ग़बन/ भाग 1

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ग़बन  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

[ २२ ] दयानाथ- हमने तो दीनदयाल से यह कभी न कहा था कि हम लखपती हैं।

रमा - तो आपने यही कब कहा था कि हम उभार गहने लाये है और दो-चार दिन में लौटा देंगे? आखिर यह सारा स्वांग अपनी धाक बैठाने के लिये ही किया था या कुछ और।

दया- तो फिर किसी दूसरे बहाने से मांगना पड़ेगा ! बिना मांगे काम नहीं चल सकता। कल या तो रुपये देने पड़ेंगे, या गहने लौटाने पड़ेंगे। और कोई राह नहीं।

रमानाथ ने कोई जवाब न दिया। जागेश्वरो बोली-और कौन-सा बहाना किया जायगा ? अगर कहा जाय, किसी को मंगनी देना है तो शायद वह देगी नहीं। देगी भी तो दो-चार दिन में लौटायेंगे कैसे ?

दयानाथ को एक उपाय सूझा। बोले - अगर उन गहनों के बदले मुलम्मे के गहने दिये जाय ? मगर तुरन्त ही उन्हें ज्ञात हो गया कि यह लचर बात है। खुद ही उसका विरोध करते दुए कहा- हाँ बाद को जब मुलम्मा उड़ जायगा तो फिर लज्जित होना पड़ेगा। अक्ल कुछ काम नहीं करती। मुझे तो यही सूझता है, यह सारी स्थिति उसे समझा दी जाय। जरा देर के लिये उसे दुःख तो जरूर होगा; लेकिन आगे के वास्ते रास्ता साफ हो जायगा।

संभव था, जैसा दयानाथ का विचार था, कि जालपा रो-धोकर शान्त हो जायगी; पर रमा की इसमें किरकिरी होती थी। फिर वह मुंह न दिखा सकेगा। जब वह उससे कहेगी, तुम्हारी जमींदारी क्या हो गयी, बैंक के रूपये क्या हुए, तो उसे क्या जबाब देगा ? बिरक्त भाव से बोला--इसमें बेइज्जती के सिवा और कुछ न होगा। आप क्या सराफ़ को दो-चार-छ: महीने नहीं टाल सकते ? आप देना चाहें, तो इतने दिनों में हजार-बारह सौ रुपये बड़ी आसानी से दे सकते हैं।

दयानाथ मे पूछा-कैसे ?

रमा--उसी तरह जैसे आपके और भाई करते है।

दया--रमा, वह मुझसे नहीं हो सकता।

तीनों कुछ देर तक मौन बैठे रहे। दयानाथ ने अपना फैसला सुना दिया। जागेश्वरी और रमा को यह फैसला मंजूर न था। इसलिए अब इस गुत्थी का
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सुलझाने का भार उन्हीं दोनों पर था। जागेश्वरी ने भी एक तरह से निश्चय कर लिया था। दयानाथ को भख मारकर अपना नियम तोड़ना पड़ेगा। यह कहाँ की नीति है कि हमारे ऊपर संकट पड़ा हुआ हो, और हम अपने नियमों का राग अलापे जायें ? रमानाथ बुरी तरह फंसा था। वह खूब जानता था कि पिताजी ने जो काम कभी नहीं किया, वह अाज न करेंगे। उन्हें जालपा से गहने-माँगने में कोई संकोच न होगा और यही वह चाहता था। वह पछता रहा था कि मैंने क्यों जालपा से डींगे मारी। अब अपने मुंह को लाली रखने का सारा भार उसी पर था। जालपा की अनुपम छवि ने पहले ही दिन उस पर मोहनी डाल दी थी। वह अपने सौभाग्य पर फूला न समाता था। क्या यह घर ऐसी अनन्य सुन्दरी के योग्य था ? जालपा के पिता पांच रुपये के नौकर थे; पर जालपा ने कभी अपने घर में झाड़ू न लगाई थी, कभी अपनी धोती न छांटी थी, अपना बिछबना न बिछाया था, यहाँ तक कि अपनी धोती की खोंच तक न सी थी। दयानाथ पचास रुपया पाते थे; पर यहाँ केवल चौका-बासन करने के लिए महरी थी। बाकी सारा काम अपने ही हाथों करना पड़ता था। जालपा शहर और देहात का फर्क क्या जाने ? शहर में रहने का उसे कभी अवसर ही न पड़ा था। वह कई बार पति और सास से साश्चर्य पूछ चुकी थी, क्या यहाँ कोई नौकर नहीं है ? जालपा के घर दुध-दही की कमी नहीं थी। यहाँ बच्चों को दूध मयस्सर न था। इन सारे प्रभावों को पति के लिये रमानाय के पास मीठीभीठी बड़ी-बड़ी बातों के सिवा और क्या था। घर का किराया पांच रुपया था, रमानाथ ने पन्द्रह बतलाये थे। लड़कों की शिक्षा का खर्च मुश्किल से दस रुपये था, रमानाथ ने चालीस बतलाये थे। उस समय उसे इसकी जरा भी शंका न थी कि एक दिन सारा भन्डा फूट जागा। मिथ्या दूरदर्शी नहीं होती; लेकिन वह दिन इतनी जल्दी आएगा, यह कौन जानता था ? अगर उसने ये डींगें न मारी होती, तो जागेश्वरी को तरह वह भी सारा भार दयानाय पर छोड़कर निश्चिन्त हो जाता लेकिन इस वक्त वह अपने ही बनाये जाल में फंस गया था। कैसे निकले ?

उसने कितने ही उपाय सोचे, लेकिन कोई ऐसा न था, जो आगे चलकर उसे उलझनों में डाल देता, दलदल में न फंसा देता। एकाएक उसे एक चाल
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सूझी। उसका दिल उछल पड़ा; पर इस बात को वह मुंह तक न ला सका। मोह ! कितनी नीचता है ! कितना कपट, जितनी निर्दयता ! अपनी प्रेयसी के साथ ऐसी धूर्तता ! उसके मन ने धिक्कारा। अगर इस वक्त उसे कोई हजार रुपया दे देता, तो वह उसका उम्र-भर के लिये मालाम हो जाता। दयानाथ ने पूछा- कोई बात सूझी ?

'मुझे तो कुछ नहीं सूझती।'

"कोई उपाय सोचना ही पड़ेगा !'

“आप ही सोचिए, मुझे तो कुछ नहीं सूझता।'

'क्यों नहीं उमसे दो-तीन गहने मांग लेते ? तुम चाहो, तो ले सकते हो। हमारे लिये मुश्किल है।'

'मुझे शर्म आती है।'

'तुम विचित्र आदमी हो, न खुद मांगोगे, न मुझे माँगने दोगे, तो आखिर यह नाव कैसे चलेगी ? मैं एक बार नहीं हजार बार कह चुका कि मुझसे कोई आशा मत रक्खो मैं अपने आखिरी दिन जेल में नहीं काट सकता। इसमें शर्म की क्या बात है, मेरी समझ में नहीं आता। किसके जीवन में ऐसे कुअवसर नहीं आते ? तुम्हीं अपनी मां से पूछो।

जानेश्वरी ने अनुमोदन किया-मुझसे तो नहीं देखा जाता था कि अपना आदमी चिन्ता में पड़ा रहे, मैं गहने पहने बैठी रहूँ। नहीं तो आज मेरे पास भी गहने न होते ? एक-एक करके सब निकल गये। विवाह में पांच हजार से कम का चढ़ावा नहीं गया था; मगर पाँच ही साल में सब स्वाहा हो गया। तब से एक छल्ला बनवाना भी न नसीब हुआ।

दयानाय जोर देकर बोले- शर्म करने का यह अबसर नहीं है। इन्हें मांगना पड़ेगा !

