चन्द्रकांता सन्तति 4/13.13

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चंद्रकांता संतति भाग 4  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

[ ६१ ]

13

दोपहर दिन का समय है। गर्म-गर्म हवा के झपेटों से उड़ी हुई जमीन की मिट्टी केवल आसमान ही को गेंदला नहीं कर रही है बल्कि पथिकों के शरीरों को भी अपना- सा करती और आँखों को इतना खुलने नहीं देती है जिसमें रास्ते को अच्छी तरह देखकर [ ६२ ]तेजी के साथ चलें और किसी घने पेड़ के नीचे पहुंच कर अपने थके-मांदे शरीर को आराम दें। ऐसे ही समय में भूतनाथ, सरयूसिंह और सरयूसिंह का एक चेला आँखों को मिट्टी और गर्द से बचाने के लिए अपने-अपने चेहरों पर बारीक कपड़ा डाले रोहतासगढ़ की तरफ तेजी के साथ कदम बढ़ाये चले जा रहे हैं। हवा के झपेटे आगे बढ़ने में रोक- टोक करते हैं, मगर ये तीनों अपनी धुन के पक्के इस तरह चले जा रहे हैं कि बात तक नहीं करते, हाँ, उस सामने के घने जंगल की तरफ इनका ध्यान अवश्य है जहाँ आधी घड़ी के अन्दर ही पहुंचकर सफर की हरारत मिटा सकते हैं। उन तीनों ने अपनी चाल और भी तेज की और थोड़ी ही देर बाद उसी जंगल में एक घने पेड़ के नीचे बैठकर थकावट मिटाते दिखाई देने लगे।

सरयू--(रूमाल से मुंह पोंछकर) यद्यपि आज का सफर दुख:दायी हुआ परन्तु हम लोग ठीक समय पर ठिकाने पहुँच गये।

भूतनाथ--अगर दुश्मनों का डेरा अभी तक इसी जंगल में हो तो मैं भी ऐसा ही कहूँगा।

सरयू--बेशक वे लोग अभी तक इसी जंगल में होंगे क्योंकि मेरे शागिर्द ने उनके दो दिन तक यहाँ ठहरने की खबर दी थी और वह जासूसी का काम बहुत अच्छे ढंग से करता है।

भूतनाथ--तब हम लोगों को कोई ऐसा ठिकाना ढूंढ़ना चाहिए, जहाँ पानी हो और अपना भेष अच्छी तरह बदल सकें।

सरयू--जरा-सा और आराम कर लें, तब उठे।

भूतनाथ--क्या हर्ज है।

थोड़ी देर तक ये तीनों उसी पेड़ के नीचे बैठे बातचीत करते रहे और इसके बाद उठकर ऐसे ठिकाने पहुँचे, जहाँ साफ जल का सुन्दर चश्मा बह रहा था। उसी चश्मे के जल से बदन साफ करने के बाद तीनों ऐयारों ने आपस में कुछ सलाह करके अपनी सुरतें बदली और वहाँ से उठकर दुश्मनों की टोह में इधर-उधर घूमने लगे तथा संध्या होने के पहले ही उन लोगों का पता लगा लिया जो दौ-सौ आदमियों के साथ उसी जंगल में टिके हुए थे। जब रात हुई और अंधकार ने अपना दखल चारों तरफ अच्छी तरह जमा लिया, तो ये तीनों उस लश्कर की तरफ रवाना हुए।

शिवदत्त और कल्याणसिंह तथा उनके साथियों ने जंगल के मध्य में डेरा जमाया हुआ था। खेमा या कनात का नाम-निशान न था, बड़े-बड़े और घने पेड़ों के नीचे शिवदत्त और कल्याणसिंह मामूली बिछावन पर बैठे हुए बातें कर रहे थे और उनसे थोड़ी ही दूर पर उनके संगी-साथी और सिपाही लोग अपने-अपने काम तथा रसोई बनाने की फिक्र में लगे हुए थे। जिस पेड़ के नीचे शिवदत्त और कल्याणसिंह थे, उससे तीस या चालीस गज की दूरी पर दो पालकियाँ पेड़ों की झुरमुट के अन्दर रखी हुई थी और उनमें माधवी तथा मनोरमा विराज रही थीं और इन्हीं के पीछे की तरफ बहुत से घोड़े पेड़ों के साथ बँधे हुए घास चर रहे थे।

शिवदत्त और कल्याणसिंह एकान्त में बैठे बातचीत कर रहे थे। उनसे थोड़ी ही [ ६३ ]दूर पर एक जवान, जिसका नाम धन्नू सिंह था, हाथ में नंगी तलवार लिए हुए पहरा दे रहा था और यही जवान उन दो-सौ सिपाहियों का अफसर था जो इस समय जंगल में मौजूद थे। रात हो जाने के कारण कहीं-कहीं रोशनी हो रही थी और एक लालटेन उस जगह जल रही थी, जहाँ शिवदत्त और कल्याणसिंह बैठे हुए आपस में वातें कर रहे थे।

शिवदत्त--हमारी फौज ठिकाने पहुंच गई होगी।

कल्याणसिंह--बेशक।

शिवदत्त--क्या इतने आदमियों का रोहतासगढ़ तहखाने के अन्दर समा जाना सम्भव है ?

कल्याणसिंह--(हँस कर) इसके दूने आदमी भी अगर हों तो उस तहखाने में अँट सकते हैं।

शिवदत्त--अच्छा तो उस तहखाने में घुसने के बाद क्या-क्या करना होगा ?

कल्याणसिंह--उस तहखाने के अन्दर चार कैदखाने हैं, पहले उन कैदखानों को देखेंगे, अगर उनमें कोई कैदी होगा तो उसे छुड़ा कर अपना साथी बनावेंगे। मायारानी और उसका दारोगा भी उन्हीं कैदखानों में से किसी में जरूर होंगे और छूट जाने पर उन दोनों से बड़ी मदद मिलेगी।

शिवदत्त--बेशक बड़ी मदद मिलेगी, अच्छा तब ?

कल्याणसिंह--अगर उस समय वीरेन्द्रसिंह वगैरह तहखाने की सैर करते हुए मिल जायेंगे, तो मैं उन लोगों के बाहर निकलने का रास्ता बन्द करके फंसाने की फिक्र करूँगा तथा आप फौजी सिपाहियों को लेकर किले के अन्दर चले जाइयेगा, और मर्दा- नगी के साथ किले में अपना दखल कर लीजियेगा।

शिवदत्त--ठीक है मगर यह कब संभव है कि उस समय वीरेन्द्रसिंह वगैरह तह- खाने की सैर करते हुए हम लोगों को मिल जायें ?

