चन्द्रकांता सन्तति २/७.६

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चंद्रकांता संतति भाग 2  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

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मायारानी का डेरा अभी तक खास बाग (तिलिस्मी बाग) में है। रात आधी से ज्यादा जा चुकी है, चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है। पहरे वालों के सिवाय सभी को निद्रादेवी ने बेहोश करके डाल रक्खा है, मगर उस बाग में दो औरतों की आँखों में नीद का नाम-निशान भी नहीं। एक तो मायारानी की छोटी बहिन लाड़िली, जो अपने सोने वाले कमरे में मसहरी के ऊपर पड़ी कुछ सोच रही है और थोड़ी-थोड़ी देर पर उठकर बाहर निकलती और सन्नाटे की तरफ ध्यान देकर लौट जाती है, मालूम होता है कि वह मकान से बाहर जाकर किसी से मिलने का मौका ढूँढ़ रही है और दूसरी मायारानी [ १६६ ]जो निद्रा न आने के कारण अपने कमरे में टहल रही है। उसे भी तरह-तरह के खयालों ने सता रक्खा है। कभी-कभी उसका सिर हिल जाता है जो उसके दिल की परेशानी को पूरी तरह से छिपा रहने नहीं देता, उसके होंठ भी कभी-कभी अलग होकर दिल का दरवाजा खोल देते हैं जिससे दिल के अन्दर कैद रहने वाले कई भेद शब्द रूप होकर धीरे से बाहर निकल पड़ते हैं।

जब चारों तरफ अच्छी तरह सन्नाटा हो गया तो लाड़िली ने काले कपड़े पहने और ऐयारी का बटुआ कमर में लगाने के बाद कमरे के बाहर निकल कर इधर-उधर टहलना शुरू किया। वह उस कमरे के पास आई जिसके अन्दर मायारानी तरद्दुद और घबराहट से निद्रा न आने के कारण टहल रही थी। लाड़िली छिपकर देखने लगी कि मायारानी क्या कर रही है। थोड़ी देर के बाद मायारानी के मुँह से निकले हुए शब्द लाड़िली ने सुने और वे शब्द ये थे––"वह इस रास्ते को जानता है...वह भेद जिसे लाड़िली नहीं जानती––आह, धनपत को मुहब्बत ने––"

इन शब्दों को सुनकर लाड़िली घबरा गई और बेचैनी से अपने कमरे में लौट आने के लिए तैयार हुई, मगर उसके दिल ने उसे वहाँ से लौटने न दिया। इच्छा हुई कि मायारानी के मुँह से और भी कोई शब्द निकलें तो सुने, परन्तु इसके बाद मायारानी कुछ ज्यादा बेचैन मालूम हुई और अपनी मसहरी पर जाकर लेट रही। आधी घड़ी से ज्यादा न बीती थी कि मायारानी की साँस ने लाड़िली को उसके सो जाने की खबर दी और लाड़िली वहाँ से लौट कर बाग में टहलने लगी। फिर घूमती-फिरती और अपने को पेड़ों की आड़ में बचाती हुई वह बाग के पिछले कोने में पहुँची जहाँ एक छोटा-सा मगर मजबूत बुर्ज बना था। इसके अन्दर जाने के लिए छोटा-सा लोहे का दरवाजा था जिसे उसने धीरे से खोला और अन्दर जाने के बाद फिर बन्द कर लिया। भीतर बिल्कुल अँधेरा था। बटुए में से सामान निकाल कर मोमबत्ती जलाई और उस कोठरी की हालत अच्छी तरह देखने लगी। यह बुर्ज वाली कोठरी वर्षों से ही बन्द थी और इस सबब से इसके अन्दर मकड़ों ने अच्छी तरह अपना घर बना लिया था, मगर लाड़िली ने इस कोठरी की गन्दी हालत पर कुछ ध्यान न दिया। इस कोठरी की जमीन चौखूटे पत्थरों से बनी हुई थी और छत में छोटे-छोटे दो-तीन सूराख थे जिनमें से आसमान में जड़े हुए तारे दिखाई दे रहे थे। पहले तो लाड़िली इस विचार में पड़ी कि बहुत दिनों से बन्द रहने के कारण इस कोठरी की हवा खराब होकर जहरीली हो गई होगी, शायद किसी तरह का नुकसान पहुँचे, मगर छत के सूराखों को देख निश्चिन्त हो गई और मोमबत्ती एक किनारे जमा कर जमीन पर बैठ गई। आधी घड़ी तक सोच विचार में पड़ी रही, इसके बाद हलकी आवाज के साथ कोने की तरफ जमीन का एक चौखूँटा पत्थर किवाड़ के पल्ले की तरह खुल कर अलग हो गया और नीचे से अपनी असली सूरत में कमलिनी निकल कर लाड़िली के सामने खड़ी हो गई। कमलिनी को देखते ही लाड़िली उठ खड़ी हुई और बड़ी मुहब्बत से उसके साथ लिपट कर रोने लगी तथा कमलिनी की आँखें भी आँसु की बूँदें गिराने लगीं, कुछ देर बाद दोनों अलग हुई और जमीन पर बैठकर बात- चीत करने लगी। [ १६७ ]लाड़िली––मेरी प्यारी बहिन, इस समय मेरी खुशी का अन्दाजा कोई भी नहीं कर सकता। मुझे तो इस बात का बड़ा ही रंज था कि तुमने मुझे अपने दिल से भुला दिया जिसकी आशा कदापि न थी, मगर आज शाम को तुम्हारे हाथ की लिखी हुई उस चिट्ठी ने मुझमें जान डाल दी जो तेजसिंह के हाथ मुझ तक पहुँचाई गई थी।

