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चन्द्रकांता सन्तति 4/13.3

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चंद्रकांता संतति भाग 4
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ ११ से – १५ तक

 

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अब हम रोहतासगढ़ का हाल लिखते हैं। जिस समय बाहर यह खबर आई कि लक्ष्मीदेवी की तबीयत ठीक हो गई और वे सब पर्दे के पास आकर बैठ गईं उस समय राजा वीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह की तरफ देखा और कहा, "लक्ष्मीदेवी से पूछना चाहिए कि उसकी तबीयत यह कलमदान देखने के साथ ही क्यों खराब हो गई ?"

इसके पहले कि तेजसिंह राजा वीरेन्द्रसिंह की बात का जवाब दें या उठने का इरादा करें, जिन्न ने कहा, "आश्चर्य है कि आप इसके लिए जल्दी करते हैं।"

जिन्न की बात सुन राजा वीरेन्द्रसिंह मुस्कुराकर चुप हो रहे और भूतनाथ का कागज पढ़ने के लिए तेजसिंह को इशारा किया। आज भूतनाथ का मुकदमा फैसला होने वाला है इसलिए भूतनाथ और कमला का रंज और तरदुद तो वाजिब ही है मगर इस समय भूतनाथ से सौगुनी बुरी हालत बलभद्रसिंह की हो रही है। चाहे सभी का ध्यान उस कागज के मुछे की तरफ लगा हो जिसे अब तेजसिंह पढ़ना चाहते हैं मगर बलभद्र सिंह का खयाल किसी दूसरी तरफ है। उसके चेहरे पर बदहवासी और परेशानी छाई है और वह छिपी निगाहों से चारों तरफ इस तरह देख रहा है जैसे कोई मुजरिम निकल भागने के लिए रास्ता ढूंढ़ता हो, मगर भैरोंसिंह को मुस्तैदी के साथ अपने ऊपर तैनात पाकर सिर नीचा कर लेता है।

हम यह लिख चुके हैं कि तेजसिंह पहले उन चिट्ठियों को पढ़ गये जिनका हाल हमारे पाठकों को मालूम हो चुका है, अब तेजसिंह ने उसके आगे वाला पत्र पढ़ना आरंभ किया जिसमें यह लिखा हुआ था-


"मेरे प्यारे दोस्त,

आज मैं बलभद्रसिंह की जान ले ही चुका था मगर दारोगा साहब ने मुझे ऐसा करने से रोक दिया। मैंने सोचा था कि बलभद्रसिंह के खतम हो जाने पर लक्ष्मीदेवी की शादी रुक जायगी और उसके बदले में मुन्दर को भरती कर देने का अच्छा मौका मिलेगा मगर दारोगा साहब की यह राय न ठहरी। उन्होंने कहा कि गोपालसिंह को भी लक्ष्मी- देवी के साथ शादी करने की जिद हो गई है ऐसी अवस्था में यदि बलभद्रसिंह को तुम मार डालोगे तो राजा गोपालसिंह दूसरी जगह शादी करने के बदले कुछ दिन अटक जाना मुनासिब समझेंगे और शादी का दिन टल जाना अच्छा नहीं है, इससे यही उचित होगा कि बलभद्रसिंह को कुछ न कहा जाय, लक्ष्मीदेवी की माँ को मरे ग्यारह महीने हो ही चुके हैं, महीना-भर और बीत जाने दो, जो कुछ करना होगा शादी वाले दिन किया जायगा। शादी वाले दिन जो कुछ किया जायगा उसका बन्दोबस्त भी हो चुका है। उस दिन मौके पर लक्ष्मीदेवी गायब कर दी जायगी और उसकी जगह मुन्दर बैठा दी जायगी और उसके कुछ देर पहले ही बलभद्रसिंह ऐसी जगह पहुँचा दिया जायगा जहाँ से पुनः लौट आने की आशा नहीं है, बस, फिर किसी तरह का खटका न रहेगा। यह सब तो हुआ मगर आपने अभी तक फुटकर खर्च के लिए रुपए न भेजे। जिस तरह हो सके उस तरह बन्दोबस्त कीजिए और रुपए भेजिये, नहीं तो सब काम चौपट हो जायेगा, आगे आपको अख्तियार है।

वही भूतनाथ"

वीरेन्द्रसिंह--(भूतनाथ की तरफ देख के) क्यों भूतनाथ, यह चिट्ठी तुम्हारे हाथ की लिखी हुई है ?

भूतनाथ--(हाथ जोड़कर) जी हाँ महाराज, यह कागज मेरे हाथ का लिखा हुआ है।

वीरेन्द्रसिंह--तुमने यह पत्र हेलासिंह के पास भेजा था? भूतनाथ--जी नहीं।

वीरेन्द्रसिंह--तुम अभी कह चुके हो कि यह पत्र मेरे हाथ का लिखा है और फिर कहते हो कि नहीं!

