चन्द्रकांता सन्तति २/७.१

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चंद्रकांता संतति भाग 2  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

[ १२० ] [ १२१ ]समय नागर जा रही है, क्योंकि इधर से कई कोस का बचाव पड़ता था।

यकायक नागर का घोड़ा भड़का और रुक कर अपने दोनों कान आगे की तरफ करके देखने लगा। नागर शहसवारी का फन बखूबी जानती और अच्छी तरह समझती थी, इसलिए घोड़े के भड़कने और रुकने से उसे किसी तरह का रंज न हुआ बल्कि वह चौकन्नी हो गई और बड़े गौर-से चारों तरफ देखने लगी। अचानक सामने की तरफ पगडंडी के बीचोंबीच में बैठे हुए एक शेर पर उसकी निगाह पड़ी जिसका पिछला भाग नागर की तरफ था अर्थात् मुँह उस तरफ जिधर नागर जा रही थी। नागर बड़े गौर से शेर को देखने और सोचने लगी कि अब क्या करना चाहिए। अभी उसने कोई राय पक्की नहीं की थी कि दाहिनी बगल की झाड़ी में से एक आदमी निकल कर बढ़ा और फुर्ती के साथ धोड़े के पास आ पहँचा, जिसे देखते ही वह चौंक पड़ी और घबराहट के मारे बोल उठी, "ओफ, मुझे बड़ा भारी धोखा दिया गया!" साथ ही इसके वह अपना हाथ पथरकले पर ले गई, मगर उस आदमी ने इसे कुछ भी करने न दिया। उसने नागर का हाथ पकड़ कर अपनी तरफ खींचा और एक झटका ऐसा दिया कि वह घोड़े के नीचे आ रही। वह आदमी तुरन्त उसकी छाती पर सवार हो गया और उसके दोनों हाथ कब्जे में कर लिए।

यद्यपि नागर को विश्वास हो गया कि अब उसकी जान किसी तरह नहीं बच सकती तो भी उसने बड़ी दिलेरी से अपने दुश्मन की तरफ देखा और कहा––

नागर––बेशक, उस हरामजादी ने मुझे पूरा धोखा दिया, मगर भूतनाथ, तुम मुझे मार कर जरूर पछताओगे। वह कागज जिसके मिलने की उम्मीद में तुम मुझे मार रहे हो, तुम्हारे हाथ कभी न लगेगा क्योंकि मैं उसे अपने साथ नहीं लाई हूँ। यदि तुम्हें विश्वास न हो तो मेरी तलाशी ले लो, और बिना वह कागज पाए मेरे या मनोरमा के साथ बुराई करना तुम्हारे हक में ठीक नहीं है इसे तुम अच्छी तरह जानते हो।

भूतनाथ––अब मैं तुझे किसी तरह नहीं छोड़ सकता। मुझे विश्वास है कि वे कागजात, जिनके सबब से मैं तुझ ऐसी कमीनों की ताबेदारी करने पर मजबूर हो रहा हैं, इस समय जरूर तेरे पास हैं तथा इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि कमलिनी ने अपना वादा पूरा किया और कागजों के सहित तुझे मेरे हाथ फँसाया। अब तू मुझे धोखा नहीं दे सकती और न तलाशी लेने की नीयत से मैं तुझे कब्जे से छोड़ ही सकता हूँ। तेरा जमीन से उठना मेरे लिए काल हो जायगा क्योंकि फिर तू हाथ नहीं आवेगी।

नागर––(चौंककर और ताज्जुब से) हैं, तो क्या वह कम्बख्त कमलिनी थी, जिसने मुझे धोखा दिया! अफसोस, शिकार घर में आकर निकल गया। खैर, जो तेरे जी में आवे कर, यदि मेरे मारने में ही तेरी भलाई हो तो मार, मगर मेरी एक बात सुन ले।

भूतनाथ––अच्छा कह, क्या कहती है? थोड़ी देर तक ठहर जाने में मेरा कोई हर्ज भी नहीं।

नागर––इसमें तो कोई शक नहीं कि अपने कागजात, जिन्हें तेरा जीवन-चरित्र कहना चाहिए, उन्हें लेने के लिए ही तू मुझे मारना चाहता है। [ १२२ ]भूतनाथ––बेशक ऐसा ही है। यदि वह मुट्ठा मेरे हाथ का लिखा हुआ न होता तो मुझे उसकी परवाह न होती।

