गबन/भाग 9

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प्रेमचंद रचनावली ५  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ३२ ]
रमानाथ-कल नहीं,मैं इसी वक्त जाकर दो-तीन चिट्ठियां लिखता हूं।

जालपा–पान तो खाते जाओ।

रमानाथ ने पान खाया और मर्दाने कमरे में आकर खत लिखने बैठे।

मगर फिर कुछ सोचकर उठ खड़े हुए और एक तरफ को चल दिए। स्त्री का सप्रेम आग्रह पुरुष से क्या नहीं करा सकता।

नौ

रमा के परिचितों में एक रमेश बाबू म्यूनिसिपल बोर्ड में हेड क्लर्क थे। उम्र तो चालीस के ऊपर थी; पर थे बड़े रसिक। शतरंज खेलने बैठ जाते, तो सवेरा कर देते। दफ्तर भी भूल जाते। न आगे नाथ न पीछे पगहा। जवानी में स्त्री मर गई थी, दूसरा विवाह नहीं किया। उस एकांत जीवन में सिवा विनोद के और क्या अवलंब था। चाहते तो हजारों के वारे-न्यारे करते, पर रिश्वत की कौड़ी भी हराम समझते थे। रमा से बड़ा स्नेह रखते थे। और कौन ऐसा निठल्ला था, जो रात-रात भर उनसे शतरंज खेलता। आज कई दिन से बेचारे बहुत व्याकुल हो रहे थे। शतरंज की एक बाजी भी न हुई। अखबार कहां तक पढ़ते। रमा इधर दो-एक बार आया अवश्य; पर बिसात पर न बैठा। रमेश बाबू ने मुहरे बिछा दिए। उसको पकड़कर बैठाया,पर वह बैठा नहीं। वह क्यों शतरंज खेलने लगा। बहू आई है,उसका मुंह देखेगा,उससे प्रेमालाप करेगा कि इस बूढे के साथ शतरंज खेलेगा! कई बार जी में आया, उसे बुलवाएं, पर यह सोचकर कि वह क्यों आने लगा, रह जाए। कहां जायं? सिनेमा ही देख आवें? किसी तरह समय तो कटे। सिनेमा से उन्हें बहुत प्रेम न था;पर इस वक्त उन्हें सिनेमा के सिवा और कुछ न सूझी। कपड़े पहने और जाना ही चाहते थे कि रमा ने कमरे में कदम रखा।

रमेश उसे देखते ही गेंद की तरह लुढ़ककर द्वार पर जा पहुंचे और उसका हाथ पकड़कर बोले-आइए,आइए बाबू रमानाथ साहब बहादुर ! तुम तो इस बुड्ढे को बिल्कुल भूल ही गए। हां भाई, अब क्यों आओगे? प्रेमिका की रसीली बातों का आनंद यहां कहां? चोरी का कुछ पता चला?

रमानाथ-कुछ भी नहीं।

रमेश–बहुत अच्छा हुआ, थाने में रपट नहीं लिखाई। नहीं सौ-दो सौ के मत्थे और जाते। बहू को तो बड़ा दु:ख हुआ होगा?

रमानाथ कुछ पूछिए मत, तभी से दाना-पानी छोड़ रक्खा है? मैं तो तंग आ गया। जी में आता है, कहीं भाग जाऊं। बाबूजी सुनते नहीं।

रमेश-बाबूजी के पास क्या कारू का खजाना रक्खा हुआ है? अभी चार-पांच हजार खर्च किए हैं, फिर कहां से लाकर गहने बनवा दें? दस-बीस हजार रुपये होंगे, तो अभी तो बच्चे भी तो सामने हैं और नौकरी का भरोसा ही क्या। पचास रु० होती ही क्या है?

रमानाथ-मैं तो मुसीबत में फंस गया। अब मालूम होता है, कहीं नौकरी करनी पड़ेगी। चैन से खाते और मौज उड़ाते थे, नहीं तो बैठे-बैठाए इस मायाजाल में फंसे। अब बतलाइए, है। [ ३३ ]
कहीं नौकरी-चाकरी का सहारा? रमेश ने ताक पर से मुहरे और बिसात उतारते हुए कहा–आओ एक बाजी हो जाए, फिर इस मसले को सोचें। इसे जितना आसान समझ रहे हो, उतना आसान नहीं है। अच्छे-अच्छे धक्के खा रहे हैं।

रमानाथ- मेरा तो इस वक्त खेलने को जी नहीं चाहता। जब तक यह प्रश्न हल न हो जाय, मेरे होश ठिकाने नहीं लेंगे।

रमेश बाबू ने शतरंज के मुहरे बिछाते हुए कहा-आओ बैठो। एक बार तो खेल लो, फिर सोचें, क्या हो सकता है।

रमानाथ–जरा भी जी नहीं चाहता, मैं जानता कि सिर मुड़ाते ही ओले पड़ेंगे, तो मैं विवाह के नज़दीक ही न जाता।

रमेश-अजी, दो-चार चालें चलो तो आप-ही जी लग जायगा। जरा अक्ल की गांठ तो खुले।

बाजी शुरू हुई। कई मामूली चालों के बाद रमेश बाबू ने रमा का रुख़ पीट लिया।

रमानाथ-ओह, क्या गलती हुई।

रमेश बाबू की आंखों में नशे की-सी लाली छाने लगी। शतरंज उनके लिए शराब से कम मादक न था। बोले-बोहनी तो अच्छी हुई । तुम्हारे लिए मैं एक जगह सोच रहा हूं। मगर वेतन बहुत कम है,केवल तीस रुपये। वह रंगी दाढ़ी वाले खां साहब नहीं हैं, उनसे काम नहीं होता। कई बार बता चुका है। सोचता था, जब तक किसी तरह काम चले, बने रहें। बाल-बच्चे वाले आदमी हैं। वह तो कई बार कह चुके हैं, मुझे छुट्टी दीजिए। तुम्हारे लायक तो वह जगह नहीं है,चाहो तो कर लो।

यह कहते-कहते रमा का फीला मार लिया।

रमा ने फीले को फिर उठाने की चेष्टा करके कहा-आप मुझे बातों में लगाकर मेरे मुहरे उड़ाते जाते हैं, इसकी सनद नहीं, लाओ मेरा फीला।

रमेश—देखो भाई, बेईमानी मत करो। मैंने तुम्हारा फीला जबरदस्ती तो नहीं उठाया। हां,तो तुम्हें वह जगह मंजूर है?

रमानाथ-वेतन तो तीस है।

रमेश-हां, वेतन तो कम है, मगर शायद आगे चलकर बढ़ जाय। मेरी तो राय है, कर लो।

रमानाथ-अच्छी बात है, आपकी सलाह है तो कर लूंगा।

रमेश- जगह आमदनी की है। मियां ने तो उसी जगह पर रहते हुए लड़कों को एम० ए०,एल. एल. बी० करा लिया। दो कॉलेज में पढ़ते हैं। लड़कियों की शादियां अच्छे घरों में कीं। हां,जरा समझ-बूझकर काम करने की जरूरत है।

रमानाथ-आमदनी की मुझे परवा नहीं, रिश्वत कोई अच्छी चीज तो है नहीं।

रमेश–बहुत खराब,मगर बाल-बच्चों के आदमी क्या करें। तीस रुपयों में गुजर नहीं हो सकती। मैं अकेला आदमी हूं। मेरे लिए डेढ़ सौ काफी हैं। कुछ बचा भी लेता हूं,लेकिन जिस घर में बहुत से आदमी हों, लड़कों की पढ़ाई हो, लड़कियों की शादियां हों, वह आदमी क्या कर सकता है। जब तक छोटे-छोटे आदमियों का वेतन इतना न हो जाएगा कि वह भलमनसी के साथ निर्वाह कर सकें, तब तक रिश्वत बंद न होगी। यही रोटी-दाल, घी-दूध तो वह भी [ ३४ ]
खाते हैं। फिर एक को तीस रुपये और दूसरे को तीन सौ रुपये क्यों देते हो?

