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गो-दान/२०

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गो-दान
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ २०५ से – २१८ तक

 

२०

फागुन अपनी झोली में नवजीवन की विभूति लेकर आ पहुँचा था। आम के पेड़ दोनों हाथों से बौर के सुगन्ध वाँट रहे थे,और कोयल आम की डालियों में छिपी हुई संगीत का गुप्त दान कर रही थी।

गांँवों में ऊब की बोआई लग गयी थी। अभी धूप नहीं निकली;पर होरी खेत में पहुँच गया है। धनिया,सोना,रूपा तीनों तलैया से ऊख के भीगे हुए गढ़े निकाल-निकालकर खेत में ला रही हैं,और होरी गॅड़ामे से ऊख के टुकड़े कर रहा है। अब वह दातादीन की मजदूरी करने लगा है। किसान नहीं,मजूर है। दातादीन से अब उसका पुरोहित-जजमान का नाता नहीं, मालिक-मजदूर का नाता है।

दातादीन ने आकर डाँटा--हाथ और फुरती से चलाओ होरी! इस तरह तो तुम दिन-भर में न काट सकोगे।।

होरी ने आहत अभिमान के साथ कहा--चला ही तो रहा हूँ महराज,बैठा तो नहीं हूँ। दातादीन मजूरों से रगड़कर काम लेते थे;इसलिए उनके यहाँ कोई मजूर टिकता न था। होरी उसका स्वभाव जानता था;पर जाता कहाँ!

पण्डित उसके सामने खड़े होकर बोले--चलाने-चलाने में भेद है। एक चलाना वह है कि घड़ी भर में काम तमाम, दूसरा चलाना वह है कि दिन-भर में भी एक बोझ ऊख न कटे।

होरी ने विष का घूँट पीकर और जोर से हाथ चलाना शुरू किया,इधर महीनों से उसे भर-पेट भोजन न मिलता था। प्रायः एक जून तो चबैने पर ही कटता था,दूसरे जून भी कभी आधा पेट भोजन मिला,कभी कड़ाका हो गया;कितना चाहता था कि हाथ और जल्दी उठे,मगर हाथ जवाब दे रहा था। उस पर दातादीन सिर पर सवार थे। क्षण-भर दम ले लेने पाता,तो ताजा हो जाता;लेकिन दम कैसे ले? घुड़कियाँ पड़ने का भय था।

धनिया और तीनों लड़कियाँ ऊख के गढ़े लिये गीली माड़ियों से लथपथ,कीचड़ में सनी हुई आयीं,और गट्टे पटककर दम मारने लगी कि दातादीन ने डाँट बताई-- यहाँ तमाशा क्या देखती हे धनिया? जा अपना काम कर। पैसे सेंत में नहीं आते। पहर-भर में तू एक खेप लायी है। इस हिसाब से तो दिन भर में भी ऊख न ढुल पायेगी।

धनिया ने त्योरी बदलकर कहा--क्या जरा दम भी न लेने दोगे महराज! हम भी तो आदमी हैं। तुम्हारी मजूरी करने से बैल नहीं हो गये। जरा मूड़ पर एक गठ्ठा लादकर लाओ तो हाल मालूम हो।

दातादीन बिगड़ उठे--पैसे देने हैं काम करने के लिए, दम मारने के लिए नहीं। दम मार लेना है,तो घर जाकर दम लो।

धनिया कुछ कहने ही जा रही थी कि होरी ने फटकार बताई–-तु जाती क्यों नहीं धनिया? क्यों हुज्जत कर रही है?

धनिया ने बीड़ा उठाते हुए कहा--जा तो रही हूँ, लेकिन चलते हुए बैल को औंगी न देना चाहिए।

दातादीन ने लाल आँखें निकाल लीं--जान पड़ता है, अभी मिजाज ठण्डा नहीं हुआ। जभी दाने-दाने को मोहताज हो।

धनिया भला क्यों चुप रहने लगी थी--तुम्हारे द्वार पर भीख माँगने तो नहीं जाती।

दातादीन ने पैने स्वर में कहा--अगर यही हाल है तो भीख भी भाँगेगी।

धनिया के पास जवाब तैयार था;पर सोना उसे खींचकर तलैया की ओर ले गयी,नहीं बात बढ़ जाती;लेकिन आवाज की पहुंँच के बाहर जाकर दिल की जलन निकाली--(भीख माँगो तुम,जो भिखमंगे की जात हो। हम तो मजूर ठहरे,जहाँ काम करेंगे,वहीं चार पैसे पायेंगे।)

सोना ने उसका तिरस्कार किया--अम्माँ,जाने भी दो। तुम तो समय नहीं देखतीं,बात-बात पर लड़ने बैठ जाती हो।

होरी उन्मत्त की भाँति सिर से ऊपर गँडा़सा उठा-उठाकर ऊख के टुकड़ों के ढेर
करता जाता था। उसके भीतर जैसे आग लगी हुई थी। उसमें अलौकिक शक्ति आ गयी थी। उसमें जो पीढ़ियों का संचित पानी था,वह इस समय जैसे भाप बनकर उसे यन्त्र की-सी अन्ध-शक्ति प्रदान कर रहा था। उसकी आँखों में अँधेरा छाने लगा। सिर में फिरकी-सी चल रही थी। फिर भी उसके हाथ यन्त्र की गति-से,बिना थके,बिना रुके,उठ रहे थे। उसकी देह से पसीने की धारा निकल रही थी,मुंँह से फिचकुर छूट रहा था, सिर में धम-धम का शब्द हो रहा था,पर उस पर जैसे कोई भूत सवार हो गया हो।

सहसा उसकी आँखों में निबिड़ अन्धकार छा गया। मालूम हुआ वह जमीन में घुसा जा रहा है। उसने सँभलने की चेष्टा से शून्य में हाथ फैला दिये,और अचेत हो गया। गँडासा हाथ से छूट गया और वह औंधे मुंँह जमीन पर पड़ गया।

