चन्द्रकांता सन्तति १/तीसरा बयान

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चन्द्रकांता सन्तति
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

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पहिला हिस्सा चुनार से इनके साथ आए थे ऐयारी के फन में खुत्र होशियार किया । इस बीच में एक लडका और उसके बाद एक लटकी भी महाराज शिवदत्त के घर पैदा हुई । मौका पाकर अपने बहुत से आदमियों और ऐयारो को साथ ले वह शिवदत्तगढ़ के बाहर निकला थौर राजा बीरेन्द्रसिंह से बदला लेने की फिक्र में कई महीने तक धूमता रहा | बस महाराज शिवदत्त का इतना ही मुख्तसर हाल लिख कर हम इस बयान को समाप्त करते हैं और फिर इन्द्रजीतसिंह के किस्से को छेड़ते हैं ।। इन्द्रजीतसिंह के गिरक्तार होने के बाद उन बनावटी शेरों ने भी अपनी हालत बदली और असली सूरत के ऐयार बन बैठे जिनमें यारअली बाकरअली और खुदाबख्श मुखिया थे । महाराज शिवदत्त बहुत ही खुश हुआ श्रौर समझा कि अब मेरा जमाना फिरा, ईश्वर चाहे तो फिर चुनार की गद्दी पाऊँगा और अपने दुश्मनों से पूरा बदला लूगा । | इन्द्रजीतमिह को कैद कर वह शिवदत्तगढ़ ले गया | सभों को ताज्य इशा कि कु अर इन्द्रजीतसिंह ने गिरफ़ार होते समय कुछ उत्पात न मचाया, किसी पर गुस्सा न निकाला किसी पर हब न उठाया, यहां तक कि अॉखों से उन्होंने रञ्ज अफसोस या क्रोध भी जाहिर न होने दिया । {इकीकत में यह ताज्जुब की बात थी भी कि वहादुर वीरेन्द्रसिंह का शेरदिल नड़की ऐसी हालत में चुप रह जाय और विना हुनत किए बेड पहिर कुले, मगर नहा इसका कोई सबब जरूर है जो आगे चल कर मालूम होगा । तीसरा बयान धः चुनारगढ़ किले के अन्दर एक कमरे में महाराज सुरेन्द्रसिंह, वीरेन्द्र ५ रिह, जीतसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह, इन्द्रजीतसिंह और नन्दसिह इँटे। दए धीरे धीरे कुछ बातें कर रहे हैं । जति० । भैरो ने बड़ी होशियारी का काम किया कि अपने को इन्द्र। दीवसिंह को सुरत बना शिवदत्त के ऐयारों के हाथ फँसाया । ३ [ १७ ]________________

चन्द्र गन्ना सन्तति रेन्द्र शवदत्त के ऐयारों के चालाका ता खूब की था मगर... मेन्द्र । या जा सर पर मवार हा सिद्ध ता बन लेकिन अपना काम न कर सके न! मगर मे भैरामिह का अब वहत जल्द छुडाना चाहिए। नात० । कुमार घबगायो मत, तुम्हारे दोस्त को किसी तरह की तकलीप नाही हो वती, लेकिन अभी उमका शिवदत्त के यहाँ फंसे ही रहना मुना गय - । वह वाफ नहीं है, बिना मदद के श्राप ही छूट कर या राकना , तिस पर पनानाल रामनागयण चुन्नीलाल बद्रीनाथ और ज्योलीना उसकी मदद को भेजे हो गए है, देखो तो क्या होता है। स्तनांनी तक चुपचाप बैठे रह कर शिवदत्त ने फिर अपना स्वराया करने पर उमर योधी है। दर' । कुमारी के साथ फौज शिकारगाह में गई है उसके लिए शर दश 'क्माता ? जीत० । अभी शरगाह से डेरा उठाना मुनासिब नही । (तेजसिंह ताप दास का ) क्यों तेज ? ने० । (गाय नोट कर ) जी हाँ, शिकारगाह में डेरा कायम रहने से हम लोग बदी ग्यूवमूरती श्रीर दिल्लगी से अपना काम निकाल सकेंगे। मुंगेन्द्र यार शिवदत्तगढ़ से लौटे तो कुच हालचाल मालूम हो । तेजल ना नई मार परमी तक कोई न काई जसर पायेगा। पर भर में ज्याद देर तक बातचीत होती रहो । कुल बातों को सोचना पन नुनाममममले बल्कि यासिरी बात का पता तो हम मानगा जो मजान्न म उन के बाद जतसिंह नाले में तेजहि को राम जान दीजिए, लोहोगा देखा जायगा, जल्दा क्या है। गगा friअनी बादरोम इन्द्रजातसिंह और आनन्दसिंह नामा पल देव । वरमात का मीसिम है, गगा पदाग्नि के नीन जल पहुँचा हुआ है, छोटी छाटी सदर [ १८ ]________________

पहिला हिस्सा दीवारों में टक्कर मार रही है, अस्त होते हुए सूर्य की लालिमा जेल में पड़ कर लहरों को शाभा दूनी बढ़ा रही है, सन्नाटे का आलम है, इस चारदरी में सिवाय इन दोनों भाइयों के अौर कोई तीसरा दिखाई नहीं देता } इन्द्र० | अभी जल कुछ और बढ़ेगा । अानन्द० । जी हाँ, पारसाल तो गगा आज से कहीं ज्यादे बढी हुई यी जय दादाजी ने हम लोगों को तर केर पार जाने के लिए कहा था । | इन्द्र० { उस दिन भी खून ही दिल्लगी हुई, भैरोसिंर सभों में तेज रहा, बद्रीनाथ ने कितना ही चाहा कि उनके आगे निकल जायें मगर न हो सका। अनिन्द० । हम दोनो भी कास भर तक उस किश्ती के साथ ही साथ राएं जो हम लोगों की हिफाजत के लिए लग गई थी। इन्द्र० ! बम वही तो हम लोगो का शाखिरी इन्तिहीन रहा, फिर तव से जल में तेरने की नौबत ही कहाँ थाई ।। आनन्द० । कल तो मन दादाजी से कहा था कि आज कल गंगाजी खून बढ़ी हुई है तरने को जी चाहता है । इन्द्र० | तव क्या बोले ? | अनिन्द० । कहने लगे कि बस अब तुम लोगों का तेरना मुनासिब नहीं है, हँसी गो । तेरना भी एक इल्म है जिसमे तुम लोग होशियार हो चुके, अब क्या जरूरत है ? ऐसी है। जी चाहे तो किश्ती पर सवार हो कर जाग्रो सैर करो ।। इन्द्र० । उन्होंने वहुत ठीक कहा, चलो किश्ती पर थोडी दृर घूम श्रायें, इसके लिए इजाजत लेने की भी कोई जरूरत नहीं । बात चीत हो ही रही थी कि चोवदार ने आकर अर्ज किया, “एक * बहुत बूढ़ा जवहरी हाजिर है, दर्शन किया चाहती हैं ।” आनन्द० । यह कौन सा वक्त है ? चोपदार० । ( हाथ जोड़ कर ) तावेदार ने तो चाहा था कि इस [ १९ ]________________

