जाते थे।"

"क्या तुम्हारे फेफड़े बिल्कुल काम नहीं कर रहे थे?"

"बिल्कुल नहीं। रक्त का अभिसरण भी बहुत धीमा था और शीतोष्ण का तो मुझे कुछ पता ही नहीं लगता था। पर मेरे स्नायु काम कर रहे थे और मेरा मस्तिष्क ठीक-ठीक सब परिस्थितियो की विवेचना कर रहा था।"

"लेकिन भोजन?"

"भूख-प्यास तथा मलमूत्र विसर्जन की मुझे आवश्यकता ही नहीं थी। शरीर में फालतू कोई पदार्थ जाता ही न था। तुमको तो ज्ञात ही है अन्तरिक्ष यात्रा से तीन दिन प्रथम ही मैंने भोजन त्याग दिया था।"

"हाँ, हा! तुम केवल एनर्जी फूड और विटामिन्स ले रहे थे।"

"हारमन्स भी मैंने लेना आरम्भ वही कर दिया था। सच पूछो तो यह बात मेरे लिए अत्यन्त लाभकारी प्रमाणित हुई।"

"तो तुमने इस यात्रा में भोजन किया ही नही?"

"न, केवल हारमोन ग्रन्थियो ही की प्रतिक्रिया से मुझे जीवन और शक्ति मिलती रही।

"यह तो बड़ी ही अजीब बात है। चिकित्सा शास्त्र भी शायद इसका अनुमोदन न करे।"

"कैसे करेगा। चिकित्सा शास्त्र के रचयिताओ को अन्तरिक्ष यात्रा थोड़ी ही करनी पड़ी है। बस, मेढक और खरगोशो को चीर फाड़ कर ही वे अपना निर्णय कर बैठे है।" [ ५९ ]"तब तो तुम चिकित्सा शास्त्र के लिए भी एक नया अध्याय लाए हो?"

"क्यो नही। यह निश्चित है कि हमारे शरीर की रचना अन्तरिक्ष में रहने योग्य नहीं है। भूमण्डल के वायुमण्डल के अनुरूप ही वह है। परन्तु शरीर की जो जीवन क्रिया है, वह किसी भी वातावरण के अनुरूप हो जाती है। शरीर में ऐसी व्यवस्था है। क्या यह विज्ञ संसार के लिए एक सर्वथा अभूतपूर्व, अद्भुत और विश्वास के अयोग्य बात नहीं है कि मैं कहूँ कि मैने आज उन्नीस दिन में भू स्पर्श करने के बाद प्रथम बार श्वास लिया है।"

"निस्सदेह अविश्वसनीय बात है।"

"पर शरीर में श्वास की व्यवस्था प्रथम से ही है। गर्भस्थ शिशु माता के गर्भ में श्वास कहाँ लेता है।"

"तब तो अन्तरिक्ष के निवासियो को फेफड़े की आवश्यकता ही नहीं है।"

"मेरी प्यारी लिज़ा, क्या तुम मछलियो को नही देखती जो जल में श्वास लेती ही नहीं। फेफड़ा उनके है ही नही।"

"वाह वाह, तब तो हमे अन्तरिक्ष में स्थायी रूप से रहने के लिए अपने जीवन मे बहुत कुछ परिवर्तन करना पड़ेगा।"

"बेशक, और कई पीढियो तक यदि हम अन्तरिक्ष में रहे तो हमारे शरीर की बनावटो में भी काफी परिवर्तन हो जायगा।"

"खैर, तुम अपनी दिलचस्प कहानी आगे सुनाओ।"

"अब मुझे पृथ्वी से चले चौदहवाँ दिन था और मैं पृथ्वी की कक्षा से छुटकारा पाने का यत्न कर रहा था। अब मैंने आगे बढ़ने का भयानक संकल्प किया। यह एक ऐसा दुस्साहस था कि उस वेग के ताप ही से मैं भस्म हो सकता था। मैंने यन्त्र का तीसरा राकेट छोड़ा। दस हजार टन का धक्का हमें लगा और मैं पृथ्वी की कक्षा को छोड़कर शून्य मे उड़ चला। अन्धकार [ ६० ]और प्रकाश तथा प्रभात मध्याह्न सन्ध्या वहाँ थी ही नहीं। केवल घड़ी की सुई मुझे समय का ज्ञान करा रही थी। मेरे विमान में बीस हजार मील तक की यात्रा का ईधन था। बीस हजार मील की यात्रा अब पूरी हो रही थी। अब मेरे लिए नए संकट की घड़ी उपस्थित थी जिसका हल हम पृथ्वी पर नहीं कर सके थे।"

"वह संकट कैसा?"

"यह कि जब ईंधन चुक जायगा, तब क्या होगा। अधिक से अधिक ईंधन हम जितना साथ रख सकते थे, रख लिया था। इस संकट काल के लिए, मेरे पास एटामिक एनर्जी ही थी। मैं ठीक नही समझ सकता था कि एटामिक एनर्जी के प्राथमिक धक्के को मेरा विमान सह भी सकेगा। अतः ज्यों ही ईधन समाप्त होने लगा और मैं एटामिक एनर्जी का बटन दबाना चाहता ही था कि अकस्मात् ही मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि किसी अज्ञात शक्ति ने मेरे विमान को वेग से दूसरी दिशा में उछाल दिया है। मैं भय से सिहर गया। मैंने सोचा, कही किसी नक्षत्र से मेरा विमान टकरा तो नहीं गया। परन्तु अभी तो नक्षत्र मण्डल हमसे दूर थे। मैंने सब यन्त्रो पर एक उड़ती नजर डाली। यन्त्र सब काम कर रहे थे। पर ज्यों ही मैंने गतिसूचक घड़ी की ओर देखा, मेरा रक्त ठण्डा हो गया।"

"क्या हुआ?"

