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चन्द्रकांता सन्तति २/५.७

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चंद्रकांता संतति भाग 2
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ ३९ से – ४१ तक

 

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रोहतासगढ़ फतह होने की खबर लेकर भैरोंसिंह चुनार पहुँचे और उसके दो ही तीन दिन बाद राजा दिग्विजयसिंह की बेईमानी की खबर लेकर कई सवार भी जा पहुँचे। इस समाचार के पहुँचते ही चुनारगढ़ में खलबली पड़ गई। फौज के साथ ही साथ रिआया भी राजा वीरेन्द्रसिंह और उनके खानदान को दिल से चाहती थी, क्योंकि उनके जमाने में अमीर-गरीब सभी खुश रहते थे! आलिमों और कारीगरों की कदर की जाती थी, अदना से अदना भी अपनी फरियाद राजा के कान तक पहुँचा सकता था, उद्योगियों और व्यापारियों को दरबार से मदद मिलती थी, ऐयार और जासूस लोग छिपे-छिपे रिआया के दुःख-सुख का हाल मालूम करते और राजा को हर तरह की खबर पहुँचाते थे। शादी-ब्याह में इज्जत के माफिक हर एक को मदद मिलती थी और इसी से रिआया भी तन-मन-धन से राजा की मदद के लिए तैयार रहती थी। राजा वीरेन्द्रसिंह कैद हो गये, इस खबर को सुनते ही रिआया जोश में आ गई और इस फिक्र में हुई कि जिस तरह हो, राजा को छुड़ाना चाहिए।

रोहतासगढ़ के बारे में क्या करना चाहिए और दुश्मनों पर कैसे फतह पानी चाहिए, यह सब सोचने-विचारने के पहले महाराज सुरेन्द्रसिंह और जीतसिंह ने भैरोंसिंह, रामनारायण और चुन्नीलाल को हुक्म दिया कि तुम लोग तुरन्त रोहतासगढ़ जाओ और जिस तरह हो सके अपने को किले के अंदर पहुँचाकर राजा वीरेन्द्रसिंह को रिहा करो, हम दोनों में से भी कोई आदमी मदद लेकर शीघ्र पहुँचेगा।

हुक्म पाते ही तीनों ऐयार तेज और मजबूत घोड़ों पर सवार होकर रोहतासगढ़ की तरफ रवाना हुए और दूसरे दिन शाम को अपनी फौज में पहुँचे। राजा वीरेन्द्रसिंह की आधी, अर्थात् पच्चीस हजार फौज तो पहाड़ी के नीचे किले के दरवाजे की तरफ खड़ी हुई थी और बाकी आधी फौज पहाड़ी के चारों तरफ इसलिए फैला दी गयी थी कि राजा दिग्विजयसिंह को बाहर से किसी तरह की मदद न पहुँचने पाये। पाँच-पाँच, सात-सात सौ बहादुरों को लेकर नाहरसिंह कई दफे उस पहाड़ी पर चढ़ा और किले के दरवाजे तक पहुँचना चाहा, मगर किले के बुर्जों पर से आए हुए तोप के गोलों ने उसे वहाँ तक न पहुँचने दिया और हर दफे लौटना पड़ा। जाहिर में तो वे लोग सामने की तरफ अड़े हुए थे और घड़ी-घड़ी हमला करते थे, मगर नाहरसिंह के हुक्म से पाँच-पाँच, सात-सात करके बहुत से सिपाही, जासूस और सुरंग खोदने वाले जंगल-ही-जंगल रात के समय छिपे हुए रास्तों से पहाड़ पर चढ़ गये थे तथा बराबर चढ़े चले जाते थे और उम्मीद पाई जाती थी कि दो-ही-तीन दिन में हजार आदमी पहाड़ के ऊपर हो जायेंगे। तब नाहरसिंह छिपकर अकेला पहाड़ पर चढ़ जायगा और अपने आदमियों को बटोर कर किले के दरवाजे पर हमला करेगा। पहाड़ के ऊपर पहुँचकर सुरंग खोदनेवाले सुरंग खोद कर बारूद के जोर से किले का फाटक तोड़ने की धुन में लगे हुए थे और इन बातों की खबर राजा दिग्विजयसिंह को बिल्कुल न थी।

भैरोंसिंह ने फौज में पहुँचकर यह सब हाल सुना और खुश होकर सेनापतियों की तारीफ की तथा कहा कि "यद्यपि पहाड़ के ऊपर का घना जंगल ऐसा बेढब है कि मुसाफिरों को जल्दी रास्ता नहीं मिल सकता, तथापि हमारे आदमी यदि ऊँचाई की तरफ ध्यान न देकर चढ़ना शुरू करेंगे तो लुढ़कते-पुढ़कते किले के पास पहुँच ही जायेंगे। खैर, आप लोग जिस काम में लगे हैं, उसी में लगे रहिए। हम तीनों ऐयार अब पहाड़ पर जाते हैं और किसी तरह किले के अन्दर पहुँचने का बन्दोबस्त करते हैं।