चन्द्रकान्त सन्ततिं समय उसे पिटा करै मगर यह ख्याल करके ऐसा करने का हौसला ने पदा कि एक तो लटकपन दो से व इस देवर को नमकवार है और भाराज की भी उन पर निगाह रहती है, दूसरे अस्सी वर्ष का बुड्डा है, तीसरे करता है कि अभी इस शहर में पहुंचा हूं, महाराज का दर्शन कर चुका है, सरकार के भी दर्शन हो जायें तब आराम से सराय में डेरा डाऊँ, र मेरे से उसका यह दस्तूर भी है ।। न्ट्र० । अगर ऐसा है तो उसे अपने ही देना मुनासिब है ।। अनिन्द्र० । तर अाज किश्ती पर सैर करने का रगनजर नहीं आता है। इन्द्र० । या दृर्ज है, कल सही । चोदार सलाम करके चला गया और थोड़ी ही देर में सौदागर को ले कर जिर हुआ । हकीकत में वह सौदागर बहुत ही बुड्ढा शा, यामत ग्रौर शरफ्त उसके चेहरे से बरसती थी । आते ही मुलाम करके उगने दोनों भाइयों को दो अंगूठियों नजर दी और कबूल होने के बाद गइन पर कर जमीन पर बैठ गया ।। म भुइवें जयरी की इजत ही गई, मिजाज का हल सफर की *पियत पूछने उद देने पर जाकर गर्म करने और कल फिर हाजिर होने का हुक्म हुआ, तीदागर सलाम करके चला गया । मंदिर में जो दो टूठिया दोनों भाइयों को नजर दी थी उनमें प्रानन्दर्भिद् की अंगूठी पर निहायत खुरार मानिक जना हुआ था और दर्जनह् िकी अँगूठी पर सिर्फ एक छोटी सी तस्वीर थी जिसे दो एक र निग" भर र इन्द्रजीतसिंह ने देगा श्ररि कुछ सोच कर चुप हो रहे । | एरन्त होने पर रात के शुमटान की रोशनी में फिर उसे अॅटूटी ३ र नि नगीने की जद कमसिन इमीन अँरित की तस्वीर

: १ । चाहे थट तुन्दर निर्भर इन छोटो या न हो मगर मुसीवर ३ २ १ माई उम६ गचं कर थे | इ पर्ने देते एक मरतने तो इन्द्रादि । २ए लिन हो गई कि अपने का कोईर उस औरत की [ २० ]बैठ कर भोजन भी करना ही पडा़,हाँ शाम को इनकी बेचैनी बहुत बढ़ गई जब सुना कि तमाम शहर छान डालने पर भी उस जवहरी का कही पता न लगा और यह भी मालूम हुआ कि उस जवहरी ने यह बिल्कुल झूठ कहा था कि 'महाराज का दर्शन कर आया हूँ, अब कुमार के दर्शन हो जायँ तब आराम से सराय में डेरा डालू ।' वह वास्तव में महाराजा सुरेन्द्रसिंह और वीरेन्द्रसिंह से नहीं मिला था ।

तीसरे दिन इनको बहुत ही उदास देख आनन्दसिंह ने किश्ती पर सवार
होकर गद्गाजी को सेर करने और दिल बहलाने के लिए जिद्द की, लाचार उनकी बात माननी ही पड़ी ।

एक छोटी सी खूबसूरत और तेज जाने वाली किश्ती पर सवार हो इन्द्रजीतसिंह ने चाहा कि किसी को साथ न ले जायें सिर्फ दोनों भाई ही सवार हो और खे कर दरिया की सैर करें,। किसी की मजाल थी जो इनकी बात काटता, मगर एक पुराने खिदमतगार में जिसने कि बीरेन्द्रसिंह को गोद में खिलाया था और अब इन दोनों के साथ रहता था ऐसा करने से रोका और जब दोनों भाइयों ने न माना तो वह खुद किश्ती पर सवार हो गया । पुराना नौकर होने के ख्याल से दोनों भाई कुछ न बोले, लाचार साथ ले जाना पड़ा ।

आनन्द० । किश्ती को धारा में ले जाकर बहाव पर छोड़ दीजिए फिर से कर ले आवेगे ।

इन्द्र० । अच्छी बात है ।

सिर्फ दो घण्टे दिन बाकी था जब दोनों भाई किश्ती पर सवार हो दरिया की सैर करने को गए क्योंकि लौटती समय चॉदनी रात का भी आनंद लेना मंजूर था ।

