चन्द्रकांता सन्तति २/५.५

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चंद्रकांता संतति भाग 2  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

[ ३२ ]

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अब हम फिर रोहतासगढ़ की तरफ मुड़ते हैं और वहाँ राजा वीरेन्द्रसिंह के ऊपर जो-जो आफतें आईं, उन्हें लिखकर इस किस्से के बहुत से भेद, जो अभी तक छिपे पड़े हैं, खोलते हैं। हम ऊपर लिख आये हैं कि रोहतासगढ़ फतह करने के बाद राजा वीरेन्द्रसिंह वगैरह उसी किले में जाकर मेहमान हुए। वहीं एक छोटी-सी कमेटी की गई तथा उसी समय कुँअर इन्द्रजीतसिंह का पता लगाने और उन्हें ले आने के लिए शेरसिंह और देवीसिंह रवाना किए गए।

उन दोनों के चले जाने के बाद यह राय ठहरी कि यहाँ का हाल-चाल और रोहतासगढ़ के फतह होने का समाचार महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास चुनारगढ़ भेजना चाहिए। यद्यपि यह खबर उन्हें पहुँच गई होगी, तथापि किसी ऐयार को वहाँ भेजना मुनासिब है और इस काम के लिए भैरोंसिंह चुने गए। राजा वीरेन्द्रसिंह ने अपने हाथ से पिता को पत्र लिखा और भैरोंसिंह को तलब करके चुनारगढ़ जाने के लिए कहा।

भैरोंसिंह––मैं चुनारगढ़ जाने के लिए तो तैयार हूँ परन्तु दो बातों की हविस जी में रह जायेगी।

वीरेन्द्रसिंह––वह क्या?

भैरोंसिंह––एक तो फतह की खुशी का इनाम बँटने के समय मैं नहीं रहूँगा, इसका...

वीरेन्द्रसिंह––यह हविस तो अभी पूरी हो जायेगी, दूसरी क्या है?

तेजसिंह––यह लड़का बहुत ही लालची है। यह नहीं सोचता कि यदि मैं न रहूँगा तो मेरे बदले का इनाम मेरे पिता तो पावेंगे!

भैरोंसिंह––(हाथ जोड़ कर और तेजसिंह की तरफ देखकर) यह उम्मीद तो है ही, परन्तु इस समय मैं आपसे भी कुछ इनाम लिया चाहता हूँ।

वीरेन्द्रसिंह––अवश्य ऐसा होना चाहिए, क्योंकि तुम्हारे लिए हम और ये एक समान हैं।

तेजसिंह––आप और भी शह दीजिए जिसमें यदि और कुछ न मिल सके तो मेरा ऐयारी का बटुआ ही ले ले।

भैरोंसिंह––मेरे लिए वही बहुत है। [ ३३ ]वीरेन्द्रसिंह––दो। अब सस्ते में छूटते हो, बटुआ देने में उज्र न करो।

तेजसिंह––जब आप ही इसकी मदद पर हैं तो लाचार होकर देना ही पड़ेगा।

राजा वीरेन्द्र सिंह ने अपना खास सन्दूक मँगाया और उसमें से एक जड़ाऊ डिब्बा, जिसके अन्दर न मालूम क्या चीज थी, निकाले बिना खोले भैरोंसिंह को दे दिया। भैरोंसिंह ने इनाम पाकर सलाम किया और अपने पिता तेजसिंह की तरफ देखा। उन्हें भी लाचार होकर ऐयारी का बटुआ, जिसे वे हरदम अपने पास रखते थे, भैरोंसिंह के हवाले करना ही पड़ा।

राजा वीरेन्द्रसिंह ने भैरोंसिंह से कहा, "इनाम तो तुम पा चुके। अब बताओ, तुम्हारी दूसरी हविस क्या है जो पूरी की जाये?"

