चन्द्रकांता सन्तति २/६.७
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आधी रात जा चुकी है। कमलिनी उस कमरे में, जो उसके सोने के लिए मुकर्रर किया गया था, चारपाई पर लेटी हुई करवटें बदल रही है क्योंकि उसकी आँखों में नींद का नामो-निशान नहीं है। उसके दिल में तरह-तरह की बातें पैदा होती और मिटती हैं। उसे इस कोठरी की बनावट ने और भी तरदुद में डाल रखा है। यद्यपि इस कोठरी में विशेष सामान नहीं और न किसी तरह की सजावट ही है, केवल एक चारपाई जिस पर कमलिनी सोई है और एक चौकी पड़ी है तथा कोने में एक शमादान जल रहा है परन्त तीन तरफ की दीवारों पर वह ताज्जुब और तरदुद की निगाह डाल रही है। इस कमरे की एक तरफ की दीवार, जिधर से इसमें आने के लिए दरवाजा था, ईंट और चने से बनी हुई थी, परन्तु बाकी तीन तरफ की दीवारें तख्तेबन्दी की थीं, अर्थात लकडी से बनी हई थीं। कमलिनी के दिल में शक पैदा हआ और उसने सोचा कि इन तख्तेबन्दी की दीवारों में कोई भेद जरूर है। इस मकान का कछ-कछ भेद कमलिनी को मालम था, पर यहाँ का पूरा-पूरा हाल वह नहीं जानती थी और जानने की इच्छा रखती थी। आखिर कमलिनी से न रहा न गया, और वह चारपाई से उठी। पहले उसने उस दरवाजे को भीतर की तरफ से बन्द किया जो इस कमरे में आने-जाने के लिए था। इसके बाद कमर से खंजर निकाल लिया और उसके कब्जे से तख्तेबन्दी की दीवारों को जगह-जगह से ठोंककर देखने लगी। एक जगह से उसे दीवार पोली मालूम पड़ी और उस पर वह बखूबी गौर करने लगी। जब कुछ मालूम न हआ तो उसने शमादान उठा लिया और फिर उस जगह को गौर से देखा। थोड़ी ही देर में उसे विश्वास हो गया कि यहाँ पर एक छोटा-सा दरवाजा है, क्योंकि दरवाजे के चारों तरफ की बारीक दरार का निशान बहुत गौर करने पर मालूम होता था। कमलिनी ने दरार में खंजर की नोक चुभोई और उसे अच्छी तरह दो-चार बार हिलाया। दरार बड़ी हो गयी और आधा खंजर उसके अन्दर चला गया। फिर से कोशिश करने पर लकड़ी का एक तख्ता अलग हो गया और दूसरी तरफ जाने लायक रास्ता निकल आया।
हाथ में शमादान लिए हुए कमलिनी अन्दर घुसी और एक बहुत लम्बी-चौड़ी कोठरी में पहुँची। इस कोठरी में चारों तरफ की दीवार भी तख्तेबन्दी की थी इसमें कई चीजें ऐसी पड़ी हुई थीं जिनके देखने से चाहे कैसा ही संगदिल और दिलावर आदमी क्यों न हो, एक दफे जरूर काँप उठे और उसका कलेजा मामूली से चौगुना और अठगुना धड़कने लग जाय।
इस कोठरी में एक घोड़े की लाश थी, मगर वह अजीब ढंग की थी। उसके चारों तरफ चार खूँटियाँ जमीन में गड़ी हुई थीं और उन खूँटियों के सहारे उस घोड़े के चारों पैर बँधे हुए थे। उस घोड़े का पेट चीरा हुआ और आँतें निकाल कर बाहर रक्खी हुई थीं। चारों तरफ खून फैला हुआ था, मालूम होता था कि यह घोड़ा किसी काम के लिए आज ही मारा गया है। उसके पास ही थोड़ी दूर पर फूलों के कई गमले रक्खे हुए थे और उनके पास ही एक सुन्दर बिछौना था जिस पर सफेद चादर बिछी हुई थी तथा उस पर एक आदमी गर्दन तक सफेद ही चादर ओढ़े सो रहा था। घोड़े के पास से लेकर उस बिछावन तक पैर से लगे हुए खून के दाग जमीन पर दिखाई दे रहे थे और बिछावन की चादर तथा उस चादर में भी, जो वह आदमी ओढ़े हुए था, खून के धब्बे लगे हुए थे।
