चन्द्रकांता सन्तति 4/14.12

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चंद्रकांता संतति भाग 4  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

[ १२० ] इन्दिरा--मेरी माँ का नाम सरयू और पिता का नाम इन्द्रदेव है।

इन्द्रजीतसिंह--(ताज्जुब से) कौन इन्द्रदेव ?

गोपालसिंह--वही इन्द्रदेव, जो दारोगा का गुरुभाई है, जिसने लक्ष्मीदेवी की जान बचाई थी, और जिसका जिक्र मैं अभी कर चुका हूं।

इन्द्रजीतसिंह--अच्छा तब ?

इन्दिरा--मेरे नाना बहुत अमीर आदमी थे। लाखों रुपयों की मौरूसी जायदाद उनके हाथ लगी थी और वह खुद भी बहुत पैदा करते थे, मगर सिवाय मेरी माँ के जनको और कोई औलाद न थी, इसलिए वह मेरी माँ को बहुत प्यार करते थे और धनदौलत भी बहुत ज्यादा दिया करते थे। इसी कारण मेरी माँ का रहना भी बनिस्बित ससुराल के नैहर में ज्यादा होता था। जिस जमाने का मैं जिक्र करती हूँ उस जमाने में [ १२१ ]मेरी उम्र लगभग सात-आठ वर्ष के होगी मगर मैं बातचीत और समझ-बूझ में होशियार थी और उस समय की बातें आज भी मुझे इस तरह याद हैं जैसे कल ही की बातें हों।

जाड़े का मौसम था जब से मेरा किस्सा शुरू होता है। मैं अपनी ननिहाल में थी। आधी रात का समय था, मैं अपनी माँ के पास पलंग पर सोई हुई थी। यकायक दरवाजा खुलने की आवाज आई और किसी आदमी को कमरे में आते देख मेरी माँ उठ बैठी, साथ ही इससे मेरी नींद भी टूट गई। कमरे के अन्दर इस तरह यकायक आने वाले मेरे नाना थे जिन्हें देख मेरी माँ को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और वह पलंग से नीचे उतरकर खड़ी हो गई।

आनन्दसिंह--तुम्हारे नाना का क्या नाम था?

इन्दिरा--मेरे नाना का नाम दामोदरसिंह था और वे इसी शहर जमानिया में रहा करते थे।

आनन्दसिंह--अच्छा, तब क्या हुआ?

इन्दिरा--मेरी माँ को घबराई हुई देखकर नाना साहब ने कहा, "सरयू बेटी, इस समय यकायक मेरे आने से तुझे ताज्जुब होगा और निःसन्देह यह ताज्जुब की बात है भी मगर क्या करूँ किस्मत और लाचारी मुझसे ऐसा कराती है। सरयू, इस बात को मैं खूब जानता हूँ कि लड़की को अपनी मर्जी से ससुराल की तरफ बिदा कर देना सभ्यता के विरुद्ध और लज्जा की बात है मगर क्या करूं, आज ईश्वर ही ने ऐसा करने के लिए मुझे मजबूर किया है। बेटी, आज मैं जबरदस्ती अपने हाथ से अपने कलेजे को निकालकर बाहर फेंकता हूँ अर्थात् अपनी एकमात्र औलाद को (तुझको), जिसे देखे बिना कल नहीं पड़ती थी, जबरदस्ती उसके ससुराल की तरफ बिदा करता हूँ। मैंने सबकी चोरी-चोरी बालाजी को बुलवा भेजा है और खबर लगी है कि दो घण्टे के अन्दर ही वह आना चाहते हैं। इस समय तुझे यह इत्तिला देने आया हूँ कि इसी घण्टे-दो-घण्टे के अन्दर तू भी अपने जाने की तैयारी कर ले !" इतना कहते-कहते नाना साहब का जी उमड़ आया, गला भर गया और उसकी आँखों से टपाटप आँसू की बूंदें गिरने लगीं।

इन्द्रजीतसिंह--बालाजी किसका नाम है?

इन्दिरा--मेरे पिता को मेरी ननिहाल में मब कोई 'बालाजी' कहकर पुकारा करते थे।

इन्द्रजीतसिंह--अच्छा फिर?

इन्दिरा--उस समय अपने पिता की ऐसी अवस्था देखकर मेरी माँ बदहवास हो गई और उखड़ी हुई आवाज में बोली, "पिताजी यह क्या ? आपकी ऐसी अवस्था क्यों हो रही है ? मैं यह बात क्यों देख रही हैं ? जो बात मैंने आज तक नहीं सुनी थी वह क्यों सुन रही हूँ ? मैंने ऐसा क्या कसुर किया है जो आज इस घर से मैं निकाली जाती हूँ?"

दामोदरसिंह ने कहा, "बेटी, तूने कुछ कसूर नहीं किया, सब कसुर मेरा है। जो कुछ मैंने किया है उसी का फल भोग रहा हूँ बस, इससे ज्यादा और मैं कुछ नहीं कहना चाहता। हाँ, तुझसे मैं एक बात की अभिलाषा रखता हूँ, आशा है कि तू अपने बाप की बात कभी न टालेगी। तू खूब जानती है कि इस दुनिया में तुझसे बढ़कर मैं किसी को [ १२२ ]नहीं मानता हूँ और न तुझसे बढ़कर किसी पर मेरा स्नेह है, अतएव इसके बदले में केवल इतना ही चाहता हूँ कि इस अन्तिम समय में जो कुछ तुझे कहता हूँ उसे तू अवश्य पूरा करे और मेरी याद अपने दिल में बनाये रहे

इतना कहते-कहते मेरे नाना की बुरी हालत हो गई। आँसुओं ने उनके रोआबदार चेहरे को तर कर दिया और गला ऐसा भर गया कि कुछ कहना कठिन हो गया। मेरी मां भी अपने पिता की विचित्र बातें सुनकर अधमरी-सी हो गई। पितृस्नेह ने उसका कलेजा हिला दिया, न रुकने वाले आँसुओं को पोंछकर और मुश्किल से अपने दिल को सम्हालकर बोली, "पिताजी, कहो, शीघ्र कहो कि आप मुझसे क्या चाहते हैं ? मैं आपके चरणों पर जान देने के लिए तैयार हूँ।"

इसके जवाब में दामोदरसिंह ने यह कहकर कि "मैं भी तुझसे यही आशा रखता हूँ", अपने कपड़ों के अन्दर से एक कलमदान निकाला और मेरी माँ को देकर कहा, "इसे अपने पास हिफाजत से रखना और जब तक मैं इस दुनिया में कायम रहूँ, इसे मत खोलना। देख इस कलमदान के ऊपर तीन तस्वीरें बनी हुई हैं। बिचली तस्वीर के नीचे इन्दिरा का नाम लिखा हआ है। जब तेरा पति इस कलमदान के अन्दर का हाल पूछे तो तु कह देना कि मेरे पिता ने यह कलमदान इन्दिरा को दिया है और इस पर उसका नाम भी लिख दिया है तथा ताकीद कर दी है कि जब तक इन्दिरा की शादी न हो जाये यह कलमदान खोला न जाये, अस्तु जिस तरह हो यह कलमदान खुलने न पावे। यह तकलीफ तुझे ज्यादा दिन तक भोगनी न पड़ेगी क्योंकि मेरी जिन्दगी का अब कोई ठिकाना न रहा। मैं इस समय खूखार दुश्मनों से घिरा हुआ हूँ, नहीं कह सकता कि आज मरूँ या कल, मगर बेटी, तू मेरे जब मरने का अच्छी तरह से निश्चय कर ले तभी इस कलमदान को खोलना। इसकी ताली मैं तुझे नहीं देता, जब इसके खुलने का समय आवे तब जिस तरह हो सके खोल डालना।" इतना कहकर मेरे नाना वहाँ से चले गए और रोती हई मेरी माँ को उसी तरह छोड़ गए।

इन्द्रजीतसिंह--मैं समझता हूँ यह वही कलमदान था जो कृष्ण जिन्न ने महाराज के सामने पेश किया था और जिसका हाल अभी तुम्हारे सामने भाई साहब ने बयान किया है!

