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चन्द्रकांता सन्तति २/८.९

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चंद्रकांता संतति भाग 2
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ २१७ से – २१९ तक

 

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रात पहर भर से ज्यादा जा चुकी है। काशी में मनोरमा के मकान के अन्दर फर्श पर नागर बैठी हुई और उसके पास ही एक खूबसूरत नौजवान आदमी छोटे-छोटे तीन-चार तकियों का सहारा लगाये अधलेटा-सा पड़ा जमीन की तरफ देखता हुआ कुछ सोच रहा है। इन तीनों के सिवाय कमरे में कोई तीसरा नहीं है।

नागर––मैं फिर भी तुम्हें कहती हूँ कि किशोरी का ध्यान छोड़ दो क्योंकि इस समय मौका समझ कर मायारानी ने उसे आराम के साथ रखने का हुक्म दिया है।

जवान––ठीक है मगर मैं उसे किसी तरह की तकलीफ तो नहीं देता फिर उसके पास मेरा जाना तुमने क्यों बन्द कर दिया?

नागर––बड़े अफसोस की बात है कि तुम मायारानी की तरफ कुछ भी ध्यान नहीं देते! जब भी तुम किशोरी के सामने जाते हो वह जान देने के लिए तैयार हो जाती है। तुम्हारे सबब से वह सूख कर काँटा हो गई है। मुझे निश्चय है कि दो-तीन दफे अगर तुम और उसके सामने आओगे तो वह जीती न बचेगी क्योंकि उसमें अब बात करने की भी ताकत नहीं रही, और उसका मरना मायारानी के हक में बहुत ही बुरा होगा। जब तक किशोरी को यह निश्चय न होगा कि तुम इस मकान से निकाल दिए गए तब तक वह मुझसे सीधी तरह बात भी न करेगी। ऐसी अवस्था में मायारानी की आज्ञानुसार मैं उसे कैद रखने की अवस्था में भी क्योंकर खुश रख सकती हूँ।

जवान––(कुछ चिढ़कर) यह बात तो तुम कई दफे कह चुकी हो फिर घड़ी-घड़ी क्यों कहती हो?

नागर––खैर न सही, सौ की सीधी एक ही कहे देती हूँ कि किशोरी के बारे में तुम्हारी मुराद पूरी न होगी और जहाँ तक जल्द हो सके तुम्हें मायारानी के पास चले जाना पड़ेगा।

जवान––यदि ऐसा ही है तो लाचार होकर मुझे मायारानी के साथ दुश्मनी करनी पड़ेगी। मैं उसके कई ऐसे भेद जानता हूँ कि उन्हें प्रकट करने में उसकी कुशल नहीं है।

नागर––अगर तुम्हारी यह नीयत है तो तुम अभी जहन्नुम में भेज दिये जाओगे।

जवान––तुम मेरा कुछ भी नहीं कर सकतीं, मैं तुम्हारी जहरीली अँगूठी से डरने वाला नहीं हूँ।

इतना कह कर नौजवान उठ खड़ा हुआ और कमरे के बाहर निकला ही चाहता था कि सामने का दरवाजा खुला और भूतनाथ आता हुआ दिखाई दिया। नागर ने जवान की तरफ इशारा करके भूतनाथ से कहा, "देखो, इस नालायक को मैं पहरों से समझा रही हूँ मगर कुछ भी नहीं सुनता और जान-बूझ कर मायारानी को मुसीबत में डालना चाहता है!" इसके जवाब में भूतनाथ ने कहा, "हाँ, मैं भी पिछले दरवाजे की तरफ खड़ा-खड़ा इस हरामजादे की बातें सुन रहा था!"

'हरामजादे' का शब्द सुनते ही उस नौजवान को क्रोध चढ़ आया और वह हाथ में खंजर लेकर भूतनाथ की तरफ झपटा। भूतनाथ ने चालाकी से उसकी कलाई पकड़ ली और कमरबन्द में हाथ डाल के ऐसी अड़ानी मारी कि वह धम्म जमीन पर गिर पड़ा। नागर दौड़ी हुई बाहर चली गई और एक मजबूत रस्सी ले आई जो उस नौजवान के हाथ-पैर बाँधने के काम में आई। भूतनाथ उस नौजवान को घसीटता हुआ दूसरी कोठरी में ले गया और नागर भी भूतनाथ के पीछे-पीछे चली गई।

