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गल्प समुच्चय/ उमा

विकिस्रोत से
गल्प समुच्चय
प्रेमचंद, संपादक श्रीप्रेमचन्द जी
उमा

काशी: सरस्वती-प्रेस, बनारस सिटी, पृष्ठ २६८ से – विज्ञापन तक

 
उमा

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अन्त में उमा की आखें खुलीं। स्वार्थ पर चढ़ा हुआ प्रेम का रङ्ग उड़ गया-कलई खुल गई। बिहारी का वास्तविक स्वरूप स्पष्ट हो गया। विवाह हुए अभी छः मास ही व्यतीत हुए थे; किन्तु इसी थोड़े समय में उसे अपनी भूल ज्ञात होने लगी। न व्यावहारिक प्रेम की कमी थी, न मौखिक; परन्तु यह दाम्पत्य जीवन का सुखद प्रेम न था; नाट्य-मञ्च का करुण-अभिनय था-नीरस, शुष्क। विवाह होने से पहले भी यही दशा थी। दोनों अपना-अपना पार्ट जी लगाकर खेलते थे। अभिनय वही था, वही हास-परिहास, वही आमोद-प्रमोद, वही प्रेम-रस में सनी हुई बातें; किन्तु उसमें और इसमें महान अन्तर था। उसमें प्रेरणा शक्ति थी, इसमें केवल मनोरञ्जन की मात्रा। उसमें निष्काम अनुराग भी था, इसमें केवल स्वार्थ-ही-स्वार्थ। पहले उमा बिहारी से खुलकर मिलती थी; लेकिन अब उसके दिल में भी मैल आ गया था। कृत्रिम प्रेम का अभिप्राय मनोभाव पर परदा डालता था। उमा दिल-ही-दिल में कुढ़ती और अपने भाग्य को रोती। उसकी इस दुर्दशा का उत्तरदायित्व केवल उसी पर था। उसके पिता पाश्चात्य सभ्यता के उपासक थे, और स्त्री-जाति के जन्मसिद्धि स्वत्वों के अनुमोदक। वह अपने धनाढ्य पिता की एकलौती बेटी थी। उसकी माता कभी को मर चुकी थी। उसे पूरी आजादी थी, वह जो जी में आता करती, जहाँ चाहती जाती, जिससे चाहती मिलती। उसने बिहारी के साथ अपनी इच्छा से विवाह किया था, पिता की अनुमति केवल नाममात्र को थी। यदि इस भूल का परिणाम केवल उसे ही भुगतना पड़ता, तो कदाचित् इतना दुःख न होता। उसे बड़ा अफसोस इस बात का था कि उसने उस व्यक्ति के साथ अन्याय किया, जो सहानुभूति के योग्य था, उसकी अवहेलना की, जो उसका सच्चा प्रेमी था।

रतन और बिहारी लड़कपन के मित्र थे। दोनों उमा के पड़ोस में रहते थे और उसके यहाँ आया-जाया करते थे। दोनों को उमा से प्रेम था। बिहारी चञ्चल प्रकृति का था, रतन गाम्भीर। बिहारी प्रेम दिखाने के सौ-सौ उपाय करता। रतन दिल की बात कहते हुए भी हिचकता, शरमाता, घबराता। रतन का गाम्भीर्य उसके हक़ में हानिकर सिद्ध हुआ—बिहारी बाजी मार ले गया। उमा की दृष्टि में रतन की गम्भीरता, उसकी शुष्कता और हृदय-हीनता के कारण थी; अतएव रतन यदि कुछ कहना भी चाहता,तो वह उसकी बात काट देतो, या सुनती भी तो बे-मन। लेकिन अब उसे पहले की बातों पर पछतावा होता था। पश्चात्ताप में उदारता होती है। उदारता में आलोचना-शक्ति नहीं होती। उदारता नदी की बाढ़ है, जो हर चीज़ हृदय में छिपा लेती है। उदारता के आवेग में हम दूसरों में उन गुणों का अनुमान करने लगते हैं, जिनके विद्यमान होने, या न होने का हमें निश्चय नहीं होता। उमा को रतन अब देव तुल्य दिखाई देते थे। वह सोचती—कैसा आदर्श जीवन है, कैसा मनोविराग! कैसी सहिष्णुता है, कैसा त्याग! मैंने उनके साथ कैसा अन्याय किया; लेकिन उन्होंने कभी शिकायत नहीं की। कोई और होता, तो यों ठण्डे दिल से न सह लेता। बहुत दिनों से नहीं आये। कहीं बीमार तो नहीं पड़ गये। जाने क्या बात हैं? पिछली बार जब आये थे, बड़े उदास दिखाई देते थे। मैं इसका कारण जाननी हूँ। मैं ही इस उदासी का कारण हूँ, मैं ही इसे दूर करूंगी। इस निश्चय के बाद उमा ने रतन को एक पत्र लिखा और उन्हें डिनर के लिए निमन्त्रित किया।

सायङ्काल का समय था। रतन घूमने जाने के लिए तैयार हो रहे थे। इसी समय उन्हें उमा का पत्र मिला। उनके अश्चर्य की सीमा न रही। अपने मनमें कहा—यह नई बात कैसी? उमा ने पहले तो कभी ऐसा उदारता नहीं दिखाई थी। उस समय भी जब वह स्वतन्त्र थी और रतन उपके प्रेम में दीवाने बने फिरते थे, उसने कभी ऐसा शब्द भी मुख से न निकाला था, जिससे रतन के नैराश्यपूर्ण हृदय में आशा अंकुरित होती। फिर इस आकस्मिक कायापलट से रतन को आश्चर्य क्यों न होता? उसने बिहारी से विवाह करके रतन की अवहेलना की—उसकी इस अनुदारता से रतन को दुःख होना स्वाभाविक था; किन्तु वे विवश थे, क्या करते? एक बाल्य-काल का मित्र था, दूसरी वह थी, जिसके सम्मुख हृदय की बात प्रकट करना, साहस का काम था। सिवा चुप रहने के कोई उपाय न था। उमा का विवाह हो जाने के बाद से उनका यह प्रयत्न रहता कि मन का भाव प्रकट न होने पावे। इसी सद्भाव से प्रेरित होकर वे उमा के यहाँ सप्ताह में दो बार अवश्य जाया करते; परन्तु उनकी कृतिम उदासीनता, आन्तरिक ज्वाला शान्त करने में असमर्थ थी। उनके हृदय में घोर संग्राम छिड़ा रहता। वे अपनी इच्छाओं और उमङ्गों को कुचल डालना चाहते थे; किन्तु सोने का ढेर सामने पाकर उसकी ओर से मुँह फेर लेना विरले ही का काम है। वह संयम और मनोविराग की अलौकिक अवस्था है, जब मन इच्छाओं की बेड़ी से मुक्त हो जाता है। रतन के हृदय में ईर्ष्या अंकुरित हुई। एक आफ़त से जान छुड़ाने गये थे, दूसरी मुसीबत गले पड़ी। उन्हें अपनी ग़लती मालूम हुई, उमा के यहाँ जाना क्रमशः कम कर दिया—हफ्ते में दो बार से हफ्ते में एक बार, हफ्ते में एक बार से पन्द्रह दिन में एक मर्तबा, और फिर महीने में एक दफ़ा।

