चन्द्रकांता सन्तति 4/14.11

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चंद्रकांता संतति भाग 4  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

[ ११४ ]

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राजा गोपालसिंह के चले जाने के बाद दोनों कुमारों ने बातचीत करते-करते ही रात बिता दी और सुबह को दोनों भाई जरूरी कामों से छुट्टी पाकर फिर उसी बाजे वाले कमरे की तरफ रवाना हुए। जिस राह से इस बाग में आये थे, वह दरवाजा अभी तक खुला हुआ था, उसी राह से होते हुए दोनों तिलिस्मी बाजे के पास पहुंचे। इस समय आनन्दसिंह अपने तिलिस्मी खंजर से रोशनी कर रहे थे।

दोनों भाइयों की राय हुई कि इस बाजे में जो भी कुछ बातें भरी हुई हैं, उन्हें एक दफे अच्छी तरह सुनकर याद कर लेना चाहिए, फिर जैसा होगा देखा जायगा, आखिर ऐसा ही किया गया। बाजे की ताली उनके हाथ लग ही चुकी थी और ताली लगाने की तरकीब भी उस तख्ती पर लिखी हुई थी जो ताली के साथ मिली थी। अब इन्द्रजीतसिंह ने बाजे में ताली लगाई और दोनों भाई उसकी आवाज गौर से सूनने लगे। जब बाजे का बोलना बन्द हुआ तो इन्द्रजीतसिंह ने आनन्दसिंह से कहा, "मैं बाजे में ताली लगाता हूँ और तिलिस्मी खंजर से रोशनी भी करता हूँ और तुम इस बाजे में से जो कुछ आवाज निकले, उसे संक्षेप में लिखते चले जाओ।" आनन्दसिंह ने इसे कबूल किया और उसी किताब में जिसमें पहले इन्द्रजीतसिंह इस बाजे की कुछ आवाज लिख चके थे लिखने लगे। पहले वह आवाज लिख गये जो अभी बाजे में से निकली थी। इसके बाद इन्द्रजीतसिंह ने इस बाजे का एक खटका दबाया और फिर ताली देकर आवाज सुनने लगे तथा आनन्दसिंह उसे लिखने लगे।

इस बाजे में जितनी आवाजें भरी हुई थीं, उनका सुनना और लिखना दो-चार घण्टे का काम न था, बल्कि कई दिन काम था, क्योंकि बाजा बहुत धीरे-धीरे चल कर आवाज देता था और जो बात कुमार की समझ में न आती थी, उसे दोहरा कर सुनना पडता था, अतः आज चार घण्टे तक दोनों कुमार उस बाजे की आवाज सुनने और लिखने में लगे रहे, इसके बाद फिर उसी बाग में चले आये जिसका जिक्र ऊपर आ चका है। बाकी का दिन और रात उसी बाग में बिताया और दूसरे दिन सवेरे जरूरी कामों से छटी पाकर फिर तहखाने में घुसे तथा बाजे वाले कमरे में आकर फिर बाजे की आवाज मनने और लिखने के काम में लगे। इसी तरह दोनों कुमारों को बाजे की आवाज सुनने और लिखने के काम में कई दिन लग गये और इस बीच दोनों कुमारों ने तीन दफे उस औरत को देखा, जिसका हाल पहले लिखा जा चुका है और जिसकी लिखी एक चिट्ठी राजा गोपालसिंह के हाथ लगी थी। उस औरत के विषय में जो बातें लिखने योग्य हई हैं, उन्हें हम यहाँ पर लिखते हैं। [ ११५ ]राजा गोपाल सिंह के जाने के बाद पहली दफे जब वह औरत दिखाई दी, उस समय दोनों भाई नहर के किनारे बैठे बातचीत कर रहे थे। समय संध्या का था और बाग की हरएक चीज साफ-साफ दिखाई दे रही थी। यकायक वह औरत उसी चमेली की झाड़ी में से निकलती दिखाई दी। वह दोनों कुमारों की तरफ तो नहीं आई। मगर उन्हें दिखाकर एक कपड़े का टुकड़ा जमीन पर रखने के बाद पुनः चमेली की झाड़ी में घुसकर गाय हो गयी।

इन्द्रजीतसिंह की आज्ञा पाकर आनन्दसिंह वहाँ गये और उस टुकड़े को उठा लाए, उस पर किसी तरह के रंग से यह लिखा हुआ था--

