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गुप्त-धन २/१८ मंदिर और मसजिद

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गुप्त-धन
प्रेमचंद, संपादक अमृत राय

इलाहाबाद: हंस प्रकाशन, पृष्ठ १५९ से – १६९ तक

 

मंदिर और मसजिद


चौधरी इतरतअली 'कड़े' के बड़े जागीरदार थे। उनके बुजुर्गों ने शाही जमाने में अंग्रेजी सरकार की बड़ी-बड़ी ख़िदमतें की थीं। उनके बदले में यह जागीर मिली थी। अपने सुप्रबन्ध से उन्होंने अपनी मिल्कियत और भी बढ़ा ली थी और अब उस इलाके में उनसे ज्यादा धनी-मानी कोई आदमी न था। अंग्रेज हुक्काम जब इलाके में दौरा करने जाते तो चौधरी साहब की मिज़ाजपुर्सी के लिए जरूर आते थे। मगर चौधरी साहब खुद किसी हाकिम को सलाम करने न जाते, चाहे वह कमिश्नर ही क्यों न हो। उन्होंने कचहरियों में न जाने का व्रत-सा कर लिया था। किसी इजलास-दरबार में भी न जाते थे। किसी हाकिम के सामने हाथ बाँधकर खड़ा होना और उसकी हर एक बात पर 'जी हुज़ूर' करना अपनी शान के खिलाफ समझते थे। वह यथासाध्य किसी मामले-मुकदमे में न पड़ते थे, चाहे अपना नुकसान ही क्यों न होता हो। यह काम सोलहो आने मुखतारो के हाथ में था, वे एक के सौ करें या सौ का एक। फारसी और अरबी के आलिम थे, शरा के बड़े पाबंद, सूद को हराम समझते, पाँचों वक्त की नमाज अदा करते, तीसों रोज़े रखते और नित्य कुरान की तलावत (पाठ) करते थे। मगर धार्मिक संकीर्णता कहीं छू तक नहीं गयी थी। प्रातःकाल गंगा-स्नान करना उनका नित्य का नियम था। पानी बरसे, पाला पड़े, पर पाँच बजे वह कोस भर चलकर गंगा तट पर अवश्य पहुँच जाते। लौटते वक्त अपनी चाँदी की सुराही गंगाजल से भर लेते और हमेशा गंगाजल पीते। गंगाजल के सिवा वह और कोई पानी पीते ही न थे। शायद कोई योगी-यती भी गंगाजल पर इतनी श्रद्धा न रखता होगा। उनका सारा घर, भीतर से बाहर तक, सातवें दिन गऊ के गोबर से लीपा जाता था। इतना ही नहीं, उनके यहाँ बगीचे में एक पण्डित बारहो मास दुर्गा पाठ भी किया करते थे। साधु-सन्यासियों का आदर-सत्कार तो उनके यहाँ जितनी उदारता और भक्ति से किया जाता था, उस पर राजों को भी आश्चर्य होता था। यो कहिए कि सदाव्रत चलता था। उधर मुसलमान फकीरों का खाना बावर्चीखाने में पकता था और कोई सौ-सवा सौ आदमी नित्य एक दस्तरख़ान पर खाते थे। इतना दान-पुण्य करने पर भी उन पर किसी महाजन का एक कौड़ी का भी कर्ज न था। नीयत की कुछ ऐसी बरकत थी कि दिन-दिन उन्नति ही होती थी। उनकी रियासत में आम हुक्म था कि मुर्दों को जलाने के लिए, किसी यज्ञ या भोज के लिए, शादी-ब्याह के लिए सरकारी जंगल से जितनी लकड़ी चाहे काट लो। चौधरी साहब से पूछने की जरुरत न थी। हिंदू असामियों की बारात में उनकी ओर से कोई न कोई जरूर शरीक होता था। नवेद के रुपये बँधे हुए थे, लड़कियों के विवाह में कन्यादान के रुपये मुकर्रर थे, उनको हाथी, घोड़े, तंबू, शामियाने, पालकी-नालकी, फर्श-जाजिमें, पंखे-चँवर, चाँदी के महफिली सामान उसके यहाँ से बिना किसी दिक्कत के मिल जाते थे, मांगने भर की देर रहती थी। इस दानी, उदार, यशस्वी आदमी के लिए प्रजा भी प्राण देने को तैयार रहती थी।

