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चन्द्रकांता सन्तति २/८.६

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चंद्रकांता संतति भाग 2
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ २०५ से – २१० तक

 

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रात आधी जा चुकी है, चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है, हवा भी एक दम बन्द है, यहाँ तक कि किसी पेड़ की एक पत्ती भी नहीं हिलती। आसमान में चाँद तो नहीं दिखाई देता, मगर जंगल मैदान में चलने वाले मुसाफिरों को तारों की रोशनी जो अब बहुतायत से दिखाई दे रहे हैं, काफी है। ऐसे समय में गंगा के किनारे-किनारे दो मुसाफिर तेजी के साथ जमानिया की तरफ जा रहे हैं। जमानिया अब बहुत दूर नहीं है और ये दोनों मुसाफिर शहर के बाहरी प्रान्त में पहुँच चुके हैं।

अब ये दोनों आदमी शहर के पास पहुँच गये। मगर शहर के अन्दर न जाकर बाहर-ही-बाहर मैदान के उस हिस्से की तरफ जाने लगे जिधर पुराने जमाने की आबादी का कुछ-कुछ निशान मौजूद था। यहाँ बहुत-से टूटे-फूटे मकानों के कोई-कोई हिस्से बचे हए थे जो बदमाशों तथा चोरों के काम में आते थे। यहाँ की निस्बत शहर के कमजोर दिमाग वालों और डरपोक आदमियों में तरह-तरह की गप्पें उड़ा करती थीं। कोई कहता था कि वहाँ किसी जमाने में बहुत-से आदमी मारे गये हैं और वे लोग भूत होकर अभी तक मौजूद हैं और उधर से आने-जाने वालों को सताया करते हैं, कोई कहता था कि उस जमीन में जिन्नों ने अपना घर बना लिया है और जो कोई उधर से जाता है उसे मार कर अपनी जात में मिला लिया करते हैं, इत्यादि तरह-तरह की बातें लोग करते थे। मगर उन दोनों मुसाफिरों को जो इस समय उसी तरफ कदम बढ़ाये जा रहे हैं, इन बातों की कुछ परवाह न थी।

थोड़ी ही देर में ये दोनों आदमी जिनमें से एक बहुत ही कमजोर और थका हुआ जान पड़ता था, उस हिस्से में जा पहुँचे और खड़े होकर चारों तरफ देखने लगे। पास ही में एक पुराना मकान दिखाई दिया जो तीन हिस्से से ज्यादा टूट चुका था और उसके चारों तरफ जंगली पेड़ों और लताओं ने एक भयानक-सा दृश्य बना रखा था। उसी जगह एक आदमी टहलता हुआ नजर आया, जो इन दोनों को देखते ही पास आया और बोला, "हमारे साथियों ने उस नियत जगह पर ठहरना उचित न जाना और राय पक्की हुई कि एक नाव पर सवार होकर सब लोग काशी की तरफ रवाना हो जायँ और उसी जगह से अपनी कार्रवाई करें। वे लोग नाव पर सवार हो चुके हैं कमलिनीजी यह कह कर मुझे इस जगह छोड़ गई हैं कि तेजसिंह राजा गोपालसिंह को साथ लेकर आवें तो उन्हें लिए हुए बालाघाट की तरफ, जहाँ हम लोगों की नाव खड़ी होगी, बहुत जल्द चले आना।"

पाठक समझ ही गये होंगे कि ये दोनों मुसाफिर तेजसिंह और राजा गोपालसिंह (मायारानी के पुराने कैदी) थे। हाँ उस आदमी का परिचय हम दिये देते हैं, जो उन दोनों को इस भयानक स्थान में मिला था। यह तेजसिंह के प्यारे दोस्त देवीसिंह थे।