"ईंधन बिल्कुल बन्द था और विमान का इजिन भी बन्द था, पर मेरा यान अब बदली हुई दिशा में बीस हजार मील प्रति घण्टा की भीषण गति से उड़ा चला जा रहा था। कुछ ही मिनटो में गतिमापक यन्त्र बेकाम हो गया। वह केवल २५ हजार मील प्रति घण्टा ही नाप सकता था। अब तो हमारी सारी ही पूर्व गणनाएँ सावधानी और कार्यक्रम व्यर्थ हो रहे थे। मेरा यान मेरे अधिकार और नियन्त्रण से परे था। परन्तु मास्को से मेरा सम्बन्ध स्थापित था। सघर्षहीन शून्य अन्तरिक्ष में मेरा विमान दुर्घर्ष अप्रतिहत

गति से बहा जा रहा था। भयानक वेग से। परन्तु मुझे मानसिक घबराहट के अतिरिक्त कोई कष्ट न था। [ ६१ ]

चन्द्रलोक में

इसी समय अकस्मात् मुझे मास्को केन्द्र से सूचना मिली कि मैं इस समय पृथ्वी से दो लाख मील अन्तरिक्ष में हूँ। और मुझे सावधान हो जाना चाहिए क्योंकि अब चन्द्रलोक के आकर्षण क्षेत्र में प्रविष्ट होने में विलम्ब नहीं है। इस समय मेरी उत्कण्ठा का क्या ठिकाना था। मानव इतिहास की अनहोनी घटना घटित हो रही थी और मेरे ही भाग्य मे वह पुरुष होना लिखा था जिसके चरण प्रथम बार चन्द्रलोक को स्पर्श करने वाले थे। अकस्मात् मेरे यान को एक धक्का लगा मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरा यान किसी चट्टान से जा टकराया। पर दूसरे ही क्षण यान अपनी गति बदलकर तीव्र गति से चल दिया। वास्तव में मैं अब चन्द्रमा की कक्षा में घूम रहा था।

एक बार मैंने अपने यान के सभी यन्त्रो पर दृष्टि डाली। सभी यन्त्र निश्चल निश्चेष्ट थे। केवल रेडियो सूचनाये बाराबर मास्को से आ जा रही थी। मैं जानता था कि चन्द्रलोक पृथ्वी से दो लाख अड़तालीस हजार मील दूर है। इस हिसाब से तो मैं अब चन्द्रलोक के निकट ही पहुँच गया था पर इस कक्षा से मैं कैसे निकलू यह नही समझ रहा था। अकस्मात ही यह देखकर मेरे आश्चर्य की सीमा न रही कि यान के सब यन्त्र फिर यथावत् चलने लगे थे। गति सूचक यन्त्र भी बता रहा था कि अब मेरा यान १२-१३ सौ मील से भी कम गति से बिल्कुल ठीक-ठीक चल रहा था। हकीकत यह थी कि मैं अब चन्द्रलोक के आकर्षण क्षेत्र में प्रविष्ट हो रहा था। इसी समय दृष्टिपट पर चन्द्रमा स्पष्ट दीख पड़ने लगा। अब मेरे यान की दिशा भी बदल रही थी। और वह धीरे-धीरे चन्द्रलोक में उतर रहा था। शीघ्र ही उसकी गति आठ सौ सात सौ मील प्रति घन्टा रह गई। यान पर मेरा अब पूरा कन्ट्रोल था।

ज्यों ही मैंने यह सूचना मास्को भेजी, वहाँ से मुबारकबादियो और सलाह मशवरो का ताता बँध गया। शीघ्र ही शून्य में आलोक बढ़ने लगा और चन्द्रलोक के पर्वत शृङ्ग, मृत ज्वालामुखियो के गह्वर, मीलो चौड़े [ ६२ ]पहाड़ी पठार और पहाड़ी दर्रे मेरे सम्मुख आने लगे। इस समय रेडियो चालित छः सात कैमरे तेजी से काम कर रहे थे। सैकड़ों चित्र सीधे मास्को जा रहे थे और वहाँ से उत्सुक आवाजे मेरे कानो में पड़ रही थी।

परन्तु यह क्या? जिस चन्द्रमा को सुमुखी के सुन्दर मुख का प्रतीक माना गया है, कवि लोग जिसे अपनी काव्योपमा का माध्यम मानते है, जिसकी शीतल चॉदनी नेत्रो को आप्लावित कर देती है, उस चन्द्रमा का यह कैसा रूप? काली काली बेढङ्गी उजाड़ वीरान पहाड़ियो के उच्च शृङ्ग, सूखे हुए समुद्रो के अथाह गह्वर, और अनन्त तक फैली हुई छोटी बड़ी चट्टाने।

परन्तु अब तो मैं चन्द्र लोक में उतर रहा था। ओर एक बार फिर भयानक खतरा मेरे सम्मुख था। अब मैं चन्द्र धरातल पर उतरूँ कैसे? यदि मेरा यान किसी पहाड़ी से टकरा कर चकनाचूर हो गया तो? यदि इनमे से कोई पहाड़ी चुम्बक पत्थर की निकल आई तो? चन्द्रमा के पूर्ण होने पर पृथ्वी में ज्वार आता है। यह ज्वार क्या है? क्या उस दिन चन्द्रमा की कोई चुम्बकीय पर्वत श्रृंखला तो पृथ्वी के सामने नही आ जाती। सब बाते बड़ी तेजी से मेरे मस्तिष्क में घूमने लगी।

"ठहरो, चन्द्रमा पृथ्वी के चारो ओर एक मास में चक्कर लगाता है न?"

