चन्द्रकांता सन्तति २/५.८

विकिस्रोत से
चंद्रकांता संतति भाग 2  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

[ ४१ ]

8

बहुत दिनों से कामिनी का हाल कुछ भी मालूम न हुआ। आज उसकी सुध लेना भी मुनासिब है। आपको याद होगा कि जब कामिनी को साथ लेकर कमला अपने चाचा शेरसिंह से मिलने के लिए उजाड़ खँडहर और तहखाने में गई थी तो वहाँ से बिदा होते [ ४२ ]समय शेरसिंह ने कमला से कहा था कि "कामिनी को मैं ले जाता हूँ। अपने एक दोस्त के यहाँ रख दूँगा, जब सब तरह का फसाद मिट जायगा तब यह भी अपनी मुराद को पहुँच जायगी।" अब हम उसी जगह से कामिनी का हाल लिखना शुरू करते हैं।

गयाजी से थोड़ी दूर पर लालगंज नाम से मशहूर एक गाँव फलगू नदी के किनारे पर ही है। उसी जगह के एक नामी जमींदार के यहाँ, जो शेरसिंह का दोस्त था, कामिनी रक्खी गई थी। वह जमींदार बहुत ही नेक और रहमदिल था तथा उसने कामिनी को बड़ी हिफाजत से अपनी लड़को के समान खातिर करके रक्खा, मगर उस जमींदार का एक नौजवान और खूबसूरत लड़का भी था जो कामिनी पर आशिक हो गया। उसके हाव-भाव और कटाक्ष को देखकर कामिनी को उसकी नीयत का हाल मालूम हो गया। वह कुँअर आनन्दसिंह के प्रेम में अच्छी तरह रँगी हुई थी इसलिए उसे इस लड़के की चाल-ढाल बहुत ही बुरी मालूम हुई। ऐसी अवस्था में उसने अपने दिल का हाल किसी से कहना मुनासिब न समझा बल्कि इरादा कर लिया कि जहाँ तक हो सके, जल्द इस मकान को छोड़ ही देना मुनासिब है और अन्त में लाचार होकर उसने ऐसा ही किया।

एक दिन मौका पाकर आधी रात के समय कामिनी उस घर से बाहर निकली और सीधे रोहतासगढ़ की तरफ रवाना हुई। इस समय वह तरह-तरह की बातें सोच रही थी। एक दफे उसके दिल में आया कि बिना कुछ सोचे-विचारे वीरेन्द्रसिंह के लश्कर में चले चलना ठीक होगा, मगर साथ ही यह भी सोचा कि यदि कोई सुनेगा तो मुझे अवश्य ही निर्लज्ज कहेगा और आनन्दसिंह की आँखों में मेरी कुछ इज्जत न रहेगी।

इसके बाद उसने सोचा कि जिस तरह हो, कमला से मुलाकात करनी चाहिए। मगर कमला से मुलाकात क्योंकर हो सकती है? न मालूम अपने काम की धुन में वह कहाँ-कहाँ घूम रही होगी? हाँ, अब याद आया, जब मैं कमला के साथ शेरसिंह से मिलने के लिए उस तहखाने में गई थी, तो शेरसिंह ने उससे कहा था कि मुझसे मिलने की जब जरूरत हो तो इसी तहखाने में आना। अब मुझे भी उसी तहखाने में चलना चाहिए, वहाँ कमला या शेरसिंह से जरूर मुलाकात होगी और वहाँ दुश्मनों के हाथ से भी निश्चिन्त रहूँगी। जब तक कमला से मुलाकात न हो वहाँ टिके रहने में भी कोई हर्ज नहीं है, वहाँ खाने के लिए जंगली फल और पीने के लिए पानी की भी कोई कमी नहीं।

इन सब बातों को सोचती हुई बेचारी कामिनी उसी तहखाने की तरफ रवाना हुई और अपने को छिपाती हुई, जंगल-ही-जंगल चल कर, तीसरे दिन पहर रात जाते-जाते वहाँ पहुँची। रास्ते में जंगली फल और चश्मे के पानी के सिवाय और कुछ उसे मिला और न उसे किसी चीज की इच्छा ही थी।