"सत्पुरुषों के आगमन से दीन-दुखिया प्रसन्न होते हैं और सोचते हैं कि अब हमारा भी कुछ न कुछ भला होगा ! मुझ दुखिया को भी इस तिलिस्म में सत्पुरुषों की बाट जोहते और ईश्वर से प्रार्थना करते बहुत दिन बीत गये, परन्तु अब आप लोगों के आने से भलाई की आशा जान पड़ने लगी है। यद्यपि मेरा दिल गवाही देता है कि आप लोगों के हाथ से सिवाय भलाई के मेरी बुराई नहीं हो सकती, तथापि इस कारण से कि बिना समझे दोस्त-दुश्मन का निश्चय कर लेना नीति के विरुद्ध है, मैं आपकी सेवा में उपस्थित न हई। अब आशा है कि आप अनुग्रहपूर्वक अपना परिचय देकर मेरा भ्रम दूर करेंगे।

-इन्दिरा।"

इस पत्र के पढ़ने से दोनों कुमारों को बड़ा ताज्जुब हुआ और इन्द्रजीतसिंह की आज्ञानुसार आनन्दसिंह ने उसके पत्र का यह उत्तर लिखा--

"हम लोगों की तरफ से किसी तरह का खुटका न रखो। हमलोग राजा वीरेन्द्रसिंह के लड़के हैं और इस तिलिस्म को तोड़ने के लिए यहाँ आये हैं। तुम बेखटके अपना हाल हमसे कहो, हम लोग निःसन्देह तुम्हारा दुःख दूर करेंगे।"

यह चिट्ठी चमेली की झाड़ी में उसी जगह हिफाजत के साथ रख दी गई जहाँ से उस औरत की चिट्ठी मिली थी। दो दिन तक वह औरत दिखाई न दी, मगर तीसरे दिन जब दोनों कुमार बाजे वाले तहखाने में से लौटे और उस चमेली की टट्टी के पासी गये तो ढंढने पर आनन्द सिंह को अपनी लिखी चिट्ठी का जवाब मिला। यह जवाब भ एक छोटे से कपड़े के टुकड़े पर लिखा हुआ था, जिसे आनन्दसिंह ने पढ़ा। मतलब यह था--

“यह जानकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई कि आप राजा वीरेन्द्रसिंह के लड़के हैं, जिन्हें मैं बहुत अच्छी तरह जानती हूँ, इसलिए आपकी सेवा में बेखटके उपस्थित हो सकती हूँ। मगर राजा गोपालसिंह से डरती हूँ जो आपके पास आया करते हैं।

-इन्दिरा।"

पुनः कुंअर इन्द्रजीतसिंह की तरफ से यह जवाब लिखा गया--

"हम प्रतिज्ञा करते हैं कि राजा गोपालसिंह भी तुम्हें किसी तरह का कष्ट न देंगे।" [ ११६ ]यह चिट्ठी भी उसी मामूली ठिकाने पर रख दी गई और फिर दो रोज तक इन्दिरा का कुछ हाल मालूम न हुआ। तीसरे दिन संध्या होने से पहले जब कुछ-कुछ दिन बाकी था और दोनों कुमार उसी बाग में नहर के किनारे बैठे बातचीत कर रहे थे यकायक उसी चमेली की झाड़ी में से हाथ में लालटेन लिए निकलती हुई इन्दिरा दिखाई पड़ी। वह सीधे उस तरफ रवाना हुई जहाँ दोनों कुमार नहर के किनारे बैठे हुए थे। जब उनके पास पहुंची तो लालटेन जमीन पर रखकर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर सामने खड़ी हा गई। इसकी सूरत-शक्ल के बारे में हमें जो कुछ लिखना था ऊपर लिख चुके हैं, यहाँ पर पुनः लिखने की आवश्यकता नहीं है, हां, इतना जरूर कहेंगे कि इस समय इसकी पोशाक में फर्क था। इन्द्रजीतसिंह ने बड़े गौर से इसे देखा और कहा, "बैठ जाओ और निडर होकर अपना हाल कहो।"

इन्दिरा--(बैठकर) इसीलिए तो मैं सेवा में उपस्थित हुई हैं कि अपना आश्चर्यजनक हाल आपसे कहूँ। आप प्रतापी राजा वीरेन्द्रसिंह के लड़के हैं और इस योग्य हैं कि हमारा मुकद्दमा सुनें, इन्साफ करें, दुष्टों को उचित दण्ड दें, और हम लोगों को दुःख के समुद्र से निकालकर बाहर करें।

इन्द्रजीतसिंह--(आश्चर्य से) 'हम लोगों' ! क्या तुम यहाँ अकेली नहीं हो? क्या तुम्हारे साथ कोई और भी इस तिलिस्म में दुःख भोग रहा है?