भूतनाथ--जी मैं यह नहीं कहता कि यह कागज मेरे हाथ का लिखा हुआ नहीं है बल्कि मैं यह कहता हूँ कि यह पत्र हेलासिंह के पास मैंने नहीं भेजा था।

वीरेन्द्रसिंह-तब किसने भेजा था?

भूतनाथ--(बलभद्रसिंह की तरफ इशारा करके) इसने भेजा था और इसी ने अपना नाग भूतनाथ रक्खा था क्योंकि यह वास्तव में लक्ष्मीदेवी का बाप बलभद्रसिंह नहीं है।

वीरेन्द्रसिंह--अगर यह चिट्ठी (बलभद्रसिंह की तरफ इशारा करके) इन्होंने हेलासिंह पास भेजी थी तो फिर तुमने इसे अपने हाथ से क्यों लिखा? क्या तुम इनके नौकर या मुहर्रिर थे ?

भूतनाथ--जी नहीं, इसका कुछ दूसरा ही सबब है, मगर इसके पहले कि मैं आपकी बातों का पूरा-पूरा जवाब दूं, इस नकली बलभद्रसिंह से दो-चार बातें पूछने की आज्ञा चाहता हूँ।

वीरेन्द्रसिंह--क्या हर्ज है, जो कुछ पूछना चाहते हो, पूछो।

भूतनाथ—(बलभद्रसिंह की तरफ देख के) इस कागज के मुझे को तुम शुरू से आखिर तक पढ़ चुके हो या नहीं?

बलभद्रसिंह--हाँ, पढ़ चुका हूँ।

भूतनाथ--जो चिट्ठी अभी पढ़ी गई है इसके आगे वाली चिट्ठियाँ जो अभी पढ़ी नहीं गईं, तुम्हारे इस मुकदमे से कुछ सम्बन्ध रखती हैं?

बलभद्र--नहीं।

भूतनाथ--सो क्यों?

बलभद्र--आगे की चिट्ठियों का मतलब हमारी समझ में नहीं आता।

भूतनाथ--तो अब आगे वाली चिट्ठियों को पढ़ने की कोई आवश्यकता न रही।

बलभद्र--तेरा कसूर साबित करने के लिए क्या इतनी चिट्ठियाँ कम हैं जो पढ़ी जा चुकी हैं?

भूतनाथ--बहुत हैं बहुत हैं, अच्छा तो अब मैं यह पूछता हूँ कि लक्ष्मीदेवी के शादी के दिन तुम कैद कर लिए गए थे?

बलभद्रसिंह--हाँ।

भूतनाथ--उस समय बालासिंह कहाँ था और अब बालासिंह कहाँ है?

भूतनाथ के इस सवाल ने बलभद्रसिंह की अवस्था फिर बदल दी। वह और भी घबराया-सा होकर वोला, "इन सब बातों के पूछने से क्या फायदा निकलेगा?" इतना कहकर उसने दारोगा और मायारानी की तरफ देखा। मालूम होता था कि बालासिंह के नाम ने मायारानी और दारोगा पर भी अपना असर किया जो मायारानी के बगल ही में एक खम्भे के साथ बँधा हुआ था। वीरेन्द्रसिंह और उनके बुद्धिमान ऐयारों ने भी बलभद्र और दारोगा तथा मायारानी के चेहरे और उन तीनों की इस देखा-देखी पर गौर किया और वीरेन्द्रसिंह ने मुस्कुराकर जिन्न की तरफ देखा।

जिन्न--मैं समझता हूँ कि इस बलभद्रसिंह के साथ अब आपको बेमुरोवती करनी होगी।

वीरेन्द्रसिंह--बेशक ! मगर क्या आप कह सकते हैं कि यह मुकदमा आज फैसला हो जायगा?

जिन्न--नहीं, यह मुकदमा इस लायक नहीं है कि फैसला हो जाय। यदि आप इस मुकदमे की कलई अच्छी तरह खोलना चाहते हैं तो इस समय इसे रोक दीजिए और भूतनाथ को छोड़कर आज्ञा दीजिए कि महीने-भर के अन्दर जहाँ से हो सके वहाँ से असली बलभद्रसिंह को खोज लावे नहीं तो उसके लिए बेहतर न होगा।

वीरेन्द्रसिंह--भूतनाथ को किसकी जमानत पर छोड़ दिया जाय?