उसी वक्त धनिया ऊख का गट्ठा लिये आयी। देखा तो कई आदमी होरी को घेरे खड़े हैं। एक हलवाहा दातादीन से कह रहा था--मालिक तुम्हें ऐसी बात न कहनी चाहिए,जो आदमी को लग जाय। पानी मरते ही मरते तो मरेगा।

धनिया ऊख का गट्ठा पटककर पागलों की तरह दौड़ी हुई होरी के पास गयी,और उसका सिर अपनी जाँघ पर रखकर विलाप करने लगी--तुम मुझे छोड़कर कहाँ जाते हो। अरी सोना, दौड़कर पानी ला और जाकर शोभा से कह दे,दादा बेहाल हैं। हाय भगवान्! अब मैं कहाँ जाऊँ। अब किसकी होकर रहूँगी,कौन मुझे धनिया कहकर पुकारेगा।..

लाला पटेश्वरी भागे हुए आये और स्नेह भरी कठोरता से बोले-- क्या करती है धनिया,होश सँभाल। होरी को कुछ नहीं हुआ। गर्मी से अचेत हो गये हैं। अभी होश आया जाता है। दिल इतना कच्चा कर लेगी,तो कैसे काम चलेगा?

धनिया ने पटेश्वरी के पाँव पकड़ लिये और रोती हुई बोली--क्या करूँ लाला,जी नहीं मानता। भगवान ने सब कुछ हर लिया। मैं सबर कर गयी। अब सबर नहीं होता। हाय रे मेरा हीरा!

सोना पानी लायी। पटेश्वरी ने होरी के मुंँह पर पानी के छींटे दिये। कई आदमी अपनी-अपनी अंँगोछियों से हवा कर रहे थे। होरी की देह ठण्डी पड़ गयी थी। पटेश्वरी को भी चिंता हुई;पर धनिया को वह बराबर साहस देते जाते थे।

धनिया अधीर होकर बोली--ऐसा कभी नहीं हुआ था। लाला,कभी नहीं।

पटेश्वरी ने पूछा--रात कुछ खाया था?

धनिया बोली--हाँ,रोटियाँ पकायी थीं;लेकिन आजकल हमारे ऊपर जो बीत रही है,वह क्या तुमसे छिपा है? महीनों से भरपेट रोटी नसीब नहीं हुई। कितना समझाती हूँ,जान रखकर काम करो;लेकिन आराम तो हमारे भाग्य में लिखा ही नहीं।

सहसा होरी ने आँखें खोल दी और उड़ती हुई नजरों से इधर-उधर ताका।

धनिया जैसे जी उठी। विह्वल होकर उसके गले से लिपटकर बोली--अब कैसा जी
है तुम्हारा? मेरे तो परान नहों में समा गये थे।

होरी ने कातर स्वर में कहा--अच्छा हूँ। न जाने कैसा जी हो गया था।

धनिया ने स्नेह में डूबी भर्त्सना से कहा--देह में दम तो है नहीं,काम करते हो जान देकर। लड़कों का भाग था,नहीं तुम तो ले ही डुबे थे!

पटेश्वरी ने हँसकर कहा--धनिया तो रो-पीट रही थी।

होरी ने आतुरता से पूछा--सचमुच तू रोती थी धनिया ?

धनिया ने पटेश्वरी को पीछे ढकेलकर कहा--इन्हें बकने दो तुम। पूछो,यह क्यों कागद छोड़कर घर से दौड़े आये थे?

पटेश्वरी ने चिढ़ाया--तुम्हें हीरा-हीरा कहकर रोती थी। अब लाज के मारे मुकरती है। छाती पीट रही थी।

होरी ने धनिया को सजल नेत्रों से देखा--पगली है और क्या। अब न जाने कौन-सा सुख देखने के लिए मुझे जिलाये रखना चाहती है।

दो आदमी होरी को टिकाकर घर लाये और चारपाई पर लिटा दिया। दातादीन तो कुढ़ रहे थे कि वोआई में देर हुई जाती है,पर मातादीन इतना निर्दयी न था। दौड़कर घर से गर्म दूध लाया,और एक शीशी में गुलाबजल भी लेता आया। और दूध पीकर होरी में जैसे जान आ गयी।

उसी वक्त गोबर एक मजदूर के सिर पर अपना सामान लादे आता दिखायी दिया।

गाँव के कुत्ते पहले तो मूंँकते हुए उसकी तरफ दौड़े। फिर दुम हिलाने लगे। रूपा ने कहा--भैया आये,और तालियाँ बजाती हुई दौड़ी। सोना भी दो-तीन कदम आगे बढ़ी;पर अपने उछाह को भीतर ही दवा गयी। एक साल में उसका यौवन कुछ और संकोचशील हो गया था। झुनिया भी घूँघट निकाले द्वार पर खड़ी हो गयी।

गोबर ने माँ-बाप के चरण छुए और रूपा को गोद में उठाकर प्यार किया। धनिया ने उसे आशीर्वाद दिया और उसका सिर अपनी छाती से लगाकर मानो अपने मातृत्व का पुरस्कार पा गयी। उसका हृदय गर्व से उमड़ा पड़ता था। आज तो वह रानी है। इस फटे-हाल में भी रानी है। कोई उसकी आँखें देखे,उसका मुख देखे,उसका हृदय देखे,उसकी चाल देखे। रानी भी लजा जायगी। गोबर कितना बड़ा हो गया है और पहन-ओढ़कर कैसा भलामानस लगता है। धनिया के मन में कभी अमंगल की शंका न हुई थी। उसका मन कहता था,गोबर कुशल से है और प्रसन्न है। आज उसे आँखों देखकर मानो उसके जीवन के धूल-धक्कड़ में गुम हुआ रत्न मिल गया है। मगर होरी ने मुंँह फेर लिया था।

गोबर ने पूछा--दादा को क्या हुआ है,अम्माँ?