इन्दिरा--जी हाँ। इन्द्रजीतसिंह-निःसन्देह यह अनूठा किस्सा है, अच्छा, तब क्या हआ?

इन्दिरा--घण्टे भर तक मेरी माँ तरह-तरह की बातें सोचती और रोती रही. इसके बाद दामोदरसिंह पुनः उस कमरे में आये और मेरी माँ को रोती हुई देखकर बोले "सरयू, तू अभी तक बैठी रो रही है। अरी बेटी, तुझे तो अब अपने प्यारे बाप के लिए जन्म भर रोना है, इस समय तू अपने दिल को सम्हाल और जाने की शीघ्र तैयारी कर अगर तू विलम्ब करेगी तो मुझे बड़ा कष्ट होगा और पुनः तुझसे पूछता हूँ कि उस कलमदान के विषय में जो कुछ मैंने कहा तू वैसा ही करेगी न ?" इसके जवाब में मेरी माँ ने सिसककर कहा, "जो कुछ आपने आज्ञा की है मैं उसका पालन करूँगी, परन्त मेरे पिता, यह बताओ कि तुम ऐसा क्यों कर रहे हो ?' [ १२३ ]मेरी मां ने बहुत-कुछ मिन्नत और आजिजी की मगर नाना साहब ने अपनी बदहवासी का सबब कुछ भी बयान न किया और बाहर चले गये। थोड़ी ही देर बाद एक लौंडी ने आकर खबर दी कि बालाजी (मेरे पिता)इन्द्रदेव आ गये। उस समय मेरी माँ को नाना साहब की बातों का निश्चय हो गया और वह समझ गई कि अब इसी समय यहां से रवाना हो जाना पड़ेगा।

थोड़ी देर बाद मेरे पिता घर में आये। माँ ने उनसे आने का सबब पूछा जिसके जवाब में उन्होंने कहा कि "तुम्हारे पिता ने एक विश्वासी आदमी के हाथ मुझे पत्र भेजा जिसमें केवल इतना ही लिखा था कि इस पत्र को देखते ही चल पड़ो और जितनी जल्दी हो सके हमारे पास पहुँचो।" मैं पत्र पढ़ते ही घबरा गया, उस आदमी से पूछा कि घर में कुशल तो है ? उसने कहा कि “सब कुशल है, मैं बहुत तेज ड़ेि पर सवार करा के तुम्हारे पास भेजा गया हूँ। अब मेरा घोड़ा लौट जाने लायक नहीं है। मगर तुम बहुत जल्द उनके पास जाओ।" मैं घबराया हुआ एक घोड़े पर सवार हो के उसी वक्त चल पड़ा मगर इस समय यहां पहुंचने पर उनसे ऐसा करने का सबब पूछा तो कोई भी जवाब न मिला, उन्होंने एक कागज मेरे हाथ में देकर कहा कि इसे हिफाजत से रखना, इस कागज में मैंने अपनी कुल जायदाद इन्दिरा के नाम लिख दी है। मेरी जिन्दगी का अब कोई ठिकाना नहीं। तुम इस कागज को अपने पास रखो और अपनी स्त्री तथा लड़की को लेकर इसी समय यहाँ से चले जाओ, क्योंकि अब जमानिया में बड़ा भारी उपद्रव उठना चाहता है ? बस, इससे ज्यादा और कुछ न कहेंगे। तुम्हारी बिदाई का सब बन्दोबस्त हो चुका है, सवारी इत्यादि तैयार है।"

इतना कहकर मेरे पिता चुप हो गये और दम भर के बाद उन्होंने मेरी मां से पूछा कि इन सब बातों का सबब यदि तुम्हें कुछ मालूम हो तो कहो। मेरी माँ ने भी थोड़ी देर पहले जो कुछ हो चुका था, कह सुनाया। मगर कलमदान के बारे में केवल इतना ही कहा कि पिताजी यह कलमदान इन्दिरा के लिए दे गये हैं और कह गये हैं कि कोई इसे खोलने न पावे, जब इन्दिरा की शादी हो जाये तो वह अपने हाथ से इसे खोलें।

इसके बाद मेरे पिता मिलने के लिए मेरी नानी के पास गये और देखा कि रोतेरोते उसकी अजीब हालत हो गई है। मेरे पिता को देखकर वह और भी रोने लगी मगर इसका सबब कुछ भी न बता सकी कि उसके मालिक को आज क्या हो गया है, वे इतने बदहवास क्यों हैं, और अपनी लड़की को इसी समय यहाँ से बिदा करने पर क्यों मजबूर हो रहे हैं क्यवेकि उस बेचारी को भी इसकी बाबत कुछ मालूम न था।

यह सब बातें जो मैं ऊपर कह आई हैं सिवाय हम पांच आदमियों के और किसी को मालम न थीं। उस घर का और कोई भी यह नहीं जानता था कि आज दामोदरसिंह बदहवास हो रहे हैं और अपनी लड़की को किसी लाचारी से इसी समय बिदा कर रहे हैं।

थोड़ी देर बाद हम लोग बिदा कर दिये गये। मेरी मां रोती हुई मुझे साथ लेकर रथ में रवाना हुई जिसमें दो मजबूत घोड़े जुते हुए थे, और इसी तरह के दूसरे [ १२४ ]रथ पर बहुत-सा सामान लेकर मेरे पिता सवार हुए और हम लोग वहाँ से रवाना हुए। हिफाजत के लिए कई हथियारबन्द सवार भी हम लोगों के साथ थे।

जमानिया से मेरे पिता का मकान केवल तीस-पैंतीस कोस की दूरी पर होगा। जिस वक्त हम लोग घर से रवाना हुए, उस वक्त दो घण्टे रात बाकी थी और जिस समय हम लोग घर पहुँचे उस समय पहर भर से भी ज्यादा दिन बाकी था। मेरी माँ तमाम रास्ते रोती गई और घर पहुँचने पर भी कई दिनों तक उसका रोना बन्द न हुआ। मेरे पिता के रहने का स्थान बड़ा ही सुन्दर और रमणीक है, मगर उसके अन्दर जाने का रास्ता बहुत ही गुप्त रखा गया है।

इस जगह इन्दिरा ने इन्द्रदेव के मकान और रास्ते का थोड़ा-सा हाल वयान किया और उसके बाद फिर अपना किस्सा कहने लगी--

इन्दिरा--मेरे पिता तिलिस्म के दारोगा हैं और यद्यपि खुद भी बड़े भारी ऐयार हैं तथापि उनके यहां कई ऐयार नौकर हैं। उन्होंने अपने दो ऐयारों को इसलिए जमानिया भेजा कि वे एकसाथ मिलकर या अलग-अलग होकर दामोदरसिंहजी की बदहवासी और परेशानी का पता गुप्त रीति से लगावें और यह मालूम करें कि वह कौन से दुश्मनों की चालबाजियों के शिकार हो रहे हैं। इस बीच मेरे पिता ने पुनः मेरी माँ से कलमदान का हाल पूछा जो उसके पिता ने उसे दिया था और मेरी माँ ने उसका हाल साफ-साफ कह दिया अर्थात् जो कुछ उस कलमदान के विषय में दामोदरसिंहजी ने नसीहत इत्यादि की थी, वह साफ-साफ कह सुनायी।