कल्याणसिंह--अगर न मिलेंगे तो न सही, उस अस्वथा में हम लोग एक साथ किले के अन्दर आना दखल नमागे और वीरेन्द्रसिंह तथा उनके ऐयारों को गिरफ्तार कर लेंगे। यह तो आप सुन ही चुके हैं कि इस समय रोहतासगढ़ किले में फौजी सिपाही पाँच सौ से ज्यादा नहीं हैं, सो भी बेफिक्र बैठे होंगे और हम लोग यकायक हर तरह से तैयार जा पहुँचेगे। मगर मेरा दिल यही गवाही देता है कि वीरेन्द्रसिंह वगैरह को हम लोग तह- खाने में सैर करते हुए अवश्य देखेंगे क्योंकि वीरेन्द्रसिंह ने, जहाँ तक सुना गया है, अभी तक तहखाने की सैर नहीं की, अबकी दफे जो वह वहाँ गए हैं, तो जरूर तहखाने की सैर करेंगे और तहखाने की सैर दो-एक दिन में नहीं हो सकती, आठ-दस दिन अवश्य लगेंगे, और सैर करने का समय भी रात ही को ठीक होगा, इसी से कहते हैं कि अगर वे लोग तहखाने में मिल जायें, तो ताज्जुब नहीं।

शिवदत्त--अगर ऐसा हो तो क्या बात है। मगर सुनो तो, कदाचित् वीरेन्द्रसिंह तहखाने में मिल गए तो तुम तो उनके फंसाने की फिक्र में लगोगे और मुझे किले के अन्दर घुसकर दखल जमाना होगा। मगर मैं उस तहखाने के रास्ते को जानता ही नहीं। तुम कह चुके हो कि तहखाने में आने-जाने के लिए कई रास्ते हैं और वे पेचीले हैं अत: [ ६४ ]ऐसी अवस्था में मैं क्या कर सकूँगा ?

कल्याणसिंह--ठीक है मगर आपको तहखाने के कुछ रास्तों का हाल और वहाँ आने-जाने की तरकीब मैं सहज ही में समझा सकता हूँ।

शिवदत्त--सो कैसे?

कल्याणसिंह ने अपने पास पड़े हुए एक बटुए में से कलम-दवात और कागज निकाला और लालटेन को जो कुछ हट कर जल रही थी पास रखने के बाद कागज पर तहखाने का नक्शा खींचकर समझाना शुरू किया। उसने ऐसे ढंग से समझाया कि शिवदत्त को किसी तरह का शक न रहा और उसने कहा, "अब तो मैं बखूबी समझ गया।" उसी समय बगल से यह आवाज आई, "ठीक है, मैं भी समझ गया।"

वह पेड़ बहुत मोटा और जंगली लताओं के चढ़े होने से खूब घना हो रहा था। शिवदत्त और कल्याणसिंह की पीठ जिस पेड़ की तरफ थी, उसी की आड़ में कुछ देर से खड़ा एक आदमी उन दोनों की बातचीत सुन रहा और छिपकर उस नक्शे को भी देख रहा था। जब उसने कहा कि 'ठीक है, मैं भी समझ गया' तब ये दोनों चौके और घूमकर पीछे की तरफ देखने लगे, मगर एक आदमी के भागने की आहट के सिवाय और कुछ भी मालूम न हुआ।

कल्याणसिंह--लीजिये श्रीगणेश गया, निसःन्देह वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों को हमारा पता लग गया।

शिवदत्त--रात तो ऐसी ही मालूम होती है, लेकिन कोई चिन्ता नहीं, देखो हम बन्दोबस्त करते हैं।

कल्याणसिंह--अगर हम ऐसा जानते तो आपके ऐयारों को दूसरा काम सुपुर्द करके आगे बढ़ने की राय कदापि न देते।

शिवदत्त--धन्नूसिंह को बुलाना चाहिए।

इतना कहकर शिवदत्त ने ताली बजाई मगर कोई न आया और न किसी ने कुछ जवाब दिया। शिवदत्त को ताज्जुब मालूम हुआ और उसने कहा, "अभी तो हाथ में नंगी तलवार लिये यहाँ पहरा दे रहा था, फिर चला कहाँ गया ?" कल्याणसिंह जफील बजाई जिसकी आवाज सुनकर कई सिपाही दौड़ आये और हाथ जोड़ कर सामने खड़े हो गये। शिवदत्त ने एक सिपाही से पूछा, “धन्नू कहाँ गया है?"

सिपाही--मालूम नहीं हुजूर, अभी तो इसी जगह पर टहल रहे थे।

शिवदत्त--देखो कहाँ है, जल्द बुलाओ।

हुक्म पाकर वे सब चले गए और थोड़ी ही देर में वापस आकर बोले, "हुजूर, करीब में तो कहीं पता नहीं लगता।"

शिवदत्त--बड़े आश्चर्य की बात है। उसे दूर जाने की आज्ञा किसने दी ?

इतने ही में हांफत-काँपता धन्नूसिंह भी आ मौजूद हुआ जिसे देखते ही शिवदत्त ने पूछा, "तुम कहाँ चले गये थे !"

धन्नूसिंह--महाराज, कुछ न पूछिये, मैं तो बड़ी आफत में फंस गया था !

शिवदत्त--सो क्या ? और तुम बदहवास क्यों हो रहे हो ?

च० स०-4-4

[ ६५ ]धन्नूसिंह--मैं इसी जगह पर घूम-घूम कर पहरा दे रहा था कि एक लड़के ने

जिसे मैंने आज के सिवाय पहले कभी देखा न था आकर कहा, “एक औरत तुमसे कुछ कहना चाहती है.।" यह सुन कर मुझे ताज्जुब हुआ और मैंने उससे पूछा, "वह औरत कौन है, कहाँ है और मुझ से क्या कहना चाहती है ?" इसके जवाब में लड़का बोला, "सो सब मैं कुछ नहीं जानता, तुम खुद चलो और जो कुछ वह कहती है सुन लो, इसी जगह पास ही में तो है।" इतना सुन कर ताज्जुब करता हुआ मैं उस लड़के के साथ चला और थोड़ी ही दूर पर एक औरत को देखा। (काँप कर) क्या कहूँ, ऐसा दृश्य तो आज तक मैंने देखा ही न था।

शिवदत्त--अच्छा-अच्छा कहो, वह औरत कैसी और किस उम्र की थी ?

