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चन्द्रकांता सन्तति 4/14.10

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चंद्रकांता संतति भाग 4
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ ११२ से – ११४ तक

 

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कुँअर इन्द्रजीतसिंह, आनन्दसिंह और राजा गोपालसिंह बात कर ही रहे थे कि वही औरत चमेली की टट्टियों में फिर दिखाई दी और इन्द्रजीतसिंह ने चौंककर कहा, "देखिए, वह फिर निकली!"

राजा गोपालसिंह ने बड़े गौर से उस तरफ देखा और यह कहते हुए उस तरफ रवाना हुए कि "आप दोनों भाई इसी जगह बैठे रहिये, मैं इसकी खबर लेने जाता हूं।"

जब तक राजा गोपालसिंह चमेली की टट्टी के पास पहुँचे, तब तक वह औरत पुनः अन्तर्धान हो गयी। गोपालसिंह थोड़ी देर तक उन्हीं पेड़ों में घूमते-फिरते रहे इसक बाद इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के पास लौट आए।

इन्द्रजीतसिंह--कहिये, क्या हुआ?

गोपालासिंह--हमारे पहुँचने के पहले ही वह गायब हो गई, गायब क्या हो गई बस, उसी दर्जे में चली गई जिसमें देवमन्दिर है। मेरा इरादा तो हुआ कि उसका पीछा करूं, मगर यह सोचकर लौट आया कि उसका पीछा करके उसे गिरफ्तार करना घण्ट दो घण्टे का काम नहीं है बल्कि दो-चार पहर या दो-एक दिन का काम है, क्योंकि देवमन्दिर वाले दर्जे का बहुत बड़ा विस्तार है तथा छिप रहने योग्य स्थानों की भी वहा कमी नहीं है, और मुझे इस समय इतनी फुरसत नहीं है। इसका खुलासा हाल तो इस समय में आप लोगों से न कहूँगा। हाँ, इतना जरूर कहूँगा कि जिस समय मैं अपना तिलिस्मी किताब लेने गया था और उसके न मिलने से दुःखी होकर लौटना चाहता था, उसी समय एक और भी दुःखदाई खबर सुनने में आई जिसके सबब से मुझे कुछ दिन के लिए जमानिया तथा आप दोनों भाइयों का साथ छोड़ना आवश्यक हो गया है और दा घण्टे के लिए भी यहाँ रहना मैं पसन्द नहीं करता। फिर भी कोई चिन्ता की बात नहीं है. आप लोग शौक से इस तिलिस्म के जिस हिस्से को तोड़ सकें तोड़ें, मगर इस औरत का. जो अभी दिखाई दी थी, बहुत ध्यान रखें। मेरा दिल यही कहता है कि मेरी तिलिस्मी किताब इसी औरत ने चुराई है। क्योंकि यदि ऐसा न होता तो यह यहाँ तक कदापि न पहुँच सकती।

इन्द्रजीतसिंह--यदि ऐसा है तो कह सकते हैं कि वह हम लोगों के साथ भी दगा करना चाहती है।

च० स०-4-7

गोपालसिंह--निःसन्देह ऐसा ही है, परन्तु यदि आप लोग उसकी तरफ से सावधान रहेंगे तो वह आप लोगों का कुछ भी न बिगाड़ सकेगी, साथ ही इसके यदि आप उद्योग में लगे रहेंगे तो वह किताब भी जो उसने चुराई है, हाथ लग जायगी।

इन्द्रजीत सिंह--जो कुछ आपने आज्ञा दी है मैं उस पर विशेष ध्यान रखूगा मगर मालूम होता है कि आपने कोई बहुत दुःखदाई खबर सुनी है, क्योंकि यदि ऐसा न होता तो इस अवस्था में और अपनी तिलिस्मी किताब खो जाने की तरफ ध्यान न देकर आप यहाँ से जाने का इरादा न करते !

आनन्दसिंह--और जब आप कह ही चुके हैं कि उसका खुलासा हाल न कहेंगे तो हम लोग पूछ भी नहीं सकते।

गोपालसिंह--निःसन्देह ऐसा ही है, मगर कोई चिन्ता की बात नहीं, आप लोग बुद्धिमान हैं और जैसा उचित समझें करें, हाँ, एक बात मुझे और भी कहनी है !

इन्द्रजीतसिंह--वह क्या?

गोपालसिंह--(एक लपेटा हुआ कागज लालटेन के सामने रखकर) जब मैं उस औरत के पीछे चमेली की टट्टियों में गया तो वह औरत तो गायब हो गई, मगर उसी जगह यह लपेटा हुआ कागज ठीक दरवाजे के ऊपर ही पड़ा हुआ मुझे मिला। पढ़ो तो सही, इसमें क्या लिखा है।

इन्द्रजीतसिंह ने उस कागज को खोलकर पढ़ा, यह लिखा हुआ था--

"यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि न तो आप लोग मुझे जानते हैं और न मैं आप लोगों को जानती हूँ, इसके अतिरिक्त जब तक मुझे इस बात का निश्चय न हो जाय कि आप लोग मेरे साथ किसी तरह की बुराई न करेंगे, तब तक मैं आप लोगों को अपना परिचय भी नहीं दे सकती। हाँ, इतना अवश्य कह सकती हैं कि मैं बहुत दिनों से कैदियों की तरह इस तिलिस्म में पड़ी हूँ। यदि आप लोग दयावान और सज्जन हैं तो मुझे इस कैद से अवश्य छुड़ावेंगे।

-कोई दुःखिनी'

गोपालसिंह--(आश्चर्य से) यह तो एक दूसरी ही बात निकली!

इन्द्रजीतसिंह--ठीक है, मगर इसके लिखने पर हम लोग विश्वास ही क्यों कर सकते हैं!

गोपालसिंह--आप सच कहते हैं, हम लोगों को इसके लिखने वाले पर यकायक विश्वास न करना चाहिए। खैर, मैं जाता हूँ, आप जो उचित समझेंगे करेंगे। आइये, इस समय हम लोग एक साथ बैठ के भोजन तो कर लें, फिर क्या जाने कब और क्योंकर मुलाकात हो।

इतना कहकर राजा गोपालसिंह ने वह चंगेर जो अपने साथ लाये थे और जिसमें खाने की अच्छी-अच्छी चीजें थीं, आगे रखी और तीनों भाई एक साथ भोजन और बीच-बीच में वातचीत भी करने लगे। जब खाने से छुट्टी मिली तो तीनों भाइयों ने नहर में से जल पीया और हाथ-मुंह धोकर निश्चिन्त हुए, इसके बाद कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को बहुत-कुछ समझा-बुझाकर और वहाँ से देवमन्दिर में जाने का रास्ता बताकर राजा गोपालसिंह वहाँ से रवाना हो गये।