गुप्त धन 1/मनावन

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गुप्त धन  (1962) 
द्वारा [[लेखक:प्रेमचंद|प्रेमचंद]]
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मनावन

बाबू दयाशंकर उन लोगों में थे जिन्हें उस वक्त तक सोहबत का मज़ा नहीं मिलता जब तक कि वह प्रेमिका की जबान की तेज़ी का मज़ा न उठायें। रूठे को मनाने में उन्हें बड़ा आनन्द मिलता। फिरी हुई निगाहें कभी-कभी मुहब्बत के नशे की मतवाली आँखों से भी ज्यादा मोहक जान पड़तीं। कभी कभी प्रेमिका की बेरुखी और तुर्शियाँ जोश और उमंग से भी ज्यादा आकर्षक लगतीं। झगड़ों में मिलाप से ज्यादा मज़ा आता। पानी में हलके हलके झकोले कैसा समाँ दिखा जाते हैं। जब तक दरिया में धीमी-धीमी हलचल न हो सैर का लुत्फ नहीं।

अगर बाबू दयाशंकर को इन दिलचस्पियों के कम मौके मिलते थे तो यह उनका क़सूर न था। गिरिजा स्वभाव से बहुत नेक और गम्भीर थी, तो भी चूँकि उसे अपने पति की रुचि का अनुभव हो चुका था इसलिए वह कभी-कभी अपनी तबीयत के खिलाफ सिर्फ उनकी खातिर से उनसे रूठ जाती थी। मगर यह बे-नींव की दीवार हवा का एक झोंका भी न सम्हाल सकती। उसकी आँखें, उसके होंठ और उसका दिल यह बहुरूपिये का खेल ज्यादा देर तक न-चला सकते। आसमान पर घटायें आती मगर सावन की नहीं, कुआर की। वह डरती, कहीं ऐसा न हो कि हँसी-हँसी में रोना आ जाय। आपस की बदमज़गी के खयाल से उसकी जान निकल जाती थी मगर इन मौकों पर बाबू साहब को जैसी-जैसी रिझानेवाली बातें सूझतीं वह काश विद्यार्थी जीवन में सूझी होतीं तो वह कई साल तक कानून से सिर मारने के बाद भी मामूली क्लर्क न रहते।

दयाशंकर को क़ौमी जलसों से बहुत दिलचस्पी थी। इस दिलचस्पी की बुनियाद उसी ज़माने में पड़ी जब वह कानून की दरगाह के मुजाविर थे और वह अब तक कायम थी। रुपयों की थैली ग़ायब हो गयी थी मगर कंधों में दर्द मौजूद था। इस साल कांफ्रेन्स का जलसा सतारा में होनेवाला था। नियत तारीख से [ १२६ ] एक रोज पहले बाबू साहब सतारा को रवाना हुए। सफ़र की तैयारियों में इतने व्यस्त थे कि गिरिजा से बातचीत करने की भी फुर्सत न मिलती थी। आनेवाली खुशियों की उम्मीद उस क्षणिक वियोग के खयाल के ऊपर भारी थी।

कैसा शहर होगा! बड़ी तारीफ सुनते हैं। दकन सौन्दर्य और संपदा की खान है। खूब सैर रहेगी। हज़रत तो इन दिल को खुश करनेवाले खयालों में मस्त थे और गिरिजा आँखों में आँसू भरे अपने दरवाजे पर खड़ी यह कैफियत देख रही थी और ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी कि इन्हें खैरियत से लाना। वह खुद एक हफ़्ता कैसे काटेगी, यह खयाल बहुत ही कष्ट देनेवाला था।

गिरिजा इन विचारों में व्यस्त थी और दयाशंकर सफर की तैयारियों में। यहाँ तक कि सब तैयारियाँ पूरी हो गयीं। इक्का दरवाजे पर आ गया। बिस्तर और ट्रक उस पर रख दिये गये और तब विदाई भेंट की बातें होने लगीं। दयाशंकर गिरिजा के सामने आये और मुस्कराकर बोले—अब जाता हूँ।

गिरिजा के कलेजे में एक बर्छी-सी लगी। बरबस जी चाहा कि उनके सीने से लिपटकर रोऊँ। आँसुओं की एक बाढ़ सी आँखों में आती हुई मालूम हुई मगर ज़ब्त करके बोली—जाने को कैसे कहूँ, क्या वक्त आ गया?