देवीसिंह की बात को सुनकर तेजसिंह अपने साथी राजा गोपालसिंह को साथ लिए हए वहाँ से रवाना हुए और थोड़ी देर में गंगा के किनारे पहुँच कर उस नाव पर जा सवार हुए, जिस पर कमलिनी, लाड़िली, इन्द्रजीतसिंह, आनन्दसिंह, तारासिंह, भैरोंसिंह और शेरसिंह सवार थे। वह किश्ती बहुत छोटी तो न थी, मगर हल्की और तेज जाने वाली थी। मालूम होता है कि उसको उन लोगों ने खरीद लिया था, क्योंकि उस पर कोई मल्लाह न था और केवल ऐयार लोग खेकर ले जाने के लिए तैयार थे। तेजसिंह को और राजा गोपालसिंह को देखते ही सब उठ खड़े हुए। कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने खातिर के साथ राजा गोपालसिंह को अपने पास बैठा कर किश्ती किनारे से हटाने की आज्ञा दी और बात-की-बात में नाव किनारा छोड़ कर दूर दिखाई देने लगी।

इन्द्रजीतसिंह––(राजा गोपालसिंह से) मैं इस समय आपको अपने पास देख कर बहुत ही प्रसन्न हूँ, ईश्वर ही ने आपकी जान बचाई।

गोपाल––मुझे अपने बचने की कुछ भी आशा न थी, यह तो बस आपके चरणों का प्रताप है कि कमलिनी वहाँ गई और उसे इत्तिफाक से मेरा हाल मालूम हो गया।

कमलिनी––मुझे आशा थी कि आपको साथ लिए तेजसिंह सूर्य निकलने के साथ ही हम लोगों से आ मिलेंगे, मगर दो दिन की देर हो गई और यह दो दिन का समय बड़ी मुश्किल से बीता क्योंकि हम लोगों को बड़ी चिन्ता इस बात की थी कि आपके आने में देर क्यों हुई। अब सबके पहले इस विलम्ब का कारण हम लोग सुना चाहते हैं।

गोपालसिंह––तेजसिंह जिस समय मुझे कैद से छुड़ा कर उस तिलिस्मी बाग के बाहर हए उस समय उन्होंने राजा वीरेन्द्रसिंह का जिक्र किया और कहा कि हरामजादी मायारानी ने राजा वीरेन्द्रसिंह और रानी चन्द्रकान्ता को भी इस तिलिस्म में कहीं पर कैद कर रखा है जिनका पता नहीं लगता। यह सुनते ही मैं उन्हें साथ लिए हुए फिर उसी तिलिस्मी बाग में चला गया। जहाँ-जहाँ मैं जा सकता था, जाकर अच्छी तरह पता लगाया क्योंकि कैद से छूट जाने पर मैं बिल्कुल ही लापरवाह और निडर हो गया था।

इन्द्रजीतसिंह––यह काम आपने बहुत ही उत्तम किया। हाँ, तो उनका कहीं पता लगा?

गोपालसिंह––(सिर हिला कर) नहीं, वह खबर बिल्कुल झूठी थी। उसने आप लोगों की धोखा देने के लिए अपने ही दो आदमियों को राजा वीरेन्द्रसिंह और रानी चन्द्रकान्ता की बनाकर रंग के कैद कर रखा है।

कमलिनी––यह आपको कैसे निश्चय हुआ?

गोपालसिंह––हमने स्वयं उन दोनों को अच्छी तरह आजमा कर देख लिया।

इन्द्रजीतसिंह––यह खबर सुन कर हम लोगों को हद से ज्यादा खुशी हई। अब हम लोग उनकी तरफ से निश्चिन्त हो गये और केवल किशोरी और कामिनी की फिक्र रह गई।

तेजसिंह––बेशक हम लोग उनकी तरफ से निश्चिन्त हो गये (राजा गोपालसिंह की तरफ इशारा करके) इनके साथ दो दिन तक उस बाग में रहने और गुप्त स्थानों में घूमने का मौका मिला। ऐसी-ऐसी चीजें देखने में आई कि होश दंग हो गये। यद्यपि राजा वीरेन्द्रसिंह के साथ विक्रमी तिलिस्म में मैं बहुत कुछ तमाशा देख चुका हूँ परन्तु अब यही कहते बन पड़ता है कि इस तिलिस्म के आगे उसकी कोई हकीकत न थी।