वह खँडहर कैसा था और उसके अन्दर तहखाने में जाने के लिए छिपा हुआ रास्ता किस ढंग का बना हुआ था, यह पहले लिखा जा चुका है, पुनः यहाँ लिखने की कोई आवश्यकता नहीं है। कमला या शेरसिंह से मिलने की उम्मीद में उसी खँडहर और तहखाने को कामिनी ने अपना घर बनाया और तपस्विनियों की तरह कुँअर [ ४३ ]आनन्दसिंह के नाम की माला जपती हुई दिन बिताने लगी। बहुत-सी जरूरी चीजों के अतिरिक्त ऐयारी के सामान से भरा हुआ एक बाँस का पिटारा शेरसिंह का रक्खा हुआ उस तहखाने में मौजूद था जो कामिनी के हाथ लगा। यद्यपि कामिनी कुछ ऐयारी भी जानती थी परन्तु इस समय उसे ऐयारी के सामान की विशेष जरूरत न थी, हाँ, शेरसिंह की जायदाद में से एक कुप्पी तेल कामिनी ने बेशक खर्च किया, क्योंकि चिराग जलाने की नित्य ही आवश्यकता पड़ती थी।

कमला और शेरसिंह से मिलने की उम्मीद में कामिनी ने उस तहखाने में रहना स्वीकार किया, परन्तु कई दिन बीत जाने पर भी किसी से मुलाकात न हुई। एक दिन सूरत बदलकर कामिनी तहखाने से निकली और खँडहर के बाहर ही सोचने लगी कि किधर जाये और क्या करे। एकाएक कई आदमियों की बातचीत की आवाज उसके कानों में पड़ी और मालूम हुआ कि वे लोग आपस में बातचीत करते हुए इसी खँडहर की तरफ आ रहे हैं। थोड़ी ही देर में चार आदमी भी दिखाई पड़े। उस समय कामिनी अपने को बचाने के लिए खँडहर के अन्दर घुस गई और राह देखने लगी कि वे लोग आगे बढ़ जायँ तो फिर निकलूँ, मगर ऐसा न हुआ, क्योंकि बात-की-बात में वे चारों आदमी एक लाश उठाए हुए इसी खँडहर के अन्दर आ पहुँचे।

इस खँडहर में अभी तक कई कोठरियाँ मौजूद थीं। यद्यपि उनकी अवस्था बहुत ही खराब थी, किवाड़ के पल्ले तक उनमें न थे, जगह-जगह पर कंकड़-पत्थर-कतवार के ढेर लगे हुए थे, परन्तु मसाले की मजबूती पर ध्यान दे आँधी-पानी अथवा तूफान में भी बहुत आदमी उन कोठरियों में रहकर अपनी जान की हिफाजत कर सकते थे। खँडहर के चारों तरफ की दीवार यद्यपि कहीं-कहीं से टूटी हुई थी, तथापि बहुत ही मजबूत और चौड़ी थी। कामिनी एक कोठरी में घुस गई और छिप कर देखने लगी कि वे चारों आदमी उस खँडहर में आकर क्या करते और उस लाश को कहाँ रखते हैं।

लाश उठाये हुए चारों आदमी इस खँडहर में जाकर इस तरह घूमने लगे, जैसे हरएक कोठरी, दालान बल्कि यहाँ की बित्ता-बित्ता भर जमीन उन लोगों की देखी हुई हो। चूनेपत्थर के ढेरों में घूमते और रास्ता निकालते हुए वे लोग एक कोठरी के अन्दर घुस गए जो उस खँडहर भर में सब कोठरियों से छोटी थी और दो घण्टे तक बाहर न निकले। इसके बाद जब वे लोग बाहर आये तो खाली हाथ थे अर्थात् लाश न थी, शायद उस कोठरी में गाड़ या रख आये हों।

