चन्द्रकांता सन्तति २/५.६
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आज बहुत दिनों के बाद हम कमला को आधी रात के समय रोहतासगढ़ पहाड़ी के ऊपर पूरब तरफ वाले जंगल में घूमते देख रहे हैं। यहाँ से किले की दीवार बहुत दूर और ऊँचे पर है। कमला न मालूम किस फिक्र में है या क्या ढूँढ़ रही है। यद्यपि रात चाँदनी थी परन्तु ऊँचे-ऊँचे और घने पेड़ों के कारण जंगल में एक प्रकार से अन्धकार ही था। घूमते-घूमते कमला के कानों में किसी के पैर की आहट मालूम हुई। वह रुकी और एक पेड़ की आड़ में खड़ी होकर दाहिनी तरफ देखने लगी, जिधर से आहट मिली थी। दस-पन्द्रह कदम की दूरी से दो आदमी जाते हुए दिखाई पड़े। बात और चाल से दोनों औरतें मालूम पड़ीं। कमला भी पैर दबाए और अपने को हर तरफ से छिपाये उन्हीं दोनों के पीछे-पीछे धीरे-धीरे रवाना हुई। लगभग आध कोस जाने के बाद ऐसी जगह पहुँची जहाँ पेड़ बहुत कम थे बल्कि उसे एक प्रकार से मैदान ही कहना चाहिए। थोड़ी-थोड़ी दूर पर पत्थर के बड़े-बड़े अनगढ़ ढोंके पड़े हुए थे जिनकी आड़ में कई आदमी छिप सकते थे। सघन पेड़ों की आड़ में से निकल कर मैदान में कई कदम जाने के बाद वे दोनों अपने ऊपर से स्याह चादर उतार कर एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गई। कमला ने भी अपने को बड़ी चालाकी से उन दोनों के करीब पहुँचाया और एक पत्थर की आड़ में छिपकर उन दोनों की बातचीत सुनना चाहा। चन्द्रमा अपनी पूर्ण किरणों से उदय हो रहे थे और निर्मल चाँदनी इस समय अपना पूरा जोबन दिखा रही थी। हर एक चीज अच्छी तरह और साफ नजर आती थी। जब वे दोनों औरतें चादर उतार कर पत्थर की चट्टान पर बैठ गईं, तब कमला ने उनकी सूरत देखी। बेशक वे दोनों नौजवान औरतें थीं जिनमें से एक तो बहुत ही हसीन थी और दूसरी के विषय में कह सकते हैं कि शायद उसकी लौंडी या ऐयारा हो।
कमला बड़े गौर में उन दोनों औरतों की तरफ देख रही थी कि इतने ही में सामने से एक लम्बे कद का आदमी आता हुआ दिखाई पड़ा जिसे देख कमला चौंकी और उस समय तो कमला का कलेजा बेहिसाब धड़कने लगा जब वह आदमी उन दोनों औरतों के पास आकर खड़ा हो गया और उनसे डपट कर बोला, "तुम दोनों कौन हो?" उस आदमी का चेहरा चन्द्रमा के सामने था, विमल चाँदनी उसके नक्शे को अच्छी तरह दिखा रही थी, इसीलिए कमला ने उसे तुरन्त पहचान लिया और उसे विश्वास हो गया कि वह लम्बे कद का आदमी वही है जो खँडहर वाले तहखाने के अन्दर शेरसिंह से मिलने गया था और जिसे देख उनकी अजब हालत हो गई थी तथा जिद करने पर भी उन्होंने न बताया कि यह आदमी कौन है।
कमला ने अपने धड़कते हुए कलेजे को बाएँ हाथ से दबाया और गौर से देखने लगी कि अब क्या होता है। यद्यपि कमला उन दोनों औरतों से बहुत दूर न थी और इस रात के सन्नाटे में उनकी बातचीत बखूबी सुन सकती थी, तथापि उसने अपने को बड़ी सावधानी से उस तरफ लगाया और सुनना चाहा कि दोनों औरतों और लम्बे व्यक्ति में क्या बातचीत होती है।
उस आदमी के डपटते ही ये दोनों औरतें चैतन्य होकर खड़ी हो गई और उनमें से एक ने, जो सरदार मालूम होती थी, जवाब दिया––
औरत––(अपनी कमर से खंजर निकलकर) हम लोग अपना परिचय नहीं दे सकतीं और न हमें यही पूछने से मतलब है कि तुम कौन हो?
आदमी––(हँसकर) क्या तू समझती है कि मैं तुझे नहीं पहचानता? मुझे खूब मालूम है कि तेरा नाम गौहर है। मैं तेरी सात पुश्त को जानता हूँ, मगर आजमाने के लिए पूछता था कि देखू, तू अपना सच्चा हाल मुझे कहती है या नहीं! क्या कोई अपने को भूतनाथ से छिपा सकता है?
'भूतनाथ' नाम सुनते ही वह और घबरा गई, डर से बदन काँपने लगा और खंजर उसके हाथ से गिर पड़ा। उसने मुश्किल से अपने को सम्हाला और हाथ जोड़कर बोली, "बेशक मेरा नाम गौहर है, मगर..."
