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चन्द्रकांता सन्तति 4/13.8

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चंद्रकांता संतति भाग 4
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ ३१ से – ३७ तक

 

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हम ऊपर लिख आये हैं कि लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह अजायबघर के किसी तहखाने में कैद किए गए थे। मगर मायारानी और हेलासिंह इस बात को नहीं जानते थे कि उन दोनों को दारोगा ने कहाँ कैद कर रखा है।

इसके कहने की कोई आवश्यकता नहीं कि बलभद्रसिंह और लक्ष्मीदेवी कैदखाने में क्योंकर मुसीबत के दिन काटते थे। ताज्जुब की बात तो यह थी कि दारोगा अक्सर इन दोनों के पास जाता और बलभद्रसिंह के ताने और गालियाँ बरदाश्त करता। मगर उसे किसी तरह की शर्म नहीं आती थी। जिस घर में वे दोनों कैद थे उसमें रात और दिन का विचार करना कठिन था। उन दोनों से थोड़ी ही दूर पर एक चिराग दिन-रात जला करता था जिसकी रोशनी में वे एक-दूसरे के उदास और रंजीदा चेहरे को बराबर देखा करते थे।

जिस कोठरी में वे दोनों कैद थे उसके आगे लोहे का जंगला लगा हुआ था तथा सामने की तरफ एक दालान और दाहिनी तरफ एक कोठरी तथा बाईं तरफ ऊपर चढ़ जाने का रास्ता था। एक दिन आधी-रात के समय एक खटके की आवाज को सुनकर लक्ष्मीदेवी, जो एक मामूली कम्बल पर सोई हुई थी उठ बैठी और सामने की तरफ देखने लगी। उसने देखा कि सामने से सीढ़ियाँ उतरकर चेहरे पर नकाब डाले हुए एक आदमी आ रहा है। जब लोहे वाले जंगले के पास पहुँचा तो उसकी तरफ देखने लगा कि दोनों कैदी सोये हुए हैं या जागते हैं, मगर जब उसने लक्ष्मीदेवी को बैठे हुए पाया तो बोला, "बेटी, मुझे तुम दोनों की अवस्था पर बड़ा ही रंज होता है मगर क्या करूं लाचार हूँ, अभी तक तो कोई मौका मेरे हाथ नहीं लगा, मगर फिर भी मैं यह कहे बिना नहीं रह सकता कि किसी-न-किसी दिन तुम दोनों को मैं इस कैद से जरूर छुड़ाऊँगा। आज इस समय मैं केवल यह कहने के लिए आया हूँ कि आज दारोगा ने बलभद्रसिंह को जो खाने की चीजें दी थीं, उनमें जहर मिला हुआ था। अफसोस कि बेचारा बलभद्रसिंह उसे खा गया, ताज्जुब नहीं कि वह इस दुनिया से घण्टे में कूचकर जाये, लेकिन यदि तू उसे जगा दे और जो कुछ मैं कहूँ करे तो निःसन्देह उसकी जान बच जायेगी।"

बेचारी लक्ष्मीदेवी के लिए पहले की मुसीबतें ही क्या कम थीं और इस खबर ने उस दिल पर क्या असर किया सो वही जानती होगी। वह घबराई हुई अपने बाप के पास गई जो एक कम्बल पर सो रहा था। उसने उसे उठाने की कोशिश की मगर उसका बाप न उठा, तब उसने समझा कि बेशक जहर ने उसके बाप की जान ले ली, मगर जब उसने नब्ज पर उँगली रक्खी तो नब्ज को तेजी के साथ चलता पाया। लक्ष्मी की आँखों से बेअन्दाज आँसू जारी हो गये। वह लपककर जंगले के पास आई और उस आदमी से हाथ जोड़कर बोली, "निःसन्देह तुम कोई देवता हो जो इस समय मेरी मदद के लिए आए हो ! यद्यपि मैं यहाँ मुसीबत के दिन काट रही हूँ मगर फिर भी अपने पिता को अपने पास देखकर मैं मुसीबत को कुछ नहीं गिनती थी, अफसोस, दारोगा मुझे इस सुख से भी दूर किया चाहता है। जो कुछ तुमने कहा सो बहुत ठीक है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं कि दारोगा ने मेरे बाप को जहर दे दिया, मगर मैं तुम्हारी दूसरी बात पर भी विश्वास करता हूँ जो. तुम अभी कह चुके हो कि यदि तुम्हारी बताई हुई तरकीब की जायेगी तो इनकी जान बच जायगी।"