कमलिनी––यह उस तिलिस्म के राजा ही ठहरे, फिर इनसे ज्यादा वहाँ का हाल कौन जान सकता था और किसकी सामर्थ्य थी कि दो दिन तक उस बाग में आपको रख कर घुमाये? वहाँ का जितना हाल ये जानते हैं उसका सोलहवाँ हिस्सा भी मायारानी नहीं जानती। ये बेचारे नेक और धर्मात्मा हैं, पर न मालूम क्योंकर उस कम्बख्त के धोखे में पड़ गये।

आनन्दसिंह––बेशक, इनका किस्सा बहुत ही दिलचस्प होगा।

गोपालसिंह––मैं अपना अनूठा किस्सा आपसे कहूँगा जिसे सुनकर आप अफसोस करेंगे। (लाड़िली की तरफ देख कर) क्यों लाड़िली, तू अच्छी तरह से तो है?

लाड़िली––(गद्गद स्वर से) इस समय मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं! क्या स्वप्न में भी गुमान हो सकता था कि इस जिन्दगी में पुनः आपको देखूँगी? यह दिन आज कमलिनी बहिन की बदौलत देखने में आया।

गोपालसिंह––बेशक-बेशक, और ये पाँच वर्ष मैंने किस मुसीबत में काटे हैं, सो बस मैं ही जानता हूँ (कमलिनी की तरफ देख कर) मगर, तुझे उस तिलिस्मी बाग के अन्दर घुसने का साहस कैसे हुआ?

कमलिनी––'रिक्तगन्थ' मेरे हाथ लग गया इसी से मैं इतना काम कर सकी। गोपालसिंह––ठीक है, तब तो तू मुझसे भी ज्यादा अब वहाँ का हाल जान गई होगी।

इन्द्रजीतसिंह––(चौंक कर और कमलिनी की तरफ देख कर) क्या 'रिक्तगन्थ' तुम्हारे पास है?

कमलिनी––(हँस कर) जी हाँ, मगर इससे यह न समझ लीजिएगा कि मैंने आपके यहाँ चोरी की थी?

तेजसिंह––नहीं, नहीं, मैं खूब जानता हूँ, 'रिक्तगन्थ' का चोर कोई दूसरा ही है, आपको नानक की बदौलत वह किताब हाथ लगी।

कमलिनी––जी हाँ, जिस समय तिलिस्मी बाग में नानक अपना किस्सा आपसे कह रहा था, मैं छिप कर सुन रही थी।

इन्द्रजीतसिंह––नानक का किस्सा कैसा है?

तेजसिंह––मैं आपसे कहता हूँ, जरा सब कीजिए।

इस समय उस किश्ती पर ये जितने आदमी थे, उनमें केवल इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को किशोरी और कामिनी का ध्यान था। तेजसिंह ने अपने पागल बनने का हाल और उसी बीच में नानक का किस्सा जितना उसकी जुबानी सुना था कह सुनाया। तेजसिंह के पागल बनने का हाल सुन कर सभी को हँसी आ गई। दोनों कुमारों ने नानक का वाकी हाल कमलिनी से पूछा, जिसके जवाब में कमलिनी ने कहा––"यद्यपि नानक का कुछ हाल मुझे मालूम है। मगर मैं इस समय कुछ भी न कहूँगी, क्योंकि उसका किस्सा सुने बिना इस समय कोई हर्ज भी नहीं। हाँ, इस समय थोड़ा-सा अपना हाल मैं आपसे कहूँगी।

कमलिनी ने भूतनाथ का, मनोरमा और नागर का तथा अपना हाल जितना हम ऊपर लिख आये हैं, सभी के सामने कहना शुरू किया। अपना हाल कहते-कहते जब कमलिनी ने मनोरमा के मकान का अद्भुत हाल कहना शुरू किया तो सभी को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और किशोरी की अवस्था पर इन्द्रजीतसिंह को रुलाई आ गई। उनके दिल पर बड़ा ही सदमा गुजरा, मगर तेजसिंह के लिहाज से जिन्हें वे चाचा के बराबर समझते थे, अपने को सम्हाला। गोपालसिंह ने बहुत दिलासा देकर कहा, "आप लोग घबराइये नहीं, कम्बख्त मनोरमा के मकान का पूरा-पूरा भेद मैं जानता हूँ, इसलिए मैं बहुत जल्द किशोरी को उसकी कैद से छुड़ा लूँगा।"

लाड़िली––कामिनी भी उसी के मकान में भेज दी गई है।

गोपालसिंह––यह और अच्छी बात है, 'एक पंथ दो काज' हो जायगा?

