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गल्प समुच्चय/(१) संन्यासी

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गल्प समुच्चय
प्रेमचंद, संपादक श्रीप्रेमचन्द जी
संन्यासी

काशी: सरस्वती-प्रेस, बनारस सिटी, पृष्ठ ३८ से – ५८ तक

 

(१) संन्यासी

__________

( १ )

लखनवाल, जिला गुजरात, का पालू उन मनुष्यों 72 में से था जो गुणों की गुथली कहे जाते हैं। यदि वह गाँव में न होता, तो होलियों में झाँकियों का, दीवाली पर जुए का, और दशहरे पर रामलीला का प्रबन्ध कठिन हो जाता था। उन दिनों उसे खाने-पीने तक की सुधि न रहती और वह तन-मन से इन कार्यो में लीन रहता था। गाँव में कोई गाने वाला आ जाता तो लोग पालू के पास जाते कि देखो कुछ राग-विद्या जानता भी है, या यों ही हमें गँवार समझकर धोखा देने आ गया है। पालू अभिमान से सिर हिलाता और उत्तर देता,—"पालू के रहते हुए तो यह असम्भव है, पीछे की भगवान जाने।" केवल इतना ही नहीं, वह बाँसुरी और घड़ा बजाने में भी पूरा उस्ताद था। हीर-रांझे का किस्सा पढ़ने में, तो दूर-दूर तक कोई उसके जोड़ का न था। दोपहर के समय जब वह पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर ऊँचे स्वर से जोगी और सहती के प्रश्नोत्तर पढ़ता, तो
सारे गाँव के लोग इकट्ठे हो जाते और उसकी प्रशंसा के पुल बाँध देते। उसके स्वर में जादू था। वह कुछ दिन के लिए भी बाहर चला जाता, तो गाँव में उदासी छा जाती। पर उसके घर के लोग उसके गुणों को नहीं जानते थे। पालू मन-ही-मन इस पर बहुत कूढ़ता था। तीसरे पहर घर जाता, तो माँ ठण्डी रोटियाँ सामने रख देती। रोटियाँ ठण्डी होती थीं; परन्तु गालियों की भाजी गर्म होती थी। उस पर भावजें मीठे तानों से कड़वी मिचें छिड़क देती थीं। पालू उन मिर्ची से कभी-कभी बिलबिला उठता था; परन्तु लोगों की सहानुभूति मिश्री की डली का काम दे जाती थी।

वे तीन भाई थे-सुचालू, बालू और पालू। सुचालू गवर्नमेंट- स्कूल गुजरात में व्यायाम का मास्टर था, इसलिए लोग उसे सुचालामल के नाम से पुकारते थे। बालू दूकान करता था; उसे बालकराम कहते थे। परन्तु पालू की रुचि सर्वथा खेल-कूद ही में थी। पिता समझाता, माँ उपदेश करती, भाई निष्ठुर दृष्टि से देखते। मगर पालू सुना-अनसुना कर देता और अपने रंग में मस्त रहता।

इसी प्रकार पालू की आयु के तैंतीस वर्ष बीत गये; परन्तु कोई लड़की देने को तैयार न हुआ। माँ दुखी होती थी, मगर पालू हँसकर टाल देता और कहता-"मैं ब्याह करके क्या करूँगा? मुझे इस बन्धन से दूर ही रहने दो।" परन्तु विधाता के लेख को कौन मिटा सकता है पाँच मील की दूरी पर टाँडा-

नामक ग्राम है। वहाँ के एक चौधरी ने पालू को देखा है, तो लट्टू हो गया। रूप-रङ्ग में सुन्दर था, शरीर सुडौल। जात-पात पूछ कर उसने अपनी बेटी ब्याह दी।

(२)