नकाबपोश–बेशक ऐसा ही है (एक पुड़िया जंगले के अन्दर फेंककर) यह दवा तुम उनके मुंह में डाल दो, घण्टे ही भर में जहर का असर दूर हो जायगा और मैं प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ कि इस दवा की तासीर से भविष्य में इन पर किसी तरह के जहर का असर न होने पावेगा।

लक्ष्मीदेवी--अगर ऐसा हो तो क्या बात है !

नकाबपोश--बेशक ऐसा ही है, पर अब बिलम्ब न करो और वह दवा शीघ्र अपने बाप के मुंह में डाल दो, लो अब मैं जाता हूँ, ज्यादा देर तक ठहर नहीं सकता।

इतना कहकर नकाबपोश चला गया और लक्ष्मीदेवी ने पुड़िया खोलकर अपने बाप के मुंह में वह दवा डाल दी।

इस जगह यह कह देना हम उचित समझते हैं कि यह नकाबपोश जो आया था दारोगा का वही मित्र जैपालसिंह था और इसे दारोगा ने अपने इच्छानुसार खूब सिखा पढ़ाकर भेजा था। वह अपने चेहरे और बदन को विशेष करके इसलिए ढाँके हुए था कि उसका चेहरा और तमाम बदन गर्मी के जख्मों से गन्दा हो रहा था और उन्हीं जख्मों की बदौलत वह दारोगा का एक भारी काम निकालना चाहता था।

दवा देने के घण्टे-भर वाद बलभद्रसिंह होश में आया। उस समय लक्ष्मीदेवी "मैं नहीं जानता कि मुझे क्या हो गया था और अब मेरे बदन से चिनगारियाँ क्यों छूट रही हैं।" लक्ष्मीदेवी ने सब हाल कहा जिसे सुन बलभद्रसिंह बोला, "ठीक है, तुम्हारी खिलाई हुई दवा ने मेरी जान जरूर तो बचाली परन्तु मैं देखता हूँ कि यह जहर मुझे साफ छोड़ना नहीं चाहता, निःसन्देह इसकी गर्मी मेरे तमाम बदन को बिगाड़ देगी !" इतना कहकर बलबद्रसिंह चुप हो गया और गर्मी की बेचैनी से हाथ-पैर मारने लगा। सुबह होते-होते उसके तमाम बदन में फफोले निकल आये जिसकी तकलीफ से वह बहुत ही बेचैन हो गया। बेचारी लक्ष्मीदेवी उसके पास बैठकर सिवा रोने के और कुछ भी नहीं कर सकती थी। दूसरे दिन जब दारोगा उस तहखाने में आया तो बलभद्रसिंह का हाल देखकर पहले तो लौट गया मगर थोड़ी ही देर बाद पुनः दो आदमियों को साथ लेकर आया और बलभद्रसिंह को हाथों-हाथ उठवाकर तहखाने के बाहर ले गया। इसके बाद आठ दिन तक बेचारी लक्ष्मीदेवी ने अपने बाप की सूरत नहीं देखी। नवें दिन कम्बख्त दारोगा ने बलभद्रसिंह की जगह अपने दोस्त जैपालसिंह को उस तहखाने में ला डाला और ताला बन्द करके चला गया। जैपालसिंह को देखकर लक्ष्मीदेवी ताज्जुब

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में आ गई और बोली, "तुम कौन हो और यहां पर क्यों लाये गये ?"