भूत––तू यहाँ क्यों घूम रही है? शायद इस फिक्र में है कि इस किले में पहुँच कर आनन्दसिंह से अपना बदला ले!
गौहर––(डरी हुई आवाज से) जी हाँ।
भूत––पहले भी तो तू उन्हें फँसा चुकी थी, मगर उनका ऐयार देवीसिंह उन्हें छुड़ा ले गया। हाँ, तेरी छोटी बहिन कहाँ है?
गौहर––वह तो गया की रानी माधवी के हाथ से मारी गई।
भूत––कब?
गौहर––जब वह इन्द्रजीतसिंह को फँसाने के लिए चुनारगढ़ के जंगल में गई थी तो मैं भी अपनी छोटी बहिन को साथ लेकर आनन्दसिंह की धुन में उसी जंगल में गई हुई थी। दुष्टा माधवी ने व्यर्थ ही मेरी बहिन को मार डाला। जब वह जंगल काटा गया तो वीरेन्द्रसिंह के आदमी उसकी लाश उठाकर चुनार ले गए थे, मगर (अपनी साथिन की तरफ इशारा करके) बड़ी चालाकी से यह ऐयारा उस लाश को वहाँ से उठा लाई थी[१]।
भूत––हाँ ठीक है, अच्छा तो तू इस किले में घुसना चाहती है और आनन्दसिंह की जान लिया चाहती है?
गौहर––यदि आप अप्रसन्न न हों तो।
भूत––मैं क्यों अप्रसन्न होने लगा? मुझे क्या गरज पड़ी है कि मना करूँ। जो तेरा जी चाहे वह कर। अच्छा, मैं जाता हूँ लेकिन एक दफे फिर तुझसे मिलूँगा।
वह आदमी तुरन्त चला गया और देखते-देखते नजरों से गायब हो गया। इसके बाद उन दोनों औरतों में बातचीत होने लगी।
गौहर––गिल्लन, इसकी सूरत देखते ही मेरी जान निकल गई थी। न मालूम, यह कम्बख्त इस वक्त कहाँ से आ गया।
गिल्लन––तुम्हारी तो बात ही दूसरी है, मैं ऐयारा होकर अपने को सम्हाल न सकी। देखो, अभी तक कलेजा धड़-धड़ करता है।
गौहर––मुझको तो यही डर लगा हुआ था कि कहीं यह मुझे आनन्दसिंह से बदला लेने के बारे में मना न करे।
गिल्लन––सो तो उसने न किया, मगर एक दफे मिलने के लिए कह गया है। अच्छा, अब यहाँ ठहरना मुनासिब नहीं।
वे दोनों औरतें, अर्थात् गौहर तथा गिल्लन, वहाँ से चली गईं और कमला ने भी एक तरफ का रास्ता लिया। दो घण्टे के बाद कमला उस कब्रिस्तान में पहुँची जो रोहतासगढ़ के तहखाने में आने-जाने का रास्ता था। इस समय चन्द्रमा अस्त हो चुका था। और कब्रिस्तान में भी सन्नाटा था। कमला बीच वाली कब्र के पास गई और तहखाने में जाने के लिए दरवाजा खोलने लगी, मगर खुल न सका। आधे घंटे तक वह इसी फिक्र में लगी रही, पर कोई काम न चला, लाचार उठ खड़ी हुई और कब्रिस्तान के बाहर की तरफ चली। फाटक के पास पहुँचते ही वह अटकी क्योंकि सामने की तरफ थोड़ी ही दूर पर कोई चमकती हुई चीज उसे दिखाई पड़ी जो इसी तरफ बढ़ी आ रही थी। आगे जाने पर मालूम हुआ कि यह बिजली की तरह चमकने वाली चीज एक नेजा है जो किसी औरत के हाथ में है। वह नेजा कभी-कभी तेजी के साथ चमकता है और इस सबब से दूर-दूर तक चीजें दिखाई देती हैं और कभी उसकी चमक बिल्कुल ही जाती रहती है और यह भी नहीं मालूम होता है कि नेजा या नेजे को हाथ में रखने वाली औरत कहाँ है। थोड़ी देर में वह औरत इस कब्रिस्तान के बहुत पास आ गई और नेजे की चमक ने कमला को उस औरत की सूरत-शक्ल अच्छी तरह दिखा दी। उस औरत का रंग स्याह था, सूरत डरावनी और बड़े-बड़े दो-तीन दाँत मुँह बाहर निकले हुए थे। काली साड़ी पहने हुए वह औरत पूरी राक्षसी मालूम होती थी। यद्यपि कमला ऐयारा और बहुत दिलेर थी मगर इसकी सूरत देखते ही थर-थर काँपने लगी। उसने चाहा कि कब्रिस्तान के बाहर निकलकर भाग जाय मगर वह इतना डर गई थी कि पैर न उठा सकी। देखते-ही देखते वह भयंकर मूर्ति कमला के सामने आकर खड़ी हो गयी और कमला को डर के मारे काँपते देखकर बोली, "डर मत, होश ठिकाने कर और जो कुछ मैं कहती हूँ, उसे ध्यान देकर सुन!"
- ↑ देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति, पहला भाग, चौथा बयान।