रमानाथ ने झेंपते हुए कहा-मैं मांग तो नहीं सकता, कहिये उठा यह कहते-कहते लज्जा,क्षमा और अपनो नीचता के ज्ञान से उसकी आँखें सजल हो गयीं।

दयानाथ ने भौंचक्के होकर कहा-उठा लायोगे, उससे छिपाकर ?

रमानाथ ने तीव्र कंठ से कहा--और आप क्या समझ रहे हैं ? [ २५ ]

दयानाय ने माथे पर हाथ रख लिया, और एक क्षण के बाद आहत कंठ से बोले- नहीं मैं ऐसा न करने दूंगा। मैंने जाल कभी नहीं किया, और न कभी करूंगा। वह भी अपनी बहू के साथ। छिः छिः जो काम सीधे से चला सकता है, उसके लिये एक फरेब ? कहीं उसकी निगाह पड़ गयी, तो समझते हो वह तुम्हें दिल में क्या समझेगी ? माँग लेना इससे कहीं अच्छा है।

रमा०-आपको उससे क्या मतलब ? मुझसे चीजें ले लीजियेगा। मगर जब आप जानते थे, यह नौबत आएगी, तो इतने जेवर ले जाने की जरूरत ही क्या थी ? व्यर्थ को विपत्ति मोल ली। इससे कई लाख गुना अच्छा था, कि आसानी से जितना ले जा सकते, उतना ही ले जाते। उस भोजन से क्या लाभ कि पेट में पीड़ा होने लगे? मैं तो समझ रहा था कि आपने कोई मार्ग निकाल लिया होगा। मुझे क्या मालूम था कि आप मेरे सिर यह मुसीबतों की टोकरी पटक देंगे ? वरना मैं उन चीजों को कभी न ले जाने देता।

दयानाथ कुछ लज्जित होकर बोले-इतने पर भी केवल चन्द्रहार न होने से वहाँ हाय-तौबा मच गया।

रमा० -उस हाय तोबा से हमारी क्या हानि हो सकती थी ? जब इतना करने पर भी हाय-तोबा मच गयी, तो मतलब भी तो न पूरा हुआ। उधर बदनामी हुई। इधर यह आफत सिर पर पायी। मैं यह नहीं दिखाना चाहता कि हम इत्ने फटे-हाल हैं। चोरी हो जाने पर तो सब करना ही पड़ेगा।

दयानाथ चुप हो गये। उस आवेश में रमा ने उन्हें खूब खरी-खरी सुनायी और वह चुपचाप सुनते रहे। आखिर जब न सुना गया, तो उठकर पुस्तकालय चले गये। यह उनका नित्य का नियम था। जब तक दो-चार पत्र-पत्रिकाएँ न पढ़ लें, उन्हें खाना न हजम होता था। उसी सुरक्षित गड़ी में पहुंचकर घर की चिन्ताओं और बाधाओं से उनकी जान बचती थी।

रमा भी वहाँ से उठा, पर जालपा के पास न जाकर अपने कमरे में गया। उसका कोई कमरा अलग तो था नहीं, एक यही मर्दाना कमरा था। इसी में दयानाथ अपने दोस्तों से गप-शप करते, दोनों लड़के पढ़ते और रमा मित्रों के साथ शतरंज खेलता। रमा कमरे में पहुंचा तो दोनों लड़के ताश खेल रहे थे। गोपी का तेरहवां साल था, विश्वम्भर का नवा। दोनों रमा से थरथर कांपते थे। रमा खुद खूब ताश और शतरंज खेलता था, पर भाइयों को खेलते

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देखकर उसके हाथ में खुजली होने लगती थी। खुद चाहे दिन भर सैरसपाटे किया करे, मगर क्या मजाल कि भाई कहीं घूमने निकल जायें। दयानाथ खुद लड़कों को कभी न मारते। अक्सर मिलता, तो उनके साथ खेलते थे। उन्हें कनकौवे उड़ाते देखकर उनकी बाल-प्रकृति सजग हो जाती थी, दो-चार पेंच लड़ा देते। बच्चों के साथ कभी गुल्ली-डंडा भी खेलते। इसलिये लड़के जितना रमा से डरते उतना ही पिता से प्रेम करते थे।

रमा को देखते ही लड़कों ने ताश को टाट के नीचे छिपा दिया और पढ़ने लगे। सिर झुकाये चपत को प्रतीक्षा कर रहे थे पर रमानाथ ने चपत नहीं लगायी। मोड़े पर बैठकर गोपीनाथ से बोले-तुमने भांग की दूकान देखी है न, नुक्कड़ पर ?

गोपीनाथ प्रसन्न होकर बोला- हां, देखी क्यों नहीं ?

'जाकर चार पैसे का माजूम ले लो, दौड़े हुए आना ! हाँ ! हलवाई की दूकान से आधा सेर मिठाई भी लेते आना ! यह रूपया लो!' कोई पन्द्रह मिनट में रमा ये दोनों चीजें ले, जालपा के कमरे की ओर चला।

रात के दस बज गये थे। जालपा खुली छत पर लेटी हुई थी। जेठ की सुनहरी चांदनी में सामने फैले हुए नगर के कलश, गुस्बद, और वृक्ष स्वपन-चित्रों से लगते थे। जालपा को आंखें चन्द्रमा की ओर लगी थीं। उसे ऐसा मालूम हो रहा था, मैं चन्द्रमा को ओर उड़ी जा रही हूँ। उसे अपनी नाक में खुश्की, आँखों में जलन और सिर में चक्कर मालूम हो रहा था | कोई बात ध्यान में आते ही भूल जाती, और बहुत याद करने पर भी याद न आती थी। एक बार घर की याद आ गई, रोने लगी। एक क्षण में सहेलियों की याद आ गई, हंसने लगी। सहसा रमानाथ हाथ में एक पोटली लिये, मुस्कराता हुआ आया और चारपाई पर बैठ गया।

जालपा ने उठकर पूछा-पोटली में क्या है ?

रमा०-बुझ जाओ तो जानें।

जालपा-हँसी का गोलगप्पा है ! (कह कर हँसने लगी।)

रमा० गलत।

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जालपा-नींद की गठरी होगी?

