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चन्द्रकांता सन्तति 3/9.1

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चंद्रकांता संतति भाग 3
देवकीनंदन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ ५ से – ८ तक

 

चन्द्रकान्ता सन्तति

नौवाँ भाग

1

अब वह मौका आ गया है कि हम अपने पाठकों को तिलिस्म के अन्दर ले चलें और वहाँ की सैर करावें, क्योंकि कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह तथा मायारानी तिलिस्मी बाग के चौथे दर्जे में जा विराजे हैं जिसे एक तरह तिलिस्म का दरवाजा कहना चाहिए। ऊपर के भाग में यह लिखा जा चुका है कि भैरोंसिंह को रोहतासगढ़ की तरफ और राजा गोपालसिंह और देवीसिंह को काशी की तरफ रवाना करने के बाद इन्द्रजीतसिंह, आनन्दसिंह, तेजसिंह, तारासिंह, शेरसिंह और लाड़िली को साथ लिए हुए कमलिनी तिलिस्मी बाग के चौथे दर्जे में जा पहुँची और उसने राजा गोपालसिंह के कहे अनुसार देवमन्दिर में, जिसका हाल आगे चलकर खुलेगा, डेरा डाला। हमने कमलिनी और कुँअर इन्द्रजीतसिंह वगैरह को दारोगा वाले मकान के पास के एक टीले पर ही पहुँचा कर छोड़ दिया था और यह नहीं लिखा कि वे लोग तिलिस्मी बाग के चौथे दर्जे में किस राह से पहुँचे या वह रास्ता किस प्रकार का था। खैर, हमारे पाठक महाशय ऐयारों के साथ कई दफा उस तिलिस्मी बाग में जायँगे इसलिए वहाँ के रास्ते का हाल उनसे छिपा न रह जायगा।

तिलिस्मी बाग का चौथा दर्जा अद्भुत और भयानक रस का खजाना था। वहाँ का पूरा हाल तो तब मालूम होगा जब तिलिस्म बखूबी टूट जायगा मगर जाहिरा हाल जिसे कुँअर इन्द्रजीतसिंह और उनके साथियों ने वहाँ पहुँचने के साथ ही देखा, हम इस जगह लिख देते हैं।

उस हिस्से में फूल-फल और पत्तों की किस्म में से ऐसा कुछ विशेष न था जिससे हम उसे बाग कहते, हाँ चारों तरफ तरह-तरह की इमारतें जरूर बहुतायत से बनी हुई थीं जिनका हाल हम उस देवमन्दिर को मध्य मान कर लिखते हैं जिसमें इस समय हमारे दोनों कुमार और दोनों नेक दिल खैरख्वाह और मुहब्बत का नायाब नमूना दिखानेवाली नायिकाएँ तथा उनके साथी लोग विराज रहे हैं। जैसा कि नाम से समझा जाता है वह देवमन्दिर वास्तव में कोई मन्दिर या शिवालय नहीं था, वह केवल सुर्ख पत्थर का बना
हुआ एक मकान था जिसमें दस हाथ की कुर्सी के ऊपर चालीस खम्भों का केवल एक अपूर्व कमरा था जिसके बीचोंबीच में दस हाथ के घेरे का एक गोल खम्भा था और उस पर तरह-तरह की तस्वीरें बनी हुई थीं। बस, इसके अतिरिक्त देवमन्दिर में और कोई बात न थी। उस देवमन्दिर वाले कमरे में जाने के लिए जाहिर में कोई रास्ता न था, इसके सिवाय एक बात यह और थी कि कमरा चारों तरफ से परदेनुमा ऊँची दीवारों से ऐसा घिरा हुआ था कि उसके अन्दर रहने वाले आदमियों को बाहर से कोई देख नहीं सकता था। उस देवमन्दिर के चारों तरफ थोड़ी-सी जमीन में बाग की पक्की क्यारियाँ बनी हुई थीं और उनमें तरह-तरह के पेड़ लगे हुए थे, मगर ये पेड़ भी सच्चे न थे, बल्कि एक प्रकार की धातु के बने थे और असली मालूम होने के लिए उन पर तरह-तरह के रंग चढ़े हुए थे, यदि इस खयाल से उसे हम बाग कहें तो हो सकता है और ताज्जुब नहीं कि इन्हीं पेड़ों की वजह से वह हिस्सा वाग के नाम से पुकारा भी जाता हो। उस नकली बाग में दो-दो आदमियों के बैठने लायक कई कुर्सियाँ भी जगह-जगह बनी हुई थीं।

