गबन/भाग 29

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प्रेमचंद रचनावली ५  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

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उदय होगा। उसकी इच्छाएं फिर फूले-फलेंगी। भविष्य अपनी सारी आशाओं और आकांक्षाओं के साथ उसके सामने था—विशाल, उज्ज्वल, रमणीक रतन का भविष्य क्या था? कुछ नहीं; शून्य, अंधकार !

जालपा आंखें पोंछकर उठ खड़ी हुई। बोली-पत्रों के जवाब देती रहना। रुपये देती जाओ।

रतन ने पर्स से नोटों को एक बंडल निकालकर उसके सामने रख दिया; पर उसके चेहरे पर प्रसन्नता न थी।

जालपा ने सरल भाव से कहा-क्या बुरा मान गईं।

रतन ने रूठे हुए शब्दों में कहा-बुरा मानकर तुम्हारा क्या कर लूंगी।

जालपा ने उसके गले में बांहें डाल दीं। अनुराग से उसका हृदय गदगद हो गया। रतन से उसे इतना प्रेम कभी न हुआ था। वह उससे अब तक खिंचतीथी,ईर्ष्या करती थी। आज उसे रतन का असली रूप दिखाई दिया।

यह सचमुच अभागिनी है और मुझसे बढ़कर।

एक क्षण बाद, रतन आंखों में आंसू और हंसी एक साथ भरे विदा हो गई।

उनतीस

कलकत्ते में वकील साहब ने ठरहने का इंतजाम कर लिया था। कोई कष्ट न हुआ। रतन ने महराज और टीमल कहार को साथ ले लिया था। दोनों वकील साहब के पुराने नौकर थे और घर के-से आदमी हो गए थे। शहर के बाहर एक बंगला था। उसके तीन कमरे मिल गए। इससे ज्यादा जगह को वहां जरूरत भी न थी। हाते में तरह-तरह के फूल-पौधे लगे हुए थे। स्थान बहुत सुंदर मालूम होता था। पास-पड़ोस में और कितने ही बंगले थे। शहर के लोग उधर हवाखोरी के लिए जाया करते थे और हरे होकर लौटते थे, पर रतन को वह जगह फाड़े खाती थी। बीमार के साथ वाले भी बीमार होते हैं। उदासों के लिए स्वर्ग भी उदास है।

सफर ने वकील साहब को और भी शिथिल कर दिया था। दो तीन दिन तो उनकी दशा उससे भी खराब रही, जैसी प्रयाग में थी, लेकिन दवा शुरू होने के दो-तीन दिन बाद वह कुछ संभलने लगे। रतन सुबह से आधी रात तक उनके पास ही कुर्सी डाले बैठी रहती । स्नान-भोजन की भी सुधि न रहती। वकील साहब चाहते थे कि यह यहां से हट जाय तो दिल खोलकर कराहें। उसे तस्कीन देने के लिए वह अपनी दशा को छिपाने की चेष्य करते रहते थे। वह पूछती, आज कैसी तबीयत है? तो वह फीकी मुस्कराहट के साथ कहते-आज तो जी बहुत हल्का मालूम होता है। बेचारे सारी रात करवटें बदलकर काटते थे; पर रतन पूछती-रात नींद आई थी? तो कहते-हां, खूब सोया। रतन पथ्य सामने ले जाती, तो अरुचि होने पर भी खा लेते। रतन समझती, अब यह अच्छे हो रहे हैं। कविराज जी से भी वह यही समाचार कहती। वह भी अपने उपचार की सफलता पर प्रसन्न थे।

एक दिन वकील साहब ने रतन से कहा-मुझे डर है कि मुझे अच्छा होकर तुम्हारी दवा न करनी पड़े। [ १३४ ]रतन ने प्रसन्न होकर कहा-इससे बढ़कर क्या बात होगी। मैं तो ईश्वर से मनाती हूं कि तुम्हारी बीमारी मुझे दे दें।

'शाम को घूम आया करो। अगर बीमार पड़ने की इच्छा हो, तो मेरे अच्छे हो जाने पर पड़ना।'

'कहां जाऊ, मेरा तो कहीं जाने को जी ही नहीं चाहता। मुझे यहीं सबसे अच्छा लगता वकील साहब को एकाएक रमानाथ का खयाल आ गया। बोले-जरा शहर के पार्को में घूम-घाम कर देखो, शायद् रमानाथ का पता चल जाय।

रतन को अपना वादा याद आ गया। रमा को पा जाने की आनंदमय आशा ने एक क्षण के लिए उसे चंचल कर दिया। कहीं वह पार्क में बैठे मिल जाएं, तो पूछू कहिए बाबूजी, अब कहां भागकर जाइएगा? इस कल्पना से उसकी मुद्रा खिल उठी। बोली-जालपा से मैंने वादा तो किया था कि पता लगाऊगी; पर यहां आकर भूल गई।

वकील साहब ने साग्रह कहा-आज चली जाओ। आज क्या, शाम को रोज घंटे भर के लिए निकल जाया करो।

रतन ने चिंतित होकर कहा–लेकिन चिंता तो लगी रहेगी।

वकील साहब ने मुस्कराकर कहा-मेरी? मैं तो अच्छा हो रहा है।

रतन ने संदिग्ध भाव से कहा-अच्छा, चली जाऊंगी। रतन को कल से वकील साहब के आश्वासने पर कुछ संदेह होने लगा था। उनकी चेष्टा से अच्छे होने का कोई लक्षण उसे न दिखाई देता था। इनका चेहरा क्यों दिन-दिन पीला पड़ता जाता है। इनकी आंखें क्यों हरदम बंद रहती हैं 'देह क्यों दिन-दिन घुलती जाती है । महराज और कहार से वह यह शंका न कह सकती थी। कविराज से पूछते उसे संकोच होता था। अगर कहीं रमा मिल जाते, तो उनसे पूछती। वह इतने दिनों से यहां हैं, किसी दूसरे डॉक्टर को दिखाती। इन कविराज जी से उसे कुछ-कुछ निराश हो चली थी।

जब रतन चली गई, तो वकील साहब ने टीमल से कहा-मुझे जरा उठाकर बिठा दो,टीमल। पड़े-पड़े कमर सीधी हो गई। एक प्याली चाय पिला दो। कई दिन हो गए, चाय की सूरत नहीं देखी। यह पथ्य मुझे मार डालता है। दूध देखकर ज्वर चढ़ आता है, पर उनकी खातिर से पी लेता हूं। मझे तो इन कविराज की दवा से कोई फायदा नहीं मालूम होता। तुम्क्या मालूम होता है?

टीमल ने वकील साहब को तकिए के सहारे बैठाकर कहा–बाबूजी सो देख लेव, यह तो मैं पहले ही कहने वाला था। सो देख लेवे, बहूजी के डर के मारे नहीं कहता था।

वकील साहब ने कई मिनट चुप रहने के बाद कहा-मैं मौत से डरता नहीं, टीमल !बिल्कुल नहीं। मुझे स्वर्ग और नरक पर बिल्कुल विश्वास नहीं है। अगर संस्कारों के अनुसार आदमी को जन्म लेना पड़ता है, तो मुझे विश्वास है, मेरा जन्म किसी अच्छे घर में होगा। फिर भी मरने को जी नहीं चाहता। सोचता हूं, मर गया तो क्या होगा।

टीमल ने कहा-बाबूजी सो देख लेव, आप ऐसी बातें न करें। भगवान् चाहेंगे, तो आप अच्छे हो जाएंगे। किसी दूसरे डाक्टर को बुलाऊं? आप लोग तो इंग्रेजी पढ़े हैं, सो देख लेव,कुछ मानते ही नहीं, मुझे तो कुछ और ही संदेह हो रहा है। कभी-कभी गंवारों को भी सुन लिय [ १३५ ]
करो। सो देख लेव, आप मानो चाहे न मानो, मैं तो एक सयाने को लाऊंगा। बंगाल के ओझे-सयाने मसहूर हैं।

वकील साहब ने मुंह फेर लिया। प्रेत-बाधा का वह हमेशा मजाक उड़ाया करते थे। कई ओझों को पीट चुके थे। उनका खयाल था कि यह प्रवंचना है, ढोंग है, लेकिन इस वक्त उनमें इतनी शक्ति भी न थी कि टीमल के इस प्रस्ताव का विरोध करते। मुंह फेर लिया।

महराज ने चाय लाकर कहा–सरकार, चाय लाया हूँ।

वकील साहब ने चाय के प्याले को क्षुधित नेत्रों से देखकर कहा-ले जाओ, अब न पीऊंगा। उन्हें मालूम होगी, तो दुखी होंगी। क्यों महराज, जब से मैं आया हूँ मेरा चेहरा कुछ हरा हुआ है?