जिस दिन मैं अपनी माँ के साथ पिता के घर गई उसके ठीक पन्द्रहवें दिन संध्या के समय मेरे पिता के एक ऐयार ने यह खबर पहुँचाई कि जमानिया में प्रातःकाल सरकारी महल के पास वाले चौमुहाने पर दामोदरसिंहजी की लाश पाई गई जो लहू से भरी हुई थी और सिर का पता न था। महाराज ने उस लाश को अपने पास उठवा मँगाया और तहकीकात हो रही है। इस खबर को सुनते ही मेरी मां जोर-जोर से रोने और अपना माथा पीटने लगी। थोड़ी ही देर बाद ननिहाल का भी एक दूत आ पहँचा और उसने भी वही खबर सुनाई। पिताजी ने मेरी माँ को बहुत समझाया और कहा कि कलमदान देत समय तम्हारे पिता ने तुमसे कहा था कि मेरे मरने के बाद इस कलमदान को खोलना मगर को मारने का अच्छी तरह निश्चय कर लेना। उनका ऐसा कहना बेसबब न था। 'मरने का निश्चय कर लेना' यह बात उन्होंने निःसन्देह इसीलिए कही होगी कि उनके मरने के विषय में लोग हम सभी को धोखा देंगे, यह बात उन्हें अच्छी तरह मालूम थी। अस्तु तुम अभी रो-रोकर अपने को हलकान मत करो और पहले मुझे जमानिया जाकर उनके मरने के विषय में निश्चय कर लेने दो। यह जरूर बड़े ताज्जुब और शक की बात है कि उन्हें मारकर कोई उनका सिर ले जाये और धड़ उसी तरह रहने दे। इसके अतिरिक्त तुम्हारी माँ का भी बन्दोबस्त करना चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि वह किसी दूसरे ही की लाश के साथ सती हो जाये।

मेरी माँ ने भी जमानिया जाने की इच्छा प्रकट की, परन्तु पिता ने स्वीकार न करके कहा कि यह बात तुम्हारे पिता को भी स्वीकार न थी, नहीं तो अपनी जिन्दगी [ १२५ ]ही में तुम्हें यहाँ बिदा न कर देते, इत्यादि बहुत-कुछ समझा-बुझाकर उसे शान्त किया और स्वयं उसी समय दो-तीन ऐयारों को साथ लेकर जमानिया की तरफ रवाना हो गए।

इतना कहकर इन्दिरा रुक गई और लम्बी साँग लेकर फिर बोली-

इन्दिरा--उस समय मेरे पिता पर जो कुछ मुसीबत बीती थी उसका हाल उन्हीं की जुबानी सुनना अच्छा मालूम होगा तथापि जो कुछ मुझे मालूम है मैं बयान करती हूँ। मेरे पिता जब जमानिया पहुँचे तो सीधे घर चले गए। वहाँ पर देखा तो मेरी नानी को अपने पति की लाश के साथ सती होने की तैयारी करते पाया क्योंकि देखभाल करने के बाद राजा साहब ने उनकी लाश उनके घर भिजवा दी थी। मेरे पिता ने मेरी नानी को बहुत-कुछ समझाया और कहा कि इस लाश के साथ तुम्हारा सती होना उचित नहीं है, कौन ठिकाना यह कार्रवाई धोखा देने के लिए की गई हो, और यदि यह दूसरे की लाश निकली तो तुम स्वयं विचार सकती हो कि तुम्हारा सती होना कितना बुरा होगा। अतः तुम इसकी दाह-क्रिया होने दो और बीच में मैं इस मामले का असल पता लगा लूंगा, अगर यह लाश वास्तव में उन्हीं की होगी तो खूनी का या उसके सिर का पता लगाना कोई कठिन न होगा! इत्यादि बहुत-सी बातें समझाकर उनको सती होने से रोका और स्वयं खूनियों का पता लगाने का उद्योग करने लगे।

आधी रात का समय था, सर्दी खूब पड़ रही थी। लोग लिहाफों के अन्दर मुंह छिपाये अपने-अपने घरों में सो रहे थे। मेरे पिता सूरत बदले और चेहरे पर नकाब डाले घूमते-फिरते उसी चौमुहाने पर जा पहुंचे जहाँ मेरे नाना की लाश पाई गई थी। उस समय चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। वे एक दुकान की आड़ में खड़े होकर कुछ सोच रहे थे कि दाहिनी तरफ से एक आदमी को आते देखा। वह आदमी भी अपने चेहरे को नकाब से छिपाए हुए था। मेरे पिता के देखते-ही-देखते वह उस चौमुहाने पर कुछ रखकर पीछे की तरफ मुड़ गया। मेरे पिता ने जाकर देखा तो एक लिफाफे पर नजर पड़ी, उसे उठा लिया और घर लौट आये। शमादान के सामने लिफाफा खोला, उसके अन्दर एक चिट्ठी थी और उसमें यह लिखा था--

"दामोदरसिंह के खूनी का जो कोई पता लगाना चाहे उसे अपनी तरफ से भी होशियार रहना चाहिए। ताज्जुब नहीं कि उसकी भी वही दशा हो जो दामोदरसिंह की हुई।"

इस पत्र को पढ़कर मेरे पिता तरदुद में पड़ गये और सवेरा होने तक तरह-तरह कीबातें सोचते-विचारते रहे। उन्हें आशा थी कि सवेरा होने पर उनके ऐयार लोग घर लौट आयेंगे और रात भर में जो कुछ उन्होंने किया है उसका हाल कहेंगे, क्योंकि ऐसा करने के लिए उन्होंने अपने ऐयारों को ताकीद कर दी थी मगर उनका विचार ठीक न निकला अर्थात् उनके वे भेजे हुए ऐयार लौटकर न आये। दूसरा दिन भी बीत गया और तीसरे दिन भी दोपहर रात जाते-जाते तक मेरे पिता ने उन लोगों का इन्तजार किया मगर सब व्यर्थ था, उन ऐयारों का हाल कुछ भी मालूम न हुआ। आखिर लाचार होकर स्वयं उनकी खोज में जाने के लिए तैयार हो गये और घर से बाहर निकलना ही [ १२६ ]चाहते थे कि कमरे का दरवाजा खुला और महाराज के एक चोबदार को साथ लिए हुए नाना साहब का एक सिपाही कमरे के अन्दर दाखिल हुआ। पिता को बड़ा ताज्जुब हुआ और उन्होंने चोबदार से वहाँ आने का सबब पूछा। चोबदार ने जवाब दिया कि आपको कुंअर साहब (गोपालसिंह) ने शीघ्र ही बुलाया है और अपने साथ लाने के लिए मुझे सख्त ताकीद की है।

गोपालसिंह--हाँ, ठीक है, मैंने उन्हें अपनी मदद के लिए बुलवाया था, क्योंकि मेरे और इन्द्रदेव के बीच दोस्ती थी और उस समय मैं दिली तकलीफों से बहुत बेचैन था। इन्द्रदेव से और मुझसे अब भी वैसी ही दोस्ती है, वह मेरा बहुत सच्चा दोस्त है, चाहे वर्षों हम दोनों में पत्र-व्यवहार न हो मगर दोस्ती में किसी तरह की कमी नहीं आ सकती।

इन्दिरा–-बेशक ऐसा ही है ! तो उस समय का हाल और उसके बाद मेरे पिता से और आपसे जो-जो बातें हुई थीं सो आप अच्छी तरह बयान कर सकते हैं।

गोपालसिंह--नहीं-नहीं, जिस तरह तुम और हाल कह रही हो उसी तरह वह भी कह जाओ, मैं समझता हूँ कि इन्द्रदेव ने यह सब हाल तुमसे कहा होगा।