जैपालसिंह--बेटी, क्या तू मुझे इसी आठ दिन में भूल गई। क्या तू नहीं जानती कि जहर के असर ने मेरी दुर्गति कर दी है ? क्या तेरे सामने ही मेरे तमाम बदन में फफोले नहीं उठ आये थे ? ठीक है, बेशक तू मुझे नहीं पहचान सकी होगी, क्योंकि मेरा तमाम बदन जख्मों से भरा हुआ है, चेहरा बिगड़ गया है, मेरी आवाज खराब हो गई है, और मैं बहुत ही दुःखी हो रहा हूँ !

लक्ष्मीदेवी को यद्यपि अपने बाप पर शक हुआ था, मगर मोढ़े पर का वही दांत काटे का निशान, जो इस समय भी मौजूद था और जिसे दारोगा ने कारीगर जर्राह की बदौलत बनवा दिया था देखकर चुप हो रही और उसे निश्चय हो गया कि मेरा बाप बलभद्रसिंह यही है। थोड़ी देर बाद लक्ष्मीदेवी ने पूछा, "तुम्हें जब दारोगा यहाँ से ले गया तब उसने क्या किया?"

नकली बलभद्रसिंह--तीन दिन तक तो मुझे तन-बदन की सुध नहीं रही।

लक्ष्मीदेवी--अच्छा फिर?

नकली बलभद्रसिंह–-चौथे दिन जब मेरी आंख खुली तो मैंने अपने को एक तहखाने में कैद पाया जहाँ सामने चिराग जल रहा था, कुर्सी पर बेईमान दारोगा बैठा हुआ था और एक जर्राह मेरे जख्मों पर मरहम लगा रहा था।

लक्ष्मीदेवीआश्चर्य है कि जब दारोगा ने तुम्हारी जान लेने के लिए जहर ही दिया था तो

नकली बलभद्रसिंह--मैं खुद आश्चर्य कर रहा हूँ कि जब दारोगा मेरी जान ही लिया चाहता था और इसीलिए उसने मुझको जहर दिया था तो यहाँ से ले जाकर उसने मुझे जीता क्यों छोड़ा ? मेरा सिर क्यों नहीं काट डाला, बल्कि मेरा ? इलाज क्यों कराने लगा?

लक्ष्मीदेवी--ठीक है, मैं भी यही सोच रही हूँ, अच्छा तब क्या हुआ?

नकली बलभद्रसिंह--जब जेहि मरहम लगा के चला गया और निराला हुआ तब दारोगा ने मुझसे कहा, "देखो बलभद्रसिंह, निःसन्देह तुम मेरे दोस्त थे मगर दौलत की लालच ने मुझे तुम्हारे साथ दुश्मनी करने पर मजबूर किया। जो कुछ मैं किया चाहता था सो मैं यद्यपि कर चुका अर्थात् तुम्हारी लड़की की जगह हेलासिंह की लड़की मुन्दर को राजरानी बना दिया मगर फिर मैंने सोचा कि अगर तुम दोनों बचकर निकल जाओगे तो मेरा भेद खुल जायगा और मैं मारा जाऊँगा, इसलिए मैंने तुम दोनों को कैद किया। फिर हेलासिंह ने राय दी कि बलभद्र को मारकर सदैव के लिए टण्टा मिटा देना चाहिए और इसलिए मैंने तुमको जहर दिया, मगर आश्चर्य है कि तुम मरे नहीं। जहाँ तक मैं समझता हूँ मेरे किसी नौकर ने ही मेरे साथ दगा की अर्थात् मेरे दवा के सन्दूक में से संजीवनी की पुड़िया जो केवल एक ही खुराक थी और जिसे वर्षों मेहनत करके मैंने तैयार किया था निकाल कर तुम्हें खिला दी और तुम्हारी जान बच गई। बेशक यही बात है और यह शक मुझे तब हुआ जब मैंने अपने सन्दूक में संजीवनी की पुड़िया न पाई और यद्यपि तुम उस संजीवनी की बदौलत बखूबी बच तो गये मगर फिर भी तेज जहर के असर से तुम्हारा बदन, तुम्हारी सूरत और तुम्हारी जिन्दगी खराब हुए बिना नहीं रह सकती। ताज्जुब नहीं कि आज नहीं तो दो-चार वर्ष के अन्दर तुम मर ही जाओ अतएव मैं तुम्हारे मारने के लिए कोई कष्ट नहीं उठाता बल्कि तुम्हारे इन जख्मों को आराम करने का उद्योग करता हूँ और इसमें अपना फायदा भी समझता हूँ।" इतना कहकर दारोगा चला गया और मुझें कई दिनों तक उसी तहखाने में रहना पड़ा। इस बीच में जर्राह दिन में तीन-चार दफे मेरे पास आता और जख्मों को साफ करके पट्टी लगा जाता। जब मेरे जख्म दुरुस्त होने पर आये तो उस जर्राह ने कहा कि अब पट्टी बदलने की जरूरत न पड़ेगी तब मैं पुनः इस जगह पहुँचा दिया गया।

