चन्द्रकांता सन्तति 3/9.13

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चंद्रकांता संतति भाग 3  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री

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कल शाम को बाबाजी जमानिया गए थे और आज शाम होने के दो घंटे पहले ही लौट आये। दूर ही से अपने बँगले की हालत देख सिर हिलाकर बोले, "मैं उसी समय समझ गया था जब मायारानी ने कहा था कि कैदियों को मैगजीन के बगल वाले तहखाने में कैद करना चाहिए।"

बाबाजी का बँगला जो बहुत ही खूबसूरत और शौकीनों के रहने के लायक था, बिल्कुल बर्बाद हो गया था, बल्कि यों कहना चाहिए कि उसकी एक-एक ईंट अलग हो गई थी। बाबाजी धीरे-धीरे उसके पास पहुंचे और कुछ देर तक गौर से देखने के बाद यह कहते हुए घूम पड़े कि "जो हो मगर अजायबघर किसी तरह बर्बाद नहीं हो सकता"

बाबाजी के बँगले के बर्बाद होने का सबब पाठक समझ ही गये होंगे, क्योंकि ऊपर के बयान में मायारानी और नागर की बातचीत से वह भेद साफ-साफ खल चुका है। अब बाबाजी इस विचार में पड़े कि मायारानी को ढूंढकर उससे दो-दो बातें करनी चाहिए।

ऐसा करने में बाबाजी को विशेष तकलीफ नहीं उठानी पड़ी, क्योंकि थोड़ी ही दूर पर उन्हें उन लौंडियों में से एक लौंडी मिली जो उस समय मायारानी के साथ थी, जब बाबाजी कैदियों को तहखाने में बन्द करके दीवान से मिलने के लिए जमानिया की तरफ रवाना हुए थे। बाबाजी ने उस लौंडी से केवल इतना ही पूछा, "मायारानी कहाँ हैं?"

लौंडी-जब आप जमानिया की तरफ चले गये तो मायारानी हम लोगों को साथ लेकर दिल बहलाने के लिए इस जंगल में टहलने लगीं और धीरे-धीरे यहाँ से कुछ दूर चली गईं। ईश्वर ने बड़ी कृपा की कि रानी साहिबा के दिल में यह बात पैदा हुई नहीं तो हम लोग भी टुकड़े-टुकड़े होकर उड़ गए होते, क्योंकि थोड़ी ही देर बाद भयानक आवाज सुनने में आई, और जब हम लोग इस बँगले के पास आये तो मिट्टी और गर्द के सबब अन्धकार हो रहा था। हम लोग डर कर पीछे की तरफ हट गये और अन्त में इस बँगले की ऐसी अवस्था देखने में आई जो आप देख रहे हैं। लाचार मायारानी ने यहाँ ठहरना उचित न समझा और नागर के साथ काशीजी की तरफ रवाना हो गईं। [ ६३ ] बाबा-और तुझे इसलिए यहाँ छोड़ गई कि जब मैं आऊँ तो बातें बनाकर मेरे क्रोध को बढ़ावे!

लौंडी-जी ई ई ई...

बाबा-जी ई ई ई क्या? बेशक यही बात है! खैर, अब तू भी यहाँ से वहीं चली जा और कम्बख्त मायारानी से जाकर कह दे कि जो कुछ तूने किया, बहुत अच्छा किया, मगर इस बात को खूब याद रखना कि नेकी का नतीजा नेक है और बद को कभी सुख की नींद सोना नसीब नहीं होता। अच्छा ठहर, मैं एक चिट्ठी लिख देता हूँ सो लेती जा और जहां तक जल्द हो सके, मिलकर मायारानी के हाथ दे दे।

इतना कहकर बाबाजी बैठ गए और अपने बटुए से सामान निकालकर चिट्ठी लिखने लगे, जब चिट्ठी लिख चुके तो उसे लौंडी के हाथ में दे दिया और आप उत्तर तरफ रवाना हो गये।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह लौंडी बाबाजी की चिट्ठी लिए हुए काशीजी जायेगी और मायारानी से मिलकर चिट्ठी उसके हाथ में देगी मगर हम आपको अपने साथ लिए हुए पहले ही काशीजी पहुँचते हैं और देखते हैं कि मायारानी किस धुन में कहाँ बैठी है या क्या कर रही है।

