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चन्द्रकांता सन्तति 4/13.6

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चंद्रकांता संतति भाग 4
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ २२ से – २६ तक

 

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जो कुछ हम ऊपर लिख आये हैं, उसके कई दिन बाद जमानिया में दोपहर दिन के समय जब राजा गोपालसिंह भोजन इत्यादि से छुट्टी पाकर अपने कमरे में चारपाई पर लेटे हुए एक-एक करके बहुत-सी चिट्ठियों को पढ़-पढ़कर कुछ सोच रहे थे उसी समय चोबदार ने भूतनाथ के आने की इत्तिला की। गोपालसिंह ने भूतनाथ को अपने सामने हाजिर करने की आज्ञा दी। भूतनाथ हाजिर हुआ और सलाम करके चुपचाप खड़ा हो गया। उस समय वहाँ पर इन दोनों के सिवाय और कोई न था।

गोपालसिंह--कहो भूतनाथ ! अच्छे तो हो, इतने दिनों तक कहाँ थे और क्या करते थे?

भूतनाथ--आपसे बिदा होकर मैं बड़ी मुसीबत में पड़ गया।

गोपालसिंह-–सो क्या!

भूतनाथ--कमलिनी के मकान की बर्बादी का हाल तो आपको मालूम हुआ ही होगा।

गोपालसिंह--हाँ मैं सुन चुका हूँ कि कमलिनी के मकान को दुश्मनों ने उजाड़ दिया और उसके यहाँ जो कैदी थे वे भाग गये।

भूतनाथ--ठीक है, तो क्या आप किशोरी, कामिनी और तारा का हाल भी सुन चुके हैं जो उस मकान में थीं?

गोपालसिंह--उनका खुलासा हाल तो मुझे मालूम नहीं हुआ मगर इतना सुन चुका हूँ कि अब वे सब कमलिनी के साथ रोहतासगढ़ में जा पहुंची हैं। भूतनाथ–-ठीक है मगर उन पर कैसी मुसीबत आ पड़ी थी उसका हाल आपको शायद मालूम नहीं।

गोपालसिंह--नहीं, बल्कि उसका खुलासा हाल दरियाफ्त करने के लिए मैंने एक आदमी रोहतासगढ़ में ज्योतिषीजी के पास भेजा है और एक पत्र भी लिखा है मगर अभी तक जवाब नहीं आया। तो क्या कमलिनी के साथ तुम भी वहाँ गये थे ?

भूतनाथ--जी हाँ, मैं कमलिनी के साथ था।

गोपालसिंह--तब तो मुझे सब खुलासा हाल तुम्हारी ही जुबानी मालूम हो सकता है, अच्छा कहो कि क्या-क्या हुआ?

भूतनाथ--मैं सब हाल आपसे कहता हूँ और उसी के बीच में अपनी तबाही और बर्बादी का हाल भी कहता हूँ।

इतना कह भूतनाथ ने किशोरी, कामिनी, लक्ष्मीदेवी, भगवनिया, श्यामसुन्दर- सिंह और बलभद्रसिंह का कुल हाल जो ऊपर लिखा जा चुका है कहा और इसके बाद रोहतासगढ़ किले के अन्दर जो कुछ हुआ था और कृष्ण जिन्न ने जो कुछ काम किया था वह सब भी कहा।

पलंग पर पड़े राजा गोपालसिंह, भूतनाथ की कुल बातें सुन गए और जब वह चुप हो गया तो उठ कर एक ऊँची गद्दी पर जा बैठे जो पलंग के पास ही बिछी हुई थी। थोड़ी देर तक कुछ सोचने के बाद वे बोले, "हां, तो इस ढंग से मालूम हुआ कि तारा वास्तव में लक्ष्मीदेवी है।"

भूतनाथ--जी हाँ, मुझे इस बात की कुछ भी खबर न थी।

गोपालसिंह--यह हाल बड़ा ही दिलचस्प है, अच्छा कृष्ण जिन्न की चिट्ठी मुझे दो, मैं देखूँ।

भूतन--(चिट्ठी देकर) आशा है कि इसमें कोई बात मेरे विरुद्ध लिखी हुई न होगी।

गोपालसिंह--(चिट्ठी देखकर) नहीं इसमें तो तुम्हारी सिफारिश की है और मुझे मदद देने के लिए लिखा है।

भूतनाथ--कृष्ण जिन्न को आप जानते हैं ?