रमा का फर्जी पिट गया, रमेश बाबू ने बड़े जोर से कहकहा मारा।

रमा ने रोष के साथ कहा-अगर आप चुपचाप खेलते हैं तो खेलिए,नहीं मैं जाता हूं। मुझे बातों में लगाकर सारे मुहरे उड़ा लिए।

रमेश–अच्छा साहब, अब बोलू तो जबान पकड़ लीजिए। यह लीजिए शह | तो तुम कल अर्जी दे दो। उम्मीद तो है, तुम्हें यह जगह मिल जाएगी; मगर जिस दिन जगह मिले, मेरे साथ रात भर खेलना होगा।

रमानाथ-आप तो दो ही मातों में रोने लगते हैं।

रमेश-अजी वह दिन गए, जब आप मुझे मात दिया करते थे। आजकल चन्द्रमा बलवान हैं। इधर मैंने एक मंत्र सिद्ध किया है। क्या मजाल कि कोई मात दे सके। फिर शह।

रमानाथ जी तो चाहता है, दूसरी बाजी मात देकर जाऊं, मगर देर होगी।

रमेश—देर क्या होगी। अभी तो नौ बजे हैं। खेल लो, दिल का अरमान निकल जाय। यह शह और मात !

रमानाथ-अच्छा कल की रहीं। कल ललकार कर पांच मानें न दी हों तो कहिएगा।

रमेश-अजी जाओ भी, तुम मुझे क्या मात दोगे । हिम्मत हो, तो अभी सहीं ।

रमानाथ-अच्छा आइए, आप भी क्या कहेंगे, मगर मैं पांच बाजियों से कम न खेलूंगा।

रमेश–पांच नहीं, तुम दस खेलो जी। रात तो अपनी है। तो चलो फिर खाना खा लें। तब निश्चित होकर बैठे। तुम्हारे घर कहलाए देता हूं कि आज यहीं सोएँगे, इंतजार न करें।

दोनों ने भोजन किया और फिर शतरंज पर बैठे। पहली बाजी में ग्यारह बज गए। रमेश बाबू की जीत रही। दूसरी बाजी भी उन्हीं के हाथ रही। तीसरी बाजी खत्म हुई तो दो बज गए।

रमानाथ-अब तो मुझे नींद आ रही है।

रमेश–तो मुंह धो डालो, बरफ रक्खी हुई है। मैं पांच बाजियां खेले बगैर सोने न देंगी।

रमेश बाबू को यह विश्वास हो रहा था कि आज मेरा सितारा बुलंद है। नहीं तो रमा को लगातार तीन मात देना आसान न था। वह समझ गए थे, इम वक्त चाहे जितनी बाजियां खेलूं,जीत मेरी ही होगी, मगर जब चौथी बाजी हार गए, तो यह विश्वास जाता रहा। उलटे यह भय हुआ कि कहीं लगातार हारता न जाऊं।

बोले-अब तो सोना चाहिए।

रमानाथ-क्यों, पांच बाजियां पूरी न कर लीजिए?

रमेश-कले दफ्तर भी तो जाना है।

रमा ने अधिक आग्रह न किया। दोनों सोए।

रमा यों ही आठ बजे से पहले न उठता था, फिर आज तो तीन बजे सोया था। आज तो उसे दस बजे तक सोने का अधिकार था। रमेश नियमानुसार पांच बजे उठ बैठे, स्नान किया, संध्या की, घूमने गए और आठ बजे लौटे, मगर रमा तब तक सोता ही रहा। आखिर जब साढ़े नौ बजे गए तो उन्होंने उसे जगाया।

रमा ने बिगड़कर कहा-नाहक जगा दिया, कैसी मजे की नींद आ रही थी।

रमेश-अजी वह अर्जी देना है कि नहीं तुमको?

रमानाथ-आप दे दीजिएगा। [ ३५ ]
रमेश-और जो कहीं साहब ने बुलाया,तो मैं ही चला जाऊंगा?

रमानाथ-ऊंह,जो चाहे कीजिएगा,मैं तो सोता हूँ।

रमा फिर लेट गया और रमेश ने भोजन किया,कपड़े पहने और दफ्तर चलने को तैयार हुए। उसी वक्त रमानाथ हड़बड़ाकर उठा और आंखें मलता हुआ बोला-मैं भी चलूंगा!

रमेश-अरे मुंह-हाथ तो धो ले,भले आदमी।

रमानाथ-आप तो चले जा रहे हैं।

रमेश-नहीं,अभी पंद्रह-बीस मिनट तक रुक सकता हूँ,तैयार हो जाओ।

रमानाथ-मैं तैयार हूं। वहां से लौटकर घर भोजन करूंगा।

रमेश-कहता तो हूं,अभी आधे घंटे तक रुका हुआ हूँ।

रमा ने एक मिनट में मुंह धोया,पांच मिनट में भोजन किया और चटपट रमेश के साथ दफ्तर चला।

रास्ते में रमेश ने मुस्कराकर कहा-घर क्या बहाना करोगे,कुछ सोच रक्खा है?

रमानाथ-कह दूंगा,रमेश बाबू ने आने नहीं दिया।

रमेश–मुझे गालियां दिलाओगे और क्या। फिर कभी न आने पाओगे।

रमानाथ-ऐसा स्त्री-भक्त नहीं हूं। हां,यह तो बताइए,मुझे अर्जी लेकर तो साहब के पास न जाना पड़ेगा?

रमेश- और क्या तुम समझते हो,घर बैठे जगह मिल जायेगी? महीनों दौड़ना पड़ेगा,महीनों । बीसों सिफारिशें लानी पड़ेगी। सुबह-शाम हाजिरी देनी पड़ेगी। क्या नौकरी मिलना आसान है?

रमानाथ-तो मैं ऐसी नौकरी से बाज आया। मुझे तो अर्जी लेकर जाते ही शर्म आती है। खुशामदें कौन करेगा? पहले मुझे क्लर्कों पर बड़ी हंसी आती थी;मगर वही बला मेरे सिर पड़ी। साहब डांट-वांट तो न बताएंगे?

रमेश-बुरी तरह डांटता है,लोग उसके सामने जाते हुए कांपते हैं।

रमानाथ-तो फिर मैं घर जाता हूं। यह सब मुझसे न बर्दाश्त होगा।

रमेश–पहले सब ऐसे ही घबराते हैं, मगर सहते-सहते आदत पड़ जाती है। तुम्हारा दिल धड़क रहा होगा कि न जाने कैसी बीतेगी। जब मैं नौकर हुआ, तो तुम्हारी ही उम्र मेरी भी थी,और शादी हुए तीन ही महीने हुए थे। जिस दिन मेरी पेशी होने वाली थी, ऐसा घबराया हुआ था मानो फांसी पाने जा रहा हूं,मगर तुम्हें डरने का कोई कारण नहीं हैं। मैं सब ठीक कर दूंगा।

रमानाथ-आपको तो बीस-बाईस साल नौकरी करते हो गए होंगे।

रमेश–पूरे पच्चीस हो गए, साहब बीस बरस तो स्त्री का देहांत हुए हो गए। दस रुपये पर नौकर हुआ था।

रमानाथ-आपने दूसरी शादी क्यों नहीं की? तब तो आपकी उम्र पच्चीस से ज्यादा न रही होगी।

रमेश ने हंसकर कहा-बरफी खाने के बाद गुड़ खाने को किसका जी चाहता है? महल का सुख भोगने के बाद झोंपड़ा किसे अच्छा लगता है? प्रेम आत्मा को तृप्त कर देता है। तुम तो मुझे जानते हो, अब तो बूढ़ा हो गया हूं, लेकिन मैं तुमसे सच कहता हूं, इस विधुर-जीवन में मैंने किसी स्त्री की ओर आंख तक नहीं उठाई। कितनी ही सुंदरियां देखीं,कई बार लोगों ने [ ३६ ] विवाह के लिए घेरा भी; लेकिन कभी इच्छा ही न हुई। उस प्रेम की मधुर स्मृतियों में मेरे प्रेम का सजीव आनंद भरा हुआ है। यों बातें करते हुए, दोनों आदमी दफ्तर पहुंच गए।

दस

दफ्तर से घर पहुंचा,तो चार बज रहे थे। वह दफ्तर ही में था कि आसमान पर बादल घिर आए। पानी आया ही चाहता था; पर रमा को घर पहुंचने की इतनी बेचैनी हो रही थी कि उससे रुका न गया। हाते के बाहर भी न निकलने पाया था कि जोर की वर्षा होने लगी। आषाढ़ का पहला पानी था, एक ही क्षण में वह लथपथ हो गया। फिर भी वह कहीं रुका नहीं। नौकरी मिल जाने का शुभ समाचार सुनाने का आनंद इस दौंगड़े की क्या परवाह कर सकता था? वेतन तो केवल तीस ही रुपये थे, पर जगह आमदनी की थी। उसने मन-ही-मन हिसाब लगा लिया था। कि कितना मासिक बचत हो जाने से वह जालपा के लिए चन्द्रहार बनवा सकेगा। अगर पचास-साठ रुपये महीने भी बच जाये, तो पांच साल में जालपा गहनों से लद जाएगी। कौन-सा आभूषण कितने का होगा, इसका भी उसने अनुमान कर लिया था। घर पहुंचकर उसने कपड़े भी न उतारे, लथपथ जालपा के कमरे में पहुंच गया।

जालपा उसे देखते ही बोली-यह भीग कहां गए, रात कहां गायब थे?