उस आदमी को देखकर कमलिनी इसलिए हिचकी कि कहीं वह जागकर कमलिनी को देख न ले, मगर थोड़ी देर तक खड़े रहने पर भी उसके हिलने-डुलने अथवा उसकी साँस चलने की आहट न मिली। तब कमलिनी हाथ में शमादान लिए हए उस विछावन के पास गई और रोशनी में उस आदमी की सूरत देखने लगी जिसका बिल्कुल चेहरा बखूबी खुला हुआ था। सूरत देखते ही कमलिनी चौंक पड़ी और शमादान जमीन पर रख बेधड़क उस आदमी का बाजू पकड़ के हिलाने और यह कहकर उसको जगाने का उद्योग करने लगी कि "वाह-वाह! तुम यहाँ बेखबर पड़े हुए हो और मुझे इसका हाल जरा भी नहीं मालूम!"
जब बाजू पकड़ के हिलाने से भी वह आदमी न जागा तब कमलिनी को ताज्जुब हआ और गौर से उसकी सूरत देखने लगी, मगर नब्ज पर हाथ रक्खा तो मालूम हो गया कि वह जिन्दा नहीं, बल्कि मुर्दा है। यह जानते ही कमलिनी का जी भर आया और वह मुर्दे के सिर पर हाथ रखकर रोने और गरम-गरम आँसू गिराने लगी। थोड़ी देर तक कमलिनी इसी अवस्था में पड़ी रही, आखिर वह चैतन्य हुई और यह कहकर उठ खड़ी हुई कि "बात तो बहुत ही बुरी हुई, मगर इस समय मुझे सब्र करना चाहिए, नहीं तो कुछ भी न कर सकूँगी। हाय, मेरा दिल और मेरे काबू में न रहे! नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। मैं पूरा-पूरा सब करूँगी और देखूँगी कि क्या कर सकती हूँ। इसमें जरा भी सन्देह नहीं कि इसकी जान निकले चार पहर से ज्यादा अभी नहीं हुए।" कमलिनी फिर शमादान उठाकर उस कोठरी में घूमने और चारों तरफ देखने लगी। पूरब और दक्खिन के कोने में एक लाश छत से लटकती हुई दिखाई पड़ी जिसके गले में फाँसी लगी थी। वह ताज्जुब के साथ शमादान ऊँचा करके उसकी सूरत देखने लगी, जब अच्छी तरह पहचान चुकी तो नफरत के साथ उस लाश पर थूककर अपना मुँह फेर लिया और दूसरी तरफ चली ही थी कि यह आवाज सुनकर ठहर गई और उस तरफ देखने लगी, जिधर से आवाज आई थी। आवाज यह थी––"हाय, मौत को भी मौत आ गई!" उसे ताज्जुब मालूम हुआ कि यह आवाज किधर से आई! वह यह देखने के लिए उस तरफ बढ़ी, जिधर से आवाज आई थी कि शायद कोई सूराख या खिड़की दिखाई दे और आखिर ऐसा ही हआ। दीवार के पास पहुँचते ही एक सूराख ऐसा दिखा जिसमें आदमी की गर्दन वखूबी जा सकती थी। यह टेढ़ा और नीचे की तरफ झुका हुआ सूराख, जिसे किसी कमरे का रोशनदान कहना चाहिए, दीवार के बिल्कुल नीचे की तरफ था।
कमलिनी ने उस सूराख में से झाँककर देखा तो एक छोटे से मगर सजे हुए कमरे में निगाह गई। यह कमरा उस कोठरी से एक खंड नीचे था जिसमें से कमलिनी झाँक रही थीं। उस कमरे में जो कुछ कमलिनी ने देखा, उससे उसके दिल को बड़ा ही सदमा पहुँचा और जब तक वह देखती रही उसकी आँखों से आँसू बराबर जारी रहे।
कमलिनी ने देखा कि एक पलंग पर, जिसके पास ही शमादान जल रहा है, आफत की मारी बेचारी किशोरी पड़ी हुई है। रंज और गम के मारे सुखकर काँटा हो रही है। चेहरे पर मुर्दनी छायी हुई है और कमजोरी की यह अवस्था है कि साँस भी मुश्किल से आती-जाती है। थोड़ी-थोड़ी देर पर उसके होंठ हिलते हैं और धीरे-धीरे कुछ कहती है, मगर जब कहती है तो उसकी आवाज साफ सुनाई देती है। वह कह रही थी––
"हाय, इससे बढ़कर मेरी दुर्दशा और क्या हो सकती है! इन्द्रजीतसिंह, तुम्हारी मुहब्बत में मैं यहाँ तक पहुँच चुकी, कुल में कलंकिनी कहाई, लज्जा को तिलांजलि दे बैठी, और वह सब दुःख झेलने को तैयार हुई, यह सब तुम्हारी बदौलत...