इन्दिरा--जी हाँ, मेरी माँ भी इस तिलिस्म के अन्दर बुरी अवस्था में पड़ी है मैं तो चलने-फिरने योग्य भी हूँ परन्तु वह बेचारी तो हर तरह से लाचार है। आ मेरा किस्सा सुनेंगे तो आश्चर्य करेंगे और निःसन्देह आपको हम लोगों पर दया आयेगी।

इन्द्रजीतसिंह--हाँ-हाँ, हम सुनने के लिए तैयार हैं, कहो और शीघ्र कहो।

इन्दिरा अपना किस्सा शुरू किया ही चाहती थी कि उसकी निगाह यकायक राजा गोपालसिंह पर जा पड़ी जो उसके सामने और दोनों कुमारों के पीछे की तरफ से हाथ में लालटेन लिए चले आ रहे थे। वह चौंककर उठ खड़ी हुई और उसी समय कंअर इन्द्रजीतसिंह तथा आनन्दसिंह ने भी घूमकर राजा गोपालसिंह को देखा। जब राजा साहब दोनों कुमारों के पास पहुँचे तो इन्दिरा ने प्रणाम किया और हाथ जोडकर खड़ी हो गई। कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का चेहरा खुशी से दमक रहा था और वे हर तरह से प्रसन्न मालूम होते थे।

इन्द्रजीतसिंह--(गोपालसिंह से) आपने तो कई दिन लगा दिए।

गोपालसिंह--हाँ, एक ऐसा ही मामला आ पड़ा था कि जिसका पूरा पता लगाये बिना यहाँ पर न आ सका, पर आज मैं अपने पेट में ऐसी-ऐसी खबरें भर के लाया हूँ कि जिन्हें सुनकर आप लोग बहुत ही प्रसन्न होंगे और साथ ही इसके आश्चर्य भी करेंगे। मैं सब हाल आपसे कहूँगा मगर (इन्दिरा की तरफ इशारा करके) इस लड़की का हाल सून लेने के बाद। (अच्छी तरह देखकर) निःसन्देह इसकी सूरत-शक्ल उस पुतली की ही तरह है।

आनन्दसिंह--कहिए भाईजी, अब तो मैं सच्चा ठहरा न!

गोपालसिंह--बेशक, तो क्या इसने अपना हाल आप लोगों से कहा? [ ११७ ]इन्द्रजीतसिंह--जी, यह अपना हाल कहा ही चाहती थी कि आप दिखाई पड़ गये। यह यकायक हम लोगों के पास नहीं आई, बल्कि पत्र द्वारा इसने पहले मुझसे प्रतिज्ञा करा ली कि हम लोग इसका दु:ख दूर करेंगे और आप (राजा गोपालसिंह)भी इस पर खफा न होंगे।

गोपालसिंह--(ताज्जुब से)मैं इस पर क्यों खफा होने लगा! (इन्दिरा से)क्यों जी, तुम्हें मुझसे डर क्यों पैदा हुआ?

इन्दिरा--इसलिए कि मेरा किस्सा आपके किस्से से बहुत सम्बन्ध रखता है, और हाँ इतना भी मैं इसी समय कह देना उचित समझती हूं कि मेरा चेहरा जिसे आप लोग देख रहे हैं असली नहीं है बल्कि बनावटी है। यदि आज्ञा हो तो इसी नहर के जल से मैं मुँह धो लूं, तब आश्चर्य नहीं कि आप मुझे पहचान लें।

गोपालसिंह--(ताज्जुब से) क्या मैं तुम्हें पहचान लूंगा?