चौधरी साहब के पास एक राजपूत चपरासी था भजनसिंह। पूरे छः फुट का जवान था, चौड़ा सीना, बाने का लठैत, सैकड़ों के बीच से मारकर निकल आनेवाला। उसे भय तो छू भी नहीं गया था। चौधरी साहब को उस पर असीम विश्वास था, यहाँ तक कि हज करने गये तो उसे भी साथ लेते गये थे। उनके दुश्मनों की कमी न थी, आस-पास के सभी जमींदार उनकी शक्ति और कीर्ति से जलते थे। चौधरी साहब के खौफ के मारे वे अपने असामियों पर मनमाना अत्याचार न कर सकते थे, क्योंकि वह निर्बलों का पक्ष लेने के लिए सदा तैयार रहते थे। लेकिन भजनसिंह साथ हो, तो उन्हें दुश्मन के द्वार पर भी सोने में कोई शंका न थी। कई बार ऐसा हुआ कि दुश्मनों ने उन्हें घेर लिया और भजनसिंह अकेला जान पर खेलकर उन्हें बेदाग निकाल लाया। ऐसा आग में कूद पड़नेवाला आदमी भी किसी ने कम देखा होगा। वह कहीं बाहर जाता तो जब तक खैरियत से घर न पहुँच जाय, चौधरी साहब को शंका बनी रहती थी कि कहीं किसी से लड़ न बैठा हो। बस पालतू मेढ़े की-सी दशा थी, जो जंजीर से छूटते ही किसी न किसी से टक्कर लेने दौड़ता है। तीनों लोक में चौधरी साहब के सिवा उसकी निगाहों में और कोई था ही नहीं। बादशाह कहो, मालिक कहो, देवता कहो, जो कुछ थे चौधरी साहब थे।

मुसलमान लोग चौधरी साहब से जला करते थे। उनका ख़याल था कि वह अपने दीन से फिर गये हैं। ऐसा विचित्र जीवन-सिद्धांत उनकी समझ मे क्योंकर आता। मुसलमान, अगर सच्चा मुसलमान है तो गंगाजल क्यों पिये, साधुओं का आदर-सत्कार क्यों करे, दुर्गापाठ क्यों करावे? मुल्लाओं में उनके खिलाफ हँडिया पकती रहती थी और हिन्दुओं को ज़क देने की तैयारियाँ होती रहती थी। आखिर यह राय तय पायी कि ठीक जन्माष्टमी के दिन ठाकुरद्वारे पर हमला किया जाय और हिन्दुओं का सिर नीचा कर दिया जाय, दिखा दिया जाय कि चौधरी साहब के बल पर फूले-फूले फिरना तुम्हारी भूल है। चौधरी साहब कर ही क्या लेंगे। अगर उन्होंने हिन्दुओं की हिमायत की, तो उनकी भी खबर ली जायगी, सारा हिन्दूपन निकल जायगा।

अँधेरी रात थी, कड़े के बड़े ठाकुरद्वारे में कृष्ण का जन्मोत्सव मनाया जा रहा था। एक वृद्ध महात्मा पोपले मुँह से तंबूरे पर ध्रुपद अलाप रहे थे और भक्तजन ढोल-मजीरे लिये बैठे थे कि इनका गाना बंद हो, तो हम अपना कीर्तन शुरू करें। भंडारी प्रसाद बना रहा था। सैकड़ों आदमी तमाशा देखने के लिए जमा थे।

सहसा मुसलमानों का एक दल लाठियाँ लिये हुए आ पहुँचा, और मंदिर पर पत्थर बरसाना शुरू किया। शोर मच गया––पत्थर कहाँ से आते हैं! ये पत्थर कौन फेंक रहा है! कुछ लोग मंदिर के बाहर निकलकर देखने लगे। मुसलमान लोग तो घात में बैठे ही थे, लाठियाँ जमानी शुरू की। हिन्दुओं के हाथ में उस समय ढोल-मजीरे के सिवा और क्या था। कोई मंदिर मे आ छिपा, कोई किसी दूसरी तरफ भागा। चारों तरफ शोर मच गया।