"(थोड़ी देर चुप रहकर) यहाँ तक रोई कि अब आँखों में आँसू भी नहीं रहे। खाना-पीना छोड़ देने पर भी निगोड़ी जान नहीं निकलती। हाय, मौत को भी मौत आ गई! नहीं-नहीं, मौत को मौत नहीं आई, वह देखो, मेरे सामने खड़ा हुआ काल मेरी तरफ देख रहा है। अब कुछ दम की मेहमान हूँ। मैं तो जाती हूँ, मगर अफसोस, अपने प्यारे की जुदाई का रंज और उसकी बेवफाई और बेमुरौवती की शिकायत अपने साथ लिए जाती हैं। हाय, इस समय ऐसा कोई भी नहीं जो मेरी हालत देखे और मेरा हाल उनसे जाकर...
"(थोड़ी देर चुप रहकर) जब उनको मेरी परवाह ही नहीं, तो मेरा हाल कोई उनसे कहकर करेगा ही क्या? उन्होंने तो खुद कहला भेजा है कि मुझे कुछ भी परवाह नहीं। हाय, मैं ऐसी बात कैसे सुन सकी! उसी समय मेरी जान क्यों न निकल गई! नहीं-नहीं, यह सब ऐयारी है, उन्होंने ऐसी बात कभी न कही होगी। पर इससे क्या हो सकता है जब कि दम निकलने में कुछ कसर बाकी नहीं है। देखो-देखो वह काल अब मेरी तरफ बढ़ा चला आता है। अच्छा है, किसी तरह वह सायत आए भी तो। हे सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर, मैं तुम्हीं को गवाह रखती हूँ क्योंकि तुम खूब जानते हो कि मैं निर्दोष इस दुनिया से उठी जाती हूँ और इन्द्रजीतसिंह की मुहब्बत के सिवाय अपने साथ कुछ भी नहीं लिए जाती, हाँ उस प्यारे की..."