इन्दिरा--यदि ऐसा हो तो आश्चर्य नहीं।

गोपालसिंह--अच्छा, तुम अपना मुंह धो डालो।

इतना कहकर राजा गोपालसिंह लालटेन जमीन पर रखकर बैठ गए और कुंअर इन्द्रजीतसिंह तथा आनन्दसिंह को भी बैठने के लिए कहा। जब इन्दिरा अपना चेहरा साफ करने के लिए नहर के किनारे चलकर कुछ आगे बढ़ गई, तब इन तीनों में यों बातचीत होने लगी

इन्द्रजीतसिंह--हाँ, यह तो कहिए, आप क्या खबर लाए हैं?

गोपालसिंह--वह किस्सा बहुत बड़ा है, पहले इस लड़की का हाल सुन ले तब कहें। हाँ, इसने अपना नाम क्या बताया था?

इन्द्रजीतसिंह--इन्दिरा।

गोपालसिंह--(चौंककर) इन्दिरा ! इन्द्रजीतसिंह-जी हाँ।

गोपालसिंह--(सोचते हुए, धीरे से) कौन-सी इन्दिरा ? वह इन्दिरा तो नहीं मालूम पड़ती, कोई दूसरी होगी, मगर शायद वही हो, हाँ वह तो कह चुकी है कि मेरी सूरत बनावटी है, आश्चर्य नहीं कि चेहरा साफ करने पर वही निकले, अगर वही हो तो बहुत अच्छा है।

इन्द्रजीतसिंह--खैर, वह आती ही है, सब हाल मालूम हो जायेगा जब तक अपनी अनूठी खबरों में से दो-एक सुनाइये।

गोपालसिंह--यहाँ से जाने के बाद मुझे रोहतासगढ़ का पूरा-पूरा हाल मालूम हुआ है क्योंकि आजकल राजा वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह, भैरोंसिंह, तारासिंह, किशोरी, कामिनी, कमलिनी, लाड़िली और मेरी स्त्री लक्ष्मीदेवी इत्यादि सब कोई वहाँ ही जुटे हुए हैं और अजीबोगरीब मुकदमा पेश है।

इन्द्रजीतसिंह--(चौंककर) लक्ष्मीदेवी ! क्या उनका पता लग गया?

गोपालसिंह--हाँ, लक्ष्मीदेवी वही तारा निकली जो कमलिनी के यहां उसकी सखी बनके रहती थी और जिसे आप भी जानते हैं। [ ११८ ]इन्द्रजीतसिंह--(आश्चर्य से) वह लक्ष्मीदेवी थीं?

गोपालसिंह--हाँ, वह लक्ष्मीदेवी ही थी जो बहुत दिनों से अपने को छिपाये हुए दुश्मनों से बदला लेने का मौका ढूंढ़ रही थी और समय पाकर अनूठे ढंग से यकायक प्रकट हो गई। उसका किस्सा भी बड़ा ही अनूठा है।

आनन्दसिंह--तो क्या आप रोहतासगढ़ गये थे?

गोपालसिंह--नहीं।

इन्द्रजीतसिंह--सो क्यों ? इतना सब हाल सुनने पर भी आप लक्ष्मीदेवी को देखने के लिए वहाँ क्यों नहीं गये?

गोपालसिंह--वहाँ न जाने का सबब भी बतावेंगे।

इन्द्रदेजीतसिंह--खैर, यह बताइये कि लक्ष्मीदेवी यकायक किस अनूठे ढंग से प्रकट हो गईं और रोहतासगढ़ में कौन-सा अजीबोगरीब मुकदमा पेश है?

गोपालसिंह--मैं सब हाल आपसे कहंगा, देखिए वह इन्दिरा आ रही है, पर कोई चिन्ता नहीं, अगर यह वही इन्दिरा है जो मैं सोचे हुए हैं, तो उसके सामने भी सब हाल बेखटके कह दूंगा।

इतने ही में अपना चेहरा साफ करके इन्दिरा भी वहां आ पहुंची। चेहरा धान और साफ करने से उसकी खूबसूरती में किसी तरह की कमी नहीं आई थी बल्कि वह पहले से ज्यादा खूबसूरत मालूम पड़ती थी, हाँ अगर कुछ फर्क पड़ा था तो केवल इतना ही कि बनिस्बत पहले के अब वह कम उम्र की मालूम होती थी।

