गो-दान/१९

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गो-दान  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

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१९

मिर्जा़ खुर्शेद का हाता क्लब भी है,कचहरी भी, अखाड़ा भी। दिन भर जमघट लगा रहता है। मुहल्ले में अखाड़े के लिए कहीं जगह नहीं मिलती थी। मिर्जा़ ने एक छप्पर डलवाकर अखाड़ा बनवा दिया है;वहाँ नित्य सौ-पचास लड़न्तिये आ जुटते हैं। मिर्जा़जी भी उनके साथ जोर करते हैं। मुहल्ले की पंचायतें भी यहीं होती हैं। मियाँ [ २०२ ]बीबी और सास-बह और भाई-भाई के झगड़े-टण्टे यहीं चुकाये जाते हैं। मुहल्ले के सामाजिक जीवन का यही केन्द्र है और राजनीतिक आन्दोलन का भी। आये दिन सभाएं होती रहती हैं। यहीं स्वयंसेवक टिकते हैं,यहीं उनके प्रोग्राम बनते हैं,यहीं से नगर का राजनीतिक संचालन होता है। पिछले जलसे में मालती नगर-कांग्रेस कमेटी की सभानेत्री चुन ली गयी है। तब से इस स्थान की रौनक़ और बढ़ गयी है।

गोवर को यहाँ रहते साल भर हो गया। अब वह सीधा-साधा ग्रामीण युवक नहीं है। उसने बहुत कुछ दुनिया देख ली और संसार का रंग-ढंग भी कुछ-कुछ समझने लगा है। मूल में वह अब भी देहाती है,पैसे को दाँत से पकड़ता है,स्वार्थ को कभी नहीं छोड़ता,और परिश्रम से जी नहीं चुराता,न कभी हिम्मत हारता है;लेकिन शहर की हवा उसे भी लग गयी है। उसने पहले महीने तो केवल मजूरी की और आधा पेट खाकर थोड़े-से रुपये बचा लिये। फिर वह कचालू और मटर और दही-बड़े के खोंचे लगाने लगा। इधर ज्यादा लाभ देखा,तो नौकरी छोड़ दी। गर्मियों में शर्बत और बरफ़ की दूकान भी खोल दी। लेन-देन में खरा था इसलिए उसकी साख जम गयी। जाड़े आये,तो उसने शर्बत की दूकान उठा दी और गर्म चाय पिलाने लगा। अब उसकी रोज़ाना आमदनी ढाई-तीन रुपए से कम नहीं। उसने अंग्रेज़ी फैशन के बाल कटवा लिए हैं,महीन धोती और पम्प-शू पहनता है,एक लाल ऊनी चादर खरीद ली और पान सिगरेट का शौक़ीन हो गया है। सभाओं में आने-जाने से उसे कुछ-कुछ राजनीतिक ज्ञान भी हो चला है। राष्ट्र और वर्ग का अर्थ समझने लगा है। सामाजिक रूढ़ियों की प्रतिष्ठा और लोक-निन्दा का भय अब उसमें बहुत कम रह गया है। आये दिन की पंचायतों ने उसे निस्संकोच बना दिया है। जिस बात के पीछे वह यहाँ घर से दूर,मुंह छिपाये पड़ा हुआ है,उसी तरह की,बल्कि उससे भी कहीं निन्दास्पद बातें यहाँ नित्य हुआ करती हैं,और कोई भागता नहीं। फिर वही क्यों इतना डरे और मुँह चुराये!

इतने दिनों में उसने एक पैसा भी घर नहीं भेजा। वह माता-पिता को रुपएपैसे के मामले में इतना चतुर नहीं समझता। वे लोग तो रुपये पाते ही आकाश में उड़ने लगेंगे। दादा को तुरन्त गया करने की और अम्माँ को गहने बनवाने की धुन सवार हो जायगी। ऐसे व्यर्थ के कामों के लिए उसके पास रुपए नहीं हैं। अब वह छोटा-मोटा महाजन है। पड़ोस के एक्केवालों,गाड़ीवानों और धोबियों को सूद पर रुपए उधार देता है। इस दस-ग्यारह महीने में ही उसने अपनी मेहनत और किफ़ायत और पुरुषार्थ से अपना स्थान बना लिया है और अब झुनिया को यहीं लाकर रखने की बात सोच रहा है।

तीसरे पहर का समय है। वह सड़क के नल पर नहाकर आया है और शाम के लिए आलू उबाल रहा है कि मिर्जा खुर्शद आकर द्वार पर खड़े हो गये। गोबर अब उनका नौकर नहीं है;पर अदब उसी तरह करता है और उनके लिए जान देने को तैयार रहता है। द्वार पर आकर पूछा-क्या हुक्म है सरकार? [ २०३ ]मिर्जा ने खड़े-खड़े कहा-तुम्हारे पास कुछ रुपए हों, तो दे दो। आज तीन दिन से बोतल खाली पड़ी हुई है,जी बहुत बेचैन हो रहा है।

गोबर ने इसके पहले भी दो-तीन बार मिर्जाजी को रुपए'दिये थे;पर अब तक वसूल न कर सका था। तक़ाजा करते डरता था और मिर्जाजी रुपए लेकर देना न जानते थे। उनके हाथ में रुपए टिकते ही न थे। इधर आये उधर गायव। यह तो न कह सका,मैं रुपए न दूंगा या मेरे पास रुपए नहीं हैं,शराब की निन्दा करने लगाआप इसे छोड़ क्यों नहीं देते सरकार? क्या इसके पीने से कुछ फ़ायदा होता है?

