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ग़बन

विकिस्रोत से
ग़बन  (1936) 
प्रेमचंद

इलाहाबाद: हंस प्रकाशन, पृष्ठ १ से – २१ तक

 

ग़ ब न

प्रेमचंद






हंस प्रकाशन,

इलाहाबाद




प्रकाशक। मुद्रक

हंस प्रकाशन। भार्गव प्रेस

इलाहाबाद

२७ वाँ संस्करण। सर्वाधिकार

५००० अगस्त १९६०। सुरक्षित है

मूल्य रु. ५००









ग़बन



बरसात के दिन है, सावन का महीना। आकाश में सुनहरी घटाएँ छायी हुई हैं। रह-रहकर रिम-झिम वर्षा होने लगती है। अभी तीसरा पहर है ; पर ऐसा मालूम हो रहा है, शाम हो गयी। ग्रामों के बागों में झूला पड़ा हुआ है। लड़कियाँ भी झूल रही हैं और उनकी माताएं भी। दो-चार झूल रही है, दो-चार झुला रही है। कोई कजली गाने लगती है, कोई बारहमासा । इस ऋतु में महिलाओं की बाल-स्मृतियां भी जाग उठती हैं। ये फुहारें मानों चिन्ताओं को हृदय से धो डालती है, मानो मुरझाये हुए मन को भी हरा कर देती है। सबके दिल उमंगों से भरे हुए हैं। यानी साड़ियों ने प्रकृति की हरियाली से नाता जोड़ा है।

इसी समय एक बिसाती आकर झूले के पास खड़ा हो गया । उसे देखते ही झूला बन्द हो गया । छोटी-बड़ी सबों ने आकर उसे घेर लिया। बिसाती ने अपना सन्दुक खोला और चमकती-चमकती चीजें निकाल कर दिखाने लगा । कच्चे मोतियों के गहने थे, कच्चे लैस और गोटे, रंगीन मोजे खूबसूरत गुड़ियां और गुड़ियों के गहने, बच्चों के लट्टू और झुनझुने। किसी ने कोई चीज ली, किसी ने कोई चीज । एक बड़ी-बड़ी आंखों वाली बालिका ने वह चीज पसन्द की, जो उन चमकती हुई चीजों में सबसे सुन्दर थी। वह फिरोजी रंग का एक चन्द्रहार था ! मां से बोली-अम्मा; मैं हार लूंगी।

मां ने बिसाती से पूछा-बाबा, यह हार कितने का है।

बिसाती ने हार को रुमाल से पोंछते हुए कहा- खरीद तो बीस आने की है,मालकिन जो चाहें दे दें।

माता ने कहा- यह तो बड़ा महंगा है। चार दिन में इस की चमक दमक जाती रहेगी।

बिसाती ने मार्मिक भाव से सिर हिला कर कहा- बहू जी, चार दिन में तो बिटिया को असली चन्द्रहार मिल जायगा!

माता के हृदय पर इन सहृदयता से भरे हुए शब्दों ने चोट की। हार ले लिया गया।

बालिका के आनन्द की सीमा न थी। शायद हीरों के हार से भी उसे इतना आनंद न होता । उसे पहन कर वह सारे गांव में नाचती फिरी। उसके पास जो बाल-सम्पत्ति थी, उसमें सबसे मूल्यवान्, सबसे प्रिय यही बिल्लौर का हार था। लड़की का नाम जालपा था, माता का मानकी।

महाशय दीनदयाल प्रयाग के एक छोटे से गांव में रहते थे। वह किसान न थे पर खेती करते थे। वह जमींदार न थे पर जमींदारी करते थे। थानेदार न थे पर थानेदारी करते थे। वह थे जमीदार के मुख्तार । गांव पर उन्हीं की धाक थी। उनके पास चार चपरासी थे, एक घोड़ा, कई गायें-भैंसें । वेतन कुल पांच रुपये पाते थे, जो उनके तम्बाकू के खर्च को भी काफी न होता था । उनको आय के और कौन से मार्ग थे, यह कौन जानता है ! जालपा उन्हीं की लड़की थी। पहले उसके तीन भाई और थे ; पर इस समय वह अकेली थी। उससे कोई पूछता-तेरे भाई क्या हुए, तो वह बड़ी सरलता से कहती-बड़ी दूर खेलने गए है ! कहते हैं, मुख्तार साहब ने एक गरीब आदमी को इतना पिटवाया था कि वह मर गया था। उसके तीन वर्ष के अन्दर तीनों लड़के जाते रहे। तब से बेचारे बहुत संभलकर चलते थे । फूंक-फूंक कर पांव रखते; दूध के जले थे, छांछ भी फूंक-फूंक कर पीते थे। माता-पिता के जीवन में और क्या अवलम्ब!

दीनदयाल जब कभी प्रयाग जाते, तो जालपा के लिये कोई-न-कोई आभूषण जरूर लाते । उनकी व्यावहारिक बुद्धि में यह विचार ही न आता था कि जालपा किसी और चीज से अधिक प्रसन्न हो सकती है । गुड़िया और खिलौने वह व्यर्थ समझते थे, इसलिए जालपा आभूषणों से ही खेलती थी, यही उसके खिलौने थे। यह बिल्लौर का हार, जो उसने बिसाती से लिया था. अब उसका सबसे प्यारा खिलौना था। असली हार की अभिलाषा अभी उसके मन में उदय ही नहीं हुई थी । गांव में कोई उत्सव होता
या कोई त्योहार पड़ता, तो वह उसी हार को पहनती । कोई दूसरा गहना उसकी आँखों में जँचता ही न था।

एक दिन दीनदयाल लौटे तो मानकी के लिए एक चन्द्रहार लाये ।

मानकी को यह साध बहुत दिनों से थी । यह हार पाकर वह मुग्ध हो गई।

जालपा को अब अपना हार अच्छा न लगता । पिता से बोली-बाबूजी, मुझे भी ऐसा ही हार ला दीजिए !