धनिया घर का हाल कहकर उसे दुखी न करना चाहती थी। बोली--कुछ नहीं है बेटा,जरा सिर में दर्द है। चलो,कपड़े उतारो,हाथ-मुंँह धोओ? कहाँ थे तुम इतने दिन? भला इस तरह कोई घर से भागता है? और कभी एक चिट्ठी तक न भेजी। आज साल-भर के बाद जाके सुधि ली है। तुम्हारी राह देखते-देखते आँखें फूट
गयीं। यही आसा बँधी रहती थी कि कब वह दिन आयेगा और कब तुम्हें देखेंगी। कोई कहता था,मिरच भाग गया,कोई डमरा टापू बताता था। सुन-सुनकर जान सूखी जाती थी। कहाँ रहे इतने दिन?

गोबर ने शर्माने हुए कहा--कहीं दूर नहीं गया था अम्माँ, यह लखनऊ में तो था।

'और इतने नियरे रहकर भी कभी एक चिट्ठी न लिखी !'

उधर सोना और रूपा भीतर गोबर का सामान खोलकर चीज का बाँट-बखरा करने में लगी हुई थीं;लेकिन झुनिया दूर खड़ी थी;उसके मुख पर आज मान का शोख रंग झलक रहा है। गोबर ने उसके साथ जो व्यवहार किया है,आज वह उसका बदला लेगी। असामी को देखकर महाजन उससे वह रुपये वमूल करने को भी याकुल हो रहा है,जो उसने बट्टेखाते में डाल दिये थे। बच्चा उन चीजों की ओर लपक रहा था और चाहता था, सब-का-मब एक साथ मुंँह में डाल ले;पर झुनिया उसे गोद से उतरने न देती थी।

सोना बोली--भैया तुम्हारे लिए आईना-कंघी लाये हैं भाभी!

झुनिया ने उपेक्षा-भाव से कहा--मुझे ऐना-कंघी न चाहिए। अपने पास रखे रहें।

रूपा ने बच्चे की चमकीली टोपी निकाली--ओ हो! यह तो चुन्नू की टोपी है। और उसे बच्चे के सिर पर रख दिया।

झुनिया ने टोपी उतारकर फेंक दी। और सहमा गोबर को अन्दर आते देखकर वह बालक को लिए अपनी कोठरी में चली गयी। गोबर ने देखा,सारा सामान खुला पड़ा है। उसका जी तो चाहता है,पहले झुनिया से मिलकर अपना अपराध क्षमा कराये;लेकिन अन्दर जाने का साहग नहीं होता। वहीं बैठ गया और चीजें निकालनिकाल हर-एक को देने लगा,मगर रूपा इसलिए फूल गयी कि उसके लिए चप्पल क्यों नहीं आये,और सोना उसे चिढ़ाने लगी,तू क्या करेगी चप्पल लेकर,अपनी गुड़िया से खेल। हम तो तेरी गुड़िया देखकर नहीं रोते,तू मेरा चप्पल देखकर क्यों रोती है? मिठाई बाँटने की जिम्मेदारी धनिया ने अपने ऊपर ली। इतने दिनों के बाद लड़का कुशल से घर आया है। वह गाँव-भर में बैना बटवायेगी। एक गुलाब -जामुन रूपा के लिए ऊँट के मुंँह में जीरे के समान था। वह चाहती थी, हाँडी उसके सामने रख दी जाय,वह कूद-कूद खाय।

अब सन्दूक खुला और उसमें से साड़ियाँ निकलने लगीं। सभी किनारदार थीं;जैसी पटेश्वरी लाला के घर में पहनी जाती हैं,मगर हैं बड़ी हलकी। ऐसी महीन साड़ियाँ भला कै दिन चलेंगी ! बड़े आदमी जितनी महीन साड़ियाँ चाहे पहनें। उनकी मेहरियों को बैठने और सोने के सिबा और कौन काम है। यहाँ तो खेत-खलिहान सभी कुछ है। अच्छा! होरी के लिए धोती के अतिरिक्त एक दुपट्टा भी है।

धनिया प्रसन्न होकर बोली--यह तुमने वड़ा अच्छा किया बेटा! इनका दुपट्टा बिलकुल तार-तार हो गया था। गोबर को उतनी देर में घर की परिस्थिति का अन्दाज हो गया था। धनिया की साड़ी में कई पेंबदे लगे हुए थे। सोना की साड़ी सिर पर फटी हुई थी और उसमें से उसके बाल दिखाई दे रहे थे। रूपा की धोती में चारों तरफ झालरें-सी लटक रही थीं। सभी के चेहरे रूखे,किसी की देह पर चिकनाहट नहीं। जिधर देखो,विपन्नता का साम्राज्य था।

लड़कियाँ तो साड़ियों में मगन थीं। धनिया को लड़के के लिए भोजन की चिन्ता हुई। घर में थोड़ा-सा जौ का आटा साँझ के लिए संचकर रखा हुआ था। इस वक्त तो चबैने पर कटती थी;मगर गोबर अब वह गोबर थोड़े ही है। उसको जौ का आटा खाया भी जायगा। परदेश में न जाने क्या-क्या खाता-पीता रहा होगा। जाकर दुलारी की दूकान से गेहूँ का आटा, चावल,घी उधार लायी। इधर महीने से सहुआइन एक पैसे की चीज भी उधार न देती थी;पर आज उसने एक बार भी न पूछा,पैसे कब दोगी।

उसने पूछा--गोबर तो खूब कमा के आया है न?