महराज ने टीमल की ओर देखा। वह हमेशा दूसरों की राय देखकर राय दिया करते थे। खुद सोचने की शक्ति उनमें न थी। अगर टीमल ने कहा है, आप अच्छे हो रहे हैं, तो वह भी इसका समर्थन करेंगे। टीमल ने इसके विरुद्ध कहा है, तो उन्हें भी इसके विरुद्ध ही कहना चाहिए। टीमल ने उनके असमंजस को भांपकर कहा-हरा क्यों नहीं हुआ है, हां, जितना होना चाहिए उतना नहीं हुआ।

महराज बोले-हां, कुछ हरा जरूर हुआ है, मुदा बहत कम।

वकील साहब ने कुछ जवाब नहीं दिया। दो-चार वाक्य बोलने के बाद वह शिथिल हो जाते थे और दस-पांच मिनट शांत अचेत पड़े रहते थे। कदाचित् उन्हें अपनी दशा का यथार्थ ज्ञान हो चुका था। उसके मुख पर, बुद्धि पर, मस्तिष्क पर मृत्यु की छाया पड़ने लगी थीं। अगर कुछ आशा थी, तो इतनी ही कि शायद मन की दुर्बलता से उन्हें अपनी दशा इतनी हीन मालूम होती हो। उनका दम अब पहले से ज्यादा फूलने लगा था। कभी-कभी तो ऊपर की सांस ऊपर ही रह जाती थी। जान पड़ता था, बस अब प्राण निकला। भीषण प्राण-वेदना होने लगती थी। कौन जाने, कब यही अवरोध एक क्षण और बढ़कर जीवन का अंत कर दे। सामने उद्यान में चांदनी कुहरे की चादर ओढे, जमीन पर पड़ी सिसक रही थी। फूल और पौधे मलिन मुख, सिर झुकाए, आशा और भय से विकल हो-होकर मानो उसके वक्ष पर हाथ रखते थे, उसकी शीतल देह को स्पर्श करते थे और आंसू की दो बूदें गिराकर फिर उसी भांति देखने लगते थे।

सहसा वकील साहब ने आंखें खोलीं। आंखों के दोनों कोनों में आंसू की बूदें मचल रही थीं। क्षीण स्वर में बोले-टीमल । क्या सिद्धू आए थे?

फिर इस प्रश्न परआप ही लज्जित हो मुस्कराते हुए बोले-मुझे ऐसा मालूम हुआ, जैसे सिद्धू आए हों।

फिर गहरी सांस लेकर चुप हो गए, और आंखें बंद कर ली। सिद्ध उस बेटे का नाम था, जो जवान होकर मर गया था। इस समय वकील साहब को बराबर उसी की याद आ रही थी। कभी उसका बालपन सामने आ जाता, कभी उसका मरना आगे दिखाई देने लगता-कितने स्पष्ट, कितने सजीव चित्र थे। उनकी स्मृति कभी इतनी मूर्तिमान, इतनी चित्रमय न थी।

कई मिनट के बाद उन्होंने फिर आंखें खोलीं और इधर-उधर खोई हुई आंखों से देखा। [ १३६ ]उन्हें, अभी ऐसा जान पड़ता था कि मेरी माता आकर पूछ रही हैं, 'बेटा, तुम्हारा जी कैसा है?'

सहसा उन्होंने टीमल से कहा-यहां आओ। किसी वकील को बुला लाओ, जल्दी जाओ, नहीं वह घूमकर आती होंगी।

इतने में मोटर का हाने सुनाई दिया और एक पल में मोटर आ पहुंची। वकील को बुलाने की बात उड़ गई।

वकील साहब ने प्रसन्न-मुख होकर पूछा-कहां-कहां गईं? कुछ उसका पता मिला?

रतन ने उनके माथे पर हाथ रखते हुए कहा-कई जगह देखा। कहीं न दिखाई दिए। इतने बड़े शहर में सड़कों का पता तो जल्दी चलता नहीं, वह भला क्या मिलेंगे। दवा खाने का समय तो आ गया न?

वकील साहब ने दबी जबान से कहा-लाओ, खा लें।

रतन ने दवा निकाली और उन्हें उठाकर पिलाई। इस समय वह न जाने क्यों कुछ भयभीत-सी हो रही थी। एक अस्पष्ट, अज्ञात शंका उसके हृदय को दबाए हुए थी।

एकाएक उसने कहा-उन लोगों में से किसी को तार दे दूं?

वकील साहब ने प्रश्न की आंखों से देखा। फिर आप ही आप उसका आशय समझकर बोले-नहीं-नहीं, किसी को बुलाने की जरूरत नहीं। मैं अच्छा हो रहा हूं।

फिर एक क्षण के बाद सावधान होने की चेष्टा करके बोले–मैं चाहता हूं कि अपनी वसीयत लिखवा दें। जैसे एक शीतल, तीव्र बाण रतन के पैर से घुसकर सिर से निकल गया। मानो उसकी देह के सारे बंधन खुल गए, सारे अवयव बिखर गए, उसके मस्तिष्क के सारे परमाणु हवा में उड़ गए। मानो नीचे से धरती निकल गई, ऊपर से आकाश निकल गया और अब वह निराधार, निस्पंद, निर्जीव खडी है। अवरुद्ध, अश्रु-कपित कंठ से बोली-घर से किसी को बुलाऊं? यहां किससे सलाह ली जाए? कोई भी तो अपना नहीं है।

'अपनों' के लिए इस संमय रतन अधीर हो रही थी। कोई भी तो अपना होता, जिस पर वह विश्वास कर सकती, जिससे सलाह ले सकती। घर के लोग आ जाते, तो दौड़-धूप करके किसी दूसरे डाक्टर को बुलाते। वह अकेली क्या-क्या करे? आखिर भाई-बंद और किस दिन काम आवेंगे। संकट में ही अपने काम आते हैं। फिर यह क्यों कहते हैं कि किसी को मत बुलाओ । वसीयत की बात फिर उसे याद आ गई ! यह विचार क्यों इनके मन में आया? वैद्यजी ने कुछ कहा तो नहीं? क्या होने वाला है, भगवान् | यह शब्द अपने सारे संसर्गों के साथ उसके हृदय को विदीर्ण करने लगा। चिल्ला-चिल्लाकर रोने के लिए उसका मन विकल हो उठा। अपनी माता याद आई। उसके अंचल में मुंह छिपाकर रोने की आकांक्षा उसके मन में उत्पन्न हुई। उस स्नेहमय अंचल में रोकर उसकी बाल-आत्मा को कितना संतोष होता था। कितनी जल्द उसकी सारी मनोव्यथा शांत हो जाती थी। आह । यह आधार भी अब नहीं।

महराज ने अकार कहा-सरकार, भोजन तैयार है। थाली परोसे?

रतन ने उसकी ओर कठोर नेत्रों से देखा। वह बिना जवाब की अपेक्षा किए चुपके-से चला गया।

मगर एक ही क्षण में रतन को महराज पर दया आ गई। उसने कौन-सी बुराई की जो [ १३७ ]
भोजन के लिए पूछने आया। भोजन भी ऐसी चीज है, जिसे कोई छोड़ सके । वह रसोई में जाकर महराज से बोली-तुम लोग खा लो, महराज ! मुझे आज भूख नहीं लगी है।

महराज ने आग्रह किया-दो ही फुलके खा लीजिए, सरकार !