दयाशंकर—हाँ, बल्कि देर हो रही है।

गिरिजा—मंगल को शाम की गाड़ी से आओगे न?

दयाशंकर—ज़रूर, किसी तरह नहीं रुक सकता। तुम सिर्फ उसी दिन मेरा इन्तजार करना।

गिरिजा—ऐसा न हो भूल जाओ। सतारा बहुत अच्छा शहर है।

दयाशंकर—(हँसकर) वह स्वर्ग ही क्यों न हो, मंगल को यहाँ ज़रूर आ जाऊँगा। दिल बराबर यहीं रहेगा। तुम ज़रा भी न घबराना।

यह कहकर गिरिजा को गले लगा लिया और मुस्कराते हुए बाहर निकल आये। इक्का रवाना हो गया। गिरिजा पलंग पर बैठ गयी और खूब रोयी। मगर इस वियोग के दुख, आँसुओं की बाढ़, अकेलेपन के दर्द और तरह-तरह के भावों की भीड़ के साथ एक और खयाल दिल में बैठा हुआ था जिसे वह बार-बार हटाने की कोशिश करती थी—क्या इनके पहलू में दिल नहीं है! या है तो उस पर उन्हें पूरा-पूरा अधिकार है? वह मुस्कराहट जो विदा होते वक्त दयाशंकर के चेहरे पर लग रही थी, गिरिजा को समझ में नहीं आती थी। [ १२७ ]

सतारा में बड़ी धूमधाम थी। दयाशंकर गाड़ी से उतरे तो वर्दीपोश वालंटियरों ने उनका स्वागत किया। एक फिटन उनके लिए तैयार खड़ी थी। उस पर बैठकर वह कांफ्रेन्स पंडाल की तरफ चले। दोनों तरफ झंडियाँ लहरा रही थीं। दरवाज़े पर बन्दनवारें लटक रही थीं। औरतें अपने झरोखों से और मर्द बरामदों में खड़े हो-होकर खुशी से तालियाँ बजाते थे। इस शान-शौकत के साथ वह पंडाल में पहुँचे और एक खूबसूरत खेमे में उतरे। यहाँ सब तरह की सुविधाएँ एकत्र थीं। दस बजे कांफ्रेन्स शुरू हुई। वक्ता अपनी-अपनी भाषा के जलवे दिखाने लगे। किसी के हँसी-दिल्लगी से भरे हुए चुटकुलों पर वाह-वाह की धूम मच गयी, किसी की आग बरसानेवाली तकरीर ने दिलों में जोश की एक लहर-सी पैदा कर दी। विद्वत्तापूर्ण भाषणों के मुकाबले में हँसी-दिल्लगी और बात कहने की खूबी को लोगों ने ज्यादा पसन्द किया। श्रोताओं को उन भाषणों में थियेटर के गीतों का-सा आनन्द आता था।