भैरोंसिंह––मेरे जाने के बाद आप यहाँ के तहखाने की सैर करेंगे। अफसोस यही है कि इसका आनन्द मुझे कुछ भी न मिलेगा।

वीरेन्द्रसिंह––खैर, इसके लिए भी हम वादा करते हैं कि जब तुम चुनारगढ़ से लौट आओगे, तब यहाँ के तहखाने की सैर करेंगे, मगर जहाँ तक हो सके, तुम जल्द लौटना।

भैरोंसिंह सलाम करके बिदा हुए, मगर दो ही चार कदम आगे बढ़े थे कि तेजसिंह ने पुकारा और कहा, "सुनो-सुनो! बटुए में से एक चीज मुझे ले लेने दो, क्योंकि वह मेरे ही काम की है।"

भैरोंसिंह––(लौटकर और बटुआ तेजसिंह के सामने रखकर) बस, अब मैं यह बटुआ न लूँगा। जिसके लोभ से मैंने बटुआ लिया, जब वही आप निकाल लेंगे तो इसमें रही क्या जायेगा?

वीरेन्द्रसिंह––नहीं जी, ले जाओ, अब तेजसिंह उसमें से कोई चीज न निकालने पायेंगे। जो चीज यह निकालना चाहते हैं तुम भी उस चीज को रखने योग्य पात्र हो!

भैरोंसिंह ने खुश होकर बटुआ उठा लिया और सलाम करने के बाद तेजी के साथ वहाँ से रवाना हो गये।

पाठक तो समझ ही गए होंगे कि इस बटुए में कौन-सी ऐसी चीज थी जिसके लिए इतनी खिंचा-खिंची हुई! खैर, शक मिटाने के लिए हम उस भेद को खोल ही देना मुनासिब समझते हैं। इस बटुए में वे ही तिलिस्मी फूल थे जो चुनारगढ़ के इलाके में तिलिस्म के अन्दर से तेजसिंह के हाथ लगे थे और जिन्हें किसी प्राचीन वैद्य ने बड़ी मेहनत से तैयार किया था।

अब हम भैरोंसिंह के चले जाने के बाद तीसरे दिन का हाल लिखते हैं। दिग्विजयसिंह अपने कमरे में मसहरी पर लेटा-लेटा न मालूम क्या-क्या सोच रहा है। रात आधी से ज्यादा जा चुकी है मगर अभी तक उसकी आँखों में नींद नहीं है, दरवाजे की तरफ मुँह किए हुए मालूम होता है कि वह किसी के आने की राह देख रहा है क्योंकि किसी तरह की जरा-सी भी आहट आने पर चौंक जाता है और चैतन्य होकर दरवाजे की तरफ देखने लगता है। यकायक चौखट के अन्दर पैर रखते हुए एक वृद्ध बाबाजी की सूरत दिखाई पड़ी। उनकी अवस्था अस्सी वर्ष से ज्यादा होगी, नाभि तक लम्बी दाढ़ी [ ३४ ]और सिर के फैले हुए बाल रूई की तरह सफेद हो रहे थे! कमर में केवल एक कौपीन पहने और शेर की खाल ओढ़े वे कमरे के अन्दर आ पहुँचे। उन्हें देखते ही राजा दिग्विजयसिंह उठ खड़े हुए और मुस्कुराते हुए दण्डवत करके बोले, "आज बहुत दिनों के बाद दर्शन हुए हैं, समय टल जाने पर सोचता था कि शायद आज आना न हो!"

बाबाजी ने आशीर्वाद देकर कहा––"राह में एक आदमी से मुलाकात हो गई, इसी से विलम्ब हुआ।"

इस समय कमरे में एक सिंहासन मौजूद था। दिग्विजयसिंह ने उसी सिंहासन पर साधु को बिठाया और स्वयं नीचे फर्श पर बैठ गया। इसके बाद यों बातचीत होने लगी––

साधु––कहो, क्या निश्चय किया?