रतन ठिठक गई। महराज के आग्रह में इतनी सहृदयता, इतनी संवेदना भरी हुई थी कि रतन को एक प्रकार की सांत्वना का अनुभव हुआ। यहां कोई अपना नहीं है, यह सोचने में उसे अपनी भूल प्रतीत हुई। महराज ने अब तक रतन को कठोर स्वामिनी के रूप में देखा था। वहीं स्वामिनी आज उसके सामने खड़ी मानो सहानुभूति की भिक्षा मांग रही थी। उसकी सारी सद्वृत्तियां उमड़ उठीं। रतन को उसके दुर्बल मुख पर अनुराग का तेज नजर आया।

उसने पूछा-क्यों महराज, बाबूजी को इस कविराज की दवा से कोई लाभ हो रहा है?

महराज ने डरते-डरते वही शब्द दुहरा दिए, जो आज वकील साहब से कहे थे-कुछ-कुछ तो हो रहा है, लेकिन जितना होना चाहिए उतनी नहीं।

रतन ने अविश्वास के अंदाज से देखकर कहा-तुम भी मुझे धोखा देते हो, महराज।

महराज की आंखें डबडबा गईं। बोले-भगवान् सब अच्छा ही करेंगे बहूजी, घबड़ाने से क्या होगा। अपना तो कोई बस नहीं है।

रतन ने पूछा-यहां कोई ज्योतिषी न मिलेगा? जरा उससे पूछते। कुछ पूजा-पाठ भी कर लेने से अच्छा होता है।

महराज ने तुष्टि के भाव से कहा-यह तो मैं पहले ही कहने वाला था, बहुजी । लेकिन बाबूजी का मिजाज तो जानती हो। इन बातों से वह कितना बिगड़ते हैं।

रतन ने दृढ़ता से कहा-सवेरे किसी को जरूर बुला लाना।

'सरकार चिढ़ेंगे।'

'मैं तो कहती हूं।'

यह कहती कमरे में आई और रोशनी के सामने बैठकर जालपा को पत्र लिखने लगी-

'बहन, नहीं कह सकती, क्या होने वाला है। आज मुझे मालूम हुआ है कि मैं अब तक मीठे भ्रम में पड़ी हुई थी। बाबूजी अब तक मुझसे अपनी दशा छिपाते थे, म आज यह बात उनके काबू से बाहर हो गई। तुमसे क्या कहें, आज वह वसीयत लिखने की चर्चा कर रहे थे। मैंने ही टाला। दिल घबड़ा रहा है बहन, जी चाहता है, थोड़ी-सी संखिया खाकर सो रहूं। विधाता को संसार दयालु, कृपालु, दोन-बंधु और जाने कौन-कौन-सी उपाधियां देता है। मैं कहती हूं, उससे निर्दयी, निर्मम, निष्ठुर कोई शत्रु भी नहीं हो सकता। पूर्वजन्म का संस्कार केवल मन को समझाने की चीज है। जिस दंड का हेतु ही हमें न मालूम हो, उस दंड का मूल्य ही क्या । वह तो जबर्दस्त की लाठी है, जो आघात करने के लिए कोई कारण गढ़ लेती है। इस अंधेरे, निर्जन, कांटों से भरे हुए जीवन-मार्ग में मुझे केवल एक टिमटिमाता हुआ दीपक मिला था। मैं उसे अंचल में छिपाए, विधि को धन्यवाद देती हुई, गाती चली जाती थी; पर वह दीपक भी मुझसे छीना जा रहा है। इस अंधकार में मैं कहां जाऊ, कौन मेरा रोना सुनेगा, कौन मेरी बांह पकड़ेगा।'

‘बहन, मुझे क्षमा करना। मुझे बाबूजी का पता लगाने का अवकाश नहीं मिला। आज कई पार्क का चक्कर लगा आई, पर कहीं पता नहीं चला। कुछ अवसर मिला तो फिर जाऊंगी।' [ १३८ ]'माताजी को मेरा प्रणाम कहना।'

पत्र लिखकर रतन बरामदे में आई। शीतल समीर के झोंके आ रहे थे। प्रकृति मानो रोग-शय्या पर पड़ी सिसक रही थी।उसी वक्त वकील साहब की सांस वेग से चलने लगी।

तीस

रात के तीन बज चुके थे। रतन आधी रात के बाद आरामकुर्सी पर लेटे ही लेटे झपकियां ले रही थी कि सहसा वकील साहब के गले का खर्राटा सुनकर चौंक पड़ी। उल्टी सांसें चल रही थीं। वह उनके सिरहाने चारपाई पर बैठ गई और उनका सिर उठाकर अपनी जांघ पर रख लिया। अभी न जाने कितनी रात बाकी है। मेज पर रखी हुई छोटी घड़ी की ओर देखा। अभी तीन बजे थे। सबेरा होने में चार घंटे की देर थी। कविराज कहीं नौ बजे आवेंगे | यह सोचकर वह हताश हो गई। अभागिनी रात क्या अपना काला मुंह लेकर विदा न होगी । मालूम होता है, एक युग हो गया ।

कई मिनट के बाद वकील साहब की सांस रुकी। सारी देह पसीने में तर थी। हाथ से रतन को हट जाने का इशारा किया और तकिए पर सिर रखकर फिर आखें बंद कर ली।

एकाएक उन्होंने क्षीण स्वर में कहा–रतन, अब विदाई का समय आ गया। मेरे अपराध उन्होंने दोनों हाथ जोड़ लिए और उसकी ओर दीन याचना की आंखों से देखा। कुछ कहना चाहते थे, पर मुंह से आवाज न निकली।

रतन ने चीखकर कहा-टीमल, महराज, क्या दोनों मर गए?

महराज ने आकर कहा-मैं सोया थोडे ही था बहूजी, क्यों बाबूजी ?

रतन ने डांटकर कहा–बको मत, जाकर कविराज को बुला लागे, कहना अभी चलिए।

महराज ने तुरंत अपना पुराना ओवरकोट पहना, सोटा उठाया और चल दिया। रतन उठकर स्टोव जलाने लगी कि शायद सैंक से कुछ फायदा हो। उसकी सारी घबराहट, सारी दुर्बलता, सारा शोक मान लुप्त हो गया। उसकी जगह एक प्रबल आत्मनिर्भरता का उदय हुआ। कठोर कर्तव्य ने उसके सारे अस्तित्व को सचेत कर दिया।

स्टोव जलाकर उसने रुई के गले से छाती को सेंकना शुरू किया। कोई पंद्रह मिनट तक ताबड़तोड़ सेंकने के बाद वकील साहब की सांस कुछ थमी। आवाज काबू में हुई। रतन के दोनों हाथ अपने गालों पर रखकर बोले-तुम्हें बड़ी तकलीफ हो रही है, मुन्नी। क्या जानता था, इतनी जल्द यह समय आ जाएगा। मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया है, प्रिये ! ओह कितना बड़ा अन्याय । मन की सारी लालसा मन में रह गई। मैंने तुम्हारे जीवन का सर्वनाश कर दिया-क्षमा करना।

यही अंतिम शब्द थे जो उनके मुख से निकले। यही जीवन का अंतिम सूत्र था, यही मोह का अंतिम बंधन था। [ १३९ ]रतन ने द्वार की ओर देखा। अभी तक महराज का पता न था। हां, टीमल खड़ा था और सामने अथाह अंधकार जैसे अपने जीवन की अंतिम वेदना से मूर्छित पड़ा था।

रतन ने कहा-टीमल, जरा पानी गरम करोगे?