दीनदयाल ने मुसकराकर कहा-ला दूंगा, बेटी !

'कब ला दीजिएगा?'

'बहुत जल्द ।'

बाप के शब्दों से जालपा का मन न भरा । उसने माता से जाकर कहा-अम्माजी, मुझे भी अपना-सा हार बनवा दो।

मां-वह तो बहुत रुपयों में बनेगा बेटी !

जालपा-तुमने अपने लिए बनवाया है, मेरे लिए क्यों नहीं बनवाती !

मां ने मुसकराकर कहा-तेरे लिए तेरी ससुराल से आएगा।

यह हार छः सौ में बना था। इतने रुपये जमा कर लेना दीनदयाल के लिए, आसान न था। ऐसे कौन बड़े शोहदेदार थे। बरसों में कहीं यह हार बनने की नौबत आयी थी । जीवन में फिर कभी इतने रुपये आयेगें इसमें उन्हें सन्देह था।

जालपा लजा कर भाग गयी; पर यह शब्द उसके हृदय में अंकित हो गए। ससुराल उसके लिए अब उतनी भयंकर न थी। ससुराल से चन्द्रहार आयगा, वहां के लोग उसे माता-पिता से अधिक प्यार करेंगे । तभी तो जो चीज ये लोग नहीं बनवा सकते, वह वहां से आएगी। लेकिन ससुराल से न आए तो? उसके सामने तीन लड़कियों के विवाह हो चुके थे, किसी की ससुराल से चन्द्रहार न आया था। कहीं उसकी ससुराल से भी न आया तो? उसने सोचा-तो क्या माताजी अपना हार मुझे न दे देंगी ! अवश्य दे देंगी।

इस तरह हंसते-हँसते सात वर्ष कट गए ! और वह दिन भी आ गया, जब उसकी चिर-संचित अभिलाषा पूरी होगी।

मुंशी दीनदयाल की जान-पहचान के आदमियों में एक महाशय दयानाथ थे-बड़े ही सज्जन और सहृदय। कचहरी में नौकर थे, और पचास रुपये वेतन पाते थे। दीनदयाल अदालत के कीड़े थे। दयानाथ को उनसे सैकड़ों ही बार काम पड़ चुका था! चाहते तो हजारों वसूल करते पर कभी एक पैसे के भी रबादार नहीं हुए। कुछ दीनदयाल के साथ ही उनका यह सलूक न था-यह उनका स्वभाव था। यह बात भी न थी कि वह बहुत ऊँचे आदर्श के आदमी हो; पर रिश्वत को हराम समझते थे! शायद इसलिए कि वह अपनी आँखों से इसके कुफल देख चुके थे। किसी को जेल जाते देना था, किसी को संतान से हाथ धोते; किसी को कुव्यसनों के पंजे में फँसते; उन्हें कोई मिसाल न मिलती थी, जिसने रिश्वत लेकर चैन किया हो। उनकी यह दृढ़ धारणा हो गई थी कि हराम की कमाई हराम ही में जाती है। यह बात वह कभी न भूलते।

इस जमाने में ५० की भुगत ही क्या! पांच आदमियों का पालन बड़ी मुश्किल से होता था। लड़के अच्छे कपड़ों को तरसते, स्त्री गहने को तरसती पर दयानाथ विचलित न होते थे! बड़ा लड़का दो ही महीने तक कालेज में रहने के बाद पढ़ना छोड़ बैठा। पिता ने साफ कह दिया-मैं तुम्हारी डिगरी के लिए सबको भूखा और नंगा नहीं रख सकता। पढ़ना चाहते हो, तो अपने पुरुषार्थ से पढ़ो। बहुतों ने किया है, तुम भी कर सकते हो। लेकिन रमानाथ में इतनी लगन न थी। इधर दो साल से बह बिलकुल बेकार था। शतरंज खेलता, सैर-सपाटे करता और मां और छोटे भाइयों पर रोब जमाता। दोस्तों की बदौलत शौक पूरा होता रहता था। किसी का चेस्टर मांग लिया और शाम को हवा खाने निकल गये। किसी का पंपशू पहन लिया, किसी की घड़ी कलाई पर बांध ली। कभी बनारसी फैशन में निकले, कभी लखनवी फैशन में। इस मित्रों ने एक-एक कण्डा बनवा लिया, तो इस सूट बदलने का साधन हो गया। सहकारिता का यह बिल्कुल नया उपयोग था। इसी युवक को दीनदयाल ने जालपा के लिए पसन्द किया। दयानाथ शादी नहीं करना चाहते थे। उनके पास न रुपये थे और न एक नये परिवार का भार उठाने की हिम्मत; पर जागेश्वरी ने बिना हट से

