चन्द्रकांता सन्तति 4/13.7

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चंद्रकांता संतति भाग 4  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

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अब हम थोड़ा-सा हाल लक्ष्मीदेवी की शादी का लिखना आवश्यक समझते हैं।

जब लक्ष्मीदेवी की मां जहरीली मिठाई के असर से मर गई (जैसा कि ऊपर के लेख से हमारे पाठकों को मालूम हुआ होगा) तब लक्ष्मीदेवी की सगी मौसी जो विधवा थी और अपनी ससुराल में रहा करती थी बुला ली गई और उसने बड़े लाड़-प्यार से लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाड़िली की परवरिश शुरू की और बड़ी दिलजमई तथा दिलासे से उन तीनों को रखा। परन्तु बलभद्रसिंह स्त्री के मरने से बहुत ही उदास और विरक्त हो गया था। उसका दिल गृहस्थी तथा व्यापार की तरफ नहीं लगता था और वह दिन-रात इसी विचार में पड़ा रहता था कि किसी तरह तीनों लड़कियों की शादी हो जाय और वे सब अपने-अपने ठिकाने पहुँच जाये तो उत्तम हो। लक्ष्मीदेवी की बात- चीत तो राजा गोपालसिंह के साथ तय हो चुकी थी परन्तु कमलिनी और लाड़िली के विषय में अभी कुछ निश्चय नहीं हो पाया था।

लक्ष्मीदेवी की माँ को मरे जब लगभग सोलह महीने हो चुके तब उसकी शादी का इन्तजाम होने लगा। उधर राजा गोपालसिंह और इधर बलभद्रसिंह तैयारी करने लगे। यह बात पहले ही से तै पा चुकी थी कि राजा गोपालसिंह बारात सजाकर बल- भद्रसिंह के घर न आवेंगे बल्कि बलभद्रसिंह को अपनी लड़की उनके घर ले जाकर ब्याह देनी होगी और आखिर ऐसा ही हुआ।

सावन का महीना और कृष्णपक्ष की एकादशी का दिन था जब बलभद्रसिंह अपनी लड़की को लेकर जमानिया पहुंचे। उसके दूसरे या तीसरे दिन शादी होने वाली थी, और उधर कम्बख्त दारोगा ने गुप्त रीति से हेलासिंह और उसकी लड़की मुन्दर को बुलाकर अपने मकान में छिपा रखा था। बलभद्रसिंह और दारोगा से बड़ी दोस्ती थी और बलभद्रसिंह दारोगा का बड़ा विश्वास करता था, मगर अफसोस, रुपया जो चाहे सो करावे। इसकी ठण्डी आँच को बर्दाश्त करना किसी ऐसे-वैसे दिलावर का काम [ २७ ]नहीं। इसके सबब से बड़े बड़े मजबूत कलेजे हिल जाते हैं और पाप और पुण्य के विचार को तो यह इसी तरह से उड़ा देता है जैसे गन्धक का धुआँ कनेर पुष्प के लाल रंग को। यद्यपि दारोगा और बलभद्रसिंह में दोस्ती थी, परन्तु हेलासिंह के दिखाए हुए सब्जबाग ने दारोगा को ईश्वर और धर्म की तरफ कुछ भी विचार न करने दिया और वह बड़ी दृढ़ता के साथ विश्वासघात करने के लिए तैयार हो गया।

