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चन्द्रकांता सन्तति २/८.१०

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चंद्रकांता संतति भाग 2
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ २१९ से – २२२ तक

 

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दूसरे दिन आधी रात जाते-जाते भूतनाथ फिर उसी मकान में नागर के पास पहुँचा। इस समय नागर आराम से सोई न थी बल्कि न मालूम किस धुन और फिक्र में मकान की पिछली तरह नजरबाग में टहल रही थी। भूतनाथ को देखते ही वह हँसती हुई पास आई और बोली।

नागर––कहो, कुछ काम हुआ?

भूतनाथ––काम तो बखूबी हो गया, उन दोनों से मुलाकात भी हुई और जो कुछ मैंने कहा दोनों ने मंजूर भी किया। कमलिनी की चिट्ठी जब मैंने गोपालसिंह के हाथ में दी तो वे पढ़ कर बहुत खुश हुए और बोले, "कमलिनी ने जो कुछ लिखा है मैं उसे मंजूर करता हूँ। वह तुम पर विश्वास रखती है तो मैं भी रखूगा और जो तुम कहोगे वही करूँगा।"

मागर––बस सब काम बखूबी बन गया, अच्छा अब क्या करना चाहिए? जाकर किवाड़ बन्द करके सो रही और सिपाहियों को भी हुक्म दे दो कि आज कोई सिपाही पहरा न दे बल्कि सब आराम से सो रहें, यहाँ तक कि अगर किसी को इस बाग में देखें भी तो चुपके हो रहें।

नागर "बहुत अच्छा" कह कर अपने कमरे में चली गई और भूतनाथ के कहे मुताबिक सिपाहियों को हुक्म देकर अपने कमरे का दरवाजा बन्द करके चारपाई पर लेट रही। भूतनाथ उसी बाग में घूमता-फिरता पिछली दीवार के पास जहाँ एक चोर दरवाजा था जा पहुँचा और उसी जगह बैठकर किसी के आने की राह देखने लगा।

आधे घण्टे तक सन्नाटा रहा, इसके बाद किसी ने दरवाजे पर दो दफे हाथ से थपकी लगाई। भूतनाथ ने उठ कर झट दरवाजा खोल दिया और दो आदमी उस राह से आ पहुँचे। बँधे हुए इशारे के होने से मालूम हो गया कि ये दोनों राजा गोपालसिंह और देवीसिंह हैं। भूतनाथ उन दोनों को अपने साथ लिए हुए धीरे-धीरे कदम रखता हुआ नजरबाग के बीचोंबीच आया जहाँ एक छोटा-सा फव्वारा था।

गोपालसिंह––(भूतनाथ से) कुछ मालूम है कि इस समय किस तरफ पहरा पड़ रहा है?

भूतनाथ––कहीं भी पहरा नहीं पड़ता चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है। इस मकान में जितने आदमी रहते हैं सभी को मैंने बेहोशी की दवा दे दी है और सब के सब उठने के लिए मुर्दो से बाजी लगाकर पड़े हैं।

गोपालसिंह––तब तो हम लोग बड़ी लापरवाही से अपना काम कर सकते हैं?

भूतनाथ––बेशक!

गोपालसिंह––अच्छा मेरे पीछे-पीछे चले आओ। (हाथ का इशारा करके) हम उस हम्माम को राह तहखाने में घुसा चाहते हैं। क्या तुम्हें मालूम है कि इस समय किशोरी और कामिनी किस तहखाने में कैद हैं?

भूतनाथ––हाँ, जरूर मालूम है। किशोरी और कामिनी दोनों एक ही साथ 'वायु-मण्डप' में कैद हैं।

गोपालसिंह––तब तो हम्माम में जाने की कोई जरूरत नहीं, अच्छा तुम ही आगे चलो।

भूतनाथ आगे-आगे रवाना हुआ और उसके पीछे राजा गोपालसिंह और देवीसिंह चलने लगे। तीनों आदमी उत्तर तरफ के दालान में पहुँचे जिसके दोनों तरफ दो कोठरियाँ थीं और इस समय दोनों कोठरियों का दरवाजा खुला हुआ था। तीनों आदमी दाहिनी तरफ वाली कोठरी में घुसे और अन्दर जाकर कोठरी का दरवाजा बन्द कर लिया। बटुए में से सामान निकाल कर मोमबत्ती जलाई और देखा कि सामने दीवार में एक आलमारी है जिसका दरवाजा एक खटके पर खुला करता था। भूतनाथ उस दरवाजे को खोलना जानता था इसलिए पहले उसी ने खटके पर हाथ रक्खा। दरवाजा खुल जाने पर मालूम हुआ कि उसके अन्दर सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। तीनों आदमी उस सीढ़ी की राह से नीचे तहखाने में उतर गये और एक कोठरी में पहुँचे जिसका दूसरा दरवाजा बन्द था। भूतनाथ ने उस दरवाजे को भी खोला और तीनों आदमियों ने दूसरी कोठरी में पहुँच कर देखा कि एक चारपाई पर बेचारी किशोरी पड़ी हुई है, सिरहाने की तरफ कामिनी बैठी धीरे-धीरे उसका सिर दबा रही थी। कामिनी का चेहरा जर्द और सुस्त था मगर किशोरी तो वर्षों की बीमार जान पड़ती थी। जिस चारपाई पर वह पड़ी थी उसका बिछावन बहुत मैला था, और उसी के पास एक दूसरी चारपाई बिछी हुई थी जो शायद कामिनी के लिए हो। कोठरी के एक कोने में पानी का घड़ा, गिलास और कुछ खाने का सामान रक्खा हुआ था।