लक्ष्मीदेवी--(ऊँची साँस लेकर) न मालूम हम लोगों ने ऐसे कौन पाप किये हैं जिनका फल यह मिल रहा है।

इतना कह लक्ष्मीदेवी रोने लगी और नकली बलभद्रसिंह उसको दम-दिलासा देकर समझाने लगा।

हमारे पाठक आश्चर्य करते होंगे कि दारोगा ने ऐसा क्यों किया और उसे एक नकली बलभद्रसिंह बनाने की क्या आवश्यकता थी। अस्तु इसका सबब इसी जगह लिख देना हम उचित समझते हैं।

कम्बख्त दारोगा ने सोचा कि लक्ष्मीदेवी की जगह मैंने मुन्दर को रानी बना तो दिया मगर कहीं ऐसा न हो कि दो-चार वर्ष के बाद या किसी समय लक्ष्मीदेवी की रिश्तेदारी में कोई या उसकी दोनों बहिनें मुन्दर से मिलने आवें और लक्ष्मीदेवी से लड़क- पन का जिक्र छेड़ दें, और उस समय मुन्दर उसका कुछ जवाब न दे सके तो उनको शक हो जायगा। सूरत-शक्ल के बारे में तो कुछ चिन्ता नहीं, जैसी लक्ष्मीदेवी खूबसूरत है वैसी ही मुन्दर भी है और औरतों की सूरत-शक्ल प्रायः विवाह होने के बाद शीघ्र ही बदल जाती है अस्तु सूरत-शक्ल के बारे में कोई कुछ कह नहीं सकेगा, परन्तु जब पुरानी बातें निकलेंगी और मुन्दर कुछ जबाब न दे सकेगी तब कठिन होगा। अतएव लक्ष्मी- देवी का कुछ हाल, उसके लड़कपन की कैफियत, उसके रिश्तेदारों और सखी-सहेलियों के नाम और उनकी तथा उनके घरों की अवस्था से मुन्दर को पूरी तरह जानकारी हो जानी चाहिए। अगर वह सब हाल हम बलभद्रसिंह से पूछेगे तो वह कदापि न बतायेगा, हां, अगर किसी दूसरे आदमी को बलभद्रसिंह बनाया जाय और वह कुछ दिनों तक लक्ष्मीदेवी के साथ रह कर इन बातों का पता लगावे तब चल सकता है, इत्यादि बातों को सोच कर ही दारोगा ने उपरोक्त चालाकी की और कृतकार्य भी हुआ अर्थात् दो ही चार महीने में नकली बलभद्रसिंह को लक्ष्मीदेवी का पूरा-पूरा हाल मालूम हो गया। उसने सब हाल दारोगा से कहा और दारोगा ने मुन्दर को सिखा-पढ़ा दिया।