रात पहर से ज्यादा जा चुकी है। काशी में मनोरमा वाले मकान के अन्दर एक सजे हुए कमरे में मायारानी नागर के साथ बैठी हुई कुछ बात कर रही है। इस समय कमरे में सिवाय नागर और मायारानी के और कोई नहीं है। कमरे में यद्यपि बहुत से बेशकीमती शीशे करीने के साथ लगे हुए हैं, मगर रोशनी दो दीवारगीरों में और एक सब्ज कंवल वाले शमादान में, जो मायारानी के सामने गद्दी के नीचे रखा हुआ है, हो रही है। मायारानी सब्ज मखमल की गद्दी पर गाव-तकिये के सहारे बैठी है। इस समय उसका खूबसूरत चेहरा, जो आज से तीन-चार दिन पहले उदासी और बदहवासी के कारण बेरौनक हो रहा था, खुशी और फतहमन्दी की निशानियों के साथ दमक रहा है और वह किसी सवाल का इच्छानुसार जवाब पाने की आशा में मुस्कुराती हुई नागर की तरफ देख रही है।

नागर-इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि एक भारी बला आपके सिर से टली है, परन्तु यह न समझना चाहिए कि अब आपको किसी आफत का सामना न करना पड़ेगा।

मायारानी-इस बात को मैं जानती हूँ कि जमानिया की गद्दी पर बैठने के लिए अब भी बहुत-कुछ उद्योग करना पड़ेगा, मगर मैं यह कह रही हैं कि सबसे भारी बला जो थी, वह टल गई। कम्बख्त कमलिनी ने भी बड़ा ही ऊधम मचा रखा था, अगर वह वीरेन्द्रसिंह की पक्षपाती न होती, तो मैं कभी का दोनों कमारों को मौत की नींद सुला चुकी होती।

नागर-बेशक! बेशक!

मायारानी-और भूतनाथ का मारा जाना भी बहुत अच्छा हुआ, क्योंकि उसे इस मकान का बहुत-कुछ भेद मालूम हो चुका था और इस सबब से इस मकान के रहने वाले भी बेफिक्र नहीं रह सकते थे। मगर देखो तो सही रामजादे दीवान को क्या हो [ ६४ ] गया जो मुझसे एकदम ही फिर गया, बल्कि मुझको गिरफ्तार करने का उद्योग भी करने लगा।

नागर-जरूर यह बात भी उन्हीं नकाबपोशों की बदौलत हई है।

मायारानी–ठीक है, पहले तो मैं बेशक ताज्जुब में थी कि न मालूम वे दोनों नकाबपोश कौन थे और कहाँ से आये थे और आज दीवान तथा सिपाहियों के बिगड़ने का सबब केवल यही ध्यान में आता है कि धनपत का भेद खुल जाने से उन लोगों ने मुझे बदकार समझ लिया, मगर अब मुझे निश्चय हो गया कि उन दोनों नकाबपोशों में से एक तो गोपालसिंह था।

नागर-मेरा भी यही निश्चय है, बल्कि मैं अभी यही बात अपने मुँह से निकालने वाली थी। उसके सिवाय और कोई ऐसा नहीं हो सकता कि केवल सुरत दिखाकर लोगों को अपने वश में कर ले। सिपाहियों और दीवान को जरूर इस बात का निश्चय हो गया कि गोपालसिंह को तुमने कैद कर रखा था। खैर, जो होना था सो हो गया। अब तो राजा गोपालसिंह का नाम-निशान ही न रहा, जो फिर जाकर अपना मुँह उन लोगों को दिखावेंगे, अब थोड़े ही दिनों में उन लोगों को निश्चय करा दिया जायेगा कि वह राजा वीरेन्द्रसिंह का कोई ऐयार था।

मायारानी—तुम्हारा कहना बहुत ठीक है और मेरे नजदीक अब यह कोई बड़ी बात नहीं है कि बेईमान दीवान को गिरफ्तार कर लूँ या मार डालूँ, मगर एक बात का खुटका जरूर है।

नागर-वह क्या?