काम लिया और इस शक्ति के सामने पुरुष को झुकना पड़ा। जागेश्वरी बरसों से पुत्र वधू के लिए तड़प रही थी। जो उसके सामने बहुएँ बनकर आयीं, वे आज पोते खिला रही हैं, फिर दुखिया को कैसे धैर्य होता? वह कुछ-कुछ निराश हो चली थी। ईश्वर से मनाती थी कि कहीं से बात आए। दीनदयाल ने सन्देशा भेझा, तो उनको आंख-सी मिल गयीं। अगर कहीं यह शिकार हाथ से निकल गया, तो फिर न जाने कितने दिनों और राह देखनी पड़े। कोई यहां क्यों आने लगा। न धन ही है, न जायदाद, लड़के पर कौन रीझता है, लोग तो धन देखते हैं। इसलिए उसने इस अवसर पर सारी शक्ति लगा दो और उसकी विजय हुई।

दयानाथ ने कहा--भाई, तुम जानो तुम्हारा काम जाने। मुझमें समाई नहीं है। जो आदमी अपने पेट की फ़िक्र नहीं कर सकता, उसका विवाह करना मुझे तो अधर्म-सा मालूम होता है। फिर रुपये की भी तो फ़िक्र है। एक हजार तो टीमटाम के लिए चाहिए, जोड़े और गहने के लिए अलग। ( कानों पर हाथ रखकर ) न बाबा ! यह बोझ मेरे मान का नहीं!

जागेश्वरी पर इन दलीलों का कोई असर न हुआ। बोलो--वह भी तो कुछ देगा।

'मैं उससे मांगने तो जाऊँगा नहीं।'

'तुम्हारे मांगने की जरूरत ही न पड़ेगी। वह खुद ही देंगे। लड़को के ब्याह में पैसे का मुँह कोई नहीं देखता। हाँ, मुकद्दर चाहिए, सो दीनदयाल पोढ़े आदमी है। और फिर यही एक सन्तान है, बचाकर रखेंगे, तो किसके लिए?

दयानाथ को अब कोई बात न सुझी, केवल यही कहा--वह चाहे लाख दें चाहे एक न दें, मैं न कहूंगा कि दो, न कहूँगा कि मत दो। कर्ज मैं लेना नहीं चाहता और लूं, तो दूंगा किसके घर से!

जागेश्वरी ने इस बाधा को मानो हवा में उड़ाकर कहा--मुझे तो विश्वास है कि वह टोके में एक हजार से कम न देंगे। तुम्हारे टीमटाम के लिए इतना बहुत है। गहनों का प्रबन्ध किसो सराफ से कर लेना। टीके में एक हजार देंगे तो क्या द्वार पर एक हजार भी न देंगे? वही

रुपये सराफ़ को दे देना। दो-चार सौ बाकी रहे, वह धीरे-धीरे चुक जायेंगे। बच्चा के लिए कोई-न-कोई द्वार खुलेगा ही।

दयानाथ ने उपेक्षा-भाव से कहा--खुल चुका। जिसे शतरंज और सैरसपाटे से फुरसत न मिले, उसे सभी द्वार बन्द मिलेंगे।

जागेश्वरी को अपने विवाह की याद आयी। दयानाथ भी तो गुलछर्रे उड़ाते थे; लेकिन उसके आते ही उन्हें चार पैसे कमाने की फिक्र कैसी सिर पर सवार हो गयी थी। साल भर भी न बीतने पाया था कि नौकर हो गये। बोली--बहू आ जायगी, तो उसकी आँखें भी खुलेंगी, देख लेना। अपनी बात याद करो। जब तक गले में जूआ नहीं पड़ा है, तभी तक यह कुलेलें हैं। जूआ पड़ा और सारा नशा हिरन हुआ। निकम्मों को राह पर लाने का इससे बढ़कर और कोई उपाय ही नहीं।

जब दयानाथ परास्त हो जाते थे, तो अखबार पढ़ने लगते थे। अपनी हार को छिपाने का उनके पास यही साधन था।

मुंशी दीनदयाल उन आदमियों में से थे, जो सीधों के साथ सीधे होते है, पर टेढ़ों के साथ टेढ़े ही नहीं, शैतान हो जाते हैं। दयानाथ बड़ा-सा मुँह खोलते, हजारों की बातचीत करते, तो दीनदयाल उन्हें ऐसा चकमा देते कि वह उम्र भर याद करते। दयानाथ की सज्जनता ने उन्हें वशीभूत कर लिया। उनका विचार एक हजार देने का था; पर एक हजार टीके में दे आये। मानकी ने कहा--जब टीके में एक हजार दिया, तो इतना घर पर भी देना पड़ेगा। आएगा कहां से!

दीनदयाल चिढ़कर बोले--भगवान मालिक है। जब उन लोगों ने उदारता दिखायी और लड़का मुझे सौंप दिया, तो मैं भी दिखा देना चाहता हूँ कि हम भी शरीफ हैं और शील का मूल्य पहचानते हैं। अगर उन्होंने हेकड़ी जताई होती, तो अलबत्ता उनकी खबर लेता।

दीनदयाल एक हजार तो दे आये, पर दयानाथ का बोझ हल्का करने के बदले और भारी कर दिया। वह कर्ज से कोसों भागते थे। इस शादी में उन्होंने 'मियां की जूती मियां के सर' वाली नीति निभाने की ठानी थी; पर दीनदयाल की सहृदयता ने उनका संयम तोड़ दिया। वे सारे टीमटाम