रमानाथ-इसी नौकरी की फिक्र में पड़ा हुआ हूं। इस वक्त दफ्तर से चला आती हूँ।

म्युनिसिपैलिटी के दफ्तर में मुझे एक जगह मिल गई।

जालपा ने उछलकर पूछा-सच। कितने की जगह है?

रमा को ठीक-ठीक बतलाने में संकोच हुआ। तीस की नौकरी बताना अपमान की बात थी। स्त्री के नेत्रों में तुच्छ बनना कौन चाहता है। बोला-अभी तो चालीस मिलेंगे, पर जल्दतरक्की होगी। जगह आमदनी की है।

जालपा ने उसके लिए किसी बड़े पद की कल्पना कर रक्खी थी। बोली-चालीस में क्या होगा? भला साठ-सत्तर तो होते!

रमानाथ-मिल तो सकती थी सौ रुपये की भी, पर यहां रौब है, और आराम है। पचास-साठ रुपये उपर से मिल जाएंगे।

जालपा–तो तुम घूस लोगे, गरीबों का गला काटोगे?

रमा ने हंसकर कहा-नहीं प्रिये, वह जगह ऐसी नहीं कि गरीबों का गला काटना पड़े।

बड़े-बड़े महाजनों से रकमें मिलेंगी और वह खुशी से गले लगावेंगे। मैं जिसे चाहूं दिनभर दफ्तर में खड़ा रक्खू। महाजनों का एक-एक मिनट एक-एक अशरफी के बराबर है। जल्द-से-जल्द अपना काम कराने के लिए वे खुशमद भी करेंगे, पैसे भी देंगे।

जालपा संतुष्ट हो गई, बोली-हां, तब ठीक है। गरीबों का काम यों ही कर देना।

रमानाथ-वह तो करूंगा ही।

जालपा-अभी अम्मांजी से तो नहीं कहा? जाकर कह आओ। मुझे तो सबसे बड़ी खुशी [ ३७ ]

यही है कि अब मालूम होगा कि यहां मेरा भी कोई अधिकार है।

रमानाथ-हां,जाता हूं, मगर उनसे तो मैं बीस ही बतलाऊंगा।

जालपा ने उल्लसित होकर कहा-हां जी, बल्कि पंद्रह ही कहना, ऊपर की आमदनी की तो चर्चा ही करना व्यर्थ है। भीतर का हिसाब वे ले सकते हैं। मैं सबसे पहले चन्द्रहार बनवाऊंगी।

इतने में डाकिए ने पुकारा। रमा ने दरवाजे पर जाकर देखा, तो उसके नाम एक पार्सल आया था। महाशय दीनदयाल ने भेजा था। लेकर खुश-खुश घर में आए और जालपा के हाथों में रखकर बोले-तुम्हारे घर से आया है, देखो इसमें क्या है?

रमा ने चटपट कैंची निकाली और पार्सल खोला। उममें देवदार की एक डिबिया निकली। उसमें एक चन्द्रहार रक्खा हुआ था। रमा ने उसे निकालकर देखा और हंसकर बोला-ईश्वर ने तुम्हारी सुन ली, चीज तो बहुत अच्छी मालूम होती है।

जालपा ने कुंठित स्वर में कहा-अम्मांजी को यह क्या सूझी, यह तो उन्हीं का हार है। मैं तो इसे न लूंगी। अभी डाक का वक्त हो तो लौटा दो।

रमा ने विस्मित होकर कहा-लौटाने की क्या जरूरत है, वह नाराज न होगी?

जालपा ने नाक सिकोड़कर कहा मेरी बला से, रानी रूठेंगी अपना सुहाग लेंगी। मैं उनकी दया के बिना भी जीती रह सकती हैं। आज इतने दिनों के बाद उन्हें मुझ पर दया आई है। उस वक्त दया न आई थी, जब मै उनके घर से बिदा हुई थी। उनके गहने उन्हें मुबारक हों। मैं किसी का एहसान नहीं लेना चाहती। अभी उनके ओढ़ने-पहनने के दिन हैं। मैं क्यों बाधक बना। तुम कुशल से रहोगे, तो मुझे बहुत गहने मिल जाएगें। मैं अम्मांजी को यह दिखाना चाहती हूं कि जालपा तुम्हारे गहनों की भूखी नहीं है।

रमा ने संतोष देते हुए कहा-मेरी समझ में तो तुम्हें हार रख लेना चाहिए। सोचो, उन्हें कितना दु:ख होगा। बिदाई के समय यदि न दिया तो, तो अच्छा ही किया। नहीं तो और गहनों के साथ यह भी चला जाता।

जालपा-मैं इसे लूंगी नहीं, यह निश्चय है। रमानाथ-आखिर क्यों?

जालपा-मेरी इच्छा। रमानाथ-इस इच्छा का कोई कारण भी तो होगा?

जालपा रुंधे हुए स्वर में बोलीं-कारण यही है कि अम्मांजी इसे खुशी से नहीं दे रही हैं, बहुत संभव है कि इसे भेजते समय वह रोई भी हों और इसमें तो कोई संदेह ही नहीं कि इसे वापस पाकर उन्हें सच्चा आनंद होगा। देने वाले का हृदय देखना चाहिए। प्रेम से यदि वह मुझे एक छल्ला भी दे दें, तो मैं दोनों हाथों से ले लूं। जब दिल पर जब्र करके दुनिया की लाज से या किसी के धिक्कारने से दिया, तो क्या दिया। दान भिखारिनियों को दिया जाता है। मैं किसी का दान न लूंगी, चाहे वह माता ही क्यों न हों।

माता के प्रति जालपा का यह द्वेष देखकर रमा और कुछ न कह सका। द्वेष तर्क और प्रमाण नहीं सुनता। रमा ने हार ले लिया और चारपाई से उठता हुआ बोला-जरा अम्मां और बाबू जी को तो दिखा दें। कम-से-कम उनसे पूछ तो लेना ही चाहिए।

जालपा ने हार उसके हाथ से छीन लिया और बोली-वे लोग मेरे कौन होते हैं, जो मैं [ ३८ ] उनसे पूछूं ? केवल एक घर में रहने का नाता है। जब वह मुझे कुछ नहीं समझते, तो मैं भी उन्हें कुछ नहीं समझती।

यह कहते हुए उसने हार को उसी डिब्बे में रख दिया, और उस पर कपड़ा लपेटकर सोने लगी। रमा ने एक बार डरते-डरते फिर कही-ऐसी जल्दी क्या है, दस-पांच दिन में लौटा देना। उन लोगों की भी खातिर हो जाएगी।

इस पर जालपा ने कठोर नेत्रों से देखकर कहा-जब तक मैं इसे लौटा ने दूंगी, मेरे दिल को चैन न आएगा। मेरे हृदय में कांटा सा खटकता रहेगा। अभी पार्सल तैयार हुआ जाता है, हाल ही लौटा दो।

एक क्षण में पार्सल तैयार हो गया और रमा उसे लिए हुए चिंतित भाव से नीचे चली।

ग्यारह

महाशय दयानाथ को जब रमा के नौकर हो जाने का हाल मालूम हुआ, तो बहुत खुश हुए। विवाह होते ही वह इतनी जल्द चेतेगा इसकी उन्हें आशा न थी। बोले-जगह तो अच्छी है। ईमानदारी से काम करोगे, तो किसी अच्छे पद पर पहुंच जाओगे। मेरा यही उपदेश है कि पराए पैसे को हराम समझना।

रमा के जी में आया कि साफ कह दूं-अपना उपदेश आप अपने ही लिए रखिए, यह मेरे अनुकूल नहीं है। मगर इतना बेहया न था।

दयानाथ ने फिर कहा-यह जगह तो तीस रुपये की थी, तुम्हें बीस ही क्यों मिले?