मिर्जाजी ने कोठरी के अन्दर खाट पर बैठते हुए कहा-तुम समझते हो, मैं छोड़ना नहीं चाहता और शौक़ से पीता हूँ। मैं इसके वगैर जिन्दा नहीं रह सकता। तुम अपने रुपए के लिए न डरो,मैं एक-एक कौड़ी अदा कर दूंगा।

गोवर अविचलित रहा--मैं सच कहता हूँ मालिक! मेरे पास इस समय रुपए होते तो आपसे इनकार करता?

'दो रुपए भी नहीं दे सकते?'

'इस समय तो नहीं हैं।'

'मेरी अँगूठी गिरो रख लो।'

गोबर का मन ललचा उठा;मगर वात कैसे बदले।

बोला-यह आप क्या कहते हैं मालिक,रुपये होते तो आपको दे देता,अंगूठी की कौन बात थी?

मिर्जा ने अपने स्वर में बड़ा दीन आग्रह भरकर कहा-मैं फिर तुमसे कभी न माँगूंगा गोबर! मुझसे खड़ा नहीं हुआ जा रहा है। इस शराब की बदौलत मैंने लाखों की हैसियत बिगाड़ दी और भिखारी हो गया। अब मुझे भी ज़िद पड़ गयी है कि चाहे भीख ही माँगनी पड़े,इसे छोडगा नहीं।

जब गोबर ने अवकी बार इनकार किया,तो मिर्जा साहब निराश होकर चले गये। शहर में उनके हज़ारों मिलनेवाले थे। कितने ही उनकी बदौलत बन गये थे। कितनों ही को गाढ़े समय पर मदद की थी;पर ऐसे से वह मिलना भी न पसन्द करते थे। उन्हें ऐसे हज़ारों लटके मालूम थे,जिससे वह समय-समय पर रुपयों के ढेर लगा देते थे;पर पैसे की उनकी निगाह में कोई क़द्र न थी। उनके हाथ में रुपए जैसे काटते थे। किसी न किसी बहाने उड़ाकर ही उनका चित्त शान्त होता था।

गोबर आलू छीलने लगा। साल-भर के अन्दर ही वह इतना काइयाँ हो गया था और पैसा जोड़ने में इतना कुशल कि अचरज होता था। जिस कोठरी में वह रहता है,वह मिर्जा साहब ने दी है। इस कोठरी और बरामदे का किराया बड़ी आसानी से पाँच रुपया मिल सकता है। गोबर लगभग साल-भर से उसमें रहता है। लेकिन मिर्जा ने न कभी किराया माँगा न उसने दिया। उन्हें शायद खयाल भी न था कि इस कोठरी का कुछ किराया भी मिल सकता है।

थोड़ी देर में एक इक्केवाला रुपये माँगने आया। अलादीन नाम था,सिर घुटा [ २०४ ]
हुआ,खिचड़ी डाढ़ी,और काना। उसकी लड़की बिदा हो रही थी। पांँच रुपये की उसे बड़ी ज़रूरत थी। गोबर ने एक आना रुपया सूद पर रुपये दे दिये।

अलादीन ने धन्यवाद देते हुए कहा--भैया,अब बाल-बच्चों को बुला लो। कब तक हाथ से ठोंकते रहोगे।

गोबर ने शहर के खर्च का रोना रोया--थोड़ी आमदनी में गृहस्थी कैसे चलेगी?

अलादीन बीड़ी जलाता हुआ बोला--खरच अल्लाह देगा भैया! सोचो,कितना आराम मिलेगा। मैं तो कहता हूँ,जितना तुम अकेले खरच करते हो,उसी में गृहस्थी चल जायगी। औरत के हाथ में बड़ी बरक्कत होती है। खुदा क़सम,जब मैं अकेला यहाँ रहता था,तो चाहे कितना ही कमाऊँ खा-पी सब बराबर। बीड़ी-तमाखू को भी पैसा न रहता। उस पर हैरानी। थके-माँदे आओ,तो घोड़े को खिलाओ और टहलाओ। फिर नानबाई की दुकान पर दौड़ो। नाक में दम आ गया। जब से घरवाली आ गयी है,उसी कमाई में उसकी रोटियाँ भी निकल आती हैं और आराम भी मिलता है। आखिर आदमी आराम के लिए ही तो कमाता है। जब जान खपाकर भी आराम न मिला,तो जिन्दगी ही गारत हो गयी। मैं तो कहता हूँ,तुम्हारी कमाई बढ़ जायगी भैया! जितनी देर में आलू और मटर उबालते हो,उतनी देर में दो-चार प्याले चाय बेच लोगे। अब चाय बारहों मास चलती है! रात को लेटोगे तो घरवाली पाँव दबायेगी। सारी थकान मिट जायगी।

