चन्द्रकांता सन्तति 4/14.3

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चंद्रकांता संतति भाग 4  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

[ ७६ ]हमने ऊपर लिखा है कि शेरअलीखाँ को बड़ी खातिरदारी और इज्जत के साथ रोहतासगढ़ में रखा गया क्योंकि उसने अपने कसूरों की माफी मांगी थी और तेजसिंह ने उसे माफी दे भी दी थी । अब हम उस रात का हाल लिखते हैं जिस रात राजा वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह और इन्द्रदेव वगैरह तहखाने के अन्दर गये थे और यकायक आ पड़ने वाली मुसीबत में गिरफ्तार हो गये थे। उन लोगों का किसी काम के लिए तहखाने के अन्दर जाना शेरअलीखाँ को मालूम था मगर उसे इन बातों से कोई मतलब न था, उसे तो सिर्फ इसकी फिक्र थी कि भूतनाथ का मुकदमा खतम हो ले तो वह अपनी राजधानी पटने की तरफ पधारे और इसीलिए वह राजा वीरेन्द्रसिंह की तरफ से रोका भी गया था ।

जिस कमरे में शेरअलीखाँ का डेरा था वह बहुत लम्बा-चौड़ा और कीमती असबाब से सजा हुआ था। उसके दोनों तरफ दो कोठरियाँ थीं और बाहर दालान तथा दालान के बाद एक चौखूटा सहन था। उन दोनों कोठरियों में से जो कमरे के दोनों तरफ थों एक में तो सोने के लिए बेशकीमती मसहरी बिछी हुई थी और दूसरी कोठरी में पहनने के कपड़े तथा सजावट का सामान रहता था। इस कोठरी में एक दरवाजा और भी था जो उस मकान के पिछले हिस्से में जाने का काम देता था, मगर इस समय वह बन्द था और उसकी ताली दारोगा के पास थी। जिस कोठरी में सोने की मसहरी थी उसमें सिर्फ एक ही दरवाजा था और दरवाजे वाली दीवार को छोड़ के उसकी बाकी तीनों तरफ की दीवारें आबनूस की लकड़ी की बनी हुई थीं जिन पर बहुत चमकदार पालिश किया हुआ था । वही अवस्था उस कमरे की भी थी जिसमें शेरअलीखाँ रहता था।

रात डेढ़ पहर से कुछ ज्यादा जा चुकी थी। शेरअली खाँ अपने कमरे में मोटी गद्दी पर लेटा हुआ कोई किताब पढ़ रहा था और सिरहाने की तरफ संगमरमर की छोटी-सी चौकी के ऊपर एक शमादान जल रहा था, इसके अतिरिक्त कमरे में और कोई रोशनी न थी। यकायक सोने वाली कोठरी के अन्दर से एक ऐसी आवाज आई जैसे किसी ने मसहरी के साथ ठोकर खाई हो। शेरअलीखाँ चौंक पड़ा और कुछ देर तक उसी कोठरी की तरफ जिसके आगे पर्दा गिरा हुआ था देखता रहा । जब पर्दे को भी हिलते देखा तो किताब जमीन पर रखकर बैठ गया और उसी समय कल्याणसिंह को पर्दा हटा- कर बाहर निकलते देखा। शेरअलीखाँ घबराकर उठ खड़ा हुआ और बड़े गौर से उसे देखकर बोला, "हैं, क्या तुम कुंअर कल्याणसिंह हो?"

कल्याणसिंह--(सलाम करके) जी हां।

शेरअलीखाँ--तुम इस कमरे में कब आये और कब इस कोठरी में गये मुझे कुछ भी नहीं मालूम !

कल्याणसिंह--मैं बाहर से इस कमरे में नहीं आया बल्कि इसी कोठरी में से आ रहा हूँ।

शेरअलीखाँ--सो कैसे ? इस कोठरी में तो कोई दूसरा रास्ता नहीं है! [ ७७ ] क्योंकि चुनारगढ कल्याणसिंह--जी हाँ, एक रास्ता है जिसे शायद आप नहीं जानते, मगर पहले मैं दरवाजा बन्द कर लूं।

इतना कहकर कल्याणसिंह दरवाजे की तरफ बढ़ गया और इस कमरे के तीनों दरवाजे बन्द करके शेरअलीखां के पास लौट आया।

शेरअलीखाँ–-दरवाजे क्यों बन्द कर दिए ? यह क्या करते हो?