नाच-तमाशे, जिनकी कल्पना का गला उन्होंने घोंट दिया था, बृहद् रूप धारण करके सामने आ गये। बँधा हुआ घोड़ा थान से खुल गया, उसे कौन रोक सकता है। धूमधाम से विवाह करने की उन गयी। पहले जोड़े-गहने को उन्होंने गौण समझ रखा था, अब वही सबसे मुख्य हो गया। ऐसा चढ़ाव हो कि मड़वेवाले देखकर फड़क उठें। सबकी आँखें खुल जायें। कोई तीन हजार का सामान बनवा डाला। सराफ़ को एक हजार के लिए एक सप्ताह का वादा हुआ तो उसने कोई आपत्ति न की। सोचा दो हजार सीधे हुए जाते हैं, पांच-सात सौ रुपये रह जायेंगे, वह कहां जाते हैं। व्यापारी की लागत निकल आती है, तो नफे को तत्काल पाने के लिए आग्रह नहीं करता। फिर भी चन्द्रहार की कसर रह गयी। जड़ाऊ चन्द्रहार एक हजार से नीचे अच्छा नहीं मिल सकता था। दयानाथ का जी तो लहराया कि लगे हाथ उसे भी ले लो, किसी को नाक सिकोड़ने की जगह तो न रहेगी, पर जागेश्वरी इस पर राजी न हुई।

बाजी पलट चुकी थी!

दयानाथ ने गर्म होकर कहा--तुम्हें क्या, तुम तो घर में बैठी रहोगी। मौत मेरी होगी, जब उधर के लोग नाक-भौं सिकोड़ने लगेंगे।

जागेश्वरी--दोगे कहां से, कुछ सोचा है?

दयानाथ--कम-से-कम एक हजार वहां मिल जायेंगे।

जागेश्वरी--खून मुँह लग गया क्या?

दयानाथ ने शरमाकर कहा--नहीं-नहीं मगर आखिर वहां भी तो कुछ मिलेगा?

जागेश्वरी--वहां मिलेगा तो वहां खर्च भी होगा। नाम जोड़े गहने से नहीं होता, दान-दक्षिणा से होता है।

इस तरह चन्द्रहार का प्रस्ताव रद्द हो गया।

मगर दयानाथ दिखाबे और नुमाइश को चाहे अनावश्यक समझे, रमानाथ उसे परमावश्यक समझता था। बारात ऐसे धूमधाम से जानी चाहिए कि गांव भर में शोर मच जाय। पहले दूल्हे के लिए पालकी का विचार था। रमानाथ ने मोटर पर जोर दिया। उसके मित्रों ने इसका अनुमोदन किया, प्रस्ताव स्वीकृत हो गया। दयानाथ एकान्तप्रिय जीव थे,

न किसी से मित्रता थी, न किसी से मेलजोल। रमानाथ मिलनसार युवक था। उसके मित्र ही इस समय हर एक काम में अग्रसर हो रहे थे। जो काम करते, दिल खोलकर। आतिशबाजियां बनवाई, तो अव्वल दर्जे की। नाच ठीक किया तो अव्वल दर्जे का, गाजे-बाजे भो अव्वल दर्जे के। दोयम या सोयम का यहां जिक ही न था। दयानाथ उसकी उच्छृंखलता देखकर चिंतित हो जाते थे, पर कुछ कह न सकते थे। क्या कहते?

नाटक उस बक्त पास होता है; जब रसिक समाज उसे पसन्द कर लेता है। बारात का नाटक उस वक्त पास होता है, जब राह चलते आदमी उसे पसन्द कर लेते हैं। नाटक की परीक्षा चार-पांच घंटे तक होती रहती है, बारात की परीक्षा के लिए केवल इतने ही मिनटों का समय होता है। सारी सजावट, सारी दौड़ धूप और तैयारी का निपटारा पांच मिनटों में हो जाता है। अगर सबके मुंह से वाह-वाह' निकल गया, तो तमाशा पास, नहीं फेल! रूपया, मेहनत, फिक्र, सब अकारथ। दयानाथ का तमाशा पास, हो गया। शहर में वह तीसरे दर्जे में आता, गांव में अव्वल दर्जे में आया। कोई बाजों की धो-धों पों-पों सुनकर मस्त हो रहा था, कोई मोटर को अांखें फाड़-फाड़ कर देख रहा था, कुछ लोग फुलवारियों के तहते देखकर लोट-लोट जाते थे। आतिशबाजी सबके मनोरंजन का केन्द्र थी। हवाइयाँ जब सन्न से ऊपर जाती, और आकाश में लाल, हरे, नीले, पोले कुमकुमे से बिखर जाने और जब चर्खियां छुटती और उनमें नाचते हुए मोर निकल आते, तो लोग मंत्र-मुन्ध से हो जाते थे। बाह, क्या कारीगरी है।

जालपा के लिए इन चीजों में लेशमात्र भी आकर्षण न था। हां, वह वर को एक आँख देखना चाहती थी, वह भी सबसे छिपाकर; पर उस भीड़-भाड़ में ऐसा अवसर कहाँ। द्वारचार के समय उसकी सखियां उसे छत पर खींच ले गयी और उसने रमानाथ को देखा। उसका सारा विराग, सारी उदासीनता मानों छूनन्तर हो गयी थी। मुंह पर हर्ष की लालिमा छा गयी। अनुराग स्फूर्ति का भंडार है।

द्वारचार के बाद बारात जनबासे चली गयी। भोजन की तैयारियाँ होने लगा। किसी ने पूरिया खायौं, किसी ने उपनों पर खिचड़ी एकायो।