यह बात गोबर के मन में बैठ गयी। जी उचाट हो गया। अब तो वह झुनिया को लाकर ही रहेगा। आलू चूल्हे पर चढ़े रह गये,और उसने घर चलने की तैयारी कर दी;मगर याद आया कि होली आ रही है। इसलिए होली का सामान भी लेता चले। कृपण लोगों में उत्सवों पर दिल खोलकर खर्च करने की जो एक प्रवृत्ति होती है,वह उसमें भी सजग हो गयी। आखिर इसी दिन के लिए तो कौड़ी-कौड़ी जोड़ रहा था। वह माँ,बहनों और झुनिया सबके लिए एक-एक जोड़ी साड़ी ले जायगा। होरी के लिए एक धोती और एक चादर। सोना के लिए तेल की शीशी ले जायगा,और एक जोड़ा चप्पल। रूपा के लिए जापानी चूड़ियाँ और झुनिया के लिए एक पिटारी,जिसमें तेल,सिन्दूर और आईना होगा। बच्चे के लिए टोप और फ्राक जो बाजार में वना बनाया मिलता है। उसने रुपये निकाले और बाजार चला। दोपहर तक सारी चीजें आ गयीं। बिस्तर भी बँध गया,मुहल्लेवालों को खबर हो गयी,गोबर घर जा रहा है। कई मर्द-औरतें उसे बिदा करने आये। गोबर ने उन्हें अपना घर सौंपते हुए कहा--तुम्हीं लोगों पर छोड़े जाता हूँ। भगवान ने चाहा तो होली के दूसरे दिन लौटूंँगा।

एक युवती ने मुस्कराकर कहा--मेहरिया को बिना लिये न आना,नहीं घर में न घुसने पाओगे।

दूसरी प्रौढ़ा ने शिक्षा दी-- हाँ,और क्या,बहुत दिनों तक चूल्हा फंँक चुके। ठिकाने से रोटी तो मिलेगी! [ २०५ ]गोबर ने सब को राम-राम किया। हिन्दू भी थे, मुसलमान भी थे,सभी में मित्रभाव था,सब एक-दूसरे के दुःख-दर्द के साथी। रोज़ा रखनेवाले रोज़ा रखते थे। एकादशी रखनेवाले एकादशी। कभी-कभी विनोद-भाव से एक-दूसरे पर छींटे भी उड़ा लेते थे। गोबर अलादीन की नमाज को उठा-बैठी कहता,अलादीन पीपल के नीचे स्थापित सैकड़ों छोटे-बड़े शिवलिंग को बटखरे बनाता;लेकिन साम्प्रदायिक द्वेप का नाम भी न था।) गोबर घर जा रहा है। सब उसे हँसी-खुशी विदा करना चाहते हैं।

इतने में भूरे एक्का लेकर आ गया। अभी दिन-भर का धावा मारकर आया था। खबर मिली,गोबर घर जा रहा है। वैसे ही एक्का इधर फेर दिया। घोड़े ने आपत्ति की। उसे कई चाबुक लगाये। गोबर ने एक्के पर सामान रक्खा,एक्का बढ़ा,पहुंँचाने वाले गली के मोड़ तक पहुँचाने आये,तब गोबर ने सबको राम-राम किया और एक्के पर बैठ गया।

सड़क पर एक्का सरपट दौड़ा जा रहा था। गोबर घर जाने की खुशी में मस्त था। भूरे उसे घर पहुंँचाने की खुशी में मस्त था। और घोड़ा था पानीदार,घोड़ा चला जा रहा था। बात की बात में स्टेशन आ गया।

गोबर ने प्रसन्न होकर एक रुपया कमर से निकाल कर भरे की तरफ बढ़ाकर कहा--लो,घरवालों के लिए मिठाई लेते जाना।

भूरे ने कृतज्ञता-भरे तिरस्कार से उसकी ओर देखा--तुम मुझे गैर समझते हो भैया! एक दिन जरा एक्के पर बैठ गये तो मैं तुमसे इनाम लूंँगा। जहाँ तुम्हारा पसीना गिरे,वहाँ खून गिराने को तैयार हूँ। इतना छोटा दिल नहीं पाया है। और ले भी लूंँ तो घरवाली मुझे जीता छोड़ेगी?

गोबर ने फिर कुछ न कहा। लज्जित होकर अपना असबाब उतारा और टिकट लेने चल दिया।