कई दिन तक यही हालत रही और भाषणों की दृष्टि से कांफ्रेन्स को शानदार कामयाबी हासिल हुई। आखिरकार मंगल का दिन आया। बाबू साहब वापसी की तैयारियाँ करने लगे। मगर कुछ ऐसा संयोग हुआ कि आज उन्हें मजबूरन ठहरना पड़ा। बम्बई और यू॰ पी॰ के डेलीगेटों में एक हाकी मैच की ठहर गयी। बाबू दयाशंकर हाकी के बहुत अच्छे खिलाड़ी थे। वह भी टीम में दाखिल कर लिये गये थे। उन्होंने बहुत कोशिश की कि अपना गला छुड़ा लूँ मगर दोस्तों ने इनकी आनाकानी पर बिलकुल ध्यान न दिया। एक साहब जो ज्यादा बेतकल्लुफ थे, बोले—आखिर तुम्हें इतनी जल्दी क्यों है? तुम्हारा दफ्तर अभी हफ़्ता भर बंद है। बीवी साहबा की नाराजगी के सिवा मुझे इस जल्दबाज़ी का कोई कारण नहीं दिखायी पड़ता। दयाशंकर ने जब देखा कि जल्दी ही मुझपर बीवी का गुलाम होने की फबतियाँ कसी जानेवाली हैं, जिससे ज्यादा अपमानजनक बात मर्द की शान में कोई दूसरी नहीं कही जा सकती, तो उन्होंने बचाव की कोई सूरत न देखकर वापसी मुल्तवी कर दी और हाकी में शरीक हो गये। मगर दिल में यह पक्का इरादा कर लिया कि शाम की गाड़ी से जरूर चले जायेंगे, फिर चाहे कोई बीवी का गुलाम नहीं, बीवी के गुलाम का बाप कहे, एक न मानेंगे।

खैर पाँच बजे खेल शुरू हुआ। दोनों तरफ के खिलाड़ी बहुत तेज़ थे जिन्होंने हाकी खेलने के सिवा ज़िन्दगी में और कोई काम ही नहीं किया। खेल बड़े जोश और [ १२८ ]सरगर्मी से होने लगा। कई हज़ार तमाशाई जमा थे। उनकी तालियाँ और बढ़ावे खिलाड़ियों पर मारू बाजे का काम कर रहे थे और गेंद किसी अभागे की किस्मत की तरह इधर-उबर ठोकरें खाता फिरता था। दयाशंकर के हाथों की तेज़ी और सफाई, उनकी पकड़ और बेऐब निशानेबाजी पर लोग हैरान थे, यहाँ तक कि जब वक्त खत्म होने में सिर्फ एक मिनट बाकी रह गया था और दोनों तरफ के लोग हिम्मतें हार चुके थे तो दयाशंकर ने गेंद लिया और बिजली की तरह विरोधी पक्ष के गोल पर पहुँच गये। एक पटाखे की आवाज़ हुई, चारों तरफ से गोल का नारा बुलन्द हुआ। इलाहाबाद की जीत हुई और इस जीत का सेहरा दयाशंकर के सिर था—जिसका नतीजा यह हुआ कि बेचारे दयाशंकर को उस वक्त भी रुकना पड़ा और सिर्फ इतना ही नहीं, सतारा अमेचर क्लब की तरफ से इस जीत की बधाई में एक नाटक खेलने का प्रस्ताव हुआ जिससे बुध के रोज़ भी रवाना होने की कोई उम्मीद बाक़ी न रही। दयाशंकर ने दिल में बहुत पेचोताब खाया मगर ज़बान से क्या कहते। बीवी का गुलाम कहलाने का डर ज़वान बन्द किये हुए था। हालाँकि उनका दिल कह रहा था कि अब को देवी रूठेंगी तो सिर्फ खुशामदों से न मानेंगी।

