गबन/भाग 13

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प्रेमचंद रचनावली ५  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
[ ४८ ]

तेरह

सर्राफे में गंगू की दुकान मशहूर थी। गंगू था तो ब्राह्मण, पर बड़ा ही व्यापार-कुशल । उसकी दुकान पर नित्य गाहकों का मेला लगा रहता था। उसकी कर्म-निष्ठा गाहकों में विश्वास पैदा करती थी। और दुकानों पर ठगे जाने का भय था। यहां किसी तरह का धोखा न था। गंगू ने रमा को देखते ही मुस्कराकर कहा-आइए बाबूजी, ऊपर आइए। बड़ी दया की। मुनीमजी, आपके वास्ते पान मंगवाओ। क्या हुक्म है बाबूजी, आप तो जैसे मुझसे नाराज हैं। कभी आते ही नहीं, गरीबों पर भी कभी-कभी दया किया कीजिए।

गंगू की शिष्टता ने रमा की हिम्मत खोल दी। अगर उसने इतने आग्रह से न बुलाया होता तो शायद रमा को दुकान पर जाने का साहस न होता। अपनी साख का उसे अभी तक अनुभव न हुआ था। दुकान पर जाकर बोला-यहां हम जैसे मजदूरों का कहां गुजर है, महाराज ! गांठ में कुछ हो भी तो।

गंगू-यह आप क्या कहते हैं सरकार, आपकी दुकान है, जो चीज चाहिए ले जाइए, दाम आगे-पीछे मिलते रहेंगे। हम लोग आदमी पहचानते हैं बाबू साहब, ऐसी बात नहीं है। धन्य भाग कि आप हमारी दुकान पर आए तो। दिखाऊ कोई जड़ाऊ चीज? कोई कंगन, कोई हार? अभी हाल ही में दिल्ली से माल आया है।

रमानाथ कोई हल्के दामों का हार दिखाइए।

गंगू–यही कोई सात-आठ सौ तक?

रमानाथ-अजी नहीं,चार सौ तक।

गंगू-मैं आपको दोनों दिखाए देता हूं। जो पसंद आवें, ले लीजिएगा। हमारे यहां किसी तरह का दगल-फसल नहीं बाबू साहब इसको आप जरी भी चिंता न करें। पांच बरस का लड़का हो या सौ बरस का बूढा, सबके साथ एक बात रखते हैं। मालिक को भी एक दिन मुंह दिखाना है, बाबू।

संदूक सामने आया, रंगू ने हार निकाल-निकालकर दिखाने शुरू किए। रमा की आंखें खुल गई, जी लोट-पोट हो गया। क्या सफाई थी । नगीनों की कितनी सुंदर सजावट । कैसी आब-ताब ! उनकी चमक दीपक को मात करती थी। रमा ने सोच रखा था सौ रुपये से ज्यादा उधार न लगाऊंगा, लेकिन चार सौ वाला हार आंखों में कुछ जंचता ने था। और जेब में कुल तीन सौ रुपये थे। सोचा, अगर यह हार ले गया और जालपा ने पसंद न किया, तो फायदा ही क्या? ऐसी चीज ले जाऊं कि वह देखते ही फड़क उठे। यह जड़ाऊ हार उसकी गर्दन में कितनी शोभा देगा! वह हार एक सहस्र मणि-रंजित नेत्रों से उसके मन को खींचने लगा। वह अभिभूत होकर उसकी ओर ताक रहा था, पर मुंह से कुछ कहने का साहस न होता था। कहीं गंगू ने तीन सौ रुपये उधार लगाने से इंकार कर दिया, तो उसे कितना लज्जित होना पड़ेगा। गंगू ने उसके मन का संशय ताड़कर कहा-आपके लायक तो बाबूजी यही चीज है, अंधेरे घर में रख दीजिए, तो उजाला हो जाय।

रमानाथ-पसंद तो मुझे भी यही है, लेकिन मेरे पास कुल तीन सौ रुपये हैं, यह समझे लीजिए।

शर्म से रमा के मुंह लाली छा गई। वह धड़कते हुए हृदय से गंगू का मुंह देखने लगा। [ ४९ ] गंगू ने निष्कपट भाव से कहा-बाबू साहब, रुपये का तो जिक्र ही न कीजिए। कहिए दस हजार का माल साथ भेज दें। दुकान आपकी है, भला कोई बात है? हुक्म हो, तो एक-आध चीज और दिखाऊ? एक शीशफूल अभी बनकर आया है, बस यही मालूम होता है, गुलाब का फूल खिला हुआ है। देखकर जी खुश हो जाएगा। मुनीमजी, जरा वह शीशफूल दिखाना तो। और दाम को भी कुछ ऐसा भारी नहीं, आपको ढाई सौ में दे दूंगी।

रमा ने मुस्कराकर कहा-महाराज, बहुत बातें बनाकर कहीं उल्टे छुरे से न मूंड़ लेना,गहनों के मामले में बिल्कुल अनाड़ी हूं।

गंगू–ऐसा न हो बाबूजी, आप चीज ले जाइए, बाजार में दिखा लीजिए, अगर कोई ढाई सौ से कौड़ी कम में दे दे, तो मैं मुफ्त दे दूंगा।

शीशफूल आया, सचमुच गुलाब का फूल था, जिस पर हीरे की कलियां ओस की बूंदों के समान चमक रही थीं। रमा की टकटकी बंध गई, मानो कोई अलौकिक वस्तु सामने आ गई हो।

गंगू-बाबूजी, ढाई सौ रुपये तो कारीगर की सफाई के इनाम हैं। यह एक चीज है।

रमानाथ–हां, है तो सुंदर, मगर भाई ऐसा न हो, कि कल ही से दाम का तकाजा करने लगो। मैं खुद ही जहां तक हो सकेगा, जल्दी दे दंगा।

गंगू ने दोनों चीजें दो सुंदर मखमली केसों में रखकर रमा को दे दीं। फिर मुनीमजी से नाम टंकवाया और पान खिलाकर विदा किया।

रमा के मनोल्लास की इस समय मीमा न थी, किंतु यह विशुद्ध उल्लास न था, इसमें एक शंका का भी समावेश था। यह उस बालक का आनंद न था जिसने माता से पैसे मांगकर मिठाई ली हो, बल्कि उस बालक का जिसने पैसे चुराकर ली हो, उसे मिठाइयां मीठी तो लगती हैं, पर दिल कांपता रहता है कि कहीं घर चलने पर मार न पड़ने लगे। साढे छ: सौ रुपये चुका देने की तो उसे विशेष चिंता न थी, घात लग जाय तो वह छ: महीने में चुका देगा। भय यही था कि बाबूजी सुनेंगे तो जरूर नाराज होगे, लेकिन ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता था, जालपा को इन आभूषणों से सुशोभित देखने की उत्कंठा इसे शंका पर विजय पाती थी। घर पहुंचने की जल्दी में उसने सड़क छोड़ दी, और एक गली में घुस गया। सघन अंधेरी को हुआ था। बादल तो उसी वक्त छाए हुए थे, जब वह घर से चला था। गली में घुसा ही था, कि पानी की बूंद सिर पर छर्रें की तरह पड़ी। जब तक छतरी खोले, वह लथपथ हो चुकी थी। उसे शंका हुई, इस अंधकार में कोई कर दोनों चीजें छीन न ले, पानी की झरझर में कोई आवाज भी न सुनें।

अंधेरी गलियों में खून तक हो जाते हैं। पछताने लगा, नाहक इधर से आया। दो-चार मिनट देर ही में पहुंचता, तो ऐसी कौन-सी आफत आ जाती। असामयिक वृष्टि ने उसकी आनंद- कल्पनाओं में बाधा डाल दी। किसी तरह गली का अंत हुआ और सड़क मिली। लालटेनें दिखाई दीं। प्रकाश कितनी विश्वास उत्पन्न करने वाली शक्ति है, आज इसका उसे यथार्थ अनुभव हुआ।

वह घर पहुंचा तो दयानाथ बैठे हुक्का पी रहे थे। वह उस कमरे में न गया! उनकी आंख बचाकर अंदर जाना चाहता था कि उन्होंने टोका-इस वक्त कहां गए थे?

रमा ने उन्हें कुछ जवाब न दिया। कहीं वह अखबार सुनाने लगे, तो घंटों की खबर लेंगे। सीधा अंदर जा पहुंचा। जालपा द्वार पर खड़ी उसकी राह देख रही थी, तुरंत उसके हाथ से [ ५० ]छतरी ले ली और बोली-तुम तो बिल्कुल भींग गए। कहीं ठहर क्यों न गए।

रमानाथ-पानी का क्या ठिकाना, रात-भर बरसता रहे।

यह कहता हुआ रमा ऊपर चला गया। उसने समझा था, जालपा भी पीछे-पीछे आती होगी, पर वह नीचे बैठी अपने देवरों से बातें कर रही थी, मानो उसे गहनों की याद ही नहीं है। जैसे वह बिल्कुल भूल गई है कि रमा सरार्फ से आया है।

रमा ने कपड़े बदले और मन में झुंझलाता हुआ नीचे चला आया। उसी समय दयानाथ भोजन करने आ गए। सब लोग भोजन करने बैठ गए। जालपा ने जब्त तो किया था, पर इस उत्कंठा की दशा में आज उससे कुछ खाया न गया। जब वह ऊपर पहुंची, तो रमा चारपाई पर लेटा हुआ था। उसे देखते ही कौतुक से बोला-आज सरार्फ का जाना तो व्यर्थ हो गया। हार कहीं तैयार ही न था। बनाने को कह आया हूं।

जालपा की उत्साह से चमकती हुई मुख-छवि मलिन पड़ गई, बोली-वह तो पहले ही जानती थी। बनते-बनते पांच-छ: महीने तो लग हो जाएंगे।

रमानाथ–नहीं जी, बहुत जल्द बना देगा, कसम खा रहा था। जालपा-ऊह, जब चाहे दे।

उत्कंठा की चरम सीमा ही निराशा है। जालपा मुंह फेरकर लेटने जा रही थी, कि रमा ने जोर से कहकहा मारा। जालपा चौंक पड़ी। समझ गई, रमा ने शरारत की थी। मुस्कराती हुई बोली-तुम भी बड़े नटखट हो। क्या लाए?

रमानाथ-कैसा चकमा दिया?

जालपा-यह तो मरदों की आदत ही है, तुमने नई बात क्या की जालपा दोनों आभूषणों को देखकर निहाल हो गई। हृदय में आनंद की लहरें सी उठने लगीं। वह मनोभावों को छिपाना चाहती थी कि रमा उसे ओछी न समझे, लेकिन एक -एक अंग खिल जाता था। मुस्कराती हुई आंखें, दमकते हुए कपोल और खिले हुए अधर उसका भरम गंवाए देते थे। उसने हार गले में पहना, शीशफूल जूड़े में सजाया और हर्ष से उन्मत्त होकर बोली-तुम्हें आशीर्वाद देती हूं, ईश्वर तुम्हारी सारी मनोकामनाएं पूरी करें।

आज जालपा की अभिलाषा पूरी हुई, जो बचपन ही से उसकी कल्पनाओं का एक स्वप्न, उसकी आशाओं का क्रीड़ास्थल बनी हुई थी। आज उसकी वह साध पूरी हो गई। यदि मानकी यहां होती, तो वह सबसे पहले यह हार उसे दिखाती और कहती- तुम्हारा हार तुम्हें मुबारक हो ।

रमा पर घड़ों नशा चढ़ा हुआ था। आज उसे अपना जीवन सफल जान पड़ा। अपने जीवन में आज पहली बार उसे विजय का आनंद प्राप्त हुआ।

जालपा ने पूछा-जाकर अम्मांजी को दिखा आऊं?

रमा ने नम्रता से कहा-अम्मां को क्या दिखाने जाओगी। ऐसी कौन-सी बड़ी चीजें हैं।

जालपा-अब मैं तुम साल-भर तक और किसी चीज के लिए न कहूंगी। इसके रुपये देकर ही मेरे दिल का बोझ हल्का होगा।

रमा गर्व से बोला-रुपये की क्या चिंता । हैं ही कितने !

