चन्द्रकांता सन्तति २/८.५

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चंद्रकांता संतति भाग 2  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

[ १९७ ]

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दिन दोपहर से कुछ ज्यादा चढ़ चुका है मगर मायारानी को खाने-पीने की कुछ भी सुध नहीं है। पल-पल में उसकी परेशानी बढ़ती ही जाती है। यद्यपि बिहारीसिंह, हरनामसिंह और धनपत ये तीनों उसके पास मौजूद हैं परन्तु समझाने-बुझाने की तरफ किसी का ध्यान नहीं। उसे कोई भी नहीं दिलासा देता, कोई धीरज भी नहीं बँधाता और कोई भी यह विश्वास नहीं दिलाता कि तुझ पर आई हुई बला टल जायेगी, यहाँ [ १९८ ]तक कि किसी के मुँह से यह भी नहीं निकलता कि सब्र कर, हम लोग ऐयारी के फन में होशियार हैं, कोई-न-कोई काम अवश्य करेंगे।

ऊपर के बयानों को पढ़ कर पाठक समझ ही गये होंगे कि मायारानी की तरह उसकी सखी धनपत और उसके दोनों ऐयार विहारीसिंह तथा हरनामसिंहभी किसी भारी पाप के बोझ से दबे हुए हैं और ऊपर की घटनाओं ने उन तीनों की भी जान सुखा दी है। ये तीनों ही बदहोश और परेशान हो रहे हैं, इन तीनों को भी अपनी-अपनी फिक्र पड़ी है, और इस समय इन तीनों के अतिरिक्त कोई चौथा आदमी मायारानी के सामने नहीं है, फिर उसे कौन समझावे-बुझावे? इनके सिवाय कोई चौथा आदमी उसके भेदों को जानता भी नहीं और न वह किसी को अपना भेद बताने का साहस कर सकती है। मायारानी की उदासी से चारों तरफ उदासी फैली हुई है। लौंडियों, नौकरों और सिपाहियों को भी चिन्ता ने आकर घेर लिया और कोई भी नहीं जानता कि क्या हुआ या क्या होने वाला है।

बहुत देर तक चुप रहने के बाद बिहारीसिंह ने सिर उठाया और मायारानी की तरफ देखकर कहा––

बिहारीसिंह––एक तो वीरेन्द्रसिंह के ऐयार स्वयं धुरंधर हैं जिनका मुकाबला कोई कर नहीं सकता, दूसरे कमलिनी की मदद से उन लोगों का साहस और भी बढ़ गया है।

धनपत––इसमें कोई सन्देह नहीं कि आज-कल जो खराबी हो रही है वह सब कमलिनी ही की बदौलत है जिसका हम लोग कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते।

मायारानी––अफसोस, वह कम्बख्त इस तिलिस्मी बाग के अन्दर आकर अपना काम कर जाय और किसी को कानोंकान खबर न हो! हाय, न मालूम हम लोगों की क्या दुर्दशा होने वाली है! क्या करूँ, कहाँ भाग कर जाऊँ अपनी जान बचाने के लिए क्या उद्योग करूँ।

धनपत––अभी एक दम से हताश न हो जाना चाहिए बल्कि देखना चाहिए कि इस मुनादी का क्या असर रिआया के दिल पर होता है।

मायारानी––हाँ, मुझे जरा फिर से समझा के कह तो सही कि मुनादी वाले को क्या कह के पुकारने की आज्ञा मेरी तरफ से दी गई है? उस समय मैं आपे में बिल्कुल न थी इससे कुछ समझ में न आया।

धनपत––आपकी तरफ से मैंने दीवान साहब को हुक्म दिया जिसका बन्दोबस्त उन्होंने पूरा-पूरा किया। मेरे सामने ही उन्होंने चार.डुग्गी वालों को तलब किया और समझा कर कह दिया कि वे लोग शहर भर में पुकार कर इस बात की मुनादी कर दें कि "सरकारी ऐयारों को मालूम हुआ है कि वीरेन्द्रसिंह का एक ऐयार राजा गोपालसिंह की सूरत बनाकर शहर में आया है, जिन्हें बैकुण्ठ पधारे पाँच वर्ष के लगभग हो चुके हैं और रिआया को भड़काना चाहता है। जो कोई उस कम्बख्त का सिर काट कर लावेगा उसे एक लाख रुपया इनाम दिया जायगा।"