रमा-गलत।

जालपा--तो प्रेम की पिटारी होगी।

रमानाथ-ठीक। अाज मैं तुम्हें फूलों की देवी बनाऊँगा।

जालपा खिल उठी। रमा ने बड़े अनुराग से उसे फूलों के गहने पहनाने शुरू किये, फूलों के शीतल कोमल स्पर्श से जाला के कोमल शरीर में गुदगुदी-सी होने लगी। उन्हीं फूलों की भांति उसका एक-एक रोम प्रफुल्लित हो गया।

जालपा ने कुछ उत्तर न दिया। इस वेश में पति की ओर ताकते हुए भी उसे संकोच हुआ। उसकी बड़ी इच्छा हुई कि जरा आईने में अपनी छबि देखे। सामने कमरे में लैम्प जल रहा था, वह उठकर कमरे में गयी, और आईने के सामने खड़ी हो गई। नशे की तरंग में उसे ऐसा मालूम हुआ कि मैं सचमुच फूलों की देवी है। उसने पानदान उठा लिया और बाहर पाकर पान बनाने लगी।

रमा को इस समय अपने कपट व्यवहार पर बड़ी ग्लानि हो रही थी। जालपा ने कमरे से लौटकर प्रेमोल्लसित नेत्रों से उसकी ओर देखा, तो उसने मुंह फेर लिया। उस सरल विश्वास से भरी हुई आँखों के सामने वह ताक न सका। उसने सोचा- मैं कितना बड़ा कायर हूँ। क्या मैं बाबूजी को साफ़साफ़ जवाब न दे सकता था ? मैंने हामी ही क्यों भरी ? क्या जालपा से घर की दशा साफ-साफ कह देना मेरा कर्तव्य न था ? उसकी आँखें भर आयीं। जाकर मुंडेर के पास खड़ा हो गया। प्रणय के उस निर्मल प्रकाश में उसका मनोविकार उसे किसी भयंकर जन्तु की भांति घूरता हुआ जान पड़ता था। उसे अपने ऊपर इतनी घृणा हुई कि एक बार जी में आया, सारा कपटव्यवहार खोल दूं लेकिन संभल गया। कितना भयंकर परिणाम होगा! जालपा की नजरों से गिर जाने की कल्पना ही उसके लिये असह्म थी।

जालपा ने प्रेम-सरस नेत्रों से देखकर कहा-मेरे दादाजी तुम्हें देखकर गये, और अम्माजी से तुम्हारा बखान करने लगे, तो मैं सोचती थी, तुम कैसे होगे। मेरे मन में तरह-तरह के चित्र आते थे।

रमानाथ ने एक लम्बी साँस खीची। कुछ जवाब न दिया।

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जालपा ने फिर कहा-मेरी सखियां तुम्हें देखकर मुग्ध हो गयीं। शहजादी तो खिड़को के सामने से हटती ही न थी। तुमसे बातें करने की उसकी बड़ी इच्छा थी। जब तुम अन्दर गये थे, तो उसी ने तुम्हें पान के बीड़े दिये थे, याद है।

रमा ने कोई जवाब न दिया।

जालपा–अजी, वही जो रंग-रूप में सबसे अच्छी थी, जिसके गाल पर एक तिल था, तुमने उसकी ओर बड़े प्रेम से देखा था, बेचारी लाज के मारे मर गयी थी। मुझसे कहने लगी, जीजा तो बड़े रसिक जान पड़ते है। सखियों ने उसे खूब चिड़ाया, बेचारी रुघाँसी हो गयी। याद है।

रमा ने मानो नदी में डूबते हुए कहा- मुझे तो याद नहीं आता।

जालपा--अच्छा, अबकी चलोगे तो दिखा दूंगी। आज तुम बाजार की तरफ गये थे कि नहीं ?

रमा ने सिर झुकाकर कहा-आज तो फुरसत नहीं मिली।

जालपा-जाओ, मैं तुमसे न बोलूंगी। रोज होले हवाले करते हो। कल ला दोगे न?

रमानाथ का कलेजा मसोस उठा। यह चन्द्रहार के लिए इतनी विकल हो रही है। इसे क्या मालूम कि दुर्भाग्य इसका सर्वस्व लूटने का सामान कर रहा है। जिस सरल बालिका पर उसे अपने प्राणों को न्योछावर करना चाहिए था, उसी का सर्वस्व अपहरण करने पर वह तुला हुआ है ? वह इतना व्यग्र हुआ कि जी में आया, कोठे से कूदकर प्राणों का अन्त कर दे।

आधी रात बीत चुकी थी। चन्द्रमा चोर की भांति एक वृक्ष की आड़ से झांक रहा था। जालपा पति के गले में हाथ डाले हुए निद्रा में मग्न थी। रमा मन में विकट संकल्प करके सीधे से उठा, पर निद्रा की गोद में सोये हुए पुष्प प्रदीप ने उसे अस्थिर कर दिया। वह एक जङ खड़ा मुग्ध नेत्रों से जालपा के निद्रा-बिहसित मुख की ओर देखता रहा।कमरे में जाने का साहस न हुआ। फिर लेट गया।

जालपा ने चौंककर पूछा--कहाँ जाते हो, क्या सबेरा हो गया ?

रमा-अभी तो बड़ी रात है।

जालपा--तो तुम बैठे क्यों हो ?

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रमा-कुछ नहीं, जरा पानी पीने उठा था।

जालपा ने प्रेमातुर होकर रमा के गले में बाँहें डाल दी और उसे सुलाकर कहा-तुम इस तरह मुझपर टोना करोगे, तो मैं भाग जाऊँगी। न जाने किस तरह ताकते हो, क्या करते हो, या मंत्र पढ़ते हो, कि मेरा मन चंचल हो जाता है। वासन्ती सच कहती थी, पुरुषों को अाँख में टोना होता है।

रमा ने फूटे हुए स्वर में कहा-टोना नहीं कर रहा हूँ, आँखों की प्यास बुझा रहा हूँ। दोनों फिर सोये, एक उल्लास में डूबी हुई, दूसरा चिन्ता में मग्न।

तीन घंटे और गुजर गये, द्वादशी के चाँद ने अपना विश्व-दीपक बुझा दिया। प्रभात को शीतल समीर प्रकृति को मद के प्याले पिलाती फिरती थी। आधी रात तक जागनेवाला बाजार भी सो गया। केवल रमा अभी तक जाग रहा था। मन में भांति-भांति के तर्क-वितर्क उठने के कारण वह बार-बार उठता था, और फिर लेट जाता था। आखिर जब चार बजने की आवाज कान में आयी, तो घबराकर उठ बैठा और कमरे में जा पहुँचा। गहनों का सन्दूकचा आलमारी में रखा हुआ था। रमा ने उसे उठा लिया, और थर-थर कापता हुआ नीचे उतर गया। इस घबराहट में उसे इतना अवकाश न मिला कि वह कुछ गहने छाँटकर निकाल लेता।

दयानाथ नीचें बरामदे में सो रहे थे। रमा ने उन्हें धीरे से जगाया, उन्होंने हकबकाकर पूछा-कौन ?