चौधरी साहब को भी खबर हुई। भजनसिंह से बोले––ठाकुर, देखो तो क्या शोर-गुल है? जाकर बदमाशों को समझा दो और न माने तो दो-चार हाथ चला भी देना, मगर खून-खच्चर न होने पाये।

ठाकुर यह शोर-गुल सुन-सुनकर दाँत पीस रहे थे, दिल पर पत्थर की सिल रक्खे बैठे हुए थे। यह आदेश सुना तो मुँहमाँगी मुराद पायी। शत्रु-भजन डंडा कंधे पर रक्खा और लपके हुए मंदिर पहुँचे। वहाँ मुसलमानों ने घोर उपद्रव मचा रक्खा था। कई आदमियों का पीछा करते हुए मंदिर में घुस गये थे, और शीशे के सामान तोड़-फोड़ रहे थे।

ठाकुर की आँखो में खून उतर आया, सिर पर खून सवार हो गया। ललकारते हुए मंदिर में घुस गया और बदमाशों को पीटना शुरू किया। एक तरफ तो वह अकेला और दूसरी तरफ़ पचासों आदमी! लेकिन वाह रे शेर! अकेले सबके छक्के छुड़ा दिये, कई आदमियों को मार गिराया। गुस्से में उसे इस वक़्त कुछ न सूझता था, किसी के मरने-जीने की परवा न थी। मालूम नहीं, उसमें इतनी शक्ति कहाँ से आ गयी थी। उसे ऐसा जान पड़ता था कि कोई दैवी शक्ति मेरी मदद कर रही है। कृष्ण भगवान स्वयं उसकी रक्षा करते हुए मालूम होते थे। धर्म-संग्राम में मनुष्यों से अलौकिक काम हो जाते हैं।

उधर ठाकुर के चले आने के बाद चौधरी साहब को भय हुआ कि कहीं ठाकुर किसी का खून न कर डाले, उसके पीछे खुद भी मंदिर में आ पहुँचे। देखा तो कुहराम मचा हुआ है। बदमाश लोग अपनी जान ले-लेकर बेतहाशा भागे जा रहे हैं, कोई पड़ा कराह रहा है, कोई हाय-हाय कर रहा है। ठाकुर को पुकारना ही चाहते थे कि सहसा एक आदमी भागा हुआ आया और उनके सामने आता-आता जमीन पर गिर पड़ा। चौधरी साहब ने उसे पहचान लिया, और दुनिया उनकी आँखों में अँधेरी हो गयी। यह उनका इकलौता दामाद और उनकी जायदाद का वारिस शाहिद हुसेन था!

चौधरी ने दौड़कर शाहिद को सँभाला और जोर से बोले––ठाकुर, इधर आओ––लालटेन......लालटेन! आह, यह तो मेरा शाहिद है!

ठाकुर के हाथ-पाँव फूल गये। लालटेन लेकर बाहर निकले। शाहिद हुसेन ही थे। उनका सिर कट गया था और रक्त उछलता हुआ निकल रहा था।

चौधरी ने सिर पीटते हुए कहा––ठाकुर, तुमने तो मेरा चिराग ही गुल कर दिया।

ठाकुर ने थरथर काँपते हुए कहा––मालिक, भगवान जानते हैं, मैंने पहचाना नहीं।

चौधरी––नहीं, मैं तुम्हारे ऊपर इलज़ाम नही रखता। भगवान के मंदिर में किसी को घुसने का अख़्तियार नहीं है। अफसोस यही है कि खानदान का निशान मिट गया, और तुम्हारे हाथों! तुमने मेरे लिए हमेशा अपनी जान हथेली पर रक्खी, और खुदा ने तुम्हारे ही हाथों मेरा सत्यानास करा दिया।