मायारानी––ठीक है, मगर देखना चाहिए इसका नतीजा क्या निकलता है। [ १९९ ]बिहारीसिंह––दो दिन के अन्दर ही अन्दर कुछ काम न चला तो समझ लेना चाहिए कि इस मुनादी का असर उलटा ही होगा।

मायारानी––खैर, जो कुछ नसीब में लिखा है भोगूँगी, इस समय बदहवास होने से तो काम नहीं चलेगा। मगर यह तो कहो कि तुम दोनों ऐयार ऐसी अवस्था में मेरी सहायता किस रीति से करोगे?

बिहारीसिंह––मेरे किये तो कुछ न होगा। मैं खूब समझ चुका हूँ कि वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों तथा कमलिनी का मुकाबला मैं किसी तरह नहीं कर सकता। देखो, तेजसिंह ने मेरा मुँह ऐसा काला किया कि अभी तक रंग साफ नहीं होता। न मालूम उसे कैसे-कैसे मसाले याद हैं। इसके अतिरिक्त तुम्हें अपने लिए शायद कुछ उम्मीद हो, मगर मैं तो बिल्कुल ही नाउम्मीद हो चुका हूँ और अब एक घंटे के लिए भी यहाँ ठहरना बुरा समझता हूँ।

मायारानी––क्या तुम वास्तव में ऐसा ही करोगे जैसा कह चुके हो?

बिहारीसिंह––हाँ बेशक मैं अपनी राय पवकी कर चुका हूँ। मैं इसी समय यहाँ से चला जाऊँगा और फिर मेरा पता कोई भी न लगा सकेगा।

मायारानी––(हरनामसिंह की तरफ देख के) और तुम्हारी क्या राय है?

हरनामसिंह––मेरी भी वही राय है जो बिहारीसिंह की है।

मायारानी––खूब समझ-बूझ कर मेरी बातों का जवाब दो।

हरनामसिंह––जो कुछ समझना था समझ चुका।

मायारानी––(कुछ सोचकर) अच्छा मैं एक तरकीब बताती हूँ, अगर उससे कुछ काम न चले तो फिर जो कुछ तुम्हारी समझ में आवे करना या जहाँ जी चाहे जाना।

बिहारीसिंह––अब उद्योग करना वृथा है, मेरे किए कुछ भी न होगा!

मायारानी––नहीं-नहीं, घबराओ मत, तुम जानते हो कि मैं इस तिलिस्म की रानी हूँ जौर इस तिलिस्म में बहत-सी अदभत चीजें हैं। मैं तुम दोनों को एक चीज देती हूँ जिसे देख कर और जिसका मतलब समझ कर तुम दोनों स्वयं कहोगे कि 'कोई हर्ज नहीं, अब हम लोग बात की बात में लाखों आदमियों की जान ले सकते हैं।'

हरनामसिंह––बेशक तुम इस तिलिस्म की रानी हो और तुम्हारे अधिकार में बहुत-सी अनमोल चीजें हैं परन्तु जब तक हम लोग उस वस्तु को देख नहीं लेते जिसके विषय में तुम कह रही हो, तब तक किसी तरह का वादा नहीं कर सकते।

मायारानी––मैं भी तो यही कह रही हूँ, तुम दोनों मेरे साथ चलो और उस चीज को खुद देख लो, फिर अगर मन भरे तो मेरा साथ दो, नहीं तो जहाँ जी चाहे चले जाओ।

हरनामसिंह––खैर; पहले देखें तो सही वह कौन सी अनूठी चीज है, जिस पर तुम्हें इतना भरोसा है।