रमा ने अोठ पर ऊँगल रखकर कहा-मैं हूँ। यह सन्दूकची लाया हूँ। रख लीलिये।

दयानाथ सावधान होकर बैठ गये। अभी तक केवल उनको आँखें जागी थी, अब चेतना भी जाग्रत हो गयी। रमा ने जिस वक्त उनसे गहने उठा लाने की बात कही थी उन्होंने समझा था, कि यह आवेश में ऐसा कह रहा है। उन्हें इसका विश्वास न आया था कि रमा जो कुछ कह रहा है, उसे पूरा भी कर दिखाएगा। इन कमीनी चालों से वह अलग ही रहना चाहते थे। ऐसे कुत्सित कार्य में पुत्र से सांठ-गांठ करना उनकी अन्तरात्मा को किसी तरह स्वीकार न था। पूछा-इसे क्यों उठा लाये ?

रमा ने धृष्ठता से कहा-आप ही का तो हुक्म था !

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दया-झूठ कहते हो।

रमा-तो फिर क्या रख आऊँ?

रमा के इस प्रश्न ने दयानाथ को संकट में डाल दिया। झेंपते हुए बोले- अब क्या रख आओगे ? कहीं देख ले, तो गजब ही हो जाय। वही काम करोगे, जिसमें जग हँसाई हो। खड़े क्या हो, सन्दूकची मेरे बड़े सन्दूक में रख आयो और जाकर लेट रहो। कहीं जाग पड़े तो बस !

बरामदे के पीछे दयानाथ का कमरा था ! उसमें एक देवदार का पुराना सन्दूक रखा था। रमा ने सन्दूकची उसके अन्दर रख दी और बड़ी फुर्ती से ऊपर चला गया ! छत पर पहुँचकर उसने आहट ली, जालपा पिछले पहर की सुखद निद्रा में मग्न थी।

रमा ज्योंही चारपाई पर बैठा, जालपा चौंक पड़ी और उससे चिपट गयी। रमा ने पूछा-क्या है, तुम चौंक पड़ी।

जालपा ने इधर-उधर प्रसन्न नेत्रों से ताककर कहा-कुछ नहीं, एक स्वप्न देख रही थी। तुम बैठे क्यों हो, कितनी रात है अभी ?

रमा ने लेटते हुए कहा-सबेरा हो रहा है, क्या स्वप्न देखती थीं ?

जालपा-जैसे कोई चोर मेरे गहनों की सन्दूकची उठाये लिए जाता हो।

रमा का हृदय इतने जोर से धक-धक करने लगा, मानों उस पर हथौड़े पड़ रहे हों। खून सर्द हो गया। परन्तु सन्देह हुआ, कहीं इसने मुझे देख तो नहीं लिया। वह जोर से चिल्ला पड़ा-चोर! चोर! नीचे बरामदे में दयानाथ भी चिल्ला उठे चोर ! चोर !

जालपा घबड़ाकर उठी। दौड़ी हुई कमरे में गयी, झटके से आलमारी खोली, सन्दूकची वहाँ न थी। मूछित होकर गिर पड़ी।

सबेरा होते ही दयानाथ गहने लेकर सराफ के पास पहुँचे और हिसाब होने लगा। सराफ़ के १५००) आते थे, मगर वह केवल १५००) के गहने लेकर सन्तुष्ट न हुआ। बिके हुए गहनों को वह बट्टे पर ही ले सकता था। बिकी हुई चीज कौन वापस लेता है ? जाकड़ पर दिये होते, तो दूसरी बात थी। इन चीजों का सौदा हो चुका था। उसने कुछ ऐसी व्यापारिक सिद्धान्त की बातें की, दयानाथ को कुछ ऐसा शिकंजे में कसा, कि बेचारे

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[ ३१ ]को हाँ-हाँ करने के सिवा और कुछ न सूझा। दफ्तर का बाबू चतुर दूकानदार से पेश पाता? १५०० में २५०० के गहने भी चले गये, ऊपर से ५० रु० और बाकी रह गये। इस बात पर पिता-पुत्र में कई दिन खूब वाद-विवाद हुआ। दोनों एक दूसरे को दोषी ठहराते रहे। कई दिन आपस में बोलचाल बन्द रही; मगर इस चोरी का हाल गुप्त रखा गया। पुलिस को खबर हो जाती, तो भंडा फूट जाने का भय था। जालपा से यही कहा गया कि माल तो मिलेगा नहीं व्यर्थ का झंझट भले ही होगा। जालपा ने भी सोचा, जब माल ही न मिलेगा, तो रपट व्यर्थ क्यों की जाय।

जालपा को गहनों से जितना प्रेम था: उतना कदाचित् संसार की और किसी वस्तु से न था; और उसमें आश्चर्य की कौन-सी बात थी? जब वह तीन वर्ष की अबोध बालिका थी, उस वक्त उसके लिए सोने के चूहे बनवाये गये थे। दादी जब उसे गोद में खिलाने लगती, गहनों ही की चर्चा करती। तेरा दुलहा तेरे लिए बड़े सुन्दर गहने लायेगा। टुमुक-टुमुककर चलेगी।

जालपा पूछती-चांदी के होंगे, कि सोने के दादी जी?

दादी कहती-सोने के होंगे बेटी, चाँदी के क्यों लावेगा? चांदी के लावे तो तुम उठाकर उसके मुंह पर पटक देना।

मानकी छेड़कर कहती-चाँदी के तो लावेगा ही। सोने के उसे कहीं मिले जाते हैं।

जालपा रोने लगती, इस पर बुढ़ी दादी, मानकी, घर की महरिया, पड़ोसिने और दीनदयाल सब हंसते। उन लोगों के लिए यह बिनोद का अशेष भंडार था।

बालिका जब जरा और बड़ी हुई तो गुड़ियों के ब्याह करने लगी। लड़के की ओर से चढ़ाये जाते, दुलहिन को गहने पहनाती, होली में बैठाकर बिदा करती, कभी-कभी दुलहिन अपने गुड्डे दूल्हे से गहनों के लिए मांग करती, गुड्डा बेचारा कहीं-न-कहीं से गहने लाकर स्त्री को प्रसन्न करता था। उन्हीं दिनों बिसाती ने उसे चन्द्रहार लाकर दिया, जो अब तक उसके पास सुरक्षित था।

जरा और बड़ी हुई तो बड़ी-बूढ़ियों में बैठकर गहने की बातें सुनने लगी। महिलाओं के इस छोटे-से संसार में इसके सिवा और कोई चर्चा हो

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[ ३२ ]नहीं थी। किसने कौन-कौन गहने बनवाये, कितने दाम लगे, ठोस है या पोल, जड़ाऊ हैं या सादे, किस लड़की के विवाह में कितने गहने आये-इन्हीं महत्वपूर्ण विषयों पर नित्य आलोचना-प्रत्यालोचना, टीका-टिप्पणी होती रहती थी। कोई दूसरा विषय इतना रोचक, इतना ग्राह्य हो ही न सकता था।