टीमल ने वहीं खड़े-खड़े कहा-पानी गरम करके क्या करोगी बहुजी, गोदान करा दो। दो बूंद गंगाजल मुंह में डाल दो।

रतन ने पति की छाती पर हाथ रखा। छाती गरम थी। उसने फिर द्वार की ओर ताका। महराज न दिखाई दिए। वह अब भी सोच रही थी, कविराजजी आ जाते तो शायद इनकी हालत संभल जाती। पछता रही थी कि इन्हें यहां क्यों लाई? कदाचित् रास्ते की तकलीफ और जलवायु ने बीमारी को असाध्य कर दिया। यह भी पछतावा हो रहा था कि मैं संध्या समय क्यों घूमने चली गई शायद उतनी ही देर में इन्हें ठंड लग गई। जीवन एक दीर्घ पश्चात्ताप के सिवा और क्या है !

पछतावे की एक-दो बात थी ! इस आठ साल के जीवन में मैंने पति को क्या आराम पहुंचाया? वह बारह बजे रात तक कानूनी पुस्तकें देखते रहते थे, मैं पी सोती रहती थी। वह संध्या समय भी मुवक्किलों से मामले की बातें करते थे, मैं पार्क और सिनेमा की सैर करती थी, बाजारों में मटरगश्ती करती थी। मैंने इन्हें धनोपार्जन के एक यंत्र के सिवा और क्या समझा ! यह कितना चाहते थे कि मैं इनके साथ बैटू और बातें करू; पर मैं भागती फिरती थी। मैंने कभी इनके हृदय के समीप जाने की चेष्टा नहीं की, कभी प्रेम की दृष्टि से नहीं देखा। अपने घर में दीपक न जलाकर दूसरों के उजाले घर का आनंद उठाती फिरी–मनोरंजन के सिवा मुझे और कुछ सूझता ही न था। विलास और मनोरंजन, ही मेरे जीवन के दो लक्ष्य थे। अपने जले हुए दिल को इस तरह शांत करके मैं संतुष्ट थी। खीर और मलाई की थाली क्यों न मुझे मिली, इस क्षोभ में मैंने अपनी रोटियों को लात मार दी।

आज रतन को उस प्रेम का पूर्ण परिचय मिला, जो इसे विदा होने वाली आत्मा को उससे था—वह इस समय भी उसी की चिंता में मग्न थी। रतन के लिए जीवन में फिर भी कुछ आनंद था, कुछ रुचि थी. कुछ उत्साह था। इनके लिए जीवन में कौन-सा सुख था! न खाने-पीने की सुख, न मेले-तमाशे का शौक! जीवन क्या, एक दीर्घ तपस्या थी, जिसका मुख्य उद्देश्य कर्तव्य का पालन था? क्या रतन उनका जीवन सुखी न बना सकती थी? क्या एक क्षण के लिए कठोर कर्तव्य की चिंताओं से उन्हें मक्त न कर सकती थी? कौन कह सकता है कि विराम और विश्राम से यह बुझने वाला दीपक कुछ दिन और न प्रकाशमान रहता। लेकिन उसने कभी अपने पति के प्रति अपना कर्तव्य ही न समझा। उसकी अंतरात्मा सदैव विद्रोह करती रही, केवल इसलिए कि इनसे मेरा संबंध क्यों हुआ? क्या उस विषय में सारा अपराध इन्हीं का था ! कौन कह सकता है कि दरिंद्र माता-पिता ने मेरी और भी दुर्गति न की होती जवान आदमी भी सब-के-सब क्या आदर्श ही होते हैं? उनमें भी तो व्यभिचारी, क्रोधी, शराबी सभी तरह के होते हैं। कौन कह सकता है, इस समय मैं किस दशा में होती। रतन का एक-एक रोआं इस समय उसका तिरस्कार कर रहा था। उसने पति के शीतल चरणों पर सिर झुका लिया और बिलख-बिलखकर रोने लगी। वह सारे कठोर भाव जो बराबर उसके मन में उठते रहते थे, वह सारे कटु वचन जो उसने जल-जलकर उन्हें कहे थे, इस समय सैकड़ों बिच्छुओं के समान उसे डंक मार रहे थे। हाय ! मेरी यह व्यवहार उस प्राणी के साथ था, जो सागर की भांति गंभीर था। [ १४० ]इस हृदय में कितनी कोमलता थी, कितनी उदारता ! मैं एक बीड़ा पान दे देती थी, तो कितना प्रसन्न हो जाते थे। जरा हंसकर बोल देती थी, तो कितने तृप्त हो जाते थे, पर मुझसे इतना भी न होता था। इन बातों को याद कर-करके उसका हृदय फय जाता था। उन चरणों पर सिर रक्खे हुए उसे प्रबल आकांक्षा हो रही थी कि मेरे प्राण इसी क्षण निकल जायें। उन चरणों को मस्तक से स्पर्श करके उसके हृदय में कितना अनुराग उमड़ा आता था, मानो एक युग की संचित निधि को वह आज ही, इसी क्षण, लुटा देगी। मृत्यु की दिव्य ज्योति के सम्मुख उसके अंदर का सारा मालिन्य, सारी दुर्भावना, सारा विद्रोह मिट गया था।

वकील साहब की आंखें खुली हुई थीं; पर मुख पर किसी भाव का चिह्न न था। रतन की विहलता भी अब उनकी बुझती हुई चेतना को प्रदीप्त न कर सकती थी। हर्ष और शोक के बंधन से वह मुक्त हो गए थे, कोई रोए तो गम नहीं, हंसे तो खुशी नहीं।

टीमल ने आचमनी में गंगाजल लेकर उनके मुंह में डाल दिया। आज उन्होंने कुछ बाधा ने दी। वह जो पाखंडों और रूढ़ियों का शत्रु थी, इस समय शांत हो गया था, इसलिए नहीं कि उसमें धार्मिक विश्वास का उदय हो गया था, बल्कि इसलिए कि उसमें अब कोई इच्छा न थी। इतनी ही उदासीनता से वह विष का घूंट पी जाता।

मानव-जीवन की सबसे महान् घटना कितनी शांति के साथ घटित हो जाती है। वह विश्व का एक महान् अंग, वह महत्वाकांक्षाओं का प्रचंड सागर, वह उद्योग का अनंत भंडार,वह प्रेम और द्वेष, सुख और दुःख का लीला-क्षेत्र, वह बुद्धि और बल की रंगभूमि न जाने कब और कहां लीन हो जाती है, किसी को खबर नहीं होती। एक हिचकी भी नहीं, एक उच्छ्वास भी नहीं, एक आह भी नहीं निकलती । सागर को हिलोरों का कहां अंत होता है, कौन बता सकता है। ध्वनि कहां वायु-मग्न हो जाती है, कौन जानता है। मानवीय जीवन उस हिलोर के सिवा, उस ध्वनि के सिवा और क्या है। उसका अवसान भी उतना ही शव, उतना ही अदृश्य हो तो क्या आश्चर्य है। भूतों के भक्त पूछते हैं, क्या वस्तु निकल गई? कोई विज्ञान का उपासक कहता है, एक क्षण ज्योति निकल जाती है। कपोल-विज्ञान के पुजारी कहते हैं, आंखों से प्राण निकले, मुंह से निकले, ब्रह्मांड से निकले। कोई उनसे पूछे, हिलोर लय होते समय क्या चमक उठती है? ध्वनि लीन होते समय क्या भूर्तिमान हो जाती है? यह उस अनंत यात्रा का एक विश्राम मात्र है, जहां यात्रा का अंत नहीं, नया उत्थान होता है।

कितना महान् परिवर्तन वह जो मच्छर के डंक को सहन न कर सकता था, अब उसे चाहे मिट्टी में दबा दो, चाहे अग्नि-चिता पर रख दो, उसके माथे पर बले तक न पड़ेगा।

टीमल ने वकील साहब के मुख की ओर देखकर कहा-बहूजी, आइए खाट से उतार दें। मालिक चले गए।