जब इन घातों से दारोगा की दिलजमई हो गई तो उसने नकली बलभद्रसिंह को कैदखाने से बाहर कर दिया और फिर मुद्दत तक लक्ष्मीदेवी को अकेले ही कैद की तकलीफ उठानी पड़ी। एक दिन लक्ष्मीदेवी उस कैदखाने में बैठी हुई अपनी किस्मत पर रो रही थी कि दाहिनी तरफ वाली कोठरी में से एक नकाबपोश को निकलते देखा। लक्ष्मीदेवी ने समझा कि यह वही नकाबपोश है जिसने मेरे बाप की जान बचाई थी, मगर तुरन्त ही उसे मालूम हो गया कि यह कोई दूसरा है क्योंकि उसके और इसके डील-डौल में बहुत फर्क था। जब नकाबपोश जंगले के पास आया, तब लक्ष्मीदेवी ने पूछा, "तुम कौन हो और यहाँ क्यों आये हो?"

नकाबपोश-मैं अपना परिचय तो नहीं दे सकता परन्तु इतना कह सकता हूँ कि बहुत दिनों से मैं इस फिक्र में था कि इस कैदखाने से किसी तरह तुमको निकाल दूं मगर मौका न मिल सका, आज उसका मौका मिलने पर यहाँ आया हूँ, बस विलम्ब न करो और उठो।

इतना कह नकाबपोश ने जंगला खोल दिया।

लक्ष्मीदेवी--और मेरे पिता?

नकाबपोश--मुझे मालूम नहीं कि वे कहाँ कैद हैं या किस अवस्था में हैं, यदि मुझे उनका पता लग जायगा तो मैं उन्हें भी छुड़ाऊँगा।

यह सुनकर लक्ष्मीदेवी चुप हो रही और कुछ सोच-विचार कर आँखों से आंसू टपकाती हुई जंगले के बाहर निकली। नकाबपोश उसे साथ लिये हुए उसी कोठरी में घुसा जिसमें से वह स्वयं आया था। अब लक्ष्मीदेवी को मालूम हुआ कि यह एक सुरंग का मुहाना है। बहुत दूर तक नकाबपोश के पीछे जा और कई दरवाजे लाँघ कर उसे आसमान दिखाई दिया और मैदान की ताजी हवा भी मयस्सर हुई। उस समय नकाब- पोश ने पूछा, “कहो, अब तुम क्या करोगी और कहाँ जाओगी?"

लक्ष्मीदेवी--मैं नहीं कह सकती कि कहाँ जाऊँगी और क्या करूँगी बल्कि डरती हूँ कि कहीं फिर दारोगा के कब्जे में न पड़ जाऊँ, हाँ, यदि तुम मेरे साथ कुछ और भी नेकी करो और मुझे मेरे घर तक पहुँचाने का बन्दोबस्त कर दो तो अच्छा हो।

नकाबपोश--(ऊँची साँस लेकर) अफसोस, तुम्हारा घर बर्बाद हो गया और इस समय वहाँ कोई नहीं है। तुम्हारी दूसरी माँ अर्थात् तुम्हारी मौसी मर गई, तुम्हारी दोनों छोटी बहिनें राजा गोपालसिंह के यहाँ आ पहुँची हैं और मायारानी को, जो तुम्हारे बदले में गोपालसिंह के गले मढ़ी गई है, अपनी सगी बहिन समझ कर उसी के साथ रहती हैं।

लक्ष्मीदेवी–-मैंने तो सुना था कि मेरे बदले में मुन्दर राजरानी बनाई गई है। नकाबपोश--हाँ, वही मुन्दर अब मायारानी के नाम से प्रसिद्ध हो रही है।

लक्ष्मीदेवी--क्या मैं अपनी बहिनों से या राजा गोपालसिंह से मिल सकती हूँ ?

नकाबपोश--नहीं।

लक्ष्मीदेवी--क्यों? नकाबपोश--इसलिए कि अभी महीना भर भी नहीं हुआ कि राजा गोपालसिंह का भी इन्तकाल हो गया। अब तुम्हारी फरियाद सुननेवाला वहाँ कोई नहीं है और यदि तुम वहाँ जाओगी और मायारानी को कुछ मालूम हो जायगा तो तुम्हारी जान कदापि न बचेगी।

इतना सुनकर लक्ष्मीदेवी अपनी बदकिस्मती पर रोने लगी और वह नकाबपोश उसे समझाने-बुझाने लगा। अन्त में लक्ष्मीदेवी ने कहा, "अच्छा, फिर तुम्ही बताओ कि मैं कहाँ जाऊँ और क्या करूँ?"