मायारानी––हाँ, तुम मेरे साथ चलो, मैं अभी वह चीज तुम दोनों के हवाले करती हूँ।

मायारानी उठ खड़ी हुई और धनपत तथा दोनों ऐयारों को साथ लिए हुए वहाँ [ २०० ]से रवाना हुई। बाग में घूमती वह उस बुर्ज के पास गई जो बाग के पिछले कोने में था और जिसमें लाड़िली और कमलिनी की मुलाकात हुई थी। उस बुर्ज के बगल ही में एक और कोठरी स्याह पत्थर से बनी हुई थी मगर यह मालूम न होता था कि उसका दरवाजा किधर से है क्योंकि पिछली तरफ तो बाग की दीवार थी और बाकी तीनों तरफ वाली कोठरी की स्याह दीवारों में दरवाजे का कहीं कोई निशान न था। मायारानी ने बिहारी से कहा, 'कमन्द लगाओ क्योंकि हम लोगों को इस कोठरी की छत पर चलना होगा।' बिहारीसिंह ने वैसा ही किया। सबके पहले मायारानी कमन्द के सहारे उस कोठरी पर चढ़ गई और उसके बाद धनपत और दोनों ऐयार भी उसी छत पर जा पहुंचे।

ऊपर जाकर दोनों ऐयारों ने देखा कि छत के बीचोंबीच में एक दरवाजा ठीक वैसा ही है जैसा प्रायः तहखानों के मुँह पर रहता है। वह दरवाजा लकड़ी का था मगर उस पर लोहे की चादर मढ़ी हुई थी और उसमें एक साधारण ताला लगा हुआ था। मायारानी ने हरनामसिंह से कहा, "यह ताला मामूली है, इसे किसी तरह खोलना चाहिए।"

बिहारीसिंह ने ऐयारी के बटुए में से लोहे की एक टेढ़ी सलाई निकाली और उस ताले के मुँह में डालकर ताला खोल डाला, इसके बाद दरवाजे का पल्ला हटा कर किनारे किया। मायारानी ने दोनों ऐयारों को अन्दर जाने के लिए कहा, मगर बिहारीसिंह ने इनकार किया और कहा, "पहले आप इसके अन्दर उतरिये तब हम लोग इसके अन्दर जायेंगे क्योंकि यहाँ की अद्भुत बातों से हम लोग बहुत डर गये हैं।" लाचार होकर मायारानी कमन्द के सहारे उस कोठरी के अन्दर उतर गई जोर इसके बाद धनपत और दोनों ऐयार भी नीचे उतर गये।

ऊपर का दरवाजा खुला रहने से कोठरी के अन्दर चाँदना पहुँच रहा था। यह कोठरी लगभग बीस हाथ के चौडी और इससे कुछ ज्यादा लम्बी थी। यहाँ की जमीन लकड़ा की थी और उस पर किसी तरह का मसाला चढा हआ था। कोठरी के बीचोंबीच में एक छोटा-सा सन्दूक पड़ा हुआ था। धनपत का हाथ पकड़े मायारानी एक किनारे खड़ी हो गई और दोनों ऐयारों की तरफ देखकर बोली, "तुम दोनों मिलकर इस सन्दूक को मेरे पास लाओ।"

हुक्म के मुताबिक दोनों ऐयार उस सन्दूक के पास गए, मगर सन्दूक का कुण्डा पकड़ के उठाने का इरादा किया ही था कि उस जमीन का वह गोल हिस्सा जिस पर दोनों ऐयार खड़े थे किवाड़ के पल्ले की तरह एक तरफ से अन्दर की तरफ यकायक घुस गया और वे दोनों ऐयार जमीन के अन्दर जा रहे, साथ ही एक आवाज ऐसी आई जिसके सुनने से धनपत को मालूम हो गया कि दोनों ऐयार नीचे जल की तह तक पहुँच गये।

इसके बाद जमीन का वह हिस्सा जो लकड़ी का था फिर बराबर हो गया और सन्दूक भी उसी तरह दिखाई देने लगा।

यह हाल देख धनपत डर के मारे काँपने लगी और मायारानी की तरफ देख के [ २०१ ]बोली, "क्या यह कोई कुआँ है?"