बलभद्रसिंह अपनी लड़की तथा कई नौकर और सिपाहियों को लेकर जमानिया में पहुँचे और एक किराए के बाग में डेरा डाला जो कि दारोगा ने उनके लिए पहले ही से ठीक कर रखा था। जब हर तरह का सामान ठीक हो गया तो उन्होंने दोस्ती के ढंग पर दारोगा को अपने पास बुलाया और उन चीजों को दिखाया जो शादी के लिए बन्दो- बस्त कर अपने साथ ले आये थे, उन कपड़ों और गहनों को भी दिखाया जो दामाद को देने के सिए लाए थे, फेहरिस्त के सहित वे चीजें उसके सामने रखीं जो दहेज में देने के लिए थीं, और सबके अन्त में वे कपड़े भी दिखाए जो शादी के समय अपनी लड़की लक्ष्मीदेवी को पहनाने के लिए तैयार कराकर लाए थे। दारोगा ने दोस्ताना ढंग पर एक- एक करके सब चीजों को देखा और तारीफ करता गया, मगर सबसे ज्यादा देर तक जिन चीजों पर उसकी निगाह ठहरी वह शादी के समय पहनाये जाने वाले लक्ष्मीदेवी के कपड़े थे। दारोगा ने उन कपड़ों को उससे भी ज्यादा बारीक निगाह से देखा जिस निगाह से कि रेहन रखने वाला कोई चालाक बनिया उन्हें देखता या जांच करता।

दारोगा अकेला बलभद्रसिंह के पास नहीं आया था, बल्कि अपने नौकर तथा सिपाहियों के साथ जिनको वह दरवाजे पर ही छोड़ आया था और भी दो आदमियों को लाया था जिन्हें बलभद्रसिंह नहीं पहचानते थे और दारोगा ने जिन्हें अपना दोस्त कहकर परिचय दिया था। इस समय इन दोनों ने भी उन कपड़ों को अच्छी तरह देखा जिनके देखने में दारोगा ने अपने समय का बहुत हिस्सा नष्ट किया था।

थोड़ी देर तक गपशप और तारीफ करने के बाद दारोगा उठकर अपने घर चला गया। यहाँ उसने सब हाल हेलासिंह से कहा और यह भी कहा कि मैं दो चालाक दजियों को अपने साथ लिए गया था जिन्होंने वे कपड़े बहुत अच्छी तरह देख-भाल लिए हैं जो लक्ष्मीदेवी को विवाह के समय पहनाए जाने वाले हैं और उन दर्जियों को ठीक उसी तरह के कपड़े तैयार करने के लिए आज्ञा दे दी गयी है, इत्यादि।

जिस दिन शादी होने वाली थी, केवल रात ही अँधेरी न थी, बल्कि बादल भी चारों तरफ से इतने घिर आये थे कि हाथ को हाथ भी नहीं दिखाई देता था। ब्याह का काम उसी खास बाग में ठीक किया गया था जिसमें मायारानी के रहने का हाल हम कई मर्तबे लिख चुके हैं। इस समय इस बाग का बहुत बड़ा हिस्सा दारोगा ने शादी का सामान वगैरह रखने के लिए अपने कब्जे में कर लिया था जिसमें कई दालान, कोठरियाँ, कमरे और तहखाने भी थे और साथ-साथ उसने हेलासिंह की लड़की मुन्दर को भी लौंडियों के से कपड़े पहना के अन्दर एक तहखाने में छिपा रखा था।

कन्यादान का समय तीन पहर रात बीते पण्डितों ने निश्चय किया था और जो पण्डित विवाह कराने वालों का मुखिया था, उसे दारोगा ने पहले ही मिला लिया था। [ २८ ]दो पहर रात बीतने से पहले ही लक्ष्मीदेवी को साथ लिए हुए बलभद्रसिंह वाग के अन्दर कर लिए गए और विवाह का कार्य आरम्भ कर दिया गया। बाग का जो हिस्सा दारोगा ने अपने अधिकार में रखा उसमें एक सुन्दर सजी हुई कोठरी भी थी, जिसके नीचे एक तहखाना था। दारोगा की इच्छा से गोपालसिंह के कुल-देवता का स्थान उसी में नियत किया गया था और उसके नीचे वाले तहखाने में दारोगा ने हेलासिंह की लड़की मुन्दर को ठीक वैसे ही कपड़े पहनाकर छिपा रखा था जैसे बलभद्रसिंह ने लक्ष्मीदेवी के लिए बनाये थे और जिन्हें चालाक दजियों के सहित दारोगा अच्छी तरह देख आया था।