पालू के जीवन में पलटा आ गया। पहले वह दिन के बारह घण्टे बाहर रहता था और घर से ऐसा घबराता था, जैसे चिड़िया पिंजरे से। परन्तु अब वही पिंजरा उसके लिए फूलों की वाटिका बन गया, जिससे बाहर पाँव रखते हुए उसका चित्त उदास हो जाता था। स्त्री क्या आई, उसका संसार ही बदल गया। अब उसे न बाँसुरी से प्रेम था, न किस्सों से प्रीति। लोग कहते, यार! कैसे जोरू-दास हो, कभी बाहर ही नहीं निकलते। हमारे सब साज-समाज उजड़ गये। क्या भाभी कभी कमरे से बाहर निकलने की भी आज्ञा नहीं देतीं? माँ कहती, बेटा ब्याह सबके होते आये हैं ; परन्तु तेरे सरीखा निर्लज्ज किसी को नहीं देखा कि दिन-रात स्त्री के पास ही बैठा रहे। पिता उसके मुँह पर उसे कुछ कहना उचित नहीं समझता था, मगर सुनाकर कह दिया करता था कि जब मेरा ब्याह हुआ था, तब मैंने दिन के समय तीन वर्ष तक स्त्री के साथ बात तक न की थी। पर अब तो समय का रंग ही पलट गया है। आज ब्याह होता है, कल घुल-घुलकर बातें होने लगती हैं। पालू लाख अनपढ़ था, परन्तु मूर्ख नहीं था कि इन बातों का अर्थ न समझता। पर स्वभाव का बेपरवा था, हँसकर टाल देता। होते-होते नौबत

यहाँ तक पहुँची, कि भाई-भावजें बात-बात में ताने मारने और घृणा की दृष्टि से देखने लगीं। मनुष्य सब कुछ सह लेता है; पर अपमान नहीं सह सकता। पालू भी बार-बार के अपमान को देखकर चुप न रह सका। एक दिन पिता के सामने जाकर बोला-"यह क्या रोज-रोज़ ऐसा ही होता रहेगा?"

पिता भी उससे बहुत दुःखी था, झल्लाकर बोला-

"तुम्हारे-जैसों के साथ इसी तरह होना चाहिए।"

“पराई बेटी को विष खिला दूँ?"

"नहीं, गले में ढाल लो। जगत् में तुम्हारा ही अनोखा ब्याह हुआ है।"

पालू ने कुछ धीरज से पूपा-"आप अपना विचार प्रकट कर दें। मैं भी तो कुछ जान पाऊँ।"

"सारे गाँव में तुम्हारी मिट्टी उड़ रही है। अभी बतलाने की बात बाकी रह गई है?"

"पर मैंने ऐसी कोई बात नहीं की, जिससे मेरी निन्दा हो।"

"सारा दिन स्त्री के पास बैठे रहते हो, यह क्या कोई थोड़ी निन्दा की बात है? तुम सुधर जाओ, नहीं सारी आयु रोते रहोगे। हमारा क्या है, नदी-किनारे के रूख हैं, आज हैं कल बह गये; परन्तु इतना तो सन्तोष रहे, कि जीते-जी अपने सब पुत्रों को कमाते-खाते देख लिया।"

यह कहते-कहते पिता के नेत्रों में आँसू भर आये। उसकी एक-एक बात जँची-तुली थी।
पालू को अपनी भूल का ज्ञान हो गया, सिर झुकाकर बोला-"तो जो कहें वही करने को उद्यत हूँ।"

इतनी जल्दी काम बन जायगा, पिता को यह आशा न थी। प्रसन्न होकर कहने लगा-"जो कहूँगा, करोगे?"

"हाँ करूँगा।"

"स्त्री को उसके घर भेज दो।"

पालू को ऐसा प्रतीत हुआ मानो किसी ने विष का प्याला सामने रख दिया हो। यदि उसे यह कहा जाता, कि तुम घर से बाहर चले जाओ और एक-दो वर्ष वापस न लौटो, तो वह सिर न हिलाता; परन्तु इस बात से, जो उसकी भूलों की निकृष्टतर स्वीकृति थी, उसके अन्तःकरण को दारुण दुःख हुआ। उसे ऐसा प्रतीत हुआ, मानो उसका पिता उसे दण्ड दे रहा है और उससे प्रतीकार ले रहा है। वह दण्ड भुगतने को तैयार था; परन्तु उसका पिता इस बात को जान पाये, यह उसे स्वीकार न था। वह इसे अपने लिये अपमान का कारण समझता था; इसलिए कुछ क्षण चुप रहकर उसने क्रोध से काँपते हुए उत्तर दिया-

"यह न होगा।"

"मेरी कुछ भी परवा न करोगे?"

"करूँगा; पर स्त्री को उसके घर न भेजूंगा।"

"तो मैं भी तुम्हें पराँवठे न खिलाता रहूँगा। कल से किनारा करो।"

जब मनुष्य को क्रोध आता है, तो सबसे पहले जीभ बेकाबू

होती है। पालू ने भी उचित-अनुचित का विचार न किया और अकड़कर उत्तर दिया-"मैं इसी से खाऊँगा और देखूँगा कि मुझे चौके से कौन उठा देता है?"