जालपा-जरा अम्मांजी को दिखा आऊं, देखें क्या कहती हैं।

रमानाथ-मगर यह न कहना, उधार लाए हैं। [ ५१ ]
जालपा इस तरह दौड़ी हुई नीचे गई, मानो उसे वहां कोई निधि मिल जायेगी।

आधी रात बीत चुकी थी। रमा आनंद की नींद सो रहा था। जालपा ने छत पर आकर एक बार आकाश की ओर देखा। निर्मल चांदनी छिटकी हुई थी-वह कार्तिक की चांदनी जिसमें संगीत की शांति है, शांति का माधुर्य और माधुर्य का उन्माद। जालपा ने कमरे में आकर अपनी संदूकची खोली और उसमें से वह कांच का चन्द्रहार निकाला जिसे एक दिन पहनकर उसने अपने को धन्य माना था। पर अब इस नए चन्द्रहार के सामने उसकी चमक उसी भांति मंद पड़ गई थी, जैसे इस निर्मल चन्द्रज्योति के सामने तारों का आलोक। उसने उस नकली हार को तोड़ डाला और उसके दानों को नीचे गली में फेंक दिया, उसी भांति जैसे पूजन समाप्त हो जाने के बाद कोई उपासक मिट्टी की मूर्तियों को जल में विसर्जित कर देता है।

चौदह

उस दिन से जालपा के पति- स्नेह में सेवा-भाव का उदय हुआ। वह स्नान करने जाता, तो उसे अपनी धोती चुनी हुई मिलती। आने पर तेल और साबुन भी रक्खा हुआ पाता। जब दफ्तर जाने लगता, तो जालपा उसके कपड़े लाकर सामने रख देती। पहले पान मांगने पर मिलते थे, अब जबरदस्ती खिलाए जाते थे। जालपा उसका रुख देखा करती। उसे कुछ कहने की जरूरत न थी। यहां तक कि जब वह भोजन करने बैटता, तो वह पंखा झला करती। पहले वह बड़ी अनिच्छा में भोजन बनाने जाती थी और उस पर भी बेगार-सी टालती थी। अब बड़े प्रेम से रसोई में जाती। चीजें अब भी वही बनती थीं, पर उनका स्वाद बढ़ गया था। रमा को इस मधुर स्नेह के सामने वह दो गहने बहुत हो तुच्छ जंचते थे।

उधर जिस दिन रमा ने गंगू की दुकान से गहने खरीदे, उसी दिन दूसरे सर्राफों को भी उसके आभूषण -प्रेम की सूचना मिल गई। रमा जब उधर से निकलता तो दोनों तरफ से दुकानदार उठ-उठकर उसे सलाम करते-आइए बाबूजी, पान तो खाके जाइए।दो-एक चीजें हमारी दुकान से तो देखिए।

रमा का आत्म-संयम उसकी साख को और भी बढ़ाता था। यहां तक कि एक दिन एक दलाल रमा के घर पर आ पहुंचा, और उसके नहीं- नहीं करने पर भी अपनी संदूकची खोल ही दी।

रमा ने उससे पीछा छुड़ाने के लिए कहा-भाई, इस वक्त मुझे कुछ नहीं लेना है। क्यों अपना और मेरा समय नष्ट करोगे। दलाल ने बड़े विनीत भाव से कहा-बाबूजी, देख तो लीजिए। पसंद आए तो लीजिएगा, नहीं तो न लीजिएगा। देख लेने में तो कोई हर्ज नहीं है। आखिर रईसों के पास न जायं, तो किसके पास जायं। औरों ने आपसे गहरी रकमें मारी, हमारे भाग्य में भी बदा होगा,तो आपसे चार पैसा पा जाएंगे। बहूजी और माईजी को दिखा लीजिए। मेरा मन तो कहता है कि आज आप ही के हाथों बोहनी होगी।

रमानाथ-औरतों के पसंद की न कहो, चीजें अच्छी होंगी ही। पसंद आते क्या देर लगती है, लेकिन भाई, इस वक्त हाथ खाली है।

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दलाल हंसकर बोला-बाबूजी, बस ऐसी बात कह देते हैं कि वाह !आपका हुक्म हो जाय तो हजार पांच सौ आपके ऊपर निछावर कर दें। हम लोग आदमी का मिजाज देखते हैं, बाबूजी । भगवान् ने चाहा तो आज मैं सौदा करके ही उठूंगा।

दलाल ने संदूकची से दो चीजें निकाली, एक तो नए फैशन का जड़ाऊ कंगन था और दूसरी कानों का रिंग। दोनों ही चीजें अपूर्व थीं। ऐसी चमक थी मानो दीपक जल रहा हो। दस बजे थे, दयानाथ दफ्तर जा चुके थे, वह भी भोजन करने जा रहा था। समय बिल्कुल न था, लेकिन इन दोनों चीजों को देखकर उसे किसी बात की सुध ही न रही। दोनों केस लिए हुए घर में आया। उसके हाथ में केस देखते ही दोनों स्त्रियां टूट पड़ीं और उन चीजों को निकाल- निकालकर देखने लगीं। उनकी चमक-दमक ने उन्हें ऐसा मोहित कर लिया कि गुण-दोष की विवेचना करने की उनमें शक्ति ही न रही।

जागेश्वरी-आजकल की चीजों के सामने तो पुरानी चीजें कुछ जंचती ही नहीं।

जालपा-मुझे तो उन पुरानी चीजों को देखकर कै आने लगती है। न जाने उन दिनों औरतें कैसे पहनती थीं।

रमा ने मुस्कराकर कहा-तो दोनों चीजें पसंद हैं न?

जालपा-पसंद क्यों नहीं हैं,अम्मांजी, तुम ले लो।

जागेश्वरी ने अपनी मनोव्यथा छिपाने के लिए सिर झुका लिया। जिसका सारा जीवन गृहस्थी की चिंताओं में कट गया, वह आज क्या स्वप्न में भी इन गहनों के पहनने की आशा कर सकती थी । आह । उस दुखिया के जीवन की कोई साध ही न पूरी हुई। पति की आय ही कभी इतनी न हुई कि बाल-बच्चों के पालन-पोषण के उपरांत कुछ बचता। जब से घर की स्वामिनी हुई, तभी से मानो उसकी तपश्चर्या का आरंभ हुआ और सारी लालसाएं एक-एक करके धूल में मिल गईं। उसने उन आभूषणों की ओर से आखें हटा लीं। उनमें इतना आकर्षण था कि उनकी ओर ताकते हुए वह डरती थी। कहीं उसकी विरक्ति का परदा न खुल जाय। बोली- मैं लेकर क्या करूंगी बेटी मेरे पहनने-ओढने के दिन तो निकल गए। कौन लाया है बेटा? क्या दाम हैं इनके?

रमानाथ–एक सर्राफ दिखाने लाया है, अभी दाम-आम नहीं पूछे, मगर ऊंचे दाम होंगे। लेना तो था ही नहीं, दाम पूछकर क्या करता ?

जालपा–लेना ही नहीं था, तो यहां लाए क्यों?

जालपा ने यह शब्द इतने वेश में आकर कहे कि रमा खिसिया गया। उनमें इतनी उत्तेजना, इतना तिरस्कार भरा हुआ था कि इन गहनों को लौटा ले जाने की उसकी हिम्मत न पड़ी। बोला-तो ले लूं?

जालपा-अम्मां लेने ही नही कहतीं तो लेकर क्या करोगे? क्या मुफ्त में दे रहा है?

रमानाथ–समझ लो मुफ्त ही मिलते हैं।

जालपा-सुनती हो अम्माजी, इनकी बातें। आप जाकर लौटा आइए। जब हाथ में रुपये होंगे, तो बहुत गहने मिलेंगे।

जागेश्वरी ने मोहासक्त स्वर में कहा–रुपये अभी तो नहीं मांगता?

जालपा-उधार भी देगा, तो सूद तो लगा ही लेगा?

रमानाथ-तो लौटा दें? एक बात चटपट तय कर डालो। लेना हो, ले लो, न लेना हो, तो
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लौटा दो मोह और दुविधा में न पड़ो।

जालपा को यह स्पष्ट बातचीत इस समय बहुत कठोर लगी। रमा के मुंह से उसे ऐसी आशा न थी। इंकार करना उसका काम था, रमा को लेने के लिए आग्रह करना चाहिए था। जागेश्वरी की ओर लालायित नेत्रों से देखकर बोली-लौटा दो। रात-दिन के तकाजे कौन सहेगा।

वह केसों को बंद करने ही वाली थी कि जागेश्वरी ने कंगन उठाकर पहन लिया, मानो एक क्षण-भर पहनने से ही उसकी साध पूरी हो जायेगी। फिर मन में इस ओछेपन पर लज्जित होकर वह उसे उतारना ही चाहती थी कि रमा ने कहा-अब तुमने पहन लिया है अम्मां, तो पहने रहो। मैं तुम्हें भेंट करता हूं। जागेश्वरी की आंखें जल हो गईं। जो लालसा आज तक ने पूरी हो सकी, वह आज रमा की मातृ-भक्ति से पूरी हो रही थी, लेकिन क्या वह अपने प्रिय पुत्र पर ऋण का इतना भारी बोझ रख देगी ? अभी वह बेचारा बालक है, उसकी सामर्थ्य ही क्या है? न जाने रुपये जल्द हाथ आएं या देर में। दाम भी तो नहीं मालूम। अगर ऊंचे दामों का हुआ, तो बेचारा देगा कहां से? उसे कितने तकाजे सहने पड़ेंगे और कितनी लज्जित होना पड़ेगा। कातर स्वर में बोली- नहीं बेटा, मैंने यों ही पहन लिया था। ले जाओ, लौटा दो।

माता का उदास मुख देखकर रमा का हृदय मातृ-प्रेम से हिल उठा। क्या ऋण के भय से वह अपनी त्यागमूर्ति माता की इतनी सेवा भी न कर सकेगा? माता के प्रति उसका कुछ कर्तव्य भी तो है? बोला-रुपये बहुत मिल जाएंगे अम्मां, तुम इसकी चिंता मत करो।

जागेश्वरी ने बहू की ओर देखा। मानो कह रही थी कि रमा मुझ पर कितना अत्याचार कर रहा है।

जालपा उदासीन भाव से बैठी थी। कदाचित् उसे भय हो रहा था कि माताजी यह कंगन ले न लें। मेरा कंगन पहन लेना बहू को अच्छा नहीं लगा, इसमें जागेश्वरी को संदेह नहीं रहा। उसने तुरंत कंगन उतार डाला, और जालपा की ओर बढ़ाकर बोली- मैं अपनी ओर से तुम्हें भेंट करती हूं, मुझे जो कुछ पहनना-ओढ़ना था, ओढ-पहन चुकी। अब जरा तुम पहनों, देखें।

जालपा को इसमें जरा भी संदेह न था कि माताजी के पास रुपये की कमी नहीं। वह समझी, शायद आज वह पसीज गई हैं और कंगन के रुपए दे देंगी। एक क्षण पहले उसने समझा था कि रुपये रमा को देने पड़ेंगे, इसीलिए इच्छा रहने पर भी वह उसे लौटा देना चाहती थी। जब माताजी उसका दाम चुका रही थीं, तो वह क्यों इंकार करती; मगर ऊपरी मन से बोली-रुपये न हों, तो रहने दीजिए अम्मांजी, अभी कौन जल्दी है?

रमा ने कुछ चिढ़कर कहा-तो तुम यह कंगन ले रही हो?

जालपा-अम्माजी नहीं मानतीं, तो मैं क्या करूं?

रमानाथ-और ये रिंग, इन्हें भी क्यों नहीं रख लेतीं?

जालपा-जाकर दाम तो पूछ आओ।

रमा ने अधीर होकर कहा-तुम इन चीजों को ले जाओ, तुम्हें दाम से क्या मतलब !

रमा ने बाहर आकर दलाल से दाम पूछा तो सन्नाटे में आ गया। कंगन सात सौ के थे, और रिंग डेढ़ सौ के। उसका अनुमान था कि कंगन अधिक-से-अधिक तीन सौ के होंगे और रिंग चालीस-पचास रुपये के। पछताए कि पहले ही दाम क्यों न पूछ लिए, नहीं तो इन चीजों को घर में ले जाने की नौबत ही क्यों आती? फेरते हुए शर्म आती थी; मगर कुछ भी हो, फेरना तो [ ५४ ]
पड़ेगा ही। इतना बड़ा बोझ वह सिर पर नहीं ले सकता। दलाल से बोला-बड़े दाम हैं भाई, मैंने तो तीन-चार सौ के भीतर ही आंका था। दलाल का नाम चरनदास था। बोला-दाम में एक कौड़ी फरक पड़ जाय सरकार, तो मुंह न दिखाऊ। धनीराम की कोठी का तो माल है, आप चलकर पूछ लें। दमड़ी रुपये की दलाली अलबत्ता मेरी है, आपकी मरजी हो दीजिए या न दीजिए।

रमानाथ–तो भाई इन दामों की चीजें तो इस वक्त हमें नहीं लेनी हैं।

चरनदास-ऐसी बात न कहिए, बाबूजी । आपके लिए इतने रुपये कौन बड़ी बात है। दो महीने भी माल चल जाय तो उसके दूने हाथ आ जायेंगे। आपसे बढ़कर कौन शौकीन होगा। यह सब रईसों के ही पसंद की चीजें हैं। गंवार लोग इनकी कद्र क्या जानें।

रमानाथ-साढ़े आठ सौ बहुत होते हैं भई ।

चरनदास–रुपये का मुंह न देखिए बाबूजी, जब बहूजी पहनकर बैठेगी, तो एक निगाह में सारे रुपये तर जायंगे।

रमा को विश्वास था कि जालपा गहनों का यह मूल्य सुनकर आप ही बिचक जायेगी।

दलाल से और ज्यादा बातचीत न की। अंदर जाकर बड़े जोर से हंसा और बोला-आपने इस कंगन का क्या दाम समझा था, मांजी?