बलभद्रसिंह का दोस्त केवल दारोगा ही न था बल्कि दारोगा के गुरुभाई इन्द्रदेव से भी उनकी मित्रता थी और उन्हें निश्चय था कि इस विवाह में इन्द्रदेव भी अवश्य आवेगा क्योंकि राजा गोपालसिंह भी इन्द्रदेव को मानते और उसकी इज्जत करते थे। परन्तु बलभद्रसिंह को बड़ा ही आश्चर्य हुआ जब विवाह का समय निकट आ जाने पर भी उन्होंने इन्द्रदेव को वहाँ न देखा। जब उसने दारोगा से पूछा तो उसने इन्द्रदेव की चिट्ठी दिखाई जिसमें यह लिखा था "कि मैं बीमार हूँ इसलिए विवाह में उपस्थित नहीं हो सकता और इसलिए आपसे तथा राजा साहब से क्षमा माँगता हूँ।"

जब कन्यादान हो गया तो पण्डित जी की आज्ञानुसार लक्ष्मीदेवी को लिए हुए राजा गोपाल सिंह उस कोठरी में आए जहाँ कुल-देवता का स्थान बनाया गया था और वहाँ भी पण्डित ने कई तरह की पूजा कराई। इसके बाद पण्डित की आज्ञानुसार लक्ष्मी देवी को छोड़ गोपालसिंह उस कोठरी से बाहर आए और वे लौंडियाँ भी बाहर कर दी गयीं जो लक्ष्मीदेवी के साथ थीं। उस समय पानी बड़े जोर से बरसने लगा था और हवा बड़ी तेज चलने लगी, इस सबब से जितने आदमी वहाँ थे सब छितर-बितर हो गये और जिसको जहाँ जगह मिली वहाँ जा घुसा। दारोगा तथा पण्डित की आज्ञानुसार बलभद्र- सिंह पालकी में सवार हो अपने डेरे की तरफ रवाना हो गए, इधर गोपालसिंह दूसरे कमरे में जाकर गद्दी पर बैठे रहे और रंडियों का नाच शुरू हुआ। जितने आदमी उस बाग में थे, उसी महफिल की तरफ जा पहुँचे, और नाच देखने लगे और इस सबब से दारोगा को भी अपना काम करने का बहुत अच्छा मौका मिल गया। वह उस कोठरी में घुसा जिसमें लक्ष्मीदेवी थी, उसे पूजा कराने के बहाने से तहखाने के अन्दर ले गया और तहखाने में से मुन्दर को लाकर लक्ष्मीदेवी की जगह बैठा दिया। उसी समय लक्ष्मीदेवी को मालूम हुआ कि चालबाजी खेली गई है और बदकिस्मती ने आकर उसे घेर लिया। यद्यपि वह बहुत चिल्लाई और रोई मगर उसकी आवाज तहखाने और उसके ऊपर वाली कोठरी को भेदकर उन लोगों के कानों तक न पहुँच सकी जो कोठरी के बाहर दालान में पहरा दे रहे थे या महफिल में बैठे रंडी का नाच देख रहे थे। तहखाने के अन्दर से एक रास्ता वाग के बाहर निकल जाने का था जिसके खुले रहने का इन्तजाम दारोगा ने पहले ही से कर रखा था और दारोगा के आदमी गुप्तरीति से बाहरी दरवाजे के आस- पास मौजूद थे। दारोगा ने लक्ष्मीदेवी के मुह में कपड़ा लूंसकर उसे हर तरह से लाचार कर दिया और इस सुरंग की राह बाग के बाहर पहुँचा और अपने आदमियों के हवाले कर दरवाजा बन्द करता हुआ लौट आया। घण्टे ही भर के बाद लक्ष्मीदेवी ने अपने को [ २९ ]अजायबघर की किसी कोठरी में बन्द पाया और यह भी वहाँ उसके सुनने में आया कि बलभद्रसिंह पर, जो पानी बरसते में अपने डेरे की तरफ जा रहे थे, डाकुओं ने छापा मारा और उन्हें गिरफ्तार कर ले गए। जब यह खबर राजा गोपालसिंह के कान में पहुँची तो महफिल बरखास्त कर दी गई, अकेली लक्ष्मीदेवी (मुन्दर) महल के अन्दर पहुँचाई गयी और राजा साहब की आज्ञानुसार सैकड़ों आदमी बलभद्रसिंह की खोज में रवाना हो गये। उस समय पानी का बरसना बन्द हो गया था और सुबह की सफेदी आसमान पर अपना दखल जमा चुकी थी। बलभद्रसिंह को खोजने के लिए राजा साहब के आदमियों ने दो दिन तक बहुत-कुछ उद्योग किया, मगर कुछ काम न चला अर्थात् बलभद्रसिंह का पता न लगा और पता लगता भी क्योंकर ? असल तो यह है कि बलभद्र- सिंह भी दारोगा के कब्जे में पड़कर अजायबघर में पहुँच चुके थे।