मायारानी––हाँ, यह कुआँ है और ऐसे नमकहरामों को सजा देने के लिए बनाया गया है! दोनों बेईमान ऐयार मेरा साथ छोड़ के अपनी जान बचाना चाहते थे। हरामजादे पाजी नालायक, अब अपनी सजा को पहुँचे।

नपत––इतने दिनों तक आपके साथ रहने पर भी इस कुएँ का हाल मुझे मालूम न था।

मायारानी––यहाँ के बहुत से भेद अभी तुम्हें मालूम नहीं हैं, खैर, अब यहाँ से चलना चाहिए।

धनपत को साथ लिए मायारानी उस कोठरी के बाहर निकली और दरवाजा बन्द करने के बाद कमन्द के सहारे उतरकर अपने खास सोने वाले कमरे में चली आई। मायारानी की लौंडियों ने मायारानी को दोनों ऐयारों और धनपत के साथ उस कोठरी की तरफ जाते देखा था मगर अब केवल धनपत को साथ लिए लौटते देख उनको ताज्जुब हुआ लेकिन डर के मारे कुछ पूछ न सकी।

संध्या का समय हो गया। मायारानी अपने कमरे में जाकर मसहरी पर लेट गई। उस समय बहुत-सी लौंडियाँ उसके सामने थीं मगर इशारा पाकर सब बाहर चली गईं केवल धनपत वहाँ रह गई।

धनपत––आपने बहुत जल्दी की, बेचारे ऐयारों की जान व्यर्थ ही गई।

मायारानी––वे दोनों कमीने इसी लायक थे। इसीलिए मैं उनसे बार-बार पूछ रही थी, जब देख लिया कि वे अपने विचार पर दृढ़ हैं तो लाचार...

धनपत––खैर, जो कुछ हुआ सो अच्छा हुआ लेकिन अब क्या करना चाहिए? अफसोस यह है कि ऐसे समय में बेचारी मनोरमा भी नहीं है।

मायारानी––(लम्बी साँस लेकर) हाय, बेचारी मनोरमा मेरी सच्ची सहायक थी पर उसे भी तेजसिंह ने गिरफ्तार कर लिया। इसी खबर के साथ नागर ने कहला भेजा था कि भूतनाथ के कागजात अपने साथ लेकर उसे छुड़ाने जाती हूँ, मगर उस बात को भी बहुत दिन बीत गए और अभी तक मालूम न हुआ कि नागर के जाने का क्या नतीजा निकला। तेजसिंह ने उसे भी गिरफ्तार कर लिया हो तो ताज्जुब नहीं, सच तो यह है कि भूतनाथ के मारने में मनोरमा ने बड़ी जल्दी की।

धनपत––बेशक भूतनाथ के मारने में उसने बड़ी भूल की, भूतनाथ से बहुतकुछ काम निकलने की आशा थी!

इतने ही में बाहर से आवाज आई, "थी नहीं बल्कि है!" मायारामी ने दरवाजे की तरफ देखा तो नागर पर निगाह पड़ी।

मायारानी––आह, इस समय तेरा आना बहुत ही अच्छा हुआ, आ, मेरे पास आकर बैठ।

नागर––(मायारानी के पास बैठकर) मैं देखती हूँ कि आज आपकी अवस्था बिल्कुल बदली हुई है। कहिये मिजाज तो अच्छा है?

मायारानी––अच्छा क्या है बस दम निकलने की देर है। [ २०२ ]नागर––(घबराकर) सो क्यों?