यह कहकर वह भूमि पर बैठ गया और दोनों आंखों पर हाथ रखकर फूट-फूटकर रोने लगा। आज तीस वर्ष का साथ छूट गया। जिसने कभी आधी बात नहीं कहीं, कभी तू करके नहीं पुकारा, वह मालिक अब उसे छोड़े चला जा रहा था।

रतन अभी तक कविराज की बाट जोह रही थी। टीभल के मुख से यह शब्द सुनकर उसे धक्का-सा लगा। उसने उठकर पति की छाती पर हाथ रखा। साठ वर्ष तक अविश्राम गति से चलने के बाद वह अब विश्राम कर रही थी। फिर उसे माथे पर हाथ रखने की हिम्मत न पड़ी। उस देह को स्पर्श करते हुए, उस मरे हुए मुख की ओर ताकते हुए, उसे ऐसा विराग हो रहा था, [ १४१ ]
जो ग्लानि से मिलती थी। अभी जिन चरणों पर सिर रखकर वह रोई थी, उसे छूते हुए उसकी उंगलियां कटी-सी जाती थीं। जीवन-सूत्र इतना कोमल है, उसने कभी न समझा था। मौत का खयाल कभी उसके मन में न आया था। उस मौत ने आंखों के सामने उसे लूट लिया।

एक क्षण के बाद टीमल ने कहा-बहूजी, अब क्या देखती हो, खाट के नीचे उतार दो। जो होना था हो गया।

उसने पैर पकड़ा, रतन ने सिर पकड़ा और दोनों ने शव को नीचे लिटा दिया और वहीं जमीन पर बैठकर रतन रोने लगी, इसलिए नहीं कि संसार में अब उसके लिए कोई अवलंबन था, बल्कि इसलिए कि वह उसके साथ अपने कर्तव्य को पूरा न कर सकी।

उसी वक्त मोटर की आवाज आई और कविराजजी ने पदार्पण किया।

कदाचित् अब भी रतन के हृदय में कहीं आशा की कोई बुझती हुई चिनगारी पड़ी हुई थी उसने तुरंत आंखें पोंछ डालीं, सिर का अंचल संभाल लिया, उलझे हुए केश समेट लिए और खड़ी होकर द्वार की ओर देखने लगी। प्रभात ने आकाश को अपनी सुनहली किरणों से रंजित कर दिया था। क्या इस आत्मा के नव-जीवन का यही प्रभात था।

इकतीस

उसी दिन शव काशी लाया गया। यहीं उसकी दाह-क्रिया हुई। वकील साहब के एक भतीजे मालवे में रहते थे। उन्हें तार देकर बुला लिया गया। दाह-क्रिया उन्होंने की। रतन को चिता के दृश्य की कल्पना ही से रोमांच होता था। वहां पहुंचकर शायद वह बेहोश हो जाती।

जालपा आजकल प्राय: सारे दिन उसी के साथ रहती। शोकातुर रतन को न घर-बार की सुधि थी, न खाने-पीने की। नित्य ही कोई-न-कोई ऐसी बात याद आ जाती जिस पर वह घंटों रोती। पति के साथ उसका जो धर्म था, उसके एक अंश का भी उसने पालन किया होता, तो उसे बोध होता। अपनी कर्त्तव्यहीनता, अपनी निष्ठुरता, अपनी श्रृंगार-लोलुपता की चर्चा करके वह इतना रोती कि हिचकियां बंध जातीं। वकील साहब के सद्गुणों की चर्चा करके ही वह अपनी आत्मा को शांति देती थी। जब तक जीवन के द्वार पर एक रक्षक बैठा हुआ था, उसे कुत्ते या बिल्ली या चोर-चकार की चिंता न थी, लेकिन अब द्वार पर कोई रक्षक न था, इसलिए वह सजग रहती थी-पति का गुणगान किया करती। जीवन का निर्वाह कैसे होगा, नौकरों-चाकरों में किन-किन को जवाब देना होगा, घर का कौन-कौन-सा खर्च कम करना होगा, इन प्रश्नों के विषय में दोनों में कोई बात न होती। मानो यह चिंता मृत आत्मा के प्रति अभक्ति होगी। भोजन करना, साफ वस्त्र पहनना और मन को कुछ पढ़कर बहलाना भी उसे अनुचित जान पड़ता था। श्राद्ध के दिन उसने अपने सारे वस्त्र और आभूषण महापात्र को दान कर दिए। इन्हें लेकर अब वह क्या करेगी? इनका व्यवहार करके क्या वह अपने जीवन को कर्लोकित करेगी। इसके विरुद्ध पति की छोटी से छोटी वस्तु को भी स्मृति-चिह्म समझकर वह देखती-भालती रहती थी। उसका स्वभाव इतना कोमल हो गया था कि कितनी ही बड़ी हानि हो जाय, उसे क्रोध न आता था। टीमल के हाथ से चाय का सेट छूटकर गिर पड़ा; पर रतन के माथे पर बल तक न [ १४२ ]
आया। पहले एक दवात टूट जाने पर इसी टीमल को उसने बुरी डांट बताई थी; निकाले देती थी,पर आज उससे कई गुने नुकसान पर उसने जबान सक न झेली। कठोर भाव उसके हृदय में आते हुए मानो डरते थे कि कहीं आघात न पहुंचे या शायद पति-शोक और पति-गुणगान के सिवा और किसी भाव या विचार को मन में लाना वह पाप समझती थी।

वकील साहब के भतीजे का नाम था मणिभूषणा बड़ा ही मिलनसार, हंसमुख, कार्य-कुशल। इसी एक महीने में उसने अपने सैकड़ों मित्र बना लिए। शहर में जिन-जिन वकीलों और रईसों से वकील साहब का परिचय था, उन सबसे उसने ऐसा मेल-जोल बढ़ाया, ऐसी बेतकल्लुफी पैदा की कि रतन को ख़बरे नहीं और उसने बैंक का लेन-देन अपने नाम से शुरू कर दिया। इलाहाबाद बैंक में वकील साहब के बीस हजार रुपये जमा थे। उस पर तो उसने कब्जा कर ही लिया, मकानों के किराए भी वसूल करने लगा। गांवों की तहसील भी खुद ही शुरू कर दी, मानो रतन से कोई मतलब नहीं है।

एक दिन टीमल ने आकर रतन से कहा-बहूजी, जाने वाला तो चला गया, अब घर-द्वार को भी कुछ खबर लीजिए। मैंने सुना, भैयाजी ने बैंक का सब रुपया अपने नाम कर लिया।

रतन ने उसकी ओर ऐसे कठोर कुपित नेत्रों से देखा कि उसे फिर कुछ कहने की हिम्मत न पड़ी। उस दिन शाम को मणिभूषण ने टीमल को निकाल दिया-चोरी का इल्जाम लेकर निकाला जिससे रतन कुछ कह भी न सके।

अब केवल महराज रह गए। उन्हें मणिभूषण ने भंग पिला-पिलाकर ऐसा मिलाया कि वह उन्हीं का दम भरने लगे। महरी से कहते, बाबूजी को बड़ा रईसाना मिजाज है। कोई सौदा लाओ, कभी नहीं पूछते, कितने का लाए। बड़ों के घर में बड़े ही होते हैं। बहूजी बाल की खाल निकाला करती थीं; यह बेचारे कुछ नहीं बोलते। महरी का मुंह पहले ही सी दिया गया था।

उसके अधेड़ यौवन ने नए मालिक की रसिकता को चंचल कर दिया था। ह एक न एक बहाने से बाहर की बैठक में ही मंडलाया करती। रतन को जरा भी खबर न थी, किस तरह उसके लिए व्यूह रचा जा रहा है।

एक दिन मणिभूषण ने रतन से कहा-काकीजी, अब तो मुझे यहां रहना व्यर्थ मालूम होता है। मैं सोचती हूं, अब आपको लेकर घर चला जाऊं। वहां आपकी बहू अपकी सेवा करेगी; बाल-बच्चों में आपका जी बहल जायगा और खर्च भी कम हो जाएगा। आप कहें तो यह बंगला बेच दिया जाय। अच्छे दाम मिल जायंगे।

रतन इस तरह चौंकी, मानो उसकी मूर्छा भंग हो गई हो, मानो किसी ने उसे झंझोड़कर जगा दिया हो। सकपकाई हुई आंखों से उसकी ओर देखकर बोली-क्या मुझसे कुछ कह रहे हो?