कमलिनी––नहीं-नहीं, अभी तक मैं तुझे उतना ही प्यार करती हूँ जितना यहाँ रहने पर करती थी परन्तु इस समय आशा कम थी कि मेरे लिखे अनुसार यहाँ आकर तू मुझसे मिलेगी, क्योंकि बड़ी बहिन मायारानी मेरी जान की ग्राहक हो रही है और तू पूरी तरह उसके कब्जे में है।

लाड़िली––प्यारी बहिन, चाहे मायारानी का दिल तुम्हारी दुश्मनी से भरा हुआ क्यों न हो मगर मेरा दिल तुम्हारी मुहब्बत से किसी तरह खाली नहीं हो सकता। तुम्हारी चिट्ठी पाते ही मैं बेचैन हो गई और हजारों आफतों की तरफ ध्यान न देकर बेखटके यहाँ चली आई। क्या अब भी तुम्हें...

कमलिनी––हाँ-हाँ मुझे विश्वास है और मैं खूब जानती हूँ कि अगर तेरे दिल में मेरी मुहब्बत न होती तो तू मेरे लिखने पर यकायक यहाँ न आती।

लाड़िली––मुझे इस बात की शिकायत करने का मौका आज मिला कि तुमने इस घर को तिलांजलि देते समय अपने इरादे से मुझे बेखबर रक्खा।

कमलिनी––तो क्या मेरा इरादा जानने पर तू मेरा साथ देती?

लाड़िली––(जोर देकर) जरूर साथ देती! हाय, यहाँ रह कर जैसी तकलीफ में दिन काट रही हूँ वह मेरा ही जी जान रहा है। ऐसे-ऐसे भयानक काम मुझसे लिए जाते हैं कि जिसे मैं मुख्तसिर में कह नहीं सकती, लाचार होकर और झख मारकर सब कुछ करना पड़ता है क्योंकि इस बात को मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि मायारानी के गुस्से में पड़ कर मैं अपनी जान भारत वर्ष के किसी घने जंगल में छिपकर भी नहीं बचा सकती।

कमलिनी––इसका सबब यही है कि तू तिलिस्मी हाल से बिल्कुल बेखबर और भोली है, बल्कि वास्तव में रामभोली है।

लाड़िली––(चौंककर) क्या तुम जानती हो कि मैं रामभोली बनने पर लाचार की गई थी?

कमलिनी––मुझे अच्छी तरह मालूम है, अभी तक नानक मेरे साथ रहकर मेरा काम कर रहा है।

लाड़िली––हाय, जब वह तुम्हारे साथ है तो जरूर एक दिन सामना होगा।

उस समय शर्म से मेरी आँखें ऊँची न होंगी, उस बेचारे के साथ मैंने बड़ी बुराई की।

कमलिनी––लेकिन मैं खूब जानती हूँ कि इसमें तेरा कोई कसूर नहीं। खैर इस बात को जाने दे, मुझे तेरी मुहब्बत यहाँ तक खींच लाई है, मैं इस समय यह पूछने आई हूँ कि अब तेरा क्या इरादा है क्योंकि इस तिलिस्म की उम्र अब तमाम हो गई और मायारानी अपने बुरे कर्मों का फल भोगा ही चाहती है।