इन्दिरा--जी हाँ, इस घटना के कई वर्ष बाद पिताजी ने मुझसे सब हाल कहा था जो अभी तक मुझे अच्छी तरह याद है, मगर मैं उन बातों को मुख्तसिर ही में बयान करती हूँ।

गोपालसिंह--क्या हर्ज है तुम मुख्तसिर में बयान कर जाओ, जहाँ भूलोगी मैं बता दूंगा, यदि वह हाल मुझे भी मालूम होगा।

इन्दिरा जो आज्ञा ! मेरे पिता जब चोबदार के साथ राजमहल में गये, तो मालूम हुआ कि कुँअर साहब घर में नहीं हैं कहीं बाहर गये हैं। आश्चर्य में आकर उन्होंने कुँअर साहब के खास खिदमतगार से दरियाफ्त किया तो उसने जवाब दिया कि आपके पास चोबदार भेजने के बाद बहुत देर तक अकेले बैठकर आपका इन्तजार करते रहे मगर जब आपके आने में देर हुई तो घबराकर खुद आपके मकान की तरफ चले गये। यह सुनते ही मेरे पिता घबराकर वहां से लौटे और फौरन ही घर पहुँचे मगर कुँअर साहब से मुलाकात न हई। दरियाफ्त करने पर पहरेदार ने कहा कि कुँअर साहब यहाँ नहीं आए हैं। वे पुनः लौटकर राजमहल में गये, परन्तु कुँअर साहब का पता न लगना था और न लगा। मेरे पिता की वह तमाम रात परेशानी में बीती, और उस समय उन्हें नाना साहब की बात याद आई जो उन्होंने मेरे पिता से कही थी कि अब जमानिया में बड़ा भारी उपद्रव उठना चाहता है।

तमाम रात बीत गई, दूसरा दिन चला गया, तीसरा दिन चला गया, मगर कुँअर माजका पता न लगा। सैकड़ों आदमी खोज में निकले, तमाम शहर में कोलाहल मच गया जिसे देखिए वह इन्हीं के विषय में तरह-तरह की बातें कहता और आश्चर्य करता था। उन दिनों कुंअर साहब (गोपालसिंह) की शादी लक्ष्मीदेवी से लगी हई थी और तिलिस्मी दारोगा साहब शादी के विरुद्ध बातें किया करते थे, इस बात की चर्चा भी शहर में फैली हुई थी। [ १२७ ]चौथे दिन आधी रात के समय मेरे पिता नाना साहब वाले मकान में फाटक के ऊपर वाले कमरे के अन्दर पलँग पर लेटे हुए कुँअर साहब के विषय में कुछ सोच रहे थे कि यकायक कमरे का दरवाजा खुला और आप (गोपालसिंह) कमरे के अन्दर आते हुए दिखाई पड़े। मुहब्बत और दोस्ती में बड़ाई-छुटाई का दर्जा कायम नहीं रहता। कुंअर साहब को देखते ही मेरे पिता उठ खड़े हुए और दौड़कर इनके गले से चिपटकर बोले, "क्यों साहब, आप इतने दिनों तक कहाँ थे?"

उस समय कुँअर साहब की आँखों से आंसू की बूंदें टपटपाकर गिर रही थीं; चेहरे पर उदासी और तकलीफ की निशानी पाई जाती थी, और उन दिनों में ही उनके बदन सायद हालत हो गई थी कि महीनों के बीमार मालूम पड़ते थे। मेरे पिता ने हाथ-मुँह धलवाया तथा अपने पलंग पर बैठाकर हाल-चाल पूछा और कुअर साहब ने इस तरह अपना हाल बयान किया--

"उस दिन मैंने तुमको बुलाने के लिए चोबदार भेजा, जब तक चोवदार तुम्हारे यहाँ से लौटकर आये उसके पहले ही एक खिदमतगार ने मुझे इत्तिला दी कि इन्द्रदेव ने आपको अपने घर अकेले ही बुलाया है। मैं उसी समय उठ खड़ा हुआ और अकेले तुम्हारे मकान की तरफ रवाना हुआ। जब आधे रास्ते में पहुँचा तो तुम्हारे यहां का अर्थात् दामोदरसिंह का खिदमतगार, जिसका नाम प्यारे है, मुझे मिला और उसने कहा कि इन्द्रदेव गंगा-किनारे की तरफ गये हैं और आपको उसी जगह बुलाबा है। मैं क्या जानता था कि एक अदना खिदमतगार मुझसे दगा करेगा। मैं बेधड़क उसके साथ गंगा के किनारे की तरफ रवाना हुआ। आधी रात से ज्यादा तो जा ही चुकी थी अतएव गंगा किनारे बिल्कुल सन्नाटा छाया हुआ था। मैंने वहाँ पहुँचकर किसी को न पाया तो उस नौकर से पूछा कि इन्द्रदेव कहाँ हैं ? उसने जवाब दिया कि ठहरिये आते होंगे। उस घाट पर केवल एक डोंगी बँधी हुई थी, मैं कुछ विचारता हुआ उस डोंगी की तरफ देख रहा था कि यकायक दोनों तरफ से दस-बारह आदमी चेहरों पर नकाबें डाले हए आ पहुंचे और उन सभी ने फर्ती के साथ मुझे गिरफ्तार कर लिया। वे सब बड़े मजबूत और ताकतवर थे और सबके सब एक साथ मुझसे लिपट गये। एक ने मेरे मुंह पर एक मोटा कपड़ा डालकर ऐसा कस दिया कि न तो मैं बोल सकता था और न कुछ देख सकता था, बात-की-बात में मेरी मुश्क बाँध दी गई और जबरदस्ती उसी डोंगी पर बैठा दिया गया जो घाट के किनारे बंधी हुई थी। डोंगी किनारे से खोल दी गई और बड़ी तेजी से चलाई गई। मैं नहीं कह सकता कि वे लोग कितने आदमी थे और दो ही घण्टे में जब तक कि मैं उस पर सवार था, डोंगी को लेकर कितनी दूर तक गये। लगभग दो घण्टे के करीब बीत गये, तब डोंगी किनारे लगी और मुझे उतारकर एक घोड़े पर चढ़ाया गया ! मेरे दोनों पैर घोड़े के नीचे की तरफ मजबूती के साथ बाँध दिए गए, हाथ की रस्सी ढीली कर दी, जिसमें मैं घोड़े की काठी पकड़ सकं और घोड़ा तेजी के साथ एक तरफ को दौड़ाया गया। मैं दोनों हाथों से घोड़ की काठी पकड़े हए था। यद्यपि मैं देखने और बोलने से लाचार कर दिया गया था मगर अन्दाज से और घोड़ों की टापों की आवाज से मालम हो गया कि मुझे कई सवार घेरे हुए चल रहे हैं और मेरे घोड़े की भी लगाम किसी सवार के हाथ में है। कभी तेजी से और [ १२८ ]कभी धीरे-धीरे चलते दो पहर से ज्यादा बीत गए, पैरों में दर्द होने लगा और थकावट ऐसी जान पड़ने लगी कि मानो तमाम बदन चूर-चूर हो गया है। इसके बाद वे घोड़े रोके गए और मैं नीचे उतारकर एक पेड़ के साथ कस के बाँध दिया गया और उस समय मेरे मुँह का कपड़ा खोल दिया गया। मैंने चारों तरफ निगाह दौड़ाई तो अपने को एक घने जंगल में पाया। दस आदमी मोटे मुस्टंडे और उनकी सवारी के दस घोड़े सामने खड़े थे। पास ही में पानी का एक चश्मा बह रहा था। कई आदमी जीन खोलकर घोड़ों को ठण्डा करने और चराने की फिक्र में लगे और बाकी के शैतान हाथ में नंगी तलवार लेकर मेरे चारों तरफ खड़े हो गए। मैं चुपचाप सभी की तरफ देखता था और मुंह से कुछ भी न बोलता था और न वे लोग ही मुझसे कुछ बातें करते थे। (लम्बी साँस लेकर) यदि गर्मी का दिन होता तो शायद मेरी जान निकल जाती क्योंकि उन कम्बख्तों ने मुझे पानी तक के लिए नहीं पूछा और स्वयं खा-पीकर ठीक हो गए। अस्तु पहर भर के बाद फिर मेरी वही दुर्दशा की गई अर्थात् देखने और बोलने से लाचार करके घोड़े पर उसी तरह बैठाया गया और फिर सफर शुरू हुआ। पुनः दोपहर से ज्यादा देर तक सफर करना पड़ा और इसके बाद मैं घोड़े से नीचे उतारकर पैदल चलाया गया। मेरे पैर दर्द और तकलीफ से बेकार हो रहे थे, मगर लाचारी ने फिर भी चौथाई कोस तक चलाया और इसके बाद चौखट लांघने की नौबत आई, तब मैंने समझा कि अब किसी मकान में जा रह चार दफे चौखट लाँघनी पड़ी जिसके बाद मैं एक खम्भे के साथ बांध दिया गया तब मेरे मुंह पर से कपड़ा हटाया गया।