जब वे आदमी खँडहर से बाहर ही मैदान की तरफ चले गये, बल्कि बहुत दूर निकल गये तब कामिनी भी कोठरी से बाहर निकली और चारों तरफ देखने लगी। उसे आज तक यही विश्वास था कि इस खँडहर का हाल शेरसिंह, कमला, मेरे और उसे लम्बे आदमी के सिवाय, जो शेरसिंह से मिलने के लिए यहाँ आया था, किसी पाँचवें को मालूम नहीं है। मगर आज की कैफियत देखकर उसका खयाल बदल गया और वह तरह-तरह के सोच-विचार में पड़ गई। थोड़ी देर बाद वह उसी कोठरी की तरफ बढ़ी जिसमें वे लोग लाश छोड़ गये थे मगर उस कोठरी में ऐसा अंधकार था कि अन्दर जाने का साहस न पड़ा। आखिर अपने तहखाने में गई और शेरसिंह के पिटारे में से एक मोम[ ४४ ]बत्ती निकाल कर और बाल कर बाहर निकली। पहले उसने रोशनी के आगे हाथ की आड़ देकर चारों तरफ देखा और फिर उस कोठरी की तरफ रवाना हुई। जब कोठरी के दरवाजे पर पहुँची तो उसकी निगाह एक आदमी पर पड़ी जिसे देखते ही चौंकी और डर कर दो कदम पीछे हट गई, मगर उसकी होशियार आँखों ने तुरन्त पहचान लिया कि वह आदमी असल में मुर्दे से भी बढ़कर है अर्थात् पत्थर की एक खड़ी मूरत है जो सामने की दीवार के साथ चिपकी हुई है। आज के पहले इस कोठरी के अन्दर कामिनी नहीं आई थी, इसलिए वह हरएक तरफ अच्छी तरह गौर से देखने लगी परन्तु उसे इस बात का खटका बराबर लगा रहा कि कहीं वे चारों आदमी फिर न आ जायँ।

कामिनी को उम्मीद थी कि इस कोठरी से अन्दर वह लाश दिखाई देगी जिसे चारों आदमी उठा कर लाये थे, मगर कोई लाश दिखाई न पड़ी। आखिर उसने खयाल किया कि शायद लोग लाश की जगह मूरत को लाये हों जो सामने दीवार के साथ खड़ी है। कामिनी उस कोठरी के अन्दर घुस कर मूरत के पास जा खड़ी हुई और उसे अच्छी तरह देखने लगी। उसे बड़ा ताज्जुब हुआ जब उसने अच्छी तरह जाँच करने पर निश्चय कर लिया कि वह मूरत दीवार के साथ है, अर्थात् इस तरह से जुड़ी हुई है कि बिना टुकड़े-टुकड़े हुए किसी तरह दीवार से अलग नहीं हो सकती। कामिनी की चिन्ता और बढ़ गई। अब उसे इसमें किसी तरह का शक न रहा कि वे चारों आदमी जरूर किसी की लाश को उठा लाये थे, इस मूरत को नहीं, मगर वह लाश गई कहाँ? क्या जमीन खा गई या किसी चूने के ढेर के नीचे दबा दी गई! नहीं, मिट्टी या चूने के नीचे वह लाश दाबी नहीं गई, अगर ऐसा होता तो जरूर देखने में आता। उन लोगों ने जो कुछ किया, इसी कोठरी के अन्दर किया।

कामिनी उस मूरत के पास खड़ी देर तक सोचती रही, आखिर वहाँ से लौटी और धीरे-धीरे अपने तहखाने में आकर बैठ गई, वहाँ एक ताक (आले) पर चिराग जल रहा था इसलिए मोमबत्ती बुझाकर बिछौने पर जा लेटी और फिर सोचने लगी।