बलभद्रसिंह पर डाका पड़ने और उनके गायब होने का हाल लेकर जब उनके आदमी लोग घर पहुँचे तो पूरे घर में हाहाकार मच गया। कमलिनी, लाड़िली और उसकी मौसी रोते-रोते बेहाल थीं, मगर क्या हो सकता था। अगर कुछ हो सकता था तो केवल इतना ही कि थोड़े दिन में धीरे-धीरे गम कम होकर केवल सुनने-सुनाने के लिए रह जाता और माया के फेर में पड़े हुए जीव अपने-अपने काम-धंधे में लग जाते। खैर, इस पचड़े को छोड़कर हम बलभद्रसिंह और लक्ष्मीदेवी का हाल लिखते हैं जिससे हमारे किस्से का बड़ा भारी सम्बन्ध है।

दारोगा की यह नीयत नहीं थी कि लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह उसकी कैद में रहें बल्कि वह यह चाहता था कि महीने-बीस दिन के बाद जब हो-हल्ला कम हो जाय और वे लोग अपने घर चले जायें जो विवाह के न्योते में आये हैं तो उन दोनों को मार- कर कर टण्टा मिटा दिया जाए। परन्तु ईश्वर की मर्जी कुछ और ही थी। वह चाहता था कि लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह जीते रहकर बड़े-बड़े कष्ट भोगें और मुद्दत तक मुर्दो से बदतर बने रहें, क्योंकि थोड़े ही दिन बाद बाद दारोगा की राय बदल गई और उसने लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह को हमेशा के लिए अपनी कैद में रखना ही उचित समझा। उसे निश्चय हो गया कि हेलासिंह बड़ा ही बदमाश और शैतान आदमी है और मुन्दर भी सीधी औरत नहीं है। अतएव आश्चर्य नहीं कि लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह के मरने के बाद वे दोनों बेफिक्र हो जायें और यह समझ कर कि अब दारोगा हमारा कुछ नहीं कर सकता, मुझे दूध की मक्खी तरह निकाल बाहर करें तथा जो कुछ मुझे देने का वादा कर चुके हैं, उसके बदले में अँगूठा दिखा दें। उसने सोचा कि यदि लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह हमारी कैद में बने रहेंगे तो हेलासिंह और मुन्दर भी कब्जे के बाहर न जा सकेंगे क्योंकि वे समझेंगे कि अगर दारोगा से बेमुरौवती की जायगी तो वह तुरन्त बल- भद्रसिंह और लक्ष्मीदेवी को प्रकट कर देगा और खुद राजा का खैरखाहं बना रहेगा, उस समय लेने के देने पड़ जाएँगे, इत्यादि।

वास्तव में दारोगा का खयाल बहुत ठीक था। हेलासिंह यही चाहता था कि दारोगा किसी तरह लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह को खपा डाले तो हम लोग निश्चित हो हो जायें, मगर जब उसने देखा कि दारोगा ऐसा नहीं करेगा तो लाचार चुप हो रहा। [ ३० ]दारोगा ने हेलासिंह के साथ ही साथ मुन्दर को भी यह कह रखा था कि "देखो बलभद्र- सिंह और लक्ष्मीदेवी मेरे कब्जे में हैं। जिस दिन तुम मुझसे बेमुरौवती करोगी या मेरे हुक्म से सिर फेरोगी उस दिन मैं लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह को प्रकट करके तुम दोनों को जहन्नुम में भेज दूंगा।"