बाबू दयाशंकर वादे के रोज़ के तीन दिन बाद मकान पर पहुँचे। सतारा से गिरिजा के लिए कई अनूठे तोहफ़े लाये थे। मगर उसने इन चीजों को कुछ इस तरह देखा कि जैसे उनसे उसका जी भर गया है। उसका चेहरा उतरा हुआ था और होंठ सूखे थे। दो दिन से उसने कुछ नहीं खाया था। अगर चलते वक्त दयाशंकर की आँखों से आँसू की चन्द बूँदें टपक पड़ी होतीं या कम से कम चेहरा कुछ उदास और आवाज़ कुछ भारी हो गयी होती तो शायद गिरिजा उनसे न रूठती। आँसुओं की चन्द बूँदें उसके दिल में इस खयाल को तरो-ताज़ा रखतीं कि उनके न आने का कारण चाहे और कुछ हो निष्ठुरता हरगिज़ नहीं है। शायद हाल पूछने के लिए उसने तार दिया होता और अपने पति को अपने सामने खैरियत से देखकर वह वरबस उनके सीने से जा चिमटती और देवताओं की कृतज्ञ होती। मगर आँखों की वह बेमौक़ा कंजूसी और चेहरे की वह निष्ठुर मुस्कान इस वक्त उसके पहलू में खटक रही थी। दिल में यह खयाल जम गया था कि मैं चाहे इनके लिए मर भी मिटूँ मगर इन्हें मेरी परवाह नहीं है। दोस्तों का आग्रह और ज़िद केवल बहाना है। कोई ज़बरदस्ती किसी को रोक नहीं सकता। खूब! मैं तो रात की रात बैठकर काटूँ और वहाँ मज़े उड़ाये जायँ! [ १२९ ]बाबू दयाशंकर को रूठों के मनाने में विशेष दक्षता थी और इस मौके पर उन्होंने कोई बात, कोई कोशिश उठा नहीं रक्खी। तोहफ़े तो लाये थे मगर उनका जादू न चला। तब हाथ जोड़कर एक पैर से खड़े हुए, गुदगुदाया, तलुवे सहलाये, कुछ शोखी और शरारत की, दस बजे तक इन्हीं सब बातों में लगे रहे। इसके बाद खाने का वक्त आया! आज उन्होंने रूखी रोटियाँ बड़े शौक से और मामूली से कुछ ज्यादा खायीं—गिरिजा आज हफ्ते भर के बाद रोटियाँ नसीब हुई हैं, सतारे में रोटियों को तरस गये। पूड़ियाँ खाते-खाते आँतों में बायगोले पड़ गये। यकीन मानो गिरिजन, वहाँ कोई आराम न था, न कोई सैर, न कोई लुत्फ। सैर और लुत्फ तो महज़ अपने दिल की कैफियत पर मुनहसर है। वेफिक्री हो तो चटियल मैदान में बाग़ का मज़ा आता है और तबीयत को कोई फिक्र हो तो बाग़ वीराने से भी ज्यादा उजाड़ मालूम होता है। कम्बख्त दिल तो हरदम यहीं धरा रहता था, वहाँ मज़ा क्या खाक आता। तुम चाहे इन बातों को केवल बनावट समझ लो, क्योंकि मैं तुम्हारे सामने दोषी हूँ और तुम्हें अधिकार है कि मुझे झूठा, मक्कार, दग़ाबाज़, बेवफ़ा, बात बनानेवाला जो चाहे समझ लो, मगर सच्चाई यही है जो मैं कह रहा हूँ। मैं जो अपना वादा पूरा नहीं कर सका, उसका कारण दोस्तों की ज़िद थी।

दयाशंकर ने रोटियों की खूब तारीफ़ की क्योंकि पहले कई बार यह तरकीब फ़ायदेमन्द साबित हुई थी, मगर आज यह मन्त्र भी कारगर न हुआ और गिरिजा के तेवर बदले ही रहे।

तीसरे पहर दयाशंकर गिरिजा के कमरे में गये और पंखा झलने लगे; यहाँ तक कि गिरिजा झुँझलाकर बोल उठी—अपनी नाज़बरदारियाँ अपने ही पास रखिये। मैंने हुजूर से भर पाया। मैं तुम्हें पहचान गयी, अब धोखा नहीं खाने की। मुझे न मालूम था कि मुझसे आप यों दग़ा करेंगे। ग़रज़ जिन शब्दों में बेवफ़ाइयों और निष्ठुरताओं की शिकायतें हुआ करती हैं वह सब इस वक़्त गिरिजा ने खर्च कर डाले।

शाम हुई। शहर की गलियों में मोतिये और बेले की लपटें आने लगीं। सड़कों पर छिड़काव होने लगा और मिट्टी की सोंधी खुशबू उड़ने लगी। गिरिजा खाना पकाने जा रही थी कि इतने में उसके दरवाज़े पर एक इक्का आकर रुका और उसमें से एक औरत उतर पड़ी। उसके साथ एक महरी थी। उसने ऊपर आकर गिरिजा से कहा—बहू जी, आपकी सखी आ रही हैं।