रतन के दिल में आया कि टाल जायँ। बुद्धि ने कहा—जाना ठीक नहीं। ऐसी जगह जाने से क्या फ़ायदा, जहाँ सिर-दर्द के सिवा कुछ हाथ न लगे; लेकिन मन कब मानता है? उन्होंने मन में फिर सोचा, यह अनहोनी बात! यह स्वर्ण-अवसर? उमा का भेजा हुआ निमन्त्रण—जाना चाहिए, सिर-आँखों के बल जाना चाहिए। रतन ने जाना ही निश्चित् किया। उनकी दशा उस बालक की-सी थी, जो माँ से वादा करता है कि अब किसी चीज़ के लिए जिद न करूँगा; लेकिन मिठाईवाले की आवाज़ सुनते ही फिर मचल जाता है!

उमा का सुसज्जित ड्राइंग-रूम विद्युत-प्रकाश से जगमगा रहा था। वह एक कोच पर पड़ी हुई एक पुस्तक पढ़ने का प्रयत्न कर रही थी; किन्तु पढ़ने में जी नहीं लगता था। प्रतीक्षा में चित्त की एकाग्रता कब प्राप्त होती है? उसके नेत्र बार-बार द्वार की ओर देखते, निराश होकर लौटते और फिर देखते, कान किसी के पैर की आहट पाने के लिए आतुर थे। इतने में नौकर ने रतनकुमार के आने की सूचना दी।

उमा ने बढ़कर मधुर मुस्कान से रतन का स्वागत किया, जैसे अरुणोदय के समय उषा की सौन्दर्य-माधुरी उद्यान के फाटक पर एकान्त-सेवी दर्शक का स्वागत करती है। रतन मन्त्रमुग्ध से हो गये। उमा के शृङ्गार और सौन्दर्य ने उनके साथ वह काम किया जो वाटिका की अनुपम छवि दर्शक के साथ करती है। पूर्व की स्मृतियाँ, बाल्यकाल के सुखद स्वप्न, हृदय की सुप्त आशायें जाग पड़ीं, मानो कवि के मस्तक में विश्राम करती हुई कल्पना बाल सूर्य की शीतल रश्मियों से, वसन्ती समीर के मन्द झकोंरो से, सुगन्ध की लपटों से जाग गई हो! रतन ने उमा को। कितनी ही बार देखा था, रात्रि की अन्धकारमय नीरवता में कितनी ही बार उसके सौन्दर्य की कल्पना की थी; किन्तु पहले उसमें ऐसी आकर्षणी शक्ति नहीं थी। पहले उनको उमा के सौन्दर्य में रहस्यमय कठोरता दिखाई देती थी; किन्तु आज वह माधुर्य की जीती-जागती तस्वीर थी।

उमा ने मुस्करा कर पूछा—इतने दिनों तक आये क्यों नहीं?

"अवकाश नहीं मिलता था।"

"बातें न बनाओ। यह क्यों नहीं कहते कि जी नहीं चाहता था?"

रतन—(झेंपकर) नहीं, यह बात नहीं थी।

"फिर क्या आपको इतना समय नहीं मिल सकता कि यहाँ आ सकते? अवकाश तो कोई ऐसी चीज़ नहीं कि न मिल सके।"

रतन—(विषय पलटने के निमित्त) आज बिहारी भाई कहाँ हैं? दिखाई नहीं देते।

"एक दावत में गये हैं।"

इतने में नौकर ने आकर कहा—खाना तैयार है।

दोनों खाने के कमरे में चले गये। खाना मेज पर लगा दिया गया।

"शुरू कीजिए।"

"आप भी आयँ।"

“यह तो नियम के विरुद्ध है। पहले मेहमान की खातिर होनी चाहिए।"

"लेकिन यह भी तो नियम के विरुद्ध है कि मेहमान अकेला छोड़ दिया जाय ।" उमा निरुत्तर हो गई। रतन की बात माननी ही पड़ी। खाना शुरू हुआ। खाने के साथ-साथ बातें भी होती जाती थीं। रतन को खाने में आज तक कभी ऐसा स्वाद न मिला था। एक-एक चीज़ की प्रशंसा कर रहे थे। रसोइये ने ख़ीर की दो तश्तरियाँ लाकर रख दी और कहा—यह हुजूर की बनाई हुई चीज़ है। खीर बहुत अच्छी बनी थी, रतन को कोई चीज़ वैसी स्वादिष्ट न मालूम हुई। बार-बार जी चाहता था कि तारीफ़ करें; किन्तु मुख से एक शब्द भी न निकल सका। कोई और समय होता, तो उमा इस चुप का मतलब कुछ और समझती; परन्तु अब उसे स्वभाव का काफ़ी ज्ञान हो चुका था। प्रशंसा के लिये शब्दों की आवश्यकता न थी।

भोजन के उपरान्त दोनों टहलते हुए बाग़ में चले गये। आकाश के नीले परदे से झाँकता हुआ द्वितीया का चन्द्रमा ऐसा जान पड़ता था, मानो किसी सुन्दरी के नीले घूँघट से उसकी ठुड्डी झांक रही हो। असंख्य तारे साड़ी में टँके हुए सितारे थे।

उमा ने कहा—वह समय याद है जब हम, बिहारी और तुम घण्टों आकाश की शोभा देखा करते थे?

हृदय से निकली हुई ठण्डी साँस दबाते हुए रतन ने कहा—क्या वे बातें भूल सकती हैं?

"हम सब फूल चुनते और हार गूंथते थे।"

"हाँ, हम जब हार बनाने की कोशिश करते, कभी फूल चुक जाता, कभी धागा टूट जाता—तुम हस पड़तीं। एक बार बड़ी मेहनत के बाद मैंने और बिहारी ने एक-एक हार तैयार किया और तुम्हें देना चाहा। तुमने बिहारी का ले लिया, मेरा नहीं स्वीकार किया।"

"रतन, वे पुरानी बातें भूल जाओ। मैं स्वयं नहीं जानती कि मैंने ऐसा क्यों किया। वह लड़कपन का ज़माना था, उस समय मुझमें अच्छे-बुरे की पहचान नहीं थी।"

इसी समय पास के घण्टाघर ने नौ बजने की सूचना दी, रतन ने कहा—अच्छा अब मैं जाता हूँ।

"फिर आओगे? अवकाश मिल जायगा?"

"अब अधिक लज्जित न करो। जब बुला भेजोगी, चला आऊँगा।"

"वादा करते हो?"

"हाँ"

रतन जब बाहर आये, उन्हें ऐसा मालूम होता था, माना आकाश में उड़े जा रहे हैं। अनुकूल जल-वायु पाकर प्रेम का सूखता हुआ पौधा फिर लहलहा उठा!