दिग्विजयसिंह––(हाथ जोड़ कर) किस विषय में?

साधु––यहाँ, वीरेन्द्रसिंह के विषय में।

दिग्विजयसिंह––सिवाय ताबेदारी कबूल करने के और कर ही क्या सकता हूँ?

साधु––सुना है, तुम उन्हें तहखाने की सैर कराना चाहते हो? क्या यह बात सच है?

दिग्विजयसिंह––मैं उन्हें रोक ही कैसे सकता हूँ?

साधु––ऐसा कभी नहीं होना चाहिए। तुम्हें मेरी बातों का कुछ विश्वास है कि नहीं?

दिग्विजयसिंह––विश्वास क्यों न होगा? आपको मैं गुरु के समान मानता हूँ और आज तक जो कुछ मैंने किया, आप ही की सलाह से किया।

साधु––केवल यही आखिरी काम बिना मुझसे राय लिये किया सो उसमें यहाँ तक धोखा खाया कि राज्य से हाथ धो बैठे!

दिग्विजयसिंह––बेशक ऐसा ही हुआ। खैर, अब जो आज्ञा हो, किया जाये।

साधु––मैं नहीं चाहता कि तुम वीरेन्द्रसिंह के ताबेदार बनो। इस समय वे तुम्हारे कब्जे में हैं और तुम उन्हें हर तरह से कैद कर सकते हो।

दिग्विजयसिंह––(कुछ सोच कर) जैसी आज्ञा! परन्तु मेरा लड़का अभी तक उनके कब्जे में है।

साधु––उसे यहाँ लाने के लिए वीरेन्द्रसिंह का आदमी जा ही चुका है, वीरेन्द्र सिंह वगैरह के गिरफ्तार होने की खबर जब तक चुनार पहुँचेगी उसके पहले ही कुमार वहाँ से रवाना हो जायगा। फिर वह उन लोगों के कब्जे में नही फँस सकता, उसको ले आना मेरा जिम्मा।

दिग्विजयसिंह––हरएक बात का विचार कर लीजिए। मैं आपकी अज्ञानुसार चलने को तैयार हूँ।

इसके बाद घण्टे भर तक साधु महाराज और राजा दिग्विजयसिंह में बातें होती रहीं जिन्हें यहाँ लिखने की कोई आवश्यकता नहीं है। पहर रात रहे बाबाजी वहाँ से बिदा हुए। [ ३५ ]उसके दूसरे ही दिन राजा वीरेन्द्रसिंह को खबर मिली कि लाली का पता नहीं लगता। न मालूम वह किस तरह कैद से निकल कर भाग गई। उसका पता लगाने के लिए कई जासूस चारों तरफ रवाना किये गये।

अब महाराज दिग्विजयसिंह की नीयत खराब हो गई और वे इस बात पर उतारू हो गए कि राजा वीरेन्द्रसिंह, उनके लड़के और दोस्तों को गिरफ्तार कर लेन चाहिए, खाली गिरफ्तार नहीं, मार डालना चाहिए।