"कुछ कम एक मास में।"

"ठीक है। वह अपनी धुरी पर भी पृथ्वी की तरह घूमता है।"

"हॉ, परन्तु इसमे उल्लेखनीय बात यह है कि जब पृथ्वी अपनी धुरी पर लगभग २४ घण्टे में एक बार घूमती है, तब चन्द्रमा को अपनी धुरी पर एक बार घूमने में प्राय एक मास लगता है।"

"इससे तुम्हारा क्या अभिप्राय है?"

"यह कि चन्द्रमा का अपनी धुरी पर घूमने का और पृथ्वी की एक परिक्रमा करने का समय एक ही है?"

"तो इसका अभिप्राय यह कि चन्द्रमा का अपनी धुरी पर घूमने तथा [ ६३ ]पृथ्वी की परिक्रमा करने का एक ही समय होने के कारण चन्द्रमा का एक ही रुख सदा पृथ्वी के सामने रहता है। उसके दूसरे रुख पर क्या है, यह बात आज तक पृथ्वी के किसी वैज्ञानिक को ज्ञात नहीं हुई।"

"निस्सन्देह। खगोलशास्त्रियो ने हिसाब लगाया है कि चन्द्रमा का केवल ५९।१०० भाग ही अभी तक देखा गया है और ४१।१०० भाग में क्या है, इसे विश्व का कोई पुरुष नहीं जान पाया।"

"यही बात है। और अब मेरी प्यारी लिजा, तुम मुझे मुबारकवाद दो कि मैं उसी अज्ञात रहस्यपूर्ण चन्द्रलोक के भाग पर पूरे २२ घन्टे रहकर देख आया हूँ और उस स्थान के सैकड़ों चित्र मैंने लिए है। तथा मनुष्य के चर्म चक्षुओ से कभी न देखे गये दृश्य मैंने देखे है।"

"ओफ ओ, प्यारे जोरोवस्की, तुम तो मुझे ऐसी आश्चर्यजनक बात बता रहे हो कि जिस पर एकाएक विश्वास नहीं होता।"

"परन्तु मेरी प्यारी लिजा, मैं जो कुछ कहता हूँ, वह अक्षरश सत्य है।"

"परन्तु जैसा कि हम पृथ्वी के निवासियो का विश्वास है कि चन्द्रलोक में न वायु है, न जल। तथा वहाँ कोई जीवधारी भी नहीं है। क्या यह सत्य है?"

"पृथ्वी के निवासियो को विश्वास और कल्पना का आधार तो पृथ्वी की परिस्थितियाँ ही है। उन्होने कभी चन्द्रलोक में जाकर कुछ देखा भाला थोड़े ही है।"

"सच कहते हो! खैर, तुम अपनी कहानी कहो।"

"हाँ तो जब मेरा यान चन्द्रलोक के निकट पहुँचा तो मुझे इस बात की चिन्ता हुई कि मैं अब उतरूँ कहाँ। कोई निरापद स्थान तो नजर ही नहीं आता था और प्रतिक्षण मुझे अपने यान का किसी गगनचुम्बी चट्टान से टकराने का भय हो रहा था। परन्तु मैंने मास्को से रवाना होने से प्रथम ही इस खतरे पर विचार कर लिया था तथा, मुझे इसका उपाय भी सूझ गया था और मैंने अपने विमान के अग्रभाग में कई छोटे-छोटे उल्टे राकेट लगा दिए [ ६४ ]थे जो ऐसी स्थिति में सीधे उतरने की अपेक्षा तिरछे उतरने में सहायक होते थे। मैंने तुरन्त राकेट छोड़ने आरम्भ कर दिए और हमारा विमान तिरछी दिशा में चन्द्रलोक के ऊपर उपयुक्त स्थान की तलाश में घूमता रहा। कई बार हम चट्टानो से टकराने से बाल-बाल बचे। उतरने योग्य स्थान की तलाश में मैंने सैकड़ों मील का चक्कर लगा डाला। परन्तु मुझे कही भी उपयुक्त समतल मैदान नहीं मिला। जैसी ऊबड़-खाबड़ भूमि वहाँ थी, वहाँ उतरना मृत्यु के मुख में जाना था। अपनी कठिनाई मैंने मास्को केन्द्र को सूचित कर दी, परन्तु वे बेचारे मेरी वहाँ क्या मदद कर सकते थे। मैं हिम्मत बाँधकर स्थान की तलाश में तिरछा उड़ा चला जा रहा था कि अकस्मात् ही एक अप्रत्याशित घटना हो गई। क्षण भर ही में हमारा विमान घोर अन्धकार में डूब गया। सूर्य का तीव्र प्रकाश एक क्षण में ही गायब हो गया। मेरी दशा ऐसी थी कि जैसे पहाड़ी मार्ग में जाती हुई ट्रेन अकस्मात् किसी लम्बी सुरङ्ग में घुस जाय, और यात्री गहन अन्धकार में डूब जाय। यह गहन अन्धकार भी गहनतम था और इसका कही आदि अन्त न था।"