कल्याणसिंह--जी हाँ, यदि कोई देख लेगा तो मुश्किल होगी।

शेरअलीखाँ-तो इससे मालूम होता है कि तुम राजा वीरेन्द्र सिंह की मर्जी से नहीं छूटे, बल्कि किसी की मदद और चोरी से निकल भागे हो, में तुम्हारे कैद होने का हाल मैं अच्छी तरह जानता हूँ।

कल्याणसिंह--जी हाँ, ऐसी ही बात है।

शेरअलीखाँ--(बैठकर) अच्छा आओ, मेरे पास बैठ जाओ और कहो कि तुम कैसे छूटे और यहाँ क्योंकर आ पहुँचे?

कल्याणसिंह--(बैठकर) खुलासा हाल कहने का तो इस समय मौका नहीं है। परन्तु इतना कहना जरूरी है कि अपनी मदद के लिए मुझे राजा शिवदत्त ने छुड़ाया है और अब मैं सहायता लेने के लिए आपके पास आया हूँ। यदि आप मदद देंगे तो मैं आज ही राजा वीरेन्द्रसिंह से अपने बाप का बदला ले लूंगा।

शेरअलीखाँ--(हँस कर) यह तुम्हारी नादानी है। तुम अभी लड़के हो, ऐसे मामलों पर गौर नहीं कर सकते । राजा वीरेन्द्रसिंह के साथ दुश्मनी करना अपने पैर में आप कुल्हाड़ी मारना है, उनसे लड़कर कोई जीत नहीं सकता और न उनके ऐयारों के सामने किसी की चालाकी ही चल सकती है।

कल्याणसिंह--आपका यह कहना ठीक है, मगर इस समय हम लोगों ने राजा वीरेन्द्रसिंह और उनके ऐयारों को हर तरह से मजबूर कर रखा है।

शेरअलीखाँ--सो कैसे ?

कल्याणसिंह-क्या आप नहीं जानते कि वीरेन्द्रसिंह और उनके ऐयार किशोरी, कामिनी इत्यादि को लेकर तहखाने के अन्दर गये हैं?

शेरअलीखाँ--हाँ, सो तो जानते हैं, मगर इससे क्या?

कल्याणसिंह--जिस समय वीरेन्द्रसिंह वगैरह तहखाने में गये हैं, उसके पहले ही हम लोग अपनी छोटी सेना सहित तहखाने में पहुंच चुके थे और गुप्त राह से यकायक इस किले में पहुंचकर अपना दखल जमाना चाहते थे, मगर ईश्वर ने उन लोगों को तहखाने ही में पहुँचा दिया जिससे हम लोगों को बड़ा सुभीता हुआ। शिवदत्तसिंह ने तो सेना सहित दुश्मनों को घेर लिया है और मैं एक सुरंग की राह से जिसका दूसरा मुहाना (सोने वाली कोठरी की तरफ इशारा करके) इस कोठरी में निकला है, आपके पास मदद के लिए आया हूँ, आशा है कि उधर शिवदत्तसिंह ने दुश्मनों को काबू में कर लिया होगा या मार डाला होगा और इधर मैं आपकी मदद से किले में अपना अधिकार जमा लूंगा।

शेरअलीखाँ--(कुछ सोचकर) मैं खूब जानता हूँ कि इस तहखाने का और यहाँ के कई पेचीले रास्तों का हाल तुमसे ज्यादा जानने वाला अब और कोई नहीं है । [ ७८ ]इसलिए तुम लोगों का तहखाने में राजा वीरेन्द्रसिंह वगैरह को मार डालना तो यद्यपि मुश्किल है। हाँ, घेर लिया हो तो ताज्जुब की बात नहीं है, मगर साथ ही इसके इस बात का भी खयाल करना चाहिए कि यद्यपि राजा वीरेन्द्रसिंह वगैरह इस तहखाने का हाल बखूबी नहीं जानते, परन्तु आज इन्द्रदेव उनके साथ है जिसे हम-तुम अच्छी तरह जानते हैं। क्या तुम्हें उस दिन की बात याद नहीं है जिस दिन तुम्हारे पिता ने हमारे सामने तुमसे कहा था कि यहां के तहखाने का हाल हमसे ज्यादा जानने वाला इस दुनिया में यदि कोई है तो केवल इन्द्रदेव !

कल्याणसिंह--(ताज्जुब से) हाँ, मुझे याद है। मगर क्या इन्द्रदेव राजा वीरेन्द्र- सिंह के साथ तहखाने में गये हैं और क्या वीरेन्द्रसिंह ने उन्हें अपना दोस्त बना लिया ?

शेरअलीखाँ--हाँ, अतः यह आशा नहीं हो सकती कि वीरेन्द्रसिंह वगैरह तुम लोगों के काबू में आ जायेंगे, दूसरी बात यह है कि तुम अकेले या दो-एक मददगारों को लेकर इस किले में कर ही क्या सकते हो?