इन्दिरा के पास आते ही और उसकी सुरत देखते ही गोपालसिंह झट उठ खड़ हुए और उसका हाथ पकड़कर बोले, "हैं इन्दिरा ! बेशक तू वही इन्दिरा है जिसके होने का मैं आशा करता था। यद्यपि कई वर्षों के बाद आज किस्मत ने तेरी सूरत दिखाई है आर जब मैंने आखिरी मर्तबे तेरी सूरत देखी थी तब तू निरी लड़की थी, मगर फिर भी आज मैं तझे पहचाने बिना नहीं रह सकता। तू मुझसे डर मत और अपने दिल में किसी तरह खुटका भी मत ला, मुझे खूब मालूम हो गया है कि मेरे मामले में तू बिलकूल बेकसूर है। मैं तुझे धर्म की लड़की समझता हूँ और समझंगा, अब तू मेरे सामने बैठ जा और अपना अनूठा किस्सा कह ! हाँ, पहले यह तो बता कि तेरी माँ कहाँ है ? कैद से छूटने पर मैंने उसकी बहुत खोज की मगर कुछ भी पता न लगा। निःसन्देह तेरा किस्सा बड़ा ही अनूठा होगा।

इन्दिरा--(बैठने के बाद आँसू से भरी हुई आँखों को आँचल से पोंछती हुई) मेरी मां बेचारी भी इसी तिलिस्म में कैद है!

गोपालसिंह--(ताज्जुब से) इसी तिलिस्म में कैद है?

इन्दिरा--जी हाँ, इसी तिलिस्म में कैद है। बड़ी कठिनाइयों से उसका पता लगाती हई मैं यहाँ तक पहुँची। अगर मैं यहाँ तक पहुँचकर उससे न सिलती तो निःसन्देह वह अब तक मर गई होती। मगर न तो मैं उसे कैद से छुड़ा सकती हूं और न स्वयं इस तिलिस्म के बाहर ही निकल सकती हूँ। लगभग दस-पन्द्रह दिन हुए होंगे कि अकस्मात् एक किताब मेरे हाथ लग गई जिसके पढ़ने से इस तिलिस्म का कुछ-कुछ हाल मुझे मालूम [ ११९ ]हो गया हैं और मैं यहाँ घूमने-फिरने लायक भी हो गई हूँ, मगर इस तिलिस्म के बाहर नहीं निकल सकती। क्या कहूँ, उस किताब का मतलब पूरा-पूरा समझ में नहीं आता, यदि मैं उसे अच्छी तरह समझ सकती तो निःसन्देह यहाँ से बाहर जा सकती और आश्चर्य नहीं कि अपनी माँ को छुड़ा लेती।

गोपालसिंह--यह किताब कौन-सी है और कहाँ है?

इन्दिरा--(कपड़े के अन्दर से एक छोटी-सी किताब निकालकर और गोपालसिंह के हाथ में देकर)लीजिए, यही है।

यह किताब लम्बाई-चौड़ाई में बहुत छोटी थी और उसके अक्षर भी बड़े ही महीन थे, मगर इसे देखते ही गोपालसिंह का चेहरा खुशी से दमक उठा और उन्होंने इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह की तरफ देखकर कहा, “यही मेरी वह किताब है जो खो गई थी। (किताब चूमकर) आह, इसके खो जाने से तो मैं अधमरा-सा हो गया था ! (इन्दिरा से) यह तेरे हाथ कैसे लग गई ?"

इन्दिरा--इसका हाल भी बड़ा विचित्र है, अपना किस्सा जब मैं कहूँगी तो उसी के बीच में वह भी आ जायेगा।

इन्द्रजीतसिंह--(गोपालसिंह से)मालूम होता है कि इन्दिरा का किस्सा बहुत बड़ा है, इसलिए आप पहले रोहतासगढ़ का हाल सुना दीजिये तो एक तरफ से दिलजमई हो जाये।

कमलिनी के मकान की तबाही, किशोरी, कामिनी और तारा की तकलीफ, नकली बलभद्रसिंह के कारण भूतनाथ की परेशानी, लक्ष्मीदेवी, दारोगा और शेरअलीखाँ का रोहतासगढ़ में गिरफ्तार होना, राजा वीरेन्द्रसिंह का वहाँ पहुँचना, भूतनाथ के मुकदमे की पेशी, कृष्णजिन्न का पहुँचकर इन्दिरा वाले कलमदान का पेश करना और असली बलभद्रसिंह का पता लगाने के लिए भूतनाथ को छुट्टी दिला देने इत्यादि जो कुछ बातें हम ऊपर लिख आए हैं, वह सब हाल राजा गोपालसिंह ने इन्दिरा के सामने ही दोनों कुमारों से बयान किया और सभी ने बड़े गौर से सुना।

