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गबन/भाग 5

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प्रेमचंद रचनावली ५
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती-प्रेस, पृष्ठ १६ से – ३२ तक

 

पांच


नाटक उस वक्त 'पास' होता है, जब रसिक-समाज उसे पंसद कर लेता है। बरात का नाटक उस वक्त पास होता है, जब राह चलते आदमी उसे पंसद कर लेते हैं। नाटक की परीक्षा चार- पांच घंटे तक होती रहती है, बरात की परीक्षा के लिए केवल इतने ही मिनटों का समय होता है। सारी सजावट, सारी दौड़-धूप और तैयारी का निबटारा पांच मिनटों में हो जाता है। अगर सबके मुंह से 'वाह-वाह' निकल गया, तो तमाशा पास नहीं फेल । रुपया, मेहनत, फिक्र, सब अकारथ। दयानाथ का तमाशा पास हो गया। शहर में वह तीसरे दर्जे में आता, गांव में अव्वल दर्जे में आया। कोई बाजों की धों-धों, पों-पों सुनकर मस्त हो रहा था, कोई मोटर को आंखें फाड़-फोड़कर देख रहा था। कुछ लोग फुलवारियों के तख्त देखकर लोट-लोट जाते थे। आतिशबाजी ही मनोरंजन का केंद्र थी। हवाइयां जब सन्न से ऊपर जातीं और आकाश में लाल, हरे, नीले, पीले, कुमकुमे-से बिखर जाते; जब चर्खियां छूटतीं और उनमें नाचते हुए मोर निकल आते, तो लोग मंत्रमुग्ध-से हो जाते थे। वाह, क्या कारीगरी है।

जालपा के लिए इन चीजों में लेशमात्र भी आकर्षण न था। हां, वह वर को एक आंख देखना चाहती थी, वह भी सबसे छिपाकर; पर उस भीड़-भाड़ में ऐसा अवसर कहां! द्वारचार के समय उसकी सखियां उसे छत पर खींच ले गईं और उसने रमानाथ को देखा। उसका सारा विराग, सारी उदासीनता, सारी मनोव्यथा मानो छू-मंतर हो गई थी। मुंह पर हर्ष की लालिमा छा गई। अनुराग स्फूर्ति का भंडार है।

द्वारचार के बाद बरात जनवासे चली गई। भोजन की तैयारियां होने लगीं। किसी ने पूरियां खाईं, किसी ने उपलों पर खिचड़ी पकाई। देहात के तमाशा देखने वालों के मनोरंजन के लिए नाच-गाना होने लगा।

दस बजे सहसा फिर बाजे बजने लगे। मालूम हुआ कि चढाव आ रहा है। बरात में हर एक रस्म डंके की चोट अदा होती है। दूल्हा कलेवा करने आ रहा है, बाजे बजने लगे। समधी मिलने आ रहा है, बाजे बजने लगे। चढाव ज्योंही पहुंचा, घर में हलचल मच गई। स्त्री- पुरुष, बूढे-जवान, सब चढ़ाव देखने के लिए उत्सुक हो उठे। ज्योंही किश्तियां मंडप में पहुंचीं, लोग सब काम छोड़कर देखने दौड़े। आपस में धक्कम-धक्का होने लगा। मनिकी प्यास से बेहाल हो रही थी, कंठ सूखा जाता था, चढाव आते ही प्यास भाग गई। दीनदयाल मारे भूखे- प्यास के निर्जीव-से पड़े थे, यह समाचार सुनते ही सचेत होकर दौड़े। मानकी एक-एक चीज को निकाल-निकालकर देखने और दिखाने लगी। वहां सभी इस कला के विशेषज्ञ थे। मर्दों ने गहने बनवाए थे, औरतों ने पहने थे, सभी आलोचना करने लगे। चूहेदन्ती कितनी सुंदर है,कोई दस तोले की होगी । वाह ! साढ़े ग्यारह तोले से रत्ती भर भी कम निकल जाए, तो कुछ हार जाऊं ! यह शेरदहां तो देखो, क्या हाथ की सफाई है! जी चाहता है कारीगर के हाथ चूम लें। यह भी बारह तोले से कम न होगा। वाह ! कभी देखा भी है, सोलह तोले से कम निकल जाए, तो मुंह न दिखाऊं। हां, माल उतना चोखा नहीं है। यह कंगन तो देखो, बिल्कुल पक्की जड़ाई है, कितना बारीक काम है कि आंख नहीं ठहरती ! कैसा दमक रहा है। सच्चे नगीने हैं। झूठे नगीनों में यह अब कहां। चीज तो यह गुलूबंद है, कितने खूबसूरत फूल हैं । और उनके बीच के हीरे कैसे चमक रहे हैं। किसी बंगाली सुनार ने बनाया होगा। क्या बंगलियों ने कारीगरी का ठेका ले लिया है, हमारे देश में एक-से-एक कारीगर पड़े हुए हैं। बंगाली सुनार बेचारे उनकोक्या बराबरी करेंगे।

इसी तरह एक-एक चीज की आलोचना होती रही। सहसा किसी ने कहा-चन्द्रहार नहीं है क्या । मानकी ने रोनी सूरत बनाकर कहा-नहीं, चन्द्रहार नहीं आया।

एक महिला बोली-अरे चन्द्रहार नहीं आया?

दीनदयाल ने गंभीर भाव से कहा-और सभी चीजें तो हैं, एक चन्द्रहार ही तो नहीं है।

उसी महिला ने मुंह बनाकर कहा–चन्द्रहार की बात ही और है ।

मानकी ने चढ़ाव को सामने से हटाकर कहा-बेचारी के भाग में चन्द्रहार लिखा ही नहीं हैं।

इस गोलाकार जमघट के पीछे अंधेरे में आशा और आकांक्षा की मूर्ति-सी जालपा भी खड़ी थी। और सब गहनों के नाम कान में आते थे, चन्द्रहार का नाम न आता था। उसकी छाती धक-धक कर रही थी। चन्द्रहार नहीं है क्या ? शायद सबके नीचे हो। इस तरह वह मन को समझाती रही। जब मालूम हो गया चन्द्रहार नहीं है तो उसके कलेजे पर चोट-सी लग गई। मालूम हुआ, देह में रक्त की बूंद भी नहीं है। मानो उसे मूर्छा आ जायेगी। वह उन्माद की-सी दशा में अपने कमरे में आई और फूट-फूटकर रोने लगी। वह लालसा जो आज सात वर्ष हुए,उसके हृदय में अंकुरित हुई थी, जो इस समय पुष्प और पल्लव से लदी खड़ी थी, उस पर वज्रपात हो गया। वह हरा-भरा लहलहाता हुआ पौधा जल गया–केवल उसकी राख रह गई। आज ही के दिन पर तो उसको समस्त आशाएं अवलंबित थीं। दुर्दैव ने आज वह अवलंब भी छीन लिया। उस निराशा के आवेश में उसका ऐसा जी चाहने लगा कि अपना मुंह नोच डाले। उसका वश चलता, तो वह चढ़ाव को उठाकर आग में फेंक देती। कमरे में एक आले पर शिव की मूर्ति रखी हुई थी। उसने उसे उठाकर ऐसा पटका कि उसकी आशाओं की भांति वह भी चूर-चूर हो गई। उसने निश्चय किया, मैं कोई आभूषण न पहनूंगी। आभूषण पहनने से होता ही क्या है। जो रूप- विहीन हों, वे अपने को गहने से सजाएं, मुझे ईश्वर ने यों ही सुंदरी बनाया है, मैं गहने न पहनकर भी बुरी न लगूंगी। सस्ती चीजें उठा लाए, जिसमें रुपये खर्च होते थे, उसका नाम ही न लिया। अगर गिनती ही गिनानी थी, तो इतने ही दामों में इसके दूने गहने आ जाते ।

वह इसी क्रोध में भरी बैठी थी कि उसको तीन सखियां आकर खड़ी हो गई। उन्होंने समझा था, जालपा को अभी चढ़ाव की कुछ खबर नहीं है। जालपा ने उन्हें देखते ही आंखें पोंछ डाले और मुस्कराने लगी।

राधा मुस्कराकर बोली- जालपा, मालूम होता है, तूने बड़ी तपस्या की थी, ऐसा चढ़ाव मैंने आज तक नहीं देखा था। अब तो तेरी सब साध पूरी हो गई।

जालपा ने अपनी लंबी-लंबी पलकें उठाकर उसकी ओर ऐसे दीन नेत्रों से देखा, मानो जीवन में अब उसके लिए कोई आशा नहीं है–हां बहन, सब साध पूरी हो गई।