कर्तव्य पूरा हो गया, उमा के हृदय का बोझ हट गया। उमा की दशा उस दरिद्र सफेदपोश की-सी थी जो अपनी दरिद्रता का ज्ञान विस्मृत करने के निमित्त मदिरा का सेवन करने लगता है। उमा लौट कर ड्राइंग-रूम में आई और पढ़ने में मग्न हो गई।

ग्यारह बजे के समय बिहारी घर लौटे। बिहारी ने पूछा—कोई आया तो नहीं था?—उमा ने कुछ सोचकर उत्तर दिया—रतन आये थे। मैंने उन्हें खाने के लिए रोक लिया था।

उमा ने यह बात छिपा ली कि उसने रतन को स्वयं निमन्त्रित किया था। उमा और बिहारी का वैसा सम्बन्ध नहीं था, जिसमें भेद रखने की गुञ्जाइस नहीं थी। वे एक-प्राण दो शरीर नहीं थे। दो शरीर थे, दो प्राण थे, दोनों पृथक्, दोनों भिन्न—पृथ्वी और आकाश का अन्तर!

बिहारी के मुख से शराब की बू आ रही थी। उमा को बड़ी घृणा हुई। वह उठकर शयनागार में चली गई। बिहारी वहीं एक कोच पर लेट गये और यह ईरादा करते हुए कि अब चलते हैं, सो गए।

दूसरे दिन उमा ने बिहारी को वहीं कोंच पर पड़े हुए पाया। आठ बज चुके थे; लेकिन उन्हें अभी होश न था। काग़ज़ के कई पुर्जे बिहारी के कोट की जेब में आधे भीतर आधे बाहर निकले हुए दिखाई देते थे। रोशनदान से आती हुई सूर्य की किरणें उनके मुख पर पड़ रही थीं। कुतूहलवश उमा ने पुर्जे बाहर खींच लिये, उलटा-पलटा, पढ़ने की इच्छा हुई। पहला एक होटल का बिल था, दूसरा एक पत्र। पत्र में लिखा था——

'प्रिय बिहारी बाबू,

मुझे इस बात का बड़ा दुःख है कि उस दिन तुमसे एकान्त में मिलने का अवसर न मिला। मुझे आशा है, तुमने बुरा न माना होगा। तुम जानते हो, मुझे तुमसे कितना प्रेम है। पुरानी बातें इस बात का सबूत हैं। अगले शनिवार को अवश्य आना। उस दिन यहाँ कोई न रहेगा।

तुम्हारी——

श्यामा'

पत्र लिये हुए उमा अपने शृङ्गार-गृह में चली गई! पत्र फिर पढ़ा—सन्देह दृढ़ हो गया। उमा को उदासीनता घृणा में परिणत हो गई।

उमा लौटी कि जाकर पत्र बिहारी की जेब में रख दे; लेकिन वे जाग चुके थे। अतएव उसने पत्र को अपने सन्दूक में बन्द कर दिया।

(३)

उमा के लिये यह पत्र वैसा ही था, जैसे मदिरा बेचनेवाले के लिए सरकारी लाइसेंस। रतन को बुलाना, या उनके प्रति सहानुभूति प्रकट करना, पहले उसे अनुचित जान पड़ता था; किन्तु अनुचित अब उचित हो गया। बिहारी के अक्षम्य विश्वास-घात के सामने उसका अपना अपराध दब गया। वह सोचती—क्या विश्वास-घात का स्वाभाविक उत्तर विश्वासघात नहीं? उन्होंने मुझे धोखा दिया सब्ज़ बाग़ दिखाया, क्या मैं उस व्यक्ति के साथ सहानुभूति भी न प्रकट करूँ, जिसके साथ अनुचित व्यवहार करने के कारण आज मुझे ये दिन देखने पड़े? यदि वह उचित था, तो यह भी उचित है।

पहले जब बिहारी अपने दोस्तों की दावतों में शरीक होने का प्रस्ताव करते, तो उमा उन्हें रोकने का भरसक प्रयत्न करती; किन्तु अब बिना कुछ कहे-सुने सहमत हो जाती। यदि वे आर्थिक सहायता माँगते, तो बिना आना-कानी किये दे देती। पहले उसे उनकी अनुपस्थिति से दुःख होता था, अब उनकी उपस्थिति से!

रतन और उमा का सम्बन्ध अब उस दरजे को पहुँच चुका था, जब उसे केवल पारस्परिक सहानुभूति कहना सत्य नहीं। एक को दूसरे की संगति अत्यन्त आवश्यक हो गई थी, बिछुड़ना खल जाता। रतन यदि किसी दिन न आते, या आने में देर करते, तो उमा व्याकुल हो जाती, शङ्कायें घेरने लगतीं। बार-बार नौकर भेजती और बुलाती। दोनों कभी घूमने निकल जाते, कभी बाइस्कोप देखने जाते, और कभी घर ही पर आनन्दोत्सव मनाते।

इसी प्रकार धीरे-धीरे दिन बीतने लगे। उमा का सौन्दर्य दिनो दिन निखरता जाता था, शरीर से आभा फूटी पड़ती थी, होठों पर हर्ष का माधुर्य था, नेत्रों में यौवन का मद। उसकी दशा उस कोमल पुष्प के समान थी, जो बाल सूर्य की प्राणपोषक रश्मियों और वसन्ती समीर के मधुर स्पर्श से अधिक कोमल, अधिक प्रफुल्ल, और अधिक सुरभित हो जाता है। रतन इस पुष्प पर भौंरे की भाँति रीझे हुए थे।

(४)

बिहारी ने जब उमा के साथ विवाह करने का इरादा किया था, तब केवल आर्थिक लाभ का ही विचार न था। उन दिनों उन्हें सुधार की धुन सवार थी। इस अस्वाभाविक काया-पलट का एक-मात्र कारण था धनाभाव। पैतृक सम्पत्ति का विशेषांश रड़्गरेलियों में पड़ चुका था, जो शेष था, उस पर महाजनों के दाँत लगे हुए थे। ऐसी शोचनीय दशा में सिवा आत्म-शुद्धि के, उद्धार का क्या उपाय था? सुधार बिना किसी दूसरे की मदद के आसान काम नहीं। निर्धन की दृष्टि घनवान् पर ही पड़ती है। हम आत्मिक प्रेरणा अथवा आर्थिक सहायता के निमित्त अपने से अच्छी दशावाले का ही मुँह ताकते है—यह मानव-स्वभाव है। बिहारी की उमा पर नज़र पड़ी। वह मालदार थी—उसके पास दौलत का खजाना भी था और रूप का भी। उसका धन उन्हें महाजनों के पञ्जों से मुक्त कर सकता था और उसका सौन्दर्य रूप के बाज़ार के फन्दों से। बिहारी ने प्रेम का स्वाँग भरा, जाल फैलाया—वह फंस गई; लेकिन खज़ाना हाथ लगते ही बिहारी का मन भी बदल गया, जैसे बोतल सामने देखते ही तौबा किये हुए शराबी की तबीयत बदल जाती है। सुधार की प्रेरक आन्तरिक ग्लानि न थी, धनाभाव था। सौन्दर्य का बाज़ार फिर अपनी ओर खींचने लगा।

आकर्षण में स्थिरता नहीं होती। किसी वस्तु का आकर्षण उसकी नवीनता होती है। निरन्तर का सहयोग आकर्षण का घातक है। बालक को अपना खिलौना तभी तक प्रिय होता है,जब तक वह नया रहता है। बिहारी पर उमा के सौन्दर्य का प्रभाव अधिक समय तक न रह सका। उसमें वे बातें कहाँ, जो बाजारू औरतों में होती हैं—न वह हाव-भाव, न वह कटाक्ष, न वे चुहलें, न वे रसीली बातें और फिर हृदयहीन, स्वार्थ-रत भौंरा एक ही फूल का होकर नहीं रह सकता!