इसके बाद बहुत देर तक राह देखने पर भी कुछ सुनाई न दिया। कमलिनी ने समझा कि या तो इसे कमजोरी से गश आ गया और या इस हसरत की मारी बेचारी का दम ही निकल गया। इस समय कमलिनी ने जो कुछ देखा या सुना, वह उसे बेसुध करने के लिए काफी था। कमलिनी जार-जार रो रही थी, यहाँ तक कि हिचकी बँध गई और उसे इस बात का ध्यान बिल्कुल ही जाता रहा कि मैं यहाँ किस काम के लिए आई हूँ क्या कर रही हूँ और इस समय कैसे खतरे में फँसी हुई हूँ।
कमलिनी के लिए यह समय बड़े ही संकट का था। वह नहीं चाहती थी कि बेचारी किशोरी का पूरा-पूरा हाल जाने या उसे किसी तरह की मदद पहुँचाए बिना यहाँ से चली जाय और साथ ही इसके भूतनाथ के कागजात को भी, जिनके लेने का वह पूरापूरा उद्योग कर चुकी थी, किसी तरह छोड़ नहीं सकती थी, क्योंकि यह मौका निकल जाने पर फिर उनका हाथ लगना बहुत ही कठिन था।
किशोरी की हालत पर अफसोस करती हुई कमलिनी अभी नीचे देख ही रही थी कि यकायक उस कमरे का दरवाजा खुला और एक खूबसूरत नौजवान अमीराना पोशाक पहने अन्दर आता हुआ दिखाई पड़ा। उसके पीछे हाथ में पंखा लिए एक लौंडी भी थी जिसने अन्दर पहुँचने पर उस दरवाजे को उसी तरह बन्द कर दिया।
इस नौजवान की उम्र लगभग पचीस वर्ष के होगी। दर्म्याना कद, गोरा रंग, हाथ-पैर से मजबूत और खूबसूरत था। वह किशोरी के पलंग के पास आकर खड़ा हो गया और गौर से उसकी तरफ देखने लगा। उस पलंग के पास ही एक मोढा कपड़े से मढ़ा हुआ पड़ा था जिसे लौंडी उठा लाई और पलंग के पास रखकर पंखा झलने लगी। नौजवान ने बड़े गौर से किशोरी की नाड़ी देखी और फिर उस लौंडी की तरफ मुँह करके कहा, "गश आ गया है।"
लौंडी––कमजोरी के सबब से।
नौजवान––एक तो बीमार, दूसरे कई दिन से खाना-पीना सब छोड़ दिया, फिर ऐसी नौबत तो हुआ ही चाहे। अफसोस, यह मेरी बात नहीं मानती और मुफ्त में जान दे रही है।
लौंडी––इस जिद का भी कोई ठिकाना है!
नौजवान––खैर चाहे जो हो, मगर दो बात से तीसरी कभी हो ही नहीं सकती, या तो यह मेरी होकर रहेगी या इसी अवस्था में पड़ी-पड़ी यमलोक को सिधार जायगी। अच्छा, इसे होश में लाना चाहिए।
"जो हुक्म" कह कर लौंडी वहाँ से चली गई और एक आलमारी में से जो पलंग के सिरहाने की तरफ थी, कई बोतलें निकाल लाई, जिन्हें उस नौजवान के पास रख कर दह फिर पंखा झलने लगी। नौजवान ने अपनी जेब में से रूमाल निकाल कर एक बोतल के अर्क से उसे तर किया और दूसरी बोतल में से थोड़ा-सा अर्क हाथ में लेकर किशोरी के मुँह पर छींटा दिया। इसके बाद वही रूमाल नाक के पास ले जाकर कुछ देर तक सुँघाया। जब उससे कुछ काम न चला तो तीसरी बोतल से अर्क लेकर उसके मुँह पर छींटा दिया। थोड़ी देर में किशोरी का गश जाता रहा और उसने आँख खोल कर देखा मगर जैसे ही उस नौजवान पर निगाह पड़ी वह काँप उठी और दोनों हाथों से मुँह ढाँप कर बोली––
"हाय, न मालूम यह चाण्डाल अब क्यों मेरे पास आया है!"
नौजवान––मैं इसी वास्ते आया हूँ कि एक दफे तुमसे और पूछ लूँ।
किशोरी––एक दफे क्या सौ दफे कह चुकी कि तू मुझसे किसी तरह की उम्मीद न रख। मैं तेरी सूरत देखने की बनिस्बत मौत को हजार दर्जे अच्छा समझती हूँ!
नौजवान––क्या अभी तक तुझे इस बात की उम्मीद है कि इन्द्रजीतसिंह आकर तेरी मदद करेंगे और छुड़ा ले जायेंगे?
किशोरी––मुझे क्या पड़ी है कि इन सब बातों का तुझे जवाब दूँ? मैं तुझ पर बल्कि तेरे सात पुश्त पर थूकती हूँ। चाण्डाल, हट जा मेरे सामने से?