इस आभूषण-मंडित संसार में पली हुई जालपा का यह आभूषण प्रेम स्वाभाविक ही था। महीने भर से ऊपर हो गया, उसकी दशा ज्यों-को-त्यों है, न कुछ खाती-पीती है, न किसी से हँसती-बोलती है। खाट पर पड़ी हुई शून्य नेत्रों से शून्याकाश की ओर ताकती रहती है। सारा घर समझाकर हार गया, पड़ोसिने समझाकर हार गयीं, दीनदयाल आकर समझा गये; पर जालपा ने रोग-शय्या न छोड़ी। उसे अब घर में किसी पर विश्वास नहीं है यहाँ तक कि रमा से भी उदासीन रहती है। वह समझती है, सारा घर मेरी उपेक्षा कर रहा है! सब-के-सब मेरे प्राण के ग्राहक हो रहे हैं। जब इनके पास इतना धन है, तो फिर मेरे गहने क्यों नहीं बनवाते? जिसे हम सबसे अधिक स्नेह रखते हैं, उसी पर सबसे अधिक रोष भी करते हैं। जालपा को सबसे अधिक क्रोध रमानाथ पर था। अगर यह अपने माता-पिता से जोर देकर कहते, तो कोई इनकी बात न टाल सकता; पर यह कुछ कहें भी? इनके मुंह में तो दही जमा है। मुझसे प्रेम होता तो यों निश्चिन्त न बैठे रहते। जब तक सारी चीज न बनवा लेते, रात को नींद न आती। मुंह देखे की मुहब्बत है, माँ-बाप से कैसे कहें, जायेंगे तो अपनी ओर, मैं कौन हूँ?

वह रमा से केवल खिंची न रहती थी, वह कभी कुछ पूछता, तो दो-चार जली-कटी सुना देती। बेचारा अपना-सा मुंह लेकर रह जाता। गरीब अपनी ही लगायी हुई भाग में जला जाता था। अगर वह जानता कि उन डीगों का यह फल होगा, तो वह जबान पर मुहर लगा लेता। चिंता और ग्लानि उसके हृदय को कुचले डालती थी। कहाँ सुबह से शाम तक हंसी-कहकहे, सैर-सपाटे में कटते थे, कहाँ अब नौकरी की तलाश में ठोकरें खाता फिरता था। सारी मस्ती गायब हो गयी। बार-बार अपने पिता पर क्रोध आता, यह चाहते तो दो-चार महीने में सब रुपये अदा हो जाते; मगर इन्हें क्या फिक्र? मैं चाहे मर जाऊँ पर यह अपनी टेक नहीं

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छोड़ेंगे। उसी प्रेम से भरे हुए निष्कपट हृदय में आग-सुलगती रहती थी। जालपा का मुरझाया हुआ मुख देख कर उसके मुंह से ठंडी साँस निकल जाती थी। वह सुखप्रद प्रेम-स्वप्न इतनी जल्द भंग हो गया, क्या वे दिन फिर कभी आयेंगे ? तीन हजार के गहने कैसे बनेंगे ? अगर नौकर भी हुअा, तो ऐसा कौन-सा बड़ा उहदा मिल जायेगा ? तीन हजार शायद तीन जन्म में भी न जमा हो। वह कोई ऐसा उपाय सोच निकालना चाहता था, जिससे वह जल्द-से-जल्द अतुल संपत्ति का स्वामी हो जाये। कहीं उसके नाम कोई लॉटरी निकल आती ! फिर तो वह जालपा को आभूषणों से मढ़ देता। सबसे पहले चन्द्रहार बनवाता। उसमें हीरे जड़े होते। अगर इस वक्त उसे जाली नोट बनाना आ जाता, तो वह अवश्य बनाकर चला देता।

एक दिन वह शाम तक नौकरी की तलाश में मारा-मारा फिरता रहा। शतरंज की बदौलत उसका कितने ही अच्छे अच्छे आदमियों से परिचय था; लेकिन वह संकोच और डर के कारण किसी से अपनी स्थिति प्रकट न कर सकता था। वह भी जानता था कि यह मान-सम्मान उसी वक्त तक है जब तक किसी के सामने मदद के लिए हाथ नहीं फैलाता। यह आन टूटी, फिर कोई बात भी न पूछेगा। कोई ऐसा भलेमानस न दीखता था जो सब कुछ बिना कहे ही समझ जाय, और उसे कोई अच्छी सी जगह दिला दे। आज उसका चित्त बहुत खिन्न था। मित्रों पर ऐसा क्रोध आ रहा था कि एक-एक को फटकारे और पायें तो द्वार से दुत्कार दे। अब किसी ने शतरंज खेलने को बुलाया, तो ऐसी फटकार सुनाऊँगा कि बच्चा याद करें, मगर वह जरा गौर करता, तो उसे मालूम हो जाता, कि इस विषय में मित्रों का उतना दोष न था, जितना खुद उसका। कोई ऐसा मित्र न था, जिससे उसने बढ़-चढ़कर बातें न की हों। यह उसकी आदत थी। घर की असली दशा को वह सदैव बदनामी की तरह छिपाता रहा। और यह उसी का फल था कि इतने मित्रों के होते हुए भी वह बेकार था। वह किसी से अपनी मनोव्यथा न कह सकता था और मनोव्यथा सांस को भांति अन्दर असह्य हो जाती है। घर में आकर मुंह लटकाए हुए बैठ गया। जागेश्वरी ने पानी लाकर दिया और पूछा-आज तुम दिन भर कहाँ रहे ? लो हाथ-मुँह धो डालो।

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[ ३४ ]रमा ने लोटा उठाया ही था कि जालपा में आकर उग्र भाव से कहा- मुझे मेरे घर पहुँचा दो, इसी वक्त।

रमा ने लोटा रख दिया और उसकी ओर इस तरह ताकने लगा, मानों उसकी बात समझ में न आई हो।

जागेश्वरी बोली-भला इस तरह कहीं बहू-बेटियाँ बिदा होती हैं, कैसी बात कहती हो बहू !

जालपा-मैं उन बहू-बेटियों में नहीं हूँ। मेरा जिस वक्त जी चाहेगा जाऊँगी, जिस वक्त जी चाहेगा आऊँगी। मुझे किसी का डर नहीं है। जब यहाँ कोई मेरी बात नहीं पूछता, तो मैं भी किसी को अपना नहीं समझती। सारे दिन अनाथों की तरह पड़ी रहती हूँ; कोई झांकता तक नहीं। मैं चिड़िया नहीं हूं, जिसका पिंजड़ा दाना-पानी रखकर बन्द कर दिया जाये। मैं भी आदमी हूँ ! अब इस घर में मैं क्षण-भर न रुकूंगी। अगर कोई मुझे भेजने न जायगा, तो अकेली चली जाऊंगी। राह में कोई भेड़िया नहीं बैठा है, जो मुझे उठा ले जायेगा और उठा भी ले जाय, तो क्या गम। यहाँ कौन-सा सुख भोग रही हूँ !

रमा ने सावधान होकर कहा-आखिर कुछ मालूम भी तो हो, क्या बात हुई ?

जालपा बात कुछ नहीं हुई, अपना जी है, यहाँ नहीं रहना चाहती है।

रमानाथ- भला इस तरह जाओगी तो तुम्हारे घरवाले क्या कहेंगे। कुछ यह भी तो सोचो।

जालपा-यह सब सोच चुकी हूँ, और ज्यादा नहीं सोचना चाहती हूँ। मैं जाकर अपने कपड़े बांधती हूँ और इसी गाड़ी से जाउंगी।

यह कहकर जालपा ऊपर चली गई। रमा भी पीछे-पीछे यह सोचता हुआ चला, इसे कैसे शान्त करूं?