जागेश्वरी कोई जवाब देकर बेवकूफ न बनना चाहती थी-इन जड़ाऊ चीजों में नाप-तौल का तो कुछ हिसाब रहता नहीं जितने में तै हो जाय, वही ठीक है।

रमानाथ-अच्छा, तुम बताओ जालपा, इस कंगन का कितना दाम आंकती हो?

जालपा-छ: सौ से कम का नहीं।

रमा का सारा खेल बिगड़ गया। दाम का भय दिखाकर रमा ने जालपा को डरा देना चाहा था, मगर छ: और सात में बहुत थोड़ा ही अंतर था। और संभव है चरनदास इतने ही पर राजी हो जाय। कुछ झेंपकर बोला-कच्चे नगीने नहीं हैं।

जालपा–कुछ भी हो, छ: सौ से ज्यादा का नहीं।

रमानाथ-और रिंग का? ।

जालपा-अधिक से अधिक सौ रुपये।

रमानाथ-यहां भी चूकीं, डेढ़ सौ मांगता है।

जालपा-जट्टू है कोई, हमें इन दामों लेना ही नहीं।

रमा की चाल उल्टी पड़ी, जालपा को इन चीजों के मूल्य के विषय में बहुत धोखा न हुआ था। आखिर रमा की आर्थिक दशा तो उससे छिपी न थी, फिर वह सात सौ रुपये की चीजों के लिए मुंह खोले बैठी थी। रमा को क्या मालूम था कि जालपा कुछ और ही समझकर कंगन पर लहराई थी। अब तो गला छूटने का एक ही उपाय था और वह यह कि दलाल छ: सौ पर राजी न हो। बोला-वह साढे आठ से कौड़ी कम न लेगा।

जालपा-तो लौटा दो।

रमानाथ-मुझे तो लौटाते शर्म आती है। अम्मां, जरा आप ही दालान में चलकर कह दें, हमें सात सौ से ज्यादा नहीं देना है। देना होता तो दे दो, नहीं चले जाओ।

जागेश्वरी–हां रे, क्यों नहीं, उस दलाल से मैं बातें करने जाऊं ।

जालपा-तुम्हीं क्यों नहीं कह देते, इसमें तो कोई शर्म की बात नहीं।

[ ५५ ]रमानाथ-मुझसे साफ जवाब न देते बनेगा। दुनिया भर की खुशामद करेगा। चुनी चुना-आप बड़े आदमी हैं, रईस हैं, राजा हैं। आपके लिए डेढ़ सौ क्या चीज है। मैं उसकी बातों में आ जाऊंगा।

जालपा–अच्छा, चलो मैं ही कहे देती हूं।

रमानाथ-वाह, फिर तो सब काम ही बन गया।

रमा पीछे दुबक गया। जालपा दालान में आकर बोली- जरा यहां आना जी, ओ सर्राफ । लूटने आए हो, या माल बेचने आए हो । चरनदास बरामदे से उठकर द्वार पर आया और बोला-क्या हुक्म है, सरकार?

जालपा–माल बेचने आते हो, या जटने आते हो? सात सौ रुपये कंगन के मांगते हो?

चरनदास-सात सौ तो उसको कारीगरी के दाम हैं, हुजूर ।

जालपा–अच्छा तो जो उस पर सात सौ निछावर कर दें, उसके पास ले जाओ। रिंग के डेढ़ सौ कहते हो, लूट है क्या? मैं तो दोनों चीजों के सात सौ से अधिक न दूंगी।

चरनदास-बहूजी, आप तो अंधेर करती हैं। कहां साढ़े आठ सौ और कहां सात सौ?

जालपा–तुम्हारी खुशी, अपनी चीज ले जाओ।

चरनदास-इतने बड़े दरबार में आकर चीज लौटा ले जाऊं? आप या ही पहनें। दस-पांच रुपये की बात होती, तो आपकी ज़बान से फेरता। आपसे झठ नहीं कहता बहूजी, इन चीजों पर पैसा रुपया नफा है। उसी एक पैसे में दुकान का भाड़ा, बट्टा-खाता, दस्तूरी, दलाली सब समझिए। एक बात ऐसी समझकर कहिए कि हमें भी चार पैसे मिल जाएं। सवेरे-सवेरे लौटना ने पड़े।

जालपा-कह दिए,वहीं सात सौ।

चरनदास ने ऐसा मुंह बनाया, मानो वह किसी धर्म-संकट में पड़ गया है। फिर बोला-सरकार हैं तो घाटा ही, पर आपकी बात नहीं टालते बनती। रुपये कब मिलेंगे?

जालपा-जल्दी ही मिल जायंगे।

जालपा अंदर जाकर बोली-आखिर दिया कि नहीं सात सौ में डेढ़ सौ साफ उडाए लिए जाता था। मुझे पछतावा हो रहा है कि कुछ और कम क्यों न कही। वे लोग इसी तरह गाहकों को लूटते हैं।

रमा इतना भारी बोझ लेते घबरा रहा था, लेकिन परिस्थिति ने कुछ ऐसा रंग पकड़ा कि बोझ उस पर लद ही गया।

जालपा तो खुशी की उमंग में दोनों चीजें लिए ऊपर चली गई, पर रमा सिर झुकाए चिंता में डूबा खड़ा था। जालपा ने उसकी दशा जानकर भी इन चीजों को क्यों ठुकरा नहीं दिया, क्यों जोर देकर नहीं कहा मैं न लेंगी, क्यों दुविधे में पड़ी रही। साढ़े पांच सौ भी चुकाना मुश्किल था, इतने और कहां से आएंगे। असल में गलती मेरी ही है। मुझे दलाल को दरवाजे से ही दुत्कार देना चाहिए था।

लेकिन उसने मन को समझाया। यह अपने हो गों का तो प्रायश्चित है। फिर आदमी इसीलिए तो कमाता है। रोटियों के लाले थोड़े ही थे?

भोजन करके जब रमा ऊपर कपड़े पहनने गया, तो जलपा आईने के सामने खड़ी कानों में रिंग पहन रही थी। उसे देखते ही बोली-आज किसी अच्छे का मुंह देखकर उठी थी। दो [ ५६ ]
चीजें मुफ्त हाथ आ गई।

रमा ने विस्मय से पूछा-मुफ्त क्यों? रुपये न देने पड़ेंगे?

जालपा-रुपये तो अम्मांजी देंगी?

रमानाथ-क्या कुछ कहती थीं?

जालपा-उन्होंने मुझे भेंट दिए हैं, तो रुपये कौन देगा?

रमा ने उसके भोलेपन पर मुस्कराकर कहा-यही समझकर तुमने यह चींजे ले लीं ? अम्मा को देना होता तो उसी वक्त दे देतीं जब गहने चोरी गए थे। क्या उनके पास रुपये न थे?

जालपा असमंजस में पड़कर बोली-तो मुझे क्या मालूम था। अब भी तो लौटा सकते हो। कह देना, जिसके लिए लिया था, उसे पसंद नहीं आया।

यह कहकर उसने तुरंत कानों से रिंग निकाल लिए। कगन भी उतार डाले और दोनों चीजें केस में रखकर उसकी तरफ इस तरह बढ़ाई, जैसे कोई बिल्ली चूहे से खेल रही हो। वह चूहे को अपनी पकड़ से बाहर नहीं होने देती। उसे छोड़कर भी नहीं छोड़ती। हाथों को फैलाने का साहस नहीं होता था। क्या उसके हृदय की भी यही दशा न थी? उसके मुख पर हवाइयां उड़ रही थीं। क्यों वह रमा की और न देखकर भूमि की ओर देख रही थी ? क्यों सिर ऊपर न उठाती थी? किसी संकट से बच जाने में जो हार्दिक आनंद होता है, वह कहां था? उसकी दशा ठीक उस माता की-सी थी, जो अपने बालक को विदेश जाने की अनुमति दे रही हो। वही विवशता, वही कातरता, वहीं ममता इस समय जालपा के मुख़ पर उदय हो रही थी।

रमा उसके हाथ से केसों को ले सके, इतना कड़ा संयम उसमें न था। उसे तकाजे सहना, लज्जित होना, मुंह छिपाए फिरना, चिंता की आग में जलना, सब कुछ सहना मजूर था। ऐसा काम करना नामंजूर था जिससे जालपा का दिल टूट जाए, वह अपने को आभागिन समझने लगे। उसका सारा ज्ञान, सारी चेष्टा, मारा विवेक इस आघात का विरोध करने लगा। प्रेम और परिस्थितियों के संघर्ष में प्रेम ने विजय पाई।

उसने मुस्कराकर कहा-रहने दो, अब ले लिया है, तो क्या लौटाएं। अम्माजी भी हँसेगी।

जालपा ने बनावटी कांपते हुए कंठ में कहा-अपनी चादर देखकर ही पांव फेलाना चाहिए। एक नई विपत्ति मोल लेने की क्या जरूरत है।

रमा ने मानो जल में डूबते हुए कहा-ईश्वर मालिक हैं। और तुरंत नीचे चला गया।

हम क्षणिक मोह और संकोच में पड़कर अपने जीवन के सुख और शांति का कैसे होम कर देते हैं । अगर जालपा मोह के इस झोंके में अपने को स्थिर रख सकती, अगर रमा संकोच के आगे सिर न झुका देता, दोनों के हृदय में प्रेम का सच्चा प्रकाश होता, तो वे पथ-भ्रष्ट होकर सर्वनाश की ओर न जाते।

ग्यारह बज गए थे। दफ्तर के लिए देर हो रही थी, पर रमा इस तरह जा रहा था, जैसे कोई अपने प्रिय बंधु की दाह-क्रिया करके लौट रहा हो। [ ५७ ]

पंद्रह

जालपा अब वह एकांतवासिनी रमणी न थी, जो दिन-भर मुंह लपेटे उदास पड़ी रहती थी। उसे अब घर में बैठना अच्छा नहीं लगता था। अब तक तो वह मजबूर थी, कहीं आ-जा न सकती थी। अब ईश्वर की दया से उसके पास भी गहने हो गए थे। फिर वह क्यों मन मारे घर में पड़ी रहती। वस्त्राभूषण कोई मिठाई तो नहीं जिसका स्वाद एकांत में लिया जा सके। आभूषणों को संदूकचों में बंद करके रखने से क्या फायदा। मुहल्ले या बिरादरी में कहीं से बुलावा आता, तो वह सास के साथ अवश्य जाती। कुछ दिनों के बाद सास की जरूरत भी न रही। वह अकेली आने-जाने लगी। फिर कार्य प्रयोजन की कैद भी नहीं रही। उसके रूप-लावण्य, वस्त्र आभूषण और शील-विनय ने मुहल्ले की स्त्रियों में उसे जल्दी ही सम्मान के पद पर पहुंचा दिया। उसके बिना मंडली सुनी रहती थी। उसका कंठ-स्वर इतना कोमल था,भाषण इतना मधुर, छवि इतनी अनुपम कि वह मंडली की रानी मालूम होती थी। उसके आने से मुहल्ले के नारी जीवन में जान-सी पड़ गई। नित्य ही कहीं-न-कहीं जमा हो जाता। घंटे-दो घंटे गा-बजाकर या गपशप करके रमणियां दिल बहला लिया करतीं। कभी किसी के घर, कभी किसी के घर, फागुन में पंद्रह दिन बराबर गाना होता रहा। जालपा ने जैसा रूप पाया था, वैसा ही उदार हृदय भी पाया था। पान-पत्ते का खर्च प्राय: उसी के मत्थे पडता। कभी-कभी गायनें बुलाई जातीं, उनकी सेवा सत्कार का भार उसी पर था। कभी -कभी वह स्त्रियों के साथ गंगा-स्नान करने जाती, तांगे का किराया और गंगा-तट पर जलपान का ख़र्च भी उसके मत्थे जाता। इस तरह उसके दो तीन रुपये रोज उड़ जाते थे। रमा आदर्श पति था। जालपा अगर मांगती तो प्राण तक उसके चरणों पर रख देता। रुपये की हकीकत ही क्या थी? उसका मुंह जोहता रहता था। जालपा उससे इन जमघटों की राज चर्चा करती। उसकी स्त्री-समाज में कितना आदर-सम्मान है, यह देखकर वह फूला न समाता था।