रात को दस बज चुके थे। मिस्टर बिहारीलाल अपने तीन अन्य मित्रों के साथ 'अलाएंस होटल' से झूमते हुए बाहर निकले।

"बिहारीलाल—भई, आज खूब लुत्फ़ रहा।"

"हाँ, लेकिन एक बात की कमी थी।"

"किस चीज़ की?"

"कोई साक़ी न था।"

"हाँ, मज़ा तो तब था, जब कोई सुन्दरी पिलाती।"

"यह तो कोई मुश्किल न था।"

"भई, यह तो बड़ी चूक हुई।"

"लेकिन यहाँ किसे लाते? यहाँ इतनी आजादी नहीं।"

"सच तो यह है, कि यह जगह पीने-पिलाने के लिए ठीक नहीं, हर तरह के आदमी आते रहते हैं।"

"इसके लिये पूरा एकान्त चाहिये कोई बाग़ हो और चाँदनी रात।"

"नहीं, भूलते हो। दरिया का किनारा हो और चाँदनी रात।"

"और कोई सुन्दर पिलानेवाली हो, तो एक बार परहेज़गारों का भी तोबा टूट जाय।"

बिहारीलाल—तो इसमें क्या मुशकिल है, अगले शनिवार को यह भी सही।

सहसा बिहारीलाल को कुछ ख़याल आया। उन्होंने चौंककर कलाई पर बँधी हुई घड़ी देखी और कहा—बड़ी भूल हुई।

अच्छा, मैं आप लोगों से इजाजत चाहता हूँ।

"नहीं-नहीं, इस समय कहाँ जाओगे।"

"मुझे बड़ा जरूरी काम है,"—यह कहते हुए बिहारीलाल अपनी गाड़ी की ओर बढ़े। कोचवान ने अदब से गाड़ी का दरवाज़ा खोल दिया। बाबू साहब सवार हुए। गाड़ी हवा से बातें करने लगी। मित्रों को रोकने का मौका न मिला।

आध घण्टे में गाड़ी चौक पहुँची। बिहारीलाल उतरे और कोचवान को रुके रहने की ताक़ीद करके एक गली में घुस गये। गली में सन्नाटा छाया हुआ था, कुत्ते भी भूँकते-भूँकते थक गये थे और जगह-जगह कूड़े के ढेरों पर पड़े झपकियाँ ले रहे थे, गली अँधेरी थी, लेकिन बिहारी इस शीघ्रता और सफाई से चले जा रहे थे, मानो नित्य चलते-चलते उनके पैर गली के एक-एक कंकड़- पत्थर से परिचित हो गये हों। बिहारी एक विशाल भवन के सामने जाकर रुक गये। मकान के नीचे का हिस्सा अँधेरा पड़ा था; लेकिन ऊपर की खिड़कियों से रोशनी छन-छनकर सामने के मकान पर पड़ रही थी। पूर्ण निस्तब्धता छाई हुई थी—वह विचारोत्पादक निस्तब्धता, जो गाना रुकने के बाद फैल जाती है। बिहारी ने दरवाज़ा खटखटाया, कोई जवाब न मिला; हाँ इसी समय सारङ्गी के तारों से निकला हुआ कोमल-मधुर स्वर दिशाओं में गूंज उठा। तबले पर थाप पड़ी और किसी सुन्दरी के कोमल कण्ठ से निकला हुआ, दिल खींच लेनेवाला अलाप सारङ्गी के लय से हिलमिलकर नृत्य करने लगा। बिहारी इस अलाप से भली-भाँति परिचित थे। यह श्यामा के कोमल कण्ठ से निकली हुई अलाप थी। यह वह अलाप थी, जिसे सुनते ही बिहारी आनन्द से विह्वल होजाते, जी चाहता, कि इसे कलेजे में बिठा लें और हृदय-तन्त्रियों में सदा के लिए बन्द कर लें; किन्तु आज वही अलाप उनके हृदय में शूल चुभा रही थी! पहले यही अलाप बिहारी के लिये प्रेम और हर्ष का सन्देश होती थी; परन्तु आज यही अलाप श्यामा की वेवफ़ाई की स्पष्ट घोषणा थी। बिहारी ने फिर ज़ोर से दरवाजा खटखटाया; लेकिन फिर भी किसी ने जवाब न दिया। उन्हें बड़ा क्रोध आया। जी तो यही चाहता था, किसी तरह किवाड़ खुलवाकर अन्दर जायें और श्यामा को खूब फटकारें, लेकिन इसमें बदनामी-ही-बदनामी हाथ रहती। बिहारी उलटे पाँव लौटे और सड़क की ओर चले। घोर हार्दिक वेदना की दशा में सोचते चले जाते थे—यह है दुनियाँ का रङ्ग। जिसके साथ प्रेम करो, वही गला काटने को तैयार हो जाता है। यही है, श्यामा जिसके प्रेम की कहानियाँ सुनते-सुनते कान पक गये । आज तोते की तरह नज़र फेर ली। मुझे आने में ज़रा-सी देर हो गई, इसने यहाँ यारों को अन्दर दाख़िल कर लिया। इसके लिये मैंने क्या उठा रक्खा, इसके पीछे मैंने क्या नहीं बिगाड़ा? धन, दौलत, रियासत—सब खाक में मिल गई; लेकिन फिर भी इसका मुँह सीधा न हुआ। महीने में तीन-चार सौ देता था; फिर भी इसकी फरमाइशें बनी रहती थीं, लेकिन मैंने कभी शिकायत नहीं की। मेरा तो यह बर्ताव और इसकी यह तोताचश्मी। इसी के लिये उमा को धोखा देता हूँ, नित नई-नई चालें खेलता हूँ, रुपये ऐंठता हूँ और इसके कलेजे में भरता हूँ। घण्टों घर से गायब रहता हूँ, महीनों बीत गये, आधी रात से पहले कभी घर नहीं गया। प्रायः सारी रात बाहर ही कट जाती है। उमा मन में क्या सोचती होगी? मन-ही-मन में कुढ़ती होगी। यह बड़ी बेजा बात है।

सड़क सामने आ गई। कोचवान बैठा ऊँघ रहा था। उसे 'साहब' के इतना शीघ्र लौट आने पर बड़ा आश्चर्य और दुःख हुआ—ग़रीब की नींद भी पूरी न होने पाई, गाड़ी रवाना हुई औंर आध घण्टे में बँगले पर पहुंच गई।

बिहारी का विचार था, कि उमा ड्राइंग-रुम में पड़ी हुई अपनी हालत पर अफसोस करती होगी, या सो गई होगी; लेकिन ड्राइंग रूम ख़ाली पड़ा था, वहाँ कोई न था। उन्होंने शयनागार में जाकर देखा, उमा वहाँ भी न थी। एक-एक कमरे में जाकर देखा—उमा कहीं भी दिखाई न दी। उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ।

नौकर बरामदे में पड़ा सो रहा था, बाबू साहब ने उसे जगाया और पूछा—मलकिन कहाँ हैं?