धन्नूसिंह--कृपानिधान, वह बड़ी भयानक औरत थी। काला रंग, बड़ी-बड़ी लाल आँखें, और हाथ में लोहे का एक डंडा लिये हुए थी जिसमें बड़े-बड़े काँटे लगे थे और उसके चारों तरफ बड़े-बड़े और भयानक शक्ल के कुत्ते मौजूद थे जो मुझे देखते ही गुर्राने लगे। उस औरत ने कुत्तों को डाँटा जिससे वे चुप हो रहे, मगर चारों तरफ से मुझे घेर कर खड़े हो गये। डर के मारे मेरी अजब हालत हो गई। उस औरत ने मुझसे कहा, "आपने हाथ की तलवार म्यान में कर ले नहीं तो ये कुत्ते तुझे फाड़ खायेंगे।" इतना सुनते ही मैंने तलवार म्यान में कर ली और इसके साथ ही वे कुत्ते मुझसे कुछ दूर हट कर खड़े हो गए। (लम्बी सांस लेकर)ओफ-ओह ! इतने भयानक और बड़े कुत्ते मैंने आज तक नहीं देखे थे !

शिवदत्त--(आश्चर्य और भय से) अच्छा-अच्छा, आगे चलो, तब क्या हुआ ?

धन्नूसिंह-मैंने डरते-डरते उस औरत से पूछा-"आपने मुझे क्यों बुलाया ?" उस औरत ने कहा, "मैं अपनी बहिन मनोरमा से मिलना चाहती हूँ उसे बहुत जल्द मेरे पास ले आ!"

शिवदत्त—(आश्चर्य से) अपनी बहिन मनोरमा से !

धन्नूसिंह--जी हाँ। मुझे यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि मुझे स्वप्न में भी इस बात का गुमान न हो सकता था कि मनोरमा की बहिन ऐसी भयानक राक्षसी होगी ! और महाराज, उसने आपको और कुंअर साहब को अपने पास बुलाने के लिए कहा।

कल्याणसिंह--(चौंक कर) मुझे और महाराज को?

धन्नूसिंह--जी हाँ।

शिवदत्त--अच्छा, तब क्या हुआ

धन्नूसिंह--मैंने कहा कि तुम्हारा सन्देशा मनोरमा को अवश्य दे दंगा, मगर महाराज और कुंअर साहब तुम्हारे कहने से यहाँ नहीं आ सकते।

कल्याणसिंह--तब उसने क्या कहा ?

धन्नूसिंह--बस, मेरा जवाब सुनते वह बिगड़ गई और डॉट कर बोली, "ओ कम्बख्त ! खबरदार ! जो मैं कहती हूँ वह तुझे और तेरे महाराज को करना ही होगा!" (कांप कर) महाराज, उसके डाँटने के साथ ही एक कुत्ता उछल कर मुझ पर [ ६६ ]चढ़ बैठा। अगर वह औरत अपने कुत्ते को न डाँटती और न रोकती तो बस मैं आज ही समाप्त हो चुका था ! (गर्दन और पीठ के कपड़े दिखाकर) देखिए मेरे तमाम कपड़े उस कुत्ते के बड़े-बड़े नाखूनों की बदौलत फट गए और बदन भी छिल गया, देखिये, यह मेरे ही खून से मेरे कपड़े तर हो गये हैं।

शिवदत्त--(भय और घबराहट से)ओफ-ओह धन्नूसिंह, तुम तो जख्मी हो गये! तुम्हारे पीठ पर के कपड़े सब लहू से तर हो रहे हैं!

धन्नूसिंह--जी हां महाराज, बस आज मैं काल के मुंह से निकलकर आया हूँ, मगर अभी तक मुझे इस बात का विश्वास नहीं होता कि मेरी जान बचेगी।

कल्याणसिंह--सो क्यों?

धन्नूसिंह--जवाब देने के लिए लौट कर मुझे फिर उसके पास जाना होगा।

कल्याणसिंह--सो क्यों ? अगर न जाओ तो क्या हो? क्या हमारी फौज में भी आकर वह उत्पात मचा सकती है?

इतने ही में दो-तीन भयानक कुत्तों के भौंकने की आवाज थोड़ी ही दूर पर से आई जिसे सुनते ही धन्नूसिंह थर-थर कांपने लगा। शिवदत्त तथा कल्याणसिंह भी डर कर उठ खड़े हुए और कांपते हुए उस तरफ देखने लगे। उसी समय बदहवास और घबराई हुई मनोरमा भी वहां आ पहुंची और बोली, "अभी मैंने भूतनाथ की सूरत देखी है, वह बेखौफ मेरी पालकी के पास आकर कह गया है कि आज तुम लोगों की जान लिये बिना मैं नहीं रह सकता ! अब क्या होगा? उसका बेखौफ यहां चले तक आना मामूली बात नहीं है !" [ ६७ ]धन्नूसिंह की बातों ने शिवदत्त और कल्याणसिंह को ऐसा बदहवास कर दिया कि उन्हें बात करना मुश्किल हो गया। शिवदत्त सोच रहा था कि कुछ देर की सच्ची मोहलत मिले तो मनोरमा से उसकी बहिन का हाल पूछे, मगर उसी समय घबराई हुई मनोरमा खुद ही वहाँ आ पहुंची और उसने जो कुछ कहा वह और भी परेशान करने वाली बात थी। आखिर शिवदत्त ने मनोरमा से पूछा, "क्या तुमने अपनी आँखों से भूतनाथ को देखा?"

मनोरमा हाँ,--मैंने स्वयं देखा और उसने वह बात मुझी से कही थी जो मैं आप से कह चुकी हूँ?

शिवदत्त--क्या वह तुम्हारी पालकी के पास आया था?

मनोरमा--हाँ, मैं माधवी से बातें कर रही थी कि वह निडर होकर हम लोगों के पास आ पहुँचा और धमका कर चला गया।

शिवदत्त–-तो तुमने आदमियों को ललकारा क्यों नहीं?

मनोरमा--आप भूतनाथ को नहीं जानते कि वह कैसा भयानक आदमी है ? क्या वे तीन-चार आदमी भूतनाथ को गिरफ्तार कर लेते जो मेरी पालकी के पास थे?