मणिभूषण जी हां, कह रहा था कि अब हम लोगों को यहां रहना व्यर्थ है। आपको लेकर चला जाऊं, तो कैसा हो?

रतन ने उदासीनता से कहा-हां, अच्छा तो होगा।

मणिभूषण-काकाजी ने कोई वसीयतनामा लिखा हो, तो लाइए देखें। उनको इच्छाओं के आगे सिर झुकाना हमारा धर्म है।

रतन ने उसी भाति आकाश पर बैठे हुए, जैसे संसार की बातों से अब उसे कोई सरोकार ही न रहा हो, जवाब दिया-वसीयत तो नहीं लिखी। और क्या जरूरत थी? [ १४३ ]
मणिभूषण ने फिर पूछा-शायद कहीं लिखकर रख गए हों?

रतन-मुझे तो कुछ मालूम नहीं। कभी जिक्र नहीं किया।

मणिभूषण ने मन में प्रसन्न होकर कहा-मेरी इच्छा है कि उनकी कोई यादगार बनवा दी जाय।

रतन ने उत्सुकता से कहा-हां-हां, मैं भी चाहती हूं।

मणिभूषण–गांव की आमदनी कोई तीन हजार साल की है, यह आपको मालूम है। इतना ही उनका वार्षिक दान होता था। मैंने उनके हिसाब की किताब देखी है। दो सौ ढाई सौ से किसी महीने में कम नहीं है। मेरी सलाह है कि वह सब ज्यों-का-त्यों बना रहे।

रतन ने प्रसन्न होकर कहा-हां, और क्या।

मणिभूषण तो गांव की आमदनी तो धर्मार्थ पर अर्पण कर दी जाए। मकानों का किराया कोई दो सौ रुपये महीना है। इससे उनके नाम पर एक छोटी-सी संस्कृत पाठशाला खोल दी जाए।

रतन-बहुत अच्छा होगा।

मणिभूषण और यह बंगला बेच दिया जाए। इस रुपये को बैंक में रख दिया जाये।

रतन-बहुत अच्छा होगा। मुझे रुपये-पैसे की अब क्या जरूरत है।

मणिभूषण आपकी सेवा के लिए तो हम सब हाजिर हैं। मोटर भी अलग कर दी जाय।अभी से यह फिक्र की जाएगी, तब जाकर कहीं दो-तीन महीने में फुरसत मिलेगी।

रतन ने लापरवाही से कहा-अभी जल्दी क्या है। कुछ रुपये बैंक में तो हैं।

मणिभूषण–बैंक में कुछ रुपये थे, मगर महीने भर से खर्च भी तो हो रहे हैं। हजार-पांच सो पड़े होंगे। यहां तो रुपये जैसे हवा में उड़ जाते हैं। मुझसे तो इस शहर में एक महीना भी न रहा जाय। मोटर को तो जल्द ही निकाल देना चाहिए।

रतन ने इसके जवाब में भी यही कह दिया-अच्छा तो होगा। वह उस मानसिक दुर्बलता की दशा में थी, जब मनुष्य को छोटे-छोटे काम भी असूझ मालूम होने लगते हैं। मणिभूषण की कार्य-कुशलता ने एक प्रकार से उसे पराभूत कर दिया था। इस समय जो उसके साथ थोड़ी-सी भी सहानुभूति दिखा देता, उसी को वह अपना शुभचिंतक समझने लगती। शोक और मनस्ताप ने उसके मन को इतना कोमल और नर्म बना दिया था कि उस पर किसी की भी छाप पड़ सकती थी। उसकी सारी मलिनता और भिन्नता मानो भस्म हो गई थी; वह सभी को अपना समझती थी। उसे किसी पर संदेह न था, किसी से शंका न थी। कदाचित् उसके सामने कोई चोर भी उसकी संपत्ति का अपहरण करता तो वह शोर न मचाती।

बत्तीस

षोड़शी के बाद से जालपा ने रतन के घर आना-जाना कम कर दिया था। केवल एक बार घंटे-दो घंटे के लिए चली जाया करती थी। इधर कई दिनों से मुंशी दयानाथ को ज्वर आने लगा था। उन्हें ज्वर में छोड़कर कैसे जाती। मुंशीजी को जरा भी ज्वर आता, तो वह बक-झक
[ १४४ ]
करने लगते थे। कभी गाते, कभी रोते, कभी यमदूतों को अपने सामने नाचते देखते। उनका जी चाहता कि सारा घर मेरे पास बैठा रहे, संबधयों को भी बुला लिया जाय, जिसमें वह सबसे अंतिम भेंट कर लें। क्योंकि इस बीमारी से बचने की उन्हें आशा न थी। यमराज स्वयं उनके सामने विमान लिए खड़े थे। जागेश्वरी और सब कुछ कर सकती थी, उनकी बक-झक न सुन सकती थी। ज्योंही वह रोने लगते, वह कमरे से निकल जाती। उसे भूत-बाधा का भ्रम होता था।

मुंशीजी के कमरे में कई समाचार-पत्रों के फाइल थे। यही उन्हें एक व्यसन था। जालपा का जी वहां बैठे-बैठे घबड़ाने लगता, तो इन फाइलों को उलट-पलटकर देखने लगती। एक दिन उसने एक पुराने पत्र में शतरंज का एक नक्शा देखा, जिसे हल कर देने के लिए किसी सज्जन ने पुरस्कार भी रक्खा था। उसे खयाल आया कि जिस ताक पर रमानाथ की बिसात और मुहरे रक्खे हुए हैं उस पर एक किताब में कई नक्शे भी दिए हुए हैं। वह तुरंत दौड़ी हुई ऊपर गई और वह कापी उठा लाई। यह नक्या उस कापी में मौजूद था, और नक्शी ही न था, उसका हल भी दिया हुआ था। जालपा के मन में सहसा यह विचार चमक पड़ा, इस नक्शे को किसी पत्र में छपा दें तो कैसा हो । शायद उनकी निगाह पड़ जाय। यह नक्शा इतना सरल तो नहीं है कि आसानी से हल हो जाय। इस नगर में जब कोई उनकी सानी नहीं है, तो ऐसे लोगों की संख्या बहुत नहीं हो सकती, जो यह नक्शा हल कर सकें। कुछ भी हो, जब उन्होंने यह नक्शा हल किया है, तो इसे देखते हीं फिर हल कर लेंगे। जो लोग पहली बार देखेंगे, उन्हें दो-एक दिन सोचने में लग जायंगे। मैं लिख दूंगी कि जो सबसे पहले हल कर ले, उसी को पुरस्कार दिया जाय। जुआ तो है ही। उन्हें रुपये न भी मिलें, तो भी इतना तो संभव है जो कि हल करने वाली में उनका नाम भी हो। कुछ पता लग जायगा। कुछ भी न हो, तो रुपये हो तो जायंगे। दस रुपये का पुरस्कार रख दें। पुरस्कार कम होगा, तो कोई बड़ा खिलाड़ी इधर ध्यान न देगा। यह बात भी रमा के हित की ही होगी।