"ओहो, तो तुम चन्द्रलोक में उस अज्ञात भाग में जा पहुँचे जिसके सम्बन्ध में पृथ्वी के मनुष्यों को कुछ भी ज्ञात नहीं है और जो सदैव पृथ्वी से छिपा रहता है।"

"हाँ, यही तो हुआ। पर मेरी तो सारी हिम्मत ही समाप्त हो गई। और मैंने समझा कि बस, अब मृत्यु में विलम्ब नहीं है। मेरी सामर्थ्य अब इतनी भी नहीं रही कि मैं यान को अपने काबू और नियन्त्रण में रख सकूँ। उस क्षण का भला मेरी प्यारी लिज़ा, मैं तुमसे कैसे वर्णन करूँ? बस, तुम्हारी स्मृति मेरे मस्तिष्क में थी और मेरा हाथ मेरे हृदय पर, जहाँ तुम्हारी तस्वीर सुरक्षित थी। मैंने पृथ्वी को और जीवन को नमस्कार किया। तुम जानती हो कि मैं सदैव अपने विज्ञान ज्ञान के घमण्ड पर ईश्वर की हँसी उड़ाता था परन्तु उस क्षण जब मैंने मृत्यु को अपनी ओर हाथ बढ़ाते देखा तो मेरा मस्तिष्क ईश्वर के अज्ञात चरणो में झुक गया। अब मैं मास्को केन्द्र को भी संकेत भेजने के योग्य नहीं रह गया था। मेरी चेतना धीरे-धीरे लुप्त हो गई और मैंने जाना कि मेरी मृत्यु हो गई।" [ ६५ ]लिजा ने काँपते हाथो से जोरोवस्की का हाथ पकड़ लिया और एक सिसकारी उसके कण्ठ से निकल पड़ी। फिर वह जोरोवस्की की गोद में गिरकर फफक-फफक कर रो पड़ी।

आगे की बाते

जोरोवस्की ने लिज़ा को हृदय से लगाकर कहा---"वाह, यह क्या? तुम तो एक बहादुर लड़की हो। फिर मैं तो अब जीता जागता तुम्हारे सामने ही मौजूद हूँ।"

"ओह मेरे प्यारे, कितनी भयानक बात है। कोई इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता।"

"सच है, पर आगे का किस्सा तो सुनो।"

"निश्चय ही वह इससे अधिक भयंकर नहीं होगा।"

"वाह, भय के बाद ही तो आशा का आगमन होता है।"

"खैर, कहो।"

"होश में आकर मैंने देखा कि मेरा यान ठोस भूमि पर टिका हुआ है। यद्यपि वह जरा तिरछा था और उसकी अगली नोक जमीन में धस गई थी, पर यान को कोई हानि नही पहुँची थी। मास्को के बैचेन संदेश आ रहे थे। वे कह रहे थे--जोरोवस्की जोरोवस्की क्या बात है? क्या तुम हमे सुन रहे हो? हम मास्को से बोल रहे है, तुम्हारे विमान की आवाज हमे नही आ रही है। गति-सूचक सुई बन्द है। क्या तुम अब कही टिक गए हो। लेकिन तुम बोलते क्यों नहीं, जोरोवस्की, जोरोवस्की, बोलो-बोलो।"

"आखिर मेरा स्वर फूटा--मैंने कॉपते स्वर मे कहा--प्रोफेसर, मैं सही सलामत इस समय चन्द्रलोक पर उतर गया हूँ।"

प्रयत्क्ष ही आनन्द और हुर्रा की ध्वनि मेरे कानो में पड़ी। तोपो की गड़गड़ाहट मैंने सुनी। आवाज आई--जोरोवस्की! दोस्त, हम खुशियाँ मना रहे हैं। हम तुम्हे १०१ तोपो की सलामी दे रहे है। क्या तुम हमे सुन रहे [ ६६ ]हो?' तोपो की गड़गड़ाहट मेरे कानो में आ रही थी। मैंने कहा--'सुन रहा हूँ दोस्तो। लेकिन मैं अभी विमान से बाहर नहीं निकल सकता। मैं नही जानता कि बाहर वायु हे या नहीं।"

"लेकिन अभी तो तुम्हारे पास काफी द्रव प्राणवायु है।"

"हाँ है। किन्तु मुझे एक भय है" मैने शंकित चित्त से कहा। आवाज आई--'क्या भय है?' आवाज प्रो० कुकाश्नि की थी। उनकी वाणी उद्वेग से कॉप रही थी। मैंने कहा--'आप है प्रोफेसर, मुझे भय यह है कि वायुमण्डल के अभाव में चन्द्रलोक के अन्तरिक्ष में कास्मिक किरणो का बहुल अस्तित्व न हो।"