राजा वीरेन्द्रसिंह तहखाने में जाकर वहाँ का हाल देखना और जानना चाहते थे मगर दिग्विजयसिंह हीले-हवाले में दिन काटने लगा। आखिर यह निश्चय हुआ कि कल तहखाने में अवश्य चलना चाहिए। उसी दिन रात को दिग्विजयसिंह ने राजा वीरेन्द्रसिंह की फिर ज्याफत की और खाने की चीजों में बेहोशी की दवा मिलाने का हुक्म अपने ऐयार रामानन्द को दिया। बेचारे राजा वीरेन्द्रसिंह इन बातों से बिल्कुल बेखबर थे और उनके ऐयारों को भी ऐसी उम्मीद न थी, आखिर नतीजा यह हुआ कि रात को भोजन करने के बाद सभी पर दवा ने असर किया। उस समय तेजसिंह चौंके और समझ गये कि दिग्विजयसिंह ने दगा की, मगर अब क्या हो सकता था? थोड़ी देर बाद राजा वीरेन्द्रसिंह, कुँअर आनन्दसिंह, तेजसिंह, पण्डित बद्रीनाथ, ज्योतिषीजी और तारासिंह वगैरह बेहोश होकर जमीन पर लेट गये और बात-की-बात में हथकड़ियों और बेड़ियों से बेबस कर उसी तिलिस्मी तहखाने में कैद कर दिए गये। उस तहखाने से बाहर निकलने के लिए जो दो रास्ते थे, उनका हाल पाठक जान ही गये हैं क्योंकि ऊपर उसका बहुत-कुछ हाल लिखा जा चुका है। उन दोनों रास्तों में से एक रास्ता, जिससे हमारे ऐयार लोग और कुँअर आनन्दसिंह गये थे, बखूबी बन्द कर दिया गया। मगर दूसरा रास्ता, जिधर से कुन्दन (धनपति) किशोरी को लेकर निकल गई थी, ज्यों का त्यों रहा क्योंकि उसकी खबर राजा दिग्विजयसिंह को न थी। उस रास्ते का हाल वह कुछ भी न जानता था।

राजा वीरेन्द्रसिंह, उनके लड़के और साथी लोग जब कैदखाने में भेज दिये, उस समय राजा वीरेन्द्रसिंह के थोड़े से फौजी आदमी, जो उनके साथ किले में आ चुके थे, यह दगाबाजी देखकर जान देने के लिए तैयार हो गये। उन्होंने राजा दिग्विजयसिंह के बहुत से आदमियों को मार दिया और जब तक जीते रहे, मालिक के नमक का ध्यान उनके दिल में बना रहा। पर आखिर कहाँ तक लड़ सकते थे! अन्त में सब-के-सब बहादुरी के साथ लड़कर वैकुण्ठ चले गये। राजा दिग्विजयसिंह ने किले का फाटक बन्द करवा दिया, सफीलों पर तोपें चढ़वा दीं और राजा वीरेन्द्रसिंह के लश्कर से, जो पहाड़ के नीचे था, लड़ाई करने का हुक्म दे दिया। राजा वीरेन्द्रसिंह के लश्कर में दो सरदार मौजूद थे जो अभी तक रोहतासगढ़ में नहीं आये थे, एक नाहरसिंह और दूसरे फतहसिंह, ये दोनों सेनापति थे।

पाटक, देखिए, जमाने ने कैसा पलटा खाया! किशोरी की धुन में कुँअर इन्द्रजीतसिंह अपने दो ऐयारों के साथ ऐसी जगह जा फँसे कि उनका पता लगना भी मुश्किल है, इधर राजा वीरेन्द्रसिंह वगैरह की यह दशा हुई, अगर भैरोसिंह चिट्ठी लेकर चुनार [ ३६ ]न भेज दिये गये होते, तो वह भी फँस जाते। आप भूले न होंगे कि रामनारायण और चुन्नीलाल चुनारगढ़ में है और पन्नालाल को राजा वीरेन्द्रसिंह गयाजी में छोड़ आये हैं, राजगृह भी उन्हीं के सुपुर्द है, वे किसी तरह वहाँ से टल नहीं सकते, क्योंकि वह शहर नया फतह हुआ है और वहाँ एक सरदार का हर दम बने रहना बहुत ही मुनासिव है।

जिस समय रोहतासगढ़ किले से तोप की आवाज आयी, दोनों सेनापति बहुत घबराये और पता लगाने के लिए जासूसों को किले में भेजा। मगर उनके लौट आने पर दिग्विजयसिंह की दगाबाजी का हाल दोनों सेनापतियों को मालूम हो गया। उन्होंने उसी समय इस हाल की चिट्ठी लिख सवार के हाथ चुनारगढ़ रवाना की, और इसके बाद सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए।