चन्द्रकांता सन्तति २/५.११
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इस जगह मुख्तसिर ही में यह भी लिख देना मुनासिब मालूम होता है कि रोहतासगढ़ तहखाने में से राजा वीरेन्द्रसिंह, कुँअर आनन्दसिंह और उनके ऐयार लोग क्यों कर छूटे और कहाँ गए।
हम ऊपर लिख आए हैं कि जिस समय गौहर 'जोगिया' का संकेत देकर रोहतासगढ़ किले में दाखिल हुई उसके थोड़ी ही देर बाद एक लम्बे कद का आदमी भी, जो असल में भूतनाथ था, 'जोगिया' का संकेत देकर किले के अन्दर चला गया। न मालूम उसने वहाँ क्या-क्या कार्रवाई की, मगर जिस समय मैगजीन उड़ाई गई थी, उस समय वह एक चोबदार की सूरत बना राजमहल के आस-पास घूम रहा था। जब राजा दिग्विजयसिंह घबरा कर महल के बाहर निकला था और चारों तरफ कोलाहल मचा हुआ था, वह इस तरह महल के अन्दर घुस गया कि किसी को गुमान भी न हुआ। इसके पास ठीक वैसी ही ताली मौजूद थी जैसी तहखाने की ताली राजा दिग्विजयसिंह के पास थी। भूतनाथ जल्दी-जल्दी उस घर में पहुँचा जिसमें तहखाने के अन्दर जाने का रास्ता था। उसने तुरन्त दरवाजा खोला और अन्दर जाकर उसी ताली से फिर बन्द कर दिया। उस दरवाजे में एक ही ताली बाहर-भीतर दोनों तरफ से लगती थी। कई दरवाजों को खोलता हुआ वह उस दालान में पहुँचा जिसमें वीरेन्द्रसिंह वगैरह कैद थे और राजा वीरेन्द्रसिंह के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। राजा वीरेन्द्रसिंह उस समय बड़ी चिन्ता में थे। मैगजीन उड़ने की आवाज उनके कान तक भी पहुँची थी, बल्कि मालूम रहे कि उस आवाज के सदमे से समूचा तहखाना हिल गया। वे भी यही सोच रहे थे कि शायद हमारे ऐयार लोग किले के अन्दर पहुँच गए। जिस समय भूतनाथ हाथ जोड़ कर उनके सामने जा खड़ा हुआ, वे चौंके और भुतनाथ की तरफ देखकर बोले "तू कौन है और यहाँ क्यों आया?" भूतनाथ––यद्यपि मैं इस समय एक चोबदार की सूरत में हूँ, मगर मैं हूँ कोई दूसरा ही, मेरा नाम भूतनाथ है मैं आप लोगों को इस कैद से छुड़ाने आया हूँ और इसका इनाम पहले ही ले लिया चाहता हूँ।
वीरेन्द्रसिंह––(ताज्जुब में आकर) इस समय मेरे पास क्या है जो मैं इनाम में दूँ?
भूतनाथ––जो मैं चाहता हूँ वह इस समय भी आपके पास मौजूद है।
वीरेन्द्रसिंह––यदि मेरे पास मौजूद है तो मैं उसे देने को तैयार हूँ। माँग, क्या माँगता है?
भूतनाथ––बस, मैं यही माँगता हूँ कि आप मेरा कसूर माफ कर दें! और कुछ नहीं चाहता।
वीरेन्द्रसिंह––मगर मैं कुछ नहीं जानता कि तू कौन है और तूने क्या अपराध किया है जिसे मैं माफ कर दूँ।
भूतनाथ––इसका जवाब मैं इस समय नहीं दे सकता। बस, आप देर न करें, मेरा कसूर माफ कर दें जिससे आप लोगों को यहाँ से जल्द छुड़ाऊँ। समय बहुत कम है, बिलम्ब करने से पछताना पड़ेगा।
तेजसिंह––पहले तुम्हें कसूर साफ-साफ कह देना चाहिए।
भूतनाथ––ऐसा नहीं हो सकता!
भूतनाथ की बातें सुनकर सभी हैरान थे और सोचते थे कि यह विचित्र आदमी है जौ जबर्दस्ती अपना कसूर माफ करा रहा है और यह भी नहीं कहता कि उसने क्या किया है। इसमें शक नहीं कि यदि हम लोगों को यहाँ से छुड़ा देगा तो भारी अहसान करेगा, मगर इसके बदले में यह केवल इतना ही माँगता है कि इसका कसूर माफ कर दिया जाय। तो यह मामला क्या है! आखिर बहुत-कुछ सोच-समझकर राजा वीरेन्द्रसिंह ने भूतनाथ से कहा, "खैर जो हो, मैंने तेरा कसूर माफ किया।"
इतना सुनते ही भूतनाथ हँसा और बारह नम्बर की कोठरी के पास जाकर उसी ताली से, जो उसके पास थी, कोठरी का दरवाजा खोला। पाठक महाशय भूले न होंगे, उन्हें याद होगा कि इसी कोठरी किशोरी को दिग्विजयसिंह ने डाल दिया था और इसी कोठरी में से उसे कुन्दन ले भागी थी।
कोठरी का दरवाजा खुलते ही हाथ में नेजा लिए वही राक्षसी दिखाई पड़ी जिसका हाल ऊपर लिख चुके हैं और जिसके सबब से कमला, भैरोंसिंह, रामनारायण और चुन्नीलाल किले के अन्दर पहुँचे थे। इस समय तहखाने में केवल एक चिराग जल रहा था जिसकी कुछ रोशनी चारों तरफ फैली हुई थी। मगर जब वह राक्षसी कोठरी के बाहर निकली तो उसके नेजे की चमक से तहखाने में दिन की तरह उजाला हो गया। भयानक सूरत के साथ उसके नेजे ने सभी को ताज्जुब में डाल दिया। उस औरत ने भूतनाथ से पूछा, "तुम्हारा काम हो गया?" इसके जवाब में भूतनाथ ने से कहा––"हाँ!"
उस राक्षसी ने राजा वीरेन्द्रसिंह की तरफ देखकर कहा, "सभी को लेकर आप इस कोठरी में आवें और तहखाने के बाहर निकल चलें, मैं इसी राह से आप लोगों
च॰ स॰-2-3
सभी की हथकड़ी-बेड़ी खोल दी गई। इसके बाद सब कोई उस कोठरी में घुसे और उस राक्षसी की मदद से तहखाने के बाहर हो गये। जाते समय राक्षसी ने उस कोठरी को बन्द कर दिया। बाहर होते ही राक्षसी और भूतनाथ राजा वीरेन्द्रसिंह वगैरह से बिना कुछ कहे चले गए और जंगल में घुसकर देखते-ही-देखते नजरों से गायब हो गए। उन दोनों के बारे में सभी को शक बना ही रहा।