ग़बन
 
देहात के तमाशा देखनेवालों के मनोरंजन के लिए नाच-गाना होने लगा।

दस बजे सहसा फिर बाजे बजने लगे। मालूम हुआ कि चढ़ाव आ रहा है। बारात में हर एक रस्म डंके की चोट अदा होती है। दूल्हा कलेवा करने आ रहा है, बाजे बजने लगे। समधी मिलने आ रहा है, बाजे बजने लगे। चढ़ाव ज्योंही पहुंचा, घर में हलचल मच गयी। स्त्री, पुरुष, बूढ़े, जवान, सब चढ़ाव देखने के लिए उत्सुक थे। ज्योंही किश्तियाँ मंडप में पहुंचीं, लोग सब काम छोड़कर देखने दौड़े। आपस में धक्कम-धक्का होने लगा। मानकी प्यास से बेहाल हो रही थी, कंठ सूखा जाता था, चढ़ाव आते ही प्यास भाग गयी। दीनदयाल मारे भूख-प्यास के निर्जीव से पड़े थे। यह समाचार सुनते ही सचेत होकर दौड़े। मानकी एक-एक चीज को निकाल-निकाल कर देखने-दिखाने लगी। वहाँ सभी इस कला के विशेषज्ञ थे। मर्दों ने गहने बनवाए थे, औरतों ने पहने थे, सभी आलोचना करने लगे। चूहेदन्ती कितनी सुन्दर है, कोई दस तोले की होगी। वाह! साढ़े ग्यारह तोले से रत्ती भर भी कम निकल जाय, तो कुछ हार जाऊँ! यह शेरदहाँ तो देखो, क्या हाथ को सफाई है! जी चाहता है कारीगर के हाथ चूम लें। यह भी बारह तोले से कम न होगा! वाह! कभी देखा भी है, सोलह तोले से कम निकल जाये तो मुंह न दिखाऊँ। हाँ, माल उतना चोखा नहीं है। यह कंगन तो देखो, बिलकूल पक्की जुड़ाई है, कितना बारीक काम है, कि आँख नहीं ठहरती। कैसा दमक रहा है। सच्चे नगीने हैं। झूठे नगीनों में यह आब कहाँ! चीज तो यह गुलूबंद है, कितने खूबसूरत फूल हैं! और उनके बीच के होरे कैसे चमक रहे हैं! किसी बंगाली ने बनाया होगा! क्या बंगालियों ने कारीगरी का ठेका ले लिया है? हमारे देश में एक से एक कारीगर पड़े हुए हैं। बंगाली सुनार बेचारे उनकी क्या बराबरी करेंगे।

इसी तरह एक-एक चीज को आलोचना होती रही। सहसा किसी ने कहा-चन्द्रहार नहीं है क्या?

मानकी ने रोती सूरत बनाकर कहा-नहीं, चन्द्रहार नहीं आया।

एक महिला बोली-अरे, चन्द्रहार नहीं आया!

ग़बन
 

दीनदयाल ने गम्भीर भाव से कहा-और सभी चीजें तो हैं; एक चन्द्रहार हो तो नहीं है।

उसी महिला ने मुँह बनाकर कहा-चन्द्रहार की बात और है।

मानकी ने चढाव को सामने से हटाकर कहा-बेचारी के भाग में चन्द्रहार लिखा ही नहीं है।

इस गोलाकार जमघट के पीछे अँधेरे में, आशा और भाकांक्षा की मूर्ति-सी जालपा भी खड़ी थी । और सब गहनों के नाम कान में आते थे, चन्द्रहार का नाम न आता था । उसको छाती धक्-वक् कर रही थी। चन्द्रहार नहीं है क्या ? शायद सबके नीचे हो । इस तरह वह मन को समझाती रही। जब मालूम हो गया, चन्द्रहार नहीं है, तो उसके क़लेजे पर चोट-सी लग गई। मालूम हुआ देह में रक्त की एक बूंद भी नहीं है। मानों उसे मूर्च्छा आ जायगो । वह लालसा जो सात वर्ष हुए उसके हृदय में अंकुरित हुई थी, जो इस समय पुष्प और पल्लव से लदी खड़ी थी, उस पर वज्रपात हो गया । वह हर-भरा लहलहाताहुआ पौदा जल गया-केवल उसकी राख रह गयी । आज ही के दिन पर तो उसकी समस्त आशाएँ अवलम्बित था । दुर्देव ने आज वह अबलम्ब भी छीन लिया । उस निराशा के आवेश में उसका ऐसा जी चाहने लगा कि अपना मुँह नोच डाले। उसका वश चलता तो वह चढ़ाव को उठाकर आग में फेंक देती । कमरे में एक आले पर शिव की मूर्ति रखी हुई थी। उसने उसे उठाकर ऐसा पटका कि उसकी आशाओं की भांति वह चूर-चूर हो गयी। उसने निश्चय किया कि मैं कोई अभूषण न पहनूंगी आभूषण पहनने से होला ही क्या है ? जो रूप विहीन हों, वे अपने को गहने से सजाएँ, मुझे तो ईश्वर ने यों ही सुन्दरी बनाया है। मैं गहने न पहन कर बुरी न लगूंगी। सस्ती चीजें उठा लाए, जिसमें रुपये खर्च होते थे, उसका नाम ही न लिया। अगर गिनती ही गिनानी थी, तो इतने ही दामों से इसके दूने गहने आ जाते !