इन शब्दों में कितनी अपार मर्मांतक वेदना भरी हुई थी, इसका अनुमान तीनों युवतियों में कोई भी न कर सकी। तीनों कौतूहल से उसकी ओर ताकने लगीं, मानो उसका आशय उनकी समझ में न आया हो। बासन्ती ने कहा-जी चाहता है, कारीगर के हाथ चूम लें।

शहजादी बोली-चढ़ाव ऐसा ही होना चाहिए, कि देखने वाले फड़क उठे।

बासन्ती–तुम्हारी सास बड़ी चतुर जान पड़ती हैं, कोई चीज नहीं छोड़ी।

जालपा ने मुंह फेरकर कहा-ऐसा ही होगा।

राधा-और तो सब कुछ है, केवल चन्द्रहार नहीं है।

शहजादी--एक चन्द्रहार के न होने से क्या होता है बहन, उसकी जगह गुलूबंद तो है।

जालपा ने वक्रोक्ति के भाव से कहा- हां, देह में एक आंख के न होने से क्या होता है। और सब अंग होते ही हैं, आंखें हुई तो क्या, न हुई तो क्या ।

बालकों के मुंह से गंभीर बातें सुनकर जैसे हमें हंसी आ जाती है, उसी तरह जालपा के मुंह से यह लालसा से भरी हुई बातें सुनकर राधा और बासन्ती अपनी हंसी न रोक सकीं। हां, शहजादी को हंसी न आई। यह आभूषण-लालसा उसके लिए हंसने की बात नहीं, होने की बात थी। कृत्रिम सहानुभूति दिखाती हुई बोली-सब न जाने कहां के जंगली हैं कि और सब चीजें तो लाए, चन्द्रहार न लाए, जो सब गहनों का राजा हैं। लाला अभी आते हैं तो पृछती हूं कि तुमने यह कहां की रीति निकाली है-ऐसा अनर्थ भी कोई करता है।

राधा और बासन्ती दिल में कांप रही थीं कि जालपा कहीं ताड़ न जाय। उनका बस चलता तो शहजादी का मुंह बंद कर देती, बार-बार उसे चुप रहने का इशारा कर रही थी, मगर जालपा को शहजादी का यह व्यंग्य, संवेदना से परिपूर्ण जान पड़ा। सुजल नेत्र होकर बोली--क्या करोगी पूछकर बहन, जो होना था सो हो गया !

शहजादी-तुम पूछने को कहती हो, मैं रुलाकर छोडूंगी। मेरे चढ़ाव पर कंगन नहीं आया था, उस वक्त मन ऐसा खट्टा हुआ कि सारे गहनों पर लात मार दें। जब तक कंगन न बन गए, मैं नींद भर सोई नहीं।

राधा तो क्या तुम जानती हो, जालपा को चन्द्रहार न बनेगा? शहजादी-बनेगा तब बनेगा, इस अवसर पर तो नहीं बना। दस-पांच की चीज नहीं, कि जब चाहा बनवा लिया, सैकड़ों का खर्च हैं, फिर कारीगर तो हमेशा अच्छे नहीं मिलते।

जालपा का भग्न हदय शहजादी की इन बातों से मानो जी उठा, वह कंधे कट से बोली-यही तो में भी सोचती हूँ बहन, जब आज न मिला, तो फिर क्या मिलेगा ।

राधा और वासन्ती मन-ही-मन शहजादी को कोस रही थी, और थप्पड़ दिखा -दिखाकर धमका रही थी, पर शहजादी को इस वक्त तमाशा का मजा आ रहा था। बाली-नहीं, यह बात नहीं है जल्ली, आग्रह करने में सब कुछ हो सकता है, सास-ससुर को बार-बार याद दिलाती रहना। बहनोईजी से दो-चार दिन रूठे रहने से भी बहुत कुछ काम निकल सकता है। बस यही समझ लो कि घरवाले चैन न लेने पाएं, यह बात हरदम उनके ध्यान में रहे। उन्हें मालूम हो जाय कि बिना चन्द्रहार बनवाए कुशल नहीं। तुम जरा भी ढीली पड़ी और काम बिगड़ा।

राधा ने हंसी को रोकते हुए कहा-इनसे न बने तो तुम्हें बुला लें, क्यों ? अब उठेगी कि सारी रात उपदेश ही करती रहोगी ।

शहजादी-चलती हूं, ऐसी क्या भागड़ पड़ी है। हां, खूब याद आई, क्यों जल्ली, तेरी अम्मांजी के पास बड़ा अच्छा चन्द्रहार है। तुझे न देंगी? जालपा ने एक लंबी सांस लेकर कहा-क्या कहूं बहन, मुझे तो आशा नहीं है।

शहजादी-एक बार कहकर देखो तो, अब उनके कौन पहनने-ओढ़ने के दिन बैठे हैं।

जालपा-मुझसे तो न कहा जायेगा।

शहजादी–मैं कह दूंगी।

जालपा-नहीं-नहीं, तुम्हारे हाथ जोड़ती हूं। मैं जरा उनके मातृस्नेह की परीक्षा लेना चाहती हूं।

बासन्ती ने शहजादी का हाथ पकड़कर कहा-अब उठेगी भी कि यहां सारी रात उपदेश ही देती रहेगी।

शहजादी उठी, पर जालपा रास्ता रोककर खड़ी हो गई और बोली-नहीं, अभी बैठो बहन, तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ।

शहजादी-जब यह दोनों चुड़ैले बैठने भी दें। मैं तो तुम्हें गुर सिखाती हूँ और यह दोनों मुझ पर झल्लाती हैं। सुन नहीं रही हो, मैं भी विष को गांठ हूं।

वासन्ती-विष की गांठ तो तू है ही।

शहजादी-तुम भी तो ससुराल से सालभर बाद आई हो, कौन-कौन-सी नई चीजें बनवाई।

बासन्ती–और तुमने तीन साल में क्या बनवा लिया?

शहजादी-मेरी बात छोड़ो, मेरा खसम तो मेरी बात ही नहीं पूछता।

राधा-प्रेम के सामने गहनों का कोई मुल्य नहीं।

शहजादी-तो सूखा प्रेम तुम्हीं को फले।

इतने में मानकी ने आकर कहा-तुम तीनों यहां बैठी क्या कर रही हो, चलो वहां लोग खाना खाने आ रहे हैं।

तीनों युवतियां चली गई। जालपा माता के गले में चन्द्रहार की शोभा देखकर मन-ही-मन सोचने लगी-गहनों से इनका जी अब तक नहीं भरा।

छह

महाशय दयानाथ जितनी उमंगों से ब्याह करने गए थे, उतना ही हतोत्साह होकर लौटे। दीनदयाल ने खूब दिया, लेकिन वहां से जो कुछ मिला, वह सब नाच-तमाशे, नेग-चार में खर्च हो गया। बार-बार अपनी भूल पर पछताते, क्यों दिखावे और तमाशे में इतने रुपये खर्च किए। इसकी जरूरत ही क्या थी, ज्यादा-से-ज्यादा लोग यही तो कहते--महाशय बड़े कृपण हैं। उतना सुन लेने में क्या हानि थी? मैंने गांव वालों को तमाशे, खाने का ठीका तो नहीं लिया था। यह सब रमा का दुस्साहस हैं। उसी ने सारे खर्च बढ़ा-बढ़ाकर मेरा दिवाला निकाल दिया। और सब तकाजे तो दस-पांच दिन टल भी सकते थे, पर सर्राफ किसी तरह न मानता था। शादी के सातवें दिन उसे एक हजार रुपये देने का वादा था। सातवें दिन सर्राफ आया, मगर यहां रुपये कहां थे? दयानाथ में लल्लो -चप्पो को आदत न थी, मगर आज उन्होंने उसे चकमा देने की खूब कोशिश
की। किस्त बांधकर सब रुपये छ: महीने में अदा कर देने का वादा किया। फिर तीन महीने पर आए; मगर सर्राफ भी एक ही घुटा हुआ आदमी था, उसी वक्त टला, जब दयानाथ ने तीसरे दिन बाकी रकम की चीजें लौटा देने का वादा किया और यह भी उसकी सज्जनता ही थी। वह तीसरा दिन भी आ गया, और अब दयानाथ को अपनी लाज रखने का कोई उपाय न सूझता था। कोई चलता हुआ.आदमी शायद इतना व्यग्र न होता, हीले-हवाले करके महाजन को महीनों टालता रहता; लेकिन दयानाथ इस मामले में अनाड़ी थे।

जागेश्वरी ने आकर कहा–भोजन कब से बना ठंडा हो रहा है। खाकर तब बैठो।

दयानाथ ने इस तरह गर्दन उठाई, मानो सिर पर सैकड़ों मन का बोझ लदा हुआ है। बोले-तुम लोग जाकर खा लो, मुझे भूख नहीं है।

जागेश्वरी-भूख क्यों नहीं है, रात भी तो कुछ नहीं खाया था'इस तरह दाना-पानी छोड़ देने से महाजन के रुपये थोड़े ही अदा हो जाएंगे?