कल्याणसिंह--मैं आपके पास अकेला नहीं आया हूँ वल्कि सौ सिपाही भी साथ लाया हूँ जिन्हें आप आज्ञा देने के साथ ही इसी कोठरी में से निकलते देख सकते हैं । क्या ऐसी हालत में जब कि मालिकों या अफसरों में से यहाँ कोई भी न हो और यहाँ रहने वाली केवल पाँच-सात सौ की फौज बेफिक्र पड़ी हो, हम और आप सौ बहादुरों को साथ लेकर कुछ नहीं कर सकते ? इन्द्रदेव का इस समय वीरेन्द्रसिंह वगैरह के साथ तहखाने में होना बेशक हमारे काम में विघ्न डाल सकता है, मगर मुझे इसकी भी विशेष चिन्ता नहीं है, क्योंकि यदि दुश्मन लोग काबू में न आवेंगे तो हर तरफ से रास्ता बन्द हो जाने के कारण तहखाने के बाहर भी न निकल सकेंगे और भूखे-प्यासे उसी में रहकर मर जायेंगे, और इधर जब आप किले में अपना दखल जमा लेंगे

शेरअलीखाँ--(बात काटकर) ये सब बातें फिजूल की हैं, मैं जानता हूँ कि तुम अपने को बहादुर और होनहार समझते हो, मगर राजा वीरेन्द्रसिंह के प्रबल प्रताप के चमकते हुए सितारे की रोशनी को अपने हाथ की ओट लगाकर नहीं रोक सकते और न उनकी सचाई, सफाई और नेकियों को भूलकर इस किले का रहनेवाला कोई तुम्हारा साथ ही दे सकता है । बुद्धिमानों को तो जाने दो, यहाँ का एक बच्चा भी राजा वीरेन्द्रसिंह का निकल जाना पसन्द न करेगा। अहा, क्या ऐसा जबान का सच्चा, रहमदिल और नेक राजा कोई दूसरा होगा? यह राजा वीरेन्द्रसिंह ही का काम था कि उसने मेरे कसूरों को माफ ही नहीं किया बल्कि इज्जत और आबरू के साथ मुझे अपना मेहमान बनाया। मेरी रग-रग में उनके अहसान का खून भरा है, मेरा बाल-बाल उन्हें दुआ देता है, मेरे दिल में उनकी हिम्मत, मर्दानगी, इन्साफ और रहमदिली का दरिया जोश मार रहा है । ऐसे बहादुर शेरदिल राजा के साथ शेरअली कभी दगाबाजी या बेईमानी नहीं कर सकता, बल्कि ऐसे की ताबेदारी अपनी इज्जत, हुर्मत और नामवरी का वायस समझता है । तुम मेरे दोस्त के लड़के हो, मगर मैं यह जरूर कहूँगा कि तुम्हारे बाप ने वीरेन्द्रसिंह के साथ दगाबाजी की ! खैर, जो कुछ हुआ सो हुआ, अब तुम तो ऐसा न करो । मैं तुम्हें पुरानी मोहब्बत और दोस्ती का वास्ता दिलाता हूँ कि तुम ऐसा मत करो। राजा वीरेन्द्रसिंह [ ७९ ]दुश्मनी करने योग्य राजा नहीं बल्कि दर्शन करने योग्य हैं ! मैं वादा करता हूँ कि तुम्हारा भी कसूर माफ करा दूंगा और अगर तुमको रोहतासगढ़ की लालच है तो इसे भी तुम राजा वीरेन्द्रसिंह को दावेदारी करके ले सकते हो। वह बड़ा उदार दाता है, यह राज्य दे देना उसके सामने कोई बात नहीं है ।

कल्याणसिंह--अफसोस ! मुझे इन शब्दों के सुनने की कदापि आशा न थी जो इस समय आपके मुंह से निकल रहे हैं। मुझे इस बात का ध्यान भी न था कि आज आपको हिम्मत और मर्दानगी से इस तरह खाली देखूगा। मैं किसी के कहने पर भी विश्वास नहीं कर सकता था कि आपकी रगों में बुजदिली का खून पाऊँगा। मुझे स्वप्न में भी विश्वास नहीं हो सकता कि आपको उसी राजा वीरे द्रसिंह की खुशामद करते पाऊँगा जिसके लड़के ने आपकी लड़की को हर तरह से बेइज्जत किया।

शेरअलीखा--ओफ, तुम्हारी जली-कटी बातें मेरे दिल को हिलाकर मुझे बेई- मान, दगाबाज या विश्वासघाती की पदवी नहीं दिला सकतीं। उस गौहर की याद मेरे दिल की सच्ची तथा इन्साफपसन्द आँखों को फोड़कर नेकों की दुनिया में मुझको अंधा नहीं बना सकती जो बुजुर्गों की इज्जत को मिट्टी में मिला मेरी बदनामी का झण्डा बन- कर जहरीली हवा में उड़ती हुई आसमान की तरफ बढ़ती ही जाती थी, और जिसका गिरफ्तार होकर सजा पाना बल्कि इस दुनिया से उठ जाना मुझे पसन्द है। किसी नाला- यक के लिए लायक के साथ बुराई करना, किसी अधर्मी के लिए धर्मी का खून करना, किसी बेईमान के लिए ईमान का सत्यानाश करना, और किसी अविश्वासी के लिए विश्वासघात करना शेरअलीखां का काम नहीं। मैं समझता था कि तुम्हारे दिल का प्याला सच्ची बहादुरी की शराब से भरा हुआ होगा और तुम दुनिया में नामवरी पैदा कर सकोगे, इसलिए मैं तुम्हारी सिफारिश करने वाला था, मगर अब निश्चय हो गया कि तुम्हारी किस्मत का जहाज शिवदत्त के तूफान में पड़कर एक भारी पहाड़ से टक्कर खाना चाहता है । अब तुम यहाँ से चले जाओ और मुझसे किसी तरह की उम्मीद मत रखो, अगर मैं तुम्हारे बाप का दोस्त न होता और तुम मेरे दोस्त के लड़के न होते'

कल्याणसिंह–-अफसोस, मैं आपकी इस समय यह लम्बी-चौड़ी वक्तृता नहीं सुन सकता क्योंकि समय कम है और काम बहुत करना है, बस आप इतना ही बताइये कि मैं आपसे किसी तरह की आशा रखू या नहीं ?

शेरअलीखां--नहीं, बल्कि इस बात की भी आशा मत रखो कि तुम्हें राजा वीरेन्द्रसिंह के साथ दुश्मनी करते देखकर मैं चुपचाप बैठा रहूँगा।

कल्याणसिंह--(क्रोध में आकर) क्या आप मेरी मदद अगर न करेंगे तो चुप- चाप भी न बैठे रहेंगे?

शेरअलीखाँ--हरगिज नहीं !

कल्याणसिंह--तो आप मेरे साथ दुश्मनी करेंगे?

शेरअलीखाँ--अगर ऐसा करें तो हर्ज ही क्या है ? जिसकी लोग इज्जत करते हों या जिसे दुनिया मोहब्बत की निगाह से देखती है, उसके साथ दुश्मनी करना बेशक बुरा है। मगर ऐसे के साथ बेमुरौबती करने में कुछ भी हर्ज नहीं है जिसके हृदय की [ ८० ]आँख फूट गई हो, जिसे दुनिया में किसी तरह की इज्जत हासिल करने का शौक न हो,

और जिसे लोग हमदर्दी की निगाह से न देखते हों । कल्याणसिंह-(दाँत पीसकर)तो फिर सबसे पहले आप ही का बन्दोबस्त करना पड़ेगा !

इसके पहले कि कल्याणसिंह की बात का शेरअलीखाँ कुछ जवाब दे, बाहर से एक आवाज आई-"हाँ, यदि तेरे किए कुछ हो सके !"

इस आवाज ने दोनों को चौंका दिया, मगर कल्याणसिंह ने ज्यादा देर तक राह देखना मुनासिब न जाना और उस कोठरी की तरफ बढ़कर जोर से ताली बजाई। शेर- अलीखाँ समझ गया कि कल्याणसिंह अपने साथियों को बुला रहा है, क्योंकि वह थोड़ी ही देर पहले कह चुका था कि मेरे साथ सौ सिपाही भी आए हैं जो हुक्म देने के साथ ही इस कोठरी में से मेरी ही तरह निकल सकते हैं।

कल्याण सिंह ताली बजाता हुआ कोठरी की तरफ बढ़ा और उसका मतलब समझ कर शेरअलीखाँ ने शीघ्रता से कमरे का दरवाजा अपने मददगारों को बुलाने की नीयत से खोल दिया तथा उसी समय एक नकाबपोश को हाथ में खंजर लिए कमरे के अन्दर पैर रखते देखा । शेरअलीखाँ ने पूछा, "तुम कौन हो?" नकाबपोश ने जवाब दिया, "तुम्हारा मददगार !"

इससे ज्यादा बातचीत करने का मौका न मिला, क्योंकि कोठरी के अन्दर से कई आदमी हाथों में नंगी तलवारें लिए हुए निकलते दिखाई दिए जिन्हें कल्याणसिंह ने अपनी मदद के लिए बुलाया था।