गोपालसिंह--वह मेरा दोस्त है, लड़कपन ही से मैं उसे जानता हूँ, उसे मेरे कैद होने की कुछ भी खबर न थी, पाँच-सात दिन हुए हैं, जब वह मुबारकबाद देने के लिए मेरे पास आया था।

भूतनाथ–-तो मैं उम्मीद करता हूँ कि इस काम में आप मेरी मदद करेंगे।

गोपालसिंह--हाँ-हाँ, मैं इस काम में हर तरह से मदद देने के लिए तैयार हूँ। क्योंकि यह काम वास्तव में मेरा ही काम है, मगर मेरी समझ में नहीं आता कि मैं क्या मदद कर सकूँगा क्योंकि मुझे इन बातों की कुछ भी खबर न थी और न है।

भूतनाथ--जिस तरह की मदद मैं चाहता हूँ अर्ज करूँगा, मगर उसके पहले मैं यह जानना चाहता हूँ कि क्या आप राजा वीरेन्द्रसिंह और कमलिनी इत्यादि से मिलने के लिए रोहतासगढ़ जायेंगे ? गोपालसिंह--जब तक राजा वीरेन्द्रसिंह मुझे न बुलावेंगे, मैं अपनी मर्जी से न जाऊँगा और न मुझे कमलिनी या लक्ष्मीदेवी से मिलने की जल्दी ही है, जब तुम्हारे मुक- दमे का फैसला हो जायगा तब जैसा होगा देखा जायगा।

गोपालसिंह की बात सुनकर भूतनाथ को बड़ा ताज्जुब हुआ, क्योंकि लक्ष्मीदेवी की खबर सुन कर न तो उनके चेहरे पर किसी तरह की खुशी दिखाई दी और न वल- भद्रसिंह का हाल सुन कर उन्हें रंज ही हुआ। कमरे के अन्दर पैर रखते ही भूतनाथ ने जिस शान्त भाव में उन्हें देखा था, वैसी ही सुरत में अब भी देख रहा था। आखिर बहुत कुछ सोचने-विचारने के बाद भूतनाथ ने कहा, "आपने खास वाग में मायारानी के कमरे की तलाशी ली थी?"

गोपालसिंह--तुम भूलते हो। खास बाग के किसी कमरे या कोठरी की तलाशी लेने से कोई काम नहीं चल सकता। या तो तुम हेलासिंह के किसी पक्षपाती को जो उस काम में शरीक रहा हो, गिरफ्तार करो या दारोगा कम्बख्त को दुःख देकर पूछो, मगर अफसोस इतना ही है कि दारोगा राजा वीरेन्द्रसिंह के कब्जे में है और उसके विषय में उनको कुछ लिखना मैं पसन्द नहीं करता।

गोपाल सिंह की इस बात से भूतनाथ को और भी आश्चर्य हुआ और उसने कहा, "तलाशी से मेरा और कोई मतलब नहीं है, मुझे ठीक पता लग चुका है कि मायारानी के पास तस्वीरों की एक किताब थी और उसमें उन लोगों की तस्वीरें थीं जो इस काम में उसके मददगार थे, बस मेरा मतलब उसी किताब के पाने से है और कुछ नहीं।"

गोपालसिंह--हां ठीक है, मुझे इस प्रकार की एक किताब मिली थी मगर उस समय में बड़े क्रोध में था इसलिए कम्बख्त नकली मायारानी का असबाब कपड़ा-लत्ता इत्यादि जो कुछ मेरे हाथ लगा, उसी में उस तस्वीर वाली किताब को भी रखकर मैंने आग लगा दी, मगर अब मुझे यह जान कर अफसोस होता है कि वह किताब बड़े मत- लब की थी।

अब भूतनाथ को निश्चय हो गया कि राजा गोपालसिंह मुझ से बहाना करते हैं और मेरी मदद करना नहीं चाहते। तब क्या करना चाहिए? इसके लिए भूतनाथ सिर झुकाए हुए कुछ सोच रहा था कि राजा गोपालसिंह ने कहा-

गोपालसिंह--मगर भूतनाथ, मुझे याद पड़ता है कि तस्वीर वाली किताब में तुम्हारी तस्वीर भी थी!

भूतनाथ--शायद हो।

गोपालसिंह--खैर, अब तो वह किताब ही जल गई, उसके बारे में भी कहना वृथा है।

भूतनाथ--(उदासी के साथ) मेरी किस्मत, मैं लाचार हूँ। बस मदद के लिए केवल एक वही किताब थी जिसे पाने की उम्मीद में मैं आपके पास आया था, खैर अब जाता हूँ, जो कुछ हैरानी बदी है उसे उठाऊँगा और जिस तरह बनेगा असली वलभद्रसिंह का पता लगाऊंगा।

गोपालसिंह--मैं जानता हूँ कि इस समय जमानिया के बाहर होकर तुम कहाँ जाओगे और वलभद्रसिंह का पता क्योंकर लगाओगे। क्या करोगे?