उन क्यारियों के चारों तरफ छोटी-छोटी कई कोठरियाँ और मकान भी बने थे जिनका अलग-अलग हाल लिखना इस समय आवश्यक नहीं, मगर उन चार मकानों का हाल लिखे बिना काम न चलेगा जो कि देवमन्दिर या यों कहिए कि इस नकली बाग के चारों तरफ एक-दूसरे के मुकाबले में बने हुए थे और जिन चारों ही मकानों के बगल में एक-एक कोठरी और कोठरी से थोड़ी दूर के फासले पर एक-एक कुआँ भी बना हुआ था।

पूरब की तरफ वाले मकान के चारों तरफ पीतल की ऊँँची दीवार थी इसलिए उस मकान का केवल ऊपर वाला हिस्सा दिखाई देता था और कुछ मालूम नहीं होता था कि उसके अन्दर क्या है, हाँ छत के ऊपर एक लोहे का पतला महराबदार खम्भ निकला हुआ जरूर दिखाई दे रहा था जिसका दूसरा सिरा उसके पास वाले कुएँँ के अन्दर गया हुआ था। उस मकान के चारों तरफ जो पीतल की दीवार थी उसी में एक बन्द दरवाजा भी दिखाई देता था जिसके दोनों तरफ पीतल के दो-दो आदमी हाथ में नंगी तलवारें लिए खड़े थे।

पश्चिम तरफ वाले मकान के दरवाजे पर हड्डियों का एक बड़ा-सा ढेर था और उसके बीचोंबीच में लोहे की एक जंजीर गड़ी थी जिसका दूसरा सिरा उसके पास वाले कुएँँ के अन्दर गया था।

उत्तर तरफ वाला मकान गोलाकार स्याह पत्थरों का बना हुआ था और उसके चारों तरफ चखियाँँ और तरह-तरह के कल-पुर्जे लगे हुए थे। इसी मकान के पास वाले कुएँ के अन्दर मायारानी अपने पति का काम तमाम करने के लिए गई थी।

दक्खिन की तरफ वाले मकान के ऊपर चारों कोनों पर चार बुर्जियाँ थीं और उनके ऊपर लोहे का जाल पड़ा था। उन चारों बुर्जियों पर (जाल के अन्दर) चार मोर न मालूम किस चीज के बने हुए थे जो हर वक्त नाचा करते थे।

आज उसी देवमन्दिर के कमरे में दोनों कुमार, कमलिनी, लाड़िली और ऐयार लोग बैठे आपस में कुछ बातें कर रहे हैं। रिक्तगन्थ अर्थात् किसी के खून से लिखी हुई किताब कुँँअर इन्द्रजीतसिंह के हाथों में है और वह बड़े प्रेम से उसकी जिल्द को देख रहे
हैं, मगर अभी तक उस किताब को पढ़ने की नौबत नहीं आई है। कमलिनी मुहब्बत की निगाह से इन्द्रजीतसिंह को देख रही है और उसी तरह लाड़िली भी छिपी निगाहें कुँँअर आनन्दसिंह पर डाल रही है।

कमलिनी―(इन्द्रजीतसिंह से) अब आपको चाहिए कि जहाँ तक जल्द हो सके यह रिक्तगंथ पढ़ जायँ।

इन्द्रजीतसिंह―हाँ, मैं भी यही चाहता हूँ, परन्तु पहले उन कामों से छुट्टी पा लेनी चाहिए जिनके लिए तेजसिंह चाचा को और ऐयारों को हम लोग यहाँ तक साथ लाए हैं।

कमलिनी—मैं इन लोगों को केवल रास्ता दिखाने के लिए यहाँ तक लाई थी सो काम तो हो ही चुका, अब इन लोगों को यहाँ से जाना और कोई नया काम करना चाहिए और आपको भी रिक्तग्रंथ पढ़ने के बाद तिलिस्म तोड़ने में लग जाना चाहिए।

इन्द्रजीतसिंह―राजा गोपालसिंह ने कहा था कि किशोरी और कामिनी को छुड़ा कर जब हम आ जायँ तब तिलिस्म तोड़ने में हाथ लगाना। इसके अतिरिक्त तेजसिंह चाचा से मुझे राजा गोपालसिंह के छुड़ाने का हाल सुनना भी बाकी है।

तेजसिंह―उस बारे में कुछ हाल तो मैं आपसे कह भी चुका हूँ!

आनन्दसिंह―जी हाँ, आप वहाँ तक कह चुके हैं जब (कमलिनी की तरफ देख कर) ये चंडूल की सूरत बनाकर आपके पास आई थीं, मगर हमें यह न मालूम हुआ कि इन्होंने हरनामसिंह, बिंहारीसिंह और मायारानी के कान में क्या कहा जिसे सुन सभी की अवस्था बदल गई थी। जहाँ तक मैं समझता हूँ, शायद इन्होंने राजा गोपालसिंह के ही बारे में कोई इशारा किया होगा।

कमलिनी–जी हाँँ, यही बात है। राजा गोपालसिंह को कैद करने में हरनामसिंह और बिहारीसिंह ने भी मायारानी का साथ दिया था और धनपत इस काम की जड़ है।

इन्द्रजीतसिंह―(हँस कर) धनपत इस काम की जड़ है!