एक दिन इस मंडली को सिनेमा देखने की धुन सवार हुई। वहां की बहार देखकर सब-की-सब मुग्ध हो गई। फिर तो आए दिन सिनेमा की सैर होने लगी। रमा को अब तक सिनेमा का शौक न था। शौक होता भी तो क्या करता। अब हाथ पैसे आने लगे, उस पर जालपा का आग्रह, फिर भला वह क्यों न जाता? सिनेमागृह में ऐसी कितनी ही रमणियां मिलतीं, जो मुंह खोले नि:संकोच हंसती-बोलती रहती थीं। उनकी आजादी गुप्तरूप से जालपा पर भी जादू डालती जाती थी। वह घर से बाहर निकलते ही मुंह खोल लेती; मगर संकोचवश परदेवाली स्त्रियों के ही स्थान पर बैठती। उसकी कितनी इच्छा होती कि रमा भी उसके साथ बैठता। आख़िर वह उन फैशनेबुल औरतों से किस बात में कम है? रूप-रंग में वह हेठी नहीं। सजधज में किसी से कम नहीं। बातचीत करने में कुशल। फिर वह क्यों परदेवालियों के साथ बैठे। रम्रा बहुत शिक्षित न होने पर भी देश और काल के प्रभाव से उदार था। पहले तो वह परदे का ऐसा अनन्य भक्त था, कि माता को कभी गंगा-स्नान कराने लिवा जाता, तो पंडों तक से न बोलने देता। कभी माता की हंसी मर्दाने में सुनाई देती, आकर बिगड़ता-तुमको जरा भी शर्म नहीं है अम्मां बाहर लोग बैठे हुए हैं, और तुम हंस रही हो। मां लज्जित हो जाती थीं। किंतु अवस्था के साथ रमा का यह लिहाज गायब होता जाता था। उस पर जालपा की रूप-छटा उसके साहस को और भी उत्तेजित करती थी। जालपा रूपहीन, काली-कलूटी, फूहड़ होती तो [ ५८ ]

वह जबरदस्ती उसको परदे में बैठाता। उसके साथ घूमने या बैठने में उसे शर्म आती। जालपा-जैसी अनन्य सुंदरी के साथ सैर करने में आनंद के साथ गौरव भी तो था। वहां के सभ्य समाज की कोई महिला रूप, गठन और श्रृंगार में जालपा की बराबरी न कर सकती थी। देहात की लड़की होने पर भी शहर के रंग में वह इस तरह रंग गई थी, मानो जन्म से शहर ही में रहती आई है। थोड़ी-सी कमी अंग्रेजी शिक्षा की थी, उसे भी रमा पूरी किए देता था।

मगर परदे का यह बंधन टूटे कैसे। भवन में रमा के कितने ही मित्र, कितनी ही जान पहचान के लोग बैठे नजर आते थे। वे उसे जालपा के साथ बैठे देखकर कितना हंसेंगे। आखिर एक दिन उसने समाज के सामने ताल ठोंककर खड़े हो जाने का निश्चय कर ही लिया। जालपा से बोला-आज हम-तुम सिनेमाघर में साथ बैठेंगे।

जालपा के हृदय में गुदगुदी-सी होने लगी। हार्दिक आनंद को आभा चेहरे पर झलक उठी। बोली-सच नहीं भाई, साथवालियां जीने न देंगी।

रमानाथ—इस तरह डरने से तो फिर कभी कुछ न होगा। यह क्या स्वांग है कि स्त्रियां मुंह छिपाए चिक की आड़ में बैठी रहें। इस तरह यह मामला भी तय हो गया। पहले दिन दोनों झेपते रहे, लेकिन दूसरे दिन से हिम्मत खुल गई। कई दिनों के बाद वह समय भी आया कि रमा और जालपा संध्या समय पार्क में साथ-साथ टहलते दिखाई दिए।

जालपा ने मुस्कराकर कहा-कहीं बाबूजी देख लें तो?

रमानाथ–तो क्या, कुछ नहीं।

जालपा-मैं तो मारे शर्म के गड़ जाऊं।

रमानाथ-अभी तो मुझे भी शर्म आएगी, मगर बाबूजी खुद ही इधर न आएंगे।

जालपा-और जो कहीं अम्मांजी देख लें।

रमानाथ-अम्मां से कौन डरता है, दो दलीलों में ठीक कर दूंगा। दस ही पांच दिन में जालपा ने नए महिला-समाज में अपना रंग जमा लिया। उसने इस समाज में इस तरह प्रवेश किया, जैसे कोई कुशल वक्ता पहली बार परिषद् के मंच पर आता है। विद्वान् लोग उसकी उपेक्षा करने की इच्छा होने पर भी उसकी प्रतिभा के सामने सिर झुका देते हैं। जालपा भी आई, देखा और विजय कर लिया। उसके सौंदर्य में वह गरिमा, वह कठोरता, वह शान, वह तेजस्विता थी जो कुलीन महिलाओं के लक्षण हैं। पहले ही दिन एक महिला ने जालपा को चाय का निमंत्रण दे दिया और जालपा इच्छा न रहने पर भी उसे अस्वीकार न कर सकी।

जब दोनों प्राणी वहां से लौटे, तो रमा ने चिंतित स्वर में कहा-तो कल इसकी चाय-पार्टी में जाना पड़ेगा?

जालपा-क्या करती? इंकार करते भी तो न बनता था ।

रमानाथ–तो सबेरे तुम्हारे लिए एक अच्छी-सी साड़ी लादूं।

जालपा-क्या मेरे पास साड़ी नहीं है, जरा देर के लिए पचास-साठ रुपये खर्च करने से फायदा ।

रमानाथ-तुम्हारे पास अच्छी साड़ी कहां है। इसकी साड़ी तुमने देखी? ऐसी ही तुम्हारे लिए भी लाऊंगा। [ ५९ ]जालपा ने विवशता के भाव से कहा-मुझे साफ कह देना चाहिए था कि फुरसत नहीं है।

रमानाथ-फिर इनकी दावत भी तो करनी पड़ेगी।

जालपा-यह तो बुरी विपत्ति गले पड़ी।

रमानाथ-विपत्ति कुछ नहीं है, सिर्फ यहीं खयाल है कि मेरा मकान इस काम के लायक नहीं। मेज, कुर्सियां, चाय के सेट रमेश के यहां से मांग लाऊंगा, लेकिन घर के लिए क्या करूं!

जालपा-क्या यह जरूरी है कि हम लोग भी दावत करें?

रमा ने ऐसी भद्दी बात का कुछ उत्तर न दिया। उसे जालपा के लिए एक जूते की जोड़ी और सुंदर कलाई की घड़ी की फिक्र पैदा हो गई। उसके पास कौंडी भी न थी। उसका खर्च रोज बढ़ता जाता था। अभी तक गहने वालों को एक पैसा भी देने की नौबत न आई थी। एक बार गंगू महाराज ने इशारे से तकाजा भी किया था, लेकिन यह भी तो नहीं हो सकता कि जालपा फटे चप्पलों चाय-पार्टी में जाय। नहीं, जालपा पर वह इतना अन्याय नहीं कर सकता। इस अवसर पर जालपा की रूप-शोभा का सिक्का बैठ जायगा। सभी तो आज चमाचम साड़ियां पहने हुए थीं। जड़ाऊ कंगन और मोतियों के हारों की भी तो कमी न थी पर जालपा अपने सादे आवरण में उनसे कोसों आगे थी। उसके सामने एक भी नहीं जंचती थी। यह मेरे पूर्व कर्मों का फल है कि मुझे ऐसी सुंदरी मिली। आखिर यही तो खाने-पहनने और जीवन का आनद उठाने के दिन हैं। जब जवानी ही में सुख न उठाया, तो बुढ़ापे में क्या कर लेंगे ! बुढ़ापे में मान लिया धन हुआ ही तो क्या। यौवन बीत जाने पर विवाह किस काम का? साड़ी और घड़ी लाने की उसे धुन सवार हो गई। रातभर तो उसने सब्र किया। दसरे दिन दोनों चीजें लाकर ही दम लिया।

जालपा ने झुंझलाकर कहा-मैंने तो तुमसे कहा था कि इन चीजों का काम नहीं है। डेढ़ सौ से कम की न होगी?

रमानाथ-डेढ़ सौ ! इतना फजूलखर्च मैं नहीं हूं।

जालपा-डेढ़ सौ से कम की ये चीजें नहीं हैं।

जालपा ने घड़ी कलाई में बांध ली और साड़ी को खोलकर मंत्रमुग्ध नेत्रों से देखा।

रमानाथ–तुम्हारी कलाई पर यह घड़ी कैसी खिल रही है। मेरे रुपये वसूल हो गए।

जालपा- सच बताओ, कितने रुपये खर्च हुए?

रमानाथ-सच बता दें? एक सौ पैंतीस रुपये। पचहत्तर रुपये की साड़ी, दस के जूते और पचास की घड़ी।

जालपा-यह डेढ़ सौ ही हुए। मैंने कुछ बढ़ाकर थोड़े कहा था, मगर यह सब रुपये अदा कैसे होंगे? उस चुड़ैल ने व्यर्थ ही मुझे निमंत्रण दे दिया। अब मैं बाहर जाना हो छोड़ दूंगी।

रमा भी इसी चिंता में मग्न था, पर उसने अपने भाव को प्रकट करके जालपा के हर्ष में बाधा न डाली। बोला-सब अदा हो जायेगा।

जालपा ने तिरस्कार के भाव से कहा-कहां से अदा हो जाएगा, जरा सुनें। कौड़ी तो बचती नहीं, अदा कहां से हो जायगा? वह तो कहो बाबूजी घर का खर्च संभाले हुए हैं, नहीं तो मालूम होता। क्या तुम समझते हो कि मैं गहने और सायों पर मरती हूं? इन चीजों को लौटा आओ।

रमा ने प्रेमपूर्ण नेत्रों से कहा इन चीजों को रख लो। फिर तुमसे बिना पूछे कुछ न लाऊंगा। [ ६० ] संध्या समय जब जालपा ने नई साड़ी और नए जूते पहने, घड़ी कलाई पर बांधी और आईने में अपनी सूरत देखी, तो मारे गर्व और उल्लास के उसकी मुखमंडल प्रज्वलित हो उठा। उसने उन चीजों के लौटाने के लिए सच्चे दिल से कहा हो, पर इस समय वह इतना त्याग करने को तैयार न थी। संध्या समय जालपा और रमा छावनी की ओर चले। महिला ने केवल बंगले का नंबर बतला दिया था। बंगला आसानी से मिल गया। फाटक पर साइनबोर्ड था-' इन्दुभूषण, ऐडवोकेट, हाईकोर्ट।' अब रमा को मालूम हुआ कि वह महिला पं० इन्दुभूषण की पत्नी थी। पंडितजी काशी के नामी वकील थे। रमा ने उन्हें कितनी ही बार देखा था, पर इतने बड़े आदमी से परिचय का सौभाग्य उसे कैसे होता । छ: महीने पहले वह कल्पना भी न कर सकता था, कि किसी दिन उसे उनके घर निमंत्रित होने का गौरव प्राप्त होगा; पर जालपा की बदौलत आज वह अनहोनी बात हो गई। वह काशी के बड़े वकील का मेहमान था।

रमा ने सोचा था कि बहुत से स्त्री-पुरुष निमंत्रित होगे, पर यहां वकील साहब और उनकी पत्नी रतन के सिवा और कोई न था। रतन इन दोनों को देखते ही बरामदे में निकल आई और उनसे हाथ मिलाकर अंदर ले गई और अपने पति से उनका परिचय कराया। पंडितजी ने आरामकुर्सी पर लेटे-ही-लेटे दोनों मेहमानों से हाथ मिलाया और मुस्कराकर कहा–क्षमा कीजिएगा बाबू साहब, मेरा स्वास्थ्य अच्छा नहीं है। आप यहां किसी आफिस में हैं।

रमा ने झेंपते हुए कहा-जी हां, म्युनिसिपल आफिस में हूं। अभी हाल ही में आया है। कानून की तरफ जाने का इरादा था, पर नए वकीलों की यहां जो हालत हो रही है, उसे देखकर हिम्मत न पड़ी।

रमा ने अपना महत्त्व बढ़ाने के लिए जरा-सा झूठ बोलना अनुचित न समझा। इसका असर बहुत अच्छा हुआ। अगर वह साफ कह देता, मैं पच्चीस रुपये का क्लर्क हूँ, तो शायद वकील साहब उससे बातें करने में अपना अपमान समझते। बोले-अपने बहुत अच्छा किया जो इधर नहीं आए। वहां दो-चार साल के बाद अच्छी जगह पर पहुंच जाएंगे, यह संभव है दस साल तक आपको कोई मुकदमा ही न मिलता।