चौधरी साहब रोते जाते थे और ये बातें कहते जाते थे। ठाकुर ग्लानि और पश्चात्ताप से गड़ा जाता था। अगर उसका अपना लड़का मारा गया होता, तो उसे इतना दुःख न होता। आह! मेरे हाथों मेरे मालिक का सर्वनाश हुआ! जिसके पसीने की जगह वह खून बहाने को तैयार रहता था, जो उसका स्वामी ही नहीं, इष्ट था, जिसके ज़रा-से इशारे पर वह आग में कूद सकता था, उसी के वंश की उसने जड़ काट दी! वह उसकी आस्तीन का साँप निकला! रुँधे हुए कंठ से बोला––सरकार, मुझसे बढ़कर अभागा और कौन होगा। मेरे मुँह में कालिख लग गयी।

यह कहते-कहते ठाकुर ने कमर से छुरा निकाल लिया। वह अपनी छाती में छुरा खोंसकर कालिमा को रक्त से धोना ही चाहते थे कि चौधरी साहब ने लपककर छुरा उनके हाथों से छीन लिया और बोले––क्या करते हो, होश सँभालो। ये तकदीर के करिश्मे हैं, इसमें तुम्हारा कोई कसूर नहीं। खुदा को जो मंजूर था वह हुआ। मै अगर खुद शैतान के बहकाने मे आकर मंदिर मे घुसता और देवता की तौहीन करता, और तुम मुझे पहचानकर भी कत्ल कर देते, तो मैं अपना खून माफ कर देता। किसी के दीन की तौहीन करने से बड़ा और कोई गुनाह नहीं है। गो इस वक्त मेरा कलेजा फटा जाता है, और यह सदमा मेरी जान ही लेकर छोड़ेगा, पर खुदा गवाह है कि मुझे तुमसे जरा भी मलाल नहीं है। तुम्हारी जगह मैं होता, तो मैं भी यही करता, चाहे मेरे मालिक का बेटा ही क्यों न होता। घरवाले मुझे तानों से छेदेंगे, लड़की रो-रोकर मुझसे खून का बदला माँगेगी, सारे मुसलमान मेरे खून के प्यासे हो जायेंगे, मैं काफिर और बेदीन कहा जाऊँगा, शायद कोई दीन का पक्का नौजवान मुझे कत्ल करने पर भी तैयार हो जाय, लेकिन मैं हक से मुँह न मोड़ूँगा। अँधेरी रात है, इसी दम यहाँ से भाग जाओ, और मेरे इलाके में किसी छावनी में छिप जाओ। वह देखो, कई मुसलमान चले आ रहे हैं––मेरे घरवाले भी हैं––भागो, भागो!

साल भर भजनसिंह चौधरी साहब के इलाके में छिपा रहा। एक ओर मुसलमान लोग उसकी टोह में लगे रहते थे, दूसरी ओर पुलिस। लेकिन चौधरी उसे हमेशा छिपाते रहते थे। अपने समाज के ताने सहे, अपने घरवालों का तिरस्कार सहा, पुलीस के वार सहे, मुल्लाओं की धमकियाँ सहीं, पर भजनसिंह की खबर किसी को कानों-कान न होने दी। ऐसे वफादार स्वामिभक्त सेवक को वह जीते जी निर्दय कानून के पंजे मे न देना चाहते थे। उनके इलाके की छावनियों में कई बार तलाशियाँ हुईं, मुल्लाओं ने घर के नौकरों, मामाओं, लौंडियों को मिलाया। लेकिन चौधरी ने ठाकुर को अपने एहसानों की भाँति छिपाये रक्खा।

लेकिन ठाकुर को अपने प्राणों की रक्षा के लिए चौधरी साहब को संकट में पड़े देखकर असह्य वेदना होती थी। उसके जी में बार-बार आता था, चलकर मालिक से कह दूँ––मुझे पुलीस के हवाले कर दीजिए। लेकिन चौधरी साहब बारबार उसे छिपे रहने की ताकीद करते रहते थे।

जाड़ों के दिन थे। चौधरी साहब अपने इलाके का दौरा कर रहे थे। अब वह मकान पर बहुत कम रहते थे। घरवालों के शब्द-बाणों से बचने का यही उपाय था। रात को खाना खाकर लेटे ही थे कि भजनसिंह आकर सामने खड़ा हो गया। उसकी सूरत इतनी बदल गयी थी कि चौधरी साहब देखकर चौंक पडे। ठाकुर ने कहा––सरकार अच्छी तरह हैं?