कमलिनी―जी हाँ, मैं बोलने में भूलती नहीं, धनपत वास्तव में औरत नहीं है बल्कि मर्द है। उसकी खूबसूरती ने मायारानी को फँसा लिया और उसी की मुहब्बत में पड़ कर उसने यह अनर्थ किया था। ईश्वर ने धनपत का चेहरा ऐसा बनाया है कि वह मुद्दत तक औरत बन कर रह सकता है। एक तो वह नाटा है। दूसरे अठारह वर्ष की अवस्था हो जाने पर भी दाढ़ी-मूँँछ की निशानी नहीं आई। लेकिन जनानी सूरत होने पर भी उसमें ताकत बहुत है।

इन्द्रजीतसिंह―(ताज्जुब से) यह तो एक नई बात तुमने सुनाई। अच्छा तब?

लाड़िली―क्या धनपत मर्द है?

कमलिनी―हाँ, और यह हाल मायारानी, बिहारीसिंह और हरनामसिंह के सिवाय और किसी को मालूम नहीं है। कुछ दिन बाद मुझे मालूम हो गया था, मगर आज के पहले यह हाल मैंने भी किसी से नहीं कहा था। इसी तरह राजा गोपालसिंह का हाल भी उन चारों के सिवाय और कोई नहीं जानता था और जब कोई पाँँचवाँँ आदमी
उस भेद को जानेगा तो बेशक हम चारों की जान जायगी और यही सबब उस समय उन लोगों की बदहवासी का था जब मैंने चंडूल बन कर उन तीनों के कानों में पते की बात कही थी, मगर उस समय इसके साथ-साथ ही मैंने यह भी कह दिया था कि राजा गोपालसिंह का हाल हजारों आदमी जान गए हैं और राजा वीरेन्द्रसिंह के लश्कर में भी यह बात मशहूर हो गई है।

आनन्दसिंह―ठीक है, मगर बिहारीसिंह ने मायारानी से यह हाल क्यों नहीं कहा?

कमलिनी―इसका एक खास सबब है।

इन्द्रजीतसिंह―वह क्या?

कमलिनी―बिहारी और हरनाम ने मायारानी के दो प्रेमी पात्रों का खून किया है जिसका हाल मायारानी को भी मालूम नहीं है, उसका भी इशारा मैंने उन दोनों के कानों में किया था।

इन्द्रजीतसिंह―(हँस कर) तुम्हारी बहिन बड़ी ही शैतान है! मगर देखना चाहिए तुम कैसी निकलती हो, खून का साथ देती हो या नहीं!

कमलिनी―(हाथ जोड़ कर) बस, माफ कीजिए, ऐसा कहना हम दोनों बहिनों (लाड़िली की तरफ इशारा करके) के लिए उचित नहीं! इसका एक सबब भी है।

इन्द्रजीतसिंह―वह क्या?

कमलिनी—मेरे पिता की दो शादियाँँ हुई थीं। मैं और लाड़िली एक माँ के पेट से हुईं और कम्बख्त मायारानी दूसरी माँ के पेट से, इसलिए हम दोनों का खून उसके संग नहीं मिल सकता।

इन्द्रजीतसिंह—(हँस कर) शुक्र है, खैर यह कहो कि चंडूल बनने के बाद तुमने क्या किया?

कमलिनी―चंडूल बनने के बाद मैंने नानक को बाग के बाहर कर दिया और तेजसिंह जी को राजा गोपालसिंह के पास ले जाकर दोनों की मुलाकात कराई, इसके बाद वहाँँ रहने का स्थान, राजा गोपालसिंह के छुड़ाने की तरकीब, और फिर उन्हें साथ लेकर बाग के बाहर हो जाने का रास्ता बताकर मैं तेजसिंह जी से बिदा हुई और आप लोगों को कैद से छुड़ाने का उद्योग करने लगी। इसके बाद जो कुछ हुआ आप जान ही चुके हैं। हाँ, राजा गोपालसिंह को छुड़ाने के समय तेजसिंहजी ने क्या-क्या किया सो आप इन्हीं से पूछिए।

अब पाठक समझ ही गये होंगे कि राजा गोपालसिंह को कैद से छुड़ाने वाले तेजसिंह थे और जब राजा गोपालसिंह को मारने के लिए मायारानी कैदखाने में गई थी तो तेजसिंह ही ने आवाज देकर उसे परेशान कर दिया था। दोनों कुमारों के पूछने पर तेजसिंह ने अपना पूरा-पूरा हाल बयान किया जिसे सुनकर कुमार बहुत प्रसन्न हुए।