इसी उधेड़-बुन में वह आज रतन से न मिल सकी। रतन दिन-भर तो उसकी राह देखती रही। जब वह शाम को भी न गई, तो उससे न रह गयी। आज वह पति-शोक के बाद पहली बार घर से निकली। कहीं रौनक न थी, कहीं जीवन न था, मानो सारा नगर शोक मना रहा है। उसे तेज मोटर चलाने की धुन थी, पर आज वह तांगे से भी कम जा रही थी। एक वृद्धा को सड़क के किनारे बैठे देखकर उसने मोटर रोक दिया और उसे चार आने दे दिए। कुछ आगे और बढी,तो दो कांस्टेबल एक कैदी को लिए जा रहे थे। उसने मोटर रोकर एक कांस्टेबल को बुलाया और उसे एक रुपया देकर कहा-इस कैदी को मिठाई खिला देना। कांस्टेबल ने सलाम करके रुपया ले लिया। दिल में खुश हुआ, आज किसी भाग्यवान का मंह देखकर उठा था।

जालपा ने उसे देखते ही कहा-क्षमा करना बहन, आज मैं न आ सकी। दादाजी को कई दिन से ज्वर आ रहा है।

रतन ने तुरंत मुंशीजी के कमरे की ओर कदम उठाया और पूछा-यहीं हैं न? तुमने मुझसे न कही।

मुंशीजी का ज्वर इस समय कुछ अतार हुआ था। रतन को देखते ही बोले-बड़ा दुःख [ १४५ ] हुआ देवीजी, मगर यह तो संसार है। आज एक की बारी है, कल दूसरे की बारी है। यही चल-चलाव लगा हुआ है। अब मैं भी चला। नहीं बच सकता। बड़ी प्यास है, जैसे छाती में कोई भट्टी जल रही हो। फुंका जाता हूं। कोई अपना नहीं होता। बाईजी, संसार के नाते सब स्वार्थ के नाते हैं। आदमी अकेला हाथ पसारे एक दिन चला जाता है। हाय-हाय | लड़का था वह भी हाथ से निकल गया । न जाने कहां गया। आज होता, तो एक पानी देने वाला तो होता। यह दो लौंडे हैं, इन्हें कोई फिक्र ही नहीं, मैं मर जाऊं या जी जाऊं। इन्हें तीन दफे खाने को चाहिए, तीन दफे पानी पीने को। बस और किसी काम के नहीं। यहां बैठते दोनों का दम घुटता है। क्या करूं अबकी न बचूंगा।

रतन ने तस्कीन दी-यह मलेरिया है, दो-चार दिन में आप अच्छे हो जायेंगे। घबड़ाने की कोई बात नहीं ।

मुंशीजी ने दीन नेत्रों से देखकर कहा-बैठ जाइए बहूजी, आप कहती हैं, आपका आशीर्वाद है तो शायद बच जाऊं, लेकिन मुझे तो आशा नहीं है। मैं भी ताल ठोके यमराज से लड़ने को तैयार बैठा हूं। अब उनके घर मेहमानी खाऊंगा। अब कहां जाते हैं बचकर बचा ! ऐसा- ऐसा मोदं, कि वह भी याद करें। लोग कहते हैं, वहां भी आत्माएं इसी तरह रहती हैं। इसी तरह वहां भी कचहरियां हैं, हाकिम हैं, राजा हैं, रंक हैं। व्याख्यान होते हैं, समाचार-पत्र छपते हैं। फिर क्या चिंता है। वहां भी अहलमद हो जाऊंगा। मजे से अखबार पढा करूंगा।

रतन को ऐसी हंसी छूटी कि वहां खड़ी न रह सकी। मुंशीजी विनोद के भाव से वे बातें नहीं कर रहे थे। उनके चेहरे पर गंभीर विचार को रेखा थी। आज डेढ़-दो महीने के बाद रतन हंसी, और इस असामयिक हंसी को छिपाने के लिए कमरे से निकल आई। उसके साथ ही जालपा भी बाहर आ गई।

रतन ने अपराधी नेत्रों से उसकी ओर देखकर कहा-दादाजी ने मन में क्या समझा होगा। सोचते होंगे, मैं तो जान से मर रहा हूं और इसे हंसी सूझती है। अब वहां न जाऊंगी, नहीं ऐसी ही कोई बात फिर कहेंगे, तो मैं बिना हंसे न रह सकूगीं। देखो तो आज कितनी बे-मौका हंसी आई है।

वह अपने मन को इस उच्छृंखलता के लिए धिक्कारने लगी। जालपा ने उसके मन का भाव ताड़कर कहा-मुझे भी अक्सर इनकी बातों पर हंसी आ जाती है, बहन ! इस वक्त तो इनकी ज्वर कुछ हल्का है। जब जोर का ज्वर होता है तब तो यह और भी ऊल-जलूल बकने लगते हैं। उस वक्त हंसी रोकनी मुश्किल हो जाती है। आज सबेरे कहने लगे—मेरा पेट भक हो गया-मेरा पेट भक हो गया। इसकी रट लगा दी। इसका आशय क्या था, न मैं समझ सकीं, न अम्मां समझ सकीं, पर वह बराबर यही रटे जाते थे—पेट भक हो गया । पेट भक हो गया ! आओ कमरे में चलें।

रतन–मेरे साथ न चलोगी?

जालपा-आज तो न चल सकूगीं, बहन।

‘कल आओगी?'

‘कह नहीं सकती। दादा का जी कुछ हल्का रहा, तो आऊंगी।'

'नहीं भाई, जरूर आना। तुमसे एक सलाह करनी है।' [ १४६ ]‘क्या सलाह है?'

'मन्नी कहते हैं, यहां अब रहकर क्या करना है, घर चलो। बंगले को बेच देने को कहते जालपा ने एकाएक ठिठककर उसका हाथ पकड़ लिया और बोली-यह तो तुमने बुरी खबर सुनाई, बहन ! मुझे इस दशा में तुम छोड़कर चली जाओगी? मैं न जाने दूंगी ! मनी से कह दो, बंगला बेच दें, मगर जब तक उनका कुछ पता न चल जायगा। मैं तुम्हें न छोडूगी। तुम कुल एक हफ्ते बाहर रहीं, मुझे एक-एक पल पहाड़ हो गया। मैं न जानती थी कि मुझे तुमसे इतना प्रेम हो गया है। अब तो शायद मैं मर ही जाऊं। नहीं बहन, तुम्हारे पैरों पड़ती हूं, अभी जाने का नाम न लेना।

रतन की भी आंखें भर आईं। बोली-मुझसे भी वहां न रहा जायगा, सच कहती हूं। मैं तो कह दूंगी, मुझे नहीं जाना है। जालपा उसका हाथ पकड़े हुए ऊपर अपने कमरे में ले गई और उसके गले में हाथ डालकर बोली-कसम खाओ कि मुझे छोड़कर न जाओगी।

रतन ने उसे अंकबार में लेकर कहा-लो, कसम खाती हूं, न जाऊंगी। चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय। मेरे लिए वहां क्या रखा है। बंगला भी क्यों बेचूं। दो-ढाई सौ मकानों का किराया है। हम दोनों के गुजर के लिए काफी है। मैं आज ही मन्नी से कह दूंगी-मैं न जाऊंगी।

सहसा फर्श पर शतरंज के मुहरे और नक्शे देखकर उसने पूछा--यह शतरंज किसके साथ खेल रही थीं?

जालपा ने शतरंज के नक्शे पर अपने भाग्य का पांसा फेंकने की जो बात सोचीं थीं, वह सब उससे कह सुनाई। मन में डर रही थी कि यह कहीं इस प्रस्ताव को व्यर्थ न समझे,पागलपन न खयाल करे; लेकिन रतन सुनते ही बाग-बाग हो गई। बोली-दस रुपये तो बहुत कम पुरस्कार है। पचास रुपये कर दो। रुपये मैं देती हूं।

जालपा ने शंका की-लेकिन इतने पुरस्कार के लोभ से कहीं अच्छे शतरंजबाजों ने मैदान में कदम रखा तो?