"हूजूर कुछ बताया नहीं, कहीं घूमने गई हैं।'

बिहारी का माथा ठनका, सहस्रों शङ्कायें घेरने लगीं—यह क्या माजरा है? ज़िन्दगी से आजिज़ आकर उसने कहीं जान तो नहीं दे दी? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। उमा ऐसी नादान नहीं, उससे ऐसी मूर्खता नहीं हो सकती। फिर, क्या बात है? आखिर वह गई कहाँ? कुछ समझ में नहीं आता। बिहारी इसी उलझन में फंसे हुए एक कोच पर आकर लेट गये। वे इस दशा में दस मिनट रहे होंगे, कि उन्हें किसी गाड़ी के पहियों की आवाज सुनाई दी। वे झपटकर बाहर आये।

उमा गाड़ी से उतर रही थी और एक सफ़ेदपोश महाशय बँगले से बाहर जा रहे थे। बिहारी ने उमा से पूछा—कहाँ से आ रही हो?

"सिनेमा देखने गई थी।"

"और कौन साथ था?"

"रतन थे।"

"तुमने मुझे नहीं बताया, कि सिनेमा देखने जाओगी?"

"क्या तुम मुझे अपनी सारी बातें बताया करते हो?"

बिहारी निहत्तर हो गये। आज वे स्वयं अपनी दृष्टि में दोषी थे।

(५)

प्रतिक्रिया आरम्भ हो चुकी थी। बिहारी अब विशेषतः घर ही पर रहते थे। उनका हृदय एक बार फिर दाम्पत्य के सरल सुखों के लिये लालायित हो उठा; किन्तु वे जितना प्रेम करने का प्रयत्न करते, उमा उनसे उतना ही दूर भागती। उसे उनसे डर-सा लगता था—उनसे मिलने में अधिक वेदना होती थी। अब वह उन्हें अपना शुद्ध विमल प्रेम नहीं दे सकती थी। उनका उसके शरीर पर अधिकार अवश्य था; किन्तु उसका स्वतन्त्र हृदय और उसमें बहता हुआ प्रेम का निर्मल स्रोत अब दूसरे का हो चुका था। वह बिहारी की ओर से जितना खिंचती, रतन की ओर उतना ही बढ़ती। बिहारी देख रहे थे कि वह उनकी ओर से उदासीन हो रही है; परन्तु उनकी समझ में कोई कारण न आता था।

(६)

यौवन और वासना का अटूट सम्बन्ध है। वासना प्रेम का घातक है; किन्तु प्रेम को वासना के तीव्र आघातों से बचाये रखना बिरले का ही काम है। कौन है, जो आत्म-संयम का महत्त्व नहीं जानता? कौन ऐसा है, जो हृदय को वासना की कालिमा से पवित्र रखने का प्रयत्न नहीं करता? परन्तु, सुन्दरी के भेद-भरे नयनों का एक साधारण कटाक्ष, उसके सरस अधरों की सरल मुस्कान, उसके अञ्चल की एक लहर, चित्त को चञ्चल कर देने के लिए बहुत है।

रतन काम के बाणों का वीरता के साथ सामना कर रहे थे; परन्तु एक सहस्र सैनिक के तीव्र आघातों का बेचारा निहत्था आदमी कब तक सामना कर सकता है? जानते थे कि हार निकट है; किन्तु वे निरुपाय थे। रतन सोचते—इस प्रेम का कहाँ अन्त होगा? उमा मुझसे प्रेम अवश्य करती है; किन्तु यह प्रेम उसी समय तक है, जब तक हमारा सम्बन्ध निष्काम है। यदि मुझसे जरा-सी भी असावधानी हुई, तो वह मुझसे अवश्य घृणा करने लगेगी लेकिन मैं कितने दिनों तक दामन बचा-बचाकर चलूँगा? मैं अपने दिल को अपने वश में नहीं रख सकता। यदि बिहारी को ये बातें मालूम हो गई, तो वे क्या कहेंगे? दोस्ती, मुरौवत सबका अन्त हो जायगा और बदनाम भी हो जाऊँगा। मैं वहाँ जाता ही क्यों हूँ? अच्छा, आज से कभी न जाऊँगा; परन्तु इस पवित्र संकल्प का उसी समय अन्त हो जाता, जब उमा के यहाँ से बुलावा आता।

उमा के हृदय में प्रतिशोध की इच्छा प्रबल थी। वह बिहारी को दिखा देना चाहती थी कि स्त्री केवल पुरुषों की इच्छाओं की दासी नहीं—उसके अपने भी स्वत्व हैं, अधिकार हैं, इच्छाएँ हैं। रतन उसकी कार्य-सिद्धि के साधन-मात्र थे। उमा नित्य नया श्रृङ्गार करती, नये-नये, आभूषण पहनती, नई-नई साड़ियाँ बदलती, रतन को रिझाती और उनका साहस बढ़ाती। इस कार्य में कहाँ तक इच्छाओं का भाग था और कहाँ तक उस गुप्त प्रेरणा का, जो हमें अज्ञात रूपसे कार्य-सम्पादन में योग देती है—यह कहना कठिन है! किन्तु इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं कि उमा में कार्य-सिद्धि की वह प्रबल कामना थी, जो बलिदान के मूल्य की परवा नहीं करती।