धनिया बोली--अभी तो कुछ नहीं खुला दीदी!अभी मैंने भी कुछ कहना उचित न समझा। हाँ,सबके लिए किनारदार साड़ियाँ लाया है। तुम्हारे आसिरवाद से कुशल से लौट आया,मेरे लिए तो यही बहुत है।

दुलारी ने असीस दिया--भगवान करे,जहाँ रहे कुशल से रहे। माँ-बाप को और क्या चाहिए! लड़का समझदार है। और छोकरों की तरह उड़ाऊ नहीं है। हमारे रुपए अभी न मिले,तो याज तो दे दो। दिन-दिन बोझ बढ़ ही तो रहा है।

इधर सोना चुन्नू को उसका फ्राक और टोप और जूता पहनाकर राजा बना रही थी,बालक इन चीजों को पहनने से ज्यादा हाथ में लेकर खेलना पसन्द करता था। अन्दर गोबर और झुनिया में मान-मनौवल का अभिनय हो रहा था।

झुनिया ने तिरस्कार भरी आँखों से देखकर कहा--मुझे लाकर यहाँ बैठा दिया। आप परदेश की राह ली। फिर न खोज, न खवर कि मरती है या जीती है। साल-भर के बाद अब जाकर तुम्हारी नींद टूटी है। कितने बड़े कपटी हो तुम। मैं तो सोचती हूँ कि तुम मेरे पीछे-पीछे आ रहे हो और आप उड़े,तो साल-भर के बाद लौटे। मर्दो का विश्वास ही क्या,कहीं कोई और ताक ली होगी। सोचा होगा,एक घर के लिए है ही,एक बाहर के लिए भी हो जाय।

गोबर ने सफा़ई दी-–झुनिया,मैं भगवान को साक्षी देकर कहता हूँ जो मैंने कभी किसी की ओर ताका भी हो। लाज और डर के मारे घर से भागा जरूर;मगर तेरी याद एक छन के लिए भी मन से न उतरती थी। अब तो मैंने तय कर लिया है कि तुझे भी लेता जाऊँगा;इसलिए आया हूँ। तेरे घरवाले तो बहुत बिगड़े होंगे?

'दादा तो मेरी जान लेने ही पर उतारू थे।'

'सच!'

'तीनों जने यहाँ चढ़ आये थे। अम्माँ ने ऐसा डाटा कि मुंँह लेकर रह गये। हाँ,हमारे दोनों बैल खोल ले गये।' 'इतनी बड़ी जबरदस्ती! और दादा कुछ बोले नहीं?'

'दादा अकेले किस-किस से लड़ते! गाँववाले तो नहीं ले जाने देते थे;लेकिन दादा ही भलमनसी में आ गये,तो और लोग क्या करते?'

'तो आजकल खेती-बारी कैसे हो रही है?'

'खेती-बारी सब टूट गयी। थोड़ी-सी पंडित महाराज के साझे में है। ऊख बोई ही नहीं गयी।'

गोबर की कमर में इस समय दो सौ रुपये थे। उसकी गर्मी यों भी कम न थी। यह हाल सुनकर तो उसके बदन में आग ही लग गयी।

बोला--तो फिर पहले मैं उन्हीं से जाकर समझता हूँ। उनकी यह मजाल कि मेरे द्वार पर से बैल खोल ले जायँ! यह डाका है,खुला हुआ डाका। तीन-तीन साल को चले जायेंगे तीनों। यों न देंगे,तो अदालत से लूंँगा। सारा घमंड तोड़ दूंँगा।

वह उसी आवेश में चला था कि झुनिया ने पकड़ लिया और बोली--तो चले जाना,अभी ऐसी क्या जल्दी है? कुछ आराम कर लो,कुछ खा-पी लो। सारा दिन तो पड़ा है। यहाँ बड़ी-बड़ी पंचायत हुई। पंचायत ने अस्सी रुपए डाँड़ लगाये। तीन मन अनाज ऊपर। उसी में तो और तबाही आ गयी।

सोना बालक को कपड़े-जूते पहनाकर लायी। कपड़े पहनकर वह जैसे सचमुच राजा हो गया था। गोबर ने उसे गोद में ले लिया;पर इस समय बालक के प्यार में उसे आनन्द न आया। उसका रक्त खौल रहा था और कमर के रुपए आँच और तेज़ कर रहे थे। वह एक-एक से समझेगा। पंचों को उस पर डाँड़ लगाने का अधिकार क्या है? कौन होता है कोई उसके बीच में बोलनेवाला? उसने एक औरत रख ली,तो पंचों के बाप का क्या विगड़ा? अगर इसी बात पर वह फौजदारी में दावा कर दे,तो लोगों के हाथों में हथकड़ियाँ पड़ जायँ। सारी गृहस्थी तहस-नहस हो गयी। क्या समझ लिया है उसे इन लोगों ने!

बच्चा उसकी गोद में जरा-सा मुस्कराया,फिर जोर से चीख उठा जैसे कोई डरावनी चीज़ देख ली हो।

झुनिया ने बच्चे को उसकी गोद से ले लिया और बोली--अब जाकर नहा-धो लो। किस सोच में पड़ गये। यहाँ सबसे लड़ने लगो,तो एक दिन निबाह न हो। जिसके पास पैसे हैं,वही बड़ा आदमी है,वही भला आदमी है। पैसे न हों,तो उस पर सभी रोब जमाते हैं।

'मेरा गधापन था कि घर से भागा। नहीं देखता,कैसे कोई एक घेला डाँड़ लेता है।'

'सहर की हवा खा आये हो तभी ये बातें सूझने लगी हैं। नहीं,घर से भागते क्यों!'