[ १३० ]यह सखी पड़ोस में रहनेवाली अहलमद साहब की बीवी थीं। अहलमद साहब बूढ़े आदमी थे। उनकी पहली शादी उस वक़्त हुई थी, जब दूध के दाँत न टूटे थे। दूसरी शादी संयोग से उस ज़माने में हुई जब मुँह में एक दाँत भी बाक़ी न था। लोगों ने बहुत समझाया कि अब आप बूढ़े हुए, शादी न कीजिए, ईश्वर ने लड़के दिये हैं, बहुएँ हैं, आपको किसी बात की तकलीफ़ नहीं हो सकती। मगर अहलमद साहब खुद बुढ्ढे और दुनिया देखे हुए आदमी थे, इन शुभचिंतकों की सलाहों का जवाब व्यावहारिक उदाहरणों से दिया करते थे—क्यों, क्या मौत को बूढ़ों से कोई दुश्मनी है? बूढ़े ग़रीब उसका क्या बिगाड़ते हैं। हम बाग़ में जाते हैं तो मुरझाये हुए फूल नहीं तोड़ते, हमारी आँखें तरो-ताज़ा, हरे-भरे खूबसूरत फूलों पर पड़ती हैं। कभी-कभी गजरे वगैरह बनाने के लिए कलियाँ भी तोड़ ली जाती हैं। यही हालत मौत की है। क्या यमराज को इतनी समझ भी नहीं है। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि जवान और बच्चे बूढ़ों से ज्यादा मरते हैं। मैं अभी ज्यों का त्यों हूँ, मेरे तीन जवान भाई, पाँच बहनें, बहनों के पति, तीनों भावजें, चार बेटे, पाँच बेटियाँ, कई भतीजे, सब मेरी आँखों के सामने इस दुनिया से चल बसे। मौत सबको निगल गयी मगर मेरा बाल बाँका न कर सकी। यह ग़लत, बिलकुल ग़लत है कि बूढ़े आदमी जल्द मर जाते हैं। और असल बात तो यह है कि जवान बीवी की ज़रूरत बुढ़ापे में ही होती है। बहुएँ मेरे सामने निकला न चाहें और न निकल सकती हैं, भावजें खुद बूढ़ी हुईं, छोटे भाई की बीवी मेरी परछाईं भी नहीं देख सकती हैं, बहनें अपने-अपने घर हैं, लड़के सीधे मुँह बात नहीं करते। मैं ठहरा बूढ़ा, बीमार पड़े तो पास कौन फटके, एक लोटा पानी कौन दे, देखूँ किसकी आँख से, जी कैसे बहलाऊँ! क्या आत्महत्या कर लूँ! या कहीं डूब मरूँ! इन दलीलों के मुक़ाबिले में किसी की ज़बान न खुलती थी।

ग़रज़ इस नयी अहलमदिन और गिरिजा में कुछ बहनापा-सा हो गया था, कभी-कभी उससे मिलने आ जाया करती थी। अपने भाग्य पर सन्तोष करनेवाली स्त्री थी, कभी शिकायत या रंज की एक बात ज़बान से न निकालती। एक बार गिरिजा ने मज़ाक में कहा था कि बूढ़े और जवान का मेल अच्छा नहीं होता। इस पर वह नाराज़ हो गयी और कई दिन तक न आयी। गिरिजा महरी को देखते ही फ़ौरन आँगन में निकल आयी और गो उसे इस वक्त मेहमान का आना नागवार गुज़रा मगर महरी से बोली—बहन, अच्छी आयीं, दो घड़ी दिल बहलेगा। ज़रा देर में अहलमदिन साहब गहने से लदी हुई, घूँघट निकाले, छमछम करती [ १३१ ] हुई आँगन में आकर खड़ी हो गयीं! गिरिजा ने क़रीब आकर कहा—वाह सखी, आज तो तुम दुलहिन बनी हो। मुझसे पर्दा करने लगी हो क्या! यह कहकर उसने घूँघट हटा दिया और सखी का मुँह देखते ही चौंककर एक क़दम पीछे हट गयी। दयाशंकर ने ज़ोर से कहकहा लगाया और गिरिजा को सीने से लिपटा लिया और विनती के स्वर में बोले—गिरजन, अब मान जाओ, ऐसी खता फिर कभी न होगी। मगर गिरजन अलग हट गयी और रुखाई से बोली—तुम्हारा बहुरूप बहुत देख चुकी, अब तुम्हारा असली रूप देखना चाहती हूँ।

