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चन्द्रकांता सन्तति २/७.४

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चंद्रकांता संतति भाग 2
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ १५९ से – १६३ तक

 

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शाम का वक्त है। सूर्य भगवान अस्त हो चुके हैं तथापि पश्चिम तरफ आसमान पर कुछ-कुछ लाली अभी तक दिखाई दे रही है। ठण्डी हवा मन्द गति से चल रही है। गरमी तो नहीं मालूम होती लेकिन इस समय की हवा बदन में कँपकँपी भी पैदा नहीं कर सकती। हम इस समय आपको एक ऐसे मैदान की तरफ ध्यान देने के लिए कहते हैं, जिसकी लम्बाई और चौड़ाई का अन्दाज करना कठिन है। जिधर निगाह दौड़ाइये, सन्नाटा नजर आता है। कोई पेड़ भी ऐसा नहीं है, जिसके पीछे या जिस पर चढ़ कर कोई आदमी अपने को छिपा सके। हाँ, पूरब तरफ निगाह कुछ ठोकर खाती है और एक धुँधली चीज को देख कर गौर करने वाला कह सकता है कि उस तरफ शायद कोई छोटी-सी पहाड़ी या पुराने जमाने का कोई ऊँचा टीला है।

ऐसे मैदान में तीन औरतें घोड़ियों पर सवार धीरे-धीरे उसी तरफ जा रही हैं, जिधर उस टीले या छोटी पहाड़ी की स्याही मालूम हो रही है। यद्यपि उन औरतों की पोशाक जनाना वजः की है। मगर, फिर भी चुस्त और दक्षिणी ढंग की है। तीनों के चेहरे पर नकाब पड़ी हुई है, तथापि वदन की सुडौली और कलाई तथा नाजुक उँगलियों पर ध्यान देने से देखने वाले के दिल में यह बात जरूर पैदा होगी कि ये तीनों ही नाजुक नौजवान और खूबसुरत हैं। इन औरतों के विषय में हम अपने पाठकों को ज्यादा देर तक खटके में न डाल कर इसी समय इनका परिचय दे देना उत्तम समझते हैं। वह देखिये ऊँची और मुश्की घोड़ी पर जो सवार है, वह मायारानी है। चोगर आँखों वाली सफेद पचकल्यान घोड़ी पर जो पटरी जमाये है, वह उसकी छोटी बहिन लाड़िली है, जिसे अभी तक हम रामभोली के नाम से लिखते चले आये हैं, और सब्जी घोड़ी पर सवार चारों तरफ निगाह दौड़ा-दौड़ा कर देखने वाली धनपत है। ये तीनों आपस में धीरे-धीरे बातें करती जा रही हैं। लीजिए तीनों ने अपने चेहरों पर से नकाबें उलट दीं, अब हमें तीनों की बातों पर ध्यान देना उचित है।

मायारानी––न मालूम चण्डूल कम्बख्त तीसरे नम्बर के बाग में क्योंकर जा पहुँचा! इसमें तो कुछ सन्देह नहीं कि जिस राह से हम लोग आते-जाते हैं उस राह से वह नहीं गया था।

लाड़िली––तिलिस्म बनाने वालों ने वहाँ पहुँचने के लिए कई रास्ते बनाए हैं, शायद उन्हीं रास्तों में से कोई रास्ता उसे मालूम हो गया हो।

धनपति––मगर उन रास्तों का हाल किसी दूसरे को मालूम हो जाना तो बड़ी भयानक बात है।

मायारानी––और यह एक ताज्जुब की बात है कि उन रास्तों का हाल जब मुझको जो तिलिस्म की रानी कहलाती है, नहीं मालूम तो किसी दूसरे को कैसे मालूम हुआ!

लाड़िली––ठीक है, तिलिस्म की बहुत-सी बातें ऐसी हैं, जो तुम्हें मालूम हैं। मगर नियमानुसार तुम मुझसे भी नहीं कह सकती हो। हाँ, उन रास्तों का हाल जीजाजी[] को जरूर मालूम था। अफसोस, उन्हें मरे पाँच वर्ष हो गये, अगर जीते होते तो...

मायारानी––(कुछ घबरा कर और जल्दी से) तुम कैसे जानती हो कि उन रास्तों का हाल उन्हें मालूम था?

लाड़िली––हँसी-हँसी में उन्होंने एक दिन मुझसे कहा था कि बाग के तीसरे दर्जे में जाने के लिए पाँच रास्ते हैं, बल्कि वे मुझे अपने साथ वहाँ ले चल कर नया रास्ता दिखाने को तैयार भी थे मगर मैं तुम्हारे डर से उनके साथ न गई।

मायारानी––आज तक तूने यह हाल मुझसे क्यों न कहा?