मायारानी––अब आई है तो सब कुछ सुन ही लेगी, पर पहले अपना हाल तो कह कि मेरी प्यारी सखी मनोरमा को छुड़ा लाई या नहीं और चौखट के अन्दर पैर रखते ही तूने यह क्या कहा कि 'थी नहीं बल्कि है!' क्या भूतनाथ मारा नहीं गया? क्या वह खबर झूठ थी।

नागर––हाँ, वह खबर झूठ थी, मनोरमा ने भूतनाथ की जान नहीं ली और न उसे तेजसिंह ने गिरफ्तार किया है बल्कि वह कमलिनी का कैदी है।

मायारानी––तो वह औरत जो मनोरमा की खबर लेकर तेरे पास आई थी, झूठी थी?

नागर––वह स्वयं कमलिनी थी, मनोरमा को कैद कर चुकी थी और मुझे भी गिरफ्तार किया चाहती थी, वह तो असल में भूतनाथ के कागजात ले लेने का बन्दोबस्त कर रही थी बल्कि यों कहना चाहिए कि मैं उसके धोखे में आ गई थी। उसने मुझे गिरफ्तार कर लिया और भूतनाथ के कुल कागजात भी मुझसे लेकर जला दिये।

मायारानी––यह बहुत ही बुरा हुआ, अब भूतनाथ बिल्कुल हम लोगों के कब्जे से बाहर हो गया, खैर जीता है यही बहुत है। यह कह कि तेरी जान कैसे बची?

इसके बाद नागर ने अपना पूरा-पूरा हाल मायारानी के सामने कहा और उसने बड़े गौर से सुना। अन्त में नागर ने कहा, "इस समय भूतनाथ को अपने साथ ले आई हूँ जो जी से हम लोगों की मदद करने के लिए तैयार है।"

यह सुनकर कि भूतनाथ अब हम लोगों का पक्षपाती हो गया और नागर के साथ आया है मायारानी बहुत ही खुश हुई और उसे एक प्रकार की आशा बंध गई। उसने धनपत की तरफ देख कर कहा, "ताज्जुब नहीं कि अब वह बला मेरे सिर से टल जाय जिसके टलने की आशा न थी।"

नागर––आपने अपना हाल तो कुछ कहा ही नहीं! यह जानने के लिए मेरा जी बेचैन हो रहा है कि आप क्यों उदास हो रही हैं और आप पर क्या बला आई है?

मायारानी––थोड़ी देर में तुझे सब कुछ मालूम हो जायगा, पहले भूतनाथ को मेरे पास बुला ला, मैं स्वयं उससे कुछ बात किया चाहती हूँ!

नागर––नहीं-नहीं, पहले आप अपना कुल हाल मुझसे कहिये क्योंकि मेरी तबीयत घबरा रही है।

मायारानी ने अपना बिल्कुल हाल अर्थात् तेजसिंह का पागल बन के जाना, उन्हें बाग के तीसरे दर्जे में कैद करना, चण्डूल का यकायक पहुँचना और उसकी अद्भुत बातें तथा लाड़िली का दगा दे जाना आदि नागर से कहा, मगर अपने पुराने कैदी के छुडाने का और दोनों ऐयारों के मार डालने का हाल छुपा रक्खा, हाँ उसके बदले में इतना कहा कि "वीरेन्द्रसिंह का एक ऐयार मेरे पति की सूरत बनाकर आया है जिन्हें मरे पाँच वर्ष के लगभग हए, उसी को गिरफ्तार करने के लिए बिहारीसिंह और हरनामसिंह गये हैं।"

नागर––मगर यह तो कहिए कि चण्डूल ने आपके तथा बिहारीसिंह और हर[ २०३ ]नामसिंह के कान में क्या कहा था?

मायारानी––बहुत पूछने पर भी बिहारीसिंह और हरनामसिंह ने नहीं बताया कि चण्डूल ने उनके कान में क्या कहा था।

नागर––और आपके कान में उसने क्या कहा?

मायारानी––मेरे कान में तो उसने केवल इतना ही कहा था कि 'आठ दिन के अन्दर ही यह राज्य इन्द्रजीतसिंह का हो जायगा और तू मारी जायगी।' खैर, जो होगा देखा जायगा, अब भूतनाथ को यहाँ ले आ, उससे मिलने की बहुत जरूरत है।

नागर––बहुत अच्छा, तो क्या इसी जगह बुला लाऊँ?