वह उसी क्रोध में भरी बैठी थी, कि उसकी तीन सखियाँ आकर खड़ी हो गयीं । उन्होंने समझा था, जालना को अभी चढाव की कुछ खबर नहीं है, जालपा ने उन्हें देखते ही आँखें पोंछ डालीं और मुस्कराने लगी।

राधा मुस्कराकर बोली- जालपा, मालूम होता है,तूने बड़ी तपस्या की थी, ऐसा चढ़ाव मैंने आज तक नहीं देखा था। अब तो तेरी सब साथ पूरी हो गयी?

जालपा ने अपनी लम्बी-लम्बी पलकें उठाकर उसकी ओर ऐसे नेत्रों से देखा, मानों जीवन में अब उसके लिए कोई आशा नहीं है-हाँ बहन, सब साध पूरी हो गयी!

इन शब्दों में कितनी अपार मर्मान्तक वेदना भरी हुई थी, इसका अनुमान तीनों युवतियों में कोई भी न कर सकों! तीनों कुतूहल से उसकी और ताकने लगी, मानों उसका प्राशय उनकी समझ में न माया हो।

बासन्ती ने कहा--जी चाहता है, कारीगर के हाथ चूम लूं।

शहजादी बोली-चढ़ाव ऐसा ही होना चाहिए कि देखनेवाले फड़क उठे।

वासन्ती-तुम्हारी सास बड़ी चतुर जान पड़ती है, कोई चीज नहीं छोड़ी।

जालपा ने मुंह फेरकर कहा-~-ऐसा ही होगा।

राधा-और तो सब कुछ है, केवल चन्द्रहार नहीं है।

शहजादी--एक चन्द्रहार के न होने से क्या होता है बहन, उसको जगह गुलबन्द तो है।

जालपा ने बक्रोक्ति के भाव से कहा-हाँ, देह में एक माँख के न होने से क्या होता है! और सब अंग होते ही है, आँखें हुई तो क्या, न हुई तो क्या!

बालकों के मुंह से गम्भीर बातें सुनकर जैसे हमें हंसी आ जाती है, उसी तरह जालपा के मुंह से यह लालसा-भरी हुई बातें सुनकर, राधा और वासन्ती अपनी हँसी न रोक सकी। ही शहजादी को हँसी न आयी। यह प्राभूषणलालसा उसके लिए हँसने की बात नहीं, रोने की बात थी। कृत्रिम सहानुभूति दिखाती हुई बोली---सब न जाने कहाँ के जंगली हैं कि और सब चीजें तो लाये, चन्द्रहार न लाये, जो सब गहनों का राजा है। लाला अभी आते है तो पूछती हूँ कि तुमने यह कहाँ की रीति निकाली है-ऐसा अनर्थ भी कोई करता है।

राधा और वासन्ती दिल में कांप रही थी कि जालपा कहीं ताल न जाय। उनका बस चलता, तो शहजादी का मुँह बन्द कर देती, बार-बार उसे चुप रहने का इशारा कर रही थीं; मगर जालपा को शहजादी का व्यंग, समवेदना से परिपूर्ण जान पड़ा ! सजल नेत्र होकर बोली-क्या करोगी पूछकर बहन, जो होना था सो हो गया !

शहजादी-तुन पूछने को कहती हो, मै रुलाकर छोडूँगी। मेरे चढ़ाव पर कंगन नहीं आया था उस वक्त मन ऐसा खट्टा हुआ कि सारे गहनों पर लात मार दूं। जब तक कंगन न बन गये, मैं नींद भर सोई नहीं।

राधा-तो क्या तुम जानतो हो, जालपा का चन्द्रहार न बनेगा ? शहजादी-बनेगा तब बनेगा, इस अवसर पर तो नहीं बना। दस-पाँच की चीज तो नहीं, कि जब चाहा बनवा लिया, सैकड़ों का खर्च है। फिर कारीगर तो हमेशा अच्छे नहीं मिलते।

जालपा का भग्न हृदय शहनादी की इन बातों से मानों जी उठा, वह रुँधे कराठ से बोली-यही तो मैं भी सोचती हूँ बहन, जब आज न मिला तो फिर क्या मिलेगा !

राधा और वासन्ती मन-ही-मन शहजादी को कोस रही थीं और थप्पड़ दिखा-दिखाकर धमका रही थीं; पर शहजादी को इस वक्त तमाशे का मजा आ रहा था। बोली-नहीं, यह बात नहीं है जल्ली, आग्रह करने से सब कुछ हो सकता है। सास ससुर को बार-बार याद दिलाती रहना ! बहनोई जी से दो-चार दिन रूठे रहने से भी बहुत कुछ काम निकल सकता है। बस, यही समझ लो कि घर वाले चैन न लेने पायें, यह बात हरदम उनके ध्यान में रहे। उन्हें मालूम हो जाय कि बिना चन्द्रहार बनाये कुशल नहीं। तुम जरा भी ढोली पड़ीं और काम बिगड़ा।

राधा ने हंसो को रोकते हुए कहा-इनसे न बने तो तुम्हें बुला लें, क्यों, अब उठोगी या सारी रात उपदेश हो करती रहोगी !

शहजादी-चलती हूँ, ऐसी क्या भगदड़ पड़ी है। हाँ, खूब याद आयी, क्यों जल्ली, तेरो अम्मांजी के पास बड़ा अच्छा चन्द्रहार है, तुझे न देंगी ?