मायारानी–केवल इतना ही कि दीवान को मारने या गिरफ्तार करने के साथ ही साथ राजा वीरेन्द्रसिंह की उस फौज का भी मुकाबला करना पड़ेगा जो सरहद पर आ चुकी है।

नागर-इसमें तो कुछ भी सन्देह नहीं है और इस बात का भी विश्वास नहीं हो सकता कि तुम्हारी फौज तुम्हारा पक्ष लेकर लड़ने के लिए तैयार हो जायगी। फौजी सिपाहियों के दिल से गोपालसिंह का ध्यान दूर होना दो-एक दिन का काम नहीं है!

मायारानी-(कुछ सोचकर) तो क्या मैं अकेली राजा वीरेन्द्रसिंह की फौज को नहीं हटा सकती?

नागर-सो तो तुम्हीं जानो। मायारानी—बेशक मैं ऐसा बड़ा काम कर सकती हूँ मगर अफसोस, मेरा प्यारा धनपत..

धनपत का नाम लेते ही मायारानी की आँखें डबडबा आई। नागर ने अपने आँचल से उसकी आँखें पोंछी और बहुत-कुछ धीरज दिया। इसी समय दरवाजे के बाहर से चुटकी बजाने की आवाज आई, जिसे सुनकर नागर समझ गई कि कोई लौंडी यहाँ आना चाहती है। नागर ने पुकार कर कहा, "कौन है, चले आओ!"

वही लौंडी भीतर आती हुई दिखाई पड़ी जो बर्बाद हुए बँगले के पास बाबा जी से मिली थी और जिसके हाथ बाबाजी ने मायारानी के पास चिट्ठी भेजी थी। [ ६५ ] उसको देखते ही मायारानी चैतन्य हो बैठी और बोली, "कहो, दारोगा से मुलाकात हुई थी?"

लौंडी-जी हाँ।

मायारानी-(मुस्कुरा कर) वह तो बहुत ही बिगड़ा होगा।

लौंडी-हाँ, बहुत झुंझलाये और उछले-कूदे, आपकी शान में कड़ी-कड़ी बातें कहने लगे, मगर मैं चुपचाप खड़ी सुनती रही। अन्त में बोले, "अच्छा, मैं एक चिट्ठी लिखकर देता हूँ, इसे ले जाकर अपनी मायारानी को दे देना।"

मायारानी तो क्या उसने चिट्ठी लिखकर दी है?

लौंडी--जी हाँ, यह मौजूद है, लीजिए।

लौंडी ने चिट्ठी मायारानी के हाथ में दे दी और मायारानी ने यह कहकर चिटठी ले ली कि "देखना चाहिए इसमें दारोगा साहब क्या रंग लाये हैं!" इसके बाद वह चिटठी नागर के हाथ में देकर बोली, "लो, इसे तुम ही पढ़ो!"

नागर चिट्ठी खोलकर पढ़ने लगी। उस समय मायारानी की निगाह नागर के चेहरे पर थी। आधी चिट्ठी पढ़ने के बाद नागर के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी और डर के मारे उसका हाथ काँपने लगा। मायारानी ने घबराकर पूछा, 'क्यों क्या हाल है। कुछ कहो तो!"

इसके जवाब में नागर ने लम्बी साँस लेकर चिट्ठी मायारानी के सामने रख दी और बोली, "ओह, मेरी सामर्थ्य नहीं कि इस चिट्ठी को आखीर तक पढ़ सकूँ। हाय, निःसन्देह वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों का मुकाबला करना पूरा-पूरा पागलपन है।"

मायारानी ने घबराकर चिट्ठी उठा ली और स्वयं पढ़ने लगी, पर वह भी उस चिट्ठी को आधे से ज्यादा न पढ़ सकी। पसीना छूटने लगा, शरीर काँपने लगा, दिमाग में चनकर आने लगे, यहाँ तक कि अपने को किसी तरह सँभाल न सकी और बदहवास होकर जमीन पर गिर पड़ी।