चुनार से दो कोस पश्चिम गंगा के किनारे ही पर एक छोटा सा जंगल था । जब किश्ती के पास पहुंची, वसी की और साथ ही गाने की बारीक सुरीली आवाज इन लोगों के कानो में पड़ी । संगीत एक ऐसी
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चन्द्रकान्ता सन्तति चीज है कि हर एक के दिल को चाहे वह कैला ही नासमझ क्यों न हो | अपनी तरफ खेंच लेती है यहाँ तक कि जानवर भी इसके वश में हो कर अपने को भूल जाता है ! दो तीन दिन से कुअर इन्द्रजीतसिंह का दिल चुटीला हो रहा था, दरिया की बहार देखना तो दूर रहे इन्हें अपने तनोबदन की भी सुध न थी, ये तो अपनी प्यारी तस्वीर की धुन में सर झुकाए बैठे कुछ सोच रहे थे, इनके हिसाब चारो तरफ सन्नाटर था, मगर इस सुरीली आवाज ने इनकी गर्दन घुमा दी और उस तरफ देखने को मजबूर किया जिधर से वह अावाज आ रही थी ! किनारे की तरफ देखने से यह तो मालूम न हुअा कि बसी बजाने यो गाने वाला कौन है मगर इस बात का अन्दाजा जरूर मिल गया कि लोग बहुत दूर नहीं हैं जिनके गाने की विजि सुनने वालों पर जादू का सा असर कर रही है ! इन्द्र० | श्राहा, क्या सुरीली आवाज है !! । ग्रानन्द० ! दूसरी अावाज भी आई । बेशक कई औरतें मिल कर | गा ३ जा रही हैं। | इन्द्रजीत० । ( किश्ती का मुहूं किनारे की तरफ फेर कर ) ताज्जुब है कि इन लोगों ने गाने बजाने और दिल बहलाने के लिए ऐसी जगह पसन्द की ! जरा देखना चाहिए । | आनन्द० | क्या हुई है, चलिए। वृहे रिपदमतगार ने किनारे किश्ती लगाने और उतरने के लिए मन। फ़िया और बहुत समझाया मगर इन दोनों ने न मानी, किश्ती किनारे लगाई और उतर कर उस तरफ चले जिधर से अचाने आ रही थी । जगन्न में थोड़ी ही दूर जा कर उसे पन्द्रह नौजवान औरतों का झुण्ड नजर पडा ऊँ। रग विरगर पोशाक और कीमती जेवरों वे अपने हुस्न को दूना किए ऊँचे पेड़ से लटकते हुए एक फूले की फुला रही थीं। कोई वंसी कोई मृदग वजाती, कोई हाथ से ताल दे दे कर गा रही थी । उस हिंडोले [ २२ ]________________

पहीली इसी पर सिर्फ एक ही शौरत गगा की तरफ रुर किए बैठी थी । ऐसा मालूम होता था मानों परिय साक्षात् किसी देवकन्या को झुना र ग वजा कर | इसलिए प्रसन्न कर रही है कि लुबरती बढ़ने और नौजवानी के स्थिर रहने का वरदान पावें । मगर नहीं, उनके भी दिल की दिल ही दे रही और कुँअर इन्द्रजीतसिंह तथा आनन्दसिंह को आते देख हिंडोले पर बैठी हुई नाजनीन को अकेली छोड़ न जाने क्यों भाग जाना ही पडा । शानन्द० । भैया, वह सब तो भाग गई ! इन्द्र० । हो, मैं इस हिंटोले के पास जाता हूँ, तुम देखो वे शौरतें किधर गई । अानन्द । दृत गच्छा ।। चाहे जो हो मगर कुअर इन्द्रजीतसिंह ने उसे पहिचान ही लिया | जो हिंडोले पर अकेली रह गई थी । भला यह क्यों न पहिचानते ? जवहरी की नजर दी हुई अंगटी पर उसकी तस्वीर देख चुके थे, उनके दिल में उसकी तस्वीर खुद गई थी, अत्र तर मु हमारी मुराद पाई, जिसके लिए अपने को मिटाना मंजूर था उसे विना परिश्रम पाया, फिर क्या चाहिए । ग्रानन्दसिंह पता लगाने के लिए उन ग्रेरितों के पीछे गए मगर वे ऐसी भागी कि झलक तक दिखाई न दी, लाचार आधे घंटे तक रान होकर फिर उसे हिंटोले के पास पहुचे ! हिंटले पर बैठी हु श्रेरित की कौन कहे अपने भाई को भी वहा ने पायी । वर्षा कर इधर उधर हुने और पुकारने लगे, चरा तक कि रात हो गर्ट और यह सोचकर क्रिती के पास पहुंचे कि शायद वह चले गए हों, लेकिन वह भी सिवाय उन चुढे | पिदमतगार के किसी दूसरे को न देता । जी बेचैन हो गया, ज़िदमतगार को सन्द हाल कह कर बोले, "ज तक अपने व्यारे भाई का पता ने लगा टूगा घर न जाऊंगा, तू जाकर यहां के हवाले की सभी को पयर कर दे ।” खिदमतगार नै र तरह से नन्दसिंह को समझाया बुझाया और घर चलने के लिए कहा मगर कुछ फायदा न निकला । लाचार उसने [ २३ ]________________

चन्द्रकान्ता सन्तति किश्ती उसी जगह छोडी और पैदल रोता कलपती किले की तरफ रवाना हुआ क्योंकि यहा जो कुछ हो चुका था उसका हाल राजा बीरेन्द्रसिंह से कहना भी उसने आवश्यक समझा ! चौथा बयान खिदमतगार ने किले में पहुच कर और यह सुन कर कि इस समय दोनों एक ही जगह बैठे हैं कु अर इन्द्रजीतसिंह के गायब होने का हाल और सवत्र जो कु र आनन्दसिंह की जुबानी सुना था महाराज सुरेन्द्र सिंह और श्रीरेन्द्रसिंह के पास हाजिर होकर अर्ज किया । इस खबर के सुनते ही उन दोनों के कलेजे में चोट सी लगी । थोड़ी देर तक घबराहट के सब कुछ सोच न सके कि क्या करना चाहिये | रात भी एक पहर से ब्याई जा चुकी यी 1 आखिर जीतसिंह तेजसिंह और देवीसिंह को बुला कर खिदमतगार की जुबानी जो कुछ सुना था कहा और पूछा कि अब क्या करना चाहिये । तेजसिंह० | उस जगल में इतनी अौरत को इकट्ठे हो कर गाना बजाना और इस तरह धोखा देना बेसबब नहीं है ।। | सुरेन्द्र० । जत्र से शिवदत्त के उभरने की खबर सुनी है एक खुटका सा बना रहा है, मैं समझता हूँ यह भी उसी की शैतानी है। | वीरेन्द्र० । दोनों के ऐसे कमजोर तो नहीं हैं कि जिसका जी चाहे पकड़ ले । सुरेन्द्र० । ठीक है, मगर आनन्द का भी वही रह जाना बुरा ही हुआ ) तेज० । बेचारा खिदमतगार जबर्दस्ती साथ हो गया था नहीं तो पता भी न लगता कि दोनें कहा चले गये । खैर उनके बारे में जो कुछ सोचना हैं सोचिये मगर मुझे जल्द इजाजत दीजिए कि हजार सिपाहियों को साथ लेकर वहा जाऊँ और इस वक्त उसे छोटे से जङ्गल को चारो तरफ से घेर लू, फिर जो कुछ होगा देखा जायगा | [ २४ ]________________