नागर––हाँ, ठीक है, परन्तु इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि मुझे मारकर तू वे कागजात न पावेगा। खैर, जब मैं इस दुनिया से जाती ही हूँ तो क्या जरूरत है कि तुझे भी बर्बाद करती जाऊँ? मैं तेरी लिखी चीजें खुशी से तेरे हवाले करती हूँ, मेरा दाहिना हाथ छोड़ दे, मैं तुझे बता दूँ कि मुझे मारने के बाद वे कागजात तुझे कहाँ से मिलेंगे।

भूतनाथ इतना डरपोक और कमजोर भी न था कि नागर का केवल दाहिना हाथ जिसमें हर्बे की किस्म से एक काँटा भी न था, छोड़ने से डर जाय, दूसरे उसने यह भी सोचा कि जब यह स्वयं ही कागजात देने को तैयार है तो क्यों न ले लिये जाय, कौन ठिकाना इसे मारने के बाद कागजात हाथ न लगें। थोड़ी देर तक कुछ सोच-विचार कर भूतनाथ ने नागर का दाहिना हाथ छोड़ दिया जिसके साथ ही उसने फुर्ती से वह हाथ भूतनाथ के गाल पर दबा कर फेरा। भूतनाथ को ऐसा मालूम हुआ कि नागर ने एक सूई उसके गाल में चुभो दी, मगर वास्तव में ऐसा न था। नागर की उँगली में एक अँगूठी थी, जिस पर नगीने की जगह स्याह रंग का कोई पत्थर जड़ा हुआ था, वही भूतनाथ के गाल में गड़ा, जिससे एक लकीर-सी पड़ गई और जरा खून भी दिखाई देने लगा। पर मालूम होता है कि वह नोकीला स्याह पत्थर, जो अँगूठी में जड़ा हुआ था, किसी प्रकार का जहर-हलाहल था, जो खून के साथ मिलते ही अपना काम कर गया क्योंकि उसने भूतनाथ को बात करने की मोहलत न दी। वह एकदम चक्कर खा कर जमीन पर गिर पड़ा और नागर उसके कब्जे से छूट कर अलग हो गई।

नागर ने घोड़े की बागडोर, जो चारजामे में बँधी हुई थी खोली और उसी से भूतनाथ के हाथ-पैर बाँधने के बाद एक पेड़ के साथ कस दिया, इसके बाद उसने अपने ऐयारी के बटुए में से एक शीशी निकाली, जिसमें किसी प्रकार का तेल था। उसने थोड़ा तेल उसमें से भूतनाथ के गाल पर उसी जगह जहाँ लकीर पड़ी हुई थी, मला। देखते-ही-देखते उस जगह एक बड़ा फफोला पड़ गया। नागर ने खंजर की नोक से उस फफोले में छेद कर दिया, जिससे उसके अन्दर का कुल जहरी पानी निकल गया और भूतनाथ होश में आ गया।

नागर––क्यों बे कम्बख्त, अपने किये की सजा पा चुका या कुछ कसर है? तूने देखा, मेरे पास कैसी अद्भुत चीज है। अगर हाथी भी हो तो इस जहर को बर्दाश्त न कर सके और मर जाय, तेरी क्या हकीकत है!

भूतनाथ––बेशक ऐसा ही है और अब मुझे निश्चय हो गया कि मेरी किस्मत में जरा भी सुख भोगना बदा नहीं है।

नागर––साथ ही इसके तुझे यह भी मालूम हो गया कि इस जहर को मैं सहज ही में उतार भी सकती हूँ। इसमें सन्देह नहीं कि तू मर चुका था, मगर मैंने इसलिए तुझे जिला दिया कि अपने लिखे हुए कागजों का हाल दुनिया में फैला हुआ तू स्वयम् देख और सून ले, क्योंकि उससे बढ़कर कोई दुःख तेरे लिए नहीं है, पर यह भी देख ले [ १२३ ]कि उस कम्बख्त कमलिनी के साथ मैंने क्या किया, जिसने मुझे धोखे में डाला था। इस समय वह मेरे कब्जे में है, क्योंकि कल वह मेरे घर में जरूर आकर टिकेगी! अहा, अब मैं समझ गई कि रात वाले अद्भुत मामले की जड़ भी वही है। जरूर ही इस मुर्दे शेर को रास्ते में तूने ही बैठाया होगा।

भूतनाथ––(आँखों में आँसू भरकर) अबकी दफे मुझे माफ करो, जो कुछ हुक्म दो, मैं करने को तैयार हूँ।

नागर––मैं अभी कह चुकी हूँ कि तुझे मारूँगी नहीं, फिर इतना क्यों डरता है?