फागुन का महीना था, सन्ध्या का समय। ऋतुराज के आगमन के आनन्द में कुसुम-कुञ्ज और पुण्य-उद्यान सौरभ, सौन्दर्य, अलङ्कार और रङ्ग से वैसे ही सजे हुए थे, जैसे परदेश से लौटे हुए पतियों का स्वागत करने के लिए युवती रमणियाँ शृङ्गार करती हैं। उमा और रतन वाटिका में टहल रहे थे। उमा ने गुलाब का एक अधखिला फूल तोड़ा और रतन के कोट में लगाने लगी। एक तो सौरभ, रङ्ग और समीर की उत्तेजक शक्ति, और फिर प्रेमी के कोमल करों का मधुर स्पर्श—रतन सिहर उठे, बदन में बिजली-सी दौड़ गई, हृदय की गति तीव्र हो गई। उमा की उँगलियाँ अपना काम पूरा कर चुकी थीं, वह हाथ हटाना ही चाहती थी कि रतन ने विद्युत-वेग से उमा की कुसुम-कोमल हथेली अपने गर्म हाथों में ले ली। उमा का मुख आरक्त हो गया, आँखें नीली हो गई। उसके हृदय में लज्जा अधिक थी, या विजयोल्लास—यह कहना कठिन है। इसी समय बँगले में किसी गाड़ी के प्रवेश करने का शब्द हुआ। उमा ने हाथ छुड़ा लिया और शीघ्रता से वाटिका के बाहर चली गई। गाड़ी में बिहारी आये थे। बिहारी ने उमा को वाटिका से निकलते देख लिया। उन्हें कुछ सन्देह हुआ। वे गाड़ी से उतरते ही बाग़ में गये और रतन को मानसिक विकलता की दशा में भूमि की ओर ताकते हुए पाया। रतन को बिहारी के आने की खबर तक न हुई, वे वैसे ही खड़े रहे। बिहारी उलटे पैर लौट आये। सन्देह में अंकुर फूट पड़ा। उमा की उदासीनता का कारण स्पष्ट हो गया। बिहारी ने सोचा—ये महाशय आज-कल यहाँ क्यों चक्कर काटा करते हैं। पहले तो इतनी कृपा न करते थे। इसमें कुछ-न-कुछ भेद अवश्य है।

(७)

रतन की इस समय वह दशा थी, जो पहली बार शराब पीने पर नशा उतरने के बाद हो जाती है। आत्मिक वेदना भी थी, पश्चात्ताप भी था। मानसिक अशांति की दशा में सोचते थे——

उमा ने मन में क्या सोचा होगा? कहीं मुझे चरित्रहीन न समझने लगे। उसने कुछ कहा नहीं, चुपचाप बाहर चली गई-इसका क्या मतलब है? उसने ज़रूर बुरा माना होगा। मुझसे बड़ी ग़लती हुई, मुझे उस समय न-जाने क्या हो गया था। उमा से आँखें मिलाकर अब कैसे बातें करूँगा? नहीं, अब मैं वहाँ कभी न जाऊँगा। रतन इसी उलझन में बड़ी रात तक जागते रहे। अन्त में निद्रादेवी को उनकी शोचनीय दशा पर दया आ गई।

रतन ने उमा के यहाँ न जाने का आज पहली ही बार सङ्कल्प न किया था। उनके इस प्रकार के इरादों का मूल्य सिद्ध हो चुका था। वे इस बात से स्वयं लज्जित थे।

वाटिकावाली घटना को कई दिन बीत गये। रतन ने अभूतपूर्ण दृढ़ता दिखाई—सङ्कल्प में शिथिलता न आने दी। इस बीच में उमा के पास से कोई बुलावा न आया। रतन का यह सन्देह कि उमा मुझपर नाराज़ है, ज़ोर पकड़ता जाता था। उनकी मानसिक अशांति बहुत कुछ घट गई थी। उन्हें थोड़ा-बहुत दुःख अवश्य था; किन्तु वे मन को इस प्रकार समझाते—चलो अच्छा हुआ, बला से जान छूटी। अब बात छिपी रह जायगी। मुझे अपनी भूल भी मालूम हो गई; नहीं तो न जाने कब तक धोखे में रहता—साधारण सहानुभूति को प्रेम समझ बैठा, कितनी बड़ी नादानी थी। एक दिन सन्ध्या-समय वायु-सेवन के बाद रतन जब होस्टेल लौटे तब उन्हें अपने कमरे में एक बन्द लिफाफा पड़ा मिला। रतन ने लिफ़ाफ़ा उठाकर देखा, हस्त-लिपि उमा की थी। रतन का हृदय वेग से धड़कने लगा। काँपते हुए हाथों से लिफ़ाफ़ा खोला। पत्र में लिखा था—

'प्रिय रतन,

आज पाँच दिन हो गये। तुमने सूरत नहीं दिखाई। क्या मुझसे नाराज़ हो? बड़ी प्रतीक्षा कराते हो? परन्तु इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं, दोष मेरा है कि प्रेम के हाथों ऐसी बिक गई। अब कब आओगे? आज सध्या-समय अवश्य आना। मैं तुम्हारा इन्तज़ार करूँगी।

दर्शनाभिलाषिनी,

उमा।'

पत्र देखकर रतन को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचा था कि उमा ने खूब खरी-खोटी सुनाई होगी; लेकिन यहाँ तो पाँसा ही पलटा हुआ था। रतन के हदय-सागर में आनन्द की लहरें उठने लगीं। आज पहला ही अवसर था कि उमा ने स्पष्ट शब्दों में अपने मन की बात कही। आज उन्हें प्रत्येक वस्तु में सुन्दरता दिखाई देती थी और प्रत्येक वस्तु में स्वाभाविक सहानुभूति। नीरव गगन में वसन्त की मधुर श्री फूटी पड़ती थी। कुसुम-कुञ्जों से आती हुई समीर सुगन्ध से लदी हुई थी। सामने वृक्ष पर चहकती हुई छोटी-छोटी चिड़ियों के सुमधुर कल-रव में प्रेम के राग थे। रतन चाहते तो थे कि न जायँ; किन्तु कोई प्रबल प्रेरणा उन्हें उमा के घर की ओर बलात् खींचे लिये जाती थी, पैर स्वयं चले जाते थे। इच्छा-शक्ति विवश थी।

(८)

गोधूलि का समय था। आकाश में फैली हुई लाली निशा-सुन्दरी की काली चादर में छिपी जाती थी। बिहारीलाल अपने बँगले के आहाते में वेग से घुसे और सीधे वाटिका में चले गये। उनकी दशा इस समय उस गुप्तचर की-सी थी, जो कोई रहस्य खोलने में व्यस्त हो। बिहारी ने ध्यान से इधर-उधर देखना शुरू किया, माता प्रकृति अपने सुकुमार बच्चों को थपकी देतो हुई सुला रही थीं; किन्तु चञ्चल वासन्ती समीर एक न चलने देता था। लताएँ और पुष्प हठी बालकों के समान मचलते और सिर हिलाते; परन्तु यह प्रेम-क्रीड़ा देखने के लिए बिहारी के आँखें न थीं। उन्हें कुछ और ही धुन सवार थी। उनकी भेद-भरी आँखें जिन्हें ढूँढ़ती थी, वे यहाँ दिखाई न दिये। बिहारी ने सोचा—क्या वार खाली जायगा? वे कुञ्ज की ओर बढ़े। लता-भवन सूना पड़ा था। बिहारी को बड़ी निराशा हुई। उन्हें पूर्ण विश्वास था कि उमा और रतन इस समय वहाँ अवश्य होंगे। उन्हें मिलने का अवसर देने के लिए आज वे प्रातःकाल से ही घर से बाहर चले गये थे। वे पास ही पड़ी हुई एक बेंच पर बैठ गये, मस्तिष्क में विचार-तरङ्गे उठने लगीं।