दयानाथ-मैं सोचता हूं, उसे आज क्या जवाब दूंगा? मैं तो यह विवाह करके बुरा फंस गया। बहू कुछ गहने लौटा तो देगी?

जागेश्वरी–बह का हाल तो सुन चुके, फिर भी उससे ऐसी आशा रखते हो। उसकी टेक है कि जब तक चन्द्रहार न बन जायगा, कोई गहना ही न पहनूंगी। सारे गहने संदूक में बंद कर रखे हैं। बस, वही एक बिल्लौरी हार गले में डाले हुए है। बहुएं बहुत देखीं, पर ऐसी बहू न देखीथी। फिर कितना बुरा मालूम होता है कि कल की आई बहू, उससे गहने छीन लिए जाए।

दयानाथ ने चिढ़कर कहा-तुम तो जले पर नमक छिड़कती हो। बुरा मालूम होता है तो लाओ एक हजार निकालकर दे दो, महाजन को दे आऊ, देती हो? बुरा मुझे खुद मालूम होता है, लेकिन उपाय क्या है? गला कैसे छूटेगा?

जागेश्वरी-बेटे का ब्याह किया है कि ठट्ठा है? शादी-ब्याह में क्यो कर्ज लेते हैं, तुमने कोई नई बात नहीं की। खाने-पहनने के लिए कौन कर्ज लेता है। धर्मात्मा बनने का कुछ फल मिलना चाहिए या नहीं? तुम्हारे ही दर्जे पर सत्यदेव हैं, पक्का मकान खड़ा कर दिया, जमींदारी खरीद ली, बेटी के ब्याह में कुछ नहीं तो पांच हजार तो खर्च किए ही होंगे। दयानाथ–जभी दोनों लड़के भी तो चल दिए।

जागेश्वरी-मरना-जीना तो संसार की गति हैं, लेते हैं, वह भी मरते हैं, नहीं लेते, वह भी पर तुम चाहो तो छ: महीने में सब रुपये चुका सकते हो।

दयानाथ ने त्‍योरी चढाकर कहा-जो बात जिंदगी भर नहीं की, वह अब आखिरी वक्त नहीं कर सकता बहू से साफ-साफ कह दो, उससे पर्दा रखने क़ी जरूरत ही क्या हैं, और पर्दा रह ही कै दिन सकता है। आज नहीं तो कल सारा हाल मालूम ही हो जाएगी। बस तीन-चार चीजें लौटा दे तो काम बन जाय। तुम उससे एक बार कहो तो।

जागेश्वरी झुंझलाकर बोली-उससे तुम्हीं कहो, मुझसे तो न कहा जायगा।

सुबह रमानाथ टेनिस-रैकेट लिए बाहर से आया। सफेद टेनिस शर्ट था, सफेद पतलून, कैनवस का जूता, गोरे रंग और सुंदर मुखाकृति पर इस पहनावे ने रईसों की शान पैदा कर दी थी। रूमाल में बेले के गजरे लिए हुए था। उससे सुगंध उड़ रही थी। माता-पिता की आंखें बचाकर वह जीने पर जाना चाहता था, कि जागेश्वरी ने टोका-इन्हीं के तो सब कांटे बोए हुए हैं, इनसे क्यों नहीं सलाह लेते? (रमा से) तुमने नाच-तमाशे में बारह-तेरह सौ रुपये उड़ा दिए,
बतलाओ सर्राफ को क्या जवाब दिया जाय? बड़ी मुश्किलों से कुछ गहने लौटाने पर राजी हुआ; मगर बहू से गहने मांगे कौन? यह सब तुम्हारी ही करतूत है।

रमानाथ ने इस आक्षेप को अपने ऊपर से हटाते हुए कहा-मैंने क्या खर्च किया? जो कुछ किया बाबूजी ने किया। हां, जो कुछ मुझसे कहा गया, वह मैंने किया।

रमानाथ के कथन में बहुत कुछ सत्य था। यदि दयानाथ की इच्छा न होती तो रमा क्या कर सकता था? जो कुछ हुआ उन्हीं की अनुमति से हुआ। रमानाथ पर इल्जाम रखने से तो कोई समस्या हल न हो सकती थी। बोले—मैं तुम्हें इल्जाम नहीं देता भाई। किया तो मैंने ही; मगर यह बला तो किसी तरह सिर से टालनी चाहिए। सर्राफ का तकाजा है। कल उसका आदमी आवेगा। उसे क्या जवाब दिया जाएगा? मेरी समझ में तो यही एक उपाय है कि उतने रुपये के गहने उसे लौटा दिए जायं। गहने लौटा देने में भी वह झंझट करेगा, लेकिन दम-बीस रुपये के लोभ में लौटने पर राजी हो जायेगा। तुम्हारी क्या सलाह है?

रमानाथ ने शरमाते हुए कहा-मैं इस विषय में क्या सलाह दे सकता हूं; मगर मैं इतना कह सकता हूं कि इस प्रस्ताव को वह खुशी से मंजूर न करेगी। अम्मी तो जानती हैं कि चढ़ावे में चन्द्रहार न जाने से उसे कितना बुरा लगा था। प्रण कर लिया है, जब तक चन्द्रहार न बन जाएगा कोई गहना न पहनूंगी।

जागेश्वरी ने अपने पक्ष का समर्थन होते देख, खुश होकर कहा-यही तो मैं इनसे कह रही हूं।

रमानाथ–रोना-धोना मच जायगा और इसके साथ घर का पर्दा भी खुल जायगा।

दयानाथ ने माथा सिकोड़कर कहा—उससे पर्दा रखने की जरूरत ही क्या! अपनी यथार्थ स्थिति को वह जितनी ही जल्दी समझ ले, उतना ही अच्छा।

रमानाथ ने जवानों के स्वभाव के अनुसार जालपा से खूब जीट उड़ाई थी। खूब बढ़-बढ़कर बातें की थीं। जमींदारी है, उससे कई हजार का नफा है। बैंक में रुपये हैं, उनका सूद आता है। जालपा से अब अगर गहने की बात की गई, तो रमानाथ को वह पूरा लबाड़िया समझेगी। बोला-पर्दा तो एक दिन खुल ही जायगा, पर इतनी जल्दी खोल देने का नतीजा यही होगा कि वह हमें नीच समझने लगेगी। शायद अपने घरवालों को भी लिख भेजे। चारों तरफ बदनामी होगी।

दयानाथ-हमने तो दीनदयाल से यह कभी न कहा था कि हम लखपती हैं।

रमानाथ-तो आपने यही कब कहा था कि हम उधार गहने लाए हैं और दो-चार दिन में लौटा देंगे! आखिर यह सारा स्वांग अपनी धाक बैठाने के लिए ही किया था या कुछ और?

दयानाथ–तो फिर किसी दूसरे बहाने से मांगना पड़ेगा। बिना मांगे काम नहीं चल सकता। कल या तो रुपये देने पड़ेंगे, या गहने लौटाने पड़ेंगे। और कोई राह नहीं।

रमानाथ ने कोई जवाब न दिया। जागेश्वरी बोली-और कौन-सा बहाना किया जायगा? अगर कहा जाय, किसी को मंगनी देना है, तो शायद वह देगी नहीं। देगी भी तो दो-चार दिन में लौटाएंगे कैसे?

दयानाथ को एक उपाय सूझा। बोले-अगर। गहनों के बदले मुलम्मे के गहने दे दिए जाएं? मगर तुरंत ही उन्हें ज्ञात हो गया कि यह लचर बात है, खुद ही उसका विरोध करते हुए कहा-हां, बाद मुलम्मा उड़ जायगा तो फिर लज्जित होना पड़ेगा। अक्ल कुछ काम नहीं करती।
मुझे तो यही सूझता है, यह सारी स्थिति उसे समझा दी जाय। जरा देर के लिए उसे दु:ख तो जरूर होगा, लेकिन आगे के वास्ते रास्ता साफ हो जाएगा।

संभव था, जैसा दयानाथ का विचार था, कि जालपा रो-धोकर शांत हो जायगी, पर रमा की इसमें किरकिरी होती थी। फिर वह मुंह न दिखा सकेगा। जब वह उससे कहेगी, तुम्हारी जमींदारी क्या हुई? बैंक के रुपये क्या हुए, तो उसे क्या जवाब देगा? विरक्त भाव से बोला-इसमें बेइज्जती के सिवा और कुछ न होगा। आप क्या सर्राफ को दो चार-छ: महीने नहीं टाल सकते? आप देना चाहें, तो इतने दिनों में हजार-बारह सौ रुपये बड़ी आसानी से दे सकते हैं।

दयानाथ ने पूछा-कैसे?