किशोरी और कामिनी देवीसिंह को बखूबी पहचानती थी मगर भूतनाथ को केवल कामिनी ही पहचानती थी, जब कमला के साथ शेरसिंह से मिलने के लिए कामिनी उस तिलिस्मी खँडहर में गई थी तब उसने भूतनाथ को देखा था और यह भी जानती थी कि भूतनाथ को देखकर शेरसिंह डर गया था मगर इसका सबब पूछने पर भी उसने कुछ न कहा था। इस समय वह फिर उसी भूतनाथ को यहाँ देख कर डर गई और जी में सोचने लगी कि एक बला में तो फँसी ही थी यह दूसरी बला कहाँ से आ पहुँची, मगर उसी के साथ देवीसिंह को देख उसे कुछ ढाढ़स हुई और किशोरी को तो पूरी उम्मीद हो गई कि ये लोग हमको छुड़ाने ही आये हैं। वह भूतनाथ और राजा गोपालसिंह को पहचानती न थी मगर सोच लिया कि शायद ये दोनों भी राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयार होंगे। किशोरी यद्यपि बहुत ही कमजोर बल्कि अधमरी सी हो रही थी मगर इस समय यह जान कर कि कुँअर इन्द्रजीतसिंह के ऐयार हमें छुड़ाने आ गये हैं और अब शीघ्र ही इन्द्रजीतसिंह से मुलाकात होगी उसकी मुरझाई हुई आशालता हरी हो गई और उसमें जान आ गई। इस समय किशोरी का सिर कुछ खुला हुआ था जिसे उसने अपने हाथ से ढँक लिया और देवीसिंह की तरफ देख कर बोली––

किशोरी––मैं समझती हूँ आज ईश्वर को मुझ पर दया आई है इसी से आप लोग मुझे यहाँ से छुड़ा कर ले जाने के लिए आए हैं।

देवीसिंह––जी हाँ, हम लोग आपको छुड़ाने के लिए ही आये हैं, मगर आपकी दशा देख कर रुलाई आती है। हाय, क्या दुनिया में भलों और नेकों को यही इनाम मिला करता है!

किशोरी––मैंने सुना था कि राजा साहब के दोनों लड़कों और ऐयारों को मायारानी ने कैद कर लिया है?

देवीसिंह––जी हाँ, उन कैदी ऐयारों में मैं भी था परन्तु ईश्वर की कृपा से सब कोई छूट गए और अब हम लोग आपको और (कामिनी की तरफ इशारा करके) इनको छुड़ाने आये हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि आप बहुत कुछ मुझसे पूछना चाहती हैं और मेरे पेट में भी बहुत सी बातें कहने योग्य भरी हैं परन्तु यह अमूल्य समय बातों में नष्ट करने योग्य नहीं है इसलिए जो कुछ कहने-सुनने की बातें हैं फिर होती रहेंगी, इस समय जहाँ तक जल्द हो सके यहाँ से निकल चलना ही उत्तम है।

"हाँ ठीक है" कह कर किशोरी उठ बैठी। उसमें चलने-फिरने की ताकत न थी परन्तु इस समय की खुशी ने उसके खून में कुछ जोश पैदा कर दिया और वह इस लायक हो गई कि कामिनी के मोढ़े पर हाथ रख के तहखाने से ऊपर आ सके और वहाँ से बाग की चहारदीवारी के बाहर जा सके। कामिनी यद्यपि भूतनाथ को देखकर सहम गई थी मगर देवीसिंह के भरोसे से उसने इस विषय में कुछ कहना उचित न जाना, दूसरे उसने यह सोच लिया कि इस कैदखाने से बढ़ कर और कोई दुःख की जगह न होगी, अतएव यहाँ से तो निकल चलना ही उत्तम है!

किशोरी और कामिनी को लिये हुए तीनों आदमी तहखाने से बाहर निकले। इस समय भी उस मकान के चारों तरफ तथा नजरबाग में सन्नाटा ही था, इसलिए ये लोग बिना किसी रोकटोक उसी दरवाजे की राह यहाँ से बाहर निकल गये जिससे राजा गोपालसिंह बाग के अन्दर आये थे। थोड़ी दूर पर तीन घोड़े और एक रथ जिसके आगे दो घोड़े जुते हुए थे मौजूद था। रथ पर किशोरी और कामिनी को सवार कराया गया और तीनों घोड़ों पर राजा गोपालसिंह, देवीसिंह और भूतनाथ ने सवार होकर रथ को तेजी के साथ हाँकने के लिए कहा। बात की बात में ये लोग शहर के बाहर हो गये बल्कि सुबह की सुफेदी निकलने के पहले ही लगभग पाँच कोस दूर निकल जाने के बाद एक चौमुहानी पर रुक कर विचार करने लगे कि अब रथ को किस तरफ ले चलना या रथ की हिफाजत किसके सुपुर्द करनी चाहिए!