रमानाथ-नए आदमी को पूरा वेतन कैसे देते, शायद साल-छ: महीने में बढ़ जाय। काम बहुत है। दयानाथ-तुम जवान आदमी हो, काम से न घबड़ाना चाहिए।

रमा ने दूसरे दिन नया सूट बनवाया और फैशन की कितनी ही चीजें खरीदीं। ससुराल से मिले हुए रुपये कुछ बच रहे थे। कुछ मित्र से उधार ले लिए। वह साहबी ठाठ बनाकर सारे दफ्तर पर रोब जमाना चाहता था। कोई उससे वेतन तो पूछेगा नहीं, महाजन लोग उसका ठाठ-बाट देखकर सहम जाएंगे। वह जानता था, अच्छी आमदनी तभी हो सकती है जब अच्छा ठाठ हो। सड़क के चौकीदार को एक पैसा काफी समझा जाता है, लेकिन उसकी जगह सार्जंट हो,तो किसी की हिम्मत ही न पड़ेगी कि उसे एक पैसा दिखाए। फटेहाल भिखारी के लिए चुटकी बहुत समझी जाती है, लेकिन गेरुए रेशम धारण करने वाले बाबाजी को लजाते-लेजाते भी एक रुपया देना ही पड़ता है। भेख और भीख में सनातन से मित्रता है।

तीसरे दिन रमा कोट-पैंट पहनकर और हैट लगाकर निकला, तो उसकी शान ही कुछ और हो गई। चपरासियों ने झुक-झुककर सलाम किए। रमेश बाबू से मिलकर जब वह अपने काम का चार्ज लेने आया, तो देखा एक बरामदे में फटी हुई मैली दरी पर एक मियां साहब संदूक पर रजिस्टर फैलाए बैठे हैं और व्यापारी लोग उन्हें चारों तरफ से घेरे खड़े हैं। सामने [ ३९ ] गाड़ियों, ठेलों और इक्कों का बाजार लगा हुआ है। सभी अपने-अपने काम की जल्दी मचा रहे हैं। कहीं लोगों में गाली-गलौज हो रही है,कहीं चपरासियों में हंसी-दिल्लगी। सारा काम बड़े ही अव्यवस्थित रूप से हो रहा है। उस फटी हुई दरी पर बैठना रमा को अपमानजनक जान पड़ा। वह सीधे रमेश बाबू से जाकर बोला-क्या मुझे भी इसी मैली दरी पर बिठाना चाहते हैं? एक अच्छी-सी मेज और कई कुर्सियां भिजवाइए और चपरासियों को हुक्म दीजिए कि एक आदमी से ज्यादा मेरे सामने न आने पावे। रमेश बाबू ने मुस्कराकर मेज और कुर्सियां भिजवा दीं। रमा शान से कुर्सी पर बैठा। बूढे मुंशीजी उसकी उच्छृंखलता पर दिल में हंस रहे थे। समझ गए, अभी नया जोश है, नई सनक है। चार्ज दे दिया। चार्ज में था ही क्या, केवल आज की आमदनी का हिसाब समझा देना था। किस जिस पर किस हिसाब से चुंगी ली जाती है, इसकी छपी हुई तालिका मौजूद थी, रमा आधे घंटे में अपना काम समझ गया। बूढे मुंशीजी ने यद्यपि खुद ही यह जगह छोड़ी थी; पर इस वक्त जाते हुए उन्हें दुःख हो रहा था। इसी जगह वह तीस साल से बराबर बैठते चले आते थे। इसी जगह की बदलौत उन्होंने धन और यश दोनों ही कमाया था। उसे छोड़ते हुए क्यों न दु:ख होता। चार्ज देकर जब वह बिदा होने लगे तो रमा उनके साथ जीने के नीचे तक गया। खां साहब उसकी इस नम्रता से प्रसन्न हो गए। मुस्कराकर बोले-हरे एक बिल्टी पर एक आना बंधा हुआ है, खुली हुई बात है। लोग शौक से देते हैं। आप अमीर आदमी हैं; मगर रस्म न बिगाडिएगा। एक बार कोई रस्म टूट जाती है, तो उसका बंधना मुश्किल हो जाता है। इस एक आने में आधा चपरासियों का हक है। जो बड़े बाबू पहले थे, वह पचीस रुपये महीना लेते थे, मगर यह कुछ नहीं लेते।

रमा ने अरुचि प्रकट करते हुए कहा--गंदा काम है, मैं सफाई से काम करना चाहता हूं।

बूढ़े मियां ने हंसकर कहा-अभी गंदा मालूम होता है, लेकिन फिर इसी में मजा आएगा।

खां साहब को विदा करके रमा अपनी कुर्सी पर आ बैठा और एक चपरासी से बोली-इन लोगों से कहो, बरामदे के नीचे चले जाएं। एक-एक करके नंबरवार आवें, एक कागज पर सबके नाम नंबरवार लिख लिया करो।

एक बनिया, जो दो घंटे से खड़ा था, खुश होकर बोला-हां सरकाः यह बहुत अच्छा होगा।

रमानाथ-जो पहले आवे, उसका काम पहले होना चाहिए। बाकी लोग अपना नंबर आने तक बाहर रहें। यह नहीं कि सबसे पीछे वाले शोर मचाकर पहले आ जाए और पहले वाले खड़े मुंह ताकते रहें।

कई व्यापारियों ने कहा-हां बाबूजी, यह इंतजाम हो जाए, तो बहुत अच्छा हो। भभ्भड़ में बड़ी देर हो जाती है।

इतना नियंत्रण रमी का रोब जमाने के लिए काफी था। वणिक-समाज में आज ही उसके रंग-ढंग की आलोचना और प्रशंसा होने लगी। किसी बड़े कॉलेज के प्रोफेसर को इतनी ख्याति उम्रभर में न मिलती।

दो-चार दिन के अनुभव से ही रमा को सारे दांव ‘त मालूम हो गए। ऐसी-ऐसी बातें सूझ गई जो खां साहब को ख्वाब में भी न सूझीं थीं। माल की तौल, गिनती और परख में इतनी धांधली थी जिसकी कोई हद नहीं। जब इस धांधली से व्यापारी लोग सैकड़ों की रकम डकार जाते हैं, तो रमा बिल्टी पर एक आना लेकर ही क्यों संतुष्ट हो जाये, जिसमें आध आना [ ४० ]
चपरासियों का है। माल को तौल और परख में दृढ़ता से नियमों का पालन करके वह धन और कीर्ति, दोनों हीं कमा सकता है। यह अवसर वह क्यों छोड़ने लगा ? विशेषकर जब बड़े बाबू उसके गहरे दोस्त थे। रमेश बाबू इस नए रंग रूट की कार्य-पटुता पर मुग्ध हो गए। उसकी पीठ ठोंककर बोले-कायदे के अंदर रहो और जो चाहो करो। तुम पर आंच तक न आने पावेगी।

रमा की आमदनी तेजी से बढ़ने लगी। आमदनी के साथ प्रभाव भी बढ़ी। सूखी कलम घिसने वाले दफ्तर के बाबुओं को जब सिगरेट, पान, चाय या जल-पान की इच्छा होती, तो रमा के पास चले आते, उस बहती गंगा में सभी हाथ धो सकते थे। सारे दुफ्तर में रमा की सराहना होने लगी। पैसे को तो वह ठीकरा समझता है | क्या दिल है कि वाह ! और जैसा दिल है, वैसी ही जवान भी। मालूम होता है, नस-नस में शराफत भरी हुई है। बाबुओं का जब यह हाल था, तो चपरासियों और मुहर्रिरों का पूछना ही क्या? सब-के-सब रमा के बिना दामो गुलाम थे। उन गरीबों की आमदनी ही नहीं, प्रतिष्ठा भी खूब बढ़ गई थी। जहां गाड़ीवान तक फटकार दिया करते थे, वहां अब अच्छे-अच्छे की गर्दन पकड़कर नीचे ढकेल देते थे। रमानाथ की तूती बोलने लगी।