चौधरी––हाँ, खुदा का फज्ल है। तुम तो बिलकुल पहचाने ही नहीं जाते, इस वक्त कहाँ से आ रहे हो?

ठाकुर––मालिक, अब तो छिपकर नहीं रहा जाता। हुक्म हो तो जाकर अदालत में हाजिर हो जाऊँ। जो भाग्य में लिखा होगा, वह होगा। मेरे कारन आपको इतनी हैरानी हो रही है, यह मुझसे नहीं देखा जाता।

चौधरी––नहीं ठाकुर, मेरे जीते-जी नहीं। तुम्हें जान-बूझकर भाड़ के मुँह में नहीं डाल सकता। पुलीस अपनी मर्जी के माफिक शहादतें बना लेगी, और मुफ़्त में तुम्हे जान से हाथ धोना पड़ेगा। तुमने मेरे लिए बड़े-बड़े खतरे सहे हैं। अगर मैं तुम्हारे लिए इतना भी न कर सकूँ, तो मुझसे बढ़कर एहसानफरामोश और कौन होगा? इस बारे में अब फिर मुझसे कुछ मत कहना।

ठाकुर––कहीं किसी ने सरकार.....

चौधरी––इसका बिलकुल गम न करो। जब तक खुदा को मंजूर न होगा, कोई मेरा बाल भी बाँका नहीं कर सकता। तुम अब जाओ, यहाँ ठहरना खतरनाक है।

ठाकुर––सुनता हूँ, लोगों ने आपसे मिलना-जुलना छोड़ दिया है।

चौधरी––दुश्मनों का दूर रहना ही अच्छा।

लेकिन ठाकुर के दिल में जो बात जम गयी थी, वह न निकली। इस मुलाक़ात ने उसका इरादा और भी पक्का कर दिया। इन्हें मेरे कारन यो मारे-मारे फिरना पड़ रहा है। यहाँ इनका कौन अपना बैठा हुआ है? जो चाहे आकर हमला कर सकता है। मेरी इस जिंदगानी को धिक्कार!

प्रातःकाल ठाकुर जिला हाकिम के बँगले पर पहुँचा। साहब ने पूछा––तुम अब तक चौधरी के कहने से छिपा था? 

ठाकुर––नहीं हजूर, अपनी जान के खौफ से।

चौधरी साहब ने यह खबर सुनी, तो सन्नाटे में आ गये। अब क्या हो? अगर मुकदमे की पैरवी न की गयी तो ठाकुर का बचना मुश्किल है। पैरवी करते हैं, तो इसलामी दुनिया मे तहलका पड़ जाता है। चारों तरफ़ से फतवे निकलने लगेंगे। उधर मुसलमानों ने ठान ली कि इसे फाँसी दिलाकर ही छोड़ेंगे। आपस में चंदा किया गया। मुल्लाओं ने मसजिद में चंदे की अपील की, द्वार-द्वार झोली बाँधकर घूमे। इस पर कौमी मुकदमे का रंग चढ़ाया गया। मुसलमान वकीलों को नाम लूटने का मौका मिला। आसपास के जिलों से जिहाद मे शरीक होने के लिए आने लगे।

चौधरी साहब ने भी पैरवी करने का निश्चय किया, चाहे कितनी ही आफ़तें क्यों न सिर पर आ पड़ें। ठाकुर उन्हें इंसाफ की निगाह में बेकसूर मालूम होता था और बेकसूर की रक्षा करने में उन्हें किसी का खौफ न था। घर से निकल खड़े हुए और शहर में जाकर डेरा जमा दिया।

छः महीने तक चौधरी साहब ने जान लड़ाकर मुकदमे की पैरवी की। पानी की तरह रुपये बहाये, आँधी की तरह दौड़े। वह सब किया जो जिन्दगी में कभी न किया था, और न पीछे कभी किया। अहलकारों की खुशामदें की, वकीलों के नाज उठाये, हाकिमों को नज़रें दीं और ठाकुर को छुड़ा लिया। सारे इलाके में धूम मच गयी। जिसने सुना, दंग रह गया। इसे कहते है शराफत! अपने नौकर को फाँसी से उतार लिया।