जालपा को अभी तक संदेह हो रहा था कि इतने वकील साहब की बेटी है या पत्नी। वकील साहब की उम्र साठ से नीचे न थी। चिकनी चांद आस-पास के सफेद बालों के बीच में वारनिश की हुई लकड़ी की भांति चमक रही थी। मूछें साफ थीं, पर माथे की शिकन और गालों की झुर्रियां बतला रही थीं कि यात्री संसार-यात्रा से थक गया है। आरामकुर्सी पर लेटे हुए वह ऐसे मालूम होते थे, जैसे बरसों के मरीज हों ! हां, रंग गोरा था, जो साठ साल की गर्मी-सर्दी खाने पर भी उड़ न सका था। ऊंची नाक थी, ऊंचा माथा और बड़ी-बड़ी आंखें, जिनमें अभिमान भरा हुआ था। उनके मुख से ऐसा भासित होता था कि उन्हें किसी से बोलना या किसी बात का जवाब देना भी अच्छा नहीं लगता। इसके प्रतिकूल सांवली, सुगठित युवती थी, बड़ी मिलनसार, जिसे गर्व ने छुआ तक न था। सौंदर्य का उसके रूप में कोई लक्षण न था। नाक चिपटी थी, मुख गोल, आंखें छोटी, फिर भी वह रानी-सी लगती थी। जालपा उसके सामने ऐसी लगती थी, जैसे सूर्यमूखी के सामने जूही का फूल।

चाय आई। मेवे, फल, मिठाई, बर्फ की कुल्फी, सब मेजों पर सजा दिए गए। रतन और जालपा एक मेज पर बैठीं। दूसरी मेज रमा और वकील साहब की थी। रमा मेज के सामने जा [ ६१ ]

बैठा, मगर वकील साहब अभी आरामकुर्सी पर लेटे ही हुए थे।

रमा ने मुस्कराकर वकील साहब से कहा-आप भी तो आएं।

वकील साहब ने लेटे-लेटे मुस्कराकर कहा-आप शुरू कीजिए, मैं भी आया जाता हूँ।

लोगों ने चाय पी फल खाए: पर वकील साहब के सामने हंसते-बोलते रमा और जालपा दोनों ही झिझकते थे। जिंदादिल बूढ़ों के साथ तो सोहबत का आनंद उठाया जा सकता है, लेकिन ऐसे रूखे, निर्जीव मनुष्य जवान भी हों, तो दूसरों को मुर्दा बना देते हैं। वकील साहब ने बहुत आग्रह करने पर दो घूंट चाय पी। दूर से बैठे तमाशा देखते रहे। इसलिए जब रतन ने जालपा से कहा-चलो, हम लोग जरा बगीचे की सैर करें, इन दोनों महाशयों को समाज और नीति की विवेचना करने दें, तो मानो जालपा के गले का फंदा छूट गया। रमा ने पिंजड़े में बंद पक्षी की भांति उन दोनों को कमरे से निकलते देखा और एक लंबी सास ली। वह जानता कि यहां यह विपत्ति उसके सिर पड़ जायगी, तो आने का नाम न लेता।

वकील साहब ने मुंह सिकोड़कर पहलू बदला और बोले-मालूम नहीं, पेट में क्या हो गया है, कि कोई चीज हजम ही नहीं होती। दूध भी नहीं हजम होता। चाय को लोग न जाने क्यों इनने शौक से पोते हैं, मुझे तो इसकी सूरत से भी डर लगता है। पीते ही बदन में ऐंठन-सी होने लगती है और आंखों से चिनगारियां-सी निकलने लगती हैं।

रमा ने दर भाग्ने हाजमे की कोई दवा नहीं की?

वकील साहब ने अरुचि के भाव से कहा-देवाओं पर मुझे रत्ती भर भी विश्वास नहीं। इन वैद्यों और डाक्टरों में ज्यादा बेसमझ आदमी संसार में न मिलेंगे। किसी में निदान की शक्ति नहीं। दो वैद्यों, दो डाक्टरों के निदान कभी न मिलेंगे। लक्षण वही हैं, पर एक वैद्य रक्तदोष बतलाता हैं, दूम्परा पित्तदोष, एक डाक्टर फेफड़े का सून बतलाता हैं, दूसरा आमाशय का विकार। बस, अनमान में दवा की जाती है और निर्दयता से रोगियों को गर्दन पर छुरी फेरी जाती हैं। इन डाक्टरों ने मुझे तो अब तक जहन्नुम पहुंचा दिया होता, पर मैं उनके पंजे से निकल भागा। योगाभ्यास की बड़ी प्रशंसा सुनता हूं पर कोई ऐसे महाना नहीं मिलते, जिनसे कुछ सीख सकूं। किताबों के आधार पर कोई क्रिया करने से लाभ के बदले न होने का डर रहता। यहां तो आरोग्य-शास्त्र का खंडन हो रहा था, उधर दोनों महिलाओं में प्रगाढ़ स्नेह की बातें हो रही थी।

रतन ने मुस्कराकर कहा- मेरे पतिदेव को देखकर तुम्हें बड़ा आश्चर्य हुआ होगा।

जालपा को आश्चर्य ही नहीं, भम्र भी हुआ था। बोली-वकील साहब का दूसरा विवाह होगा।

रतन-हां, अभी पांच ही बरस तो हुए हैं। इनकी पहली स्त्री को मरे पैंतीस वर्ष हो गए।

उस समय इनकी अवस्था कुल पच्चीस साल की थी। लोगों ने समझाना, दूसरा विवाह कर लो; पर इनके एक लड़का हो चुका था, विवाह करने से इंकार कर दिया और तीस साल तक अकेले रहे, मगर आज पांच वर्ष हुए, जवान बेटे का देहांत हो गया, तब विवाह करना आवश्यक हो गया। मेरे मां-बाप न थे। मामाजी ने मेरा पालन किया था। कह नहीं सकती, इनसे कुछ ले लिया या इनकी सज्जनता पर मुग्ध हो गए। मैं तो समझती हूं, ईश्वर की यही इच्छा थी, लेकिन मैं जब से आई हूं, मोटी होती चली जाती हूं। डॉक्टरों का कहना है कि तुम्हें संतान नहीं हो सकती। [ ६२ ]

बहन, मुझे तो संतान की लालसा नहीं है, लेकिन मेरे पति मेरी दशा देखकर बहुत दुखी रहते हैं। मैं ही इनके सब रोगों की जड़ हूं। आज ईश्वर मुझे एक संतान दे दे, तो इनके सारे रोग भाग जाएंगे। कितना चाहती हूं कि दुबली हो जाऊं, गरम पानी से टब-स्नान करती हूं, रोज पैदल घूमने जाती हूं, घी-दूध कम खाती हूं, भोजन आधा कर दिया है, जितना परिश्रम करते बनता है; करती हूं, फिर भी दिन-दिन मोटी ही होती जाती हूं। कुछ समझ में नहीं आता, क्या करूं?

जालपा-वकील साहब तुमसे चिढ़ते होंगे?

रतन-नहीं बहन, बिल्कुल नहीं, भूलकर भी कभी मुझसे इसकी चर्चा नहीं की। उनके मुंह से कभी एक शब्द भी ऐसा नहीं निकला, जिससे उनकी मनोव्यथा प्रकट होती, पर मैं जानती हूं, यह चिंता उन्हें मारे डालती है। अपना कोई बस नहीं है। क्या करूं। मैं जितना चाहूं, खर्च करूं, जैसे चाहूं रहूं, कभी नहीं बोलते। जो कुछ पाते हैं, लाकर मेरे हाथ पर रख देते हैं। समझाती हूँ, अब तुम्हें वकालत करने की क्या जरूरत है, आराम क्यों नहीं करते, पर इनसे घरपर बैठे रहा नहीं जाता। केवल दो चपातियों से नाता है। बहुत जिद की तो दो-चार दाने अंगूर खा लिए। मुझे तो उन पर दया आती हैं, अपने से जहां तक हो सकता है, उनकी सेवा करती हूं। आखिर वह मेरे ही लिए तो अपनी जान खपा रहे हैं।

जालपा–ऐसे पुरुष को देवता समझना चाहिए। यहां तो एक स्त्री मरी नहीं कि दूसरा ब्याह रच गया। तीस साल अकेले रहना सबका काम नहीं है।

रतन–हां बहन, हैं तो देवता ही। अब भी कभी उस स्त्री की चर्चा आ जाती हैं, तो रोने लगते हैं। तुम्हें उनकी तस्वीर दिखाऊंगी। देखने में जितने कठोर मालुम होते हैं, भीतर से इनका हृदय उतना ही नरम है। कितने ही अनाथों, विधवाओं और गरीबों के महीने बांध रक्खे हैं। तुम्हारा वह कंगन तो बड़ा सुंदर है ।

जालपा–हां, बड़े अच्छे कारीगर का बनाया हुआ है।

रतन-मैं तो यहां किसी को जानती ही नहीं। वकील साहब को गहनों के लिए कष्ट देने की इच्छा नहीं होती। मामूली सुनारों से बनवाते डर लगता है, न जाने क्या मिला दें। मेरी सपत्नीजी के सब गहने रक्खे हुए हैं, लेकिन वह मुझे अच्छे नहीं लगते। तुम बाबू रमानाथ से मेरे लिए ऐसा ही एक जोड़ी कंगन बनवा दो।

जालपा-देखिए, पूछती हूं।

रतन-आज तुम्हारे आने से जी बहुत खुश हुआ। दिनभर अकेली पड़ी रहती है। जी घबड़ाया करता है। किसके पास जाऊं? किसी से परिचय नहीं और न मेरा मन ही चाहता है कि उनसे मैत्री करूं। दो-एक महिलाओं को बुलाया, उनके घर गई, चाहा कि उनसे बहनापा जोड़ लूं, लेकिन उनके आचार-विचार देखकर उनसे दूर रहना ही अच्छा मालूम हुआ। दोनों ही मुझे उल्लू बनाकर जटना चाहती थीं। मुझसे रुपये उधार ले गई और आज तक दे रही हैं। श्रृंगार की चीजों पर मैंने उनका इतना प्रेम देखा, कि कहते लज्जा आती है। तुम घड़ी-आध- घड़ी के लिए रोज चली आया करो बहन।

जालपा-वाह इससे अच्छा और क्या होगा।

रतन-मैं मोटर भेज दिया करूंगी।

जालपा-क्या जरूरत है। तांगे तो मिलते ही हैं।

रतन- न जाने क्यों तुम्हें छोड़ने को जी नहीं चाहता। तुम्हें पाकर रमानाथजी अपनी [ ६३ ]

भाग्य सराहते होंगे।

जालपा ने मुस्कराकर कहा-भाग्य-वाग्य तो कुछ नहीं सराहते, घुड़कियां जमाया करते

रतन–सच। मुझे तो विश्वास नहीं आता। लो, वह भी तो आ गए। पूछना, ऐसा दूसरा कंगन बनवा देंगे।

जालपा-(रमा से) क्यों चरनदास से कहा जाए तो ऐसा कंगन कितने दिन में बना देगा । रतन ऐसा ही कंगन बनवाना चाहती हैं।

रमा ने तत्परता से कहा- हां, बना क्यों नहीं सकता। इससे बहुत अच्छे बना सकता है।

रतन-इस जोड़े के क्या लिए थे?

जालपा-आठ सौ के थे।

रतन-कोई हरज नहीं, मगर बिल्कुल ऐसा ही हो, इसी नमूने का।

रमा-हां-हां, बनवा दूंगा।


रतन-मगर भाई, अभी मेरे पास रुपये नहीं हैं।

रुपये के मामले में पुरुष महिलाओं के सामने कुछ नहीं कह सकता। क्या वह कह सकता है, इस वक्त मेरे पास रुपये नहीं हैं। वह मर जाएगा, पर यह उज्र न करेगा। वह कर्ज लेगा, दूसरीं शामद करेगा; पर स्त्री के सामने अपनी मजबूरी न दिखाएगा। रुपये की चर्चा को ही वह तुच्छ समझता है। जालपा पति की आर्थिक दशा अच्छी तरह जानती थी। पर यदि रमा ने इस समय कोई बहाना कर दिया होता, तो उसे बहुत बुरा मालूम होता। वह मन में डर रही थी कि कहीं यह महाशय यह न कह बैठें, सर्राफ से पूछकर कहूंगा। उसका दिल धड़क रहा था, जब रमा ने वीरता के साथ कहा-हां-हां, रुपये की कोई बात नहीं, जब चाहे दे दीजिएगा, तो वह खुश हो गई।

रतन-तो कब तक आशा करूं?

रमानाथ-मैं आज हो सर्राफ से कह दूंगा, तब भी पंद्रह दिन तो लग हो जाएंगे।

जालपा-अब की रविवार को मेरे ही घर चाय पीजिएगा।

रतन ने निमंत्रण सहर्ष स्वीकार किया और दोनों आदमी विदा हुए।

घर पहुंचे, तो शाम हो गई थी। रमेश बाबू बैठे हुए थे। जालपा तो तांगे से उतरकर अंदर चली गई, रमा रमेश बाबू के पास जाकर बोला—क्या आपको आए देर हुई?

रमेश–नहीं, अभी तो चला आ रहा हूं। क्या वकील साहब के यहां गए थे?