शिवदत्त--ठीक है, वह बड़ा ही भयानक ऐयार है, दो-चार क्या, दस-पाँच आदमी भी उसे गिरफ्तार नहीं कर सकते। मैं तो उसके नाम से कांप जाता हूँ। ओफ, वह समय मुझे कदापि नहीं भूल सकता जब उसने 'रूहा' बनकर मुझे अपने चंगुल में फंसा लिया था, अपने चेले को भीमसेन की सूरत में ऐसा बनाया कि मैं भी पहचान ही न सका। मगर बड़े आश्चर्य की बात यह है कि आज वह असली सूरत में तुम्हें दिखाई पड़ा। उसका इस तरह चले आना मामूली बात नहीं है।

मनोरमा--जितना मैं उसका हाल जानती हूँ आप उसका सोलहवां हिस्सा भी

1. देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति, छठवां भाग, दूसरा बयान। [ ६८ ]न जानते होंगे, और यही सबब है कि इस समय डर के मारे मेरा कलेजा काँप रहा है, फिर जहाँ तक मैं खयाल करती हूँ वह अकेला भी नहीं है।

शिवदत्त--नहीं-नहीं, वह अकेला कदापि न होगा। (धन्नूसिंह की तरफ इशारा करके) इसने भी एक ऐसी ही भयानक खबर मुझे सुनाई है।

मनोरमा--(ताज्जुब से) वह क्या?

शिवदत्त--इसका हाल धन्नूसिंह की जुबानी ही सुनना ठीक होगा। (धन्नूतिह से) हाँ, तुम जरा उन बातों को दोहरा तो जाओ!

धन्नूसिंह--बहुत खूब।

इतना कहकर धन्नूसिंह उन वातों को ऐसे ढंग से दोहरा गया कि मनोरमा का कलेजा कांप उठा और शिवदत्त तथा कल्याणसिंह पर पहले से भी ज्यादा असर पड़ा।

शिवदत्त--(मनोरमा से) क्या वास्तव में वह तुम्हारी बहिन है?

मनोरमा--राम-राम, ऐसी भयानक राक्षसी मेरी बहिन हो सकती है? असल वात तो यह है कि मैं अकेली हूँ, मेरी न कोई बहिन है, न भाई।

धन्नूसिंह--तब जरा खड़े-खड़े उसके पास चली चलो और जो कुछ वह पूछे, उसका जवाब दे दो।

मनोरमा--(रंज होकर) मैं क्यों उसके पास जाने लगी ! जाकर कह दो कि मनोरमा नहीं आती।

धन्नूसिंह--(खैरखाही दिखाने के ढंग से) मालूम होता है कि तुम अपने साथ ही साथ हमारे मालिक पर भी आफत लाना चाहती हो। (शिवदत्त से) महाराज, राक्षसी ने जितनी बातें मुझसे कहीं मैं अदब के खयाल से अर्ज नहीं कर सकता, तथापि एक बात केवल आप ही से कहने की इच्छा है।

धन्नूसिंह की बात सुनकर मनोरमा को डर के साथ ही साथ क्रोध भी चढ़ आया और वह कड़ी निगाह से धन्नू सिंह की तरफ देखकर बोली, "महाराज के खैरखाह एक तुम्हीं तो दिखाई देते हो ! इतनी बड़ी फौज की अफसरी करने के लिए क्यों मरे जाते हो जो एक औरत के सामने जाने की हिम्मत नहीं है?"

धन्नूसिंह--मेरी हिम्मत तो लाखों आदमियों के बीच घुसकर तलवार चलाने की है, मगर केवल तुम्हारे सबब से अपने मालिक पर आफत लाने और अपनी जान देने का हौसला कोई बेवकूफ आदमी भी नहीं कर सकता। (शिवदत्त से)तिस पर भी महाराज जो। आज्ञा दें उसे करने के लिए मैं तैयार हूँ। यदि आग में कूद पड़ने के लिए भी कहें तो क्षण- भर देर लगाने पर लानत भेजता हूँ, परन्तु मेरी बात सुनकर तब जो चाहें आज्ञा दें !

इतना सुनकर शिवदत्त उठ खड़ा हुआ और धन्नू सिंह को अपने पीछे आने का इशारा करके दूर चला गया जहाँ से उनकी बातचीत कोई दूसरा नहीं सुन सकता था।

शिवदत्त-–हाँ धन्नूसिंह, अब कहो, क्या कहते हो?

धन्नूसिंह--महाराज क्षमा करें, रंज न हों ! मैं सरकार का नमकख्वार गुलाम हूँ इसलिए सिवाय सरकार की भलाई के मुझे और कुछ मैं यह नहीं चाहता मनोरमा के सबब से, जो आपकी कुछ भी भलाई नहीं कर सकती, बल्कि आपके सबब [ ६९ ]से अपने को फायदा पहुंचा सकती है, आप किसी आफत में फंस जायें। मैं सच कहता हूँ, कि वह भयानक औरत साधारण नहीं मालूम होती। उसने कसम खाकर कहा था कि "मैं केवल एक पहर तक राजा शिवदत्त का मुलाहिजा करूँगी, इसके अन्दर अगर मनोरमा मेरे पास न भेजी जायगी या अलग न कर दी जायगी तो राजा शिवदत को इस दुनिया से उठा दूंगी और अपने कुत्तों को जो आदमी के खून के हरदम प्यासे रहते हैं...!" बस महाराज, अब आगे कहने से अदब जबान रोकती है। (कांपकर) ओफ वे भयानक कुत्ते जो शेर का कलेजा फाड़कर खा जायें ! (रुककर) फिर मनोरमा की जुबानी भी आप सुन ही चुके हैं कि भूतनाथ यकायक यहाँ पहुँचकर मनोरमा से क्या कह गया है, इसलिए (हाथ जोड़कर) मैं अर्ज करता हूँ कि किसी भी बहाने मनोरमा को अपने से अलग कर दें। सरकार खूब समझते हैं कि जिस काम के लिए जा रहे हैं उसमें सिवाय कुंअर कल्याणसिंह के और कोई भी मदद नहीं कर सकता, फिर एक मामूली औरत के लिए अपना हर्ज या नुकसान करना उचित नहीं, आगे महाराज मालिक हैं जो चाहें करें।