भूतनाथ--(ताज्जुब से) वह क्या?

गोपालसिंह--बस काशी में मनोरमा का मकान तुम्हारा सब से पहला ठिकाना होगा।

भूतनाथ--बस अब ठीक है, आपने खूब समझा और अब मुझे विश्वास हो गया कि इस काम में आप मेरी बहुत कुछ मदद कर सकते हैं मगर आश्चर्य है कि आप किसी तरह की सहायता नहीं करते।

गोपालसिंह--खैर, अब हम तुमसे साफ-साफ कह देना ही अच्छा समझते हैं। कृष्ण जिन्न से और मुझसे निःसन्देह दोस्ती थी और वह अब भी मुझ से प्रेम रखता है मगर किसी कारण से मेरी तबीयत उससे खट्टी हो गई और मैं कसम खा चुका हूँ कि जिस काम में वह पड़ेगा उसमें मैं दखल न दूंगा चाहे वह काम मेरे ही फायदे का क्यों न हो या मदद न देने के सबब से मेरा कितना ही बड़ा नुकसान क्यों न हो या मेरी जान ही क्यों न चली जाय। बस यही सबब है कि मैं तुम्हारी मदद नहीं करता।

भूतनाथ--(कुछ सोचकर) अच्छा तो फिर मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं जाऊँ और बलभद्रसिंह का पता लगाने के लिए उद्योग करूँ।

गोपालसिंह--जाओ, ईश्वर तुम्हारी मदद करे।

भूतनाथ सलाम करके कमरे के बाहर चला गया। उसके जाने के बाद गोपाल- सिंह को हँसी आई और उन्होंने आप ही आप धीरे से कहा, "इसने जरूर सोचा होगा कि गोपालसिंह पूरा बेवकूफ या पागल है!"

भूतनाथ महल की ड्यौढी पर आया जहाँ अपने साथी को छोड़ गया था और उसे साथ लेकर शहर के बाहर निकल गया। जब वे दोनों आदमी मैदान में पहुँचे जहाँ चारों तरफ सन्नाटा था, तो भूतनाथ के साथी ने पूछा, "कहिये, राजा गोपालसिंह की मुलाकात का क्या नतीजा निकला?"

भूतनाथ--कुछ भी नहीं, मैं व्यर्थ ही आया।

आदमी--सो क्यों?

भूतनाथ--उन्होंने किसी प्रकार की मदद देने से इनकार किया।

आदमी--बड़े आश्चर्य की बात यह काम तो वास्तव में उन्हीं का है।

भूतनाथ--सब कुछ है मगर'

आदमी--तो क्या लक्ष्मीदेवी का पता लगने से वे खुश नहीं हैं?

भूतनाथ--मेरी समझ में कुछ नहीं आता कि वे खुश हैं या नाराज, न तो उनके चेहरे पर किसी तरह की खुशी दिखाई दी न रंज। हँसना तो दूर रहा वे लक्ष्मीदेवी, बलभद्रसिंह, मायारानी और कृष्णजिन्न का किस्सा सुनकर मुस्कुराये भी नहीं, यद्यपि कई बातें ऐसी थीं कि जिन्हें सुनकर उन्हें अवश्य हँसना चाहिए था।

आदमी--क्या उनके मिजाज में कुछ फर्क पड़ गया है।

भूतनाथ--मालूम तो ऐसा ही होता है, बल्कि मैं तो समझता हूँ कि वे पागल हो गये हैं। जब मैंने उनसे पूछा कि, "राजा वीरेन्द्रसिंह या लक्ष्मीदेवी से मिलने के लिए आप रोहतासगढ़ जायेंगे ?" तो उन्होंने कहा, "नहीं जब तक राजा वीरेन्द्रसिंह न बुला- वेंगे मैं न जाऊँगा।" भला यह भी कोई बुद्धिमानी की बात है!

आदमी--मालूम होता है वे सनक गये हैं।

भूतनाथ--या तो वे सनक हो गये हैं और या फिर कोई भारी धूर्तता करना चाहते हैं। खैर जाने दो, इस समय तो भूतनाथ स्वतन्त्र है फिर जो होगा देखा जायेगा। अब मुझे किसी ठिकाने बैठकर अपने आदमियों का इन्तजार करना चाहिए।

आदमी--तब उसी कुटी में चलिए, किसी न किसी से मुलाकात हो ही जायगी।

भूतनाथ--(हँस कर) अच्छा देखो तो सही भूतनाथ क्या-क्या करता है और कैसे-कैसे खेल-तमाशे दिखाता है।