रमानाथ-उसी तरह जैसे आपके और भाई करते हैं।

दयानाथ-वह मुझसे नहीं हो सकता।

तीनों कुछ देर तक मौन बैठे रहे। दयानाथ ने अपना फैसला सुना दिया। जागेश्वरी और रमा को यह फैसला मंजूर न था। इसलिए अब इस गुत्थी के सुलझाने का भार उन्हीं दोनों पर था। जागेश्वरी ने भी एक तरह से निश्चय कर लिया था। दयानाथ को झख मारकर अपना नियम तोड़ना पडे़गा। यह कहां की नीति है कि हमारे ऊपर संकट पड़ा हुआ हो और हम अपने नियमों का राग अलापे जायं? रमानाथ बुरी तरह फंसा था। वह खूब जानता था कि पिताजी ने जो काम कभी नहीं किया, वह आज न करेंगे। उन्हें जालपा से गहने मांगने में कोई संकोच न होगा और यही वह न चाहता था। वह पछता रहा था कि मैंने क्यों जालपा से डींगें मारीं। अब अपने मुंह की लाली रखने का सारा भार उसी पर था। जालपा की अनुपम छवि ने पहले ही दिन उस पर मोहिनी डाल दी थी। वह अपने सौभाग्य पर फूला न समाता था। क्या यह घर ऐसी अनन्य सुंदरी के योग्य था? जालपा के पिता पांच रुपये के नौकर थे; पर जालपा ने कभी अपने घर में झाड़ू न लगाई थी। कभी अपनी धोती न छांटी थी। अपना बिछावन न बिछाया था। यहां तक कि अपनी धोती की खींच तक न सी थी। दयानाथ पचास रुपये पाते थे; पर यहां केवल चौका-बासन करने के लिए महरी थी। बाकी सारा काम अपने ही हाथों करना पड़ता था। जालपा शहर और देहात का फर्क क्या जाने। शहर में रहने का उसे कभी अवसर ही न पड़ा था। वह कई बार पति और सास से साश्चर्य पूछ चुकी थी, क्या यहां कोई नौकर नहीं है? जालपा के घर दूध-दही-घी की कमी नहीं थी। यहां बच्चों को भी दूध मयस्सर न था। इन सारे अभावों की पूर्ति के लिए रमानाथ के पास मीठी-मीठी बड़ी-बड़ी बातों के सिवा और क्या था। घर का किराया पांच रुपया था, रमानाथ ने पंद्रह बतलाए थे। लड़कों की शिक्षा का खर्च मुश्किल से दस रुपये था, रमानाथ ने चालीस बतलाए थे। उस समय उसे इसकी जरा भी शंका न थी, कि एक दिन सारा भंडा फूट जायगा। मिथ्या दूरदर्शी नहीं होता; लेकिन वह दिन इतनी जल्दी आयगा, यह कौन जानता था। अगर उसने ये डींगें न मारी होतीं; तो जागेश्वरी की तरह वह भी सारा भार दयानाथ पर छोड़कर निश्चिंत हो जाता; लेकिन इस वक्त वह अपने ही बनाए हुए जाल में फंस गया था। कैसे निकले।

उसने कितने ही उपाय सोचे; लेकिन कोई ऐसा न था, जो आगे चलकर उसे उलझनों में न डाल देता, दलदल में न फंसा देता। एकाएक उसे एक चाल सूझी। उसका दिल उछल पड़ा; पर इस बात को वह मुंह तक न ला सका। ओह! कितनी नीचता है! कितना कपट! कितनी निर्दयता! अपनी प्रेयसी के साथ धूर्तता! उसके मन ने उसे धिक्कारा। अगर इस वक्त उसे
कोई एक हजार रुपया दे देता, तो वह उसका उम्रभर के लिए गुलाम हो जाता।। दयानाथ ने पूछा-कोई बात सूझी?

'मुझे तो कुछ नहीं सूझता।'

'कोई उपाय सोचना ही पड़ेगा।'

'आप ही सोचिए, मुझे तो कुछ नहीं सूझता।'

'क्यों नहीं उससे दो-तीन गहने मांग लेते? तुम चाहो तो ले सकते हो, हमारे लिए मुश्किल है।'

'मुझे शर्म आती है।'

'तुम विचित्र आदमी हो, न खुद मांगोगे ने मुझे मांगने दोगे, तो आखिर यह नाव कैसे चलेगी? मैं एक बार नहीं, हजार बार कह चुका कि मुझसे कोई आशा मते रक्खो। अपने आखिरी दिन जेल में नहीं काट सकता। इसमें शर्म की क्या बात है, मेरी समझ में नहीं आती। किसके जीवन में ऐसे कुअवसर नहीं आते ? तुम्हीं अपनी मां से पूछो।'

जागेश्वरी ने अनुमोदन किया—मुझसे तो नहीं देखा जाता था कि अपना आदमी चिंता में पड़ा रहे, मैं गहने पहने बैठी रहूं। नहीं तो आज मेरे पास भी गहने न होते ? एक-एक करके सब निकल गए। विवाह में पांच हजार से कम का चढ़ाव नहीं गया था, मगर पांच ही साल में सब स्‍वाहा हो गया। तब से एक छल्ला बनवाना भी नसीव न हुआ।।

दयानाथ जोर देकर बोले–शर्म करने का यह अवसर नहीं है। इन्हें मांगना पड़ेगा।

रमानाथ ने झेंपते हुए कहा-मैं मांगे तो नहीं सकता, कहिए उठा लाऊं।

यह कहते-कहते लज्जा, क्षोभ और अपनी नीचता के ज्ञान से उसकी आंखें सजल हो गई।

दयानाथ ने भौंचक्के होकर कहा-उठा लाओगे, उससे छिपाकर?

रमानाथ ने तीव्र कंठ से कहा-और आप क्या समझ रहे हैं?

दयानाथ ने माथे पर हाथ रख लिया, और कि क्षण के बाद आहत कंठ से बोले- नहीं, मैं ऐसा न करने दूँगा। मैंने जाल कभी नहीं किया, और न कभी करूंगा। वह भी अपनी बहू के साथ ! छि:-छि:, जो काम सीधे से चल सकता है, उसके लिए यह फरेब? कहीं उसकी निगाह पड़ गई, तो समझते हो, वह तुम्हें दिल में क्या समझेगी? मांग लेना इससे कहीं अच्छा है।

रमानाथ-आपको इससे क्या मतलब। मुझसे चीजें ले लीजिएगा, मगर जब आप जानते थे, यह नौबत आएगी, तो इतने जेवर ले जाने की जरूरत ही क्या थी व्यर्थ की विपत्ति मोल ली। इससे कई लाख गुना अच्छी था कि आसानी से जितना ले जा सकते, उतना ही ले जाते। उस भोजन से क्या लाभ कि पेट में पीड़ा होने लगे? मैं तो समझ रहा था कि आपने कोई मार्ग निकाल लिया होगा। मुझे क्या मालूम था कि आप मेरे सिर यह मुसीबतों की करो पटक देंगे। वरना मैं उन चीजों को कभी न ले जाने देता।

दयानाथ कुछ लज्जित होकर बोले-इतने पर भी चन्द्रहार न होने से वहां हाय-तोबा मच गई।

रमानाथ-उस हाय-तोबा से हमारी क्या हानि हो सकती थी। जब इतना करने पर भी हाय-तोबा मच गई, तो मतलब भी तो न पूरा हुआ। उधर बदनामी हुई, इधर यह आफत सिर पर
आई। मैं यह नहीं दिखाना चाहता कि हम इतने फटेहाल हैं। चोरी हो जाने पर तो सब्र करना ही पड़ेगा।

दयानाथ चुप हो गए। उस आवेश में रमा ने उन्हें खूब खरी-खरी सुनाई और वह चुपचाप सुनते रहे। आखिर जब न सुना गया, तो उठकर पुस्तकालय चले गए। यह उनका नित्य का नियम था। जब तक दो-चार पत्र-पत्रिकाएं न पढ़ लें, उन्हें खाना न हजम होता था। उसी सुरक्षित गढ़ी में पहुंचकर घर की चिंताओं और बाधाओं से उनकी जान बचती थी।

रमा भी वहां से उठा, पर जालपा के पास न जाकर अपने कमरे में गया। उसका कोई कमरा अलग तो था नहीं, एक ही मर्दाना कमरा था, इसी में दयानाथ अपने दोस्तों से गप-शप करते, दोनों लड़के पढ़ते और रमा मित्रों के साथ शतरंज खेलता। रमा कमरे में पहुंचा, तो दोनों लड़के ताश खेल रहे थे। गोपी का तेरहवां साल था, विश्वम्भर का नवां। दोनों रमी से थरथर कांपते थे। रमा खुद खूब ताश और शतरंज खेलता, पर भाइयों को खेलते देखकर हाथ में खुजली होने लगती थी। खुद चाहें दिनभर सैर-सपाटे किया करे; मगर क्या मजाल कि भाई कहीं घूमने निकल जायं। दयानाथ खुद लड़कों को कभी न मारते थे। अवसर मिलता, तो उनके साथ खेलते थे। उन्हें कनकौवे उड़ाते देखकर उनकी बाल-प्रकृति सजग हो जाती थी। दो- चार पेंच लड़ा देते। बच्चों के साथ कभी-कभी गुल्ली-डंडा भी खेलते थे। इसलिए लड़के जितना रम्मा से डरते, उतना ही पिता से प्रेम करते थे।

रमा को देखते ही लड़कों ने ताश को टाट के नीचे छिपा दिया और पढ़ने लगे। सिर झुकाए चपत की प्रतीक्षा कर रहे थे, पर रमानाथ ने चपत नहीं लगाई, मोढें पर बैठकर गोपीनाथ से बोला-तुमने भंग की दुकान देखी है न, नुक्कड़ पर?