लाड़िली––मेरी समझ में यह कोई जरूरी बात न थी जो तुमसे कहती।

लाड़िली की बात सुन मायारानी चुप हो गई और बड़े गौर में पड़ गई। उसकी अवस्था और उसकी सूरत पर ध्यान देने से मालूम होता था कि लाड़िली की बात से उसके दिल पर एक सख्त सदमा पहुँचा है और वह थोड़ी देर के लिए अपने को बिल्कुल ही भूल गई है। मायारानी की ऐसी अवस्था क्यों हो गई और इस मामूली-सी बात से उसके दिल पर क्यों चोट लगी इसका सबब उसकी छोटी बहिन लाड़िली भी न समझ सकी। कदाचित् यह कहा जाय कि वह अपने पति को याद करके इस अवस्था में पड़ गई, सो भी नहीं हो सकता। क्योंकि लाड़िली खूब जानती थी कि मायारानी अपने खूबसूरत, हँसमुख और नेक चाल-चलन वाले पति को कुछ भी नहीं चाहती थी। इस समय लाड़िली के दिल में एक तरह का खटका पैदा हुआ और शक की निगाह से मायारानी की तरफ देखने लगी। मगर मायारानी कुछ भी नहीं जानती थी कि उसकी छोटी बहिन उसे किस निगाह देख रही है। लगभग दो सौ कदम चले जाने बाद वह चौंकी और लाड़िली की तरफ जरा-सा मुँह फेर कर बोली, "हाँ, तो वह उन रास्तों का हाल जानता था?"

लाड़िली के दिल में और भी खुटका पैदा हुआ बल्कि इस बात का रंज हुआ कि मायारानी ने अपने पति या लाड़िली के प्यारे बहनोई की तरफ ऐसे शब्दों में इशारा किया जो किसी नीच या खिदमतगार तथा नौकर के लिए बरता जाता है। लाड़िली का ध्यान धनपत की तरफ भी गया जिसके चेहरे पर उदासी और रंज की निशानी मामूली से कुछ ज्यादा पाई जाती थी और जिसकी घोड़ी भी पाँच-सात कदम पीछे रह गई थी। मगर मायारानी और धनपत की ऐसी अवस्था ज्यादा देर तक न रही, उन दोनों ने बहुत जल्द अपने का सम्हाला और फिर मामूली तौर पर बातचीत करने लगीं।

धनपति––अब वह टीला भी आ पहुँचा। देखा चाहिए बाबाजी से मुलाकात होती है या नहीं!

मायारानी––मुलाकात अवश्य होगी क्योंकि वे कहीं नहीं जाते मगर अब मेरा जी नहीं चाहता कि वहाँ तक जाऊँ या उनसे मिलूँ।

लाड़िली––सो क्यों! तुम तो बड़े उत्साह से उनसे मिलने के लिए आई हो!

माया––ठीक है, मगर अब जो मैं सोचती हूँ तो यही जान पड़ता है कि बेचारे बाबाजी इन सब बातों का जवाब कुछ भी न दे सकेंगे।

लाड़िली––खैर, जब इतनी दूर आ चुकी हो तो अब लौट चलना भी उचित नहीं।

माया––नहीं, अब मैं वहाँ न जाऊँगी!

इतना कहकर मायारानी ने घोड़ा फेरा, लाचार होकर लाड़िली और धनपत को भी घूमना पड़ा, मगर इस कार्रवाई से लाड़िली के दिल का शक और भी ज्यादा हुआ और उसे निश्चय हो गया कि मेरी बात से मायारानी के दिल पर गहरी चोट बैठी है मगर ठीक इसका सबब क्या है सो कुछ भी नहीं मालूम होता।

मायारानी ने जैसे ही घोड़े की बाग फेरी, वैसे ही उसकी निगाह तेजसिंह पर पड़ी जो तीर और कमान हाथ में लिए बहुत दूर से कदम बढ़ाए इन तीनों के पीछे-पीछे आ रहे थे। मायारानी तेजसिंह को अच्छी तरह से जानती थी। यद्यपि इस समय कुछ अँधेरा हो गया था परन्तु मायारानी की तेज निगाहों ने तेजसिंह को तुरन्त ही पहचान लिया और इसके साथ ही वह तलवार खींच कर तेजसिंह पर झपटी।

मायारानी को नंगी तलवार लिए झपटते देख तेजसिंह ने ललकार के कहा, "खबरदार, आगे न बढ़ना, नहीं तो एक ही तीर में काम तमाम कर दूँगा!"

तेजसिंह के ललकारने से मायारानी रुक गई मगर धनपत से न रहा गया। वह तलवार खींच कर यह कहती हुई आगे बढ़ी, "मैं तेरे तीर से डरने वाली नहीं!"

तेजसिंह––मालूम होता है तुझे अपनी जान प्यारी नहीं है, इसे खूब समझ लेना कि तेजसिंह के हाथ से छूटा तीर खाली न जायगा।

धनपत––मालूम होता है कि तू केवल एक तीर ही से हम तीनों को डरा कर अपना काम निकालना चाहता है। अफसोस, इस समय मेरे पास तीर-कमान नहीं है, यदि होता तो तुझे जान पड़ता कि तीर चलाना किसे कहते हैं?