। चौदहवाँ भाग समाप्त !


तिलिस्मी लेख

बाजे से निकली आवाज का मतलब यह है--

"सारा तिलिस्म तोड़ने का खयाल न करो और इस तिलिस्म की ताली किसी चलती-फिरती से प्राप्त करो। इस बाजे में वे सब बातें भरी हैं जिनकी तुम्हें जरूरत है. ताली लगाया करो, सुना करो। अगर एक ही दफे सुनने से समझ में न आवे तो दोहरा करके भी सुन सकते हो। इसका तरकीब और ताली इसी कमरे में है। ढूंढ़ो।

(देखिये-पृष्ठ 86)

महाराज सूर्यकान्त की तस्वीर के नीचे लिखे हुए बारीक अक्षरों वाले मजमून

("स्वर दै गिन के वर्ग पै") का अर्थ यह है--

खूब समझ के तब आगे पैर रक्खो।

बाजे वाले चौतरे में खोजो, तिलिस्मी खंजर अपनी देह से अलग मत करो, नहीं तो जान पर आ बनेगी।

(देखिये-पृष्ठ 92)

च० स०-4-8

[ १२९ ]इन्दिरा बोली--कुंअर साहब ने एक लम्बी साँस लेकर फिर अपना हाल कहना शुरू किया और कहा--

कुअँर--जब मह पर से कपड़ा हटा दिया क्या गया, तब मैंने अपने को एक सजे हए कमरे में देखा। वे ही आदमी जो मुझे यहाँ तक लाये थे अब भी मुझको चारों तरफ . से घेरे हुए थे। छत के साथ बहुत-सी कन्दीलें लटक रही थीं और उनमें मोमबत्तियाँ जल रही थीं, दीवारगीरों में रोशनी हो रही थी, जमीन पर फर्श बिछा हआ था और उस पर पचीस-तीस आदमी अमीराना ढंग की पोशाक पहने और सामने नंगी तलवारें रक्खे बैठे हुए थे मगर सभी का चेहरा नकाब से ढंका हुआ था। तमाम रास्ते में और उस समय मेरे दिल की क्या हालत थी सो मैं ही जानता हूँ। एक आदमी ने जो सबसे ऊँची गद्दी पर बैठा हुआ था और शायद उन सभी का सभापति था मेरी तरफ मुँह करके कहा, "कुँअर गोपालसिंह, तुम समझते होंगे कि मैं जमानिया के राजा का लड़का हूँ, जो चाहूँ सो कर सकता हूँ, मगर अब तुम्हें मालूम हुआ होगा कि हमारी सभा इतनी जबर्दस्त है कि तुम्हारे ऐसे के साथ भी जो चाहे सो कर सकती है। इस समय तुम हम लोगों के कब्जे में हो, मगर नहीं, हमारी सभा ईमानदार है। हम लोग ईमानदारी के साथ दुनिया का इन्तजाम करते हैं। तुम्हारा बाप बड़ा ही बेवकूफ है और राजा होने . के लायक नहीं है। जिस दिन से वह अपने को महात्मा और साधू बनाये हुए है, दयावान कहलाने के लिए मरा जाता है, दुष्टों को उतना दण्ड नहीं देता जितना देना चाहिए, इसी से तुम्हारे शहर में अब खून-खराबा ज्यादा होने लग गया है, मगर खनी के गिरफ्तार हो जाने पर भी वह किसी खूनी को दया के वश में पड़कर प्राण-दण्ड नहीं देता। इसी से अब हम लोगों को तुम्हारे यहाँ के बदमाशों का इन्साफ अपने हाथ में लेना पड़ा। तुम्हें खूब मालूम है कि जिस खूनी को तुम्हारे बाप ने केवल देश-निकाले का दण्ड देकर छोड़ दिया था उसकी लाश तुम्हारे ही शहर में किसी चौमुहाने पर पाई गई थी। आज तुम्हें यह भी मालूम हो गया कि वह कार्रवाई हमी लोगों की थी। तुम्हारे शहर का [ १३० ]रहने वाला दामोदरसिंह भी हमारी सभा का सभासद (मेम्बर) था। एक दिन इस सभा ने लाचार होकर यह हुक्म जारी किया कि जमानिया के राजा को अर्थात् तुम्हारे बाप को इस दुनिया से उठा दिया जाय, क्योंकि वह गद्दी चलाने लायक नहीं है, और तुमको जमानिया की गद्दी पर बैठाया जाय। यद्यपि दामोदरसिंह को भी नियमानुसार हमारा साथ देना उचित था मगर वह तुम्हारे बाप का पक्ष करके बेईमान हो गया अतएव लाचार होकर हमारी सभा ने उसे प्राणदण्ड दिया। अब तुम लोग उस दामोदरसिंह के खूनी का पता लगाना चाहते हो मगर इसका नतीजा अच्छा नहीं निकल सकता। आज इस सभा ने इसलिए तुम्हें बुलाया है कि तुम्हें हर बात से होशियार कर दिया जाय। इस सभा का हुक्म टल नहीं सकता, तुम्हारा बाप अब बहुत जल्द इस दुनिया से उठा दिया जायगा और तुमको जमानिया की गद्दी पर बैठने का मौका मिलेगा। तुम्हें उचित है कि हम लोगों का पीछा न करो अर्थात् यह जानने का उद्योग न करो कि हम लोग कौन हैं या कहाँ रहते हैं, और अपने दोस्त इन्द्रदेव को भी ऐसा करने के लिए ताकीद कर दो, नहा तो तुम्हारे और इन्द्रदेव के लिए भी प्राणदण्ड का हुक्म दिया जायगा। बस, केवल इतना ही समझाने के लिए तुम इस सभा में बुलाये गये थे और अब बिदा किये जाते हो।"