गोपीनाथ प्रसन्न होकर बाला-हां, देखी क्यों नहीं।

‘जाकर चार पैसे का माजृन ले लो। दोई हुए आना। हां, हलवाई की दुकान से आधे सेर मिठाई भी लंत आना। यह रुपया लो।'

कोई पंद्रह मिनट में रमा य दोनों चीजें ले, जालपा के कमरे की और चला।

सात

रात के दस बज़ गए थे। जालपा खुली हुई छत पर लेटी हुई थी। जेठ की सुनहरी चांदनी में सामने फैले हुए नगर के कलश, गुंबद और वृक्ष स्‍वप्‍न-चित्रों से लगते थे। जालपा की आंखें चंद्रमा की ओर लगी हुई थीं। उसे ऐसा मालूम हो रहा था, मैं चंद्रमा की ओर उड़ी जा रही हूं। उसे अपनी नाक में खुश्की, आंखों में जलन और सिर में चक्कर मालूम हो रहा था। कोई बात ध्यान में आते ही भूल जाती, और बहुत याद करने पर भी याद न आती थी। एक बार घर की याद आ गई, रोने लगी। एक ही क्षण में सहेलियों की याद आ गई, हंसने लगी। सहसा रमानाथ हाथ में एक पोटली लिए, मुस्कराता हुआ आया और चारपाई पर वैट गया।

जालपा ने उठकर पूछा-पोटली में क्या है?

रमानाथ-सृझ जाओ तो जानू।

जालपा-हंसी का गोलगप्पा है। (यह कहकर हंसने लगी।) रमानाथ-गलत।। जालपा-नींद की गठरी होगी। रामनाथ-गलत। जालपा-तो प्रेम की पिटारी होगी । रमानाथ- ठीक। आज मैं तुम्हें फूलों की देवी बनाऊंगा। जालपा खिल उठी। रमा ने बड़े अनुराग से उसे फूलों के गहने पहनाने शुरू किए, फूल के शीतल कोमल स्पर्श से जालपा के कोमल शरीर में गुदगुदी-सी होने लगी। उन्हीं फूलों की भांति उसका एक-एक रोम प्रफुल्लित हो गया। रमा ने मुस्कराकर कहा-कुछ उपहार? जालपा ने कुछ उत्तर न दिया। इस वेश में पति की ओर ताकते हुए भी उसे संकोच हुआ। उसकी बड़ी इच्छा हुई कि जरा आईने में अपनी छवि देखे। सामने कमरे में लैंप जल रहा था, वह उठकर कमरे में गई और आईने के सामने खड़ी हो गई। नशे की तरंग में उसे ऐसा मालूम हुआ कि मैं सचमुच फूलों की देवी हूं। उसने पानदान उठा लिया और बाहर आकर पान बनाने लगी। रमा को इस समय अपने कपट-व्यवहार पर बड़ी ग्लानि हो रही थी। जालपा ने कभरे से लौटकर प्रेमोल्लसित नेत्रों से उसकी ओर देखा, तो उसने मुंह फेर लिया। उस सरल विश्वास से भरी हुई आंखों के सामने वह ताक न सका। उसने सोचा-मैं कितना बड़ा कायर हूँ। क्या मैं बाबूजी को साफ-साफ जवाब न दे सकता था? मैंने हामी ही क्यों भरी? क्या जालपा से घर की दशा साफ-साफ कह देना मेरा कर्तव्य न था ?उसकी आंखें भर आईं। जाकर मुंडेर के पास खड़ा हो गया। प्रणय के उस निर्मल प्रकाश में उसका मनोविकार किसी भंयकर जंतु की भांति घूरता हुआ जान पड़ता था। उसे अपने ऊपर इतनी घृणा हुई कि एक बार जी में आया, सारा कपट-व्यवहार खोल दूं, लेकिन संभल गया। कितना भयंकर परिणाम होगा। जालपा की नजरों से गिर जाने की कल्पना ही उसके लिए असह्य थी। जालपा ने प्रेम-सरस नेत्रों से देखकर कहा- मेरे दादाजी तुम्हें देखकर गए और अम्मांजी से तुम्हारा बखान करने लगे, तो मैं सोचती थी कि तुम कैसे होगे। मेरे मन में तरह-तरह के चित्र आते थे। रमानाथ ने एक लंबी सांस खींची। कुछ जवाब न दिया। जालपा ने फिर कहा-मेरी सखियां तुम्हें देखकर मुग्ध हो गई। शहजादी तो खिड़की के सामने से हटती ही न थी। तुमसे बातें करने की उसकी बड़ी इच्छा थी। जब तुम अंदर गए थे तो उसी ने तुम्हें पान के बीड़े दिए थे, याद है? रमा ने कोई जवाब न दिया। जालपा–अजी, वही जो रंग-रूप में सबसे । अच्छी थी, जिसके गाल पर एक तिल था, तुमने उसकी ओर बड़े प्रेम से देखा था, बेचारी लाज के मारे गड़ गई थी। मुझसे कहने लगी, जीजा तो बड़े रसिक जान पड़ते हैं। सखियों ने उसे खूब चिढ़ाया, बेचारी रुआंसी हो गई। याद है? रमा ने मानो नदी में डूबते हुए कहा-मुझे तो याद नहीं आता।

जालपा-अच्छा,अबकी चलोगे तो दिखा दूंगी। आज तुम बाजार की तरफ गए थे कि नहीं?

रमा ने सिर झुकाकर कहा-आज तो फुरसत नहीं मिली।

जालपा-जाओ,मैं तुमसे न बोलूंगी! रोज हीले-हवाले करते हो।अच्छा,कल ला दोगे न?

रमानाथ का कलेजा मसोस उठा। यह चन्द्रहार के लिए इतनी विकल हो रही है। इसे क्या मालूम कि दुर्भाग्य इसका सर्वस्व लूटने का सामान कर रहा है। जिस सरल बालिका पर उसे अपने प्राणों को न्योछावर करना चाहिए था, उसी का सर्वस्व अपहरण करने पर वह तुला हुआ है! वह इतना व्यग्र हुआ,कि जी में आया, कोठे से कूदकर प्राणों का अंत कर दे।

आधी रात बीत चुकी थी। चन्द्रमा चोर की भांति एक वृक्ष की आड़ से झांक रहा था। जालपा पति के गले में हाथ डाले हुए निद्रा में मग्न थी। रमा मन में विकट संकल्प करके धीरे से उठा; पर निद्रा की गोद में सोए हुए पुष्प प्रदीप ने उसे अस्थिर कर दिया। वह एक क्षण खड़ा मुग्ध नेत्रों से जालपा के निद्रा-विहसित मुख की ओर देखता रहा। कमरे में जाने का साहस न हुआ। फिर लेट गया।

जालपा ने चौंककर पूछा-कहां जाते हो,क्या सबेरा हो गया?

रमानाथ-अभी तो बड़ी रात है।

जालपा--तो तुम बैठे क्यों हो?