शिवदत्त--तुम्हारा कहना बहुत ठीक है, मैं भी यही सोच रहा हूँ।

जिस जगह खड़े होकर ये दोनों बातें कर रहे थे, वहाँ एकदम निराला था, कोई आदमी पास न था। शिवदत्त ने अपनी बात पूरी भी न थी कि यकायक भूतनाथ वहाँ आ पहुँचा और कड़ाई के ढंग से शिवदत्त की तरफ देखकर बोला, "इस अँधेरे में शायद तुम मुझे न पहचान सको इसलिए मैं अपना नाम भूतनाथ बताकर तुम्हें होशियार करता हूँ कि घण्टे भर के अन्दर मेरी खूराक मनोरमा को मेरे हवाले करो या अपने साथ से अलग कर दो, नहीं तो जीता न छोड़ें गा ! इतना कहकर बिना कुछ जवाब सुने भूतनाथ वहाँ से चला गया और शिवदत्त उसकी तरफ देखता ही रह गया।

शिवदत्त एक दफे भूतनाथ के हाथ में पड़ चुका था और भूतनाथ ने जो सलूक उसके साथ किया था उसे वह कदापि भूल नहीं सकता था बल्कि भूतनाथ के नाम ही से उसका कलेजा काँपता था, इसलिए वहाँ यकायक भूतनाथ के आ पहुंचने से वह कांप उठा और धन्नूसिंह की तरफ देखकर बोला, "निःसन्देह यह बड़ा ही भयानक ऐयार है !"

धन्नूसिंह--इसीलिए मैं अर्ज करता हूँ कि एक साधारण औरत के लिए इस भयानक ऐयार और उस राक्षसी को अपना दुश्मन बना लेना उचित नहीं है।

शिवदत्त--तुम ठीक कहते हो, अच्छा आओ मैं कल्याणसिंह से राय मिलाकर इसका बन्दोबस्त करता हूँ।

धन्नूसिंह को साथ लिए हुए शिवदत्त अपने ठिकाने पहुंचा जहाँ कल्याणसिंह और मनोरमा को छोड़ गया था। मनोरमा को यह कहकर वहाँ से बिदा कर दिया कि--'तुम अपने ठिकाने जाकर बैठो, हम यहाँ से कूच करने का बन्दोबस्त करते हैं और निश्चय हो जाने पर तुमको बुलावेंगे' और जब वह चली गई और वहाँ केवल ये ही तीन आदमी रह गये तव बातचीत होने लगी।

शिवदत्त ने धन्नूसिंह की जुबानी जो कुछ सुना था और धन्नूसिंह की जो कुछ राय हुई थी वह सब तथा बातचीत के समय यकायक भूतनाथ के आ पहुँचने और धमकाकर चले जाने का पूरा हाल कल्याणसिंह से कहा और पूछा कि--अब आपकी क्या राय होती [ ७० ]है ?' कुंअर कल्याणसिंह ने कहा, "मैं धन्नूसिंह की राय पसन्द करता हूँ। मनोरमा के लिए अपने को आफत में फंसाना बुद्धिमानी का काम नहीं है, अस्तु किसी मुनासिब ढंग से उसे अलग ही कर देना चाहिए।"

शिवदत्त--तिस पर भी अगर जान बचे तो समझें कि ईश्वर की बड़ी कृपा हुई।

कल्याणसिंह--सो क्या?

शिवदत्त--मैं यह सोच रहा हूँ कि भूतनाथ का यहां आना केवल मनोरमा ही के लिए नहीं है। ताज्जुब नहीं कि हम लोगों का कुछ भेद भी उसे मालूम हो और वह हमारे काम में बाधा डाले।

कल्याणसिंह--ठीक है, मगर काम आधा हो चुका है, केवल हमारे और आपके वहां पहुंचने भर की देर है। यदि भूतनाथ हम लोगों का पीछा भी करेगा तो रोहतासगढ़ तहखाने के अन्दर हमारी मर्जी के बिना वह कदापि नहीं जा सकता और जब तक वह मनोरमा को ले जाकर कहीं रखने या अपना कोई काम निकालने का बन्दोबस्त करेगा तब तक तो हम लोग रोहतासगढ़ में पहुँचकर जो कुछ करना है, कर गुजरेंगे।

शिवदत्त--ईश्वर करे ऐसा ही हो, अच्छा अब यह कहिये कि मनोरमा को किस ढंग से अलग करना चाहिए?

कल्याणसिंह--(धन्नूसिंह से) तुम बहुत पुराने और तजुर्बेकार आदमी हो, तुम ही बताओ कि क्या करना चाहिए?

धन्नूसिंह–-मेरी तो यही राय है कि मनोरमा को बुलाकर समझा दिया जाय कि 'अगर तुम हमारे साथ रहोगी तो भूतनाथ तुम्हें कदापि न छोड़ेगा, सो तुम मर्दानी पोशाक पहनकर धन्नूसिंह के (हमारे) साथ शिवदत्तगढ़ की तरफ चली जाओ, वह तुम्हें हिफाजत के साथ वहाँ पहुँचा देगा, जब हम लौटकर तुमसे मिलेंगे तो जैसा होगा, किया जायेगा। अगर तुम अपने आदमियों को साथ ले जाना चाहोगी तो भूतनाथ को मालूम हो जायेगा अतएव तुम्हारा अकेला ही यहाँ से निकल जाना उत्तम है।"

शिवदत्त--ठीक है लेकिन अगर इस बात को मंजूर कर ले तो क्या तुम भी उसी के साथ जाओगे ? तब तो हमारा बड़ा हर्ज होगा!

धन्नू--जी नहीं, मैं चार-पांच कोस तंक उसके साथ चला जाऊंगा, इसके बाद भुलावा देकर उसे छोड़ आपसे आ मिलूंगा।

शिवदत्त--(आश्चर्य से)धन्नूसिंह, क्या तुम्हारी अक्ल में कुछ फर्क पड़ गया है या तुम्हें निसयान (भूल जाने) की बीमारी हो गई है अथवा तुम कोई दूसरे धन्नूसिंह हो गए हो? क्या तुम नहीं जानते कि मनोरमा ने मुझे किस तरह से रुपये की मदद की है और उसके पास कितनी दौलत है ? तुम्हारी मार्फत मनोरमा से कितने ही रुपये मँगवाये थे ? तो क्या इस हीरे की चिड़िया को मैं छोड़ सकता हूँ ? अगर मुझे ऐसा ही करना होता तो तरदुद की जरूरत ही क्या थी, इसी समय कह देते कि हमारे यहाँ से निकल जा!