प्रोफेसर ने अश्वासन देते हुये कहा---'घबराओ मत। अब तुम अपने को पृथ्वी की ऊँचाई से क्यो नापते हो। अब तो तुम एकदम चन्द्रमण्डल की भूमि पर हो वहाँ तल अन्तरिक्ष में कास्मिक किरणो की प्रथम तो सम्भावना ही नहीं है। फिर यदि हुई भी तो बहुत कम जिनका मुकाबिला करने की सामर्थ्य तुम में यथेष्ट है।"

"अब मुझे याद आया---हॉ, ठीक ही तो है। अब तो मैं चन्द्रलोक की भूमि पर हूँ। वायुमण्डल के निचले स्तर में कास्मिक किरणे अत्यल्प होती है। इससे मुझे कुछ ढाढस बँधा और मैंने अब यान से बाहर निकलने की तैयारी शुरू की।"

"जोरोवस्की, तुम तो सारे संसार के मनुष्यो से निराला काम कर रहे थे।"

"बेशक। और इसी भावना ने मुझे साहस दिलाया। कास्मिक किरणो से बचाव का तथा दूसरे सब आवश्यक प्रबन्ध करके मैंने साहस करके चन्द्रलोक की भूमि में चरण रखा।

"चन्द्रलोक का यह वह भाग था जिसे पृथ्वी के मनुष्य नहीं देख सकते थे। यद्यपि यहाँ इस समय सूर्य का प्रकाश न था किन्तु इसे सर्वथा अन्धकार भी नहीं कहा जा सकता था। शाम के झुटपुटे जैसा था जो कभी कम कभी अधिक होता रहता था। तापमान वहाँ का शून्य से भी सौ डिग्री नीचे था। [ ६७ ]मैंने साहस किया, और विमान का आवरण खोल दिया और चन्द्रलोक की भूमि पर पैर रखा। डरते-डरते मैं दस बीस कदम चला। मुझे कुछ भी असुविधा नहीं प्रतीत हुई। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे मैं साइबेरिया के भीतरी प्रान्तो में विचर रहा होऊँ। परन्तु मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वहाँ की जमीन में हमारी पृथ्वी ही की भॉति मिट्टी है।"

"तब तो अवश्य ही वहाँ वनस्पति और प्राणियो का आभास मिलना चाहिए।"

सुनती जाओ, मेरा रक्षा कवच मेरे अङ्ग पर था और मेरे जीवन की सारी ही क्रियाये उसी के द्वारा सम्पन्न हो रही थी। मुझे अपना सारा शरीर हल्का लग रहा था और चलने फिरने में मुझे कोई असुविधा नहीं हो रही थी। मैंने भूमि से मिट्टी उठाकर उसकी परीक्षा की। पहाड़ी इलाको में जैसी पथरीली भूमि होती है, वैसी ही भूमि राख मिली हुई वहाँ थी। लोग ठीक ही कहते है कि चन्द्रमा पृथ्वी से ही टूटा हुआ एक खण्ड है। अब यदि वहाँ पृथ्वी के समान वायुमण्डल भी है तब तो कुछ बात ही नहीं है। पृथ्वी के मनुष्य मजे में वहाँ रह सकते है। मैंने मिट्टी के कुछ नमूने वहाँ से संग्रह किए।

"चन्द्रलोक के उस भाग में इस समय ऐसा प्रकाश था जैसा सुबह या शाम का झुटपुटा प्रकाश होता है। अलबत्ता एक बात और यह थी कि उस प्रकाश मिश्रित अन्धकार में कुछ बेगनी झलक थी। हमारी पृथ्वी पर तो यह झलक स्वर्णिम या रक्तिम रहती है। परन्तु इसका कारण शायद यह था कि पृथ्वी पर सूर्य की सीधी किरणे आती है, परन्तु यहाँ चन्द्रलोक में तिरछी आ रही थी।

"एक और बात थी। यहाँ पृथ्वी पर जैसी हम क्षितिज रेखा देखते है, जहाँ पृथ्वी और आकाश मिलते नज़र आते है, वहाँ वह बात नहीं थी। मुझे ऐसा दीख रहा था जैसे दूर चारो ओर हल्के वसन्ती रंग का समुद्र लहरा रहा है। परन्तु वे लहरे ठीक लहरे जैसी न थी। कही तो ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे दूध पकाते समय उबाल-सा आता है। इसके अतिरिक्त ऊपर तक वैसे ही रंग के बादल से चारो ओर नजर आ रहे थे। जो विचित्र रीति से हिल डुल रहे थे। मैंने आगे बढ़ कर उसकी परीक्षा करनी चाही। पानी को [ ६८ ]चुल्लू में लेना चाहा परन्तु वहाँ पानी तो था ही नहीं। वह तो केवल गैस का समुद्र था।

मैंने दो सिलेण्डर वह गैस भी भर ली। गैस यह बहुत भारी थी तथा हमारे वैज्ञानिक ज्ञान से सर्वथा ही भिन्न थी।"

"लेकिन वहाँ तुम्हे भूख प्यास थकान नींद कुछ भी अनुभव नहीं हो रही थी?"