इसमें कोई शक नहीं कि वे लोग कोई लाश उठाकर लाए थे, मगर वह लाश कहाँ गई। खैर, इससे कोई मतलब नहीं, मगर अब यहाँ रहना भी कठिन हो गया, क्योंकि यहाँ कई आदमियों की आमद-रफ्त शुरू हो गई। शायद कोई मुझे देख ले, तो मुश्किल होगी। अब होशियार हो जाना चाहिए क्योंकि मुझे बहुत-कुछ काम करना है। कमला या शेरसिंह भी अभी तक न आए, अब उनसे भी मुलाकात होने की कोई उम्मीद न रही। अच्छा, दो-तीन दिन और यहाँ रहकर देखा चाहिए कि वे लोग फिर आते हैं या नहीं।

कामिनी इन सब बातों को सोच ही रही थी कि एक आवाज उसके कान में आई। उसे मालूम हुआ कि किसी औरत ने दर्दनाक आवाज में यह कहा, "क्या दुःख ही भोगने के लिए मेरा जन्म हुआ था!" यह आवाज ऐसी दर्दनाक थी कि कामिनी का कलेजा काँप गया। इस छोटी ही उम्र में वह भी बहुत तरह के दुःख भोग चुकी थी और उसका कलेजा जख्मी हो चुका था, इसलिए बर्दाश्त न कर सकी, आँखें भर आईं और आँसू की बूँदें टपाटप गिरने लगीं। फिर आवाज आई, "हाय, मौत को भी मौत आ [ ४५ ]गई!" अबकी दफे कामिनी बेतरह चौंकी और यकायक बोल उठी, "इस आवाज को तो मैं पहचानती हूँ, जरूर उसी को आवाज है!"

कामिनी उठ खड़ी हुई और सोचने लगी कि यह आवाज किधर से आई? बन्द कोठरी में आवाज आना असम्भव है, किसी खिड़की, सूराख या दीवार में दरार हुए बिना आवाज किसी तरह नहीं आ सकती। वह कोठरी में हर तरफ घूमने और देखने लगी। यकायक उसकी निगाह एक तरफ की दीवार के ऊपरी हिस्से पर जा पड़ी और वहाँ एक सूराख, जिसमें आदमी का हाथ बखूबी जा सकता था, दिखाई पड़ा। कामिनी ने सोचा कि बेशक इसी सूराख में से आवाज आई है। वह सूराख की तरफ गौर से देखने लगी, फिर आवाज आई––"हाय, न मालूम मैंने किसी का क्या बिगाड़ा है!"

अब कामिनी को विश्वास हो गया कि यह आवाज उसी सूराख में से आई है। वह बहुत ही बेचैन हुई और धीरे-धीरे कहने लगी, "बेशक यह उसी की आवाज है। हाय मेरी प्यारी बहिन किशोरी, मैं तुझे क्योंकर देखूँ और किस तरह मदद करूँ? इस कोठरी के बगल में जरूर कोई दूसरी कोठरी है जिसमें तू कैद है, मगर न मालूम उसका रास्ता किधर से है? मैं कैसे तुझ तक पहुँचूँ और इस आफत से तुझे छुड़ाऊँ? इस कोठरी की कम्बख्त संगीन दीवारें भी ऐसी मजबूत है कि मेरे उद्योग से सेंध भी नहीं लग सकती। हाय, अब मैं क्या करूँ? भला पुकार के देखूँ तो सही कि आवाज भी उसके कानों तक पहुँचती है या नहीं?"

कामिनी ने मोखे (सूराख) की तरफ मुँह करके कहा, "क्या मेरी प्यारी बहिन किशोरी की आवाज आ रही है?"

जवाब––हाँ, क्या तू कामिनी है? बहिन कामिनी, क्या तू भी मेरी ही तरह इस मकान में कैद है?

कामिनी––नहीं बहिन, मैं कैद नहीं हूँ, मगर...

कामिनी और कुछ कहा ही चाहती थी कि धमधमाहट की आवाज सुनकर रुक गई और डर कर सीढ़ी की तरफ देखने लगी। उसे मालूम हुआ कि कोई यहाँ आ रहा है।