रमा–जी हां, तीन रुपये की चपत पड़ गई।

रमेश-कोई हरज नहीं, यह रुपये वसूल हो जाएंगे। बड़े आदमियों से राह-रस्म हो जाय तो बुरा नहीं है, बड़े-बड़े काम निकलते हैं। एक दिन उन लोगों को भी तो बुलाओ।

रमा-अबकी इतवार को चाय की दावत दे आया हूं।

रमेश-कहो तो मैं भी आ जाऊं। जानते हो न वकील साहब के एक भाई इंजीनियर हैं। मेरे एक साले बहुत दिनों से बेकार बैठे हैं। अगर वकील साहब उसकी सिफारिश कर दें, तो गरीब को जगह मिल जाय। तुम जरा मेरा इंट्रोडक्शन करा देना, बाकी और सब मैं कर दूंगा। पार्टी का इंतजाम ईश्वर ने चाहा, तो ऐसा होगा कि मेमसाहब खुश हो जाएंगी। चाय के सेट, शीशे के रंगीन गुलदान और फानूस मैं ला दूंगा! कुर्सियां, मेजें, फर्श सब मेरे ऊपर छोड़ दो। न [ ६४ ]
कुली की जरूरत, न मजूर की। उन्हीं मूसलचंद को रगेदूंगा।

रमानाथ-तब तो बड़ा मजा रहेगा। मैं तो बड़ी चिंता में पड़ा हुआ था।

रमेश-चिंता की कोई बात नहीं, उसी लौंडे को जोत दूंगा। कहूंगा, जगह चाहते हो तो कारगुजारी दिखाओ। फिर देखना, कैसी दौड़-धूप करती है।

रमानाथ-अभी दो-तीन महीने हुए आप अपने साले को कहीं नौकर रखा चुके हैं न?

रमेश-अजी, अभी छ: और बाकी हैं। पूरे सात जीव हैं। जरा बैठ जाओ, जरूरी चीजों का सूची बना ली जाए। आज ही से दौड़-धूप होगी, तब सब चीजें जुटा सकूगा। और कितने मेहमान होंगे?

रमानाथ-मेम साहब होंगी, और शायद वकील साहब भी आए।

रमेश—यह बहुत अच्छा किया। बहुत-से आदमी हो जाते, तो भभड़ हो जाता। हमें तो मेम साहब से काम है। ठलुओं की खुशामद करने से क्या फायदा?

दोनों आदमियों ने सूची तैयार की। रमेश बाबू ने दूसरे ही दिन से सामान जमा करना शुरू किया। उनकी पहुंच अच्छे-अच्छे घरों में थी। सजावट की अच्छी-अच्छी चीजें बटोर नाए, सारा घर जगमगा उठा। दयानाथ भी इन तैयारियों में शरीक थे। चीजों को करीने से सजाना उनका काम था। कौन गमला कहां रखा जाय, कौन तस्वीर कहीं लटकाई जाये, कौन-सा गलीचा कहां बिछाया जाय, इन प्रश्नों पर तीनों मनुष्यों में घंटों वाद-विवाद होता था। दफ्तर जाने के पहले और दफ्तर से आने के बाद तीनों इन्हीं कामों में जुट जाते थे। एक दिन इस बात पर बहस छिड़ गई कि कमरे में आईना कहां रखा जाय। दयानाथ कहते थे, इस कमरे में आईने की जरूरत नहीं। आईना पीछे वाले कमरे में रखना चाहिए। रमेश इसका विरोध कर रहे थे। रमा दुविधे में चुपचाप खड़ा था। न इनकी-मी कह सकता था, न उनकी-सी।

दयानाथ-मैने सैकड़ों अंगरेजों के ड्राइंग-रूम देखे हैं, कहीं आईना नहीं देखा। आईना श्रृंगार के कमरे में रहना चाहिए। यहां आईना रखना बेतुकी-सी बात है।

रमेश-मुझे सैकड़ों अंगरेजों के कमरों को देखने का अवसर तो नहीं मिला है, लेकिन दो-चार जरूर देखे हैं और उनमें आईना लगा हुआ देखा। फिर क्या यह जरूरी बात है कि इन जरा-जरा-सी बातों में भी हम अंगरेजों की नकल करें? हम अंगरेज नहीं, हिन्दुस्तानी हैं। हिन्दुस्तानी रईसों के कमरे में बड़े-बड़े आदमकद आईने रक्खे जाते हैं। यह तो आपने हमारे बिगड़े हुए बाबुओं की-सी बात कही, जो पहनावे में, कमरे की सजावट में, बोली में, चाय और शराब में, चीनी की प्यालयों में-गरज दिखावे की सभी बातों में तो अंगरजों का मुंह चिढ़ाते हैं; लेकिन जिन बातों ने अंगरेजों को अंगरेज बना दिया है, और जिनकी बदौलत वे दुनिया पर राज करते हैं, उनकी हवा तक नहीं छू जाती। क्या आपको भी बुढ़ापे में, अंगरेज बनने का शौक चर्राया है?

दयानाथ अंगरेजों की नकल को बहुत बुरा समझते थे। यह चाय-पार्टी भी उन्हें बुरी मालूम हो रही थी। अगर कुछ संतोष था, तो यही कि दो-चार बड़े आदमियों से परिचय हो जायेगा। उन्होंने अपनी जिंदगी में कभी कोट नहीं पहना था। चाय पीते थे; मगर चीनी के सेट की कैद न थी। कटोरा-कटोरी, गिलास, लोटा-तसला किसी से भी उन्हें आपत्ति न थी, लेकिन इस वक्त उन्हें अपना पक्ष निभाने की पड़ी थी। बोले-हिन्दुस्तानी रईसों के कमरे में मेजें-कुर्सियां नहीं होतीं, फर्श होता है। आपने कुर्सी-मेज लगाकर इसे अंगरेजी ढंग पर तो बना दिया, [ ६५ ]
अब आईने के लिए हिन्दुस्तानियों की मिसाल दे रहे हैं। या तो हिन्दुस्तानी रखिए या अंगरेजी। यह क्या कि आधा तीतर आधा बटेर। कोट-पतलून पर चौगोशिया टोपी तो नहीं अच्छी मालूम होती !

रमेश बाबू ने समझा था कि दयानाथ की जबान बंद हो जायगी, लेकिन यह जवाब सुना तो चकराए। मैदान हाथ में जाता हुआ दिखाई दिया। बोले-तो आपने किसी अंगरेज के कमरे में आईना नहीं देखा? भला ऐसे दुस-पांच अंगरेजों के नाम तो बताइए? एक आपका वही किरंटा हेड क्लर्क है, उसके सिवा और किसी अंगरेज के कमरे में तो शायद अपने कदम भी ने रक्खा हो। उसी किरंटे को आपने अंगरेजी रुचि का आदर्श समझ लिया है खुब । मानता हूं।

दयानाथ-यह तो आपकी जबान है, उसे किरंटा, चमरशियन, पिलपिली जो चाहे कहें, लेकिन रंग को छोड़कर वह किसी बात में अंगरेजों से कम नहीं। और उसके पहले तो योरपियन था।

रमेश इसका कोई जवाब सोच ही रहे थे कि एक मोटरकार द्वार पर आकर रुकी, और रतनबाई उतरकर बरामदे में आई। तीनों आदमी चटपट बाहर निकल आए। रमा को इस वक्त रतन का आना बुरा मालूम हुआ। डर रहा था कि कहीं कमरे में भी न चली आए, नहीं तो सारी कलई खुल जाए। आगे बढ़कर हाथ मिलाता हुआ बोला-आइए, यह मेरे पिता हैं, और यह मेरे दोस्त रमेश बाबू हैं लेकिन उन दोनों जनों ने हाथ बढ़ाया और न जगह से हिले। सकपकाए-से खड़े रहे। रतन भी उनसे हाथ मिलाने की जरूरत न समझी। दूर ही में उनको नमस्कार करके रमा से बोलीं-नहीं, बैठूंगी नहीं। इस वक्त फुर्सत नहीं है। आपसे कुछ कहना था।

यह कहते हुए वह रमा के साथ मोटर तक आई और आहिस्ता से बोली-अपने सर्राफ से कहे तो दिया होगा?

रमा ने नि:संकोच होका कहा- जी हां, बना रहा है।

रतन-उम दिन मैंने कहा था, अभी रुपये न दे सकें, पर मैंने समझा शायद अपको कष्ट हो, इसलिए रुपये मंगवा लिए। आठ सौ चाहिए न?

जालपा ने कंगन के दाम आठ सौ बताए थे। रमा चाहता तो इतने रु•ले सकता था। पर रतन की सरलता और विश्वास ने उसके हाथ पकड़ लिए। ऐसी उदार, निष्कपट रमणी के साथ वह विश्वासघात न कर सका। वह व्यापारियों से दो-दो, चार-चार आने लेते जरा भी न झिझकता था। वह जानता था कि वे सब भी गाहकों को उल्टे छुरे से मुंड़ते हैं। ऐसों के साथ ऐसा व्यवहार करते हुए उसकी आत्मा को लेशमात्र भी संकोच न होता था, लेकिन इस देवी के साथ यह कपट व्यवहार करने के लिए किसी पुराने पपी की जरूरत थी। कुछ सकुचाता हुआ बोला-क्या जालपा ने कंगन के दाम आठ सौ बतलाए थे? उसे शायद याद न रही होगी। उसके कंगन छ: सौ के हैं। आप चाहें तो आठ सौ का बनवा दें।

रतन-नहीं, मुझे तो वहीं पसंद है। आप छ: सौ का ही बनवाइए।

उसने मोटर पर से अपनी थैली उठाकर सौ-२५ रुपये के छ: नोट निकाले।

रमा ने कहा-ऐसी जल्दी क्या थी, चीज तैयार हो जाती, तब हिसाब हो जाता।

रतन-मेरे पास रुपये खर्च हो जाते। इसलिए मैंने सोचा, आपके सिर पर लाद आऊं। मेरी आदत है कि जो काम करती हैं, जल्द-से-जल्द कर डालती हूं। विलंब से मुझे उलझन होती है। [ ६६ ] यह कहकर वह मोटर पर बैठ गई, मोटर हवा हो गई। रमा संदूक में रुपये रखने के लिए अंदर चला गया, तो दोनों वृद्धजनों में बातें होने लगीं।

रमेश—देखा?

दयानाथ-जी हां, आंखें खुली हुई थीं। अब मेरे घर में भी वही हवा आ रही है। ईश्वर ही बचावे।

रमेश–बात तो ऐसी ही है, पर आजकल ऐसी ही औरतों का काम है। जरूरत पड़े, तो कुछ मदद तो कर सकती हैं। बीमार पड़ जाओ तो डाक्टर को तो बुला ला सकती हैं। यहां तो चाहे हम मर जाएं, तब भी क्या मजाल कि स्त्री घर से बाहर पांव निकाले।

दयानाथ-हमसे तो भाई, यह अंगरेजियत नहीं देखी जाती। क्या करें। संतान की ममता है, नहीं तो यही जी चाहता है कि रमा से साफ कह दूं, भैया अपना घर अलग लेकर रहो। आंख फूट, पीर गई। मुझे तो उन मर्दो पर क्रोध आता है, जो स्त्रियों को यों सिर चढ़ाते हैं। देख लेना, एक दिन यह औरत वकील साहब को दगा देगी।

रमेश-महाशय, इस बात में मैं तुमसे सहमत नहीं हूं। यह क्यों मान लेते हो कि जो औरत बाहर आती-जाती है, वह जरूर ही बिगड़ी हुई है? मगर रमा को मानती बहुत है। रुपये न जाने किसलिए दिए?

दयानाथ-मुझे तो इसमें कुछ गोलमाल मालूम होता है। रमा कहीं उससे कोई चाल न चल रहा हो?

इसी समय रमा भीतर से निकला आ रहा था। अंतिम वाक्य उसके कान में पड़ गया। भौंहें चढ़ाकर बोला—जी हां, जरूर चाल चल रहा हूं। उसे धोखा देकर रुपये ऐंठ रहा हूं। यही तो मेरा पेशा है।

दयानाथ ने झंपते हुए कहा-तो इतना बिगड़ते क्यों हो मैंने तो कोई ऐसी बात नहीं कही?