"बिल्कुल नही। परन्तु मैं नियत समय पर विमान में आकर निश्चेष्ट पड़ रहा था। मैं नही कह सकता कि वह नींद कही जा सकती है या नहीं। परन्तु उस समय भी मेरा मस्तिष्क काम करता रहता था। जैसे मैं स्वप्न देख रहा होऊँ। रह रह कर एक प्रकार के हल्के धक्के मेरे यान को लग रहे थे जैसे हल्का सा भूचाल आया हो। भूख प्यास का तथा मल-मूत्र उत्सर्ग का कोई प्रश्न ही न था। वैज्ञानिक उपकरणो द्वारा हारमोन और उनके विटामिन्स मेरे शरीर को कवच द्वारा ही प्राप्त हो रहे थे। वायु में श्वास लेने की मुझे आवश्यकता ही न थी। सबसे बड़ी बात यह थी कि थकान जैसी किसी वस्तु का मुझे आभास ही नहीं हो रहा था। परन्तु मैं ठीक समय पर विश्राम करता और फिर खोज के लिए निकल पड़ता था। रेडियो और टेलीविजन सम्पर्क मास्को से कायम था। परन्तु सूचनाए अब कभी कभी स्पष्ट नहीं होती थी। ऐसा प्रतीत होता था जैसे खूब गहरे कुए से कोई बोल रहा है। शायद वहाँ मास्को में भी मेरी आवाज़ स्पष्ट नहीं सुनी जाती थी। वहाँ से संकेत पाकर बार बार मुझे दुहराना पड़ता था। प्रोफेसर अब मुझे वापस पृथ्वी पर लौटा लाने के लिए बहुत व्यग्र हो रहे थे। मैं अब यहाँ से कैसे लौटूगा, इसका हल न मेरे पास था, न उनके पास। सदा के वायु शून्य इस चन्द्रलोक में मैं कब तक इस तरह कृत्रिम रीति पर बिना आहार-विहार के जीवित रह सकता था। कभी-कभी यह उलझन मुझे भी परेशान कर देती थी।

चन्द्रलोक में तीन दिन

अकस्मात् ही मुझे अपने यान में एक हरकत मालूम हुई और वह चन्द्रलोक के धरातल से एकबारगी ही ऊँचा उठ गया। यान का कोई यन्त्र [ ६९ ]काम नहीं कर रहा था और हमारे यान को जैसे कोई डोरा पकड़ कर खींच रहा था। मैं एकदम बौखला गया। परन्तु इसी समय मुझे प्रोफेसर की आवाज सुनाई दी--जोरोवस्की, जोरोवस्की, इस वक्त पृथ्वी पर समुद्र में ज्वार आ रहा है। तुम क्या वहाँ कुछ विचित्रता अनुभव करते हो? मैंने चीखकर कहा--प्रोफेसर, मैं किसी आकर्षण से खिचा चला जा रहा हूँ। जिस पर मेरा काबू नहीं है। परन्तु मैं अन्धकार से प्रकाश मे रहा हूँ।"

और सचमुच मैंने देखा कि मेरे चारो ओर उज्ज्वल सूर्य का प्रकाश फैला हुआ था। एक स्थान पर आकर मेरा यान फिर वहाँ के धरातल पर टिक गया। मैं बाहर आया। बड़ी अजीब बात थी कि मैं इस तरह चल रहा था जैसे वायु में ऊपर उड़ रहा होऊँ। मुझे अपना बोझ भी नहीं मालूम दे रहा था।

मैं अब अपने यन्त्रो का ठीक-ठीक प्रयोग करता जा रहा था और आश्चर्यजनक दृश्य देख रहा था जिनके मैंने अनगिनत फोटो खींच लिए।

घड़ी की सुई बता रही थी कि अब चन्द्रलोक पर रहते मुझे तीन दिन बीत चुके थे। इन तीन दिनो में मैंने बहुत काम किया था। बहुत चित्र खींच कर मास्को भेजे थे। खगोल सम्बन्धी अनेक नए तथ्यो का संग्रह किया था जिन्हें सुन सुन कर मास्को में तहलका मच रहा था। पर उन्होने मुझे बताया कि मस्लहतन मेरी यह चन्द्रलोक की यात्रा अभी तक हमारी सरकार गुप्त रख रही थी। मैं एक क्षण भी व्यर्थ नही खो रहा था। जमीन खोदकर पुरातत्व के कुछ अवशेषो को प्राप्त करने की भी मैंने चेष्टा की। अब मेरे यान में असंख्य नमूने एकत्र हो गए थे।

मैं अपनी प्रत्येक सूचना मस्को भेज रहा था। जब मैंने प्रोफेसर को सूचना दी कि मैंने चन्द्रलोक के भिन्न-भिन्न खनिजो, गैस के समुद्र की गैसो और अन्य चीजों के सैकड़ों नमूने अपने यान में रख लिए है, तब उन्होने दर्द भरी आवाज में कहा---किन्तु जोरोवस्की, तुम अब कैसे पृथ्वी पर लौटोगे? हम लोग तुम्हे वहाँ से वापस बुलाने में असहाय हो रहे है। क्या चन्द्रलोक में बिल्कुल ही वायुमण्डल नही है?" [ ७० ]"नहीं है प्रोफेसर, मैंने भली भॉति देख लिया। निश्चय ही अरबो बरस हो गए होगे कि तब पृथ्वी की भॉति ही चन्द्र के चारो ओर वायुमण्डल था और उस समय वही प्राणी रहते थे। उनकी सभ्यता भी बहुत ऊँची थी। इस बात के प्रमाण मुझे यहाँ प्रत्यक्ष मिल रहे है। मैंने बहुत वस्तु संग्रह की है जो संग्रह के योग्य नहीं है, उनके चित्र ले लिए है।"