भूतनाथ––नहीं-नहीं, मैं वैसी जिन्दगी नहीं चाहता, जैसी तुम देती हो, हाँ यदि इस बात का वादा करो कि वे कागजात किसी दूसरे को न दोगी तो मैं वे सब काम करने को तैयार हैं, जिन्हें पहले इनकार करता था।

नागर––मैं ऐसा कर सकती हूँ, क्योंकि आखिर तुझे जिन्दा छोड़ूँगी ही, और यदि मेरे काम से तू जी न चुरावेगा तो मैं तेरे कागजात भी बड़ी हिफाजत से रखूँगी। हाँ, खूब याद आया––उस चिट्ठी को तो जरा पढ़ना चाहिए जो उस कम्बख्त कमलिनी ने यह कहकर दी थी कि मुलाकात होने पर मनोरमा को दे देना।

यह सोचते ही नागर ने बटुए में से वह चिट्ठी निकाली और पढ़ने लगी। यह लिखा हुआ था––

"जिस काम के लिए मैं आई थी, ईश्वर की कृपा से वह काम बखूबी हो गया। वे कागजात इसके पास हैं, ले लेना। दुनिया में यह बात मशहूर है कि उस आदमी का जहान से उठ जाना ही अच्छा है, जिससे भलों को कष्ट पहुँचे। मैं तुमसे मिलने के लिए यहाँ बैठी हूँ।"

नागर––देखो नालायक ने चिट्ठी भी लिखी तो ऐसे ढंग से कि यदि मैं चोरी से पढ़ भी तो किसी तरह का शक न हो और इसका पता भी न लगे कि यह भूतनाथ के नाम लिखें गई है या मनोरमा के, स्त्रीलिंग और पुलिंग को भी बचा ले गई है। उसने यही सोच के चिट्ठी मुझे दी होगी कि जब यह भूतनाथ के कब्जे में आ जायगी, और वह इसकी तलाशी लेगा तो यह चिट्ठी उसके हाथ लग जायगी, और जब वह पढ़ेगा तो नागर को अवश्य मार डालेगा, और फिर तुरत आकर मुझसे मिलेगा, जिसमें वह किशोरी को छुड़ा ले। अच्छा कम्बख्त, देख, मैं तेरे साथ क्या सलूक करती हूँ।

भूतनाथ––अच्छा, इतना वादा तो मैं कर ही चुका हूँ कि हर तरह से तुम्हारी ताबेदारी करूँगा और जो कुछ तुम कहोगी, बेउज्र बजा लाऊँगा, अब इस समय मैं तुम्हें एक भेद की बात बताता हूँ, जिसे जानकर तुम बहुत प्रसन्न होओगी।

नागर––कहो, क्या कहते हो? शायद तुम्हारी नेकचलनी का सबूत यहीं मिल जाय।

भूतनाथ––मेरे हाथ तो बँधे हैं, खैर, तुम ही आओ मेरी कमर से खंजर निकालो। उसके साथ एक पुर्जा बँधा है, खोलकर पढ़ो और देखो, क्या लिखा है?

नागर भूतनाथ के पास गई और उसकी कमर से खंजर निकालना चाहा, मगर खंजर पर हाथ पड़ते ही उसके बदन में बिजली दौड़ गई और वह काँप कर जमीन पर [ १२४ ]गिरते ही बेहोश हो गई। भूतनाथ पुकार उठा––"वह मारा!" उस तिलिस्मी खंजर का हाल जो कमलिनी ने भूतनाथ को दिया था, पाठक बखूबी जानते ही हैं, कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं। इस समय वही खंजर भूतनाथ की कमर में था। उसकी तासीर से नागर बिल्कुल बेखबर थी। वह नहीं जानती थी कि जिसके पास उसके जोड़ की अँगूठी न हो, वह उस खंजर को छू नहीं सकता।

अब भूतनाथ का जी ठिकाने हुआ, और वह अपने छूटने का उद्योग करने लगा, परन्तु हाथ-पैर बँधे रहने के कारण कुछ न कर सका। आखिर वह जोर-जोर से चिल्लाने लगा, जिससे किसी आते-जाते मुसाफिर के कान में आवाज पड़े तो वह आकर उसको छुड़ावे।

दो घण्टे बीत गए, मगर किसी मुसाफिर के कान में भूतनाथ की आवाज न पड़ी और तब तक नागर भी होश में आकर उठ बैठी।