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चन्द्रकांता सन्तति 4/13.2

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चंद्रकांता संतति भाग 4
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ १० से – ११ तक

 

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दिन लगभग पहर भर के चढ़ चुका है। दोनों कुमार स्नान-ध्यान-पूजा से छुट्टी पाकर तिलिस्म तोड़ने में हाथ लगाने के लिए जा ही रहे थे कि रास्ते में फिर उसी बुड्ढे से मुलाकात हुई। बुड्ढे ने झुककर दोनों कुमारों को सलाम किया और अपनी जेब में से एक चिट्ठी निकालकर कुँअर इन्द्रजीतसिंह के हाथ में देकर बोला, "देखिए राजा गोपालसिंह के हाथ को सिफारिशी चिट्ठी ले आया हूँ, इसे पढ़कर तब कहिए कि मुझ पर भरोसा करने में अब आपको क्या उज्र है ?" कुमार ने चिट्ठी पढ़ी और आनन्दसिंह को दिखाने के बाद हँसकर उस बुड्ढे की तरफ देखा।

बुड्ढा—(मुस्कुराकर) कहिए, अब आप क्या कहते हैं ? क्या इस पत्र को आप जाली या बनावटी समझते हैं ?

इन्द्रजीतसिंह--नहीं-नहीं, यह चिट्ठी जाली नहीं हो सकती, मगर देखो तो सही

--इस (आनन्दसिंह के हाथ से चिट्ठी लेकर और चिट्ठी में लिखे हुए एक निशान को दिखाकर) इस निशान को तुम पहचानते हो या इसका मतलब तुम जानते हो?

वुड्ढा—(निशान देखकर) इसका मतलव तो आप जानिए या गोपालसिंह जानें मुझे क्या मालूम,यदि आप बतलाइए तो...

इन्द्रजीतसिंह--इसका मतलब यही है कि यह चिट्ठी बेशक सच्ची है, मगर इसमें लिखा है उस पर ध्यान न देना!

बुड्ढा--क्या गोपालसिंह ने आपसे कहा था कि हमारी लिखी जिस चिट्ठी पर ऐसा निशान हो, उसकी लिखावट पर ध्यान न देना ?

इन्द्रजीतसिंह--हाँ, मुझसे उन्होंने ऐसा ही कहा था, इसलिए जाना जाता है कि यह चिट्ठी उन्होंने अपनी इच्छा से नहीं लिखी, बल्कि जबर्दस्ती किये जाने के सबब से लिखी है।

बुड्ढा--नहीं-नहीं, ऐसा कदापि नहीं हो सकता, आप भूलते हैं, उन्होंने आपसे इस निशान के बारे में कोई दूसरी बात कही होगी।

कुमार-नहीं-नहीं, मैं ऐसा भुलक्कड़ नहीं हूँ। अच्छा आप ही बताइये, यह निशान उन्होंने क्यों बनाया ?

बुड्ढा--यह निशान उन्होंने इसलिए स्थिर किया है कि कोई ऐयार उनके दोस्तों को उनकी लिखावट का धोखा न दे सके। (कुछ सोचकर और हँसकर) मगर कुमार,तुम भी बड़े बुद्धिमान और मसखरे हो !

कुमार--कहो, अब मैं तुम्हारी दाढ़ी नोंच लूं ?

आनन्द्रसिंह--(हंसकर और ताली बजाकर) या मैं नोंच लूं ?

बुड्ढा--(हँसते हुए) अब आप लोग तकलीफ न कीजिए मैं स्वयं इस दाढ़ी को नोंचकर अलग फेंक देता हूँ !

'इतना कह उस बुड्ढे ने अपने चेहरे से दाढ़ी अलग कर दी और इन्द्रजीतसिंह के गले से लिपट गया।

पाठक, यह बुड्ढा वास्तव में राजा गोपाल सिंह थे जो चाहते थे कि सूरत बदल-कर इस तिलिस्म में कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह की मदद करें, मगर कुमार की चालाकियों ने उनकी हिम्मत लडने न दी और लाचार होकर उन्हें प्रकट होना ही पड़ा।

कुँअर इन्द्रजीतसिंह-आनन्द सिंह दोनों भाई राजा गोपालसिंह से गले मिले और उनका हाथ पकड़े हुए नहर के किनारे गये जहाँ पत्थर की एक चट्टान पर बैठकर तीनों आदमी बातचीत करने लगे।