लाड़िली––(हाथ जोड़ कर) मैं यही चाहती हूँ कि तुम मुझे अपने साथ रक्खो [ १६८ ]जिसमें मायारानी का मुँह देखना नसीब न हो। मैं जानती हूँ कि यह तिलिस्म अब टूटा ही चाहता है क्योंकि इधर थोड़े दिनों से बड़ी-बड़ी अद्भुत बातें देखने में आ रही हैं जिनसे खुद मायारानी की अक्ल चक्कर में है, मगर शक है तो इतना ही कि तिलिस्म तोड़ने वाले कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह इस समय मायारानी के कैदी हो रहे हैं और कल उन दोनों का सिर जरूर काटा जायगा।

कमलिनी––यह बात मुझे भी मालूम है मगर सवेरा होने के पहले ही मैं उन दोनों को छुड़ा कर ले जाऊँगी।

लाड़िली––यदि ऐसा हो तो क्या बात है! वे दोनों कैसे नेक और खूबसूरत हैं। जिस समय मैंने आनन्दसिंह को देखा...

इतना कह लाड़िली चुप हो रही, उसकी आँखें नीची हो गईं और उसके गालों पर शर्म की सुर्खी दौड़ गई। कमलिनी समझ गई कि यह आनन्दसिंह को चाहती है।

कमलिनी––मगर उन दोनों को छुड़ाने के लिए कुछ तुमसे भी मदद चाहती हूँ।

लाड़िली––तुम्हारी आज्ञा मानने के लिए मैं हर तरह से तैयार हूँ।

कमलिनी––तू बस कैदखाने की ताली मुझे ला दे जिसमें दोनों कुमार कैद हैं।

लाड़िली––मैं उद्योग कर सकती हूँ, मगर वह तो हरदम मायारानी की कमर में रहती है!

कगलिनी––उसके लेने की सहज तरकीब मैं बताती हूँ। लाड़िली-क्या?

कमलिनी––(कमर से तिलिस्मी खंजर निकाल और दिखाकर) यह तिलिस्म की सौगात है, हाथ में लेकर जब इसका कब्जा दबाया जायगा तो बिजली की सी चमक पैदा होगी जिसके सामने किसी की आँख खुली नहीं रह सकती। इसके अतिरिक्त इस में और भी दो गुण हैं, एक तो यह कि जिसके बदन से यह लगा दिया जाय उसके बदन में बिजली दौड जाती है और वह तुरत बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ता है, और दूसरे यह हर एक चीज को काट डालने की ताकत रखता है।

कमलिनी ने खंजर का कब्जा दबाया। उसमें से ऐसी चमक पैदा हई कि लाडिली ने दोनों हाथों से आँखें बन्द कर ली और कहा, "बस-बस इस चमक को दूर करो तो आँखें खोलूँ!"

कमलिनी––(कब्जा ढीला करके) लो चमक बन्द हो गई, आँखें खोलो।

लाडिली––(आँखें खोलकर) मेरे हाथ में दो तो मैं भी कब्जा दबा कर देखें! मगर नहीं तुम तो कह चुकी हो कि यह जिसके बदन से छुआया जायगा वह बेहोश हो जायगा, तो मैं इसे कैसे ले सकूँगी और तुम पर इसका असर क्यों नहीं होता?

हम ऊपर लिख आए हैं कि कमलिनी की कमर में दो तिलिस्मी खंजर थे और उनके जोड़ की दो अँगठियाँ भी उसकी उँगलियों में थीं। उसने एक अँगूठी लाडिली की उँगली में पहिना कर उसका गुण अच्छी तरह समझा दिया और कह दिया कि जिसके हाथ में यह अँगूठी रहेगी केवल वही इस खंजर को अपने पास रख सकेगा।

लाडिली––जब ऐमी चीज तुम्हारे पास है तो वह ताली तुम स्वयं उससे ले [ १६९ ]सकती हो।

कमलिनी––हाँ, मैं यह काम खुद भी कर सकती हूँ मगर ताज्जुब नहीं कि मायारानी के कमरे तक जाते मुझे कोई देख ले और गुल करे तो मुश्किल होगी। यद्यपि मेरा कोई कुछ कर नहीं सकता और मैं इस खंजर की बदौलत सैकड़ों को मार कर निकल जा सकती हूँ, मगर जहाँ तक बिना खून-खराबा किए काम निकल जाय तो उत्तम ही है।

लाड़िली––हाँ ठीक है, तो अब विलम्ब न करना चाहिए।

कमलिनी––तो फिर जा, मैं इसी जगह बैठी तेरी राह देखूँगी!