'यही जी चाहता है कि लाठी उठाऊँ और पटेश्वरी, दातादीन,झिंगुरी--सब सालों को पीटकर गिरा दूंँ,और उनके पेट से रुपये निकाल लें।'

'रुपए की बहुत गर्मी चढ़ी है साइत। लाओ निकालो, देखूँ इतने दिन में क्या कमा लाये हो?' उसने गोबर की कमर में हाथ लगाया। गोबर खड़ा होकर बोला--अभी क्या कमाया;हाँ,अब तुम चलोगी,तो कमाऊँगा। साल-भर तो सहर का रंग-ढंग पहचानने ही में लग गया।

'अम्माँ जाने देंगी,तब तो?'

'अम्माँ क्यों न जाने देंगी। उनसे मतलब?'

'वाह! मैं उनकी राजी बिना न जाऊँगी। तुम तो छोड़कर चलते बने। और मेरा कौन था यहाँ ? वह अगर घर में न घुसने देतीं तो मैं कहाँ जाती? जब तक जीऊँगी, उनका जस गाऊँगी और तुम भी क्या परदेश ही करते रहोगे?'

और यहाँ बैठकर क्या करूँगा। कमाओ और मरो, इसके सिवा यहाँ और क्या रखा है? थोड़ी-सी अकल हो और आदमी काम करने से न डरे,तो वहाँ भूखों नहीं मर सकता। यहाँ तो अकल कुछ काम ही नहीं करती। दादा क्यों मुझसे मुँह फुलाए हुए हैं?'

'अपने भाग बखानो कि मुंँह फुलाकर छोड़ देते हैं। तुमने उपद्रव तो इतना बड़ा किया था कि उस क्रोध में पा जाते, तो मुंँह लाल कर देते।'

'तो तुम्हें भी खुब गालियाँ देते होंगे?'

'कभी नहीं,भूलकर भी नहीं। अम्माँ तो पहले बिगड़ी थीं;लेकिन दादा ने तो कभी कुछ नहीं कहा,जब बुलाते हैं,बड़े प्यार से। मेरा सिर भी दुखता है,तो बेचैन हो जाते हैं। अपने बाप को देखते तो मैं इन्हें देवता समझती हूँ। अम्माँ को समझाया करते हैं, बहू को कुछ न कहना। तुम्हारे ऊपर सैकड़ों बार बिगड़ चुके हैं कि इसे घर में बैठाकर आप न जाने कहाँ निकल गया। आज-कल पैसे-पैसे की तंगी है। ऊख के रुपाए बाहर ही बाहर उड़ गये। अब तो मजूरी करनी पड़ती है। आज बेचारे खेत में बेहोश हो गये। रोना-पीटना मच गया। तब से पड़े हैं।'

मुँह-हाथ धोकर और खूब वाल बनाकर गोबर गाँव का दिग्विजय करने निकला। दोनों चाचाओं के घर जाकर राम-राम कर आया। फिर और मित्रों से मिला। गांँव में कोई विशेष परिवर्तन न था। हाँ,पटेश्वरी की नयी बैठक बन गयी थी और झिंगुरीसिंह ने दरवाजे पर नया कुआँ खुदवा लिया था। गोबर के मन में विद्रोह और भी ताल ठोंकने लगा। जिससे मिला उसने उसका आदर किया,और युवकों ने तो उसे अपना हीरो बना लिया और उसके साथ लखनऊ जाने को तैयार हो गये। साल ही भर में वह क्या से क्या हो गया था।

सहसा झिंगुरीसिंह अपने कुएँ पर नहाते हुए मिल गये। गोबर निकला;मगर न सलाम किया,न बोला। वह ठाकुर को दिखा देना चाहता था,मैं तुम्हें कुछ नहीं समझता।

झिंगुरीसिंह ने खुद ही पूछा--कब आय गोबर,मजे में तो रहे? कहीं नौकर थे लखनऊ में?

गोबर ने हेकड़ी के साथ कहा--लखनऊ गुलामी करने नहीं गया था। नौकरी है तो गुलामी। मैं व्यापार करता था। ठाकुर ने कुतूहल भरी आँखों से उसे सिर से पाँव तक देखा––कितना रोज पैदा करते थे?

गोबर ने छुरी को भाला बनाकर उनके ऊपर चलाया––यही कोई ढाई-तीन रुपए मिल जाते थे। कभी चटक गयी तो चार भी मिल गये। इससे बेसी नहीं। झिंगुरी बहुत नोच-खसोट करके भी पचीस-तीस से ज्यादा न कमा पाते थे। और यह गॅवार लौंडा सौ रूपए कमाने लगा। उनका मस्तक नीचा हो गया। अब किस दावे से उस पर रोब जमा सकते हैं? वर्ण में वह जरूर ऊँचे हैं; लेकिन वर्ण कौन देखता है! उससे स्पर्धा करने का यह अवसर नहीं, अब तो उसकी चिरौरी करके उससे कुछ काम निकाला जा सकता है। बोले––इतनी कमाई कम नहीं है बेटा, जो खरच करते बने। गाँव में तीन आने भी नहीं मिलते। भवनिया (उनके जेठे पुत्र का नाम था) को भी कहीं कोई काम दिला दो, तो भेज दूँ। न पढ़े न लिखे, एक न एक उपद्रव करता रहता है। कहीं मुनीमी खाली हो तो कहना। नहीं साथ ही लेते जाना। तुम्हारा तो मित्र है। तलब थोड़ी हो, कुछ गम नहीं; हाँ, चार पैसे को ऊपर की गुन्जाइस हो।