बात साधारण थी; परन्तु हृदयों में गाँठ बंध गई। पालू को उसकी स्त्री ने भी समझाया, माँ ने भी; पर उसने किसी की बात पर कान न दिया, और बे-परवाई से सबको टाल दिया। दिन को प्रेम के दौर चलते, रात को स्वर्ग-वायु के झकोरे आते। पालु की स्त्री की गोद में दो वर्ष का बालक खेलता था, जिस पर माता पिता दोनों न्योछावर थे। एकाएक उजाले में अन्धकार ने सिर निकाला। गाँव में विशूचिका का रोग फूट पड़ा, जिसका पहला शिकार पालू की स्त्री हुई।

( ३ )

पालू विलक्षण प्रकृति का मनुष्य था। धीरता ओर नम्रता उसके स्वभाव के सर्वथा प्रतिकूल थी। वाल्यावस्था में वह बे-परवा था। बे-परवाई चरमसीमा पर पहुँच चुकी थी। आठ-आठ दिन घर से बाहर रहना उसके लिये साधारण बात थी। फिर विवाह हुआ, प्रेम ने हृदय के साथ पाँवों को भी जकड़ लिया। यह वह समय था, जब उसके नेत्र एकाएक बाह्य संसार की ओर से बन्द हो गये और वह इस प्रकार प्रेम-पास में फंस गया; जैसे-शहद में मक्खी। मित्र-मण्डली नोक-झोंक करती थी, भाई-बन्धु आँखों में मुसकुराते थे; मगर उसके नेत्र और कान-दोनों बन्द थे। परन्तु जबास्त्री भी मरगई, तो पालू की प्रकृति

फिर चञ्चल हो उठी। इस चञ्चलता को न खेल-तमाशे रोक सके, न मनोरञ्जक किस्से कहानियां। यह दोनों रास्ते उससे पद-दलित किये जा चुके थे। प्रायः ऐसा देखा गया है कि पढ़े-लिखे लोगों की अपेक्षा अनपढ़ और मूर्ख लोग अपनी टेक का ज्यादा खयाल रखते हैं और इसके लिये तन-मन-धन तक न्योछावर कर देते हैं। पालू में यह गुण कूट-कूट कर भरा हुआ था। माता पिता ने दुबारा विवाह करने की ठानी; परन्तु पालू ने स्वीकार न किया और उनके बहुत कहने-सुनने पर कहा कि जिस बन्धन से एक बार छूट चुका हूँ, उसमें दुबारा न फैलूंगा। गृहस्थ का सुख-भोग मेरे प्रारब्ध में न था, यदि होता, तो मेरी पहली स्त्री क्यों मरती। अब तो इसी प्रकार जीवन बिता दूँगा; परन्तु यह अवस्था भी अधिक समय तक न रह सकी। तीन मास के अन्दर-अन्दर उसके माता-पिता-दोनों चल बसे। पालू के हृदय पर दूसरी चोट लगी। क्रिया-कर्म से निवृत्त हुआ, तो रोता हुआ बड़ी भावज के पाँवों में गिर पड़ा और बोला-"अब तो तुम्ही बचा सकती हो; अन्यथा मेरे मरने में कोई कसर नहीं।"

भावज ने उसके सिर पर हाथ फैरकर कहा-मैं तुम्हें पुत्रों से बढ़कर चाहूँगी। क्या हुआ, जो तुम्हारे माता-पिता मर गये। हम तो जीते हैं।"

“यह नहीं, मेरे बेटे को सँभालो। मैं अब घर में न रहूँगा।"

उसकी भाभी अवाक् रह गई। पालू अब सम्पत्ति बाँटने के लिये झगड़ा करेगा, उसे इस बात की शङ्का थी; परन्तु यह

सुनकर कि पालू घर-बार छोड़ जाने को उद्यत है, उसका हृदय आनन्द से झूलने लगा। मगर अपने हर्ष को छिपाकर बोली-

"यह क्या? तुम भी हमें छोड़ जाओगे, तो हमारा जी यहाँ कैसे लगेगा?"