धन्नूसिंह--(कुछ सोचकर) आपका कहना ठीक है, मैं इन बातों को भूल नहीं गया, मैं खूब जानता हूँ कि वह बेइन्तहा खजाने की चाभी है, मगर मैंने यह बात इसलिए कही कि जब उसके सबब से हमारे सरकार ही आफत में फंस जायेंगे, तो वह हीरे की [ ७१ ]चिड़िया किसके काम आवेगी !

शिवदत्त--नही-नहीं, तुम इसके सिवाय कोई और तरकीब ऐसी सोचो जिसमें मनोरमा इस समय हमारे साथ से अलग तो जरूर हो जाये, मगर हमारी मुट्ठी से न निकल जाये।

धन्नूसिंह--(सोचकर) अच्छा, तो एक काम किया जाये।

शिवदत्त--वह क्या?

धन्नूसिंह--इसे तो आप निश्चय जानिये कि यदि मनोरमा इस लश्कर से साथ रहेगी तो भूतनाथ के हाथ से कदापि न बचेगी और जैसा कि भूतनाथ कह चुका है वह सरकार के साथ भी बेअदबी जरूर करेगा, इसलिए यह तो अवश्य है कि उसे अलग जरूर किया जाये मगर वह रहे अपने कब्जे ही में। तो बेहतर होगा कि वह मेरे साथ की जाये, मैं जंगल-ही-जंगल एक गुप्त पगडण्डी से जिसे मैं बखूबी जानता हूं रोहतासगढ़ तक उसे ले जाऊँ और जहाँ आप या कुंअर साहब आज्ञा दें ठहरकर राह देखू। भूतनाथ को जब मालूम हो जायेगा कि मनोरमा अलग कर दी गई तब वह उसके खोजने की धुन में लगेगा, मगर मुझे नहीं पा सकता। हाँ, एक बात और है, आप भी यहाँ से शीघ्र ही डेरा उठायें और मनोरमा की पालकी इसी जगह छोड़ दें, जिससे मनोरमा को अलग कर देने का विश्वास भूतनाथ को पूरा-पूरा हो जाये।

कल्याण--हाँ, यह राय बहुत अच्छी है, मैं इसे पसन्द करता हूं।

शिवदत्त--मुझे भी पसन्द है, मगर धन्नूसिंह को टिककर राह देखने का ठिकाना बताना आप ही का काम है।

कल्याण--हाँ-हाँ, मैं बताता हूँ, सुनो धन्नूसिंह !

धन्नूसिंह--जी सरकार !

कल्याण--रोहतासगढ़ पहाड़ी के पूरब की तरफ एक बहुत बड़ा कुआँ है और उस पर एक टूटी-फूटी इमारत भी है।

धन्नू सिंह--जी हाँ, मुझे मालूम है!

कल्याण--अच्छा तो अगर तुम उस कुएँ पर खड़े होकर पहाड़ की तरफ देखोगे तो टीले का ढंग का एक खण्ड पर्वत दिखाई देगा, जिसके ऊपर सूखा हुआ पुराना पीपल का पेड़ है और उसी पेड़ के नीचे एक खोह का मुहाना है। उसी जगह तुम हम लोगों का इन्तजार करना क्योंकि उसी खोह की राह से हम लोग रोहतासगढ़ तहखाने के अन्दर घुसेंगे, मगर उस झील तक पहुंचने का रास्ता जब तक हम न बतावें, तुम वहां नहीं जा सकते। (शिवदत्त से) आप मनोरमा को बुलवाकर सब हाल कहिये। अगर वह मंजूर करे तो हम धन्नूसिंह को रास्ते का हाल समझा दें।

शिवदत्त--(धन्नूसिंह से) तुम ही जाकर उसे बुला लाओ।

"बहुत अच्छा" कहकर धन्नू सिंह चला गया और थोड़ी ही देर में मनोरमा को साथ लिये हुआ आ पहुँचा। उसके विषय में जो कुछ राय हो चुकी थी, उसे कल्याणसिंह ने ऐसे ढंग से मनोरमा को समझाया कि उसने कबूल कर लिया और धन्नूसिंह के साथ चले जाना ही अच्छा समझा। कुंअर कल्याणसिंह ने उस ठीले तक पहुँचने का रास्ता धन्नूसिंह [ ७२ ]को अच्छी तरह समझा दिया। दो घोड़े चुपचुपाते ही तैयार किये गये, मनोरमा ने मर्दानी पोशाक पालकी के अन्दर बैठकर पहनी और घोड़े पर सवार हो धन्नूसिंह से साथ रवाना हो गई। धन्नूसिंह की सवारी का घोड़ा बनिस्बत मनोरमा के घोड़े से तेज और ताकत- वर था।


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मनोरमा और धन्नूसिंह घोड़ों पर सवार होकर तेजी के साथ वहाँ से रवाना हुए और चार कोस तक बिना कुछ बातचीत किए चले आए। जब ये दोनों एक ऐसे मैदान में पहुंचे जहां बीचोंबीच में एक बहुत बड़ा आम का पेड़ और उसके चारों तरफ आधा कोस का मैदान साफ था यहाँ तक कि सरपत, जंगली बेर या पलास का भी कोई पेड़ न था जिसका होना जंगल या जंगल के आसपास आवश्यक समझा जाता है, तब धन्नू सिंह ने अपने घोड़े का मुंह उसी आम के पेड़ की तरफ यह कहके फेरा--'मेरे पेट में कुछ दर्द हो रहा है इसलिए थोड़ी देर तक इस पेड़ के नीचे ठहरने की इच्छा होती है।"

मनोरमा--ठहर तो जाओ, मगर खौफ है कि कहीं भूतनाथ न आ पहुँचे।

धन्नूसिंह--अब भूतनाथ के आने की आशा छोड़ो क्योंकि जिस राह से हम लोग आये हैं वह भूतनाथ को कदापि मालूम न होगी। मगर मनोरमा, तुम तो भूतनाथ से इतना डरती हो कि'

मनोरमा--(बात काटकर) भूतनाथ निःसन्देह ऐसा ही भयानक ऐयार है। पर थोड़े ही दिन की बात है कि जिस तरह आज मैं भूतनाथ से डरती हूँ उससे ज्यादा भूतनाथ मुझसे डरता था।

धन्नूसिंह--हाँ, जब तक उसके कागजात तुम्हारे या नागर के कब्जे में थे !