मायारानी––हाँ-हाँ, इसी जगह बुला ला। वह तो ऐयार है, उससे पर्दा काहे का।

नागर कुछ सोचती-विचारती वहाँ से रवाना हई और भूतनाथ को जिसे बाग के फाटक पर छोड़ गई थी, साथ लेकर बाग के अन्दर घुसी। पहरे वालों ने किसी तरह का उज्र न किया और भूतनाथ इस बाग की हर एक चीज को अच्छी तरह देखता और ताज्जुब करता हुआ मायारानी के पास पहुँचा। नागर ने मायारानी की तरफ इशारा करके कहा, "यही हम लोगों की मायारानी हैं।" और भूतनाथ ने यह कह कर कि 'मैं बखूबी पहचानता हूँ" मायारानी को सलाम किया।

मायारानी ने भूतनाथ की उतनी ही खातिरदारी और चापलूसी की जितनी कोई खुदगर्ज आदमी उसकी खातिरदारी करता है जिससे कुछ मतलब निकालने की आवश्यकता होती है।

मायारानी––तुम्हारी स्त्री तुम्हें मिल गई?

भूतनाथ––जी हाँ, "मिल गई और यह उस इनाम का पहला नमूना है जो आपकी ताबेदारी करने पर मुझे मिलने की आशा है।

मायारानी––नागर ने जो कुछ प्रतिज्ञा तुमसे की है मैं अवश्य पूरी करूँगी बल्कि उससे बहुत ज्यादा इनाम हर एक काम के बदले में दिया करूँगी।

भूतनाथ––मैं दिलोजान से आपके काम में उद्योग करूँगा और कमलिनी को बुरा धोखा दूँगा। वह जितना मुझ पर विश्वास रखती है, उतना ही पछतायेगी। परन्तु आपको कई बातों का खयाल रखना चाहिए।

मायारानी––वह क्या?

भूतनाथ––एक तो जाहिर में मैं कमलिनी का दोस्त बना रहूँगा, जिसमें उसे मुझ पर किसी तरह का शक न हो, यदि आपका कोई जासूस मेरे विषय में आपको इस बात का सबूत दे कि मैं कमलिनी से मिला हुआ हूँ तो आप किसी तरह की चिन्ता न कीजियेगा।

मायारानी––नहीं, नहीं, ऐसी छोटी-छोटी बातें मुझे समझाने की जरूरत नहीं है, मैं खूब जानती हूँ कि बिना उससे मिले किसी तरह पर काम न चलेगा।

भूतनाथ––बेशक-बेशक, और इसी वजह से मैं बहुत छिप कर आपके पास आया करूँगा। [ २०४ ]मायारानी––ऐसा होना ही चाहिए और दूसरी बात कौन-सी है?

भूतनाथ––दूसरे यह कि मुझसे आप अपने भेद न छिपाया कीजिये क्योंकि ऐयार का काम बिना ठीक-ठीक भेद जाने नहीं चल सकता।

मायारानी––मुझे तुम पर पूरा भरोसा है, इसलिए मैं अपना कोई भेद तुमसे न छिपाऊँगी।

भूतनाथ––अच्छा, अब एक बात मैं आपसे और कहूँगा।

मायारानी––कहो!