"नहीं, अब यह घर भूत के समान काटने दौड़ता है। मैं यहाँ रहूँगा, तो जीता न बचूँगा। मेरे बच्चे के सिर पर हाथ रक्खो। मुझे न धन चाहिए, न सम्पत्ति। मैं सांसारिक धन्धों से मुक्त होना चाहता हूँ। अब मैं संन्यासी बनूंगा।"

यह कहकर अपने पुत्र सुखदयाल को पकड़कर भावज की गोद में डाल दिया और रोते हुए बोला- "इसकी मा मर चुकी है, पिता संन्यासी हो रहा है। परमात्मा के लिए इसका हृदय न दुखाना।"

बालक ने जब देखा कि पिता रो रहा है, तो वह भी रोने लगा और उसके गले लिपट गया; परन्तु पालू के पाँव को यह स्नेह-रज्जु भी न बाँध सकी। उसने हृदय पर पत्थर रक्खा और अपने संकल्प को दृढ़ कर लिया।

कैसा हृदय-वेधक दृश्य था, सायङ्काल को जब पशु-पक्षी अपने अपने बच्चों के पास घरों को वापस लौट रहे थे, पालू अपने बच्चे को छोड़कर घर से बाहर जा रहा था!

( ४ )

दो वर्ष बीत गये। पालू की अवस्था में आकाश-पाताल का अन्तर पड़ गया। वह पर्वत पर रहता था, पत्थरों पर सोता था,

रात्रि को जागता था और प्रति-क्षण ईश्वर-भक्ति में मग्न रहता था। उसके इस आत्म-संयम की, सारे हृषिकेश में, धूम मच गई। लोग कहते, यह मनुष्य नहीं देवता है। यात्री लोग जब तक स्वामी विद्यानन्द के दर्शन न कर लेते, अपनी यात्रा को सफल न समझते। उसकी कुटिया बहुत दूर पर्वत की एक कन्दरा में थी; परन्तु उसके आकर्षण से लोग वहां खिंचे चले आते थे। उसकी कुटिया में रुपये-पैसे और फल-मेवे के ढेर लगे रहते थे; परन्तु वह त्याग का मूर्तिमान रूप उनकी ओर आँख भी न उठता था। हाँ, इतना लाभ अवश्य हुआ कि उनके निमित्त स्वामीजी के बीसों चेले बन गये। स्वामीजी के मुख-मण्डल पर तेज बरसता था, जैसे सूरज से किरणें निकलती हैं। परन्तु, इतना होते हुए मन को शान्ति न थी। बहुधा सोचा करते कि देश-देशान्तर में मेरी भक्ति की घूम मच रही है, दूर-दूर मेरे यश के डंके बज रहे हैं, मेरे संयम को देखकर बड़े-बड़े महात्मा चकित रह जाते हैं; परन्तु मेरे मन को शान्ति क्यों नहीं। सोता हूँ, तो सुख की निद्रा नहीं आती; जगता हूँ तो पूजा-पाठ में मन एकाग्र नहीं होता। इसका कारण क्या है? उन्हें कई बार ऐसा अनुभव हुआ कि चित्त में अशान्ति है; पर वह क्यों है, इसका पता न लगता।

इसी प्रकार दो वर्ष व्यतीत हो गये। स्वामी विद्यानन्द की कीर्ति सारे हृषीकेश में फैल गई; परन्तु इतना होने पर भी उनका हृदय शान्त न था। प्रायः उनके कान में आवाज आती थी कि तू अपने आदर्श से दूर जा रहा है। स्वामीजी बैठे-बैठे चौंक
उठते, मानो किसी ने काँटा चुभो दिया हो। बार-बार सोचते; परन्तु कारण समझ में न आता। तब वे घबराकर रोने लग जाते। इससे मन तो हल्का हो जाता था; परन्तु चित्त को शान्ति फिर भी न होती। उस समय सोचते—संसार मुझे धर्मावतार समझ रहा है; पर कौन जानता है कि यहाँ आठों पहर आग सुलग रही है। पता नहीं, पिछले जन्म में कौन पाप किये थे, जिससे अब तक आत्मा को शान्ति नहीं मिलती।

अन्त में उन्होंने एक दिन दण्ड हाथ में लिया और अपने गुरु स्वामी प्रकाशानन्द के पास जा पहुँचे। उस समय वे रामायण की कथा से निवृत्त हुए थे। उन्होंने ज्योंही स्वामी विद्यानन्द को देखा, फूल की तरह खिल गये। उनको विद्यानन्द पर गर्व था। हँसकर बोले—

"कहिए क्या हाल है, शरीर तो अच्छा है?"

परन्तु स्वामी विद्यानन्द ने कोई उत्तर न दिया, और रोते हुए उनके चरणों से लिपट गये।

स्वामी प्रकाशानन्द को बड़ा आश्चर्य हुआ। अपने सबसे अधिक माननीय शिष्य को रोते देखकर उनके आत्मा पर आघात-सा लगा। उन्हें प्यार से उठाकर बोले—"क्यों कुशल तो है?"