जालपा ने एक लम्बी साँस लेकर कहा-क्या कहूँ बहन, मुझे तो आशा नहीं है।

शहजादी-एक बार कहकर देखो तो, अब उनके कौन पहनने-ओढ़ने के दिन बैठे हैं।

१२
ग़बन
 

मालपा-मुझसे तो न कहा जायगा।

शहजादी-मैं कह दूँगी।

जालपा-नहीं-नहीं, तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ। मैं जरा उनके मातृ-स्नेह की परीक्षा लेना चाहती हूँ।

वासंती ने शहजादी का हाथ पकड़कर कहा-अब उठेगी भी कि यहाँ सारी रात उपदेश ही देती रहेगी।

शहजादी उठी, पर जालपा रास्ता रोककर खड़ी हो गई और बोली नहीं अभी बैठो बहन, तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ।

शहजादी-जब यह दोनों चुड़ैलें बैठने भी दें। मैं तो तुम्हें गुर सिखाती हूँ, और यह दोनों मुझ पर भल्लाती है। सुन नहीं रही हो, मैं भी विष की गाँठ हूँ।

वासंती-विष की गांठ तो तु है ही।

शहजादी-तुम भी तो ससुराल से साल भर बाद आयी हो, कौन-कौन-सी चीजें बनवा लायीं ?

वासंती-और तुमने तीन साल में क्या बनवा लिया ?

शहजादो-मेरी बात छोड़ो, मेरा खसम तो मेरी बात ही नहीं पूछता।

राधा-प्रेम के सामने गहनों का कोई मूल्य नहीं।

शहजादो-तो सूखा प्रेम तो तुम्हीं को फले !

इतने में मानकी ने आकर कहा-तुम तीनों यहाँ बैठकर क्या कर रही हो ? चलो, वहां लोग खाने पा रहे हैं !

तीनों युवतियां चली गयीं। जालपा माता के गले में चन्द्रहार की शोभा देखकर मन-ही-मन सोचने लगी-गाहनों से इनका जी अब तक नहीं भरा।

महाशय दयानाथ जितनी उमंगों से व्याह करने गये थे, उतना ही हतोत्साह होकर लौटे। दीनदयाल ने खूब दिया लेकिन वहां से जो कुछ मिला, वह सब नात्र-समाशे, नेग-चार में खर्च हो गया। बार-बार अपनी भूल पर पछताते, क्यों दिखावे और तमाशे मैं इतने रुपये खर्च किये ? इसकी जरूरत ही क्या थी? ज्यादा से ज्यादा लोग यही कहते-महाशय बड़े कृपय हैं। इतना सुन लेने में क्या हानि थी ? मैंने गांव वालों को तमाशा

ग़बन
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दिखाने का ठीका तो नहीं लिया था। यह सब रमा का साहस है, उसी ने सारे खर्चा बढा-बढाकर मेरा दिवाला निकाल दिया। और सब के तक जे खो दस-पांच दिन टल भी सकते थे, पर सराफ़ किसी तरह न मानता था। शादी के सातवें दिन उसे एक हजार रुपये देने का वादा किया था। सातवें दिन सराफ़ आया; मगर यहाँ रुपये कहाँ थे ? दयानाथ में लल्लो-चप्पो की आदत न थी; मगर आज उन्होंने चकमा देने की खूब कोशिश की। किस्त बांधकर सब रुपये छः महीने में अदा कर देने का वादा किया। फिर तीन महीने पर आये; मगर सराफ भी एक ही घुटा हुआ आदमी था, उसी वक्त टला जब दयानाथ ने तीसरे दिन बाकी रकम की चीजें लौटा देने का वादा किया, और यह भी उसकी सज्जनता ही थी। वह तीसरा दिन भी आ गया, और अब दयानाथ को अपनी लाज रखने का कोई उपाय न सुझता था। कोई चलता हुआ आदमी शायद इतना व्यग्र होता, हीले हवाले करके महाजन को महीनों टालता रहता; लेकिन, दयानाथ इस मामले में अनाड़ी थे।

जागेश्वरी ने आकर कहा-भोजन कब से बना ठंडा हो रहा है। खाकर तब बैठो।

दयानाथ ने इस तरह गर्दन उठायी, मानो सिर पर सैकड़ों मन का बोझ लदा हुआ है। बोले-तुम लोग जाकर खा लो, मुझे भूख नहीं है।

जागेश्वरी-भूख क्यों नहीं है, रात भी तो कुछ नहीं खाया था ? इस तरह दाना पानी छोड़ देने से महाजन के रूपये थोड़े ही अदा हो जायेंगे।

दयानाथ-मैं सोचता हूँ, उसे आज क्या जवाब दूंगा ? मैं तो विवाह करके बुरा फंस गया ? बहू कुछ गहने लौटा तो देगी?

जागेश्वरी-बहू का हाल तो सुन चुके, फिर भी उससे ऐसी आशा रखते हो। उसको टेक है कि जब तक चन्द्रहार न बन जायगा, कोई गहना हो न पहनूंगी। सारे गहने सन्दूक में बन्द कर रखे हैं। बस, वहीं एक बिल्लौरो हार गले में डाले हुए है। बहुएँ बहुत देखीं पर ऐसी बहू न देखी थी। फिर कितना बुरा मालूम होता है कि कल को आई बहू, उससे गहने छीन लिए जाय।

दयानाथ ने चिढ़कर कहा- तुम तो जले पर नमक छिड़कती हो,

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ग़बन
 

बुरा मालूम होता है, तो लाओ एक हजार निकाल कर दे दो, महाजन को दे आऊँ, देती हो? बुरा मुझे खुद मालूम होता है; लेकिन उपाय क्या है? गला कैसे छूटेगा?