लौंडी––(नौजवान से) हुजूर, इस कमीनी औरत से क्यों बेइज्जती करा रहे हैं? इसमें क्या ऐसा हीरा जड़ा है?
नौजवान क्रोध के मारे काँपने लगा, आँखें लाल हो गईं, और दाँत पीसता हुआ मोढ़े पर से उठ खड़ा। दाहिने हाथ से वह छुरा निकाल लिया जो उसकी कमर में छिपा हुआ था और बाएँ हाथ से किशोरी का हाथ पकड़कर यह कहता हुआ उसकी तरफ झुका, "जब ऐसा ही है तो मैं इसी समय क्यों न तुझे यमलोक पहुँचाऊँ!"
उस नौजवान और किशोरी की यह अवस्था देख कर कमलिनी परेशान हो गई और सोचने लगी कि इस जल्दी में कौन सी तरकीब की जाय कि किशोरी की जान बचे। मगर वह कर ही क्या सकती थी? एक तो वह स्वयं चोरों की तरह कोठरियों में घूम रही थी, यदि किसी को जरा भी शक हो जाय तो उसकी जान पर आ बने। दूसरे, कोई ऐसा रास्ता भी नहीं दिखाई देता था जिधर से किशोरी के पास पहुँचकर उसकी सहायता करती। मगर इसमें कोई सन्देह नहीं कि कमलिनी बहुत होशियार चालाक और बुद्धिमान थी। उसने बहुत जल्द ही दिल में इस बात का फैसला कर लिया कि अब क्या करना चाहिए। एक खयाल बिजली की तरह उसके दिल में दौड़ गया मगर देखना चाहिए उससे कहाँ तक काम निकलता है।
जिस समय किशोरी को मारने के लिए वह नौजवान झुका और कमलिनी को मालूम हुआ कि अब उस बेचारी का काम तमाम होना चाहता है उसी समय कमलिनी ने अपनी कमर से तिलिस्मी खंजर निकाल लिया और जिस मोखे में देख रही थी उसके अन्दर डाल कर उसका कब्जा दबाया[१]। यह खंजर बिजली की तरह चमका और उस कोठरी में इतनी ज्यादा चमक या रोशनी पैदा हुई कि तुरत किशोरी और उस नौजवान की आँखें बिल्कुल बन्द हो गई जो किशोरी को मारना चाहता था, इसके साथ ही कमलिनी ने भारी स्वर में यह आवाज दी, "खबरदार! किशोरी की जान लेकर अपनी जान का ग्राहक मत बन!"
उस बिजली की चमक ने तो नौजवान को परेशान कर ही दिया था, मगर साथ ही कमलिनी की आवाज ने जो गैव की आवाज मालूम होती थी उसे बदहवास कर दिया और वह इतना डरा और घबराया कि बिना कुछ सोचे और किशोरी को दु:ख दिये उस कोठरी से निकल भागा। कमलिनी ने भी अब उस जगह ठहरना मुनासिब न जाना। जहाँ तक जल्द हो सका अपने कमरे में चली आई। उस तख्ते के दरवाजे को जिसे खोल दूसरी कोठरी में गई थी ज्यों-का-त्यों बन्द करने के बाद अपने कमरे का दरवाजा भी खोल दिया जो दूसरी कोठरी में जाने के पहले भीतर से बन्द कर लिया था।
इस समय रात बहुत थोड़ी रह गई थी। कमलिनी ने चाहा कि दो घण्टे आराम करे मगर जो कुछ अद्भुत बातें उसने देखी और सूनी थीं, उनके खयाल और विचार न आराम लेने न दिया और उसे किसी तरह नींद न आई। अभी आसमान पर सुबह का सफेदी अच्छी तरह फैलने भी नहीं पाई थी कि दरवाजा खुलने की उसे आहट मालूम हुई। कमलिनी ने दरवाजे की तरफ देखा तो नागर पर नजर पड़ी।
कमलिनी पहले ही से सोचे हुए थी कि आज की अद्भुत बातों का असर कुछ न कुछ नागर पर जरूर पड़ेगा और वह सवेरा होने से पहले ही यहाँ पहुँचेगी बल्कि ताज्जुब नहीं कि वह मुझ पर किसी तरह का शक भी करे। आखिर कमलिनी का सोचना ठीक निकला।
इस समय नागर के चेहरे पर परेशानी और उदासी छाई हुई थी। उसने आते ही कमलिनी पर एक तेज निगाह डाली और सवाल करना शुरू किया––
नागर––इस समय तुम्हारी आँखें लाल मालूम होती हैं, क्या नींद नहीं आई?