इन्द्रजीतसिंह––(कमलिनी से) अब यह 'रिक्तग्रन्थ' मुझे कब मिलेगा?

कमलिनी––वह मेरे पास है, उसी की बदौलत मैं आपको उस कैदखाने से छुड़ा सकी और उसी की बदौलत आपको तिलिस्म तोड़ने में सुगमता होगी, मैं बहुत जल्द वह किताब आपके हवाले करूँगी।

गोपालसिंह––(चारों तरफ देख के कमलिनी से) ओफ, बात ही में बात हम लोग बहुत दूर निकल आए! क्या तुम्हारा इरादा काशी चलने का है? कमलिनी––जी हाँ, हम लोगों ने तो यही इरादा कर लिया है कि काशी चलकर किसी गुप्त स्थान में रहेंगे और उसी जगह से अपनी कार्रवाई करेंगे?

गोपालसिंह––मगर मेरी राय तो कुछ दूसरी है।

कमलिनी––वह क्या? मुझे विश्वास है कि आप बनिस्बत मेरे हमें बहुत अच्छी राय देंगे।

गोपालसिंह––यद्यपि मैं इस शहर जमानिया का राजा हूँ और इस शहर को फिर कब्जे में कर सकता हूँ, परन्तु पाँच वर्ष तक मेरे मरने की झूठी खबर लोगों में फैली रहने के कारण यहाँ की रिआया के मन में बहुत कुछ फर्क पड़ गया होगा। यदि ऐसा न भी हो तो भी मैं अपने को जाहिर नहीं करना चाहता और न मायारानी को ही अभी जान से मारूँगा, क्योंकि यदि वह मर ही जायगी तो अपने किये का यथार्थ फल मेरे देखते कौन भोगेगा? इसलिए मैं थोड़े दिनों तक छिपे रहकर ही उसे सजा देना उचित समझता हूँ।

कमलिनी––जैसी मर्जी।

गोपालसिंह––(कमलिनी से) इसलिए मैं चाहता हूँ कि कुँअर साहब अपना एक ऐयार मुझे दें, मैं उसे साथ लेकर काशी जाऊँगा और किशोरी तथा कामिनी को, जो मनोरमा के मकान में कैद हैं, बहुत जल्द छुड़ा लाऊँगा, तब तक तुम दोनों कुमारों और लाड़िली को अपने साथ लेकर मायारानी के उस तिलिस्मी बाग के चौथे दर्जे में जाकर देवमन्दिर में रहो। वहाँ खाने में लिए मेवों की बहुतायत है और पानी का चश्मा भी जारी है। मायारानी को तुम लोगों का हाल मालूम न होगा, क्योंकि उसे वह स्थान मालूम नहीं है और न वहाँ तक जा ही सकती है। उसी जगह रहकर दोनों कुमारों को एक-दो दफे 'रिक्तग्रंथ' शुरू से आखिर तक अच्छी तरह पढ़ जाना चाहिए। जो बातें इनकी समझ में न आवें, तुम समझा देना और इसी बीच में वहाँ की बहुत-सी अद्भुत बातें भी ये देख लेंगे, इसलिए कि इनको बहुत जल्द वह तिलिस्म तोड़ना होगा, जैसा कि हम बुजुर्गों की लिखी किताबों में देख चुके हैं, वह इन्हीं लोगों के हाथ से टूटेगा।