इतना कहकर उस नकाबपोश ने ताली बजाई और उन्हीं दुष्टों ने जो मुझे वहा ले गये थे मेरे मुँह पर कपड़ा डालकर फिर उसी तरह कस दिया। खम्भे से खोलकर मुझ बाहर ले आये, कुछ दूर पैदल चला कर घोड़े पर लादा और उसी तरह दोनों पैर कसकर बांध दिये। लाचार होकर मुझे फिर उसी तरह का सफर करना पड़ा और किस्मत ने फिर उसी तरह मुझे तीन पहर तक घोड़े पर बैठाया। इसके बाद एक जंगल में पहुंच कर घोड़े पर से नीचे उतार दिया, हाथ-पैर खोल दिए, मुंह पर से कपड़ा हटा लिया और जिस घोड़े पर मैं सवार कराया गया था उसे साथ लेकर वे लोग वहाँ से रवाना ही गये। उस तकलीफ ने मुझे ऐसा बेदम कर दिया था कि दस कदम चलने की भी ताकत न थी और भूख-प्यास के मारे बुरी हालत हो गई थी, दिन पहर भर से ज्यादा चढ़ चुका था, पानी का बहता हुआ चश्मा मेरी आँखों के सामने था, मगर मुझमें उठकर वहाँ तक जाने की ताकत न थी। घण्टे-भर तक तो यों ही पड़ा रहा, इसके बाद धीरे-धीरे चश्मे के पास गया, खब पानी पीया तब जी ठिकाने हुआ। मैं नहीं कह सकता कि किन कठिनाइया से दो दिन में यहाँ तक पहुँचा हूँ। अभी तक घर नहीं गया, पहले तुम्हारे पास आया है। हाँ, धिक्कार है मेरी जिन्दगी और राजकुमार कहलाने पर ! जब मेरी रिआया का इन्साफ बदमाशों के आधीन है तो मैं यहां का हाकिम क्योंकर कहलाने लगा ? जब म अपनी हिफाजत आप नहीं कर सकता तो प्रजा की रक्षा कैसे कर सकंगा? बड़े खेद की बात है कि अदने दर्जे के बदमाश लोग हम पर मुकदमा करें और हम उनका कुछ भी न बिगड सकें, हमारे हितैषी दामोदरसिंह मार डाले गये और अब मेरे प्यारे पिता के मारने की फिक्र की जा रही है।

गोपालसिंह--निःसन्देह उस समय मुझे बड़ा ही रंज हुआ था। आज जब मैं उन बातों को याद करता हूँ तो मालूम होता है कि उन लोगों को यदि मुन्दर की शादी मेरे [ १३१ ]साथ करना मंजूर न होता, तो निःसन्देह मुझे भी मार डालते और या फिर गिरफ्तार ही न करते।

इन्द्रजीतसिंह--ठीक है, (इन्दिरा से) अच्छा तब ?

इन्दिरा--मेरे पिता ने जब यह सुना कि दामोदर सिंह के नौकर रामप्यारे ने कुँअर साहब को धोखा दिया तो उन्हें निश्चय हो गया कि रामप्यारे भी जरूर उस कमेटी का मददगार है। वे कुँअर साहब की आज्ञानुसार तुरन्त उठ खड़े हुए और रामप्यारे की खोज में फाटक पर आये मगर खोज करने पर मालूम हुआ कि रामप्यारे का पता नहीं लगता। लौटकर कुँअर साहब के पास गये और बोले, "जो सोचा था वही हुआ। रामप्यारे भाग गया, आपका खिदमतगार भी जरूर भाग गया होगा।"

इसके बाद कुँअर साहब और मेरे पिता देर तक बातचीत करते रहे। पिता ने कुँअर साहब को कुछ खिला-पिलाकर और समझा-बुझाकर शान्त किया और वादा किया कि मैं उस सभा तथा उसके सभासदों का पता जरूर लगाऊँगा। पहर रात-भर बाकी होगी जब कुंअर साहब अपने घर की तरफ रवाना हुए। कई आदमियों को संग लिए हुए मेरे पिता भी उनके साथ गए। राजमहल के अन्दर पैर रखते ही कुँअर साहब को पहले अपने पिता अर्थात् बड़े महाराज से मिलने की इच्छा हुई और वे मेरे पिता का साथ लिए हुए सीधे बड़े महाराज के कमरे में चले गए, मगर अफसोस, उस समय बड़े महाराज का देहान्त हो चुका था और यह बात सबसे पहले कुँअर साहब ही को मालूम हुई थी। उस समय बड़े महाराज पलंग के ऊपर इस तरह पड़े हुए थे जैसे कोई घोर निद्रा में हो मगर जब कुंअर साहब ने उन्हें जगाने के लिए हिलाया, तब मालूम हुआ कि वे महानिद्रा के अधीन हो चुके हैं।

इन्दिरा के मुँह से इतना हाल सुनते-सुनते राजा गोपालसिंह की आँखों में आँसू भर आए और दोनों कुमारों के नेत्र भी सूखे न रहे। राजा साहब ने एक लम्बी साँस ले कर कहा, "मेरा माँ का देहान्त पहले ही हो चका था, उस समय पिता के भी परलोक सिधारने से मुझे बड़ा ही कष्ट हआ। (इन्दिरा से) अच्छा, आगे कहो।"

इन्दिरा--बड़े महाराज के देहान्त की खबर जब चारों तरफ फैली तो महल और शहर में बड़ा ही कोलाहल मचा, मगर इस बात का खयाल कुँअर साहब और मेरे माता-पिता के अतिरिक्त और किसी को भी न था कि बड़े महाराज की जान भी उसी गुप्त कमेटी ने ली है और न इन दोनों ने ही अपने दिल का हाल किसी से कहा। इसके दो महीने बाद कुंअर साहब जमानिया की गद्दी पर बैठे और राजा कहलाने लगे इस बीच में मेरे पिता ने उस कमेटी का पता लगाने के लिए बहुत उद्योग किया मगर कुछ पता न लगा। उन दिनों कई रजवाड़ों से मातमपुर्सी के खत आ रहे थे। रणधीरसिंह जी (किशोरी ने नाना) के यहां से मातमपुर्सी का खत लेकर उनके ऐयार गदाधरसिंह आये थे। गदाधरसिंह से और पिता से कुछ नातेदारी भी है जिसे मैं भी ठीकठोक नहीं जानती और इस समय मातमपूर्सी की रस्म पूरी करने के बाद मेरे पिता की इच्छानुसार उन्होंने भी मेरे ननिहाल ही में डेरा डाला जहाँ मेरे पिता रहते थे और इस बहाने से कई दिनों तक दिन-रात दोनों आदमियों का साथ रहा। मेरे पिता ने यहाँ का [ १३२ ]हाल तथा उस गुप्त कमेटी में कुंअर साहब के पहुँचाये जाने का भेद कह के गदाधरसिंह से मदद मांगी जिसके जवाब में गदाधरसिंह ने कहा कि मैं मदद देने के लिए जी-जान से तैयार हूँ परन्तु अपने मालिक की आज्ञा बिना ज्यादा दिन तक यहाँ नहीं ठहर सकता और यह काम दो-चार दिन का नहीं। तुम राजा गोपालसिंह से कहो कि वे मुझे मेरे मालिक से थोड़े दिनों के लिए माँग लें तब मुझे कुछ उद्योग करने का मौका मिलेगा। आखिर ऐसा ही हुआ अर्थात् आपने (गोपालसिंह की तरफ बताकर) अपना एक सवार पत्र देकर रणधीरसिंह जी के पास भेजा और उन्होंने गदाधरसिंह के नाम राजा साहब का काम कर देने के लिए आज्ञा-पत्र भेज दिया।