कमलिनी––हाँ दो घण्टे के लगभग तो मैं सोई मगर फिर नींद नहीं आई, अभी तक डर के मारे मेरा कलेजा काँप रहा है। यह उम्मीद न थी कि तुम मुझे एसी भयानक जगद सोने के लिए दोगी क्योंकि मैंने तुम्हारे साथ किसी तरह की बुराई नहीं की था।
नागर––(ताज्जुब से) सो क्या? तुम्हें किस बात की तकलीफ हुई और यहाँ पर क्या भयानक वस्तु देखने में आई?
कमलिनी––मैं यहाँ पर अब एक सायत भी नहीं ठहर सकती, केवल तुम्हारा राह देख रही थी।
नागर––आखिर मामला क्या है, कुछ कहो भी तो।
कमलिनी––अच्छा, बाहर चलो तो जो कुछ देखा है तुमसे कहूँ।
इसमें कोई शक नहीं कि नागर बहुत तेजी के साथ आई थी और उसे कमलिनी पर शक था मगर कमलिनी ने ऐसे ढंग से बातें कीं कि उसकी हालत बिल्कुल ही बदल गई और वह तरह-तरह के सोच में पड़ गई। नागर और कमलिनी बाहर आई और सहन में एक संगमरमर की चौकी पर बैठकर बातचीत करने लगी।
नागर––हाँ कहो, तुमने क्या देखा?
च॰ स॰-2-2
नागर––घड़घड़ाहट की आवाज कैसी?
कमलिनी––मालूम होता था कि इस कमरे के नीचे कई गाड़ियाँ दौड़ रही हैं। पहले तो मुझे शक हुआ कि शायद भूकम्प आने वाला है क्योंकि उसके पहले भी प्रायः ऐसी घटना हुआ करती है, मगर सो न हुआ। आखिर थोड़ी देर तक राह देख कर फिर सो रही। आधा घण्टा भी न हुआ होगा कि मेरी चारपाई हिली, मैं घबरा कर उठ बैठी और अपने सामने एक कम-उम्र लड़के को देख कर ताज्जुब करने लगी।
नागर––(ताज्जुब से) कम-ऊम्र लड़का! या कोई औरत थी? शायद तुमने अच्छी तरह खयाल न किया हो।
कमलिनी––जी नहीं, जहाँ तक मैं समझती हूँ, वह लड़का ही था!
नागर––भला उसकी उम्र क्या होगी? और सूरत-शक्ल कैसी थी?
कमलिनी––शायद चौदह या पन्द्रह वर्ष होगी, चेहरा खूबसूरत और रंग गोरा, सिर पर मुँडासा बाँधे और हाथ में एक बड़ा-सा डिब्बा लिए था।
नागर––(कुछ सोच कर) तुमने धोखा खाया, वह जरूर कोई औरत बल्कि कमलिनी...अच्छा, तब क्या हुआ?
कमलिनी––उसने आते ही मुझसे पूछा कि 'सच बता, किशोरी कहाँ है?'
नागर––आते ही किशोरी को पूछा?