रमानाथ-पक्का जातिया बना दिया और क्या कहते? आपके दिल में ऐसा शुबहा क्यों आया? आपने मुझमें ऐसी कौन-सी बात देखी, जिसमें आपको यह खयाल पैदा हुआ? में जरा साफ-सुथरे कपड़े पहनता हूं, जरा नई प्रथा के अनुसार चलता हूं, इसके सिवा आपने मुझमें कौन-सी बुराई देखी? मैं जो कुछ खर्च करता हूं, ईमान से कमाकर खर्च करता हूं। जिस दिन धोखे और फरेब की नौबत आएगी, जहर खाकर प्राण दे दूंगा। हां, यह बात है कि किसी को खर्च करने की तमीज होती है, किसी को नहीं होती। वह अपनी सुबुद्धि है; अगर इसे आप धोखेबाजी समझें, तो आपको अख्तियार है। जब आपकी तरफ से मेरे विषय में ऐसे संशय होने लगे, तो मेरे लिए यही अच्छा है कि मुंह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाऊं। रमेश बाबू यहां मौजूद हैं। आप इनसे मेरे विषय में जो कुछ चाहें, पूछ सकते हैं। यह मेरे खातिर झूठ न बोलेंगे।

सत्य के रंग में रंगी हुई इन बातों ने दयानाथ को आश्वस्त कर दिया। बोले—जिस दिन मुझे मालूम हो जायगी कि तुमने यह दंग अख्तियार किया है, उसके पहले मैं मुंह में कालिख लगाकर निकल जाऊंगा। तुम्हारा बढ़ता हुआ खर्च देखकर मेरे मन में संदेह हुआ था, मैं इसे छिपाता नहीं हूं, लेकिन जब तुम कह रहे हो तुम्हारी नीयत साफ है, तो मैं संतुष्ट हूं। मैं केवल इतना ही चाहता हूं कि मेरा लड़का चाहे गरीब रहे, पर नीयत न बिगाड़े। मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वह तुम्हें सत्पथ पर रखे। [ ६७ ]रमेश ने मुस्कराकर कहा-अच्छा, यह किस्सा तो हो चुका, अब यह बताओ, उसने तुम्हें रुपये किसलिए दिए । मैं गिन रहा था, छ: नोट थे, शायद सौ-सौ के थे।

रमानाथ-ठगे लाया हूँ।

रमेश-मुझसे शरारत करोगे तो मार बैठूंगा। अगर जट ही लाए हो, तो भी मैं तुम्हारी पीठ ठोकूंगा, जीने रहो। खूब जटो, लेकिन आबरू पर आंच न आने पाए। किसी को कानोंकान खबर न हो। ईश्वर से तो मैं डरता नहीं। वह जो कुछ पूछेगा, उसका जवाब मैं दे लूंगा, मगर आदमी से डरता हूं। सच बताओ, किसलिए रुपये दिए ? कुछ दलाली मिलने वाली हो तो मुझे भी शरीक कर लेना।

रमानाथ-जड़ाऊ कगन बनवाने को कह गई हैं।

रमेश-तो चलो, मैं एक अच्छे सराफ से बनवा दें। यह झंझट तुमने बुरा मोल ले लिया। औरत का स्वभाव जानते नहीं। किसी पर विश्वास तो इन्हें आता ही नहीं। तुम चाहे दो-चार रुपये अपने पास ही से खर्च कर दो, पर वह यही समझेंगी कि मुझे लूट लिया। नेकनामी तो शायद ही मिले, हां, बदनामी तैयार खड़ी है।

रमानाथ-आप मूर्ख स्त्रियों की बातें कर रहे हैं। शिक्षित स्त्रियां ऐसी नहीं होतीं।

जरा देर बाद रमा अंदर जाकर जालपा से बोला-अभी तुम्हारी सहेली रतन आई थीं?

जालपा- सच! तब तो बड़ी गड़बड़ हुआ होगा। यहां कुछ तैयारी हो थी ही नहीं।

रमानाथ- कुशल यही हुई कि कमरे में नहीं आईं। कंगन के रुपये देने आई थीं। तुमने उनसे शायद आठ सौ रुपये बताए थे। मैंने छ सौ ले लिए।

जालपा ने झेंपते हए कहा-मैंने तो दिल्लगी की थी।

जालपा ने इस तरह अपनी सफाई तो दे दी, लेकिन बहुत देर तक उसके मन में उथल-पुथल होती रही। रमा ने अगर आठ सौ रुपये ले लिए होते, तो शायद उथल-पुथल न होती। वह अपनी सफलता पर खुश होती, पर रमा के विवेक ने उसकी धर्म-बुद्धि को जगा दिया था। वह पछता रही थी कि में व्यर्थ झूठ बोली। यह मुझे अपने मन में कितनी नीच समझ रहे होंगे। रतन भी मुझे कितनी बेईमान समझ रही होगी।

सोलह

चाय पार्टी में कोई विशेष बात नहीं हुई। रतन के साथ उसकी एक नाते को बहने और थी। वकील साहब न आए थे। दयानाथ ने उतनी देर के लिए घर से टल जाना ही उचित समझा। हां, रमेश बाबू बरामदे में बराबर खड़े रहे। रमा ने कई बार चाहा कि उन्हें भी पार्टी में शरीक कर लें, पर रमेश में इतना साहस न था।

जालपा ने दोनों मेहमानों को अपनी सास से मिलाया। ये युवतियां उन्हें कुछ ओछी जान पड़ीं। उनका सारे घर में दौड़ना, धम-धम करके कोठे पर जाना, छत पर इधर-उधर उचकना, खिलखिलाकर हंसना, उन्हें हुड़दंगपन मालूम होता था। उनकी नीति में बहू-बेटियों को भारी और लज्जाशील होना चाहिए था। आश्चर्य यह था कि आज जालपा भी उन्हीं में मिल गई थी। रतन ने आज कंगन की चर्चा तर्क न की। [ ६८ ]अभी तक रमा को पार्टी की तैयारियों से इतनी फुर्सत नहीं मिली थी कि गंगू की दुकान तक जाता। उसने समझा था, गंगू को छ: सौ रुपये दे दूंगा तो पिछले हिसाब में जमा हो जाएंगे। केवल ढाई सौ रुपये और रह जाएंगे। इस नये हिसाब में छ: सौ और मिलाकर फिर आठ सौ रह जाएंगे। इस तरह उसे अपनी साख जमाने का सुअवसर मिल जायेगा।

दूसरे दिन रमा खुश होता हुआ गंगू की दुकान पर पहुंचा और रोब से बोला-क्या रंग ढंग है महाराज, कोई नई चीज बनवाई है इधर?

रमा के टालमटोल से गंगू इतना विरक्त हो रहा था कि आज कुछ रुपये मिलने की आशा भी उसे प्रसन्न न कर सकी। शिकायत के ढंग से बोला-बाबू साहब, चीजें कितनी बनीं और कितनी बिकीं। आपने तो दुकान पर आना ही छोड़ दिया। इस तरह की दुकानदारों हम लोग नहीं करते। आठ महीने हुए, आपके यहां से एक पैसा भी नहीं मिला।

रमानाथ-भाई, खाली हाथ दुकान पर आते शर्म आती है। हम उन लोगों में नहीं हैं, जिनसे तकाजा करना पड़े। आज यह छ: सौ रुपये जमा कर लो, और एक अच्छा-सा कंगन तैयार कर दो। गंगू ने रुपये लेकर संदूक में रखे और बोला-बन जाएंगे। बाकी रूपये कब तक मिलेंगे?

रमानाथ-बहुत जल्द।

गंगू–हां बाबूजी, अब पिछला साफ कर दीजिए।

गंगू ने बहुत जल्द कंगन बनवाने का वचन दिया, लेकिन एक बार मैदा करके उसे मालूम हो गया कि यहां से जल्द रुपये वसूल होने वाले नहीं। नतीजा यह हुआ कि रमा रोज नकाजी करता और गंगू रोज हीले करके टालता। कभी कारीगर बीमार पड़ जाता, कभी अपनी स्त्री की दवा कराने ससुराल चला जाता, कभी उसके लड़के बीमार हो जाते। एक महीना गुजर गया और कंगन न बने। रतन के काजों के डर में रमा ने पार्क जाना छोड़ दिया. मगर उसने घर तो देख ही रखा था। इस एक महीने में कई बार तकाजा करने आई। आखिर जब सावन का महीना आ गया तो उसने एक दिन रमा से कहा-यह सुअर नहीं बनाकर देता, तो तुम किसी गैर कारीगर को क्यों नहीं देते?

रमानाथ-उस पाजी ने ऐसा धोखा दिया कि कुछ न पूछो, बस हो आज कल किया करता है। मैंने बड़ी भूल की जो उसे पेशगी रुपये दे दिये। अब उससे रुपये निकलना मुश्किल है।

रतन-आप मुझे उसकी दुकान दिखा दीजिए. में उसके आप से वसूल कर लूंगी। नावान अलग। ऐसे बेईमान आदमी को पुलिस में देना चाहिए।

जालपा ने कहा-हां और क्या। कभी सुनार देर करते हैं, मगर ऐसा नहीं, रुपये डकारे जायं और चीज के लिए महीनों दौड़ाएं।

रमा ने सिर खुजलाते हुए कहा-आप दस दिन और सब्र करें, मैं आज ही उससे रूपये लेकर किसी दूसरे सर्राफ को दे दूंगा।

रतन-आप मुझे उस बदमाश की दुकान क्यों नहीं दिखा देते। मैं हंटर से बात करूं।

रमानाथ–कहता तो हूँ। दस दिन के अंदर आपको कंगन मिल जाएगें।

रतन-आप खुद ही ढील डाले हुए हैं। आप उसकी लल्लो-चप्पो की बातों में आ जाते होंगे। एक बार कोड़े पड़ जातं, तो मजाल थी कि यो होले -हवाले करता । [ ६९ ]आख़िर रतन बड़ी मुश्किल से विदा हुई। उसी दिन शाम को गंगू ने साफ जवाब दे दिया-बिना आधे रुपये लिए कंगन न बन सकेंगे। पिछला हिसाब भी बेबाक हो जाना चाहिए।

रमा को मानो गोली लग गई। बोला–महाराज, यह तो भलमनसी नहीं है। एक महिला की चीज है, उन्होंने पेशगी रुपये दिए थे। सोचो, मैं उन्हें क्या मुंह दिखाऊंगा। मुझसे अपने रुपयों के लिए पुरनोट लिखा लो, स्टांप लिखा लो और क्या करोगे?

गंग-पुरनोट को शहद लगाकर चाटुंगा क्या? आत- आठ महीने का उधार नहीं होता। महीना, दो महीना बहुत है। आप तो बड़े आदमी हैं, आपके लिए पांच-छ: सौ रुपये कौन बड़ी बात है। कंगन तैयार हैं।

रमा ने दांत पीसकर कहा-अगर यही बात थी तो तुमने एक महीना पहले क्यों न कह दी? अब तक मैंने रुपये की कोई फिक्र की होती न ।

गंगू-मैं क्या जानता था, आप इतना भी नहीं समझ रहे हैं।

रमा निराश होकर घर लौटा आया। अगर इस समय भी उसने जालपा से सारा वृत्तांत साफ-साफ कह दिया होता तो उसे चाहे कितना ही दु:ख होता, पर वह कंगन उतारकर दे देती; लेकिन रमा में इतना साहस न था। वह अपनी आर्थिक कठिनाइयां की दशा कहकर उसके कोमल हृदय पर आघात न कर सकता था।

इस संदेह नहीं कि रमा को सौ रुपये के करीब ऊपर से मिल जाते थे, और वह किफायत करना जानता तो इन आठ महीनों में दोनों सर्राफों के कम-से-कम आधे रुपये अवश्य दे देता; लेकिन ऊपर की आमदनी थी तो ऊपर का खर्च भी था। जो कुछ मिलता था, सैर-सपाटे में खर्च हो जाता और सर्राफों का देना किसी एकमुश्त रकम की आशा में रुका हुआ था। कौड़ियों से रुपये बनाना वणिककों का ही काम है। बाबू लोग तो रुपये को कौड़ियां हीं बनाते।

कुछ रात जाने पर रमा ने एक बार फिर सराफे का चक्कर लगाया। बहुत चाहा, किसी सराफ को झांसा दें पर कहीं दाल न गली। बाजार में बेतार की खबरें चला करती हैं।

रमा को रातभर नींद न आई। यदि आज उसे एक हजार का रुपया लिखकर कोई पांच सौ रुपये भी दे देता तो वह निहाल हो जाता, पर अपनी जान-पहचान वालों में उसे ऐसा कोई नजर न आता था। अपने मिलने वालों में उसने सभी से अपनी हवा बांध रखी थी। खिलाने- पिलाने में खुले हाथों रुपया खर्च करता था। अब किस मुंह से अपनी विपत्ति कहे ? वह पछता रहा था कि नाहक गंगू को रुपये दिए। गंगू नालिश करने तो जाता न था। इस समय यदि रमा को कोई भयंकर रोग हो जाता तो वह उसका स्वागत करता। कम-से-कम दस-पांच दिन की मुहलत तो मिल जाती; मगर बुलाने से तो मौत भी नहीं आती । वह तो उसी समय आती है, जब हम उसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं होते। ईश्वर कहीं से कोई तार ही भिजवा दे, कोई ऐसा मित्र भी नजर नहीं आता था, जो उसके नाम फर्जी तार भेज देता। वह इन्हीं चिंताओं में करवटें बदल रहा था कि जालपा की आंख खुल गई। रम ने तुरंत चादर से मुंह छिपा लिया, मानो बेखबर सो रहा है। जालपा ने धीरे से चादर हटाकर उसका मुंह देखा और उसे सोता पाकर ध्यान से उसका मुंह देखने लगी। जागरण और निद्रा का अंतर उससे छिपा न रहा। उसे धीरे से हिलाकर बोली-क्या अभी तक जा रहे हो?