मगर जालपा की अभिलाषाएं अभी एक भी पूरी न हुई। नागपंचमी के दिन मुहल्ले की कई युवतियां जालपा के साथ कजली खेलने आई, मगर जालपा अपने कमरे के बाहर नहीं निकली। भादों में जन्माष्टमी का उत्सव आया। पड़ोस ही में एक सेठजी रहते थे, उनके यहां बड़ी धूमधाम से उत्सव मनाया जाता था। वहां से सास और बहू को बुलावा आया। जागेश्वरी गई; जालपा ने जाने से इंकार किया। इन तीन महीनों में उसने रमा से बार एक भी आभूषण की चर्चा न की, पर उसका यह एकांत-प्रेम, उसके आचरण से उत्तेजक थी। इससे ज्यादा उत्तेजक वह पुराना सूची-पत्र था, जो एक दिन रमा कहीं से उठा लाया था। इसमें भांति भांति के सुंदर आभूषणों के नमूने बने हुए थे। उनके मूल्य भी लिखे हुए थे। जालपा एकांत में इस सूची-पत्र को बड़े ध्यान से देखा करती। रमा को देखते ही वह सूची-पत्र छिपा लेती थी। इस हार्दिक कामना को प्रकट करके वह अपनी हंसी ने उड़वाना चाहती थी।

रमा आधी रात के बाद लौटा, तो देखा, जालपा चारपाई पर पड़ी है। हंसकर बोला-बड़ा अच्छा गाना हो रहा था। तुम नहीं गई, बड़ी गलती की।

जालपा ने मुंह फेर लिया, कोई उत्तर न दिया।

रमा ने फिर कहा-यहां अकेले पड़े पड़े तुम्हारी जी घबराता रहा होगा।

जालपा ने तीव्र स्वर में कहा-तुम कहते हो, मैंने गलती की, मैं समझती हूं, मैंने अच्छा किया। वहां किसके मुंह में कालिख लगती?

जालपा ताना तो न देना चाहती थी, पर रमा की इन बातों ने उसे उत्तेजित कर दिया। रोष का एक कारण यह भी था कि उसे अकेली छोड़कर सारा घर उत्सव देखने चला गया। अगर उन लोगों के हृदय होता, तो क्या वहां जाने से इंकार न कर देते?

रमा ने लज्जित होकर कहा–कालिख लगने की तो कोई बात न थी, सभी जानते हैं कि चोरी हो गई है, और इस जमाने में दो-चार हजार के गहने बनवा लेना, मुंह का कौर नहीं है।

चोरी का शब्द जबान पर लाते हुए, रमा का हृदय धड़क उठा। जालपा पति की ओर तीव्र दृष्टि से देखकर रह गई और कुछ बोलने से बात बढ़ जाने का भय था; पर रमा को उसकी दृष्टि से ऐसा भासित हुआ, मानों उर्स चोरी का रहस्य मालूम है और वह केवल संकोच के [ ४१ ]-
कारण उसे खोलकर नहीं कह रही है। उसे उस स्वप्न की बात भी याद आई, जो जालपा ने चोरी की रात को देखा था। वह दृष्टि बाण के समान उसके हृदय को छेदने लगी; उसने सोचा, शायद मुझे भम्र हुआ। इस दृष्टि में रोष के सिवा और कोई भाव नहीं है, मगर यह कुछ बोलती क्यों नहीं? चुप क्यों हो गई? उनका चुप हो जाना ही गजब था। अपने मन का संशय मिटाने और जालपा के मन की थाह लेने के लिए रमा ने मानो डुब्बी मारी-यह कौन जानता था कि डोली से उतरते ही यह विपत्ति तुम्हारा स्वागत करेगी।

जालपा आंखों में आंसू भरकर बोली-तो मैं तुमसे गहनों के लिए रोती तो नहीं हूं। भाग्य में जो लिखा था, वह हुआ। आगे भी वही होगा, जो लिखा है। जो औरतें गहने नहीं पहनतीं, क्या उनके दिन नहीं कटते?

इस वाक्य ने रमा का संशय तो मिटा दिया; पर इसमें जो तीव्र वेदना छिपी हुई थी, वह उससे छिपी न रही। इन तीन महीनों में बहुत प्रयत्न करने पर भी वह सौ रुपये से अधिक संग्रहन कर सका था। बाबू लोगों के आदर-सत्कार में उसे बहुते -कुछ गलना पड़ता था; मगर बिना खिलाए पिलाए काम भी तो न चल सकता था। सभी उसके दुश्मन हो जाते और उसे उखाड़ने की घातें सोचने लगते। मुफ्त का धन अकेले नहीं हजम होता, यह वह अच्छी तरह जानता था। वह स्वयं एक पैसा भी व्यर्थ खर्च न करता। चतुर व्यापारी की भांति वह जो कुछ खर्च करता था, वह केवल कमाने के लिए। आश्वासन देते हुए बोला-ईश्वर ने चाहा तो दो-एक महीने में कोई चीज बन जाएगा।

जालपा-मैं उन स्त्रियों में नहीं हूं, जो गहनों पर जान देती हैं। हां, इस तरह किसी के घर आते-जाते शर्म आती ही है।

रमा का चित्त ग्लानि से व्याकुल हो उठा। जालपा के एक-एक शब्द से निराशा टपक रहीथी। इस अपार वेदना का कारण कौन था? क्या यह भी उसी का दोष न था कि इन तीन महीनों में उसने कभी गहनों की चर्चा नहीं की? जालपा यदि संकोच के कारण इसकी चर्चा न करती थी, तो रमा को उसके आस पोंछने के लिए उसका मन रखने के लिए क्या मौन के सिवा दूसरा उपाय न था? मुहल्ले में रोज ही एक-न- एक उत्सव होता रहता है, रोज ही पास-पड़ोस को औरतें मिलने आती हैं, बुलावे भी रोज आते ही रहते हैं, बेचारी जालपा के में एक इस प्रकार आत्मा का दमन करती रहेगी, अंदर-ही-अंदर कुढती रहेगी। हंसने-बोलने को किसका जी नहीं चाहता, कौन कैदियों की तरह अकेला पड़ा रहना पसंद करता है। मेरे ही कारण तो इसे यह भीषण यातना सहनी पड़ रही है।

उसने सोचा, क्या किसी सर्राफ से गहने उधार नहीं लिए जा सकते? कई बड़े सर्राफों से उसका परिचय था, लेकिन उनसे वह यह बात कैसे कहता? कहीं वे इंकार कर दें तो? या संभव हैं, बहाना करके टाल दें। उसने निश्चय किया कि अभी उधार लेना ठीक न होगा। कहीं वादे पर रुपये न दे सका, तो व्यर्थ में थुक्का-फजीहत होगी। लज्जित होना पड़ेगा। अभी कुछ दिन और धैर्य से काम लेना चाहिए।

सहसा उसके मन में आया, इस विषय में जालप, की राय लें। देखू वह क्या कहती है। अगर उसकी इच्छा हो तो किसी सर्राफ से वादे पर चीजें ले ली जायं, मैं इस अपमान और संकोच को सह लूंगा। जालपा को संतुष्ट करने के लिए कि उसके गहनों को उसे कितनी फिक्र है। बोला-तुमसे एक सलाह करना चाहता हूं। पूछू या न पूंछू ? [ ४२ ] जालपा को नींद आ रही थी, आंखें बंद किए हुए बोली-अब सोने दो भई, सवेरे उठना है।

रमानाथ-अगर तुम्हारी राय हो, तो किसी सर्राफ से वादे पर गहने बनवा लाऊं। इसमें कोई हर्ज तो है नहीं।