रमानाथ-कुछ नहीं,जरा पानी पीने उठा था।

जालपा ने प्रेमातुर होकर रमा के गले में बांहें डाल दी और उसे सुलाकर कहा-तुम इस तरह मुझ पर टोना करोगे,तो मैं भाग जाऊंगी। न जाने किस तरह ताकते हो,क्या करते हो,क्या मंत्र पढ़ते हो कि मेरा मन चंचल हो जाता है। बासन्ती सच कहती थी,पुरुषों की आंख में टोना होता है।

रमा ने फूटे हुए स्वर में कहा-टोना नहीं कर रहा हूं,आंखों की प्यास बुझा रहा हूं।

दोनों फिर सोए,एक उल्लास में डूबी हुई, दूसरा चिंता में मग्न।

तीन घंटे और गुजर गए। द्वादशी के चांद ने अपना विश्व-दीपक बुझा दिया। प्रभात की शीतल-समीर प्रकृति को मद के प्याले पिलाती फिरती थी। आधी रात तक जागने वाला बाजार भी सो गया। केवल रमा अभी तक जाग रहा था। मन में भात-भांति के तर्क-वितर्क उठने के कारण वह बार-बार उठता था और फिर लेट जाता था। आखिर जब चार बजने की आवाज कान में आई,तो घबराकर उठ बैठा और कमरे में जा पहुंचा। गहनों का संदूकचा आल्मारी में रखा हुआ था;रमा ने उसे उठा लिया,और थरथर कांपता हुआ नीचे उतर गया। इस घबराहट में उसे इतना अवकाश न मिला कि वह कुछ गहने छांटकर निकाल लेता।

दयानाथ नीचे बरामदे में सो रहे थे। रमा ने उन्हें धीरे-से जगाया,उन्होंने हकबकाकर पूछा-कौन?

रमा ने होंठ पर उंगली रखकर कहा-मैं हूं। यह संदूकची लाया हूं। रख लीजिए।

दयानाथ सावधान होकर बैठ गए। अभी तक केवल उनकी आंखें जागी थीं,अब चेतना भी जाग्रत हो गई। रमा ने जिस वक्त उनसे गहने उठा लाने की बात कही थी,उन्होंने समझा था कि यह आवेश में ऐसा कह रहा है। उन्हें इसका विश्वास ने आया था कि रमा जो कुछ कह रहा
है, उसे भी पूरा कर दिखाएगा। इन कमीनी चालों से वह अलग ही रहना चाहते थे। ऐसे कुत्सित कार्य में पुत्र से साठ-गांठ करना उनकी अंतरात्मा को किसी तरह स्वीकार न था। पूछो-इसे क्यों उठा लाए?

रमा ने धृष्टता से कहा-आप ही का तो हुक्म था।

दयानाथ-झूठ कहते हो।

रमानाथ-तो क्या फिर रख आऊं?

रमा के इस प्रश्न ने दयानाथ को घोर संकट में डाल दिया। झेंपते हुए बोले–अब क्या रख आओगे,कहीं देख ले,तो गजब ही हो जाए। वही काम करोगे,जिसमें जग-हंसाई हो। खड़े क्या हो,संदूकची मेरे बड़े संदूक में रख आओ और जाकर लेट रहो। कहीं जाग पड़े तो बस!

बरामदे के पीछे दयानाथ का कमरा था। उसमें एक देवदार का पुराना संदूक रखा थी रमा ने संदूकची उसके अंदर रख दी और बड़ी फुर्ती से ऊपर चला गया। छत पर पहुंचकर उसने आहट ली,जालपा पिछले पहर की सुखद निद्रा में मग्न थी।

रमा ज्योंही चारपाई पर बैठा,जालपा चौंक पड़ी और उससे चिमट गई। रमा ने पूछा-क्या है,तुम चौक क्यों पड़ीं?

जालपा ने इधर-उधर प्रसन्न नेत्रों से ताककर कहा-कुछ नहीं, एक स्वप्‍न देख रही थी। तुम बैठे क्यों हो,कितनी रात है अभी?

रमा ने लेटते हुए कहा-सबेरा हो रहा है,क्या स्‍वप्‍न देखती थीं?

जालपा–जैसे कोई चोर मेरे गहनों की संदूकची उठाए लिए जाता हो।

रमा का हृदय इतने जोर से धक-धक् करने लगा, मानो उस पर हथौड़े पड़ रहे हैं। खून सर्द हो गया। परंतु संदेह हुआ,कहीं इसने मुझे देख तो नहीं लिया। वह जोर से चिल्ला पड़ा-चोर! चोर!

नीचे बरामदे में दयानाथ भी चिल्ला उठे-चोर! चोर!

जालपा घबड़ाकर उठी। दौड़ी हुई कमरे में गई, झटके से आल्भा खोली। संदूकची वहां न थी? मूर्छित होकर गिर पड़ी।

आठ

सवेरा होते ही दयानाथ गहने लेकर सराफ के पास पहुंचे और हिसाब होने लगा। सराफ के पंद्रह सौ रु० आते थे; मगर वह केवल पंद्रह सौ रु के गहने लेकर संतुष्ट न हुआ। बिके हुए गहनों को वह बट्टे पर ही ले सकता था। बिकी हुई चीज कौन वापस लेता है। जाकड़ पर दिए होते, तो दूसरी बात थी। इन चीजों को तो सौदा हो चुका था। उसने कुछ ऐसी व्यापारिक सिद्धांत की बातें कीं, दयानाथ को कुछ ऐसा शिकंजे में कसा कि बेचारे को हां-हां करने के सिवा और कुछ न सूझा। दफ्तर का बाबू चतुर दुकानदार से क्या पेश पात ? पंद्रह सौ रु. में पच्चीस सौ रु० के गहने भी चले गए, ऊपर से पचास रु० और बाकी रह गए। इस बात पर पिता-पुत्र में कई दिन खूब वाद-विवाद हुआ। दोनों एक दूसरे को दोषी ठहराते रहे। कई दिन आपस में बोलचाल बंद
रही, मगर इस चोरी का हाल गुप्त रखा गया। पुलिस को खबर हो जाती, तो भंडा फूट जाने का भय था। जालपा से यही कहा गया कि माल तो मिलेगी नहीं,व्यर्थ का झंझट भले ही होगा।जालपा ने भी सोचा,जब भाल ही न मिलेगा, तो रपट व्यर्थ क्यों की जाय।

जालपा को गहनों से जितना प्रेम था,उतना कदाचित् संसार की और किसी वस्तु से न था,और उसमें आश्चर्य की कौन-सी बात थी। जब वह तीन वर्ष की अबोध बालिका थी, उस वक्त उसके लिए सोने के चूड़े बनवाए गए थे। दादी जब उसे गोद में खिलाने लगती,तो गहनों की ही चर्चा करती-तेरा दूल्हा तेरे लिए बड़े सुंदर गहने लाएगा। ठुमक ठुमककर चलेगी।

जालपा पूछती-चांदी के होंगे कि सोने के, दादीजी?

दादी कहती–सोने के होंगे बेटी,चांदी के क्यों लाएगा? चांदी के लाए तो तुम उठाकर उसके मुंह पर पटक देना।

मानकी छेड़कर कहती-चांदी के तो लाएगा ही। सोने के उसे कहां मिले जाते हैं।

जालपा रोने लगती,इस बूढ़ी दादी,मानकी,घर की महरियां,पड़ोसिने और दीनदयाल-सबै हसते।उन लोगों के लिए यह विनोद का अशेष भांडार था।

बालिका जब ज़रा और बड़ी हुई,तो गुड़ियों के ब्याह करने लगी। लड़के की ओर से चढ़ावे जाते,दुलहिन को गहने पहनाती,डोली में बैठाकर विदा करती,कभी-कभी दुलहन गुड़िया अपने गुड़े दूल्हे से गहनों के लिए मान करती,गुड्‍डा बेचारा कहीं-न-कहीं से गहने लाकर स्त्री को प्रसन्न करता था।उन्हीं दिनों बिसाती ने उसे वह चन्द्रहार दिया,जो अब तक उसके पास सुरक्षित था।

जरा और बड़ी हुई तो बड़ी-बूढियों में बैठकर गहनों की बातें सुनने लगी।महिलाओं के उस छोटे-से संसार में इसके सिवा और कोई चर्चा ही न थी। किसने कौन-कौन गहने बनवाए, कितने दाम लगे,ठोस हैं या पोले,जड़ाऊ हैं या सादे,किस लड़की के विवाह में कितने गहने आए–इन्हीं महत्त्वपूर्ण विषयों पर नित्य आलोचना-प्रत्यालोचना,टीका-टिप्पणी होती रहती थी। कोई दूसरा विषय इतना रोचक,इतना ग्राह्य हो ही नहीं सकता था।