जालपा अपने कमरे में लाकर बिस्तर लपेटने लगी कि रमा ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोला-तुम्हें मेरी कसम जो इस वक्त जाने का नाम लो !

जालपा ने त्योरी चढ़ाकर कहा-तुम्हारी कसम की हमें कुछ परवा नहीं है।

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[ ३५ ]उसने अपना हाथ छुड़ा लिया और फिर बिछावन लपेटने लगी। रमा खिसियाना-सा होकर एक किनारे खड़ा हो गया। जालपा ने बिस्तरबन्द से बिस्तर को बांधा और फिर अपने सन्दूक को साफ करने लगी; मगर अब उसमें वह पहले-ली तत्परता न थी, बार-बार सन्दूक बन्द करती और खोलती। वर्षा बन्द हो चुकी थी, केवल छत पर हका हुआ पानी टपक रहा था।

आखिर वह उसी बिस्तर के बण्डल पर बैठ गयी, और बोली-तुमने मुझे कसम क्यों दिलाई ?

रमा के हृदय में आशा की गुदगुदी हुई। बोला इसके सिवा मेरे पास तुम्हें रोकने का और क्या साधन था ?

जालपा-क्या तुम जानते हो कि मैं यहीं घुट-घुटकर मर जाऊँ ?

रमा-तुम ऐसे मनहूस शब्द क्यों मुंह से निकालती हो ? मैं तो चलने को तैयार है, न मानोगी तो पहुँचाना ही पड़ेगा। जाओ मेरा ईश्वर मालिक है; मगर कम से कम बाबूजी और अम्मा से पूछ लो।

बुझती हुई आग में तेल पड़ गया। जालपा तड़पकर बोली-वह मेरे कौन होते हैं जो उनसे पूछूं ?

रमा०-कोई नहीं होते ?

जालपा--कोई नहीं ! अगर कोई होते, तो मुझे यों न छोड़ देते। रुपये रखते हुए कोई अपने प्रियजनों का कष्ट नहीं देख सकता। ये लोग क्या मेरे आँसू न पोंछ सकते थे ? मैं दिन-के-दिन यहाँ पड़ी रहती हैं। कोई झूठे भी पूछता है ? मुहल्ले की स्त्रियाँ मिलने आती है, कैसे मिलूं? यह सूरत अब मुझसे नहीं दिखाई जाती। न कहीं आना, न जाना, न किसी से बात न चीत, ऐसे कोई कै दिन रह सकता है ? मुझे इन लोगों से अब कोई आशा नहीं रही। आखिर दो लड़के और भी तो है, उनके लिए भी कुछ जोड़ेंगे कि तुम्हीं को दे दें।

रमा को बड़ी-बड़ी बातें करने का फिर अवसर मिला। वह खुश था कि इतने दिनों के बाद आज उसे प्रसन्न करने का मौका मिला। बोला- प्रिये, तुम्हारा खयाल बहुत ठीक है। जरूर यही बात है। नहीं तो ढाई तीन हजार उनके लिए क्या बड़ी बात थी ? पचास हजार बैंक में जमा है, दफ्तर तो केवल दिल बहलाने जाते है।

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[ ३६ ]जालपा-मगर हैं मक्खीचूस पल्ले सिरे के !

रमा०-मक्खीचूस न होते, तो इतनी सम्पत्ति कहाँ से आती?

जालपा-मुझे तो किसी को परवा नहीं है जी, हमारे घर किस बात की कमी है ! दाल-रोटी वहाँ मिल जायेगी। दो-चार सखी-सहेलियाँ है, खेत-खलिहान हैं, बाग-बगीचे हैं,जी बहलता रहेगा।

रमा०-और मेरी क्या दशा होगी, जानती हो ? घुल घुलकर मर जाऊँगा। जब से चोरी हुई है, मेरे दिल पर जैसो गुजरती है, वह दिल ही जानता है। अम्मा और बाबूजी से एक बार नहीं, लाखों बार कहा, जोर देकर कहा कि दो-चार चीजें तो बनवा ही दीजिये पर किसी के कान पर जूं तक न रेंगी। न जाने क्यों मुझसे आंखें फेर लीं।

जालपा-जब तुम्हारी नौकरी कही लग जाये तो मुझे बुला लेना।

रमा-तलाश कर रहा हूँ। बहुत जल्द मिलनेवाली है। हजारों बड़े-बड़े आदमियों से मुलाकात है, नौकरी मिलते क्या देर लगती है, हाँ, जरा अच्छी जगह चाहता हूँ।

जालपा-मैं इन लोगों का रुख समझती हूँ। मैं भी यहाँ अब दावे के साथ रहूँगी। क्यों, किसी से नौकरी के लिए कहते नहीं हो?

रमा०—शर्म आती है किसी से कहते हुए।

जालपा-इसमें शर्म की कौन-सी बात है ? कहते शर्म आती हो, तो खत लिख दो।

रमा उछल पड़ा, कितना सरल उपाय था, और अभी तक यह सीधी-सी बात उसे न सूझी थी। बोला-हाँ, यह तुमने बहुत अच्छी तरकीब बतलाई। कल ज़रूर लिखूंगा।

जालपा-मुझे पहुँचाकर आना, तो लिखना। कल ही थोड़े लौट आओगे।

रमा०-तो क्या तुम सचमुच जाओगी ? तब मुझे नौकरी मिल चुकी और मैं खत लिख चुका ! इसी बियोग के दुःख मै बैठकर रोऊँगा कि नौकरी ढूंढेगा। नहीं, इस वक्त जाने का विचार छोड़ो। नहीं, सच कहता हूं, मैं कहीं भाग जाऊँगा। मकान का हाल देख चुका। तुम्हारे सिवा और कौन बैठ हुआ है, जिसके लिए यहाँ पड़ा सड़ा करूं ? हटो तो जरा मैं बिस्तर खोल दू़ं।

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[ ३७ ]जालपा ने बिस्तर पर ते जरा खिसककर कहा-मैं बहुत जल्द चली आऊँगी। तुम गये और मैं आयी।

रमा ने बिस्तर खोलते हुए कहा-जी नहीं, माफ़ कीजिए, इस धोखे में नहीं आता। तुम्हें क्या, तुम तो सहेलियों के साथ विहार करोगी, मेरी खबर तक न लोगी, यहाँ मेरी जान पर बन आयेगी। इस घर में फिर कैसे कदम रखा जायेगा।

जालपा ने एहसान जताते हुए कहा-आपने मेरा बँधा-बँधाया बिस्तर खोल दिया, नहीं तो आज कितने आनन्द से घर पहुँच जाती। शहजादी सच कहती थी, मर्द बड़े टोनहे होते हैं। मैंने आज पक्का इरादा कर लिया था कि चाहे ब्रह्मा भी उतर आवे, पर मैं न मानूंगी। पर तुमने दो ही मिनट में सारे मंसूबे चौपट कर दिये। कल खत लिखना जरूर। बिना कुछ पैदा किये अब निर्वाह नहीं है।