लेकिन साम्प्रदायिक द्वेष ने इस सत्कार्य को और ही आँखो से देखा––मुसलमान झल्लाये, हिन्दुओं ने बगलें बजायी। मुसलमान समझे, इनकी रही-सही मुसलमानी भी गायब हो गयी। हिन्दुओं ने खयाल किया, अब इनकी शुद्धि कर लेनी चाहिए, इसका मौका आ गया। मुल्लाओं ने और जोर-शोर से तबलीग की हाँक लगानी शुरू की, हिन्दुओं ने भी संगठन का झंडा उठाया। मुसलमानों की मुसलमानी जाग उठी और हिन्दुओं का हिंदुत्व। ठाकुर के कदम भी इस रेले में उखड़ गये। मनचले थे ही, हिन्दुओं के मुखिया बन बैठे। जिन्दगी में कभी एक लोटा जल तक शिव को न चढ़ाया था, अब देवी-देवतों के नाम पर लठ चलाने के लिए उद्यत हो गये। शुद्धि करने को कोई मुसलमान न मिला, तो दो-एक चमारों ही की शुद्धि करा डाली। चौधरी साहब के दूसरे नौकरों पर भी असर पडा; जो मुसलमान कभी मसजिद के सामने खड़े न होते थे, वे पाँचों वक्त की नमाज अदा करने लगे, जो हिन्दू कभी मंदिरों में झाँकते भी न थे, वे दोनो वक्त संध्या करने लगे।

बस्ती में हिन्दुओं की संख्या अधिक थी। उस पर ठाकुर भजनसिंह बने उनके मुखिया, जिनकी लाठी का लोहा सब मानते थे। पहले मुसलमान, सख्या में कम होने पर भी, उन पर गालिब रहते थे, क्योंकि वे संगठित न थे, लेकिन अब वे संगठित हो गये थे, भला मुट्ठी भर मुसलमान उनके सामने क्या ठहरते।

एक साल और गुजर गया। फिर जन्माष्टमी का उत्सव आया। हिंदुओं को अभी तक अपनी हार भूली न थी। गुप्त रूप से बराबर तैयारियाँ होती रहती थीं। आज प्रातःकाल ही से भक्त लोग मंदिर में जमा होने लगे। सबके हाथो में लाठियाँ थी, कितने ही आदमियों ने कमर में छुरे छिपा लिये थे। छेड़कर लड़ने की राय पक्की हो गयी थी। पहले कभी इस उत्सव में जुलूस न निकला था। आज धूम-धाम से जुलूस भी निकलने की ठहरी।

दीपक जल चुके थे। मसजिदों में शाम की नमाज होने लगी थी। जुलूस निकला। हाथी, घोड़े, झंडे-झंडियाँ, बाजे-गाजे, सब साथ थे। आगे-आगे भजनसिंह अपने अखाड़े के पट्ठों को लिये अकड़ते चले जाते थे।

जुमा मसजिद सामने दिखायी दी। पट्ठों ने लाठियाँ सँभाली, सब लोग सतर्क हो गये। जो लोग इधर-उधर बिखरे हुए थे, आकर सिमट गये। आपस में कुछ काना-फूसी हुई। बाजे और जोर से बजने लगे। जयजयकार की ध्वनि और जोर से उठने लगी। जुलूस मसजिद के सामने आ पहुँचा।

सहसा एक मुसलमान ने मसजिद से निकलकर कहा––नमाज का वक़्त है, बाजे बंद कर दो।

भजनसिंह––बाजे न बंद होंगे।

मुसलमान––बद करने पड़ेंगे।

भजनसिंह––तुम अपनी नमाज क्यों नहीं बंद कर देते?