आधे घण्टे के बाद नागर और भूतनाथ फिर उसी कमरे में आये और दोनों प्रेमी मसनद पर बैठ कर खुशी-खुशी-हँसी दिल्लगी की बातें करने लगे। अन्दाज से मालूम होता है कि ये दोनों उस नौजवान को कहीं कैद कर आये हैं।

थोड़ी देर तक हँसी-दिल्लगी होती रही, इसके बाद मतलब की बातें होने लगीं। नागर के पूछने पर भूतनाथ ने अपना हाल कहा और सबके पहले वह चिट्ठी नागर को दिखाई जो राजा गोपालसिंह के लिए कमलिनी ने लिख दी थी, इसके बाद मायारानी के पास जाने और बातचीत करने का खुलासा हाल कह के वह दूसरी चिट्ठी भी नागर को दिखाई जो मायारानी ने नागर के नाम की लिख कर भूतनाथ के हवाले की थी। यह सब हाल सुन कर नागर बहुत खुश हुई और बोली, "यह काम सिवाय तुम्हारे और किसी से नहीं हो सकता था और यदि तुम मायारानी की चिट्ठी न भी लाते तो भी तुम्हारी आज्ञानुसार काम करने को मैं तैयार थी।"

भूतनाथ––सो तो ठीक है, मुझे भी यही आशा थी, परन्तु यों ही एक चिट्ठी तुम्हारे नाम की लिखा ली।

नागर––पर ताज्जुब है कि राजा गोपालसिंह और देवीसिंह आज के पहले से इस शहर में आए हुए हैं मगर अभी तक इस मकान के अन्दर उन दोनों के आने की आहट नहीं मिली। न मालूम वे दोनों कहाँ और किस धुन में हैं! खैर जो होगा देखा जायगा, अब यह कहिये कि आप क्या करना चाहते हैं?

भूतनाथ––(कुछ देर तक सोच कर) अगर ऐसा है तो मुझे स्वयं उन दोनों को ढूँढ़ना पड़ेगा। मुलाकात होने पर दोनों को गुप्त रीति से इस मकान के अन्दर ले आऊँगा और किशोरी-कामिनी को छुड़ा कर यहाँ से निकल जाऊँगा, फिर धोखा देकर किशोरी और कामिनी को अपने कब्जे में कर लूँगा, अर्थात् उन्हें कोई दूसरा काम करने के लिए कह कर किशोरी और कामिनी को रोहतासगढ़ पहुँचाने का वादा कर ले जाऊँगा और उस गुप्त खोह में जिसे मैं अपना मकान समझता हूँ और तुम्हें दिखा चुका हूँ अपने आदमियों के सुपुर्द करके गोपालसिंह से आ मिलूँगा और फिर उसे कैद कर के मायारानी के पास पहुँचा दूँगा जिसमें वह अपने हाथ से उसे मार कर निश्चिन्त हो जाय।

नागर––बस-बस, तुम्हारी राय बहुत ठीक है, अगर इतना काम हो जाय तो फिर क्या चाहिए! मायारानी से मुँहमाँगा इनाम मिले क्योंकि इस समय वह राजा गोपालसिंह के सबब से बहुत ही परेशान हो रही है, यहाँ तक कि कुँअर इन्द्रजीतसिंह वगैरह के हाथ से तिलिस्म को बचाने का ध्यान तक भी उसे बिल्कुल ही जाता रहा। यदि वह गोपालसिंह को मार के निश्चित हो जाय तो अपने से बढ़कर भाग्यवान दुनिया में किसी को नहीं समझेगी जैसा कि थोड़े दिन पहले समझती थी।

भूतनाथ––जो मैं कह चुका हूँ वही होगा इसमें कोई सन्देह नहीं। अच्छा अब तुम इस मकान का पूरा-पूरा भेद मुझे बता दो जिसमें किसी तहखाने, कोठरी, रास्ते या चोर दरवाजे का हाल मुझसे छिपा न रहे।

नागर––बहुत अच्छा, चलिए उठिए, जहाँ तक हो सके इस काम से भी जल्द ही निपट लेना चाहिए।

नागर ने उस मकान का पूरा-पूरा भेद भूतनाथ को बता दिया, हरएक कोठरी, तहखाना, रास्ता और चोर दरवाजा तथा सुरंग दिखा दिया और उनके खोलने और बन्द करने की विधि भी बता दी। इस काम से छुट्टी पाकर भूतनाथ नागर से बिदा हुआ और राजा गोपालसिंह तथा देवीसिंह की खोज में चारों ओर घूमने लगा।