रतन ने दृढता से कहा-कोई हरज नहीं। बाबूजी की निगाह पड़ गई, तो वह इसे जरूर हल कर लेंगे और मुझे आशा है कि सबसे पहले उन्हीं का नाम आयेगी। कुछ न होगा; तो पता तो लग ही जायगा। अखबार के दफ्तर में तो उनका पता आ ही जायगा। तुमने बहुत अच्छा उपाय सोच निकाला है। मेरा मन कहता है, इसका अच्छा फल होगा, मैं अब मन की प्रेरणा की कायल हो गई हूं। जब मैं इन्हें लेकर कलकत्ते चली थी, उस वक्त मेरा मन कह रहा था, यहां जाना अच्छा न होगा।

जालपा-तो तुम्हें आशा है?

‘पूरी । मैं कल सबेर रुपये लेकर आऊंगी।'

'तो मैं आज खत लिख रक्यूंगी। किसके पास भेजूं? यहां का कोई प्रसिद्ध पत्र होना चाहिए।'

'वहां तो 'प्रजा-मित्र' की बड़ी चर्चा थी; पुस्तकालयों में अक्सर लोग उसी को पढ़ते नजर आते थे।' [ १४७ ]
'तो' प्रजा-मित्र' ही को लिखूंगी, लेकिन रुपये हड़प कर जाय और नक्शा न छापे तो क्या हो?'

'होगा क्या, पचास रुपये ही तो ले जाएगा। दमड़ी की हाँड़या खोकर कुत्ते की जात तो पहचान ली जायगी, लेकिन ऐसा हो नहीं सकता। जो लोग देशहित के लिए जेल जाते हैं, तरह-तरह की धौंस सहते हैं, वे इतने नीच नहीं हो सकते। मेरे साथ आध घंटे के लिए चलो तो तुम्हें इसी वक्त रुपये दे दूं।'

जालपा ने नाराज होकर कहा-इस वक्त कहां चलें। कल ही आऊंगी।

उसी वक्त मुंशीजी पुकार उठे-बहू!बहू ।

जालपा तो लपकी हुई उनके कमरे की ओर चली। रतने बाहर जा रही थी कि जागेश्वरी पंखी लिए अपने को झलती हुई दिखाई पड़ गईं। रतन ने पूछा-तुम्हें गर्मी लग रही है अम्मांजी? मैं तो ठंड के मारे कांप रही हूं। अरे तुम्हारे पांवों में यह क्या उजला-उजला लगा हुआ है? क्या आटा पीस रही थीं?

जागेश्वरी ने लज्जित होकर कहा-हां, वैद्यजी ने इन्हें हाथ के आटे की रोटी खाने को कहा है। बाजार में हाथ का आटा कहां मयस्सर? मुहल्ले में कोई पिसनहारी नहीं मिलती। मजूरिने तक चक्की से आटा पिसवा लेती हैं। मैं तो एक आना सेर देने को राजी हूं, पर कोई मिलती ही नहीं।

रतन ने अचंभे से कहा-तुमसे चक्की चल जाती है?

जागेश्वरी ने झेप से मुस्कराकर कहा-कौन बहुत थी। पाव भर तो दो दिन के लिए हो जाता है। खाते नहीं एक कौर भी। बहू पीसने जा रही थी, लेकिन फिर मुझे उनके पास बैठना पड़ता। मुझे रात-भर चक्की पीसना गौं है, उनके पास घड़ी भर बैठना गौं नहीं।

रतन जाकर जांत के पास एक मिनट खड़ी रही, फिर मुस्कराकर माची पर बैठ गई और बोली-तुमसे तो अब जांत न चलता होगा, मांजी ! लाओ थोड़ा-सा गेहूं मुझे दो, देखें तो।

जागेश्वरी ने कानों पर हाथ रखकर कहा- अरे नहीं बहू, तुम क्या रोगी । चलो यहां रतन ने प्रमाण दिया-मैंने बहुत दिनों तक पीसा है, मांजी। जब मैं अपने घर थी, तो रोज़ पीसती थी। मेरी अम्मां, लाओ थोड़ा-सा गेहूं।

‘हाथ दुखने लगेगा। छाले पड़ जाएंगे।'

'कुछ नहीं होगा भांजी, आप गेहूं तो लाइए।'

जागेश्वरी ने उसका हाथ पकड़कर उठाने की कोशिश करके कहा-गेहूं घर में नहीं हैं। अब इस वक्त बाजार से कौन लावे।

'अच्छा चलिए, मैं भंडारे में देखें। गेहूं होगा कैसे रहीं।'

रसोई की बगल वाली कोठरी में सब खाने-पीने का सामान रहता था। रतने अंदर चली गई और हडियों में टटोल-टटोलकर देखने लगी। एक हांडी में गेहूं निकल आए। बड़ी खुश हुई। बोली-देखो मांजी, निकले कि नहीं, तुम मुझसे बहाना कर रही थीं।

उसने एक टोकरी में थोड़ा-सा गेहूं निकाल लिया और खुश-खुश चक्की पर जाकर [ १४८ ]
पीसने लगी। जागेश्वरी ने जाकर जालपा से कहा--बहू, वह जांत पर बैठी गेहूं पीस रही हैं। उठाती हूं, उठती ही नहीं। कोई देख ले तो क्या कहे।

जालपा ने मुंशीजी के कमरे से निकलकर सास की घबराहट का आनंद उठाने के लिए कहा-यह तुमने क्या गजब किया, अम्मांजी ! सचमुच, कोई देख ले तो नाक ही कट जाय । चलिए, जरा देखें।

जागेश्वरी ने विवशता से कहा-क्या करूं, मैं तो समझा के हार गई, मानती ही नहीं।

जालपा ने जाकर देखा, तो रतन गेहूं पीसने में मग्न थी। विनोद के स्वाभाविक आनंद से उसका चेहरा खिला हुआ था। इतनी ही देर में उसके माथे पर पसीने की बूंदें आ गई थीं। उसके बलिष्ठ हाथों में जांत लट्टू के समान नाच रहा था।

जालपा ने हंसकर कहा-ओ री, आटा महीन हो, नहीं पैसे न मिलेंगे।

रतन को सुनाई न दिया। बहरों की भांति अनिश्चित भाव से मुस्कराई। जालपा ने और जोर से कहा-आटा खूब महीन पीसना, नहीं पैसे न पाएगी।

रतन ने भी हंसकर कहा-जितना महीन कहिए उतना महीन पीस दें, बहूजी। पिसाई अच्छी मिलनी चाहिए।

जालपा-धेले सेर।

रतन-धेले सेर सही।

जालपा-मुंह धो आओ। धेले सेर मिलेंगे।

रतन-मैं यह सब पीसकर उठूँगी। तुम यहां क्यों खड़ी हो?

जालपा-आ जाऊं, मैं भी खींच दूँ।

रतन-जी चाहता है, कोई जांत का गीत गाऊं।

जालपा-अकेले कैसे गाओगी । (जागेश्वरी से) अम्मां आप जरा दादाजी के पास बैठ जायं, मैं अभी आती हूँ।

जालपा भी जांत पर जा बैठी और दोनों जांत का यह गीत गाने लगी।

मोही जोगिन बनाके कहां गए रे जोगिया।

दोनों के स्वर मधुर थे। जांत की घुमुर-घुमुर उनके स्वर के साथ साज का काम कर रही थी। जब दोनों एक कड़ी गाकर चुप हो जातीं, तो जांत का स्वर मानो कठ-ध्वनि से रंजित होकर और भी मनोहर हो जाता था। दोनों के हृदय इस समय जीवन के स्वाभाविक आनंद से पूर्ण थे? न शोक का भार था, न वियोग का दुःख। जैसे दो चिड़ियां प्रभात की अपूर्व शोभा से मग्न होकर चहक रही हों।

तैंतीस

रमानाथ की चाय की दुकान खुल तो गई, पर केवल रात को खुलती थी। दिन-भर बंद रहती थी। रात को भी अधिकतर देवीदीन ही दुकान पर बैठता, पर बिक्री अच्छी हो जाती थी। पहले ही दिन तीन रुपये के पैसे आए, दूसरे दिन से चार-पांच रुपये का औसत पड़ने लगा। चाय