स्वामी विद्यानन्द ने बालकों की तरह फूट-फूटकर रोते हुए कहा—"महाराज, मैं पाखण्डी हूँ। संसार मुझे धर्मावतार कह रहा है; परन्तु मेरे मन में अभी तक अशान्ति भरी हुई है। मेरा चित्त आठों पहर अशान्त रहता है।"

जिस प्रकार भले-चंगे मनुष्य को देखने के कुछ क्षण पश्चात्‌ उसकी मृत्यु का समाचार सुनकर विश्वास नहीं होता, उसी प्रकार स्वामी प्रकाशानन्द को अपने सदाचारी शिष्य की बात पर विश्वास न हुआ, और उन्होंने इस व्यंग्य से, मानो उनके कानों ने धोखा खाया हो, पूछा—"क्या कहा?"

स्वामी विद्यानन्द ने सिर झुकाकर उत्तर दिया, "महाराज, मेरा शरीर दग्ध हो गया है; परन्तु आत्मा अभी तक निर्मल नहीं हुआ।"

"इससे तुम्हारा अभिप्राय क्या है?"

"मैं प्रतिक्षण अशान्त रहता हूँ, मानो कोई कर्त्तव्य है, जिसे मैं पूरा नहीं कर रहा हूँ।"

"इसका कारण क्या हो सकता है, जानते हो?"

"जानता, तो आपकी सेवा में क्यों आता?"

एकाएक स्वामी प्रकाशानन्द को कोई बात याद आ गई। वे हँसकर बोले—"तुम्हारी स्त्री है?"

"उसकी मृत्यु ही तो संन्यास का कारण हुई थी।"

"माता?"

"वह भी नहीं।"

"पिता!"

"वह भी मर चुके हैं।"

"कोई बाल-बच्चा?"

"हाँ एक बालक है, वह चार वर्ष का होगा।"

"उसका पालन कौन करता है?"

"मेरा भाई और उसकी स्त्री।"

स्वामी प्रकाशानन्द का मुख-मण्डल चमक उठा। हँसकर बोले—

"तुम्हारी अशान्ति का कारण मालूम हो गया, हम कल तुम्हारे गाँव को चलेंगे।"

विद्यानन्द ने नम्रता से पूछा—

"मुझे शान्ति मिल जायगी?"

"अवश्य; परन्तु कल अपने गाँव की तैयारी करो।"

(५)

पालू के मित्रों में लाला गणपतराय का पुत्र भोलानाथ हाँडा बड़ा सज्जन पुरुष था। लखनवाल के लोग उसकी सज्जनता पर लट्टू थे। उसे पालू के साथ प्रेम था। उसके मन की स्वच्छता, उसका भोलापन, उसकी निःस्वार्थता पर भोलानाथ तन-मन से न्योछावर था। जब तक पालू लखनवाल में रहा, भोलानाथ ने सदैव उसकी सहायता की। वे दोनों जोहड़ के किनारे बैठते, धर्मशाला में जाकर खेलते, मन्दिर में जाकर कथा सुनते। लोग देखते, तो कहते, कृष्ण-सुदामा की जोड़ी है। परन्तु कृष्ण के आदर-सत्कार करने पर भी जब सुदामा ने वन का रास्ता लिया, तब कृष्ण को बहुत दुःख हुआ। इसके पश्चात् उनको किसी ने खुलकर हँसते नहीं देखा।

भोलानाथ ने पालू का पता लगाने की बड़ी चेष्टा की; परन्तु जब यत्न करने पर भी सफलता न हुई, तब उसके पुत्र सुखदयाल की ओर ध्यान दिया। प्रायः बालकराम के घर चले जाते और सुखदयाल को गोद में उठा लेते, चूमते, प्यार करते, पैसे देते। कभी-कभी उठाकर घर भी ले जाते। वहाँ उसे दूध पिलाते, मिठाई खिलाते और बाहर साथ ले जाते। लोगों से कहते—यह अनाथ है, इसे देखकर मेरा हृदय वश में नहीं रहता। उनके पैरों की चाप सुनकर सुखदयाल के चेहरे पर रौनक आ जाती थी। उसके साथ चाचा-चाची घोर निर्दयता का व्यवहार करते थे। और भोलानाथ का उसे प्यार करना, तो उन्हें और भी बुरा लगता था। प्रायः कहा करते, कैसा निर्दयी आदमी है, हमारी कन्याओं के साथ बात भी नहीं करता, कैसी गोरी और सुंदर हैं, जैसे मक्खन के पेड़े, देखने से भूख मिटती है; परन्तु उसको सुखदयाल के सिवा कोई पसन्द ही नहीं आता। पसन्द नहीं आता, तो न सही; परन्तु क्या यह भी नहीं हो सकता कि कभी-कभी उनके हाथ पर दो पैसे ही रख दे, जिससे सुखदयाल के साथ उसका व्यवहार देखकर उनका हृदय न मुर्झा जाय; पर यह बातें भोलानाथ के सामने कहने का उन्हें साहस न होता था। हाँ, उसका क्रोध बेचारे सुखदयाल पर उतरता था; जल नाचे की ओर बहता है। परिणाम यह हुआ कि सुखदयाल सदैव उदास रहने लगा। उसका मुख-कमल मुर्झा गया। प्रेम, जीवन की धूप है, वह उसे प्राप्त न था। जब कभी भोलानाथ आता, तब उसे पितृ-प्रेम के सुख का अनुभव होने लगता था।