गदाधरसिंह जब जमानिया में आए थे तो अकेले न थे बल्कि अपने तीन-चार चेलों को भी साथ लाये थे, अस्तु अपने उन्हीं चेलों को साथ लेकर वे उस गुप्त कमेटी का पता लगाने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने मेरे पिता से कहा कि इस शहर में रघुबरसिंह नामी एक आदमी रहता है जो बड़ा ही शैतान, रिश्वती और बेईमान है, मैं उसे फंसाकर अपना काम निकालना चाहता हूँ मगर अफसोस यह है कि वह तम्हारे गुरु- भाई अर्थात् तिलिस्मी दारोगा का दोस्त है और तिलिस्मी दारोगा को तुम्हारे राजा साहब बहुत मानते हैं, खैर, मुझे तो उन लोगों का कुछ खयाल नहीं मगर तुम्हें इस बात की इत्तिला पहले ही से दिए देता हूँ। इसके जवाब में मेरे पिता ने कहा कि उस शैतान को मैं भी जानता हूं, यदि उसे फाँसने से कोई काम निकल सकता है तो निकालो और इस बात का कुछ खयाल न करो कि वह मेरे गुरुभाई का दोस्त है। इसके बाद मेरे पिता और गदाधरसिंह देर तक आपस में सलाह करते रहे और दूसरे दिन गदाधरसिंह के जाने के बाद मेरे पिता भी उन्हीं लोगों का पता लगाने उद्योग करने लगे। एक बार रात के समय मेरे पिता भेस बदलकर शहर में घूम रहे थे, लिए घूमने-फिरने और अकस्मात् घूमते-फिरते गंगा किनारे उसी ठिकाने जा पहुँचे जहाँ (गोपालसिंह की तरफ इशारा कर) इन्हें दुश्मनों ने गिरफ्तार कर लिया था। मेरे पिता ने एक डोंगी किनारे पर बंधी हुई देखी। उस समय उन्हें कुंअर साहब की बात याद आ गई और वे धीरे- धीरे चलकर उस डोंगी के पास जा खड़े हुए। उसी समय कई आदमियों ने यकायक पहुँचकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। वे लोग हाथ में तलवारें लिए और अपने चेहरों को नकाब से ढांके हुए थे। यद्यपि मेरे पिता के पास भी तलवार थी और उन्होंने अपने- आपको बचाने के लिए बहुत-कुछ उद्योग किया बल्कि एक-दो आदमियों को जख्मी भी किया मगर नतीजा कुछ भी न निकला, क्योंकि दुश्मनों ने एक मोटा कपड़ा बड़ी फुर्ती से उनके सिर और मुँह पर डालकर उन्हें हर तरह से बेकार कर दिया। मुख्तसिर यह कि दुश्मनों ने उन्हें गिरफ्तार करने के बाद हाथ-पैर बाँध के डोंगी में डाल दिया, डोंगी खोली गई और एक तरफ को तेजी के साथ रवाना हुई। पिता के मुंह पर कपड़ा कसा हुआ था इसलिए वे देख नहीं सकते थे कि डोंगी किरा तरफ जा रही है और दुश्मन गिनती में कितने हैं। दो घण्टे तक उसी तरह चले जाने के बाद वे किश्ती के नीचे उतारे गये और जबर्दस्ती एक घोड़े पर चढ़ाये गये, दोनों पैर नीचे से कस के बाँध दिये गये और उसी तरह उस गुप्त कमेटी में पहुँचाये गए जिस तरह कुँअर साहब अर्थात् राजा [ १३३ ]गोपालसिंह जी वहाँ पहुँचाये गये थे। उसी तरह मेरे पिता भी एक खम्भे के साथ कस के बाँध दिए गए और उनके मुंह पर से वह आफत का पर्दा हटाया गया। उस समय एक भयानक दृश्य उन्हें दिखाई दिया। जैसा कि कुंअर साहब ने उनसे बयान किया था ठीक उसी तरह का सजा-सजाया कमरा और वैसे ही बहुत से नकाबपोश बड़े ठाठ के साथ बैठे हुए थे। पिता ने मेरी माँ को भी एक खम्भे के साथ बँधी हुई और उस कलमदान को जो मेरे नाना साहब ने दिया था, सभापति के सामने एक छोटी-सी चौकी के ऊपर रक्खे देखा। पिता को बड़ा ही आश्चर्य हुआ और अपनी स्त्री को भी अपनी तरह मजबूर देखकर मारे क्रोध के काँपने लगे मगर कर ही क्या सकते थे, साथ ही इसके उन्हें इस बात का भी निश्चय हो गया कि वह कलमदान भी कुछ इसी सभा से सम्बन्ध रखता है। सभापति ने मेरे पिता की तरफ देख के कहा, "क्यों जी इन्द्रदेव, तुम तो अपने को बहुत होशियार और और चालाक समझते हो ! हमने राजा गोपालसिंह की जुबानी क्या कहला भेजा था? क्या तुम्हें नहीं कहा गया था कि तुम हम लोगों का पीछा न करो? फिर तुमने ऐसा क्यों किया? क्या हम लोगों से कोई बात छिपी रह सकती है ! खैर, अब बताओ तुम्हारी क्या सजा की जाय ? देखो तुम्हारी स्त्री और यह कलमदान भी इस समय हम लोगों के आधीन है, बेईमान दामोदरसिंह ने तो इस कलमदान को गढ़े में डालकर हम लोगों को फंसाना चाहा था मगर उसका अन्तिम वार खाली गया।" इसके जवाब में मेरे पिता ने गम्भीर भाव से कहा, "निःसन्देह मैं आप लोगों का पता लगा रहा था मगर बदनीयती के साथ नहीं, बल्कि इस नीयत से कि मैं भी आप लोगों की इस सभा में शरीक हो जाऊँ।"

सभापति ने हँसकर कहा, "बहुत खासे ! अगर ऐसा ही हम लोग धोखे में आने वाले होते तो हम लोगों की सभा अव तक रसातल को पहुंच गई होती। क्या हम लोग नहीं जानते कि तुम हमारी सभा के जानी दुश्मन हो? बेईमान दामोदरसिंह ने तो हम लोगों को चौपट करने में कुछ वाकी नहीं रक्खा था मगर बड़ी खुशी की बात है कि यह कलमदान हम लोगों को मिल गया और हमारी सभा का भेद छिपा रह गया !"

सभापति की इस बात से मेरे पिता को मालूम हो गया कि उस कलमदान में निःसन्देह इसी सभा का भेद बन्द है अस्तु उन्होंने मुस्कुराहट के साथ सभापति की बातों का यों जवाब दिया, "मुझे दुश्मन समझना आप लोगों की भूल है। अगर मैं सभा का दुश्मन होता तो अब तक आप लोगों को जहन्नुम में पहुंचा दिये होता। मैं इस कलमदान को खोल कर इस सभा के भेदों से अच्छी तरह जानकार हो चुका हूँ और इन भेदों को एक दूसरे कागज पर लिखकर अपने एक मित्र को भी दे चुका हूँ। मैं...

पिता ने केवल इतना ही कहा था कि सभापति ने, जिसकी आवाज से जाना जाता था कि वह घबरा गया है पूछा, "क्या तुम इस कलमदान को खोल चुके हो?"

पिता--हाँ।

सभापति--और इस सभा का भेद लिखकर तुमने किसके सुपुर्द किया है?

पिता--सो नहीं बता सकता क्योंकि उसका नाम बताना उसे तुम लोगों के कब्जे में दे देना है। [ १३४ ]सभापति--आखिर हम लोगों को कैसे विश्वास हो कि जो कुछ तुमने कहा वह सब सच है?