जालपा की आंखें खुल गईं। कितना कठोर प्रश्न था। किसी मेहमान से पूछना—कहिए तो आपके लिए भोजन लाऊं, कितनी बड़ी अशिष्टता है। इसका तो यही आशय है कि हम मेहमान को खिलाना नहीं चाहते। रमा को चाहिए था कि चीजें लाकर जालपा के सामने रख देता। उसके बार-बार पूछने पर भी यही कहना चाहिए था कि दाम देकर लाया हूं। तब वह अलबत्ता खुश होती। इस विषय में उसकी सलाह लेना, घाव पर नमक छिड़कना था। रमा की ओर अविश्वास की आंखों से देखकर बोली–मैं तो गहनों के लिए इतनी उत्सुक नहीं हूं।

रमानाथ नहीं, यह बात नहीं, इसमें क्या हर्ज है कि किसी सरफ से चीजें ले लें? धीरे-धीरे उसके रुपये चुका दूंगा।

जालपा ने दृढ़ता से कहा-नहीं, मेरे लिए कर्ज लेने की जरूरत नहीं। मैं वेश्या नहीं हूं कि तुम्हें नोच-खसोटकर अपना रास्ता हूं। मुझे तुम्हारे साथ जीना और मरना है। अगर मुझे सारी उम्र बे-गहनों के रहना पड़े, तो भी मैं कर्ज लेने को न कहूंगी। औरतें गहनों को इतनी भूखी नहीं होती। घर के प्राणियों को संकट में डालकर गहने पहनने वाली दूसरी होंगी। लेकिन तुमने तो पहले कहा था कि जगह बड़ी आमदनी की है, मुझे तो कोई विशेष बचत दिखाई नहीं देती।

रमानाथ-बचत तो जरूर होती और अच्छी होती, लेकिन जब अहलकारों के मारे बचने भी पाए। सब शैतान सिर पर सवार रहते हैं। मुझे पहले न मालूम था कि यहां इतने प्रेतों की पूजा करनी होगी।

जालपा–तो अभी कौन-सी जल्दी है, बनते रहेंगे धीरे-धीरे।

रमानाथ-खैर, तुम्हारी सलाह है, तो एक-आध महीने और चुप रहता हूं। मैं सबसे पहले कंगन बनवाऊंगा।

जालपा ने गदगद होकर कहा-तुम्हारे पास अभी इतने रुपये कंही होंगे?

रमानार्थ-इसका उपाय तो मेरे पास है। तुम्हें कैसा कंगन पसंद है?

जालपा अब अपने कृत्रिम संयम को न निभा सकी। आलमारी में से आभूषणों का सूची पत्र निकालकर रमा को दिखाने लगी। इस समय वह इतनी तत्पर थी, मानो सोना आकर रक्खा हुआ है, सुनार बैठा हुआ है, केवन डिजाइन ही पसंद करना बाकी है। उसने सूची के दो डिजाइन पसंद किए। दोनों वास्तव में बहुत ही सुंदर थे। पर रमा उनको मूल्य देखकर सन्नाटे में आ गया। एक एक हजार का था, दूसरा आठ सौ का।

रमानाथ–ऐसी चीजें तो शायद यहां बन भी न सकें, मगर कल मैं जरा सर्राफ की सैर करूंगा।

जालपा ने पुस्तक बंद करते हुए करुण स्वर में कहा-इतने रुपये न जाने तुम्हारे पास कब तक होंगे? उंह, बनेंगे-बनेंगे, नहीं कौन कोई गहनों के बिना मरा जाता है।

रमा को आज इसी उधेड़बुन में बड़ी रात तक नींद न आई। ये जड़ाऊ कंगन इन गोरी-गोरी कलाइयों पर कितने खिलेंगे। यह मोह-स्वप्न देखते-देखते उसे न जाने कब नींद आ गई। [ ४३ ]

बारह

दूसरे दिन सवेरे ही रमा ने रमेश बाबू के घर का रास्ता लिया। उनके यहां भी जन्माष्टमी में झांकी होती थी। उन्हें स्वयं तो इससे कोई अनुराग न था, पर उनकी स्त्री उत्सव मनाती थी, उसी की यादगार में अब तक यह उत्सव मनाते जाते थे। रमा को देखकर बोले-आओ जी, रात क्यों नहीं आए? मगर यहां गरीबों के घर क्यों आते। सेठजी की झांकी कैसे छोड़ देते। खूब बहार रही होगी।

रमानाथ-आपकी-सी सजावट तो न थी, हां और सालों से अच्छी थी। कई कत्थक और वेश्याएं भी आई थीं। मैं तो चला आया था; मगर सुना रातभर गाना होता रहा।

रमेश-सेठजी ने तो वचन दिया था कि वेश्याएं न आने पावेंगी, फिर यह क्या किया। इन मूर्खा के हाथों हिन्दू धर्म का सर्वनाश हो जायगा। एक तो वेश्याओं का नाम यों भी बुरा, उस पर ठाकुरद्वारे में । छिः-छिः, न जाने इन गधों को कब अक्ल आवेगी।

रमानाथ–वेश्याएं न हों, तो झांकी देखने जाय ही कौन? सभी तो आपकी तरह योगी और तपस्वी नहीं हैं।

रमेश-मेरा वश चले, तो मैं कानून से यह दुराचार बंद कर दें। खैर, फुरसत हो तो आओ। एक-आध बाजी हो जाय।

रमानाथ-और आया किसलिए हूं, मगर आज आपको मेरे साथ जरा सर्राफे तक चलना पड़ेगा। यों कई बड़ी-बड़ी कोठियों से मेरा परिचय है, मगर आपके रहने से कुछ और ही बात होगी।

रमेश–चलने को चला चलूंगा; मगर इस विषय में मैं बिल्कुल कोरा हूँ। न कोई चीज बनवाई न खरीदी। तुम्हें क्या कुछ लेना है?

रमानाथ-लेना-देना क्या है, जरा भाव-ताव देखूंगा।

रमेश–मालूम होता है, घर में फटकार पड़ी है।

रमानाथ- जी, बिल्कुल नहीं। वह तो जेवरों का नाम तक नहीं लेती। मैं कभी पूछता भी हूं, तो मना करती हैं, लेकिन अपना कर्तव्य भी तो कुछ है। जब से गहने चोरी चले गए, एक चीज भी नहीं बनी।

रमेश-मालूम होता है, कमाने का ढंग आ गया। क्यों न हो, कायस्थ के बच्चे हो। कितने रुपये जोड़ लिए?

रमानाथ–रुपये किसके पास हैं, वादे पर लूंगा।

रमेश–इस खब्त में न पड़ो। जब तक रुपये हाथ में न हों, बाजार की नरफ जाओ ही मत। गहनों से तो बुड्ढे नई बीवियों का दिल खुश किया करते हैं, उन बेचारों के पास गहनों के सिवा होता ही क्या है। जवानों के लिए और बहुत से लटके हैं। यों मैं चाहूं, तो दो-हजार का माल दिलवा सकता हूं, मगर भई, कर्ज की लत बुरी है।

रमानाथ-मैं दो-तीन महीनों में सब रुपये चुका दूंगा। अगर मुझे इसका विश्वास न होता, तो मैं जिक्र ही न करता।

रमेश–तो दो-महीने और सब्र क्यों नहीं कर जाते? कर्ज से बड़ा पाप दूसरा नहीं। न इससे बड़ी विपत्ति दूसरी है। जहां एक बार धड़का खुला कि तुम आए दिन सर्राफ की दुकान [ ४४ ]
पर खड़े नजर आओगे। बुरा न मानना। मैं जानता हूं, तुम्हारी आमदनी अच्छी है, पर भविष्य केभरोसे पर और चाहे जो काम करो, लेकिन कर्ज कभी मत लो। गहनों का मरज न जाने इस दरिद्र देश में कैसे फैल गया। जिन लोगों के भोजन का ठिकाना नहीं, वे भी गहनों के पीछे प्राण देते हैं। हर साल अरबों रुपये केवल सोना-चांदी खरीदने में व्यय हो जाते हैं। संसार के और किसी देश में इन धातुओं की इतनी खपत नहीं। तो बात क्या है? उन्नत देशों में धन व्यापार में लगता है; जिससे लोगों की परवरिश होती है, और धन बढ़ता है। यहां धन श्रृंगार में खर्च होता है, उसमें उन्नति और उपकार की जो दो महान शक्तियां हैं, उन दोनों ही का अंत हो जाता है। बस यही समझ लो कि जिस देश के लोग जितने ही मूर्ख होंगे, वहां जेवरों का प्रचार भी उतना ही अधिक होगा। यहां तो खैर नाक-कान छिदाकर ही रह जाते हैं; मगर कई ऐसे देश भी हैं, जहां होंठ छेदकर लोग गहने पहनते हैं।

रमा ने कौतूहल से पूछा-वह कौन-सा देश है?