कमलिनी––बेशक-बेशक।

गोपालसिंह––और एक ऐयार को रोहतासगढ़ भेज दो कि वहाँ जाकर महाराज वीरेन्द्रसिंह को कुमारी के कुशल-मंगल का हाल कहे और थोड़ी-सी फौज अपने साथ ले आकर जमानिया के मुकाबिले में लड़ाई शुरू कर दे, मगर वह लड़ाई जोर के साथ शीघ्र बखेड़ा निपटाने की नीयत से न की जाय जब तक कि हम लोग दूसरा हुक्म न दें। बस इसके बाद जब मैं अपना काम करके अर्थात् किशोरी और कामिनी को छुड़ाकर लौटूँगा और तुमसे मिलूँगा तो जो कुछ मुनासिब होगा किया जायगा। हाँ देवमन्दिर में रहकर मौका मिले तो मायारानी को गुप्त रूप रो छेड़ती रहना।

कमलिनी––आपकी राय बहुत ठीक है, मगर आप कैद की तकलीफ उठाने के कारण बहुत ही सुस्त और कमजोर हो रहे हैं, इतनी तकलीफ क्योंकर उठा सकेंगे?

गोपालसिंह––तुम इसकी चिन्ता मत करो! (कुमारों की तरफ देखकर) आप लोग मेरी राय पसन्द करते हैं या नहीं? कुमार––बेशक आपकी राय उत्तम है।

कमलिनी––अच्छा तो अपना तिलिस्मी खंजर जिसका गुण आपसे कह चुकी हूँ, आपको देती हूँ, यह आपकी बहुत सहायता करेगा।

गोपालसिंह––हाँ बेशक, यह खंजर ऐसी अवस्था में मेरे साथ रहने योग्य है, परन्तु वह जब तक तुम्हारे पास है, मैं तुम्हें किसी तरह का खतरा नहीं पहुँचा सकता, इसलिए खंजर को मैं तुमसे जुदा न करूँगा।

इन्द्रजीतसिंह––उस खंजर का जोड़ा, जो कमलिनी ने मुझे दिया है मैं आपको देता हूँ, आप इसे अवश्य अपने साथ रखें।

गोपालसिंह––नहीं-नहीं, इसकी कोई आवश्यकता नहीं।

इन्द्रजीतसिंह––आपको मेरी यह बात अवश्य माननी पड़ेगी।

इतना कहकर इन्द्रजीतसिंह ने वह खंजर जबर्दस्ती गोपाल सिंह के हवाले किया और किश्ती किनारे लगाने का हुक्म दिया।

गोपालसिंह––अच्छा तो मेरे साथ कौन ऐयार चलेगा?

इन्द्रजीतसिंह––जिसे आप पसन्द करें! केवल तेजसिंह चाचा को मैं अपने पास रखना चाहता हूँ, इसलिए कि इनकी जुबानी उन घटनाओं का हाल सुनूँगा जो आपको कैद से छुड़ाने के समय हुई होंगी।

गोपालसिंह––(हँसकर) बेशक वे बातें सुनने योग्य हैं!

देवीसिंह––आपके साथ मैं चलूँगा।

गोपालसिंह––अच्छी बात है।

इन्द्रजीतसिंह––भैरोंसिंह को रोहतासगढ़ भेजता हूँ!

गोपालसिंह––बहुत मुनासिब, मगर तेजसिंह के अतिरिक्त और दोनों ऐयारों को अर्थात् तारासिंह और शेरसिंह को अपने साथ मत फँसाये रहियेगा।

इन्द्रजीतसिंह––नहीं-नहीं, उन दोनों को अपने रहने का ठिकाना दिखाकर छोड़ देंगे, ये दोनों चारों तरफ घूमकर खबर लगाते रहेंगे। गोपालसिंह और मैं भी यही चाहता हूँ। (कमलिनी की तरफ देखकर) बाग के चौथे दर्जे में जो देवमन्दिर है, वहाँ जाने का रास्ता तुझे अच्छी तरह मालूम है या नहीं?

कमलिनी––'रिक्तग्रन्थ' की बदौलत वहाँ का रास्ता मैं अच्छी तरह जानती हूँ। इतने में किश्ती किनारे लगी और सब कोई उतर पड़े।