कमलिनी––जी हाँ। मैंने जवाब दिया कि 'मुझे खबर नहीं।' इतना सुनते ही उसकी आँखें लाल हो गई और गुस्से के मारे थरथर काँपने लगा। उसने वह बड़ा डिब्बा जो हाथ में लिए था जमीन पर दे मारा। उस डिब्बे में से इतनी तेज चमक पैदा हुई कि जिसे मैं अच्छी तरह बयान नहीं कर सकती। मालूम होता था कि आसमान से उतर कर कई बिजलियाँ एक साथ कमरे के अन्दर आ घुसी हैं। मेरी आँखें एकदम बन्द हो गई और मैं काँप कर चारपाई पर गिर पड़ी। थोड़ी देर बाद मालूम हुआ कि कोई आदमी मेरे बदन पर हाथ फेर रहा है। बस, उस समय मैं बेहोश हो गई और तन-बदन की सध जाती रही। मैं समझती हूँ कि कोई पहर भर के बाद मुझे होश आई और तब से बराबर जाग रही हूँ। मैंने बहुत चाहा कि कमरे से निकल भागूँ मगर डर के मारे हाथ-पैर ऐसे कमजोर हो गए थे कि चारपाई से उठ न सकी, इस समय जब तुम्हारी सूरत देखी तो जरा जी ठिकाने हुआ।
नागर––(कुछ देर सोचने के बाद धीरे से) बेशक यह काम मँझली रानी का है, दूसरे का नहीं।
कमलिमी––मँझली रानी कौन?
नागर––तुम उसे नहीं जानती हो।
कमलिनी––खैर, जो हो, मैं तो सोचे हुए थी कि कल या परसों जब मैं अपना काम करके लौटँगी और एक रात इस शहर में काटने की नौबत आवेगी तो बस इसी मकान में रह जाऊँगी, क्योंकि मनोरमा की मोहब्बत के भरोसे इसे भी अपना घर समझती हूँ मगर रात की बात ने ऐसा डरा दिया कि अब हिम्मत नहीं पड़ती।
नागर––नहीं-नहीं, तुम जब इधर आया-जाया करो तो यहाँ जरूर टिका करो और इस मकान को अपना ही समझो। मैं लौंडियों और नौकरों को इस विषय में पूरा-पूरा हुक्म देती हूँ। यह भयानक घटना जो आज हुई है, रोज नहीं हो सकती, इससे निश्चित रहो।
कमलिनी––क्या कहूँ अभी तक होशहवास दुरुस्त नहीं हुए।
नागर––जरा ठहरो, मैं इस कमरे में जाती हूँ और एक चीज देख कर अभी लौट आती हूँ।
नागर उठी और उस कमरे में चली गई जिसमें कमलिनी सोई थी। मगर, थोड़ी देर बाद आकर बोली, "तुम बेखौफ रहो, आज के बाद फिर कभी इस मकान में ऐसी घटना न देखोगी। क्या करूँ लाचार हूँ, क्योंकि इस समय मुझे झख मार कर रोहतासगढ़ मनोरमा को छुड़ाने के लिए जाना ही पड़ेगा नहीं तो आज एक भारी काम निकलने का मौका आ गया था।"
कमलिनी––तुमने क्या कहा, मेरी समझ में कुछ भी नहीं आया।
नागर––इन बातों को तुम नहीं समझ सकतीं। खैर, अब तुम्हारा क्या इरादा है? मैं तो रोहतासगढ़ जाने के लिए तैयार हो चुकी हूँ।
कमलिनी––अच्छी बात है। जहाँ तक हो सके जल्दी जाओ, मैं भी एक जरूरी काम के लिए मिर्जापुर जाती हूँ, कल या परसों तक लौटूँगी। मैं तो कल ही चली जाती, मगर तुमने व्यर्थ मुझे रोक लिया।
नागर––मैंने व्यर्थ नहीं रोका था, मगर हाँ, अब उसे व्यर्थ ही कहना चाहिए, खैर माफ करो और कृपा करके मेरी एक बात स्वीकार करो तो बड़ा अहसान मानूँगी।
कमलिनी––वह क्या?