रमानाथ-क्या जाने क्यों नींद नहीं आ रही है। पड़े-पड़े सोचता था, कुछ दिनों के लिए [ ७० ]

कहीं बाहर चला जाऊं। कुछ रुपये कमा लाऊं।

जालपा–मुझे भी लेते चलोगे न?

रमानाथ-तुम्हें परदेश में कहां लिए-लिए फिरूंगा?

जालपा-तो मैं यहां अकेली रह चुकी। एक मिनट तो रहूंगी नहीं। मगर जाओगे कहां?

रमानाथ-अभी कुछ निश्चय नहीं कर सका हूं।

जालपा-तो क्या सचमुच तुम मुझे छोड़कर चले जाओगे ? मुझसे तो एक दिन भी न रहा जाय। मैं समझ गई, तुम मुझसे मुहब्बत नहीं करते। केवल मुंह-देखे की प्रीति करते हो।

रमानाथ तुम्हारे प्रेम-पाश ही ने मुझे यहां बांध रक्खा है। नहीं तो अब तक कभी चला गया होता।

जालपा–बातें बना रहे हो। अगर तुम्हें मुझसे सच्चा प्रेम होता, तो तुम कोई पर न रखते। तुम्हारे मन में जरूर कोई ऐसी बात है, जो तुम मुझसे छिपा रहे हो। कई दिनों से देख रही हैं, तम चिंता में डूबे रहते हो, मुझसे क्यों नहीं कहते। जहां विश्वास नहीं हैं, वहां प्रेम कैसे रह सकता है?

रमानाथ-यह तुम्हारा भ्रम है, जालपा मैंने तो तुमसे कभी परदा नहीं रखा।

जालपा-तो तुम मुझे सचमुच दिल से चाहते हो?

रमानाथ-यह क्या मुंह से कहूंगा जभी ।

जालपा–अच्छा, अब मैं एक प्रश्न करती हैं। संभले रहना। तुम मुझसे क्यों प्रेम करते हो । तुम्हें मेरी कसम है, सच बताना।

रमानाथ-यह तो तुमने बेढब प्रश्न किया। अगर मैं तुमसे यही प्रश्न पूछू तो तुम मुझे क्या जवाब दोगी?

जालपा-मैं तो जानती हूँ।

रमानाथ-बताओ।

जालपा-तुम बतला दो, मैं भी बतला दूं।

रमानाथ–मैं तो जानता ही नहीं। केवल इतना ही जानता हूं कि तुम मेरे रोम-रोम में रम रही हो।

जालपा-सोचकर बतलाओ। मैं आदर्श-पत्नी नहीं हूं, इसे मैं खूब जानती हूं। पति-सेवा अब तक मैंने नाम को भी नहीं की। ईश्वर की दया से तुम्हारे लिए अब तक कष्ट सहने की जरूरत ही नहीं पड़ी। घर-गृहस्थी का कोई काम मुझे नहीं आता। जो कुछ सीखा, यहीं सीखा। फिर तुम्हें मुझसे क्यों प्रेम है? बातचीत में निपुण नहीं। रूप-रंग भी ऐसा आकर्षक नहीं। जानते हो, मैं तुमसे क्यों प्रश्न कर रही हूँ?

रमानाथ-क्या जाने भाई, मेरी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा है।

जालपा-मैं इसलिए पूछ रही हूं कि तुम्हारे प्रेम को स्थायी बना सकूं।

रमानाथ-मैं कुछ नहीं जानता जालपा, ईमान से कहता हूं। तुममें कोई कमी है, कोई दोष है, यह बात आज तक मेरे ध्यान में नहीं आई, लेकिन तुमने मुझमें कौन-सी बात देखी? न मेरे पास धन है, न विद्या, न रूप है। बताओ?

जालपा-बता दें? मैं तुम्हारी सज्जनता पर मोहित हूं। अब तुमसे क्या छिपाऊं, जब मैं यहां आई तो यद्यपि तुम्हें अपना पति समझती थी, लेकिन कोई बात कहते या करते समय मुझे [ ७१ ]

चिंता होती थी कि तुम उसे पसंद करोगे या नहीं। यदि तुम्हारे बदले मेरा विवाह किसी दूसरे पुरुष से हुआ होता तो उसके साथ भी मेरा यही व्यवहार होता। यह पत्नी और पुरुष का रिवाजी नाता है, पर अब मैं तुम्हें गोपियों के कृष्ण से भी न बदलूंगी। लेकिन तुम्हारे दिल में अब भी चोर है। तुम अब भी मुझसे किसी-किसी बात में परदा रखते हो।

रमानाथ-यह तुम्हारी केवल शंका है, जालपा ! मैं दोस्तों से भी कोई दुराव नहीं करता। फिर तुम तो मेरी हृदयेश्वरी हो।

जालपा–मेरी तरफ देखकर बोलो, आंखें नीची करना मर्दों का काम नहीं है।

रमा के जी में एक बार फिर आया कि अपनी कठिनाइयों की कथा कह सुनाऊं, लेकिन मिथ्या गौरव ने फिर उसकी जबान बंद कर दी।

जालपा जब उससे पूछती, सराफों को रुपये देते जाते हो या नहीं, तो वह बराबर कहता, हां कुछ-न-कुछ हर महीने देता जाता हूं, पर आज रमा की दुर्बलता ने जालपा के मन में एक संदेह पैदा कर दिया था। वह उसी संदेह को मिटाना चाहती थी। जरा देर बाद उसने पूछा–सराफों के तो अभी सब रुपये अदा न हुए होंगे?

रमानाथ-अब थोड़े ही बाकी हैं।

जालपा-कितने बाकी होंगे, कुछ हिसाब-किताब लिखते हो?

रमानाथ-लिखता क्यों नहीं। सात सौ से कुछ कम ही होंगे।

जालपा-तब तो पूरी गठरी है, तुमने कहीं रतन के रुपये तो नहीं दे दिए?

रमा दिल में कांप रहा था, कहीं जालपा यह प्रश्न न कर बैठे। आखिर उसने यह प्रश्न पूछ ही लिया। उस वक्त भी यदि रमा ने साहस करके सच्ची बात स्वीकार कर ली होती तो शायद उसके संकटों का अंत हो जाता। जालपा एक मिनट तक अवश्य सन्नाटे में आ जातीं। संभव है, क्रोध और निराशा के आवेश में दो-चार कटु शब्द मुंह से निकालती, लेकिन फिर शांत हो जाती। दोनों मिलकर कोई-न-कोई युक्ति सोच निकालते। जालपा यदि रतन से यह रहस्य कह सुनाती, तो रतन अवश्य मान जाती, पर हाय रे आत्मगौरव |रमा ने यह बात सुनकर ऐसा मुंह बना लिया मान जालपा ने उस पर कोई निष्ठुर प्रहार किया हो। बोला-रतन के रुपये क्यों देता। आज चाहूं, तो दो-चार हजार का माल ला सकता हूं। कारीगरों की आदत देर करने की होती ही है। सुनार की खटाई मशहूर है। बस और कोई बात नहीं। दस दिन में या तो चीज ही लाऊंगा या रुपये वापस कर दूंगा, मगर यह शंका तुम्हें क्यों हुई? पराई रकम भला मैं अपने खर्च में कैसे लाता।

जालपा-कुछ नहीं, मैंने यों ही पूछा था।

जालपा को थोड़ी देर में नींद आ गई, पर रमा फिर उसी उधेड़बुन में पड़ा। कहां से रुपये लाए। अगर वह रमेश बाबू से साफ-साफ कह दे तो वह किसी महाजन से रुपये दिला देंगे, लेकिन नहीं, वह उनसे किसी तरह न कह सकेगा। उसमें इतना साहस न था।

उसने प्रात:काल नाश्ता करके दफ्तर की राह ली। यद वहां कुछ प्रबंध हो जाए | कौन प्रबंध करेगा, इसका उसे ध्यान न था। जैसे रोगी वैद्य के पास जाकर संतुष्ट हो जाता है पर यह नहीं जानता, मैं अच्छा हूंगा या नहीं। यही दशी इस समय रमा की थी। दफ्तर में चपरासी के सिवा और कोई न था। रमा रजिस्टर खोलकर अंकों की जांच करने लगा। कई दिनों से मीजान नहीं दिया गया था; पर बड़े बाबू के हस्ताक्षर मौजूद थे। अब मीजान दिया, तो ढाई हजार [ ७२ ]

निकले। एकाएक उसे एक बात सूझी। क्यों न ढाई हजार की जगह मीजान दो हजार लिख दें। रसीद बही की जांच कौन करता है। अगर चोरी पकड़ी भी गई तो कह दूंगा, मीजान लगाने में गलती हो गई। मगर इस विचार को उसने मन में टिकने न दिया। इस भय से, कहीं चित्त चंचल न हो जाए, उसने पेंसिल के अंकों पर रोशनाई फेर दी, और रजिस्टर को दराज में बंद करके इधर-उधर घूमने लगा।

इक्की दुक्की गाड़ियां आने लगीं। गाड़ीवानों ने देखा, बाबू साहब आज यहीं हैं, तो सोचा जल्दी से चुंगी देकर छुट्टी पर जायं। रमा ने इस कृपा के लिए दस्तूरी की दूनी रकम वसूल की, और गाड़ीवानों ने शौक से दी क्योंकि यही मंडी का समय था और बारह-एक बजे तक चुंगीघर से फुरसत पाने की दशा में चौबीस घंटे का हर्ज होता था, मंडी दस-ग्यारह बजे के बाद बंद हो जाती थी, दूसरे दिन का इंतजार करना पड़ता था। अगर भाव रुपये में आधा पाव भी गिर गया, तो सैकड़ों के मत्थे गई। दस-पांच रुपये का बल खा जाने में उन्हें क्या आपत्ति हो सकती थी। रमा को आज यह नई बात मालूम हुई। सोचा, आखिर सुबह को मैं घर ही पर बैठा रहता हूं। अगर यहां आकर बैठ जाऊं तो रोज दस-पांच रुपये हाथ आ जायं। फिर तो छ: महीने में यह सारा झगड़ा साफ हो जाय। मान लो रोज यह चांदी न होगी, पंद्रह न सही, दस मिलेंगे, पांच मिलेंगे। अगर मुबह को रोज पांच रुपये मिल जायं और इतने ही दिनभर में और मिल जाये, तो पांच-छ: महीने में मैं ऋण से मुक्त हो जाऊ। उसने दराज खोलकर फिर रजिस्टर निकाला। यह हिसाब लगा लेने के बाद अब रजिस्टर में हेर-फेर कर देना उसे इतना भंयकर न जान पड़ा। नया रंगरूट जो पहले बंदूक की आवाज से चौंक पड़ता है, आगे चलकर गोलियों की वर्षा में भी नहीं घबड़ाता।

रमा दफ्तर बंद करके भोजन करने घर जाने ही वाला था कि एक बिसाती का ठेला आ पहुंचा। रमा ने कहा, लौटकर चुंगी लूंगा। बिसाती ने मिन्नत करनी शुरू की। उमें कोई बड़ा जरूरी काम था। आखिर दस रुपये पर मामला ठीक हुआ। रमा ने चुंगी ली, रुपये जेब में रक्खे और घर चला। पच्चीस रुपये केवल दो-ढाई घंटों में आ गए। अगर एक महीने भी यह औसत रहे तो पल्ला पार है। उसे इतनी खुशी हुई कि वह भोजन करने घर न गया। बाजार से भी कुछ नहीं मंगवाया। रुपये भुनाते हुए उसे एक रुपया कम हो जाने का खयाल हुआ। वह शाम तक बैठा काम करता रहा। चार रुपये और वसूल हुए। चिराग जले वह घर 'चला, तो उसके मन पर से चिंता और निराशा का बहुत कुछ बोझ उतर चुका था। अगर दस दिन यही तेजी रही, तो रतन से मुंह चुराने की नौबत न आएगी।

सत्रह

नौ दिन गुजर गए। रमा रोज प्रात: दफ्तर जाता और चिराग जले लौटता। वह रोज यही आशा लेकर जाता कि आज कोई बड़ा शिकार फंस जाएगा। पर वह आशा न पूरी होती। इतना ही नहीं। पहले दिन की तरह फिर कभी भाग्य का सूर्य न चमका। फिर भी उसके लिए कुछ कम श्रेय की बात नहीं थी कि नौ दिनों में ही उसने सौ रुपये जमा कर लिए थे। उसने एक पैसे का पान