दयाशंकर प्रेम-नदी की हलकी-हलकी लहरों का आनन्द तो ज़रूर उठाना चाहते थे मगर तूफान से उनकी तबीयत भी उतना ही घबराती थी जितना गिरिजा की, बल्कि शायद उससे भी ज्यादा। हृदय-परिवर्तन के जितने मन्त्र उन्हें याद थे वह सब उन्होंने पढ़े और उन्हें कारगर न होते देखकर आखिर उनकी तबीयत को भी उलझन होने लगी। यह वे मानते थे कि बेशक मुझसे खता हुई है मगर खता उनके खयाल में ऐसी दिल जलानेवाली सजाओं के काबिल न थी। मनाने की कला में वह ज़रूर सिद्धहस्त थे मगर इस मौके पर उनकी अक्ल ने कुछ काम न दिया। उन्हें ऐसा कोई जादू नज़र नहीं आता था जो उठती हुई काली घटाओं और ज़ोर पकड़ते हुए झोंकों को रोक दे। कुछ देर तक वह इन्हीं खयालों में खामोश खड़े रहे और फिर बोले—आखिर गिरजन, अब तुम क्या चाहती हो।

गिरिजा ने अत्यन्त सहानुभूतिशून्य बेपरवाही से मुँह फेरकर कहा—कुछ नहीं।

दयाशंकर—नहीं, कुछ तो ज़रूर चाहती हो वर्ना चार दिन तक बिना दाना-पानी के रहने का क्या मतलब! क्या मुझ पर जान देने की ठानी है? अगर यही फैसला है तो बेहतर है तुम यों जान दो और मैं क़ल के जुर्म में फाँसी पाऊँ, किस्सा तमाम हो जाय। अच्छा होगा, बहुत अच्छा होगा, दुनिया की परेशानियों से छुटकारा हो जायगा।

यह मन्तर बिलकुल बेअसर न रहा। गिरिजा आँखों में आँसू भरकर बोली—तुम खामखाह मुझसे झगड़ना चाहते हो और मुझे झगड़े से नफ़रत है। मैं न तुमसे बोलती हूँ और न चाहती हूँ कि तुम मुझसे बोलने की तकलीफ़ गवारा करो। क्या आज शहर में कहीं नाच नहीं होता, कहीं हाकी मैच नहीं है, कहीं शतरंज नहीं बिछी [ १३२ ] हुई है। वहीं तुम्हारी तबीयत जमती है, आप वहीं जाइए, मुझे अपने हाल पर रहने दीजिए। मैं बहुत अच्छी तरह हूँ।

दयाशंकर करुण स्वर में बोले—क्या तुमने मुझे ऐसा बेवफ़ा समझ लिया है?

गिरिजा—जी हाँ, मेरा तो यही तजुर्बा है।

दयाशंकर—तो तुम सख्त ग़लती पर हो। अगर तुम्हारा यही खयाल है तो मैं कह सकता हूँ कि औरतों की अन्तर्दृष्टि के बारे में जितनी बातें सुनी हैं वह सब ग़लत हैं। गिरजन, मेरे भी दिल है…

गिरिजा ने बात काटकर कहा—सच, आपके भी दिल है यह आज नयी बात मालूम हुई!