मनोरमा--(चौंककर, ताज्जुब से) क्या यह हाल तुमको मालूम है?

धन्नूसिंह--हाँ, बहुत अच्छी तरह।

मनोरमा--सो कैसे?

इतने ही में वे दोनों उस पेड़ के नीचे पहुँच गये और धन्नूसिंह यह कहकर घोड़े से नीचे उतर गया कि 'अब जरा बैठ जायें तो कहें।'

मनोरमा भी घोड़े से नीचे उतर पड़ी। दोनों घोड़े लम्बी बागडोर के सहारे पेड़ के साथ बांध दिए और जीनपोश बिछाकर दोनों आदमी जमीन पर बैठ गये। रात आधी से ज्यादा जा चुकी थी और चन्द्रमा की विमल चांदनी, जिसका थोड़ी ही देर पहले कहीं नाम-निशान भी न था, बड़ी खूबी के साथ चारों तरफ फैल रही थी।

मनोरमा हाँ, अब बताओ कि भूतनाथ के कागजात का हाल तुम्हें कैसे मालूम हुआ ?

धन्नूसिंह--मैंने भूतनाथ की ही जुबानी सुना था। [ ७३ ]मनोरमा--हैं ! क्या तुमसे और भूतनाथ से जान-पहचान है ?

धन्नूसिंह--बहुत अच्छी तरह।

मनोरमा--तो भूतनाथ ने तुमसे यह भी कहा होगा कि उसने अपने कागजात नागर के हाथ से कैसे पाये!

धन्नूसिंह--हाँ, भूतनाथ ने मुझसे वह किस्सा भी बयान किया था, क्या तुमको वह हाल मालूम नहीं हुआ?

मनोरमा–-मुझे वह हाल कैसे मालूम होता ? मैं तो मुद्दत तक कमलिनी के कैदखाने में सड़ती रही और जब वहाँ से छूटी तो दूसरे ही फेर में पड़ गई। मगर तुम जब वह सब हाल जानते ही हो तो फिर जान-बूझकर ऐसा सवाल क्यों करते हो?

धन्नूसिंह--ओफ, पेट का दर्द ज्यादा होता जा रहा है ! जरा देर ठहरो तो मैं तुम्हारी बातों का जवाब दूं।

इतना कहकर धन्नूसिंह चुप हो गया और घण्टे भर से ज्यादा देर तक बातों का सिलसिला बन्द रहा। धन्नूसिंह यद्यपि इतनी देर तक चुप रहा मगर बैठा ही रहा और मनोरमा की तरफ से इस तरह होशियार और चौकन्ना रहा जैसे किसी दुश्मन की तरफ से होना वाजिब था। साथ ही इसके धन्नूसिंह की निगाह मैदान की तरफ भी इस ढंग से पड़ती रही जैसे किसी के आने की उम्मीद हो। मनोरमा उसके इस ढंग पर आश्चर्य कर रही थी। यकायक उस मैदान में दो आदमी बड़ी तेजी के साथ दौड़ते हुए उसी तरफ आते दिखाई पड़े जिधर मनोरमा और धन्नूसिंह का डेरा जमा हुआ।

मनोरमा--ये दोनों कौन हैं जो इस तरफ आ रहे हैं ?

धन्नूसिंह--यही बात मैं तुमसे पूछना चाहता था मगर जब तुमने पूछ ही लिया तो कहना पड़ा कि इन दोनों में एक तो भूतनाथ है।

मनोरमा—क्या तुम मुझसे दिल्लगी कर रहे हो ?

धन्नूसिंह--नहीं, कदापि नहीं।

मनोरमा--तो फिर ऐसी बात क्यों कहते हो?

धन्नू सिंह--इसलिए कि मैं वास्तव में धन्नूसिंह नहीं हूँ।

मनोरमा,--(चौंककर) तब तुम कौन हो?

धन्नूसिंह--भूतनाथ का दोस्त और इन्द्रदेव का ऐयार सरयूसिंह।

इतना सुनते ही मनोरमा का रंग बदल गया और उसने बड़ी फुती से अपना दाहिना हाथ सरयू सिंह की तरफ बढ़ाया, मगर सरयूसिंह पहले ही से होशियार और चौकन्ना था, उसने चालाकी से मनोरमा की कलाई पकड़ ली।

मनोरमा की उँगली में उसी तरह के जहरीले नगीने वाली अंगूठी थी, जैसी कि नागर की उँगली में थी और जिसने भूतनाथ को मजबूर कर दिया था तथा जिसका हाल इस उपन्यास के सातवें भाग में हम लिख आये हैं। उसी अंगूठी से मनोरमा ने नकली धन्नूसिंह को मारना चाहा मगर न हो सका, क्योंकि उसने मनोरमा की कलाई पकड़ ली और उसी समय भूतनाथ और सरयूसिंह का शागिर्द भी वहाँ आ पहुंचे। अब मनोरमा ने अपने को काल में मुंह में समझा और वह इतनी डरी कि जो उन ऐयारों ने कहा बेउज [ ७४ ]करने के लिए तैयार हो गई।

भूतनाथ के हाथ से क्षमा-प्रार्थना की सहायता छूटने की आशा मनोरमा को कुछ भी न थी, इसीलिए जब तक भूतनाथ ने उससे किसी तरह का सवाल न किया वह भी कुछ न बोली और बेउज्र हाथ-पैर बंधवाकर कैदियों की तरह मजबूर हो गई। इसके बाद भूतनाथ तथा सरयू सिंह में यों बातचीत होने लगी-

भूतनाथ--अब क्या करना होगा?

सरयू सिंह--अब यही करना होगा कि तुम इसे अपने घोड़े पर सवार करा के घर ले जाओ और हिफाजत के साथ रखकर शीघ्र लौट जाओ।

भूतनाथ--और उस धन्नूसिंह के बारे में क्या किया जाये जिसे आप गिरफ्तार करने के बाद बेहोश करके डाल आए हैं?