पहिला हिस्सा सुरेन्द्रः । ( जीतसिंह से ) क्या राय है? |जत० । तेज टीक कहता है, इसे भी जाना चाहिए ।। | हुक्म पाने ही तेजसिंह दीवानखाने के ऊपर एक बुर्ज पर चढ़ गए जहाँ ग्र; मा नक्कारा और उसके पास ही एक भारी चोव :मलिए रक्खा हा था कि वक्त चैवक्त जत्र कोई जरूरत या पई ग्रार फौज को तुरंत तैयार कराना हो तो इस नकारे पर चोब मारी जाय । इसकी अावाज भी निराले ही ढंग की थी जो किमी नारे की आवाज मे मिलती न थी शौर म बजाने के लिए तेजसिंह ने कई इशारे भी मुर्रर किए हुए थे । नेत्रवि ने चोर उठा क्रेर जोर से एक दफे नक्का पर भारी जिसको प्रीम्राज तमाम शहर में बल्कि दूर दूर तक गूंज गई । चाहें इसका मवव तिमी २ वाले की ममझ में न आया हो मगर सेनापति ममझ गया कि मी वक्तेः इजार पीजी सिपाहियों की जरूरत है जिरका इन्तजाम उसने बदृत जल्द किया । तेजसि” अपने सामान से तैयार हो किले के बाहर निकले शोर हजार फाजी सिपारी तथा बहुत से मशालचियो को साथ ले उस छोटे से जगल की तरफ रवाना होकर बहुत जल्दी ही वहॉ जा पहुचे ।। | थोडी थोडी दृर पर पहरा मुकर्रर कर के चारो तरफ से उस जंगल को घेर लिया । इन्द्रजीतसिंह तो गायत्र हो ही चुके थे, आनन्दसिंह से भी मिलने को बहुत तकत्रि की गई मगर उनका भी पता न लेगा । तरत में रात निताई सवेरा होते ही तेजसि न हेक्म दिया कि एक तरफ से इसे अगल को तेजी के साथ काटना शुरू करो जिधर्म दिन भर में तमाम जगल स्पः हो जाय । उसी समय महाराजा सुरेन्द्रसिह और जीतसिह भी व आ पहुँचे । जगल का काटना इन्होने भी पसन्द किया और बोले कि बहुत अच्छा होगा अगर हम लोग इस जगल से एक दम ही निश्चित हो जॉय ।। | इस छोटे से जगल को काटते देर ही कितनी लगनी थी, तिस पर महा [ २५ ]________________

२६ चन्द्रकान्ता सन्तति राज की मुस्तैदी के सबब यहाँ कोई भी ऐसा नजर नहीं आता था जो पेड़ की कटाई में न लगा हो । दोपहर होते होते जगल कट के साफ हो गया मगर किसी का कुछ पता न लगा यहाँ तक कि इन्द्रजीतसिंह को तरह आनन्दसिंह के मी गायब हो जाने का निश्चय करना पडा हाँ इस जगल के अन्त में एक कमसिन नौजवान हसीन और बेशकीमती गहने कपड़े से सजी हुई औरत की लाश जरूर पाई गई जिसके सिर का पता न था ।। | यह लाश महाराज सुरेन्द्रसिंह के सामने लाई गई। अब सभी की परेशानी और भी बढ़ गई और तरह तरह के ख्याल पैदा होने लगे । लाचार उस लाश को साथ ले शहर की तरफ लौटे। जीतसिंह ने तेजसिंह से कहा, हम लोग जाते हैं, तारासिंह को भेज के सब ऐयारी को जो शिवदत्त की फिक्र में गए हुए हैं बुलवा कर इन्द्रजीतसिंह और अनिन्दसिंह की तलाश में भेजेंगे, मगर तुम इसी वक्त उनकी खोज में जहाँ तुम्हारा दिल गवाही दे जायो ! तेजसिंह अपने सामान से तैयार ही थे, उसी वक्त सलाम कर एक तरफ को रवाना हो गए, और महाराज रूमाल से अखिों को पोंछते हुए चुनार कीतरफ विदा हुए । उदास और पोतों की जुदाई से दुखी महाराज सुरेन्द्रसिंह घर पहुँचे । दोनों लड़कों के गायब होने का हाल चन्द्रकान्ता ने भी सुना वह बेचारी दुनिया के दु:ख सुख को अच्छी तरह समझ चुकी थी इसलिए कलेजा मसोस कर रह गई, जादिर में रोकना चिल्लाना उसने पसन्द न किया, मगर ऐसा करने से उसके नाजुक दिल पर और मी सदमा पहुची, घडी भर में ही उसकी सूरत बदल गई । चपला शोर चम्पा को चन्द्रकान्ता से कितनो मुहब्बत थी इसको आप लोग बूब जानते है लिखने की कोई जरूरत नहीं, दोनों लटक के गायब होने का गम इन दोनों को चन्द्रकान्ता से ज्यादे हुया श्रीर दोनों ने निश्चय कर लिया कि मौका पा कर इन्द्रजीतसिंह अौर श्रानन्दसिंह का पता लगाने की कोशिश करेंगी ।। [ २६ ]________________