बिहारी आत्म-विस्मृत की दशा में बड़ो देर तक बैठ रहे। सहसा उन्होंने चौंककर सामने देखा। चन्द्रमा की स्वर्ण रश्मियाँ पत्तों के झुर्मुट से छन-छनकर वाटिका में मन्द-मन्द रहस्यमय प्रकाश फैला रही थीं। स्वर्ण-रक्त-रञ्जिय चन्द्रमा ऐसा जान पड़ता था, मानो किसी सुन्दरी के मुख पर लज्जावश गुलाबी दौड़ गई हो। बिहारी को किसी के बात-चीत करने की आहट मिली। वे उठकर शीघ्रता से एक सघन वृक्ष की आड़ में छिपकर देखने लगे। आगन्तुक कोई और नहीं, उमा और रतन ही थे। दोनों पास आ गये। बिहारी के कौतूहल का इस समय कुछ ठिकाना न था।

रतन ने कहा—आज मेरे जीवन का स्वर्ण-दिवस है।

उमा ने मुस्कुराकर उत्तर दिया—और मेरा भी।

अपने भाग्य को धन्यवाद दूँ, या इन प्यारे हाथों को—यह कहते हुए रतन ने उमा की कोमल हथेली अपने जलते हुए हाथों में ले ली और तप्त अधरों से उस पर प्रेम का प्रथम चिह्न अङ्कित कर दिया।

बिहारी को अब अधिक प्रमाण की आवश्यकता न थी। वे अब ज्यादा न देख सके, झपटे और क्रोध एवं घृणा की मूर्ति बने हुए उन दोनों के सामने जाकर खड़े हो गये। उमा और रतन क्षण-भर तक हतबुद्धि से ताकते रहे। आश्चर्य और क्षुद्रता मूर्तिमान हो गई थी। उमा सँभली और चुपचाप वाटिका से बाहर चली गई। रतन ने भी जाना चाहा; किन्तु बिहारी ने व्यंग्य-वाक्य से रोककर कहा—जाते कहाँ हैं महोदय? ठहरिए, मेरी भी सुनते जाइए। रतन अपराधी बालक के सदृश ठिठककर रह गये।

बिहारी ने घृणा-मिश्रित क्रोध से कहा—रतन, क्या दोस्ती और मुरौवत-का बदला यहीं रह गया है? किसी दुश्मन के गले पर छुरी चलाते, तो मरदानगी होती, यह क्या कि दोस्त ही का गला काटो।

रतन कोई उत्तर न दे सके। बिहारी का क्रोध दुगना हो गया,नेत्रों से ज्वाला निकलने लगी।

'बोलो, क्या जवाब देते हो? बोलो, नहीं तो इसी पिस्तौल से अपना और तुम्हारा दोनों का भेजा उड़ा दूंगा।'—बिहारी ने पतलून की जेब से एक रिवाल्वर निकाल लिया।

रतन का हृदय भय से काँप उठा। बचने का कोई मार्ग दिखाई न दिया। सहसा उन्हें एक उपाय सूझा। उन्होंने जेब से एक कागज़ निकाला। यह उमा का पत्र था। रतन ने बिहारी को पत्र देकर कहा—बिहारी, इसमें मेरा ही क़सूर नहीं। यह ख़त इस बात का सबूत है।

बिहारी ने पत्र को ले लिया और दिया सलाई जलाकर उसके प्रकाश में पढ़ा। बिहारी का विचार था कि सारा अपराध रतन का है; लेकिन पत्र से बात कुछ और हुई। बिहारी पत्र लिये हुए बाग़ से बाहर चले गये।

रतन वहीं मूर्त्तिवत् खड़े रह गये। आवेश में आकर उन्होंने पत्र दे तो दिया; परन्तु क्षण-भर में अपनी भूल ज्ञात हो गई, उनका हृदय खेद और ग्लानि से भर गया। लज्जा से कटे जाते थे—कैसी घोर नीचता है! कैसी अक्षम्य कायरता! प्रेमिका के पत्र को जिसका मूल्य प्राणों से अधिक होना चाहिए, प्राण-रक्षा का यन्त्र बनाना—इससे घृणित कौन-सी कायरता हो सकती है। यदि प्राण देकर भी रतन को पत्र बापस मिल सकता तो उन्हें उसे लेने में तनिक भी संकोच न होता; किन्तु यह वैसा ही कठिन था, जैसे मुख से निकली हुई बात या कमान से निकले हुए तीर का वापस लौटना!

(९)

उमा खेद और दुख की मूर्ति बनी हुई बैठी थी—खेद इस आकस्मिक घटना पर था; दुःख भण्डा फूट जाने का। बिहारी ने कमरे में प्रवेश किया। उसके मुख पर वह गाम्भीर्य था, जो क्रोध और घृणा की अन्तिम सीमा है। बिहारी ने उमा के सामने उसका प्रेम-पत्र फेंक दिया; किन्तु मुख से कुछ न कह सके। उमा पर वज्रपात-सा हुआ। उसके लिए वह पत्र वैसा ही था, जैसे अभियुक्त के लिए अदालत का फैसला। उमा हत-बुद्धि-सी मूर्तिवत् बैठी रही।

उमा की खामोशी ने बिहारी की जवान खोल दी—उमा,मुझे तुमसे ऐसी आशा न थी। मुझे स्वन में भी यह आशङ्का न थी कि तुम इतना नीचे गिर जाओगी। ऐसा छिछोरापन! मेरे विश्वास का यों मटियामेट!

उमा अब अधिक न सुन सकी। अपराधी मनुष्य साधु-चरित्र आदमी की कड़ी-से-कड़ी बात सुन सकता है; किन्तु उस मनुष्य का साधारण आक्षेप भी असह्य हो जाता है, जिसके चरित्र के विषय में उसे स्वयं सन्देह हो। उमा को केवल सन्देह ही नहीं था, उसके पास प्रमाण भी था। फिर वह बिहारी की बातें कैसे सह लेती? प्रतिघात की मात्रा प्रबल हो गई। उमा का अङ्ग-अङ्गल फड़कने लगा। उसकी दशा छेड़ी हुई सर्पिणी के समान हो गई। उमा ने बिहारी को सरोष नेत्रों से देखकर उत्तर दिया-लेकिन इसकी सारी जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर है। क्या तुमने प्रेम का स्वाँग भरकर मुझे जाल में नहीं फंसाया? मेरी आशाओं का खून नहीं किया? तुम्हें मुझसे नहीं मेरे धन से प्रेम था।

"यह सरासर झूठा आक्षेप है मेरा प्रेम सत्य था और मैं उस पर अब से घण्टे-भर पहले दृढ़ रहा हूँ; लेकिन अब मेरी आँखों का परदा उठ गया।"