गोबर ने अभिमान भरी हँसी के साथ कहा––यह ऊपरी आमदनी की चाट आदमी को खराब कर देती है ठाकुर; लेकिन हम लोगों की आदत कुछ ऐसी बिगड़ गयी है कि जब तक बेईमानी न करें, पेट ही नहीं भरता। लखनऊ में मुनीमी मिल सकती है; लेकिन हरएक महाजन ईमानदार चौकस आदमी चाहता है। मैं भवानी को किसी के गले बाँध तो दूँ; लेकिन पीछे इन्होंने कहीं हाथ लपकाया, तो वह तो मेरी गर्दन पकड़ेगा। संसार में इलम की क़दर नहीं है, ईमान की क़दर है।

यह तमाचा लगाकर गोबर आगे निकल गया। झिंगुरी मन में ऐंठकर रह गये। लौंडा कितने घमण्ड की बातें करता है, मानो धर्म का अवतार ही तो है।

इसी तरह गोबर ने दातादीन को भी रगड़ा। भोजन करने जा रहे थे। गोबर को देखकर प्रसन्न होकर बोले––मजे में तो रहे गोबर? सुना वहां कोई अच्छी जगह पा गये हो। मातादीन को भी किसी हीले से लगा दो न? भंग पीकर पड़े रहने के सिवा यहाँ और कौन काम है।

गोबर ने बनाया––तुम्हारे घर में किस बात की कमी महाराज, जिस जजमान के द्वार पर जाकर खड़े हो जाओ कुछ न कुछ मार ही लाओगे। जनम में लो, मरन में लो, सादी में लो, गमी में लो; खेती करते हो, लेन-देन करते हो, दलाली करते हो, किसी से कुछ भूल-चूक हो जाय तो डाँड़ लगाकर उसका घर लूट लेते हो; इतनी कमाई से पेट नहीं भरता? क्या करोगे बहुत-सा धन बटोरकर? कि साथ ले जाने की कोई जुगुत निकाल ली है?

दातादीन ने देखा, गोबर कितनी ढिठाई से बोल रहा है। अदब और लिहाज जैसे भूल गया। अभी शायद नहीं जानता कि बाप मेरी गुलामी कर रहा है। सच है, छोटी नदी को उमड़ते देर नहीं लगती; मगर चेहरे पर मैल नहीं आने दिया। जैसे बड़े लोग
बालकों से मूंँछे उखड़वाकर भी हँसते हैं,उन्होंने भी इस फटकार को हँसी में लिया और विनोद-भाव से बोले--लखनऊ की हवा खा के तू बड़ा चंट हो गया है गोबर! ला,क्या कमा के लाया है,कुछ निकाल? सच कहता हूँ गोबर तुम्हारी बहुत याद आती थी। अब तो रहोगे कुछ दिन?

'हाँ, अभी तो रहूँगा कुछ दिन। उन पंचों पर दावा करना है,जिन्होंने डाँड़ के बहाने मेरे डेढ़ सौ रुपए हजम किये हैं। देखू,कौन मेरा हुक्का-पानी बन्द करता है। और कैसे विरादरी मुझे जात बाहर करती है।'

यह धमकी देकर वह आगे बढ़ा। उसकी हेकड़ी ने उसके युवक भक्तों को रोब में डाल दिया था।

एक ने कहा--कर दो नालिस गोबर भैया! बुड्ढा काला साँप है--जिसके काटे का मन्तर नहीं। तुमने अच्छी डाँट बताई। पटवारी के कान भी जरा गरमा दो। बड़ा मुतफन्नी है दादा! बाप-बेटे में आग लगा दे,भाई-भाई में आग लगा दे। कारिन्दे से मिलकर असामियों का गला काटता है। अपने खेत पीछे जोतो, पहले उसके खेत जोत दो। अपनी सिंचाई पीछे करो,पहले उसकी सिंचाई कर दो।

गोबर ने मूंँछों पर ताव देकर कहा---मुझसे क्या कहते हो भाई,साल भर में भूल थोड़े ही गया। यहाँ मुझे रहना ही नहीं है,नहीं एक-एक को नचाकर छोड़ना। अबकी होली धूम-धाम से मनाओ और होली का स्वाँग बनाकर इन सबों को खूब भिंगो-भिंगोकर लगाओ।

होली का प्रोग्राम वनने लगा। खूब भंग घुटे, दूधिया भी,नमकीन भी,और रंगों के साथ कालिख भी बने और मुखियों के मुंँह पर कालिख ही पोती जाय। होली में कोई बोल ही क्या सकता है! फिर स्वाँग निकले और पंचों की भद्द उड़ाई जाय। रुपए-पैसे की कोई चिंता नहीं। गोबर भाई कमाकर आये हैं।

भोजन करके गोबर भोला से मिलने चला। जब तक अपनी जोड़ी लाकर अपने द्वार पर बाँध न दे,उसे चैन नहीं। वह लड़ने-मरने को तैयार था।

होरी ने कातर स्वर में कहा--राढ़ मत बढ़ाओ बेटा, भोला गोई ले गये,भगवान उनका भला करे;लेकिन उनके रुपए तो .... थे।

गोबर ने उत्तेजित होकर कहा--दादा, तुम बीच में न बोलो। उनकी गाय पचास की थी। हमारी गोई डेढ़ सौ में आयी थी। तीन साल हमने जोती। फिर भी सौ की थी ही। वह अपने रुपये के लिए दावा करते,डिग्री कराते,या जो चाहते कहते,हमारे द्वार से जोड़ी क्यों खोल ले गये? और तुम्हें क्या कहूँ। इधर गोई खो बैठे,उधर डेढ़ सौ रुपए डाँड़ के भरे। यह है गऊ होने का फल। मेरे सामने जोड़ी खोल ले जाते,तो देखता। तीनों को यहाँ जमीन पर सुला देता। और पंचों से तो बात तक न करता। देखता,कौन मुझे बिरादरी से अलग करता है;लेकिन तुम बैठे ताकते रहे।

होरी ने अपराधी की भाँति सिर झुका लिया;लेकिन धनिया यह अनीत कैसे देख
सकती थी। बोली--बेटा,तुम भी अन्धेर करते हो। हुक्का-पानी बन्द हो जाता,तो गाँव में निर्वाह होता! जवान लड़की बैठी है,उसका भी कहीं ठिकाना लगाना है कि नहीं? मरने-जीने में आदमी बिरादरी....