इस आभूषण-मंडित संसार में पली हुई जालपा का यह आभूषण-प्रेम स्वाभाविक ही था। महीने भर से ऊपर हो गया। उसकी दशा ज्यों-की-त्यों है। न कुछ ख़ाती-पीती है,न किसी से हंसती-बोलती है। खाट पर पड़ी हुई शून्य नेत्रों से शून्याकाश की ओर ताकती रहती है। सारा घर समझाकर हार गया,पड़ोसिने समझाकर हार गई, दीनदयाल आकर समझा गए,पर जालपा ने रोग-शय्या न छोड़ी। उसे अब घर में किसी पर विश्‍वास नहीं है,यहां तक कि रमा से भी उदासीन रहती है। वह समझती है,सारा घर मेरी उपेक्षा कर रहा है। सब-के-सब मेरे प्राण के ग्राहक हो रहे हैं। जब इनके पास इतना धन है,तो फिर मेरे गहने क्यों नहीं बनवाते? जिससे हम सबसे अधिक स्नेह रखते हैं,उसी पर सबसे अधिक रोष भी करते हैं। जालपा को सबसे अधिक क्रोध रमानाथ पर था। अगर यह अपने माता-पिता से जोर देकर कहते, तो कोई इनकी बात न टाल सकता, पर यह कुछ कहें भी? इनके मुंह में तो दही जमा हुआ है। मुझसे प्रेम होता, तो यों निश्चित न बैठे रहते। जब तक सारी चीजें न बनवा लेते,रात को नींद आती। मुंह देखे की मुहब्बत हैं,मां-बाप से कैसे कहें,जाएंगे तो अपनी ही ओर,मैं कौन हूं।

वह रमा से केवल खिंची ही न रहती थी, वह कभी कुछ पूछता तो दो-चार जली-कटी सुना देती।'बेचारा अपना-सा मुंह लेकर रह जाता | गरीब अपनी ही लगाई हुई आग में जला
जाता था। अगर वह जानता कि उन डींगों का यह फल होगा,तो वह जबान पर मुहर लगा लेता। चिंता और ग्लानि उसके हृदय को कुचले डालती थी। कहां सुबह से शाम तक हंसी कहकहे,सैर-सपाटे में कटते थे,कहां अब नौकरी की तलाश में ठोकरें खाता फिरता था। सारी मस्ती गायब हो गई। बार-बार अपने पिता पर क्रोध आता,यह चाहते तो दो-चार महीने में सब रुपये अदा हो जाते,मगर इन्हें क्या फिक्र!मैं चाहे मर जाऊं पर यह अपनी टेक न छोड़ेंगे। उसके प्रेम से भरे हुए,निष्कपट हृदय में आग-सी सुलगती रहती थी। जालपा का मुरझाया हुआ मुख देखकर उसके मुंह से ठंडी सांस निकल जाती थी। वह सुखद् प्रेम-स्वप्‍न इतनी जल्द भंग हो गया,क्या वे दिन फिर कभी आएंगे? तीन हजार के गहने कैसे बनेंगे? अगर नौकर भी हुआ,तो ऐसा कौन-सा बड़ी ओहदा मिल जाएगा? तीन हजार तो शायद तीन जन्म में भी न जमा हों।वह कोई ऐसा उपाय सोच निकालना चाहता था, जिसमें वह जल्द-से-जल्द अतुल संपत्ति का स्वामी हो जाय। कहीं उसके नाम कोई लाटरी निकल आती ! फिर तो वह जालपा को आभूषणों से मढ़ देता। सबसे पहले चन्द्रहार बनवाता। उसमें हीरे जड़े होते। अगर इस वक्त उसे जाली नोट बनाना आ जाता तो अवश्य बनाकर चला देता। एक दिन वह शाम तक नौकरी की तलाश में मारा-मारा फिरता रहा। शतरंज की बदौलत उसका कितने ही अच्छे-अच्छे आदमियों से परिचय था,लेकिन वह संकोच और डर के कारण किसी से अपनी स्थिति प्रकट न कर सकता था। यह भी जानता था कि यह मान-सम्मान उसी वक्त तक है जब तक किसी के समाने मदद के लिए हाथ नहीं फैलाता। यह आन टूटी,फिर कोई बात भी न पूछेगा। कोई ऐसा भलामानुस न दीखता था,जो कुछ बिना कहे ही जान जाए,और उसे कोई अच्छी-सी जगह दिला दे। आज उसका चित्त बहुत खिन्‍न था। मित्रों पर ऐसा क्रोध आ रहा था कि एक-एक को फटकारे और आएं तो द्वार से दुत्कार दे। अब किसी ने शतरंज खेलने को बुलाया,तो ऐसी फटकार सुनाऊंगा कि यचा याद करें,मगर वह जरा गौर करता तो उसे मालूम हो जाता कि इस विषय में मित्रों का उतना दोष न था,जितना खुद उसका कोई ऐसा मित्र न था,जिससे उसने बढ़-बढ़कर बातें न की हों। यह उसकी आदत थी। घर की असली दशा को वह सदैव बदनामी की तरह छिपाता रहा। और यह उसी का फल था कि इतने मित्रों के होते हुए भी वह बेकार था। वह किसी से अपनी मनोव्यथा न कह सकता था और मनोव्यथा सांस की भाति अंदर घुटकर असह्य हो जाती है। घर में आकर मुंह लटकाए हुए बैठ गया।

जागेश्वरी ने पानी लाकर रख दिया और पूछा–आज तुम दिनभर कहां रहे? लो हाथ- मुंह धो डालो।

रमा ने लोटा उठाया ही था कि जालपा ने आकर उग्र भाव से कहा- मुझे मेरे घर पहुंचा दो,इसी वक्त।

रमा ने लोटा रख दिया और उसकी ओर इस तरह ताकने लगा,मानो उसकी बात समझ में न आई हो।

जागेश्वरी बोली-भला इस तरह कहीं बहू-बेटियां विदा होती हैं। कैसी बात कहती हो, बहू? जालपा-मैं उन बहू-बेटियों में नहीं हूं। मेरा जिस वक्त जो चाहेगा,जाऊंगी,जिस वक्त जी चाहेगा,आऊंगी। मुझे किसी का डर नहीं है। जब यहां कोई मेरी बात नहीं पूछता, तो मैं भी किसी को अपना नहीं समझती। सारे दिन अनाथों की तरह पड़ी रहती हैं। कोई झांकता तक
नहीं। मैं चिड़िया नहीं हैं, जिसका पिंजड़ा दाना-पानी रखकर बंद कर दिया जाय। मैं भी आदमी हूं। अब इस घर में मैं क्षण-भर न रुकूंगी। अगर कोई मुझे भेजने न जायगा, तो अकेली चली जाऊंगी। राह में कोई भेड़िया नहीं बैठा है, जो मुझे उठा ले जाएगी और उठा भी ले जाए,तो क्या गम। यहां कौन-सा सुख भोग रही हूं।

रमा ने सावधान होकर कहा-आखिर कुछ मालूम भी तो हो, क्या बात हुई?

जालपा–बात कुछ नहीं हुई, अपनी जी है। यहां नहीं रहना चाहती।

रमानाथ-भला इस तरह जाओगी तो तुम्हारे घरवाले क्या कहेंगे, कुछ यह भी तो सोचो। जालपा–यह सब सोच चुकी हूं, और ज्यादा नहीं सोचना चाहती। मैं जाकर अपने कपड़े बांधती हूं और इसी गाड़ी से जाऊगी।

यह कहकर जालपा ऊपर चली गई। रमा भी पीछे-पीछे यह सोचता हुआ चला, इसे कैसे शांत करूं।

जालपा अपने कमरे में जाकर बिस्तर लपेटने लगी कि रमा ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोला-तुम्हें मेरी कसम जो इस वक्त जाने का नाम लो।

जालपा ने त्योरी चढाकर कहा-तुम्हारी कसम की हमें कुछ परवा नहीं है।

उसने अपना हाथ छुड़ा लिया और फिर बिछावन लपेटने लगी। रमा खिसियाना-सा होकर एक किनारे खड़ा हो गया। जालपा ने बिस्तरबंद से बिस्तरे को बांधा और फिर अपने संदूक को साफ करने लगी। मगर अब उसमें वह पहले-सी तत्परता न थी, बार-बार संदूक बंद करती और खोलती। वर्षा बंद हो चुकी थी, केवल छत पर रुका हुआ पानी टपक रहा था। आखिर वह उसी बिस्तर के बंडल पर बैठ गई और बोली-तुमने मुझे कसम क्यों दिलाई।। रमा के हृदय में आशा की गुदगुदी हुई। बोला—इसके सिवा मेरे पास तुम्हें रोकने का और क्या साधन था?