मुसलमान––चौधरी साहब के बल पर मत फूलना। अबकी होश ठंडे हो जायँगे।

भजनसिंह––चौधरी साहब के बल पर तुम फूलो, यहाँ अपने ही बल का भरोसा है। यह धर्म का मामला है।

इतने में कुछ और मुसलमान निकल आये, और बाजे बंद करने का आग्रह करने लगे, इधर और जोर से बाजे बजने लगे। बात बढ़ गयी। एक मौलवी ने भजन सिंह को काफिर कह दिया। ठाकुर ने उसकी दाढ़ी पकड़ ली। फिर क्या था। सूरमा लोग निकल पड़े, मार-पीट शुरू हो गयी। ठाकुर हल्ला मारकर मसजिद में घुस गये, और मसजिद के अंदर मार-पीट होने लगी। यह नहीं कहा जा सकता कि मैदान किसके हाथ रहा। हिन्दू कहते थे, हमने खदेड़-खदेड़कर मारा, मुसलमान कहते थे, हमने वह मार मारी कि फिर सामने नहीं आयेंगे। पर इन विवादों के बीच में एक बात सब मानते थे, और वह थी ठाकुर भजनसिंह की अलौकिक वीरता। मुसलमानों का कहना था कि ठाकुर न होता तो हम किसी को जिन्दा न छोड़ते, हिन्दू कहते थे कि ठाकुर सचमुच महाबीर का अवतार है। इसकी लाठियों ने उन सबों के छक्के छुड़ा दिये।

उत्सव समाप्त हो चुका था। चौधरी साहब दीवानखाने में बैठे हुए हुक्का पी रहे थे। उनका मुख लाल था, त्यौरियाँ चढ़ी हुई थीं और आँखों से चिनगारियाँ सी निकल रही थी। 'खुदा का घर' नापाक किया गया! यह खयाल रह-रहकर उनके कलेजे को मसोसता था।

खुदा का घर नापाक किया गया! जालिमों को लड़ने के लिए क्या नीचे मैदान में जगह काफी न थी! खुदा के पाक घर में यह खून-खच्चर! मसजिद की यह बेहुरमती! मंदिर भी खुदा का घर है और मसजिद भी। मुसलमान किसी मंदिर को नापाक करने के लिए जिस सजा के लायक हैं, क्या हिन्दू मसजिद को नापाक करने के लिए उसी सज़ा के लायक नहीं?

और यह हरकत ठाकुर ने की! इसी कसूर के लिए तो उसने मेरे दामाद को कत्ल किया था। मुझे मालूम होता कि उसके हाथों ऐसा फेल होगा, तो उसे फाँसी पर चढ़ने देता। क्यों उसके लिए इतना हैरान, इतना बदनाम, इतना जेरबार होता। ठाकुर मेरा वफादार नौकर है। उसने बारहा मेरी जान बचायी है। मेरे पसीने की जगह खून बहाने को तैयार रहता है। लेकिन आज उसने खुदा के घर को नापाक किया है, और उसे इसकी सजा मिलनी चाहिए। इसकी सजा क्या है? जहन्नुम! जहन्नुम की आग के सिवा इसकी और कोई सजा नहीं है। जिसने खुदा के घर को नापाक किया, उसने खुदा की तौहीन की। खुदा की तौहीन!

सहसा ठाकुर भजनसिंह आकर खड़े हो गये।

चौधरी साहब ने ठाकुर को क्रोधोन्मत्त आँखों से देखकर कहा––तुम मसजिद में घुसे थे? 

भजनसिंह––सरकार, मौलवी लोग हम लोगों पर टूट पड़े।

चौधरी––मेरी बात का जवाब दो जी––तुम मसजिद में घुसे थे?

भजनसिंह––जब उन लोगों ने मसजिद के भीतर से हमारे ऊपर पत्थर फेंकना शुरू किया तब हम लोग उन्हें पकड़ने के लिए मसजिद में घुस गये।

चौधरी––जानते हो, मसजिद खुदा का घर है?

भजनसिंह––जानता हूँ हुजूर, क्या इतना भी नहीं जानता।

चौधरी––मसजिद खुदा का वैसा ही पाक घर है, जैसे मंदिर।

भजनसिंह ने इसका कुछ जबाब न दिया।

चौधरी––अगर कोई मुसलमान मंदिर को नापाक करने के लिए गर्दनज़दनी है तो हिन्दू भी मसजिद को नापाक करने के लिए गर्दनज़दनी है।

भजनसिंह इसका भी कुछ जवाब न दे सका। उसने चौधरी साहब को कभी इतने गुस्से में न देखा था।