सरयूसिंह--(कुछ सोचकर) अभी उसे अपने कब्जे ही में रखना चाहिए क्योंकि मैं धन्नूसिंह की सुरत में राजा शिवदत्त के साथ रोहतासगढ़ तहखाने के अन्दर जाकर इन दुष्टों की चालबाजियों को जहाँ तक हो सके, बिगाड़ना चाहता हूँ। ऐसी अवस्था में अगर वह छूट जायेगा तो केवल काम ही नहीं बिगड़ेगा, बल्कि मैं खुद आफत में फंस जाऊँगा यदि शिवदत्त के साथ रोहतासगढ़ के तहखाने में जाने का साहस करूँगा।

इसके बाद सरयूसिंह ने भूतनाथ से वे बातें कहीं जो उससे शिवदत्त तथा कल्याण- सिंह से हुई थीं और जो हम ऊपर लिख आए हैं। उस समय मनोरमा को मालूम हुआ कि नकली धन्नूसिंह ने जिस भयानक कुत्ते वाली औरत का हाल शिवदत्त से कहा और जिसे मनोरमा की बहिन बताया था, वह सब विलकुल झूठ और बनावटी किस्सा था।

भूतनाथ--(सरयूसिंह से)तब तो आपको दुश्मनों के साथ मिल-जुलकर रोहतास- गढ़ तहखाने के अन्दर जाने का बहुत अच्छा मौका मिला है।

सरयूसिंह--हाँ, इसी से मैं कहता हूँ कि उस धन्नूसिंह को अभी अपने कब्जे में ही रखना चाहिए जिसे हम लोगों ने गिरफ्तार किया है।

भूतनाथ-कोई चिन्ता नहीं, मैं लगे हाथ किसी तरह उसे भी अपने घर पहुंचा दूंगा। (शागिर्द की तरफ इशारा करके) इसे तो आप मनोरमा बनाकर अपने साथ ले जाएँगे ?

सरयूसिंह--जरूर ले जाऊँगा और कल्याणसिंह के बताये हुए ठिकाने पर पहुँच- कर उन लोगों की राह देखूंगा।

भूतनाथ--और मुझको क्या काम सुपुर्द किया जाता है?

सरयूसिंह--मुझे इस बात का पता ठीक-ठीक लग चुका है कि शेरअलीखाँ आजकल रोहतासगढ़ में है और कुंअर कल्याणसिंह उससे मदद लिया चाहता है। ताज्जुब नहीं कि अपने दोस्त का लड़का समझकर शेरअलीखाँ उसकी मदद करे, और अगर ऐसा हुआ तो राजा वीरेन्द्रसिंह को बड़ा नुकसान पहुँचेगा।

भूतनाथ--मैं आपका मतलव समझ गया, अच्छा तो इस काम से छुट्टी पाकर मैं बहुत जल्द रोहतासगढ़ पहुँचंगा और शेरअलीखाँ की हिफाजत करूँगा।(कुछ सोचकर) मगर इस बात का खौफ है कि अगर मेरा वहाँ जाना राजा वीरेन्द्रसिंह पर खुल जायेगा [ ७५ ]तो कहीं मुझे बलभद्रसिंह का बिना पता लगाये लौट आने के जुर्म में सजा तो न मिलेगी? (इतना कहकर भूतनाथ ने मनोरमा की तरफ देखा)।

सरयूसिंह--नहीं-नहीं, ऐसा न होगा, और अगर हुआ भी तो मैं तुम्हारी मदद करूँगा।

बलभद्रसिंह का नाम सुनकर मनोरमा जो सब बातचीत सुन रही थी चौंक पड़ी और उसके दिल में एक हौल-सा पैदा हो गया। उसने अपने को रोकना चाहा, मगर रोक न सकी और घबराकर भूतनाथ से पूछ बैठी, "बलभद्रसिंह कौन ?"

भूतनाथ--(मनोरमा से) लक्ष्मीदेवी का बाप, जिसका पता लगाने के लिए ही हम लोगों ने तुझे गिरफ्तार किया है।

मनोरमा--(घबराकर)मुझसे और उससे भला क्या सम्बन्ध ? मैं क्या जानूं, वह कौन है, कहाँ है और लक्ष्मी देवी किसका नाम है !

भूतनाथ--खैर, जब समय आवेगा तो सब कुछ मालूम हो जायेगा। (हँसकर) लक्ष्मीदेवी से मिलने के लिए तो तुम लोग रोहतासगढ़ जाते ही थे, मगर बलभद्रसिंह और इन्दिरा से मिलने का बन्दोबस्त अब मैं करूँगा, घबराती काहे को हो !

मनोरमा--(घबराहट के साथ ही बेचैनी से)इन्दिरा, कैसी इन्दिरा ?ओफ !नहीं- नहीं, मैं क्या जानूं कौन इन्दिरा ! क्या तुम लोगों से उसकी मुलाकात हो गई ?क्या उसने मेरी शिकायत की थी ! कभी नहीं, वह झूठी है, मैं तो उसे प्यार करती थी और अपनी बेटी समझती थी : मगर उसे किसी ने बहका दिया है या बहुत दिनों तक दुःख भोगने के कारण वह पागल हो गई है, या ताज्जुब नहीं कि मेरी सूरत बनाकर किसी ने उसे धोखा दिया हो। नहीं-नहीं, वह मैं न यी कोई दूसरी थी, मैं उसका भी नाम बताऊँगी। (ऊँची साँस लेकर) नहीं-नहीं, इन्दिरा नहीं, मैं तो मथुरा गई हुई थी, वह कोई दूसरी ही थी, भला मैं तेरे साथ क्यों ऐसा करने लगी थी ! ओफ ! मेरे पेट में दर्द हो रहा है, आह, आह, मैं क्या करूँ !

मनोरमा की अजब हालत हो गई। उसका बोलना और बकना पागलों की तरह मालूम पड़ता था जिसे देख भूतनाथ और सरयूसिंह आश्चर्य करने लगे, मगर दोनों ऐयार इतना तो समझ ही गये कि दर्द का बहाना करके मनोरमा अपने असली दिली दर्द को छिपाना चाहती है जो होना कठिन है।

सरयूसिंह--(भूतनाथ से)खैर अब इसका पाखण्ड कहाँ तक देखोगे, बस, झटपट ले जाओ और अपना काम करो। यह समय अनमोल है और इसे नष्ट न करना चाहिए। (अपने शागिर्द की तरफ इशारा करके) इसे हमारे पास छोड़ जाओ, मैं भी अपने काम की फिक्र में लगूं।

भूतनाथ ने बेहोशी की दवा सुंघाकर मनोरमा को बेहोश किया और जिस घोड़े पर वह आई थी उसी पर उसे लाद आप भी सवार हो पूरब का रास्ता लिया। उधर सरयूसिंह अपने चेले को मनोरमा बनाने की फिक्र में लगा।