भूतनाथ––नागर की जुबानी यह तो आपको मालूम ही हुआ होगा कि काशी में मनोरमा के तिलिस्मी मकान के अन्दर किशोरी के रखने का हाल अब कमलिनी जान गई है।

मायारानी––हाँ, नागर वह सब हाल मुझसे कह चुकी है।

भूतनाथ––ठीक है, तो आपने यह भी विचारा होगा कि किशोरी को उस मकान से निकाल कर किसी दूसरे मकान में रखना चाहिए।

मायारानी––हाँ, मेरी तो यही राय है।

भूतनाथ––मगर नहीं, आप किशोरी को उसी मकान में रहने दीजिये, इस बात की खबर मैं किशोरी के पक्षपातियों को दूँगा जिसे सुन कर वे लोग किशोरी को छुड़ाने की नीयत से अवश्य उस मकान के अन्दर जायेंगे, उस समय उन लोगों को ऐसे ढंग से फँसा लूँगा कि किसी को पता न लगेगा और न इसी बात का शक किसी को होगा कि मैं आपका तरफदार हूँ।

मायारानी––तुम्हारी यह राय बहुत अच्छी है, मैं भी इसे पसन्द करती हूँ और ऐसा ही करूँगी।

भूतनाथ––अच्छा तो अब आप यह बताइये कि कुँअर इन्द्रजीतसिंह वगैरह के साथ आपने क्या बर्ताव किया जो आपके यहाँ कैद हैं?

मायारानी––(ऊँची साँस लेकर) अफसोस, कमलिनी उन लोगों को यहाँ से छुड़ा ले गई और मेरी छोटी बहिन लाड़िली भी मुझे धोखा दे गई जिसका खुलासा हाल में तुमसे कहती हूँ।

महारानी ने अपना कुल हाल जो नागर से कहा था, भूतनाथ को कह सुनाया। मगर, अपने पुराने कैदी का हाल और यह बात कि चण्डूल ने उसके कान में क्या कहा था, भूतनाथ से भी छिपा रखा और उसके बदले में वह कहा जो नागर से कहा था। मगर, भूतनाथ ने उस जगह मुस्करा दिया जिससे मायारानी समझ गई कि भूतनाथ को मेरी बातों में कुछ शक हुआ।

मायारानी––जो कुछ मैं कह चुकी हूँ, उसमें एक बात झूठ थी और एक को मैंने छिपा लिया।

भूतनाथ––(हँस कर) वह बात शायद मुझसे कहने योग्य नहीं है!

मायारानी––हाँ, मगर अब तो मैं वायदा कर चुकी हूँ कि तुमसे कोई बात न छिपाऊँगी। इसलिए यद्यपि उस बात का भेद अभी तक मैंने नागर को भी नहीं दिया, [ २०५ ]मगर तुमसे जरूर कहूँगी। परन्तु इसके पहले एक बात तुमसे पूछूँगी। क्योंकि बहुत देर से उसके पूछने की इच्छा लगी है, पर बातों का सिलसिला दूसरी तरफ हो जाने के कारण पूछ न सकी।

भूतनाथ––खैर, अब पूछ लीजिए।

मायारानी––मनोरमा को कमलिनी की कैद से छुड़ाने के लिए तुमने क्या विचारा है?

भूतनाथ––मनोरमा को यद्यपि मैं सहज ही छुड़ा सकता हूँ, परन्तु उसे भी इस ढंग से छुड़ाना चाहता हूँ कि कमलिनी को मुझ पर शक न हो। अगर जरा भी शक हो जायगा तो वह सम्हल जायगी क्योंकि वह बड़ी धूर्त और शैतान है।

मायारानी––सो तो ठीक है, मगर कोई बन्दोबस्त तो करना ही चाहिए।

भूतनाथ––हाँ-हाँ, उसका बन्दोबस्त बहुत जल्द किया जायगा।

मायारानी––अच्छा, तो अब वह भेद की बात भी तुमसे कहती हूँ, जिसे मैं अभी तक बड़ी कोशिश से छिपाये हुए थी, यहाँ तक कि अपनी प्यारी सखी मनोरमा को भी उस समय से आज तक मैंने कुछ नहीं कहा था। (नागर की तरफ देखकर) लो, तुम भी सुन लो।

मायारानी दो घण्टे तक अपने गुप्त भेदों की बात भूतनाथ से कहती रही और वह गौर से सुनता रहा और अन्त में मायारानी को कुछ समझा-बुझा कर और इनाम में हीरे की एक माला पाकर वहाँ से रवाना हुआ।