चौधरी––तुमने मेरे दामाद को कत्ल किया, और मैंने तुम्हारी पैरवी की। जानते हो क्यों? इसलिए कि मैं अपने दामाद को उस सजा के लायक़ समझता था जो तुमने उसे दी। अगर तुमने मेरे बेटे को, या मुझी को, उस कसूर के लिए मार डाला होता तो मैं तुमसे खून का बदला न माँगता। वही कसूर आज तुमने किया है। अगर किसी मुसलमान ने मसजिद में तुम्हें जहन्नुम में पहुँचा दिया होता तो मुझे सच्ची खुशी होती। लेकिन तुम बेहयाओं की तरह वहाँ से बचकर निकल आये। क्या तुम समझते हो खुदा तुम्हें इस फेल की सजा न देगा? खुदा का हुक्म है कि जो उसकी तौहीन करे, उसकी गर्दन मार देनी चाहिए। यह हर एक मुसलमान का फर्ज है। चोर अगर सजा न पावे तो क्या वह चोर नहीं है? तुम मानते हो या नहीं कि तुमने खुदा की तौहीन की?

ठाकुर इस अपराध से इनकार न कर सके। चौधरी साहब के सत्संग ने हठधर्मी को दूर कर दिया था। बोले––हाँ साहब, यह कसूर तो हो गया।

चौधरी––इसकी जो सजा तुम दे चुके हो, वह सजा खुद लेने के लिए तैयार हो?

ठाकुर––मैंने जान-बूझकर तो दूल्हा मियाँ को नहीं मारा था।

चौधरी––तुमने न मारा होता, तो मैं अपने हाथों से मारता, समझ गये! अब मैं तुमसे खुदा की तौहीन का बदला लूँगा। बोलो मेरे हाथों चाहते हो या अदालत के हाथों। अदालत से कुछ दिनों के लिए सजा पा जाओगे। मैं क़त्ल करूंगा। तुम मेरे दोस्त हो, मुझे तुमसे मुतलक़ कीना नहीं है। मेरे दिल को कितना रंज है, यह खुदा के सिवा और कोई नहीं जान सकता। लेकिन मैं तुम्हे क़त्ल करूँगा। मेरे दीन का यह हुक्म है।

यह कहते हुए चौधरी साहब तलवार लेकर ठाकुर के सामने खड़े हो गये। विचित्र दृश्य था। एक बूढ़ा आदमी, सिर के बाल पके, कमर झुकी, तलवार लिये एक देव के सामने खड़ा था। ठाकुर लाठी के एक ही वार से उनका काम तमाम कर सकता था। लेकिन उसने सिर झुका दिया। चौधरी के प्रति उसके रोमरोम में श्रद्धा थी। चौधरी साहब अपने दीन के इतने पक्के हैं, इसकी उसने कभी कल्पना तक न की थी। उसे शायद धोखा हो गया था कि यह दिल से हिंदू है। जिस स्वामी ने उसे फाँसी से उतार लिया, उसके प्रति हिंसा या प्रतिकार का भाव उसके मन में क्योंकर आता? वह दिलेर था, और दिलेरों की भाँति निष्कपट था। उसे इस समय क्रोध न था, पश्चात्ताप था। मरने का भय न था, दुख था।

चौधरी साहब ठाकुर के सामने खड़े थे। दीन कहता था––मारो। सज्जनता कहती थी––छोड़ो। दीन और धर्म में संघर्ष हो रहा था।

ठाकुर ने चौधरी का असमंजस देखा। गद्‌गद कंठ से बोला––मालिक, आपकी दया मुझ पर हाथ न उठाने देगी। अपने पाले हुए सेवक को आप मार नहीं सकते। लेकिन यह सिर आपका है, आपने इसे बचाया था, आप इसे ले सकते हैं, यह मेरे पास आपकी अमानत थी। वह अमानत आपको मिल जायगी। सबेरे मेरे घर किसी को भेजकर मँगवा लीजिएगा। यहाँ दूँगा, तो उपद्रव खड़ा हो जायगा। घर पर कौन जानेगा, किसने मारा। जो भूल-चूक हुई हो, क्षमा कीजिएगा।

यह कहता हुआ ठाकुर वहाँ से चला गया।

––माधुरी, अप्रैल १९२५