पहिला हिस्सा | महाराज सुरेन्द्रसिंह के अाने की खबर पाकर वीरेन्द्रसिंह मिलने के लिये उनके पास गए । देवीसिंह भी वहाँ मौजूद थे । वीरेन्द्रसिंह के सामने ही महाराज ने सन हाल देवीसिंह से कह कर पूछा कि अब क्या करना देवी० } मै पहिने उस लाश को देखा चाहता हूँ जो उस जगल में पाई गई थी । । सुरेन्द्र० 1 हाँ तुम उसे जरूर देखो । जीत० } ( चोचदार से ) उस लाश को जो जगल में पाई गई थी इसी जगह लाने के लिये कहो । “बहुत अच्छा" कह कर चवदार बाहर चला गया मगर थोडी हीं देर में वापस आकर बोला, “महाराज के साथ आते आते न मालूम वह लाश' कहा गुम हो गई ! कई आदमी उसकी खोज में परेशान है मगर | पता नहीं लगता !!" | वीरेन्द्र० 1 अब फिर हम लोगों को होशियारी से रहने का जमाना श्रा गया । जय हजारों अदिमियो के बीच से लाश गुम हो गई तो मालूम होता है, अभी बहुत कुछ उपद्रव होने वाला है । | जीत० । मने तो समझा था कि अब जो कुछ थोड़ी सी उम्र रह गई। है श्रीराम से कटेगी, मगर नहीं, ऐसी उम्मीद किसी को कुछ भी न रखनी चाहिए। | सुरेन्द्र० 1 खेर जो होगा देखा जायगा, इस समय क्या करना मुनासिन। उमे सोच । जति० 1 मेरा विचार था कि तारासिंह को बद्रीनाथ वगैरह के पास भेजते जिसमें वे लोग भैरोसिंह को छुड़ा कर ग्रौंर किसी कार्रवाई में न फंसे और मीधे यहाँ चले श्रावे, मगर अब ऐसा करने की भी जी नहीं चाहतः । आज भर अप और सन्न करे, अच्छी तरह सोच विचार कर कल में अपनी राय दूगी । [ २७ ]________________

चन्द्रकान्ता सन्तति पांचवां बयान परित बड़ीनाथ पन्नालाल रामनारायण श्रौर जगन्नाथ ज्योतिषी भैरोसिर ऐयार को छुड़ाने के लिए शिवदत्तगढ़ की तरफ गए । हुक्म के मुताविक कञ्चनसिंह मेनापति ने शेर वाले बाबाजी के पीछे जासूस भेज कर पता लगा लिया था कि भैरोसिंह ऐयार शिवदत्तगढ़ किले के अन्दर पहुँचाए गए, इसीलिए इन ऐयारों को पता लगाने की जरूरत न पडी, साधे शिवदत्तगढ़ पहुँचे और अपनी अपनी सूरत बदल शहर में घूमने लगे, पॉचो ने एक दूसरे का साथ छोड़ दिया मगर यह ठीक कर लिया था कि सब लोग घूम फिर कर फलानी जगह इकट्ठे हो जायँगे । दिन भर घूम फिर कर भैरोसिंह का पता लगाने के बाद कुल ऐयार शहर के बाहर एक पहाड़ी पर इकट्ठे हुए और रात मर सलाह करके राय कायम करने में काटी, दुमरे दिन ये लोग फिर सूरत बदल बदल कर शिवदत्तगढ़ में पहुँचे । रामनारायण और चुन्नीलाल ने अपनी सूरत उसी जगर के चोदारों की सी बनाई और वहा पहुँचे जहाँ भैरोसिंह कैद थे । कई दिनों तक कैद रहने के सवव उन्होने अपने को जाहिर कर दिया था और अपनी असली सूरत में एक कोठड़ी के अन्दर जिसके तीन तरफ दीवार श्रीर एक तरफ लोहे का अँगला ल हुया था वन्द थे । उस कोठी के बगल में उसी तरह की एक कोटी ग्रौर थी जिसमें गद्दी लगाए एफ वृद्धा दारोगा बेटा था और बार कई सिपाही नंगी तलवार लिए घूम घूम कर पा दे रहे थे । रामनारायण श्रौर चुन्नीलाल उस ६ट के देने पर जाकर पड़े हुए र बृढे दारोगा से बातचीत इग्न लगे। राम० | श्रापी महाराज ने याद किया है । चुदा० | क्यों क्या चाम १ १ भीतर श्राश्रा, बैठो, चलते हैं | रामनारायण श्रीर चुन्नीलाल कोटडी के अन्दर गए और बोले-[ २८ ]________________

पहिला हिस्सा राम० । न मालूम क्यों बुलाया है मगर ताकीद की है कि जल्द बुला लाश्रो ! वृहा० । अभी घण्टे भर भी नहीं हुए जब किसी ने श्री के कहा था | कि महाराज खुद आने वाले हैं, क्या वह वात झूठ थी १ । राम० | हा महाराज ग्राने वाले थे मगर अब न अावेंगे । बूढ० अच्छा शाप दोग आदमी इसी उग्र वैट थ्रार कैदी की | हिफाजन करे में जाता हू ।। राम | बहुत अच्छा । रामनारायण श्रौर चुन्नीलाल को कड़ी के अन्दर बैठा कर बुढा दारोगा बाह्र श्राय और चालाकी से फूट इस कोठडी की दवा बन्द कर के बाहर से बोला, “इन्दगी । में दोनों को पहिचान राधा किं ऐयार हौ ! कहिये अब हमारे द मैं आप लोग फंसे या नहीं ? मने भी क्या मजे में पता लगा लिया ! पूछा कि अभी तो मालूम हुआ था कि महाराज खुद आने वाले हैं, अपने भी झट आबूल कर लिया अॅार कहा कि 'इवा आने वाले थे मगर अर्य न झायेगे। यह न समझे कि में धोखा देता है । इसी अक्ल पर ऐयारी करते ही १ वैर अप लोग भी अचे इसी कैदखाने की हवा खाइये और जान लीजिये कि मैं बाकरअली ऐयार झाप लोगो को मजा चखाने के लिए इस जगह बैठाया गया हू ।' चुढे की बातचीत मुन रामनारायण और बुन्नालाल चुप हो गये बल्कि शम कर सिर नीचा कर लिया 1 बूढा दारोगा वहा से रवाना हुआ और शिवदत्त के पास पहुंच इन दोन ऐयारों के रिप्तार करने का हाल का । महाराज ने खुश होकर चाकरअली को इनाम दिया और खुशी खुशी खुद रामनारायण और चुन्नीलाल को देखने आये । । | बद्रीनाथ पन्नालाल र ज्योतिदीजो को भी मालूम हो गया कि हमारे साथियों में से दो ऐयार पकड़े गये । अब तो एक की जगह तीन श्रादभिया के छुने की फिक्र करनी पड़ी। [ २९ ]________________