दयाशंकर कुछ झेंपकर बोले—खैर, जैसा तुम समझो। मेरे दिल न सही, मेरे जिगर न सही, दिमाग़ तो साफ़ ज़ाहिर है कि ईश्वर ने मुझे नहीं दिया वर्ना वकालत में फ़ेल क्यों होता। तो गोया मेरे शरीर में सिर्फ पेट है, मैं सिर्फ खाना जानता हूँ और सचमुच है भी ऐसा ही, तुमने मुझे कभी फाका करते नहीं देखा। तुमने कई बार दिन-दिन भर कुछ नहीं खाया है, मैं पेट भरने से कभी बाज़ नहीं आया। लेकिन कई बार ऐसा भी हुआ है कि दिल और जिगर जिस कोशिश में असफल रहे वह इसी पेट ने पूरी कर दिखायी या यों कहो कि कई बार इसी पेट ने दिल और दिमाग़ और जिगर का काम कर दिखाया है और मुझे अपने इस अजीब पेट पर कुछ गर्व होने लगा था मगर अब मालूम हुआ कि मेरे पेट की बेहयाइयाँ लोगों को बुरी मालूम होती हैं....इस वक़्त मेरा खाना न बने। मैं कुछ न खाऊँगा।

गिरिजा ने पति की तरफ देखा, चेहरे पर हलकी-सी मुस्कराहट थी, वह यह कह रही थी कि यह आखिरी बात तुम्हें ज्यादा सम्हलकर कहनी चाहिए थी। गिरिजा और औरतों की तरह यह भूल जाती थी कि मर्दों की आत्मा को भी कष्ट हो सकता है। उसके खयाल में कष्ट का मतलब शारीरिक कष्ट था। उसने दयाशंकर के साथ और चाहे जो रियायत की हो, खिलाने-पिलाने में उसने कभी भी रियायत नहीं की और जब तक खाने की दैनिक मात्रा उनके पेट में पहुँचती जाय उसे उनकी तरफ से कोई ज़्यादा अन्देशा नहीं होता था। हज़म करना दयाशंकर का काम था। सच पूछिये तो गिरिजा ही की सख्तियों ने उन्हें हाकी का शौक दिलाया वर्ना अपने और सैकड़ों भाइयों की तरह उन्हें दफ़्तर से आकर हुक्के और शतरंज से ज़्यादा मनोरंजन होता था। गिरिजा ने यह धमकी सुनी तो त्योरियाँ चढ़ाकर बोली—अच्छी बात है, न बनेगा। [ १३३ ]दयाशंकर दिल में कुछ झेंप-से गये। उन्हें इस बेरहम जवाब की उम्मीद न थी। अपने कमरे में जाकर अखबार पढ़ने लगे। इधर गिरिजा हमेशा की तरह खाना पकाने में लग गयी। दयाशंकर का दिल इतना टूट गया था कि उन्हें खयाल भी न था कि गिरिजा खाना पका रही होगी। इसलिए जब नौ बजे के क़रीब उसने आकर कहा कि चलो खाना खा लो तो वह ताज्जुब से चौंक पड़े मगर यह यकीन आ गया कि मैंने बाजी मार ली। जी हरा हुआ, फिर भी ऊपर से रुखाई से कहा—मैंने तो तुमसे कह दिया था कि आज कुछ न खाऊँगा।

गिरिजा—चलो थोड़ा-सा खा लो।

दयाशंकर—मुझे जरा भी भूख नहीं है।

गिरिजा—क्यों? आज भूख क्यों नहीं लगी?

दयाशंकर—तुम्हें तीन दिन से क्यों भूख नहीं लगी?