पहर रात बीत गई थी जब भैरोंसिंह, रामनारायण और चुन्नीलाल पहाड़ी के ऊपर चढ़ने लगे। भैरोंसिंह कई दफे उस पहाड़ी पर जा चुके थे और उस जंगल में अच्छी तरह घूम चुके थे, इसलिए इन्हें भूलने और धोखा खाने का डर न था। ये लोग बेधड़क पहाड़ पर चले गए और रोहतासगढ़ के रास्ते वाले कब्रिस्तान में ठीक उस समय पहुँचे, जिस समय कमला धड़कते हुए कलेजे के साथ उस राक्षसी के सामने खड़ी थी जिसके हाथ मे बिजली की तरह चमकता हुआ नेजा था। जिस समय वह नेजा चमकता था, देखने वाले की आँखें चौंधिया जाती थीं। भैरोंसिंह ने भी दूर से इस चमकते हुए नेजे को देखा जिसे देखकर दोनों साथी ऐयार भी डर कर खड़े हो गए। भैरोंसिंह चाहते थे कि जब वह औरत वहाँ से चली जाय, तो कब्रिस्तान में जायँ, मगर वे ऐसा न कर सके, क्योंकि नेजे की चमक में उन्होंने कमला की सूरत देखी जो इस समय जान से हाथ धोकर उस राक्षसी के सामने खड़ी थी।

हम ऊपर कई जगह इशारा कर आए हैं कि भैरोंसिंह कमला को चाहते थे और वह भी इनसे मुहब्बत रखती थी। इस समय कमला को एक राक्षसी के सामने देख उसकी मदद न करना भैरोंसिंह से कब हो सकता था? वे लपक कर कमला के पास पहुँचे। दो ऐयारों को साथ लिये भैरोंसिंह को अपने पास मौजूद देख कर कमला का जी ठिकाने हुआ और उसने जल्दी से भैरोंसिंह का हाथ पकड़ के कहा––"खूब पहुँचे!"

भैरोंसिंह––तुम यहाँ क्यों खड़ी हो और तुम्हारे सामने यह औरत कौन है?

कमला––मैं इसे नहीं पहचानती।

राक्षसी––मेरा हाल कमला से क्यों पूछते हो? मुझसे पूछो। इस समय तुम्हें देखकर मैं बहुत खुश हुई, मैं भी इसी फिक्र में थी कि किसी तरह भैरोंसिंह से मुलाकात हो।

भैरोंसिंह––तुमने मुझे कैसे पहचाना? क्योंकि आज तक मैंने तुम्हें कभी नहीं देखा!

इतना सुनकर वह औरत बड़ी जोर से हँसी और उसने नेजे को हिलाया। हिलाने के साथ ही नेजे में चमक पैदा हुई और उसकी डरावनी हँसी से कब्रिस्तान गूँज उठा, इसके बाद उस औरत ने कहा––

राक्षसी––ऐसा कौन है जिसे मैं नहीं पहचानती होऊँ? खैर, इन बातों से कोई मतलब नहीं। यह कहो कि अपने मालिकों के छुड़ाने की तुम क्या फिक्र कर रहे हो? दिग्विजयसिंह दो ही तीन दिन में तुम्हारे मालिक को मार कर निश्चिन्त होना चाहता है।

भैरोंसिंह उस राक्षसी से बातें करने को तैयार थे, परन्तु यह नहीं जानते थे कि वह इनकी दोस्त है या दुश्मन, और उससे अपने भेदों को छिपाना चाहिए कि नहीं। यह सोच ही रहे थे कि इसकी बातों का क्या जवाब दिया जाय कि इतने में कई आदमियों के आने की आहट मालूम हुई। उस औरत ने घूमकर देखा तो चार आदमियों को इसी तरफ आते पाया। उन पर निगाह पड़ते ही वह क्रोध में आकर गरजी और नेजे को हिलाती हुई उसी तरफ लपकी। नेजे की चमक ने उन चारों की आँखें बन्द कर दीं। औरत ने बड़ी फुर्ती से उन चारों को नेजे से घायल कर दिया। हिलाने के साथ-ही-साथ उस नेजे में गजब की चमक पैदा होती थी, मालूम होता था कि आँखों के आगे बिजली दौड़ गई। वे बेचारे देख भी न सके कि उनको मारने वाला कौन है या कहाँ पर है। मालूम होता है कि वह नेजा जहर में बुझाया हुआ था क्योंकि वे चारों जख्मी होकर तुरंत जमीन पर ऐसे गिरे कि फिर उठने की नौबत न आई।

इस तमाशे को देखकर भैरोंसिंह डरे और सोचने लगे कि इस औरत के हाथ में तो बड़ा विचित्र नेजा है। इससे तो यह बात-की-बात में सैकड़ों आदमियों का नाश कर सकती है। कहीं ऐसा न हो कि हम लोगों को भी सतावे।

उन चारों को जख्मी करने के बाद वह औरत फिर भैरोंसिंह की तरफ लौटी। अब उसने अपने नेजे को आड़ा किया अर्थात् उसे इस तरह थामा कि उसका एक सिरा बाईं तरफ और दूसरा दाहिनी तरफ रहे, तब तीनों ऐयारों और कमला को नेजे का धक्का देकर एक साथ पीछे की तरफ हटाना चाहा। यह नेजा एक साथ चारों के बदन में लगा। उसके छूते ही बदन में एक तरह की झनझनाहट पैदा हुई और सब आदमी बदहवास होकर जमीन पर गिर पड़े।

जब उन चारों––अर्थात् भैरोंसिंह, रामनारायण, चुन्नीलाल और कमला––की आँखें खुलीं, तो उन्होंने अपने को किले के अन्दर राजमहल के पिछवाड़े की तरफ एक दीवार की आड़ में पड़े पाया। उस समय सुबह की सफेदी आसमान पर धीरे-धीरे अपना दखल जमा रही थी।