चन्द्रकान्ता सन्तति कुछ रात गये ये तीनों ऐयार घूम फिर कर शहर के बाहर की तरफ जा रहे थे कि पीछे से एक आदमी काले कपड़े से अपना तमाम वदन छिपाये लपकता हुआ उनके पास आया और लपेटा हुशा छोटा सा एक कागज उनके सामने फेंक और अपने साथ ग्राने के लिये हाथ से इशारा कर के तेजी से आगे बढ़ा ।। बड़ीनाथ ने उम पुर्जे को उठा कर सड़क के किनारे एक वनिये की दुकान पर जलते हुए चिराग की रोशनी में पढ़ा, सिर्फ इतना ही लिखा था—“भैरोसिंह ।' बद्रीनाथ समझ गए कि भैरोसिंह किसी तरकीब से निकल भाग है और यही जा रहा है। बद्रीनाथ ने भैरोसिंह के हाथ की लिखी भी पहिचाना ।। भैरोंसिह पुर्जा फेंक कर इन तीनों को हाथ के इशारे से बुला गया श्री ग्रौर दम बारह कदम आगे बढ़ अब इन लोगों के आने की राह देख रहा था । | बद्रीनाथ वगैरपुश हो कर आगे बढ़े और उसे जगह पहुचे जहा भैरोसिंहू काले कपड़े से बटन को छिपाये सड़क के किनारे झाड देख कर पड़ा था । बातचीत करने का मौका न था, आगे आगे भैरोसिंह और पीछे पीछे बद्रीनाथ पन्नालाल और ज्योतिपीजी तेजी से कदम बढ़ाते शहर के वाइर हो गये ।। रात अन्धेरी थी । मैदान में जाकर भैरोसिंह ने काला कपडा उतार दिया | इन तीनों ने चन्द्रमा की गेशनी में भैरोसिंह को पहिचाना, खुश होकर बारी बारी तीनों ने उसे गले लगाया और तब एक पत्थर की चट्टान पर बैठ कर बातचीत करने लगे । | बद्री० । नैमिर, इस वक्त तुम्हें देय कर तबीयत बहुत ही खुश हुई । ६० { में तो किसी तरह छूट श्राया मगर रामनारायण श्रीर गुनीलाल दब जा फँसे है । पति० } उन दोनों ने भी क्या हो घोसा साया है । [ ३० ]________________

पहिला हिस्सा भैरो० | मैं उनके छुडाने की भी फिक्र कर रहा हूँ। पन्ना० | वह क्यों ? भैरो० । सो सब कहने सुनने का मौका तो रात भर है मगर इस | समय मुझे भूख बटर जोर से लगी है कुछ हो तो खिलायो । | बद्री० } दो चार पेड़े है, जी चाहे तो खा लो ।। भै) ० । इन दो चार पेडों से क्या होगा ? खैर कम से कम पानी का तो बन्दोस्त होना चाहिये ।। वर्द्रः । पिर क्या करना चाहिये १ भैरो० 1 ( हाथ से इशारा कर के } वह देखो शहर के किनारे जो चिराग जल रहा है अभी देखते आये है कि वह हलवाई की दुकान है। और वह ताजी पूरियाँ बना रहा है, बल्कि पानी भी उसः हलवाई से मिल जायेगा | पन्ना० ! अच्छा में जाता है । भैरो० | हम लोग भी साथ ही चलते हैं, सभों को इकट्ठे ही रहना ठीक है, कहीं ऐसा न हो कि आप फेस जाये और हम लोग राह ही देखते रहे । | पन्ना० । फेसना क्या खिलवाड़ हो गया ? | भैरो० । खैर हर्ज ही क्या है अगर हमलोग साथ ही चले चले ? तीन आदमी किनारे खड़े हो जायगे एक अादमी आगे बढ़ कर सौदा ले लेगा ।। बढी • } हाँ हाँ यही ठीक होगा, चलो हम लोग एक साथ चलें । चारो ऐयार एक साथ वहाँ से रवाने हुए और उस इलवाई के पास पहुंचे जिसकी अकेली दूकान शहर के किनारे पर थे 1 बद्रीनाथ ज्योति जी और भैरोसिंहू कुछ दूर इधर ही खड़े रहे और पन्नालाल सौदा खरीदने के लिए दुकान पर गये ! जाने के पहले ही भैरोसिंह ने कहा, मिट्टी के बर्तन में पानी भी देने का एकरार हलवाई से पहिले कर लेना नहीं तो पीछे हुज्जत करेगा। [ ३१ ]________________

३२ चन्द्रकान्ता सन्तति पन्नालाल हलवाई की दुकान पर गये और दो सेर पूरी सेर भर मिठाई मॉगी ! हलवाई ने खुद पूछा कि ‘पानी भी चाहिये या नहीं ? पन्ना० ! हा हा पानी जरूर देना होगा । इल० । कोई वर्तन है ? पन्ना० | वर्तन तो है मगर छोटा है, तुम्ही किसी मिट्टी के ठिलिये में जल दे दो } हले० । एक घटा जल के लिये अाठ अाने और देने पड़े गे ) पन्ना० । इतना अधेर ! खैर हम देगे । पूरी मिटाई और एक घडा जल लेकर चारो ऐयार वहा से चले मगर यह खबर किसी को भी न थी कि कुछ दूर पीछे दो आदमी साथ लिए छिपता हुआ हलवाई भी ग्रा रहा है । मैदान में एक बड़े पत्थर की चट्टान पर वैट चारो ने भोजन किया जल पिया और हाथ में है वो निश्चिन्त हो धीरे धीरे अ पुस में बातचीत करने लगे । आधा घण्टा भी न बीता होगा कि चारों बेहोश होकर चट्टान पर लेट गए और दोनों श्रादमियों का साथ लिए हलवाई दनकी खोपटी पर था मौजूद हुआ। | हुलचाई के साथ आए हुए दो श्रादमियों ने बद्रीनाथ ज्योतिपीजी शौर पन्नालाल की मुश्के कस टाली शोर कुछ सुधा भैरामिह को हाश में लाकर बोले, “वाह जी अजायबसिंह, श्रापकी चालाकी तो खूत्र काम कृर गर्ट 1 अत्र तो शिवदत्तगढ़ में आये हुए पाचो नालायक हमारे हाथ फस । महाराज से सच से ज्याद इनाम पान का काम तो श्राप ही न किय!" छठवां वयान बरन मी तली उठा कर महाराज मुरेन्द्रसिंह और बीरेन्द्रसिंह तथा इन् । बदलत चन्द्रकान्ता चपला चम्पा तेजसिंह ौर देवीसिह वगैरह ३ थे; दिन र मुगु र मगर अ५ व जमाना न रह 1 सच है सुख दु प र पहरा अविर बदलता रहता है। खुशी के दिन बात [ ३२ ]________________