तेजसिंह––(हँसकर) न मालूम तूने औरत होने पर भी अपने को क्या समझ रक्खा है? खैर, अब मैं एक कमसिन औरत पर तीर न चलाऊँगा।

इतना कहकर तेजसिंह ने तीर तरकस में रख लिया तथा कमान बगल में लटकाने के बाद ऐयारी के बटुए में से एक छोटा-सा लोहे का गोला निकालकर सामने खड़े हो गये और धनपति को वह गोला दिखाकर बोले, "तुम लोगों के लिए यही बहुत है, मगर मैं फिर कहे देता हूँ कि मुझ पर तलवार चलाकर भलाई की आशा मत रखना!" धनपत––(मायारानी की तरफ करके) क्या तू जानता नहीं कि यह कौन हैं?

तेजसिंह––मैं तुम तीनों को खूब जानता हूँ और यह भी जानता हूँ कि मायारानी सैंतालीस नम्बर की कोठरी को पवित्र करके बेवा हो गई और इस बात को पाँच वर्ष का जमाना हो गया।

इतना कहकर मुस्कुराते हुए तेजसिंह ने एक भेद की निगाह मायारानी पर डाली और देखा कि मायारानी का चेहरा पीला पड़ गया और शर्म से उसकी आँखें नीचे की तरफ झुकने लगीं। मगर यह अवस्था उसकी बहुत देर तक न रही, तेजसिंह के मुँह से बात निकलने के बाद जैसे ही लाड़िली की ताज्जुब-भरी निगाह मायारानी पर पड़ी वैसे ही मायारानी ने अपने को सम्हाल कर धनपत की तरफ देखा।

अब धनपत अपने को रोक न सकी, उसने घोड़ी बढ़ाकर तेजसिंह पर तलवार का वार किया। तेजसिंह ने फुर्ती से वार खाली देकर अपने को बचा लिया और वही लोहे का गोला धनपति की घोड़ी के सिर में इस जोर से मारा कि वह सम्हल न सकी और सर हिलाकर जमीन पर गिर पड़ी। लोहे का गोला छिटककर दूर जा गिरा और तेजसिंह ने लपक कर उसे उठा लिया।

आशा थी कि घोड़ी के गिरने से धनपति को भी कुछ चोट लगेगी मगर वह घोड़ी पर से उछल कुछ दूर जा रही और बड़ी चालाकी से गिरते-गिरते उसने अपने को बचा लिया। तेजसिंह फिर वही गोला लेकर सामने खड़े हो गए।

तेजसिंह––(गोला दिखाकर) इस गोले की करामात देखी? अगर अबकी फिर वार करने का इरादा करेगो तो यह गोला तेरे घुटने पर बैठेगा और तुझे लँगड़ी होकर मायारानी का साथ देना पड़ेगा। मैं यह नहीं चाहता कि तुम लोगों को इस समय जान से मारूँ मगर हाँ इस जिस काम के लिए आया हूँ, उसे किए बिना लौट जाना भी मुनासिब नहीं समझता।

मायारानी––अच्छा बताओ, तुम हम लोगों के पीछे-पीछे क्यों आए हो और क्या चाहते हो?

तेजसिंह––(लाड़िली की तरफ इशारा करके) केवल इनसे एक बात कहनी है और कुछ नहीं।

लाड़िली––कहो, क्या कहते हो?

तेजसिंह––मैं इस तरह नहीं कहना चाहता कि तुम्हारे सिवाय कोई दूसरा सुने, इन दोनों से अलग होकर सुन लो फिर मैं चला जाऊँगा। डरो मत, मैं दगाबाज नहीं हूँ, यदि चाहूँ तो ललकार कर तुम तीनों को यमलोक पहुँचा सकता हूँ, मगर नहीं, तुमसे केवल एक बात कहने के लिए आया हूँ जिसके सुनने का अधिकार सिवाय तुम्हारे और किसी को नहीं है।

कुछ सोचकर लाड़िली वहाँ से हट गई और कुछ दूर जाकर तेजसिंह की तरफ देखने लगी मानो वह तेजसिंह की बात सुनने के लिए तैयार हो। तेजसिंह लाड़िली के पास गए और बटुए में से एक चिट्ठी निकाल उसके हाथ में देकर बोले, "इसे जल्द पढ़ लो, देखो, मायारानी को इसका हाल न मालूम हो!" लाड़िली ने बड़े गौर से वह चिट्ठी पढ़ी और इसके बाद टुकड़े-टुकड़े कर फेंक दी।

तेजसिंह––इसका जवाब?

लाड़िली––केवल इतना ही कह देना कि 'बहुत अच्छा!'

अब तेजसिंह को ठहरने की कोई जरूरत न थी। उन्होंने उत्तर का रास्ता लिया, मगर घूम-घूमकर देखते जाते थे कि पीछे कोई आता तो नहीं। तेजसिंह के जाने के बाद मायारानी ने लाड़िली से पूछा, "वह चिट्ठी किसकी थी और उसमें क्या लिखा था!" लाड़िली ने असल भेद तो छिपा रक्खा, मगर कोई विचित्र बात गढ़कर उस समय मायारानी की दिलजमई कर दी।

  1. जीजाजी से मतलब मायारानी के पति से है जो लाड़िली का बहनोई था।