गोबर ने बात काटी--हुक्का-पानी सब तो था,बिरादरी में आदर भी था,फिर मेरा ब्याह क्यों नहीं हुआ? बोलो। इसलिए कि घर में रोटी न थी। रुपए हों तो न हुक्का-पानी का काम है, न जात-बिरादरी का। दुनिया पैसे की है,हुक्का-पानी कोई नहीं पूछता।

धनिया तो बच्चे का रोना सुनकर भीतर चली गयी और गोबर भी घर से निकला। होरी बैठा सोच रहा था। लड़के की अकल जैसे खुल गयी है। कैसी बेलाग बात कहता है। उसकी वक्र बुद्धि ने होरी के धर्म और नीति को परास्त कर दिया था।

सहसा होरी ने उससे पूछा--मैं भी चला चलूंँ?

'मैं लड़ाई करने नहीं जा रहा हूँ दादा, डरो मत। मेरी ओर तो कानून है,मैं क्यों लड़ाई करने लगा?'

'मैं भी चलूंँ तो कोई हरज है?'

'हाँ,बड़ा हरज है। तुम बनी बात बिगाड़ दोगे।'

होरी चुप हो गया और गोबर चल दिया।

पाँच मिनट भी न हुए होंगे कि धनिया बच्चे को लिए बाहर निकली और बोली--क्या गोबर चला गया,अकेले? मैं कहती हूँ,तुम्हें भगवान कभी बुद्धि देंगे या नहीं। भोला क्या सहज में गोई देगा? तीनों उस पर टूट पड़ेंगे,बाज की तरह। भगवान ही कुशल करें। अब किससे कहूँ,दौड़कर गोबर को पकड़ ले। तुमसे तो मैं हार गयी।

होरी ने कोने से डण्डा उठाया और गोबर के पीछे दौड़ा। गाँव के बाहर आकर उसने निगाह दौड़ाई। एक क्षीण-सी रेखा क्षितिज से मिली हुई दिखाई दी। इतनी ही देर में गोबर इतनी दूर कैसे निकल गया! होरी की आत्मा उसे धिक्कारने लगी। उसने क्यों गोबर को रोका नहीं। अगर वह डाँटकर कह देता, भोला के घर मत जाओ तो गोबर कभी न जाता। और अब उससे दौडा भी तो नहीं जाता। वह हारकर वहीं बैठ गया और बोला--उसकी रच्छा करो महाबीर स्वामी!

गोबर उस गाँव में पहुंँचा,तो देखा कुछ लोग बरगद के नीचे बैठे जुआ खेल रहे हैं। उसे देखकर लोगों ने समझा, पुलीस का सिपाही है। कौड़ियाँ समेटकर भागे कि सहसा जंगी ने उसे पहचानकर कहा--अरे,यह तो गोबरधन है।

गोबर ने देखा,जंगी पेड़ की आड़ में खड़ा झाँक रहा है। बोला--डरो मत जंगी भैया,मैं हूँ। राम-राम! आज ही आया हूँ। सोचा,चलूंँ सबसे मिलता आऊँ,फिर न जाने कब आना हो! मैं तो भैया,तुम्हारे आसिरबाद से बड़े मजे में निकल गया। जिस राजा की नौकरी में हूँ,उन्होंने मुझसे कहा है कि एक-दो आदमी मिल जायँ तो लेते आना। चौकीदारी के लिए चाहिए। मैंने कहा,सरकार ऐसे आदमी दूंँगा कि चाहे जान चली जाय,मैदान से हटनेवाले नहीं,इच्छा हो तो मेरे साथ चलो। अच्छी जगह है। जंगी उसका ठाट-बाट देखकर रोब में आ गया। उसे कभी चमरौधे जूते भी मयस्सर न हुए थे। और गोबर चमाचम बूट पहने हुए था। साफ-सुथरी,धारीदार कमीज,सँवारे हुए बाल,पूरा बाबू साहब बना हुआ। फटेहाल गोबर और इस परिष्कृत गोबर में बड़ा अन्तर था। हिंसा-भाव कुछ तो यों ही समय के प्रभाव से शान्त हो गया था और बचा-खुचा अब शान्त हो गया। जुआड़ी था ही,उस पर गाँजे की लत। और घर में बड़ी मुश्किल से पैसे मिलते थे। मुंँह में पानी भर आया। बोला--चलूँगा क्यों नहीं,यहाँ पड़ा-पड़ा मक्खी ही तो मार रहा हूँ। के रुपए मिलेंगे?

गोबर ने बड़े आत्मविश्वास से कहा--इसकी कुछ चिन्ता न करो। सब कुछ अपने ही हाथ में है। जो चाहोगे,वह हो जायगा। हमने सोचा,जब घर में ही आदमी है,तो बाहर क्यों जायँ।

जंगी ने उत्सुकता से पूछा--काम क्या करना पड़ेगा?

'काम चाहे चौकीदारी करो,चाहे तगादे पर जाओ। तगादे का काम सबसे अच्छा। असामी से गठ गये। आकर मालिक से कह दिया घर पर है नहीं,चाहो तो रुपए-आठ आने रोज बना सकते हो।'

'रहने की जगह भी मिलती है?'

'जगह की कौन कमी। पूरा महल पड़ा है। पानी का नल,बिजली। किसी बात की कमी नहीं है। कामता हैं कि कहीं गये हैं?'