जिन्न--मेरी जमानत पर।

वीरेन्द्रसिंह--जब आप ऐसा कहते हैं तो हमें कोई उज्र नहीं है यदि लक्ष्मीदेवी और लाड़िली तथा कमलिनी भी इसे स्वीकार करें।

जिन्न--उन सब को भी कोई उज्र नहीं होना चाहिए।

इतने में पर्दे के अन्दर से कमलिनी ने कहा, "हम लोगों को कोई उज्र न होगा, हमारे महाराज को अधिकार है जो चाहें करें !"

वीरेन्द्रसिंह--(जिन्न की तरफ देख के) तो फिर कोई चिन्ता नहीं, हम आपकी बात मान सकते हैं। (भूतनाथ से) अच्छा तुम यह तो बताओ कि जब वह चिट्ठी तुम्हारे ही हाथ की लिखी हुई है तो तुम इसे हेलासिंह के पास भेजने से क्यों इनकार करते हो?

भूतनाथ--इसका हाल भी उसी समय मालूम हो जायगा जब मैं असली बलभद्रसिंह को छुड़ाकर ले आऊँगा।

जिन्न--आप इस समय इस मुकदमे को रोक ही दीजिए, जल्दी न कीजिए, क्योंकि इसमें अभी तरह-तरह के गुल खिलने वाले हैं।

बलभद्र--नहीं-नहीं, भूतनाथ को छोड़ना उचित नहीं होगा, यह बड़ा भारी बेईमान जालियांँ धूर्त और बदमाश है। यदि इस समय यह छूटकर चल देगा, तो फिर कदापि न आवेगा।

तेजसिंह--(घुड़ककर बलभद्र से) बस, चुप रहो, तुमसे इस बारे में राय नहीं मांगी जाती।

बलभद्रसिंह--(खड़े होकर) तो फिर मैं जाता हूँ, जिस जगह ऐसा अन्याय हो वहाँ ठहरना भले आदमियों का काम नहीं।

बलभद्रसिंह उठकर खड़ा हुआ ही था कि भैरोंसिंह ने उसकी कलाई पकड़ ली और कहा, "ठहरिये, आप भले आदमी हैं, आपको क्रोध न करना चाहिए, अगर ऐसा कीजिएगा तो भलमनसी में बट्टा लग जायगा। यदि आपको हम लोगों की सोहबत अच्छी नहीं मालूम पड़ती तो आप मायारानी और दारोगा की सोहबत में रक्खे जायेंगे, जिसमें आप खुश रहें हम लोग वही करेंगे।"

भैरोंसिंह ने बलभद्रसिंह की कलाई पकड़ के कोई नस ऐसी दबाई कि वह बेताब हो गया, उसे ऐसा मालूम हुआ मानो उसके तमाम बदन की ताकत किसी ने खींच ली हो, और वह बिना कुछ बोले इस तरह बैठ गया जैसे कोई गिर पड़ता है। उसकी यह अवस्था देख सभी ने मुस्करा दिया।

जिन्न--(वीरेन्द्रसिंह से) अब मैं आपसे और तेजसिंहजी से दो-चार बातें एकान्त में कहना चाहता हूँ।

वीरेन्द्रसिंह--हमारी भी यही इच्छा है।

इतना कहकर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह देवीसिंह से कुछ इशारा करके उठ खड़े हुए और दूसरे कमर की ओर चले गये।

राजा वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह और जिन्न आधे घण्टे तक एकान्त में बैठकर बातचीत करते रहे। सभी को जिन्न के विषय में जितना आश्चर्य था उतना ही इस बात का निश्चय भी हो गया था कि जिन्न का हाल राजा वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह और भैरोंसिंह को मालूम हो गया है परन्तु किसी से न कहेंगे और न कोई उनसे पूछ सकेगा।

आधे घण्टे के बाद तीनों आदमी कमरे के बाहर निकलकर अपने-अपने ठिकाने आ पहुंचे और तेजसिंह ने देवीसिंह की तरफ देख के कहा, "भूतनाथ को छोड़ देने की आज्ञा हुई है। तुम भूतनाथ और जिन्न के साथ जाओ और हिफाजत के साथ पहाड़ के नीचे पहुँचाकर लौट आओ।"

इतना सुनते ही देवीसिंह ने भूतनाथ की हथकड़ी-बेड़ी खोल दी और उसको तथा जिन्न को साथ लिये वहाँ से बाहर चले गये। इसके बाद तेजसिंह पर्दे के अन्दर गये और लक्ष्मीदेवी, कमलिनी तथा लाडिली को कुछ समझा-बुझाकर बाहर निकल आए। बलभद्र- सिंह को खातिरदारी और चौकसी के साथ हिफाजत में रखने के लिए भैरोंसिंह के हवाले किया गया होगा और बाकी कैदियों को कैदखाने में पहुँचाने की आज्ञा लेकर राजा वीरेन्द्रसिंह बाहर चले आए तथा अदालत बरखास्त कर दी गई।