खंजर के जोड़ की अँगूठी हाथ में पहनने वाद लाड़िली ने तिलिस्मी खंजर ले लिया और बुर्ज का दरवाजा खोल यहाँ से रवाना हुई। कमलिनी को आधे घंटे से ज्यादे राह न देखनी पड़ी, इसके भीतर ही ताली लिए हुए लाड़िली आ पहुँची और अपनी बड़ी बहिन के सामने ताली रख कर बोली, "इस ताली के लेने में कुछ भी कठिनाई न हुई। मुझे किसी ने भी न देखा। चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था, मायारानी बेखबर सो रही थी, ताली लेते समय वह जाग न उठे इससे यह लिलिस्मी खंजर एक दफे उस के बदन से लगा देना पड़ा, बस तुरत ही उसका बदन काँप उठा मगर वह आँखें न खोल सको, मुझे विश्वास हो गया कि वह बेहोश हो गई। बस मैं ताली लेकर चली आई, मगर अब यहाँ ठहरना उचित नहीं।

कमलिनी––हाँ, अब यहाँ से चलना और उन कैदियों को छुड़ाना चाहिए।

लाडिली––मगर उन कैदियों को छुड़ाने के लिए तुमको इसी बाग की राह से कैदखाने तक जाना होगा!

कमलिनी––नहीं, वहाँ जाने के लिए दूसरी राह भी है जिसे मैं जानती हूँ।

लाडिली––(ताज्जुब से कमलिनी का मुँह देख के) जीजाजी यहाँ के बहत से रास्तों और सुरंगों तथा तहखानों को जानते थे, मालूम होता है तुमने उन्हीं से इसका हाल जाना होगा?

कमलिनी––नहीं, यहाँ की बहुत सी बातें किसी दूसरे ही सबब से मुझे मालम हुई जिसे सुनकर तू बहुत ही खुश होगी, हाँ यदि जीजाजी हम लोगों से जदा न कि जाते तो यहाँ की अजीब बातों के देखने का आनन्द मिलता। मायारानी को भी यहाँ के भेद अच्छी तरह मालूम नहीं हैं

लाड़िली––जीजाजी हम लोगों से जुदा किये गये इसका मतलब मैं नहीं समझी।

कमलिनी––क्या तू समझती है कि गोपालसिंहजी (माया रानी के पति) अपनी मौत से मरे?

लाडिली––(कुछ सोचकर) मुझे तो यही विश्वास है कि उन्हें जहर दिया गया मैंने स्वयं देखा कि मरने पर उनका रंग काला हो गया था और चेहरा ऐसा बिगड़ गया कि मैं पहचान न सकी। हाय, हम दोनों बहिनों पर उनकी बड़ी कृपा रहती थी। थी!

कमलिनी––उनकी कृपा किस पर नहीं रहती थी! (कुछ सोचकर) खैर आज मैं तुझे इस बाग के चौथे दर्जे में ले चल कर एक तमाशा दिखलाऊँगी। [ १७० ]लाड़िली––(ताज्जुब से) क्या चौथे दर्जे में तुम जा सकती हो?

कमलिनी––हाँ, मैं यहाँ के बहुत से भेदों को जान गई हूँ और सब जगह घूम फिर सकती हूँ।

लाड़िली––अहा, अब तो मैं जरूर चलूँगी! जीजाजी अक्सर कहा करते थे कि इस बाग के चौथे दर्जे में अगर कोई जाय तो उसे मालूम हो कि दुनिया क्या चीज है और ईश्वर की सृष्टि में कैसी विचित्रता दिखाई दे सकती है।

कमलिनी––अच्छा, अब चलकर पहले कैदियों को छुड़ाना चाहिए।

इतना कह कर कमलिनी उठी और मोमबत्ती हाथ में लिए हुए उस सुरंग के मुहाने पर गई जिसका मुँह चौखूँटे पत्थर के हट जाने से खुल गया था और जिसमें से वह कुछ ही देर पहले निकली थी। नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ मौजूद थीं, दोनों बहिनें नीचे उतर गईं। आखिरी सीढ़ी पर पहुँचने के साथ ही वह चौखूँटा पत्थर एक हलकी आवाज के साथ अपने ठिकाने पहुँच गया और उस सुरंग का मुँह बन्द हो गया।