गिरिजा—मुझे तो इस वजह से नहीं लगी कि तुमने मेरे दिल को चोट पहुँचायी थी।

दयाशंकर—मुछे भी इस वजह से नहीं लगी कि तुमने मुझे तकलीफ दी है।

दयाशंकर ने रुखाई के साथ यह बातें कहीं और अब गिरिजा उन्हें मनाने लगी। फौरन पाँसा पलट गया। अभी एक ही क्षण पहले वह उसकी खुशामदें कर रहे थे, मुजरिम की तरह उसके सामने हाथ बाँधे खड़े थे, गिड़गिड़ा रहे थे, मिन्नतें करते थे और अब बाजी पलटी हुई थी, मुजरिम इन्साफ की मसनद पर बैठा हुआ था। मुहब्बत की राहें मकड़ी के जालों से भी पेचीदा हैं।

दयाशंकर ने दिल में प्रतिज्ञा की थी कि मैं भी इसे इतना ही हैरान करूँगा जितना इसने मुझे किया है और थोड़ी देर तक वह योगियों की तरह स्थिरता के साथ बैठे रहे। गिरिजा ने उन्हें गुदगुदाया, तलुवे खुजलाये, उनके बालों में कंघी की, कितनी ही लुभानेवाली अदाएँ खर्च कीं मगर असर न हुआ। तब उसने अपनी दोनों बाँहें उनकी गर्दन में डाल दीं और याचना और प्रेम से भरी हुई आँखें उठाकर बोलीं—चलो मेरी क़सम खा लो।

फूस की बाँध बह गयी। दयाशंकर ने गिरिजा को गले से लगा लिया। उसके भोलेपन और भावों की सरलता ने उनके दिल पर एक अजीब दर्दनाक असर पैदा किया। उनकी आँखें भी गीली हो गयीं। आह मैं कैसा जालिम हूँ, मेरी बेवफ़ाइयों ने इसे कितना रुलाया है, तीन दिन तक इसके आँसू नहीं थमे, आँखें नहीं झपकीं, तीन दिन तक इसने दाने की सूरत नहीं देखी मगर मेरे एक ज़रा से इनकार [ १३४ ] ने, झूठे नक़ली इनकार ने, चमत्कार कर दिखाया। कैसा कोमल हृदय है। गुलाब की पंखुड़ी की तरह, जो मुरझा जाती है मगर मैली नहीं होती। कहाँ मेरा ओछापन, खुदग़र्ज़ी और कहाँ यह बेखुदी, यह त्याग, यह साहस।

दयाशंकर के सीने से लिपटी हुई गिरिजा उस वक्त अपने प्रबल आकर्षण से उनके दिल को खींचे लेती थी। उसने जीती हुई बाज़ी हारकर आज अपने पति के दिल पर कब्ज़ा पा लिया। इतनी ज़बर्दस्त जीत उसे कभी न हुई थी। आज दयाशंकर को मुहब्बत और भोलेपन की इस मूरत पर जितना गर्व था उसका अनुमान लगाना कठिन है। ज़रा देर में वह उठ खड़े हुए और बोले—एक शर्त पर चलूँगा।

गिरिजा—क्या?

दयाशंकर—अब कभी मत रूठना।

गिरिजा—यह तो टेढ़ी शर्त है मगर...मंजूर है।

दो-तीन क़दम चलने के बाद गिरिजा ने उनका हाथ पकड़ लिया और बोली—तुम्हें भी मेरी एक शर्त माननी पड़ेगी।

दयाशंकर—मैं समझ गया। तुमसे सच कहता हूँ, अब ऐसा न होगा।

दयाशंकर ने आज गिरिजा को भी अपने साथ खिलाया। वह बहुत लजायी, बहुत हीले किये, कोई सुनेगा तो क्या कहेगा, यह तुम्हें क्या हो गया है। मगर दयाशंकर ने एक न मानी और कई कौर गिरिजा को अपने हाथ से खिलाये और हर बार अपनी मुहब्बत का बेदर्दी के साथ मुआवजा लिया।

खाते-खाते उन्होंने हँसकर गिरिजा से कहा—मुझे न मालूम था कि तुम्हें मनाना इतना आसान है?

गिरिजा ने नीची निगाहों से देखा और मुस्करायी, मगर मुँह से कुछ न बोली।

—उर्दू 'प्रेम पचीसी' से