"झूठ नहीं बिलकुल सच है, तुमने मेरे साथ विश्वासघात किया बाजारू औरतों के पीछे दौड़ते फिरे।"

बिहारी ने कृत्रिम क्रोध से कहा—उमा अब मैं ज्यादा सहन नहीं कर सकता। अपनी करतूतों पर पर्दा डालने के लिए, मुझ पर मिथ्या आक्षेप करती हो।

"यह बात झूठी नहीं है, मेरे पास इसका सबूत है"—यह कहकर उमा उठी और अपने शृंगार-गृह में चली गई। सन्दूक खोलकर एक पत्र निकाला। यह श्यामा का वही पत्र था, जिसे उसने बिहारी की जेब से निकाल लिया था। उमा ने पत्र लाकर बिहारी के सामने फेंक दिया। बिहारी ने पत्र उठाकर पढ़ा और उमा की ओर आश्चर्य-पूर्ण नेत्रों से देखा। वे निरुत्तर हो गये, अधिक कुछ न कह सके। उमा उठकर बाहर चली गई। उसके नेत्रों में विजय-गर्व था।

उमा जीती अवश्य; किन्तु उसके हृदय में विजय का आह्लाद न था, पराजय की दारुण-वेदना थी। सजग आत्मा हृदय में चुटकियाँ ले रही थी। अधिकारों की रक्षा के लिए चरित्र का बलिदान! आज वह स्वयं अपनी दृष्टि में गिर गई। वह धन और वैभव की गोद में पली थी, प्रेम और स्नेह उसके जीवन का आधार था। आज वह प्रेम के लिए किसका मुँह ताके-पुरुष समाज का, जो आज उसे धूर्तों एवं कायरों से भरा दिखाई देता था? अब वह जीवित रहे, तो किसके बल पर? उसे अपना अस्तित्व शून्य एवं निरर्थक जान पड़ता था। उमा अभिमानिनी थी। जब वह अपने श्रृङ्गार-गृह में जाकर शीशे के सामने खड़ी होती, और अपनी सुन्दरता अवलोकन करती, तब उसके नेत्रों में गर्व का मद छा जाता, हृदय में विजय-कामना हिलोरें लेने लगती। आज उसने शीशे के सामने खड़े होकर अपने एक-एक अङ्ग को ध्यान से देखा; किन्तु आज वह आनन्द, वह उल्लास न प्राप्त हुआ। उसे अपने सौन्दर्य से भी घृणा हो गई।

(१०)

बिहारी का क्रोध अब बिलकुल शान्त हो गया था! वे वाटिका में बैठे हुए घटना-क्रम पर निष्पक्ष होकर विचार कर रहे थे। उमा के ये शब्द कि 'इसकी सारी ज़िम्मेदारी तुम्हारे ऊपर है' अभी तक उनके कानों गूंज रहे थे। वे ज्यों-ज्यों विचार करते, उन्हें अपना ही दोष दिखाई देता। यदि मैं श्यामा के कृत्रिम प्रेम में न फँसता, तो आज यह दिन क्यों देखना पड़ता? यद्यपि मैंने स्वार्थ वश उमा से विवाह किया था; किन्तु उमा मुझसे प्रेम करती थी, यदि वह मुझसे प्रेम न करती होती, तो रतन को छोड़कर मुझसे विवाह ही क्यों करती? मेरे हृदय में शनैः-शनैः में अंकुरित हुआ—हाँ, यह निरन्तर सहवास के कारण अवश्य था। हम दोनों एक दूसरे के साथ सुखी थे; परन्तु मैंने स्वयं अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारी। उमा के प्रेम की अवहेलना की। ऐसी दशा में मुझसे उसके मन का फिर जाना स्वाभाविक ही था। यह मानव-स्वभाव है, इसमें उमा का दोष नहीं? सारा उत्तरदायित्व मुझ पर ही है। जब सारा दोष मेरा ही है, तब मुझे उमा से नाराज़ होने का कोई हक़ नहीं। अब क्या करुँ? उमा से मेल कर लेना चाहिए।

इस निश्चय के बाद बिहारी उठकर भीतर गये। ड्राइंग-रूम में दीवार पर लगी हुई घड़ी में डेढ़ बजा था। बिहारी ने सोचा—उमा सो रही होगी। वे शयनागार की ओर गये। धीरे से दरवाजा खोला और भीतर प्रवेश किया। मेज पर जलती हुई मोमबत्ती ऐसी जान पड़ती थी, मानों किसी क़बर पर जलता हुआ चिराग़ आँसू बहा रहा हो। उमा पलग पर पड़ी हुई थी। ऐसा जान पड़ता था, मानो कमरे में फैला हुआ प्रकाश उसके लावण्य का प्रकाश है। बिहारी धीरे-धीरे आगे बढ़े। वे झुके और उमा के बन्द नेत्रों पर क्षमा और प्रेम का चिह्न अङ्कित कर दिया; परन्तु सहसा वे चौंक पड़े और उमा के मुख की ओर ध्यान से देखने लगे। कलाई पर हाथ रक्खा, नब्ज का कहीं पता न था। हृदय पर हाथ रक्खा, गति स्थगित हो चुकी थी। चिराग बुझ चुका था, यात्रा समाप्त हो चुकी थी। उमा का निर्जीव शरीर मृत्यु-शय्या पर पड़ा था। फर्श पर एक खाली शीशी पड़ी थी, जिस पर अँगरेजी अक्षरों में लिखा था-'विष'। बिहारी के मुख से एक चीख निकल गई। वे लास से लिपट गये। बिहारी के प्रेमाश्रु से भीगा हुआ उमा का आभाहीन मुख ऐसा जान पड़ता था, मानो अरुणोदय के समय ओस में नहाया हुआ कोमल पुष्प हो!





श्रीप्रेमचंदजी के


(१) मौलिक-उपन्यास


कायाकल्प ३॥) प्रेमाश्रम ३॥)
रंगभूमि ६) सेवासदन ३)
वरदान २) निर्मला २॥)
ग़बन ३।।) प्रतिज्ञा १॥)
(२) गल्प संग्रह


प्रेम-पुर्णिमा २) प्रेम-प्रसून १॥)
प्रेम-प्रमोद २॥) प्रेम-प्रतिमा २)
प्रेम-पच्चीसी २॥) प्रेम-तीर्थ १॥)
सप्तसरोज ॥) नवनिधि ॥।)
प्रेम-द्वादशी १।) प्रेम-चतुर्थी ॥)
पाँच-फूल ।।।) सप्त-सुमन ।।)


(३)नाटक
संग्राम १॥) कर्बला २)
(४)अनुवादित तथा संकलित
आज़ाद कथा (पहला भाग)२॥)
" " (दूसरा भाग) २)
अहंकार॥=)महात्मा शेखशादी॥)
गल्प-समुच्चय २॥) अवतार॥)
गल्प रत्न १)


भारत-विख्यात


उपन्यास सम्राट्


श्रीप्रेमचंदजी


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सरस्वती-प्रेस,बनारस सिटी