पहिला हिस्सा की बात में निकल गए कुछ मालूम न पा थीं तक कि मुझे भी कोई बात उन लोगों की लिखने लायक न मिली लेकिन अब उन लोगों की मुमावत के, प्र काटे नहीं करते। | कौन जानना था कि गया जिरा शिवदत्त फिर बुला की तरह निकल आवेग १ किले खबर थी कि बेचार चन्द्र कान्ता की गौद से पले पाए दोनों होनहार ल* यो अल कर दिये जाए गे ? कौन साफ कह सकता था कि इन लो की वैशावली र राप्य में जितनी तरक्की होगी यकायक उतनी ही यादे श्राफत भी आ पड़ेगी ? खैर खुशी के दिन तो उन्होने काटे, अब मुनावत का घडी कौन झेन १ हाँ बेचारे जगन्नाथ ज्योतिया ने इतना अन्र कह दिया था कि वीरेन्द्रसिंह के राज्य शोर वश की बहुत कुछ वर होते. मगर मुसीबत को लिए हुए । खैर श्रागे जो कुछ होगा देखा जायगा पर इस समय ते सत्र के सब तर दुद में पड़े हैं । देखिए अपन एकान्त के कमरे म महाराजा सुरेन्द्र सिंह कैसा चिन्ता में बैठे हैं और वाई' तरफ गद्दी का कान ए राजा वीरेन्द्रसिंह अपने मामने बैठे हुए जीतहि की सूरत किस नेचैन। स देख रहे हैं। दोनो नाप बा अर्थ तु देवसिंह और तारासिंह अपने पास ऊपर के दर्ज पर बेठे हुए बुजुग और गुरू के समान जीतसिंह की तरफ कुरै हुए इस उम्र में बैठे हैं कि देले अब आखिरी हुक्म क्या होता हैं । (1वाय इन लोगों के इस कमरे में और कोई भी नहीं है, एक दम सन्नाटा छाया हुआ है । न मालूम इसके पहिले क्या क्या बातें हो चुकी है मगर इस वक्त ती महाराजा सुरेन्द्रसिंह ने इस सन्नाटे की सिर्फ इतना ही कह के तांदा, *बर चम्पा और चपला की भी दति मान लेनी चाहिए । जं.त० | जो मजी, मगर देवास के लिए क्या हुक्म होता है ? सुरेन्द्र० । और तो कुछ नहीं सिर्फ इतना ही ख्याल है कि चुनार की हिफाजत ऐसे वक्त है क्यों कर होगी १ जीत० । मैं समझता हूं कि यह की हिफाजत के लिए तारा बहुत है। और फिर वक्त पड़ने पर इस बुढौती में भी में कुछ कर गुजरूर । [ ३३ ]________________

चन्द्रकान्ता सन्तति सुरेन्द्र० । कुल मुस्कुरा कर और उम्मीद भरी निगाहों से जीतसिंह की तरफ दे कर ) वैर, जो मुनासिब ममीको ।। जीत० } ( देव मिह से ) लीजिए साहवे, असे आपको भी पुरानी कसर निकालने का मौका दिया जाता है, देखें आप क्या करते हैं ! ईश्वर इस मुस्तेदो को पूरा करें ।। | इतना सुनते ही देवीसिंह उठ खड़े हुए और सलाम कर कमरे के बाहर चले गए। सातवां बयान अपने माई इन्द्रजीतसिंह की जुदाई से व्याकुल हो उसी समय आनन्द सिंह उम जगल के बाहर हुए और मैदान में खड़े हो इधर उधर निगाह दौड़ाने लगे । पश्चिम तरफ दो औरतें घोड पर सवार धीरे धीरे जाती हुई दिखाई पड़ा । ये तेजी के साथ उस तरफ बढे और उन दोनों के पास पहुँचने की उम्मीद में दो कोस तक पीछा किए चले गए मगर उम्मीद पूरी न हुई क्योंकि एक पहाड़ी के नीचे पहुंच कर चे दोनों रुकी और अपने पीछे अाते हुए अनन्दसिंह की तरफ देख घोड़े को एक दम तेज कर पाटी के बगल में घूमती हुई गायब हो गई है। तू खिली हुई चाँदनी रात होने के समय से आनन्दर्भिह को ये दोनों रिते दिखाई पदी र उन्होंने इतनी हिम्मत भी की, पर पहाटी के पास पहुचते ही उन दोनों के भाग जाने से इनको वा ही रञ्च हुश्रा । खड़े हो कर मोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए । इनकी हैरान शौर सोचते हुए चोट कर निर्दयी चन्द्रमा ने भी धीरे धीरे अपने घर का रास्ता लिया और अपने दुश्मन को जाते देत मौका पाकर अन्धेरे ने चारो तरफ दुमत 'जमाई । शानन्दसि श्रीर भी दुरजी ए ! क्या करें ? कहाँ जाप ? किमले पूलें कि इन्द्रजीत िको कौन ले गया ? दूर से एक रोशनी दिखाई पड़ी। गौर करने से मालूम हुआ कि किसी [ ३४ ]________________