लोहड़ी का दिन था, साँझ का समय। बालकराम के द्वार पर पुरुषों की भीड़ थी, आँगन में स्त्रियों का जमघटा। कोई गाती थीं, कोई हँसती थीं, कोई अग्नि में चावल फेंकती थीं, कोई चिड़वे खाती थीं। तीन कन्याओं के पश्चात् परमात्मा ने पुत्र दिया था। यह उसकी पहली लोहड़ी थी। बालकराम और उसकी स्त्री दोनों आनन्द से प्रफुल्लित थे। बड़े समारोह से त्यौहार मनाया जा रहा था। दस रुपये की मक्की उड़ गई, चिड़वे और रेवड़ी इसके अतिरिक्त; परन्तु सुखदयाल की ओर किसी का भी ध्यान न था। वह घर से बाहर दीवार के साथ खड़ा लोगों की ओर लुब्ध-दृष्टि से देख रहा था कि एकाएक भोलानाथ ने उसके कन्धों पर हाथ रखकर कहा—"सुक्खू!"

सूखे धानों में पानी पड़ गया। सुखदयाल ने पुलकित होकर उत्तर दिया—"चाचा!"

"आज लोहड़ी है, तुम्हारी ताई ने तुम्हें क्या दिया?"

"मक्की"

"और क्या दिया?"

"और कुछ नहीं।"

"और तुम्हारी बहनों को?"

"मिठाई भी दी, संगतरे भी दिये, पैसे भी दिये।"

भोलानाथ के नेत्रों में जल भर आया। भर्राये हुए स्वर से बोले—"हमारे घर चलोगे?"

"चलूँगा" "कुछ खाओगे?"

"हाँ खाऊँगा।"

घर पहुँचकर भोलानाथ ने पत्नी से कहा-इसे कुछ खाने को दो। भोलानाथ की तरह उनकी पत्नी भी सुखदयाल से बहुत प्यार करती थी। उसने बहुत-सी मिठाई उसके सम्मुख रख दी। सुखदयाल रुचि से खाने लगा। जब खा चुका, तो चलने को तैयार हुआ। भोलानाथ ने कहा- "ठहरो इतनी जल्दी काहे की है।"

"ताई मारेगी।"

"क्यों मारेगी?"

"कहेगी, तू चाचा के घर क्यों गया था?"

"तेरी बहनों को भी मार पड़ती है?"

"नहीं। उन्हें प्यार करती है।"

भोलानाथ की स्त्री के नेत्र भर आये । भोलानाथ बोले- "जो मिठाई बची है, वह जेब में डाल ले।"

सुखदयाल ने तृपित नेत्रों से मिठाई की ओर देखा और उत्तर दिया-"न"

"क्यों?"

"ताई मारेगी और मिठाई छीन लेगी।"

“पहले भी कभी मारा है।"

"हाँ, मारा है।"

"कितनी बार मारा है?"

"कई बार मारा है।" "किस तरह मारा है ?"

"चिमटे से मारा है।"

भोलानाथ के हृदय पर जैसे किसी ने हथौड़ा मार दिया। उन्होंने ठण्डी साँस भरी और चुप हो गये। सुखदयाल धीरे-धीरे अपने घर की ओर रवाना हुआ; परन्तु उसकी बातें ताई के कानों तक उससे पहले जा पहुची थीं। उसके क्रोध की कोई थाह नहीं थी। जब रात्रि अधिक चली गई और गली-मुहल्ले की स्त्रियाँ अपने-अपने घर चली गई, तो उसने सुखदयाल को पकड़ कर रहा-"क्यों बे कलमुँहे, चाचा से क्या कहता था?"