जालपा-क्या तुम चाहते हो कि मैं यहीं घुट घुटकर मर जाऊँ? रमानाथ-तुम ऐसे मनहूस शब्द क्यों मुंह से निकालती हो? मैं तो चलने को तैयार हूं, न मानोगी तो पहुंचाना ही पड़ेगा। जाओ, मेरा ईश्वर मालिक हैं, मगर कम-से-कम बाबूजी और अम्मां से पूछ लो।

बुझती हुई आग में तेल पड़ गया। जालपा तड़पकर बोली-वह मेरे कौन होते हैं, जो उनसे पूछूं ? रमानाथ-कोई नहीं होते? जालपा-कोई नहीं । अगर कोई होते, तो मुझे यों न छोड़ देते। रुपये रखते हुए कोई अपने प्रियजनों का कष्ट नहीं देख सकता। ये लोग क्या मेरे आंसू न पोंछ सकते थे? मैं दिन-के दिन यहां पड़ी रहती हूं. कोई झूठों भी पूछता है? मुहल्ले की स्त्रियां मिलने आती हैं, कैसे मिलूं ? यह सूरत तो मुझसे नहीं दिखाई जाती। न कहीं आना न जाना, न किसी से बात न चीत, ऐसे कोई कै दिन रह सकता है? मुझे इन लोगों से अब कोई आशा नहीं रही। आख़िर दो लड़के और भी तो हैं, उनके लिए भी कुछ जोड़ेंगे कि तुम्हीं को दे दें।

रमा को बड़ी-बड़ी बातें करने का फिर अवसर मिला। वह खुश था कि इतने दिनों के
बाद आज उसे प्रसन्न करने का मौका तो मिला। बोला प्रिये, तम्हारा ख्याल बहुत ठीक है।

जरूर यही बात है। नहीं तो ढाई-तीन हजार उनके लिए क्या बड़ी बात थी? पचासों हजार बैंक में जमा हैं, दफ्तर तो केवल दिल बहलाने जाते हैं।

जालपा–मगर हैं मक्खीचूस पल्ले सिरे के।

रमानाथ- मक्खीचूस न होते, तो इतनी संपत्ति कहां से आती ।

जालपा-मुझे तो किसी की परवा नहीं है जी, हमारे घर किस बात की कमी है। दाल-रोटी वहां भी मिल जायेगी। दो-चार सखी-सहेलियां हैं, खेत-खलिहान हैं, बाग-बगीचे हैं, जी बहलता रहेगा।

रमानाथ-और मेरी क्या दशा होगी,जानती हो? घुट-घुटकर मर जाऊंगा। जब से चोरी हुई,मेरे दिल पर जैसी गुजरती है,वह दिल ही जानता है। अम्मां और बाबूजी से एक बार नहीं,लाखों बार कहा,जोर देकर कहा कि दो-चार चीजें तो बनवा ही दीजिए,पर किसी के कान पर जूं तक न रेंगी। न जाने क्यों मुझसे आंखें फेर लीं।

जालपा–जब तुम्हारी नौकरी कहीं लग जाय, तो मुझे बुला लेना।

रमानाथ–तलाश कर रहा हूं। बहुत जल्द मिलने वाली है। हजारों बड़े-बड़े आदमियों से मुलाकात है, नौकरी मिलते क्या देर लगती है, हां, जरा अच्छी जगह चाहता हूं।

जालपा–मैं इन लोगों का रुख समझती हूं। मैं भी यहां अब दावे के साथ रहूंगी। क्यों, किसी ने नौकरी के लिए कहते नहीं हो?

रमानाथ–शर्म आती है किसी से कहते हुए।

जालपा-इसमें शर्म की कौन-सी बात है ? कहते शर्म आती हो, तो ख़त लिख दो।

रमा उछल पड़ा, कितना सरल उपाय था और अभी तक यह सीधी-सी बात उसे न सूझी थी। बोला--हां, यह तुमने बहुत अच्छी तरकीब बतलाई। कल जरूर लिखूंगा।

जालपा-मुझे पहुंचाकर आना तो लिखना। कल ही थोड़े लौट आओगे।

रमानाथ- तो क्या तुम सचमुच जाओगी? तब मुझे नौकरी मिल चुकी और मैं खत लिख चुका | इस वियोग के दुःख में बैठकर रोऊंगा कि नौकरी ढूंदूंगा। नहीं, इस वक्त जाने का विचार छोड़ो। नहीं, सच कहता हूं, मैं कहीं भाग जाऊंगा। मकान का हाल देख चुका। तुम्हारे सिवा और कौन बैठा हुआ है, जिसके लिए यहां पड़ा सड़ा करू। हटो तो जरा मैं बिस्तर खोल दूं।

जालपा ने बिस्तर पर से जरा खिसककर कहा-मैं बहुत जल्द चली आऊंगी। तुम गए और मैं आई।

रमा ने बिस्तर खोलते हुए कहा-जी नहीं, माफ कीजिए, इस धोखे में नहीं आता। तुम्हें क्या, तुम तो सहेलियों के साथ विहार करोगी, मेरी खबर तक न लोगी, और यहां मेरी जान पर बन आवेगी। इस घर में फिर कैसे कदम रक्खा जायेगा।

जलपा ने एहसान जताते हुए कहा-आपने मेरा बंधा-बंधाया बिस्तर खोल दिया, नहीं तो आज कितने आनंद से घर पहुंच जाती। शहजादी सच कहती थी, मर्द बड़े टोनहे होते हैं। मैंने आज पक्का इरादा कर लिया था कि चाहे ब्रह्मा भी उतर आएं, पर मैं न मानूंगी। पर तुमने दो ही मिनट में मेरे सारे मनसूबे चौपट कर दिए। कल खत लिखना जरूर। बिना कुछ पैदा किए अब निर्वाह नहीं है।
रमानाथ-कल नहीं,मैं इसी वक्त जाकर दो-तीन चिट्ठियां लिखता हूं।

जालपा–पान तो खाते जाओ।

रमानाथ ने पान खाया और मर्दाने कमरे में आकर खत लिखने बैठे।

मगर फिर कुछ सोचकर उठ खड़े हुए और एक तरफ को चल दिए। स्त्री का सप्रेम आग्रह पुरुष से क्या नहीं करा सकता।

नौ

रमा के परिचितों में एक रमेश बाबू म्यूनिसिपल बोर्ड में हेड क्लर्क थे। उम्र तो चालीस के ऊपर थी; पर थे बड़े रसिक। शतरंज खेलने बैठ जाते, तो सवेरा कर देते। दफ्तर भी भूल जाते। न आगे नाथ न पीछे पगहा। जवानी में स्त्री मर गई थी, दूसरा विवाह नहीं किया। उस एकांत जीवन में सिवा विनोद के और क्या अवलंब था। चाहते तो हजारों के वारे-न्यारे करते, पर रिश्वत की कौड़ी भी हराम समझते थे। रमा से बड़ा स्नेह रखते थे। और कौन ऐसा निठल्ला था, जो रात-रात भर उनसे शतरंज खेलता। आज कई दिन से बेचारे बहुत व्याकुल हो रहे थे। शतरंज की एक बाजी भी न हुई। अखबार कहां तक पढ़ते। रमा इधर दो-एक बार आया अवश्य; पर बिसात पर न बैठा। रमेश बाबू ने मुहरे बिछा दिए। उसको पकड़कर बैठाया,पर वह बैठा नहीं। वह क्यों शतरंज खेलने लगा। बहू आई है,उसका मुंह देखेगा,उससे प्रेमालाप करेगा कि इस बूढे के साथ शतरंज खेलेगा! कई बार जी में आया, उसे बुलवाएं, पर यह सोचकर कि वह क्यों आने लगा, रह जाए। कहां जायं? सिनेमा ही देख आवें? किसी तरह समय तो कटे। सिनेमा से उन्हें बहुत प्रेम न था;पर इस वक्त उन्हें सिनेमा के सिवा और कुछ न सूझी। कपड़े पहने और जाना ही चाहते थे कि रमा ने कमरे में कदम रखा।

रमेश उसे देखते ही गेंद की तरह लुढ़ककर द्वार पर जा पहुंचे और उसका हाथ पकड़कर बोले-आइए,आइए बाबू रमानाथ साहब बहादुर ! तुम तो इस बुड्ढे को बिल्कुल भूल ही गए। हां भाई, अब क्यों आओगे? प्रेमिका की रसीली बातों का आनंद यहां कहां? चोरी का कुछ पता चला?

रमानाथ-कुछ भी नहीं।

रमेश–बहुत अच्छा हुआ, थाने में रपट नहीं लिखाई। नहीं सौ-दो सौ के मत्थे और जाते। बहू को तो बड़ा दु:ख हुआ होगा?

रमानाथ कुछ पूछिए मत, तभी से दाना-पानी छोड़ रक्खा है? मैं तो तंग आ गया। जी में आता है, कहीं भाग जाऊं। बाबूजी सुनते नहीं।

रमेश-बाबूजी के पास क्या कारू का खजाना रक्खा हुआ है? अभी चार-पांच हजार खर्च किए हैं, फिर कहां से लाकर गहने बनवा दें? दस-बीस हजार रुपये होंगे, तो अभी तो बच्चे भी तो सामने हैं और नौकरी का भरोसा ही क्या। पचास रु० होती ही क्या है?

रमानाथ-मैं तो मुसीबत में फंस गया। अब मालूम होता है, कहीं नौकरी करनी पड़ेगी। चैन से खाते और मौज उड़ाते थे, नहीं तो बैठे-बैठाए इस मायाजाल में फंसे। अब बतलाइए, है।