जागेश्वरी--बेटे का व्याह किया है कि स्ट्ठा है? शादी-व्याह मे सभी कर्ज लेते हैं, तुमने कोई नयी बात नहीं की। खाने-पहनने के लिये कौन कर्ज लेता है। धर्मात्मा बनने का कुछ फल मिलना चाहिये या नहीं? तुम्हारे ही दर्जे पर सत्यदेव है, पक्का मकान खड़ा कर दिया, जमींदारी खरीद ली, अपनी बेटी के ब्याह में कुछ नहीं तो पांच हजार तो खर्च किये ही होंगे!

दयानाथ--जभी दोनों लड़के भी तो चल दिये?

जागेश्वरी--मरना-जीना तो संसार की गति है। लेते हैं वह भी मरते हैं, नहीं लेते वह भी मरते हैं। अगर तुम चाहो तो छः महीने में सब रुपये चुका सकते हो।

दयानाथ ने त्योरी चढ़ाकर कहा--जो बात जिन्दगी भर नहीं की, वह अब आखिरी वक्त नहीं कर सकता। बहू से साफ-साफ कह दो, उससे परदा रखने की जरूरत ही क्या है, और परदा रह ही के दिन सकता है? आज नहीं तो कल उसे सारा हाल मालूम हो ही जायगा। बस, तीन-चार चीजें लौटा दे, तो काम बन जाय। तुम उससे एक बार कहो तो?

जागेश्वरी झुँझलाकर बोली--उससे तुम्हीं कहो, मुझ से तो न कहा जायगा।

सहसा रमानाथ टेनिस रैकेट लिये बाहर से आया। सफेद टेनिस शर्ट था, सफेद पतलून, कैनवस का जूता--गोरे रंग और सुन्दर मुखाकृति पर इस पहनावे ने रईसों की शान पैदा कर दी। रूमाल में बेले के गजरे लिये हुए था। उससे सुगन्ध उड़ रही थी। माता-पिता की आँखें बचाकर वह जीने पर जाना चाहता था, कि जागेश्वरी ने टोका-इन्ही के तो सब कांटे बोये हुए हैं, इनसे क्यों नहीं सलाह लेते? (रमा से) तुमने नाच तमाशे में बारह-तेरह सौ रुपये उड़ा दिये, बतलायो सराफ़ को क्या जवाब दिया जाय? बड़ी मुश्किलों से कुछ गहने लौटाने पर राजी हुमा, मगर बहु से गहने मांगे कौन? यह सब तुम्हारी ही करतूत है।

रमानाथ ने इस आक्षेप को अपने ऊपर से हटाते हुए कहा--मैने क्या
खर्च किया। जो कुछ किया बाबूजी ने किया। हाँ, जो कुछ मुझसे कहा गया वह मैंने किया।

रमानाथ के कथन में बहुत कुछ सत्य था। यदि दयानाथ की इच्छा न होती, तो रमा क्या कर सकता था? जो कुछ हुआ उनकी अनुमति से हुआ। रमानाथ पर इल्जा़म रखने से तो कोई समस्या हल न हो सकती थी। बोले--मैं तुम्हें इल्जाम नहीं देता भाई। किया तो मैंने ही; मगर यह बला तो किसी तरह सिर से टालनी चाहिए? सराफ़ का तकाजा है, कल उत्तका आदमी आवेगा। उसे क्या जबाब दिया जायगा? मेरी समझ में तो यही एक उपाय है कि उतने रुपये के गहने उसे लौटा दिये जायें। गहने लौटा लेने में भी वह झंझट करेगा: लेकिन दस-बीस रुपये के लोभ में लौटाने पर राजी हो जायगा। तुम्हारी क्या सलाह है?

रमानाथ ने शरमाते हुए कहा--मैं इस विषय में क्या सलाह दे सकता हूँ। मगर मैं इतना कह सकता हूं कि प्रस्ताव को वह खुशी से मंजूर न करेगी। अम्मा तो जानती हैं कि चढ़ावे में चन्द्रहार न जाने से उसे कितना बुरा लगा था। प्रण कर लिया है जब तक चन्द्रहार न बन जाएगा, कोई गहना न पहनूंगी।

जागेश्वरी ने अपने पक्ष का समर्थन होते देख, खुश होकर कहा--यही तो मैं इनसे कह रही हूँ।

रमानाथ--रोना-धोना मच जायगा और इसके साथ घर का पर्दा भी खुल जामगा।

दयानाथ ने माथा सिकोड़कर कहा--उससे परदा रखने की जरूरत ही क्या? अपनी यथार्थ स्थिति को वह जितनी जल्दी समझ लें, उतना ही अच्छा।

रमानाथ ने जवानों के स्वभाव के अनुसार जालपा से खूब जोट उड़ाई थी। खूब बढ़-बढ़कर बातें की थीं। जमींदारी है, उससे कई हजार का नफा है। बैंक में रुपये है, उनका सूद आता है। जालपा से अब अमर रहने की बात कही गयी, तो रमानाथ को वह पूरा लदाड़िया समझेगी। बोला--पर्दा तो एक दिन खुल ही जायगा, पर इतनी जल्दी खोल देने का नतीजा यही होगा कि वह हमें नीच समझने लगेगी। शायद अपने घरवालों को भी लिख भेजे। चारों तरफ बदनामी होगी।

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