रमा-कल नहीं, मैं इसी वक्त जाकर दो-तीन चिट्ठियाँ लिखता हू़्ं।

जालपा-पान तो खाते जाओ रमानाथ ने पान खाया और मर्दाने कमरे में खत लिखने बैठे। मगर फिर कुछ सोचकर उठ खड़े हुए और एक तरफ को चल दिये। स्त्री का सप्रेम आग्रह पुरुष से क्या नहीं करा सकता।

रमा के परिचितों में एक रमेश बाबू म्युनिसिपल बोर्ड में हेड क्लर्क थे। उम्र तो चालीस के ऊपर थी, पर ये बड़े रसिक। शतरंज खेलने बैठते तो सबेरा कर देते, दफ्तर भी भूल जाते। मै आगे नाथ न पीछे पगहा। जवानी में स्त्री मर गयी थी, दूसरा विवाह नहीं किया। उस एकांत जीवन में सिवा विनोद के और क्या अवलम्ब था। चाहते तो हजारों से वारे-न्यारे करते, पर रिश्वत की कौड़ी भी हराम समझते थे। रमा से बड़ा स्नेह रखते थे और कौन ऐसा निठल्ला था, जो रात-रात भर उनसे शतरंज खेलता! आज कई दिन से बेचारे बहुत व्याकुल हो रहे थे। शतरंज की एक बाजी भी न हुई। अखबार कहाँ तक पढ़ते। रमा इधर दो-एक बार आया अवश्य, पर बिसात पर न बैठा। रमेश बाबू ने मुहरे बिछा दिये, उसको पकड़कर

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[ ३८ ]
बिठाया पर वह बैठा नहीं। वह क्यों शतरंज खेलने लगा ? बहू आयी है, उसका मुंह देखेगा, उससे प्रेमालाप करेगा कि उस बूढ़े के साथ शतरंज खेलेगा। कई बार जी में आया, उसे बुलवाये; पर यह सोचकर कि वह क्यों आने लगा, रह गये। कहाँ जायें ? सिनेमा देख आवें ? किसी तरह समय तो कटे। सिनेमा से उन्हें बहुत प्रेम न था; पर इस वक्त उन्हें सिनेमा के सिवा और कुछ न सूझा। कपड़े पहने और जाना ही चाहते थे कि रमा ने कमरे में कदम रखा।

रमेश उसे देखते ही गेंद की तरह लुढ़ककर द्वार पर जा पहुंचे। और उसका हाथ पकड़कर बोले-भाइये, भाइये, बाबू रमानाथ साहब बहादुर ! तुम तो इस बुड्ढे को बिलकुल भूल ही गये। हाँ भाई, अब क्यों आओगे ? प्रेमिका की रसीली बातों का आनन्द यहाँ कहाँ। चोरी का कुछ पता चला?

रमा०-कुछ भी नहीं।

रमेश -बहुत अच्छा हुआ, थाने में रपट नहीं लिखायी। नहीं सौ- दौ-सौ के मत्थे और जाते। बहू को तो बड़ा दुःख हुआ होगा?

रमा- कुछ पूछिए मत, तभी से दाना-पानी छोड़ रखा है। मैं तो तंग आ गया। जी में आता है, कहीं भाग जाऊँ। बाबूजी सुनते ही नहीं।

रमेश-बाबूजी के पास क्या कारूँ का खजाना रखा हुआ है ? अभी चार-पांच हजार खर्च किये हैं, फिर कहाँ से लाकर गहने बनवा दें ? दस बीस हजार रुपये होंगे, तो अभी तो बच्चे भी तो सामने हैं और नौकरी का भरोसा ही क्या। ५० होते ही क्या है ?

रमा-मैं तो मुसीबत में फंस गया। अब मालूम होता है, कहीं नौकरी करनी पड़ेगी। चैन से खाते और मौज उड़ाते थे, नहीं तो बैठे बैठाये इस मायाजाल में फंसे। अब बतलाइए, है कहीं नौकरी-चाकरी का सहारा।

रमेश ने ताक पर से मुहरे और बिसात उतारते हुए कहा-आओ एक बाजी हो जाये। फिर इस मसले को सोचें। इसे जितना आसान समझ रहे हो, उतना आसान नहीं है। अच्छे-अच्छे धक्के खा रहे हैं।

रमा-मेरा तो इस वक्त खेलने को जी नहीं चाहता। जब तक यह प्रश्न हल न हो जाये, मेरे होश ठिकाने नहीं होंगे।

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[ ३९ ]रमेश बाबू ने शतरंज के मुहरे बिछाते हुए कहा-आओ बैठो। एक बार तो खेल लो, फिर सोचे क्या हो सकता है।

रमा-जरा भी जी नहीं चाहता ! मैं जानता कि सिर मुड़ाते ही ओले पड़ेंगे, तो मैं विवाह के नजदीक ही न जाता।

रमेश-अजी दो-चार सालें चलो तो आप-ही-आप जी लग जायगा। जरा अकल को गांठ तो खोलो।

बाजी शुरू हुई। कई मामूली चालों के बाद रमेश बाबू ने रमा का रुख पीट लिया।

रमा-ओह, क्या गलती हुई !

रमेश बाबू की आँखों में नशे की-सी लाली छाने लगी। शतरंज उनके लिए शराब का मादक नशा था। बोले- बोहनी अच्छी हुई ! तुम्हारे लिए मैं एक जगह सोच रहा हूँ। मगर वेतन बहुत कम है, केवल तीस रूपये। वह रंगीन दाढ़ीवाले खाँ साहब नहीं हैं, उनसे काम नहीं होता, कई बार बचा चुका हूँ। सोचता था, जब तक किसी तरह काम चले, बने रहें। बाल बच्चे वाले आदमी है। वह तो कई बार कह चुके हैं, मुझे छुट्टी दीजिए। तुम्हारे लायक तो वह जगह नहीं है, चाहो तो कर लो।

यह कहते-कहते रमा का फीला मार लिया।

रमा ने फीले को फिर उठाने की चेष्टा करके कहा-आप मुझे बातों में लगाकर मेरे मोहरें उड़ाते जाते हैं, इनकी सनद नहीं, लाओ मेरा फीला !

रमेश- देखो भाई, बेईमानी मत करो। मैंने तुम्हारा फीला जबरदस्ती तो नहीं उड़ाया। हाँ, तुम्हें वह जगह मंजूर है ?

रमा-वेतन तो तीस ही है।

रमेश- हाँ, वेतन तो कम है, मगर शायद आगे चलकर बढ़ जाये। मेरी तो राय है कर लो।

रमा०-अच्छी बात है, आपकी सलाह है तो कर लूँगा।

रमेश-जगह आमदनी की है। मियाँ ने उसी जगह पर रहते हुए लड़कों को एम० ए०, एल० एल० बी० करा लिया। दो कालेज में पढ़ते है। लड़कियों की शादियां अच्छे घरों में की। हाँ, जरा समझ-बूझकर काम करने की जरूरत है।

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[ ४० ]रमा- की मुझे परवा नहीं, रिश्वत कोई अच्छी चीज तो है नही।

रमेश -बहुत खराब, मगर बाल-बच्चों के आदमी क्या करें। तीस रुपयों में गुजर नहीं हो सकती। मैं अकेला आदमी हूँ। मेरे लिए डेढ़ सौ ही काफी है, कुछ बचा भी लेता हूँ। लेकिन जिस घर में बहुत-से आदमी हों, लड़कों को पढ़ाई हो, लड़कियों की शादियां हों, वह आदमी क्या कर सकता है। जब तक छोटे-छोटे आदमियों का वेतन इतना न हो जायेगा कि वह भलमनसी के साथ निर्वाह कर सकें तब तक रिश्वत बन्द न होगी। यही रोटी-दाल, घी-दूध, तो वह भी खाते हैं फिर एक को बीस रुपये और दूसरे को तीन सौ रुपये क्यों देते हो?