इन्दिरा--बड़े आश्चर्य की बात है कि वह कलमदान जिस पर मेरा नाम लिखा हुआ था कृष्ण जिन्न के हाथ क्योंकर लगा ! हाँ, उस कलमदान का हमारे कब्जे से निकल जाना बहुत ही बुरा हुआ। यदि आज वह मेरे पास होता तो मैं बात-की-बात में भूतनाथ के मुकद्दमे का फैसला कर देती, मगर अब क्या हो सकता है!

गोपालसिंह--इस समय वह कलमदान राजा वीरेन्द्रसिंह के कब्जे में है इसलिए उसका तुम्हारे हाथ लगना कोई बड़ी बात नहीं है।

इन्दिरा--ठीक है, मगर उन चीजों का मिलना तो अब कठिन होगा जो उसके अन्दर थीं और उन्हीं चीजों का मिलना सबसे ज्यादा जरूरी था।

गोपालसिंह--ताज्जुब नहीं कि वे चीजें भी कृष्ण जिन्न के पास ही हों और वह महाराज के कहने से तुम्हें दे दें।

इन्द्रजीतसिंह--या उन चीजों से स्वयं कृष्ण जिन्न वह काम निकालें जो तुम कर सकती हो। [ १२० ]इन्दिरा--“नहीं, उन चीजों का मतलब जितना मैं बता सकती हूँ, उतना कोई दूसरा नहीं बता सकता!

गोपालसिंह--खैर, जो कुछ होगा, देखा जायेगा।

आनन्दसिंह--(गोपालसिंह से) यह सब हाल आपको कैसे मालूम हुआ? क्या आपने कोई आदमी रोहतासगढ़ भेजा था ? या खुद पिताजी ने यह सब हाल कहला भेजा है ?

गोपालसिंह--भूतनाथ स्वयं मेरे पास मदद लेने के लिए आया था मगर मैंने मदद देने से इनकार कर दिया।

इन्द्रजीतसिंह--(ताज्जुब से) ऐसा क्यों किया?

गोपालसिंह--(ऊँची साँस लेकर) विधाता के हाथों से मैं बहुत सताया गया हूँ। सच तो यह है कि अभी तक मेरे होशहवास ठिकाने नहीं हैं, इसलिए मैं कुछ मदद करने लायक नहीं हैं। इसके अतिरिक्त मैं खुद अपनी तिलिस्मी किताब खो जाने के गम में पड़ा हुआ था, मुझे किसी की बात कब अच्छी लगती?

इन्द्रजीतसिंह--(मुस्कराकर)जी नहीं, ऐसा करने का सबब कुछ दूसरा ही है, मैं कुछ-कुछ समझ गया, खैर, देखा जायेगा, अब इन्दिरा का किस्सा सुनना चाहिए।

गोपालसिंह--(इन्दिरा से) अब तुम अपना हाल कहो, यद्यपि तुम्हारा और तुम्हारी मां का हाल मैं बहुत-कुछ जानता हूं मगर इन दोनों भाइयों को उसकी कुछ भा खबर नहीं है बल्कि तुम दोनों का नाम भी शायद इन्होंने न सुना होगा।

इन्द्रजीतसिंह--बेशक ऐसा ही है।

गोपालसिंह--इसलिए तुम्हें चाहिए कि अपना और अपनी माँ का हाल शुरू से कह सुनाओ, मैं समझता हूँ कि तुम्हें अपनी माँ का कुल हाल मालूम होगा।

इन्दिरा--जी हाँ, मैं अपनी मां का हाल खुद उसकी जुबानी और कुछ इधरउधर से भी पूरी तरह सुन चुकी हूँ।

गोपालसिंह--अच्छा, तो अब कहना आरम्भ करो।

इस.समय रात घण्टे भर से कुछ ज्यादा जा चुकी थी। इन्दिरा ने पहले अपनी मां का और फिर अपना हाल इस तरह बयान किया--