नकाबपोश--(कुछ देर सोचकर) तो तुम मेरे ही घर चलो। मैं तुम्हें अपनी ही बेटी समझूगा और परवरिश करूँगा।

लक्ष्मीदेवी--मगर तुम तो अपना परिचय तक नहीं देते!

नकाबपोश--(ऊँची साँस लेकर) खैर अब तो परिचय देना ही पड़ा और कहना ही पड़ा कि मैं तुम्हारे बाप का दोस्त 'इन्द्रदेव' हूँ।

इतना कहकर नकाबपोश ने चेहरे से नकाब उतारी और पूर्ण चन्द्र की रोशनी ने उसके चेहरे के हर एक रग-रेशे को अच्छी तरह दिखा दिया। लक्ष्मीदेवी उसे देखते ही पहचान गई और दौड़कर उसके पैरों पर गिर पड़ी। इन्द्रदेव ने उसे उठा कर उसका सिर छाती से लगा लिया और तब उसे अपने घर ले जाकर गुप्त रीति से बड़ी खातिर- दारी के साथ अपने यहाँ रक्खा।

लक्ष्मीदेवी का दिल फोड़े की तरह पका हुआ था। वह अपनी नई जिन्दगी में तरह-तरह की तकलीफें उठा चुकी थी। अब भी वह अपने बाप को खोज निकालने की फिक्र में लगी हुई थी और इसके अतिरिक्त उसका ज्यादा खयाल इस बात पर था कि किसी तरह मुझे अपने दुश्मनों से बदला लेना चाहिए। इस विषय पर उसने बहुत-कुछ विचार किया और अन्त में यह निश्चय किया कि इन्द्रदेव से ऐयारी सीखनी चाहिए। क्योंकि वह खूब जानती थी कि इन्द्रदेव ऐयारी के फन में बड़ा ही होशियार है। आखिर उसने अपने दिल का हाल इन्द्रदेव से कहा और इन्द्रदेव ने भी उसकी राय पसन्द की तथा दिलोजान से कोशिश करके उसे ऐयारी सिखाने लगा। यद्यपि वह दारोगा का गुरुभाई था तथापि दारोगा की करतूतों ने उसे हद से ज्यादा रंजीदा कर दिया था और उसे इस बात की कुछ भी परवाह न थी कि लक्ष्मीदेवी ऐयारी के फन में होशियार हो कर दारोगा से बदला लेगी। निःसन्देह इन्द्रदेव ने बड़ी मर्दानगी की और दोस्ती का हक जैसा चाहिए था वैसा ही निबाहा। उसने बड़ी मुस्तैदी के साथ लक्ष्मीदेवी को ऐयारी की विद्या सिखाई, बड़े-बड़े ऐयारों के किस्से सुनाये, एक-से-एक बढ़े-चढ़े नुस्खे सिखलाये, और ऐयारी के गूढ़ तत्वों को उसके दिल में नक्श (अंकित) कर दिया। थोड़े ही दिनों में लक्ष्मीदेवी पूरी ऐयारा हो गई और इन्द्रदेव की मदद से अपना नाम तारा रख कर मैदान की हवा खाने कौर दुश्मनों से बदला लेने की फिक्र में घूमने लगी।

लक्ष्मीदेवी ने तारा बनकर जो-जो काम किये, उन सब में इन्द्रदेव की राय लेती रही और इन्द्रदेव भी बराबर उसकी मदद और खबरदारी करते रहे।