रमा का फर्जी पिट गया, रमेश बाबू ने बड़े जोर से कहकहा मारा।

रमा ने रोष के साथ कहा- अगर आप चुपचाप खेलते हैं तो खेलिये, नहीं तो मैं जाता हूं। मुझे बातों में लगाकर सारे मुहरे उड़ा लिये।

रमेश-अच्छा साहब, अब बोलूँ तो जबान पकड़ लीजिये यह लीजिये शय ! तुम कल अर्जी दे दो। उम्मेद तो है, तुम्हें यह जगह मिल जायेगी; मगर जिस दिन जगह मिले, मेरे साथ रात भर खेलना होगा।

रमा-आप तो दो ही मातों में रोने लगते हैं।

रमेशल-अजी, वह दिन गये, जब आप मुझे मात दिया करते थे। आजकल चन्द्रमा बलवान है। इधर मैंने एक मन्त्र सिद्ध किया है। क्या मजाल कि कोई मात दे सके ! फिर शय !

रमा-जी तो चाहता है, दूसरी बाजी मात देकर जाऊँ, मगर देर होगी।

रमेश-देर क्या होगी। अभी तो नौ बजे है। खेल लो, दिल का अरमान निकल जाय ! यह शय और मात !

रमा-अच्छा कल की रही। कल ललकारकर पांच मातें न दी तो कहिएगा।

रमेश-अजी, जाओ भी; तुम मुझे क्या मात दोगे ? हिम्मत हो सो अभी सही।

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[ ४१ ]रमा--अच्छा आइए, आप भी क्या कहेंगे; मगर मैं पाँच बाजियों से कम न खेलूंगा!

रमेश -पाँच नहीं, तुम इस खेलो जी! रात तो अपनी है। तो चलो फिर खाना खा लें। तब निश्चिन्त होकर बैठे। तुम्हारे घर कहलाये देता हूं कि आज यहीं सोयेंगे इन्तजार न करें।

दोनों ने भोजन किया और फिर शतरंज पर बैठे। पहली बाजी में ग्यारह बज गये। रमेश बाबू को जीत रही। दूसरी बाजी भी उन्हीं के हाथ रही। तिसरी बाजी खतम हुई, तो दो बज गये !

रमा-अब तो मुझे नींद आ रही है।

रमेश- तो मुंह धो डालो, बरफ रखी हुई है। मैं पांच बाजियां खेले बगैर सोने न दूंगा।

रमेश बाबू को यह विश्वास हो रहा था कि आज मेरा सितारा बुलन्द है। नहीं तो रमा को लगातार तीन मात देना आसान न था। वह समझ गये थे, इस वक्त चाहे जितनी बाजियां खेलू जीत मेरी ही होगी; मगर चौथी बाजी हार गये, तो यह विश्वास जाता रहा। उलटे यह भय हुआ कि कहीं लगातार हारता न जाऊँ। बोले- अब तो सोना चाहिए।

रमा०-क्यों, पांच बाजियां पूरी न कर लीजिये ?

रमेश-कल दफ्तर भी तो जाना है। रमा ने अधिक आग्रह न किया। दोनों सोयें।

रमा यों ही आठ से पहले न उठता था फिर आज तो तीन बजे सोया था। आज तो उसे दस बजे तक सोने का अधिकार था। रमेश नियमानुसार पांच बजे उठ बैठे, स्नान किया, संध्या की, घूमने गये और आठ बजे लौटे; मगर रमा तब तक सोता ही रहा। आखिर जब साढ़े नौ बज गये तो उन्होंने उसे जगाया।

रमा में बिगड़कर कहा-नाहक जगा दिया ! कैसी मजे की नींद आ रही थी।

रमेश–अजी, वह अर्जी देना है कि नहीं तुमको ?

रमा -आप दे दीजिएगा।

रमेश- और जो कहीं साहब ने बुलाया, तो मैं ही चला जाऊँगा?

रमा-उँह, जो चाहे कीजिएगा, मैं तो सोता हूँ।

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[ ४२ ]रमा फिर लेट गया, और रमेश ने भोजन किया, कपड़े पहने और दफ्तर चलने को तैयार हुए ! उसी वक्त रमानाथ घबड़ाकर उठा और आँखें मलता हुआ बोला-मैं भी चलूंगा।

रमेश -अरे ! मुंह-हाथ तो धो लो भले आदमी !

रमा-आप तो चले जा रहे है।

रमेश-नहीं, अभी १५-२० मिनट तक रुक सकता हूँ तैयार हो जाओ।

रमा- मैं तैयार हूँ। वहाँ से लौटकर भोजन करूँगा।

रमेश- कहता तो हूँ, अभी आध घंटे तक रुका हुआ हूँ।

रमा ने एक मिनट में मुंह धोया, पाँच मिनट में भोजन किया और झटपट रमेश के साथ दफ्तर चला।

रास्ते में रमेश ने मुसकुराकर कहा-घर क्या बहाना करोगे, कुछ सोच रखा है ?

रमा-कह दूँगा, रमेश बाबू ने आने नहीं दिया।

रमेश-मुझे गालियां दिलाओगे और क्या। फिर कभी न आने पाओगे।

रमा-ऐसा स्त्री भक्त नहीं हूँ। हाँ, यह तो बतलाइए, मुझे अर्जी लेकर तो साहब के पास न जाना पड़ेगा ?

रमेश-और क्या तुम समझते हो, घर बैठे जगह मिल जायेगी ? महीनों दौड़ना पड़ेगा, महीनों! बीसियों सिफारिशें लानी पड़ेगी; सुबह-शाम हाजिरी देनी पड़ेगी ! क्या नौकरी मिलना आसान है ?

रमा-तो में ऐसी नौकरी से बाज आया। मुझे तो अर्जी लेकर जाते ही शर्म आती है, खुशामदें कौन करेगा। पहले मुझे क्लर्कों पर बड़ी हँसी पाती थी, मगर वही बला मेरे सिर पड़ी। साहब डाँट-वाँट तो न बतायेंगे ?

रमेश बुरी तरह डांटता है, लोग उसके सामने जाते हुए कांपते हैं।

रमा- तो फिर मैं घर जाता हूँ। वह सब मुझसे न बर्दाश्त होगा। रमेश-पहले सब ऐसे ही घबराते हैं. मगर सहते-सहते आदत पड़ जाती है। तुम्हारा दिल धड़क रहा होगा कि न जाने कैसी बीतेगी। जब


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