रमेश–इस समय ठीक याद नहीं आता, पर शायद अफ्रीका हो। हमें यह सुनकर अचंभा होता है, लेकिने अन्य देश वालों के लिए नाक-कान का छिदना कुछ कम अचंभे की बात न होगी। बुरा मरज है, बहुत ही बुरा। वह धन, जो भोजन में खर्च होना चाहिए, बाल-बच्चों का पेट काटकर गहनों की भेंट कर दिया जाता है। बच्चों को दूध न मिले न सही। घी को गंध तक उनकी नाक में न पहुंचे, न सही। मेवों और फलों के दर्शन उन्हें न हों, कोई परवा नहीं; पर देवीजी गहने जरूर पहनेंगी और स्वामीजी गहने जरूर बनवाएंगे। दस-दस, बीस-बीस रुपये पाने वाले क्लर्कों को देखता हूं, जो सड़ी हुई कोठरियों में पशुओं की भांति जीवन काटते हैं। जिन्हें सवेरे का जलपान तक मयस्सर नहीं होता, उन पर भी गहनों की सनक सवार रहती है। इस प्रथा से हमारा सर्वनाश होता जा रहा है। मैं तो कहता हूं, यह गुलामी पराधीनता से कहीं बढ़कर है। इसके कारण हमारा कितना आत्मिक, नैतिक, दैहिक, आर्थिक और धार्मिक पतन हो रहा है, इसका अनुमान ब्रह्मा भी नहीं कर सकते।

रमानाथ-मैं तो समझता हूं, ऐसा कोई भी देश नहीं, जहां स्त्रियां गहने न पहनती हों। क्या योरोप में गहनों का रिवाज नहीं है?

रमेश तो तुम्हारा देश योरोप तो नहीं है। वहां के लोग धनी हैं। वह धन लुटाएं, उन्हें शोभा देता है। हम दरिद्र हैं, हमारी कमाई का एक पैसा भी फजूल न खर्च होना चाहिए।

रमेश बाबू इस वाद-विवाद में शतरंज भूल गए। छुट्टी का दिन था ही, दो-चार मिलने वाले और आ गए: रमानाथ चुपके से खिसक आया। इस बहस में एक बात ऐसी थी, जो उसके दिल में बैठ गई। उधार गहने लेने का विचार उसके मन से निकल गया। कहीं वह जल्दी रुपया न चुका सका, तो कितनी बड़ी बदनामी होगी। सराफे तक गया अवश्य पर किसी दुकान में जाने का साहस न हुआ। उसने निश्चय किया, अभी तीन-चार महीने तक गहनों का नाम न लूंगा।

वह घर पहुंचा, तो नौ बज गए थे। दयानाथ ने उसे देखा तो पूछा--आज सवेरे-सवेरे कहां चले गए थे?

रमानाथ–जरा बड़े बाबू से मिलने गया था।

दयानाथ-घंटे-आधे घंटे के लिए पुस्तकालय क्यों नहीं चले जाया करते। गप-शप में दिन गंवा देते हो। अभी तुम्हारी पढ़ने-लिखने की उम्र है। इम्तहान न सही, अपनी योग्यता तो [ ४५ ]
बढ़ा सकते हो। एक सीधा-सा खत लिखना पड़ जाता है, तो बगलें झांकने लगते हो। असली शिक्षा स्कूल छोड़ने के बाद शुरू होती है, और वही हमारे जीवन में काम भी आती है। मैंने तुम्हारे विषय में कुछ ऐसी बातें सुनी हैं, जिनसे मुझे बहुत खेद हुआ है और तुम्हें समझा देना में अपना धर्म समझता हूं। मैं यह हरगिज नहीं चाहता कि मेरे घर में हराम की एक कौड़ी भी आए। मुझे नौकरी करते तीस साल हो गए। चाहता, तो अब तक हजारों रुपये जमा कर लेता, लेकिन मैं कसम खाती हूं कि कभी एक पैसा भी हराम का नहीं लिया। तुममें यह आदत कहां से आ गई, यह मेरी समझ में नहीं आता।

रमा ने बनावटी क्रोध दिखाकर कहा-किसने आपसे कहा है? जरा उसका नाम तो बताइए? मूंछे उखाड़ लें उसकी।

दयानाथ-किसी ने भी कहा हो, इससे तुम्हें कोई मतलब नहीं। तुम उसकी मूंछे उखाड़ लोगे, इसलिए बताऊंगा नहीं, लेकिन बात सच है या झूठ, मैं इतना ही पूछना चाहता हूं।

रमानाथ-बिल्कुल झूठ!

दयानाथ-बिल्कुल झूठ?

रमानाथ–जी हां, बिल्कुल झूठ।

दयानाथ-तुम दस्तूरी नहीं लेते?

रमीनाथ–दस्तूरी रिश्वत नहीं है, सभी लेते हैं और खुल्लम-खुल्ला लेते हैं। लोग बिना मांगे आप-हो-आप देते हैं, मैं किसी से मांगने नहीं जाता।

दयानाथ–सभी खुल्लम-खुल्ला लेते हैं और लोग बिना मांगे देते हैं, इससे तो रिश्वत की बुराई कम नहीं हो जाती।

रमानाथ-दस्तूरी को बंद कर देना मेरे वश की बात नहीं। मैं खुद न लें, लेकिन चपरासी और मुहर्रिर का हाथ तो नहीं पकड़ सकता। आठ-आठ, नौ-नौ पाने वाले नौकर अगर न लें, तो उनका काम ही नहीं चल सकता। मैं खुद न लें, पर उन्हें नहीं रोक सकता।

दयानाथ ने उदासीन भाव से कहा- मैंने समझा दिया, मानने का अख्तियार तुम्हें है।

यह कहते हुए दयानाथ दफ्तर चले गए। रमा के मन में आया, साफ कह दे, आपने निस्पृह बनकर क्या कर लिया, जो मुझे दोष दे रहे हैं। हमेशा पैसे-पैसे को मुहताज रहे। लड़कों को पढ़ा तक न सके। जूते-कपड़े तक न पहना सके। यह डींग मारना तब शोभा देता, जब कि नीयत भी साफ रहती और जीवन भी सुख से कटती।

रमा घर में गया तो माता ने पूछा- आज कहां चले गए बेटा, तुम्हारे बाबूजी इसी पर बिगड़ रहे थे।

रमानाथ-इस पर तो नहीं बिगड़ रहे थे, हां, उपदेश दे रहे थे कि दस्तूरी मत लिया करो। इससे आत्मा दुर्बल होती है और बदनामी होती है।

जागेश्वरी-तुमने कहा नहीं, आपने बड़ी ईमानदारी की तो कौन-से झंडे गाड़ दिए । सारी जिंदगी पेट पालते रहे।

रमानाथ–कहना तो चाहता था, पर चिढ़ जाते। जैसे आप कौड़ी-कौड़ी को मुहताज रहे, वैसे मुझे भी बनाना चाहते हैं। आपको लेने का शऊर तो है नहीं। जब देखा कि यहां दाल नहीं गलती, तो भगत बन गए। यहां ऐसे घोंघा -बसंत नहीं हैं। बनियों से रुपये ऐंठने के लिए अक्ल चाहिए, दिल्लगी नहीं है । जहां किसी ने भगतपन किया और मैं समझ गया, बुद्धू है। लेने की [ ४६ ]< br> तमीज नहीं, क्या करे बेचारा। किसी तरह आंसू तो पोंछे।

जागेश्वरी–बेस-बस यही बात है बेटा, जिसे लेना आवेगा, वह जरूर लेगा। इन्हें तो बस घर में कानून बघारना आता है और किसी के सामने बात तो मुंह से निकलती नहीं। रुपये निकाल लेना तो मुश्किल है।