३५, पहिला हिस्सा झ ! के आगे आग जल रही है। नन्दसिह उभी तरफ चले और थोडी ही देर में कुटी के पास पहुँच कर देखा कि पते की बनाई हुई हरी झोपी के आगे आठ से आदमी जर्मन पर फर्श त्रिछाये बेटे है जो कि दाढी र पहिरावे से साफ मुसलमान मालूम पड़ते हैं 1 बीच में दो मोमी शमदिन जल रहे हैं । एक आदमी फारसी के शेर पढ़ पढ़ कर मुना रहा है और बाकी सब ‘वाह वाह की धुन ला रहे है । एक तरफ अग जल रही शौर दो तीन आदमी कुछ खाने की चीजें पका रहे हैं । आनन्दसिंह फर्श के पास जाकर खड़े हो गए। अानन्दसिंह को देखते ही सब के सब उठ खड़े हुए और बड़ी इज्जत से उनको फर्श पर बैठाया । उस आदमी ने जो फारम की शेरै पढ़ पढ़ कर सुना रह था खड़े हो कर अपनी रगीली भाषा में कही, खुदा का शुक्र है कि शारदये चुनार ने इस मजलिस में पहुँच कर हम लोर की इज्जत क्रो फल्केहफ्तुम * तक पहुँचाया । इस जगल बयावान में हम लोग क्या खातिर कर सकते हैं सिवाय इसके कि इनके कदमों को अपनी अखिों पर जगह दें और इत्र व इलायची पेशकश करे !” केवल इतना ही कह कर इत्रदान और इलायची की दिव्यी उनके मागे ले गया । पढे लिखे भले आदमियों की खातिर जरूरी सम कर मानन्दसिंह ने इत्र सा और दो इलायची ले लिया, इसके बाद इनसे इजाजत ले कर वह फिर पारसी कविता पढ़ने लगा ! दूसरे आदमियों ने दो एक तकिए इनके अलग बगल में रख दिए । | इत्र की विचित्र खुशबू ने इनको मस्त कर दिया, इनकी पलकें भारी हो गई थौर बेहोशी ने धीरे धीरे अपना असर जमा कर इनको फर्श पर सुला दिया । दूसरे दिन दोपहर को आँख टलने पर इन्हें ने अपने को

  • मुसलमानों के किताब में गत र आसमान के लिखे हैं, सत्र के ऊपर वाले दर्जे का नाम फल्नेहफ्तुम है । [ ३५ ]________________

चन्द्रकान्ता सन्तति एक दूसरे ही मकान में मसहरी पर पड़े हुए पाया। धवडा कर उठ वैट और इधर उधर देखने लगे । | पाच कममिन और खूपसूरत औरतें सामने खड़ी हुई दिखाई दी जिनमें से एक मदारी की तरह पर कुछ आगे बढ़ः हुई थी । उनके हुस्न ग्रौर अदा को देख ग्रानन्दसिंह दग हो गये । उसकी बडी बडी अखि शौर बाझी चितवन ने इन्हें प्रापे से बाहर कर दिया, उसको जरा सी इसी ने इनके दिल पर बिजली गिराई, और आगे बढ़ हाथ जोड़े इस कहने ने ती शोर भो भितम ढाया कि-क्या श्राप मुझसे खफा है ? अनिन्दसिंह भाई ३ जुदाई, रात की बात, ऐयारो के धोखे में पड़ना, सूत्र कुछ बिल्कुल भूल गए और उसकी मुहब्बत में चूर हो बोले"तुम्हारा सी परीजमाल से और रज !! | वह शौरत पल पर बैठ गई और आनन्दसिंह के गले में हाथ डाल के बोली, “बुदा को कमम खा कर कद्दती हूँ कि साल भर से आपके इश्क ने मुझे बेकार कर दिया ! मिवाय अापके ध्यान के स्वाने पीने की विल्कुल सुध न रही, मगर मौका न मिलने से लाचार या !' ग्रानन्द० ! ( चाक कर ) हैं ! क्या तुम मुसलमान हौ जो खुद को कसम खाती है ? ग़ौरत० } ( हम कर ) हा, क्या मुसलमान बुरे होते हैं ? ग्रानन्दसिंह य" कह कर उठ खड़े हुए---*अफमोम | अगर तुम मुसलमान न होता तो में तुम्हें जी जान में प्यार करता, मगर एक अंग्त ३ निए अपना मन नही गाड मफ्ता ??? ग्रीन ! ( हाथ थाम कर ) ३ । वेमुरी उनी मत करी । म मच को 7 प तु हारा जुदाई मुझमे न मह जायेग, ! अन द भ न मचे हना है कि मुझसे किस तरह के उम्मीद न ३ ] । *प्रश्न० । ( भा मिकी केर ) या यह बात दिल से कहते हो ? [ ३६ ]________________

39 पहिला हिस्सा अानन्द० । हाँ, बल्कि कसम खा कर ! श्रीरत० | देखो पछताओगे शीर मुझ सी चाहने वाली कभी न पाओगे ! ग्रानन्द० 1 ( अपना हाथ छुड़ा कर ) लानत है ऐसी चाह पर } औरत० । तो क्या तुम यहाँ से चले जाओगे ? अनिन्द० } जरूर ! औरत० } मुमकिन नहीं ।। आनन्द० | क्या मजाले कि तुम मुझे रोको ! श्रीरत० } ऐमा खयाल भी न करना ।

  • देखें मुझे केन रोकता है !" कह कर नन्दसिंह उसे कमरे | के बाहर हुए श्रीर उसी कमरे को एक खिडकी जो दोबार में लगी हुई यी रोल ३ श्रीरते वहाँ से निकल गई ।।

अानन्दसिंह इस उम्मीद में चारों तरफ घूमने लगे कि कहीं रास्ता | मिले तो बाहर हो जायं मगर उनकी उम्मीद किसी तरह पूरी नहीं हुई ।। यः मकान बहुत लम्बा चौडा न था । सिवाय इस कमरे और एक | सरन के और कोई जगह इसमें न थी ! चारो तरफ ऊ ची ऊंची दीवारों के सिवाय बाहर जाने के लिए कहीं कोई दुर्वाजा न था | हर तरह से | लाचार और दुःरी हो फिर उसी पत्नग पर श्री लेटे और सोचने लगे-- । “अब म्या करना चाहिए ? इस कम्बख्त से किस तरह जान बचे ? यह तो हो ही नहीं सकता कि में इसे चाहूं या प्यार करें ! राम रमि, मुसलमानिन से और इश्क ! यह तो सपने में भी नहीं होने का । | तब फिर क्या करू ? लाचारी है, जब किसी तरह छुट्टी न देखें या तो | इसी खञ्जर से जो मेरी कमर में हैं अपनी जान दे देंगी । कमर से खञ्जर निकालना चाहा, देखा तो कृमर खाली है । फिर सोचने लगे--- | गजब गया। इस हरामजादी ने तो मुझे किसी लायक न रक्खा। | अगर कोई दुश्मन आ जाय तो में क्या कर सकूगा । वेश्या अगर मैरे