नागर––इस समय तो मैं रोहतासगढ़ जाती हूँ, क्या जाने कब तक लौटना हो, मगर तुम पन्द्रह दिन के अन्दर मुझसे एक दफे जरूर मिलो।
कमलिनी––पन्द्रह दिन तक तो मैं इस प्रान्त में नहीं रह सकती, हाँ पाँच-सात दिन तक में यदि मुझसे मिल सको तो ठीक है।
नागर––शायद पाँच-सात दिन तक मेरा लौटना न हो।
कमलिनी––ऐसा नहीं हो सकता, तुम जिस समय पहुँचोगी और भूतनाथ के कागजात तेजसिंह को दिखाओगी उसी समय मनोरमा की छुट्टी हो जायगी। इसमें कुछ सन्देह नहीं कि तेजसिंह बात का बड़ा धनी है।
नागर––यदि ऐसा हो तो मैं अपने तेज घोड़े पर सवार होकर कल बखूबी रोहतासगढ़ पहुँच सकती हूँ।
कमलिनी––ऐसा करो तो तुम चार ही दिन में लौट आओगी। मैं भी कल या परसों मिर्जापुर से आ जाऊँगी और जब तक तुम न लौटोगी इसी मकान में टिकी रहूँगी क्योंकि मनोरमा ने पुनः मिलने के लिए मुझसे कसम खिला ली है। अस्तु, पाँच-चार दिन तक अपना हर्ज करके भी मनोरमा के लिए यहाँ अटकना आवश्यक है। नागर––बहुत अच्छी बात है। जब मनोरमा से वायदा कर चुकी हो तो मुझे विशेष कहने की कोई आवश्यकता नहीं।
कमलिनी––अच्छा तो आप अब मेरा एक काम करें।
नागर––कहिये।
कमलिनी––अपने किसी आदमी को भेज कर एक घोड़ा किराये का मँगवा दीजिए, जिस पर सवार होकर मैं मिर्जापुर जाऊँ, क्योंकि यद्यपि मैं ऐयार हूँ परन्तु रोहतासगढ़ से यहाँ तक तेजी के साथ आने के कारण बहुत सुस्त हो रही हूँ।
नागर––क्या मनोरमा के घर में घोड़ों की कमी है जो तुम्हारे लिए किराए का घोड़ा मँगवाया जाय।
इतना कह कर नागर चली गई। थोड़ी देर के बाद एक लौंडी आई जिसने कमलिनी को स्नान इत्यादि से छुट्टी पा लेने के लिए कहा। कमलिनी ने दो-एक जरूरी काम से तो छुट्टी पा ली, मगर स्नान करने से इन्कार किया और अपने बटुए से सामान निकाल कर चिट्ठी लिखने लगी।
घण्टे भर बाद सफर के सामान से लैस होकर कई लौंडियों को साथ लिए हुए नागर भी उसी जगह आ पहुँची जहाँ कमलिनी बैठाई गई थी। उस समय कमलिनी चिट्ठी लिख चुकी थी।
नागर––मैंने तुम्हारे पास इसलिए एक लौंडी भेजी थी कि तुम्हें नहला-धुला दे मगर तुमने...
कमलिनी––हाँ, मैंने स्नान नहीं किया क्योंकि इस समय अर्थात सूर्योदय के पहले स्नान करने की मेरी आदत नहीं। कहीं स्नान कर लूँगी, और कामों से छुट्टी पा चुकी हूँ।
नागर––खैर, कुछ मेवा खाकर जल पी लो।
कमलिनी––नहीं, इस समय माफ करो। हाँ, थोड़ा-सा मेवा साथ रख लूँगी जो सफर में काम आवेगा।
थोडी देर बाद दो घोड़े कसे-कसाये लाए गये, एक पर नागर और दूसरे पर कमलिनी सवार हुई। उस समय कमलिनी ने वह चिट्ठी जो अभी घण्टा-भर हुआ लिख कर तैयार की थी नागर के हाथ में दे दी और कहा, "इसे हिफाजत से रखो, मनोरमा को देकर मेरी तरफ से 'जय माया की' कहना।" वह चिट्ठी लिफाफे के अन्दर थी और जोड़ पर मोहर लगाई हुई थी।
बाग के बाहर निकल कर कमलिनी ने पश्चिम का रास्ता लिया और नागर पूरब की तरफ रवाना हुई।
- ↑ पाठकों को याद होगा कि कमलिनी की कमर में इस समय दो तिलिस्मी खंजर मौजूद हैं।