निःसन्देह दोनों कैदियों को कैद रखकर दारोगा ने बहुत दिनों तक फायदा उठाया और मालामाल हो गया, मगर साथ ही इसके मुन्दर की शादी के महीने ही भर बाद दारोगा की चालाकियों ने और लोगों को यह भी विश्वास दिला दिया कि बलभद्र- सिंह डाकुओं के हाथ से मारा गया। यह खबर जब बलभद्रसिंह के घर में पहुँची तो उसकी साली और दोनों लड़कियों के रंज की हद न रही। बरसों बीत जाने पर भी उसकी आंखें सदा तर रहा करती थीं, मगर मुन्दर जो लक्ष्मीदेवी के नाम से मशहूर हो रही थी लोगों को यह विश्वास दिलाने के लिए कि 'मैं वास्तव में कमलिनी और लाडिली की बहिन हूँ' उन दोनों के पास हमेशा तोहफे और सौगातें भेजा करती थी। और कमलिनी और लाड़िली भी जो यद्यपि बिना माँ-बाप की हो गई थीं, परन्तु अपनी मौसी की बदौलत, जो उन दोनों को अपने से बढ़कर मानती थी और जिसे वे दोनों भी अपनी मां की तरह मानती थीं, बराबर सुख के साथ रहा करती थी। मुन्दर की शादी के तीन वर्ष बाद कमलिनी और लाड़िली की मौसी कुटिल काल के गाल में जा पड़ी। इसके थोड़े ही दिन बाद मुन्दर ने कमलिनी और लाड़िली को अपने यहां बुला लिया और इस तरह खातिरदारी के साथ रखा कि उन दोनों के दिल में इस बात का शक तक न होने पाया कि मुन्दर वास्तव में हमारी बहिन लक्ष्मीदेवी नहीं है। यद्यपि लक्ष्मीदेवी की तरह मुन्दर भी बहुत खूबसूरत और हसीन थी, मगर फिर भी सूरत-शक्ल में बहुत-कुछ अंतर था, लेकिन कमलिनी और लाडिली ने इसे जमाने का हेर-फेर समझा, जैसा कि हम ऊपर के किसी बयान में लिख आए हैं।

यह सब कुछ हुआ मगर मुन्दर के दिल में, जिसका नाम राजा गोपालसिंह की बदौलत मायारानी हो गया था, दारोगा का खौफ बना ही रहा और वह इस बात से डरती ही रही कि कहीं किसी दिन दारोगा मुझसे रंज होकर सारा भेद राजा गोपाल- सिंह के आगे न खोल दे। इस बला से बचने के लिए उसे इससे बढ़कर कोई तरकीब न सूझी कि राजा गोपाल सिंह को ही इस दुनिया से उठा दे और स्वयं राजरानी बनकर दारोगा पर हुकूमत करे। उसकी ऐयाशी ने उसके इस खयाल को और भी मजबूत कर दिया और यही वह जमाना था जब कि एक छोकरे पर जिसका परिचय धनपत के नाम से पहले के बयानों में दिया जा चुका है, उसका दिल आ गया और उसके विचार की जड़ बड़ की तरह मजबूती पकड़ती चली गई थी। उधर दारोगा भी बेफिक्र नहीं था। उसे भी अपना रंग चोखा करने की फिक्र लग रही थी, यद्यपि उसने लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह को एक ही कैदखाने में कैदकिया हुआ था। मगर वह लक्ष्मीदेवी को भी धोखे में डाल कर एक नया काम करने की फिक्र में पड़ा हुआ था और चाहता था कि बलभद्रसिंह को लक्ष्मीदेवी से इस ढंग पर अलग कर दे कि लक्ष्मीदेवी को किसी [ ३१ ]तरह का गुमान तक न होने पावे। इस काम में उसने एक दोस्त की मदद ली जिसका नाम जैपालसिंह था और जिसका हाल आगे चलकर मालूम होगा।