प्रोफेसर ने सब बाते सुनकर कहा---मैं समझता हू कि ज्वालामुखी पर्वतो के निरन्तर विस्फोट और सूर्य के निरन्तर असह्य ताप के कारण चन्द्रलोक जैसा क्षुद्र उपग्रह अपना वायुमण्डल खो बैठा है।"

"यही बात है प्रोफेसर, हमे पत्थर पर बनी कुछ हड्डियो के नमूने मिले है। मैने उनका संग्रह किया है। ये प्राणी विचित्र रहे होगे। अत्यधिक लम्बे किन्तु अत्यन्त दुबले पतले और हलके। मेरा तो अनुमान है कि वे अन्तरिक्ष मे उड़ सकते भी होंगे। सम्भवत इनके आठ या छः हाथ पैर थे।"

"किन्तु क्या वे अस्थि कैल्शियम-फास्फेट की ही थी जैसी पृथ्वी के जीवो की होती है?" लिज़ा ने जिज्ञासा से पूछा।

जोरोवस्की ने कहा---"न, न, ये हड्डियाँ निश्चय ही सिलिका से मिलती जुलती किसी लचीली पदार्थ से बनी हुई थी और इसी से कहा जा सकता है कि चन्द्रलोक के प्राणी भूमि पर सीधे खड़े नही रह सकते होगे, न हमारी भॉति चल फिर सकते होगे। वे निश्चय ही तिरछे उड़ते होगे। इसके अतिरिक्त और एक बात की सम्भावना है।"

"वह क्या?"

"चन्द्रलोक के निवासियो की मासपेशियाँ भी हड्डी के बाहर न होकर अन्दर ही रहती होगी। तथा वे विशिष्ट छिद्रो से बाहर निकलकर त्वचा और हड्डियो से सम्बन्धित रहती होगी।

"यह तो सर्वथा ही विचित्र बात है?" लिज़ा ने कहा।

खैर तो मैंने ये सब बाते विस्तार से प्रोफेसर को समझा दी थी। परन्तु प्रोफेसर अधीर हो रहे थे। वे कह रहे थे--जोरोवस्की, जब तुम यहा [ ७१ ]आकर सारा हाल विस्तार से बताओगे तो इस सम्बन्ध में वैज्ञानिक जगत में हलचल मच जायगी।"

मैंने कहा---"प्रोफेसर अब मेरे पृथ्वी पर पहुँचने की भला क्या आशा है। अब यही सम्भव हो सकता है कि मैं अणु विस्फोट द्वारा विमान के एक भाग को पृथ्वी पर फेक दूँ और स्वंय यहाँ जब तक जिन्दा रह सकता हूँ, नई-नई खोज करता और आपको सूचनाएँ भेजत रहूँ। मुझे इस बात का सन्तोष है कि मेरे अकेले के जीवन के बदले में संसार के मनुष्यों को चन्द्रलोक के सम्बन्ध में अछूते अद्भुत तत्व मिल जाएगे।"

मेरी बात सुनकर प्रोफेसर रो पड़े। वह बहुत देर तक रोते रहे। उन्होने हिचकियाँ लेते हुए कहा---जोरोवस्की, मेरे प्रिय शिष्य, यदि चन्द्रलोक में तनिक भी वायुमण्डल हो तो तुम्हारे पृथ्वी पर लौट आने के लिए हम बहुत कुछ कर कर सकते है।"

"किन्तु अफसोस, प्रोफेसर, यहाँ चन्द्रलोक में बिलकुल ही वायुमण्डल नहीं है।"

"अफसोस। किन्तु चन्द्रमा अपनी धुरी पर भी घूमता है, और पृथ्वी की भी परिक्रमा करता है। फिर भी वहाँ वायुमण्डल नहीं है, गुरुत्वाकर्षण तो वहाँ होगा ही।"

"गुरुत्वाकर्षण तो है। यह तो मैंने देख लिया है।"

"फिर वायुमण्डल क्यों नहीं है? बड़े आश्चर्य की बात है। खैर, वहाँ तुम्हे कुछ तकलीफ तो नही है?"

"नहीं। न मुझे भूख है, न प्यास, न और शारीरिक आवश्यकताएँ ही है। मैं थकान और नींद भी अनुभव नहीं कर रहा हूँ।"

"यही बड़ी आशा है, मेरे प्यारे जोरोवस्की, तुम काफी देर तक चन्द्रलोक मैं जीवित रह सकते हो तब तक शायद हम कुछ तुम्हारे लिए कर सके।"

"आपसे जो कुछ करते बन पड़े कीजिए, प्रोफेसर, पर मेरे मित्रो से कह दीजिए कि मेरे लिए अफसोस न करे। खुशियाँ मनाएँ क्योंकि मैं कर्तव्य [ ७२ ]की वेदी पर प्राण विसर्जन कर रहा हूँ। मुझे अपनी मृत्यु का कुछ भी भय नहीं है।"

"नहीं, नहीं, मेरे बच्चे, हम तुम्हे कदापि नहीं मरने देंगे। कोई न कोई रास्ता निकल ही आयगा।"