'दूध लेकर गये हैं। मुझे कोई बाजार नहीं जाने देता। कहते हैं, तुम तो गाँजा पी जाते हो। मैं अब बहुत कम पीता हूँ भैया,लेकिन दो पैसे रोज़ तो चाहिए ही। तुम कामता से कुछ न कहना। मैं तुम्हारे साथ चलूंँगा।'

'हाँ-हाँ,बेखटके चलो। होली के बाद।'

'तो पक्की रही।'

दोनों आदमी बातें करते भोला के द्वार पर आ पहुँचे। भोला बैठे सुतली कात रहे थे। गोबर ने लपक कर उनके चरण छुए और इस वक्त उसका गला सचमुव भर आया। बोला--काका, मुझसे जो कुछ भूल-चूक हुई,उसे क्षमा करो।

भोला ने सुतली कातना बन्द कर दिया और पथरीले स्वर में बोला--काम तो तुमने ऐसा ही किया था गोबर,कि तुम्हारा सिर काट लूंँ तो भी पाप न लगे;लेकिन अपने द्वार पर आये हो,अब क्या कहूँ! जाओ,जैसा मेरे साथ किया उसकी सजा भगवान देंगे। कब आये?

गोबर ने खूब नमक-मिर्च लगाकर अपने भाग्योदय का वृत्तान्त कहा,और जंगी को अपने साथ ले जाने की अनुमति मांँगी। भोला को जैसे बेमांँगे वरदान मिल गया। जंगी घर पर एक-न-एक उपद्रव करता रहता था। बाहर चला जायगा,तो चार पैसे पैदा तो करेगा। न किसी को कुछ दे,अपना बोझ तो उठा लेगा।

गोबर ने कहा--नहीं काका,भगवान ने चाहा और इनसे रहते बना तो साल दो साल में आदमी हो जायँगे। 'हाँ,जब इनसे रहते बने।'

"सिर पर आ पड़ती है,तो आदमी आप सँभल जाता है।'

'तो कब तक जाने का विचार है?'

'होली करके चला जाऊँगा। यहाँ खेती-बारी का सिलसिला फिर जमा दूं,तो निसचिन्त हो जाऊँ।'

'होरी से कहो,अब बैठ के राम-राम करें।'

'कहता तो हूँ,लेकिन जब उनसे बैठा जाय।'

'वहाँ किसी वैद से तो तुम्हारी जान-पहचान होगी। खाँसी बहुत दिक कर रही है। हो सके तो कोई दवाई भेज देना।'

'एक नामी वैद तो मेरे पड़ोस ही में रहते हैं। उनसे हाल कहके दवा बनवा कर भेज दूंगा। खाँसी रात को जोर करती है कि दिन को?'

नहीं बेटा, रात को। आँख नहीं लगती। नहीं वहाँ कोई डौल हो,तो मैं भी वहीं चलकर रहूँ। यहाँ तो कुछ परता नहीं पड़ता।'

'रोजगार का जो मजा वहाँ है काका,यहाँ क्या होगा? यहाँ रुपए का दस सेर दूध भी कोई नहीं पूछता। हलवाइयों के गले लगाना पड़ता है। वहाँ पाँच-छ:सेर के भाव से चाहो तो एक घड़ी में मनों दूध बेच लो।'

जंगी गोवर के लिए दूधिया शर्वत वनाने चला गया था। भोला ने एकान्त देखकर कहा-और भैया! अव इस जंजाल से जी ऊब गया है। जंगी का हाल देखते ही हो। कामता दूध लेकर जाता है। सानी-पानी,खोलना-बाँधना,सब मुझे करना पड़ता है। अब तो यही जी चाहता है कि सुख से कहीं एक रोटी खाऊँ और पड़ा रहूँ। कहाँ तक हाय-हाय करूँ। रोज लड़ाई-झगड़ा। किस-किस के पाँव सहलाऊँ। खाँसी आती है,रात को उठा नहीं जाता;पर कोई एक लोटे पानी को भी नहीं पूछता। पगहिया टूट गयी है,मुदा किसी को इसकी सुधि नहीं है। जब मैं बनाऊँगा तभी बनेगी।

गोवर ने आत्मीयता के साथ कहा—तुम चलो लखनऊ काका। पाँच सेर का दूध बेचो,नगद। कितने ही बड़े-बड़े अमीरों से मेरी जान-पहचान है। मन-भर दूध की निकासी का जिम्मा मैं लेता हूँ। मेरी चाय की दूकान भी है। दस सेर दूध तो मैं ही नित लेता हूँ। तुम्हें किसी तरह का कष्ट न होगा।

जंगी दूधिया शर्बत ले आया। गोबर ने एक गिलास शर्वत पीकर कहा-तुम तो खाली साँझ सबेरे चाय की दूकान पर बैठ जाओ काका,तो एक रुपया कहीं नहीं गया है।

भोला ने एक मिनट के बाद संकोच भरे भाव से कहा-क्रोध में बेटा,आदमी अन्धा हो जाता है। मैं तुम्हारी गोई खोल लाया था। उसे लेते जाना। यहाँ कौन खेती-बारी होती है।

'मैंने तो एक नयी गोईं ठीक कर ली है काका!'

'नहीं-नहीं,नयी गोईं लेकर क्या करोगे? इसे लेते जाओ।'

'तो मैं तुम्हारे रुपए भिजवा दूंगा।' 'रुपए कहीं बाहर थोड़े ही हैं बेटा,घर में ही तो हैं। बिरादरी का ढकोसला है,नहीं तुममें और हममें कौन भेद है? सच पूछो तो मुझे खुश होना चाहिए था कि झुनिया भले घर में है,आराम से है। और मैं उसके खून का प्यासा बन गया था।'

संध्या समय गोबर यहाँ से चला, तो गोईं उसके साथ थी और दही की दो हाँड़ियाँ लिये जंगी पीछे-पीछे आ रहा था।