यद्यपि इन्द्रदेव ने लक्ष्मीदेवी की जान बचाई, उसे अपनी लड़की के समान पाल कर सब लायक किया, और बहुत दिनों तक अपने साथ रक्खा मगर उनके दो-एक सच्चे प्रेमियों के सिवाय लक्ष्मीदेवी का हाल और किसी को मालूम न हुआ, और इन्द्रदेव ने भी किसी को उसकी सूरत तक न देखने दी। इस बीच में पच्चीसों दफा कम्बख्त दारोगा इन्द्रदेव के घर गया और इन्द्रदेव ने भी अपने दिल का भाव छिपा कर हर तरह से उसकी खातिरदारी की, मगर दारोगा तक को इस बात का पता न लगा कि जिस लक्ष्मीदेवी को मैंने कैद किया था वह इन्द्रदेव के घर में मौजूद है और इस लायक हो रही है कि कुछ दिनों के बाद हमीं लोगों से बदला ले।

लक्ष्मीदेवी का तारा नाम इन्द्रदेव ही ने रक्खा था। जब तारा हर तरह से होशियार हो गई और वर्षों की मेहनत से उसकी सूरत-शक्ल में भी बहुत बड़ा फर्क पड़ गया तब इन्द्रदेव ने उसे आज्ञा दी कि तू मायारानी के घर जाकर अपनी बहिन कमलिनी से मिल, जो बहुत ही नेक और सच्ची है, मगर अपना असली परिचय न देकर उसके साथ मोहब्बत पैदा कर और ऐसा उद्योग कर कि उसमें और मायारानी में लड़ाई हो जाय और वह उस घर से निकल कर अलग हो जाय, फिर जो कुछ होगा देखा जायगा। केवल इतना ही नहीं, इन्द्रदेव ने उसे एक प्रशंसापत्र भी दिया जिसमें यह लिखा हुआ था-

"मैं तारा को अच्छी तरह जानता हूँ। यह मेरो धर्म की लड़की है। इसकी चाल-चलन बहुत ही अच्छी है और नेक तथा धार्मिक लोगों के लिए यह विश्वास करने योग्य है।"

इन्द्रदेव ने तारा को यह भी कह दिया था कि मेरा यह पत्र सिवाय कमलिनी के के और किसी को न दिखाना और जब इस बात का निश्चय हो जाय कि वह तुझ पर मुहब्बत रखती है तब उसको एक दफा किसी तरह से मेरे घर लेकर आना, फिर जैसा होगा मैं समझ लूंगा।

आखिर ऐसा ही हुआ अर्थात् तारा इन्द्रदेव के वल पर निडर होकर मायारानी के महल में चली गई और कमलिनी की नौकरी कर ली। उसे पहचानना तो दूर रहा, किसी को इस बात का शक भी न हुआ कि यह लक्ष्मीदेवी है।

तीन महीने के अन्दर उसने कमलिनी को अपने ऊपर मोहित कर लिया और मायारानी के इतने ऐब दिखाए कि कमलिनी को एक सायत के लिए भी मायारानी के पास रहना कठिन हो गया। जब उसने अपने बारे में तारा से राय ली तब तारा ने उसे इन्द्रदेव से मिलने के लिए कहा और इस बारे में बहुत जोर दिया। कमलिनी ने तारा की बात मान ली और तारा उसे इन्द्रदेव के पास ले आई। इन्द्रदेव ने कमलिनी की बड़ी खातिर की और जहाँ तक बन पड़ा उसे उभाड़ कर खुद इस बात की प्रतिज्ञा की कि 'यदि तू मेरा भेद गुप्त रक्खेगी तो मैं बराबर तेरी मदद करता रहूंगा।"

उन दिनों तालाब के बीच वाला तिलिस्मी मकान बिल्कुल उजाड़ पड़ा हुआ था और सिवाय इन्द्रदेव के उसका भेद किसी को मालूम न था। इन्द्रदेव ही के बताने से कमलिनी ने उस मकान में अपना डेरा डाला और हर तरह से निडर होकर वहाँ रहने लगी और इसके बाद जो कुछ हुआ, हमारे प्रेमी पाठकों को मालूम ही है या हो जायगा।