रमा दफ्तर जाते समय ऊपर कपड़े पहनने गया, तो जालपा ने उसे तीन लिफाफे डाक में छोड़ने के लिए दिए। इस वक्त उसने तीनों लिफाफे जेब में डाल लिए, लेकिन रास्ते में उन्हें खोलकर चिट्ठियां पढ़ने लगा। चिट्टियां क्या थीं, विपत्ति और वेदना का करुण विलाप था, जो उसने अपनी तीनों सहेलियों को सुनाया था। तीनों का विषय एक ही था। केवल भावों का अंतर था-'जिंदगी पहाड़ हो गई हैं, न रात को नींद आती है न दिन को आराम; पतिदेव को प्रसन्न करने के लिए, कभी-कभी हंस- बोल लेती हूँ पर दिल हमेशा रोया करता है। न किसी के घर जाती हूं, न किसी को मुंह दिखाती हूं। ऐसा जान पड़ता है कि यह शोक मेरी जान ही लेकर छोड़ेगा। मुझसे वादे तो रोज किए जाते हैं, रुपये जमा हो रहे हैं, सुनार ठीक किया जा रहा है, डिजाइन तय किया जा रहा है, पर यह सब धोखा है और कुछ नहीं।'

रमा ने तीनों चिट्टियां जेब में रख ली। डाकखाना सामने से निकल गया, पर उसने उन्हें छोड़ा नहीं। यह अभी तक यही समझती है कि मैं इसे धोखा दे रहा हूँ? क्या करू, कैसे विश्वास दिलाऊं? अगर अपना वश होता तो इसी वक्त आभूषणों के टोकरे भर-भर जालपा के सामने रख देता, उसे किसी बड़े सराफ की दुकान पर ले जाकर कहता, तुम्हें जो-जो चीजें लेनी हों, ले लो। कितनी अपार वेदना है, जिसने विश्वास का भी अपहरण कर लिया है। उसको आज उस चोट का सच्चा अनुभव हुआ, जो उसने झूठी मर्यादा की रक्षा में उसे पहुंचाई थी। अगर वह जानता, उस अभिनय का यह फल होगा, तो कदाचित् अपनी डींगों का परदा खोल देता। क्या ऐसी दशा में भी, जब जालपा इस शोक-ताप से फुंकी जा रही थी, रमा को कर्ज लेने में संकोच करने की जगह थी? उसका हृदय कातर हो उठा। उसने पहली बार सच्चे हृदय में ईश्वर से याचना की-भगवन्, मुझे चाहे दंड देना; पर मेरी जालपा को मुझसे मत छीनना। इससे पहले मेरे प्राण हर लेना। उसके रोम-रोम से आत्मध्वनि-सी निकलने लगी-ईश्वर, ईश्वर ! मेरी दीन दशा पर दया करो।

लेकिन इसके साथ ही उसे जालपा पर क्रोध भी आ रहा था। जालपा ने क्यों मुझसे यह बात नहीं कही। मुझसे क्यों परदा रक्खा और मुझसे परदा रखकर अपनी सहेलियों में यह दुखड़ा रोया?

बरामदे में माल तौला जा रहा था। मेज पर रुपये-पैसे रखे जा रहे थे और रमा चिंता में डूबा बैठा हुआ था। किससे सलाह ले। उसने विवाह ही क्यों किया? सारा दोष उसका अपना था। जब वह घर की दशा जानता था, तो क्यों उसने विवाह करने से इंकार नहीं कर दिया? आज उसका मन काम में नहीं लगता था। समय से पहले ही उठकर चला आया।

जालपा ने उसे देखते ही पूछा-मेरी चिट्टियां छोड़ तो नहीं दीं।

रमा ने बहाना किया-अरे इनकी तो याद ही नहीं रही। जेब में पड़ी रह गई।

जालपा-यह बहुत अच्छा हुआ। लाओ, मुझे दे दो, अब न भेजूंगी।

रमानाथ-क्यों, कल भेज दूंगा।

जालपा–नहीं, अब मुझे भेजना ही नहीं है, कुछ ऐसी बातें लिख गई थी, जो मुझे न [ ४७ ]

लिखना चाहिए थीं। अगर तुमने छोड़ दी होती, तो मुझे दु:ख होता। मैंने तुम्हारी निंदा की थी। यह कहकर वह मुस्कराई।

रमानाथ-जो बुरा है, दगाबाज है, धूर्त है, उसकी निंदा होनी ही चाहिए।

जालपा ने व्यग्र होकर पूछा-तुमने चिट्ठियां पढ़ लीं क्या?

रमा ने नि:संकोच भाव से कहा-हां, यह कोई अक्षम्य अपराध है?

जालपा कातर स्वर में बोली-तब तो तुम मुझसे बहुत नाराज होगे?

आंसुओं के आवेग से जालपा की आवाज रुक गई। उसका सिर झुक गया और झुकी हुई। आंखों से आंसुओं की बूंदें आंचल पर गिरने लगीं। एक क्षण में उसने स्वर को संभालकर कहा-मुझसे बड़ी भारी अपराध हुआ है। जो चाहे सजा दो, पर मुझसे अप्रसन्न मत हो। ईश्वर जानते हैं, तुम्हारे जाने के बाद मुझे कितना दुःख हुआ। मेरी कलम से न जाने कैसे ऐसी बातें निकल गई।

जालपा जानती थी कि रमा को आभूषणों की चिंता मुझसे कम नहीं है, लेकिन मित्रों से अपनी व्यथा कहते समय हम बहुधा अपना दु:ख बढाकर कहते हैं। जो बातें परदे की समझ जाती हैं, उनकी चर्चा करने से एक तरह का अपनापन जाहिर होता है। मारे मित्र समझते हैं, हमसे जरा भी दुराव नहीं रखता और उन्हें हमसे सहानुभूति हो जाती है। अपनापन दिखाने कयह आदत औरों में कुछ अधिक होती है।

रमा जालपा के आंसू पोंछते हुए बोला—मैं तुमसे अप्रसन्न नहीं हूं, प्रिये । अप्रसन्न होने की तो कोई बात ही नहीं है। आशा का बिलंब ही दुराशा है, क्या मैं इतना नहीं जानता। अगर तुमने मुझे मना न कर दिया होता, तो अब तक मैंने किसी-न-किसी तरह दो-एक चीजें अवश्य ही बनवा दी होतीं। मुझसे भूल यही हुई कि तुमसे सलाह ली। यह तो वैसा ही है जैसे मेहमान को पूछ- पूछकर भोजन दिया जाय। उस वक्त मुझे यह ध्यान न रहा कि संकोच में आदमी इच्छा होने पर भी नहीं-नहीं करता है। ईश्वर ने चाहा तो तुम्हें बहुत दिनों तक इंतजार न करना पड़ा।

जालपा ने सचिंत नेत्रों से देखकर कहा-तो क्या उधार लाओगे?

रमानाथ-हां, उधार लाने में कोई हर्ज नहीं है। जब सूद नहीं देना हैं तो जैसे नगद वैसे उधार। ऋण से दुनिया का काम चलता है। कौन ऋण नहीं लेता। हाथ में रुपया आ जाने से अलल्ले-तलल्ले खर्च हो जाते हैं। कर्ज सिर पर सवार रहेगा, तो उसकी चिंता हाथ रोके रहेगी।

जालपा–मैं तुम्हें चिंता में नहीं डालना चाहती। अब मैं भूलकर भी गहनों का नाम न लूंगी।

रमानाथ-नाम तो तुमने कभी नहीं लिया, लेकिन तुम्हारे नाम न लेने से मेरे कर्तव्य का अंत तो नहीं हो जाता। तुम कर्ज से व्यर्थ इतना डरती हो। रुपये जमा होने के इंतजार में बैठा रहूंगा, तो शायद कभी न जमा होंगे। इसी तरह लेते-देते साल में तीन-चार चीजें बन जाएंगी।

जालपा–मगर पहले कोई छोटी-सी चीज लाना।

रमानाथ-हां, ऐसा तो करूंगा ही।

रमा बाजार चला, तो खूब अंधेरा हो गया था। दिन रहते जाता तो संभव था, मित्रों में से किसी की निगाह उस पर पड़ जाती। मुंशी दयानाथ ही देख लेते। वह इस मामले को गुप्त ही रखना चाहता था।