पिता--अगर मेरे कहने का विश्वास हो तो मुझे अपनी सभा का सभासद बना लो, फिर जो कुछ कहोगे खुशी से करूंगा। अगर विश्वास न हो तो मुझे मार कर बखेड़ा ते करो, फिर देखो कि मेरे पीछे तुम लोगों की क्या दुर्दशा होती है।

इन्दिरा ने दोनों कुमारों से कहा, "मेरे पिता से और उस सभा के सभापति से बड़ी देर तक बातें होती रहीं और पिता ने उसे अपनी बातों में ऐसा लपेटा कि उसर्क अक्ल चकरा गई तथा उसे विश्वास हो गया कि इन्द्रदेव ने जो कुछ कहा वह सच है आखिर सभापति ने उठकर अपने हाथों से मेरे पिता की मुश्के खोलीं, मेरी माँ को भी छुट्टी दिलाई, और मेरे पिता को अपने पास बैठा कर कुछ कहना ही चाहता था कि मकान के बाहर दरवाजे पर किसी के चिल्लाने की आवाज आई, मगर वह आवाज एक बार से ज्यादा सुनाई न दी और जब तक सभापति किसी को बाहर जाकर दरियाफ्त करने की आज्ञा दे तब तक हाथों में नंगी तलवारें लिए हुए पाँच आदमी धड़धड़ाते हुए उस सभा के बीच आ पहुँचे। उन पाँचों की सूरतें बड़ी ही भयानक थीं और उनकी पोशाकें ऐसी थीं कि उन पर तलवार कोई काम नहीं कर सकती थी, अर्थात् फौलादी कवच पहन कर उन लोगों ने अपने को बहुत मजबूत बनाया हुआ था। चेहरे सभी के सिन्दूर से रँगे हुए थे और कपड़ों पर खून के छीटे भी पड़े हुए थे जिससे मालूम होता था कि दरवाजे पर पहरा देने वालों को मारकर वे लोग यहाँ तक आये हैं। उन पाँचों में एक आदमी जो सब के आगे था बड़ा ही फुर्तीला और हिम्मतवर मालूम होता था। उस ने तेजी के साथ आगे बढ़कर उस कलमदान को उठा लिया जो मेरे नाना साहब ने मेरी माँ को दिया था। इतने ही में उस सभा के जितने सभासद थे, सब तलवारें खींचकर उठ खड़े हुए और घमासान लड़ाई होने लगी। उस समय मौका देखकर मेरे पिता ने मेरी मां को उठा लिया और हर तरह से बचाते हुए मकान से बाहर निकल गये। उधर उन पांचों भयानक आदमियों ने उस सभा की अच्छी तरह मिट्टी पलीद की और चार सभासदों की जान और कलमदान लेकर राजी-खुशी के साथ चले गये। उस समय यदि मर पिता चाहते तो उन पांचों बहादुरों से मुलाकात कर सकते थे, क्योंकि वे लोग उनके देखते-देखते पास ही से भाग कर गये थे मगर मेरे पिता ने जानबूझ कर अपने को इसलिए छिपा लिया था कि कहीं वे लोग हमें भी तकलीफ न दें। जब वे लोग देखते-देखते दूर निकल गये तब वे मेरी मां का हाथ थामे हुए तेजी के साथ चल पडे। उस समय उन्हें मालूम हुआ कि हम जमानिया की सरहद के बाहर नहीं हैं।

इन्द्रजीतसिंह--(ताज्जुब से)क्या कहा? जमानिया की सरहद के बाहर नहीं हैं!

इन्दिरा--जी हाँ, वे लोग जमानिया शहर के बाहर थोड़ी ही दूर पर एक बहुत बड़े और पुराने मकान के अन्दर यह कमेटी किया करते थे और जिसे गिरफ्तार करते थे उसे धोखा देने की नीयत से व्यर्थ ही दस-बीस कोस का चक्कर हिलाते थे, जिसमें मालूम हो कि यह कोटी किसी दूसरे ही शहर में है।

गोपालसिंह--और हमारे दरबार ही के बहुत से आदमी उस कमेटी में शरीक [ १३५ ]थे इसी सबब से उसका पता न लगता था, क्योंकि जो तहकीकात करने वाले थे वे ही कमेटी करने वाले थे।

इन्द्रजीतसिंह--(इन्दिरा से) अच्छा तब?

इन्दिरा--मेरे पिता दो घण्टे के अन्दर ही राजहमल में जा पहुँचे। राजा साहब ने पहरे वालों को आज्ञा दे रक्खी थी कि इन्द्रदेव जिस समय चाहें हमारे पास चले आवें, कोई रोक-टोक न करने पाये, अतएव मेरे पिता सीधे राजा साहब के पास जा पहुँचे जो गहरी नींद में बेखबर सोये हुए थे और चार आदमी उनके पलंग के चारों तरफ घूमघूम कर पहर। दे रहे थे। पिता ने राजा साहब को उठाया और पहरे वालों को अलग कर देने के बाद अपना पूरा हाल कह सुनाया। यह जानकर राजा साहब को बड़ा ही ताज्जुब हुआ कि कमेटी इसी शहर में है। उन्होंने मेरे पिता से या मेरी माँ से खुलासा हाल पूछने में विलम्ब करना उचित न जाना और मां को हिफाजत के साथ महल के अन्दर भेजने के बाद कपड़े पहनकर तैयार हो गये, खूटी से लटकती हुई तिलिस्मी तलवार ली और मेरे पिता तथा और कई सिपाहियों को साथ ले मकान के बाहर निकले तथा " घड़ी के अन्दर ही उस मकान में जा पहँचे जिसमें कमेटी हुआ करती थी। वह किसी जमाने का बहुत पुराना मकान था जो आधे से ज्यादा गिर कर बर्बाद हो चुका था फिर भी उसके कई कमरे और दालान दुरुस्त और काम देने लायक थे। उस मकान के चारों तरफ टूटे-फूटे और भी कई मकान थे जिनमें कभी किसी भले आदमी का जाना नहीं होता था। जिस कमरे में कमेटी होती थी जब गये तो उसी तरह पर सजा हुआ पाया जैसा राजा साहब और मेरे पिता देख चुके थे। कन्दीलों में रोशनी हो रही थी, फर्क इतना ही था कि फर्श पर तीन लाशें पड़ी हुई थीं, फर्श खून से तरबतर हो रहा था और दीवारों पर खून के छींटे पड़े हुए थे। जब लाशों के चेहरों पर से नकाब हटाया गया तो राजा साहब को बड़ा ही ताज्जुब हुआ।

इन्द्रजीत-–वे लोग भी जान-पहचान के ही होंगे जो मारे गये थे?

गोपालसिंह--जी हाँ, एक तो मेरा वही खिदमतगार था जिसने मुझे धोखा दिया था, दूसरा दामोदरसिंह का नौकर रामप्यारे था जिसने मुझे गंगा-किनारे ले जाकर फंसाया था, परन्तु तीसरी लाश को देखकर मेरे आश्चर्य, रंज और क्रोध का अन्त न रहा क्योंकि वह मेरे खजांची साहब थे, जिन्हें मैं बहुत ही नेक, ईमानदार, सुफी और बुद्धिमान समझता था। आप लोगों को इन्दिरा का कुल हाल सुन जाने पर मालूम होगा कि कम्बख्त दारोगा ही इस सभा का मुखिया था मगर अफसोस, उस समय मुझे इस बात का गुमान तक न हुआ। जब मैं वहाँ की कुल चीजों को लूट कर और उन लाशों को उठवा कर घर आया तो सवेरा हो चुका था और शहर में इस बात की खबर अच्छी तरह फैल चुकी थी क्योंकि मुझे बहुत से आदमियों को लेकर जाते हुए सैकड़ों आदमियों ने देखा था और जब मैं लौट कर आया तो दरवाजे पर कम से कम पांच सौ आदमी


1.चन्द्रकान्ता सन्तति, आठवें भाग के छठे बयान में इसी पुरानी आबादी और टूटे-फूटे मकानों का हाल लिखा गया है।