सुखदयाल का कलेजा काँप गया । डरते-डरते बोला- "कुछ नहीं कहता था।"

"तू तो कहता था, ताई मुझे चिमटे से मारती है।"

बालकराम पास खड़ा था, आश्चर्य से बोला-"अच्छा, अब यह छोकरा हमारी मिट्टी उड़ाने पर उतर आया है।"

सुखदयाल ने आँखों-ही-आँखों ताऊ की ओर देखकर प्रार्थना की कि मुझे इस निर्दयी से बचाओ; परन्तु वहाँ क्रोध बैठा था। आशा ने निराशा का रूप धारण कर लिया। ताई ने कर्कश स्वर से डाँटकर पूछा-

"क्यों, बोलता क्यों नहीं?"

"अब न कहूँगा"

"अब न कहूँगा। न मरता है, न पीछा छोड़ता है। खाने को देते जाओ, जैसे इसके बाप की जागीर पड़ी है।" यह कहकर उसने पास पड़ा हुआ बेलन उठाया। उसे देखकर सुखदयाल बिलबिला उठा; परन्तु अभी उसके शरीर पर पड़ा न था कि उसकी लड़की दौड़ती हुई आई और कहने लगी- "चाचा आया है।"

( ६ )

सुखदेवी का हृदय काँप गया। वह बैठी थी, खड़ी हो गइ और बोली-“कौन-सा चाचा? गुजरातवाला?"

"नहीं पालू।"

सुखदेवी और बालकराम दोनों स्तम्भित रह गये। जिस प्रकार बिल्ली को सामने देखकर कबूतर सहम जाता है, उसी प्रकार दोनों सहम गये। आज से दो वर्ष पहले जब पालू साधू बनने के लिए बिदा होने आया था, तब सुखदेबी मन में प्रसन्न हुई थी; परन्तु उसने प्रकट ऐसा किया था, मानों उसका हृदय इस समाचार से टुकड़े-टुकड़े हो गया है। इस समय उसके मन में भय और व्याकुलता थी; परन्तु मुख पर प्रसन्नता की झलक थी। वह जल्दी से बाहर निकली और बोली- "पालू।"

परन्तु वहाँ पालू के स्थान में एक साधु महात्मा खड़े थे, जिनके मुख-मण्डल से तेज की किरणें फूट-फूट कर निकल रही थीं। सुखदेवी के मन को धीरज हुआ; परन्तु एकाएक खयाल आया, यह तो वही है, वही मुँह, वही आँखें, वही रङ्ग, वही रूप; परन्तु कितना परिवर्तन हो गया है। सुखदेवी ने मुसकराकर कहा-"स्वामीजी, नमस्कार करती हूँ।"
इतने में बालकराम अन्दर से निकला और रोता हुआ स्वामीजी से लिपट गया। स्वामीजी भी रोने लगे; परन्तु यह रोना दुःख का नहीं, आनन्द का था। जब हृदय कुछ स्थिर हुआ तो बोले- "भाई, तनिक बाल-बच्चों को तो बुलाओ। देखने को जी तरस गया।"

सुखदेवी अन्दर को चली; परन्तु पाँव मन-मन के भारी हो गये। सोचती थी-यदि बालक सो गये होते, तो कैसा अच्छा होता। सब बातें ढकी रहतीं। अब क्या करूँ, इस बदमाश सुक्खू के वस्त्र इतने मैले हैं कि सामने करने का साहस नहीं पड़ता। आँखें कैसे मिलाऊँगी। रङ्ग में भङ्ग डालने के लिए इसे आज ही आना था। दो वर्ष बाद आया है। इतना भी न हुआ कि पहले पत्र ही लिख देता।

इतने में स्वामी विद्यानन्द अन्दर आ गये। पितृ-वात्सल्य ने लज्जा को दबा लिया था; परन्तु सुखदयाल और भतीजों के वस्त्र तथा उनके रूप-रङ्ग को देखा, तो खड़े-के-खड़े रह गये भतीजियाँ ऐसी थीं, जैसे चमेली के फूल और सुक्खू, वही सुक्खू जो कभी मैना के समान चहकता फिरता था, जिसकी बातें सुनने के लिए राह जाते लोग खड़े हो जाते थे, जिसकी नटखटी बातों‌ पर प्यार आता था, अब उदासीनता की मूर्ति बना हुआ था। उसका मुंँह इस प्रकार कुम्हलाया हुआ था, जिस प्रकार जल न मिलने से वृक्ष कुम्हला जाता है। उसके बाल रूखे थे, और मुँह पर दारिद्रय बरसता था। उसके वस्त्र मैले-कुचैले थे, जैसे किसी