मृत्यु सुन्दरी का आलिगन

दो दिन और बीत गए, तथा इसी बीच एक विचित्र घटना घटी। गैस के समुद्र तट पर घूमते घूमते मुझे कुछ ऐसा प्रतीत हुआ कि कोई विचित्र सजीव जैसे पिण्ड समुद्र की सतह पर तैर रहे है। मैंने प्रथम तो उनके फोटो लिए, फिर उनमे से एक को पकड़ने मैं आगे बढ़ा। निकट पहुँचकर मैंने देखा---वह जैसे फेन से बने हुए हो। ज्योही मैंने उनमे से एक को पकड़ने की चेष्टा की, कोई चिपचिपी सी वस्तु मेरे हाथ में आ गई और वह अनायास ही हाथ से फिसलने लगी। यद्यपि मेरे हाथ कवच से आवेष्टित थे और मेरी चमड़ी से उस पदार्थ का स्पर्श नहीं हो रहा था, पर यह मैंने देखा कि उस पदार्थ में गति भी है और शक्ति भी। मैंने ज्यों-ज्यों उसे अपने काबू में करने की चेष्टा की त्यों-त्यों वह वस्तु जबरदस्ती मेरे हाथो से फिसलने लगी। अब अकस्मात् ही मैंने देखा कि कोई वस्तु मेरी गर्दन दबोच रही है। वास्तव में उसी वस्तु में से एक लम्बा हाथ जैसा अंग निकल कर मेरी गर्दन में इस तरह लिपटता जाता था जैसे कि कोई अजगर लिपटता जाता हो। क्षण भर ही में मैंने अपनी स्थिति की भयंकरता को समझ लिया। मैंने तुरन्त एटेमिक पिस्टल से एक फायर किया। पृथ्वी पर तो इस महास्त्र का एक फायर प्रलय ढा सकता था, पर यहाँ उस पदार्थ पर उसका कोई असर नहीं हुआ। उल्टे मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि जैसे एक दूसरे लम्बे हाथ ने बढ़ कर मेरी कमर को भी लपेट लिया है। यह प्रथम ही अवसर था कि मैंने अपने को विवश अनुभव किया और अब मुझे स्पष्ट यह प्रतीत हो रहा था कि किसी शक्तिशाली अजगर ने मेरी गर्दन और कमर को दबोच लिया है और वह धीरे-धीरे मुझे अपनी गिरफ्त में कसता जा रहा है।

एक बार भय से मैं जड़ हो गया और फिर प्राणपण से मैं अपने [ ७३ ]बचाव में जुट गया। मैंने संक्षेप में अपनी इस विपत्ति की सूचना मास्को भेज दी। प्रोफेसर ने कहा---किसी तरह भाग कर मैं यान तक पहुच जाऊँ। परन्तु यह तो अब सम्भव ही नहीं प्रतीत हो रहा था। मुझे ऐसा लग रहा था कि अब गिरा, अब गिरा। उस पदार्थ की गिरफ्त मुझे कसती ही जाती थी। और मैं विवश होता जा रहा था। इसी समय मेरा हाथ एक तेज छुरे पर जा पड़ा। मेरे कवच में कई छुरे थे। मैंने पूरे वेग से छुरे का वार उस विचित्र पदार्थ पर किया। मुझे ज्ञात हुआ कि एटामिक पिस्टल से जो काम नहीं हुआ था, वह इस छुरे के बार से हुआ। मैंने देखा कि मेरी गर्दन की गिरफ्त ढीली हुई है और मैं वहाँ से यान की ओर भागा। परन्तु इसी समय मैंने देखा कि वैसे ही असंख्य पदार्थ चारो ओर से मेरे पास को बढ़े चले आ रहे हैं। अब तो ऐसा भी प्रतीत हो रहा था कि जैसे वे सजीव पदार्थ हो। जो पदार्थ मेरी गर्दन और कमर को दबोचे हुए था, उसमे से एक आवाज ऐसी आ रही थी जैसे कोई जोर-जोर से सास ले रहा हो। मैं यान की ओर भागता हुआ जा रहा था और खचाखच उस पदार्थ पर छुरे का बार भी करता आ रहा था। निस्सन्देह, इसका अनुकूल परिणाम हो रहा था। पर अब तो उन असंख्य पदार्थो ने भी जैसे मुझे छू लिया था।

मेरा कवच अत्यन्त दृढ़ था। पर यदि वह कही से भी भंग हो गया तो फिर मेरे जीवन की आशा ही खतम थी। बड़े ही साहस और अध्यवसाय से मैं अपने यान तक जा पहुचा। मैं यान के निकट पहुँचा और उसका आवरण खोलकर जबर्दस्ती भीतर घुस गया। मैंने देखा मेरी गर्दन और कमर में लिपटा हुआ वह पदार्थ भी लिपटा हुआ यान में चला आया। और उसके साथ ही वैसे ही अनेक पदार्थ भी। परन्तु मैं अब अधिक सुरक्षित था। बड़ी ही कठिनाई से अपना पूरा जोर लगाकर मैंने यान का द्वार बन्द कर लिया और फिर आत्मरक्षा के अन्य सभी सम्भव उपाय किए। परन्तु मैं विवश और बेहोश होता जा रहा था। मैंने अन्तिम सूचनाएँ केन्द्र को भेजी। प्रोफेसर ने मुझसे कुछ कहा---परन्तु मैं ठीक-ठीक समझ न सका। मेरी चेतना तेजी से लुप्त होती जा रही थी। अब तो जैसे मृत्यु सुन्दरी मुझे आलिंगन करती आ रही थी। एक-एक क्षण जीवन की स्मृतियाँ उदय हो