भिखारी का लड़का हो। स्वामी विद्यानन्द के नेत्रों में आँसू आ गये। सुखदेवी और बालक राम पर घड़ों पानी पड़ गया, खिसियाने-से होकर बोले-“कैसा शरारती है, दिन-रात धूल में खेलता रहता है।"

स्वामी विद्यानन्द सब कुछ समझ गये; परन्तु उन्होंने कुछ प्रकट नहीं किया और बोले-"मैं आज अपने पुराने कमरे में सोऊँगा, एक चारपाई डलवा दो।"

रात्रि का समय था। स्वामी विद्यानन्द सुक्खू को लिये हुए अपने कमरे में पहुँचे। पुरानी बातें ज्यों-की-त्यों याद आ गई। यही कमरा था, जहाँ प्रेम के पाँसे खेले थे। यहीं पर प्रेम के प्याले पिये थे। इसी स्थान पर बैठकर प्रेम का पाठ पढ़ा था। यही वाटिका थी, जिसमें प्रेम-पवन के मस्त झोंके चलते थे। कैसा आनन्द था, विचित्र काल था, अद्भुत वसन्त-ऋतु थी; जिसने शिशिर के झोंके कभी देखे ही न थे। आज वह वाटिका उजड़ चुकी थी, प्रेम का राज्य लुट चुका था। स्वामी विद्यानन्द के हृदय में हलचल मच गई!

परन्तु सुक्खू का मुख इस प्रकार चमकता था, जैसे ग्रहण के पश्चात् चन्द्रमा। उसे देखकर स्वामी विद्यानन्द ने सोचा-"मैं कैसा मूर्ख हूँ, ताऊ और ताई जब इस पर सख्ती करते होंगे, जब अकारण इसको मारते-पीटते होंगे, जब इसके सामने अपनी कन्याओं से प्यार करते होंगे, उस समय यह क्या कहता होगा, इसके हृदय में क्या विचार उठते होंगे? यही कि मेरा पिता नहीं है, वह मर गया, नहीं तो मैं इस दशा में क्यों रहता। यह फूल

था जो आज धूल में मिला हुआ है। इसके हृदय में धड़कन है, नेत्रों में त्रास है, मुख पर उदासीनता है। वह चञ्चलता जो बच्चों का विशेष गुण है, इसमें नाम को नहीं। वह हठ जो बालकों की सुन्दरता है, इससे बिदा हो चुकी है। यह बाल्यावस्था ही में वृद्धों की नाई गम्भीर बन गया है। इस अनर्थ का उत्तरदायित्व मेरे सिर है, जो इसे यहाँ छोड़ गया, नहीं तो इस दशा को क्यों पहुँचता।" इन्हों विचारों में झपकी आ गई, तो क्या देखते हैं कि वही हृषीकेश का पर्वत है, वही कन्दरा। उसमें देवी को मूर्ति है और वे उसके सम्मुख खड़े रो-रो कर कह रहे हैं-"माता, दो वर्ष व्यतीत हो गये, अभी तक शान्ति नहीं मिली। क्या यह जीवन रोने ही में बीत जायगा?"

एकाएक ऐसा प्रतीत हुआ जैसे पत्थर को मूर्ति के होंठ हिलते हैं। स्वामी विद्यानन्द ने अपने कान उधर लगा दिये। आवाज़ आई-"तू क्या माँगता है, यश?"

"नहीं, मुझे उसकी आवश्यकता नहीं।"

"तो फिर जगत्-दिखावा क्यों करता है?"

"मुझे शान्ति चाहिए।"

"शान्ति के लिए सेवा-मार्ग को आवश्यकता है। पर्वत छोड़ और नगर में जा। जहाँ दुःखी जन रहते हैं, उनके दुःख दूर कर। किसी के घाव पर फाहा रख, किसी के टूटे हुए मन को धीरज बँधा; परन्तु यह रास्ता भी तेरे लिए उपयुक्त नहीं। तेरा पुत्र है,तू उसकी सेवा कर। तेरे मन को शान्ति प्राप्त होगी।"
यह सुनते ही स्वामीजी के नेत्रों से पर्दा हट गया। जागे तो वास्तविक भेद उन पर खुल चुका था कि मन की शान्ति कर्तव्य के पालन से मिलती है। उन्होंने सुखदयाल को जोर से गले लगाया और उसके रूखे मुँह को चूम लिया।






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