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चन्द्रकांता सन्तति 4/15.2

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चंद्रकांता संतति भाग 4
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ १४८ से – १५६ तक

 

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"अब हम रोहतासगढ़ किले के तहखाने में दुश्मनों से घिरे हुए राजा वीरेन्द्रसिंह वगैरह का कुछ हाल लिखते हैं।

जिस समय राजा वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह इत्यादि ने तहखाने के ऊपरी हिस्से से आई हुई यह आवाज सुनी कि 'होशियार, होशियार, देखो यह चाण्डाल बेचारी किशोरी को पकड़े लिए जाता है' इत्यदि-तो सभी की तबीयत बहुत ही बेचैन हो गई। राजा वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, इन्द्रदेव और देवीसिंह वगैरह घबरा कर चारों तरफ देखने और सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए।

कमलिनी हाथ में तिलिस्मी खंजर लिए हुए कैदखाने वाले दरवाजे के बीच ही में खडी थी। उसने इन्द्रदेव से कहा--"मुझे भी उसी कोठरी के अन्दर पहुँचाइये, जिसमें किशोरी को रवखा था, फिर मैं उसे छुड़ा लूंगी।"

इन्द्रदेव--बेशक उस कोठरी के अन्दर तुम्हारे जाने से किशोरी को मदद पहुँचेगी मगर किसी ऐयार को भी अपने साथ लेती जाओ।

देवीसिंह--मुझे साथ जाने के लिए कहिये।

इन्द्रदेव--(वीरेन्द्रसिंह से) आप देवीसिंहजी को साथ जाने की आज्ञा दीजिये।

वीरेन्द्र सिंह--(देवीसिंह से) जाइये।

तेजसिंह--नहीं, कमलिनी के साथ मैं खुद जाऊंगा, क्योंकि मेरे पास भी राजा गोपालसिंह का दिया हुआ तिलिस्मी खंजर है।

इन्द्रदेव--राजा गोपालसिंह ने आपको तिलिस्मी खंजर कब दिया?

तेजसिंह--जब कमलिनी की सहायता से मैंने उन्हें मायारानी की कैद से छडाया था तब उन्होंने उसी तिलिस्मी वाग के चौथे दर्जे में से एक तिलिस्मी खंजर निकालकर मझे दिया था जिसे मैं हिफाजत से रखता हूँ। कमलिनी के साथ देवीसिंह के जाने से कोई फायदा न होगा क्योंकि जब कमलिनी तिलिस्मी खंजर से काम लेगी तो उसकी चमक से और लोगों की तरह देवीसिंह की आँखें बन्द हो जायेंगी

इन्द्रदेव--(बात काट कर) ठीक है ठीक है, मैं समझ गया। अच्छा, तो आप ही जाइये, देर न कीजिये। इतना कहकर इन्द्रदेव बड़ी फुर्ती से कैदखाने के अन्दर चला गया और उस कोठरी का दरवाजा जिसमें किशोरी, कामिनी, लक्ष्मीदेवी, लाड़िली और कमला को रख दिया था पुनः उसी ढंग से खोला जैसे पहले खोला था। दरवाजा खुलने के साथ ही तेजसिंह को साथ लिए हुए कमलिनी उस कोठरी के अन्दर घुस गई और वहाँ कामिनी, लक्ष्मीदेवी, लडिली और कमला को मौजूद पाया मगर किशोरी का पता न था। कमलिनी ने उन औरतों को तुरत कोठरी के बाहर निकालकर राजा वीरेन्द्रसिंह के पास चले जाने के लिए कहा और आप दूसरे काम का उद्योग करने लगी। बाकी औरतों के बाहर होते ही इन्द्रदेव ने जंजीर छोड़ दी और कोठरी का दरवाजा बन्द हो गया। कमलिनी ने अपने तिलिस्मी खंजर से रोशनी करके चारों तरफ गौर से देखा। बगल वाली दीवार में एक छोटा-सा दरवाजा खुला हुआ दिखाई दिया जिसमें ऊपर के हिस्से में जाने के लिए सीढ़ियां थीं। दोनों उस दरवाजे के अन्दर चले गये और सीढ़ियां चढ़ कर छत के ऊपर जा पहुँचे, अब तेजसिंह को मालूम हुआ कि इसी जगह से उस गुप्त मनुष्य के बोलने की आवाज आ रही थी।

इस ऊपर वाले हिस्से की छत बहुत लम्बी-चौड़ी थी और वहाँ कई बड़े-बड़े दालान थे और उन दालानों में से कई तरफ निकल जाने के रास्ते भी थे। तेजसिंह और। कमलिनी ने देखा कि वहाँ पर बहुत-सी लाशें पड़ी हुई हैं जिनमें से शायद दो ही चार में दम हो, और जमीन भी वहाँ की खून से तरबतर हो रही थी। अपने पैर को खून और . लाशों से बचा कर किसी तरफ निकल जाना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव था, अतः कमलिनी ने इस बात का कुछ भी खयाल न किया और लाशों पर पैर रखती हुई बराबर चलती गई। और एक दालान में पहुँची जिसमें से दूसरी तरफ निकल जाने के लिए एक खुला हुआ दरवाजा था। दरवाजे के उस पार पैर रखते ही दोनों की निगाह कृष्ण जिन्न पर पड़ी जिसे दुश्मन चारों तरफ से घेरे हुए थे और वह तिलिस्मी तलवार से सभी को काट कर गिरा रहा था। यद्यपि वह तिलिस्मी फौलादी जाल की पोशाक पहने हुए था और इस सवब से उसके ऊपर दुश्मनों की तलवारें कुछ काम नहीं करती थीं तथापि ध्यान देने से मालूम होता था कि तलवार चलाते-चलाते उसका हाथ थक गया है और थोड़ी देर में हर्बा चलाने या लड़ने लायक न रहेगा। इतना होने पर भी दुश्मनों को उस पर फतह पाने की आशा न थी और मुकाबला करने से डरते थे। जिस समय कमलिनी और तेजसिंह तिलिस्मी खंजर चमकाते हुए उसके पास जा पहँचे, उस समय दुश्मनों का जी बिल्कुल ही टूट गया और वे तलवारें जमीन पर फेंक-फेंककर 'शरण' 'शरणागत' इत्यादि पुकारने लगे।

अगर दुश्मनों को यहां से निकल जाने का रास्ता मालूम होता और वे लोग भाग कर अपनी जान बचा सकते तो कृष्ण जिन्न का मुकाबला कदापि न करते। लेकिन जब उन्होंने देखा कि हम लोग रास्ता न जानने के कारण भाग कर जा ही नहीं सकते तब लाचार होकर मरने-मारने के लिए तैयार हो गये थे, मगर कृष्ण जिन्न ने भी उन लोगों को अच्छी तरह यमलोक का रास्ता दिखाया क्योंकि उसके हाथ में तिलिस्मी तलवार थी। जब तेजसिंह और कमलिनी भी तिलिस्मी खंजर चमकाते हुए वहाँ पहुँच गये तब तो दुश्मनों ने एकदम ही तलवार हाथ से फेंक दी और 'त्राहि-त्राहि', 'शरण-शरण' पुकारने लगे। उस समय कृष्ण जिन्न ने भी हाथ रोक लिया और तेजसिंह तथा कमलिनी की तरफ देखकर कहा- "बहुत अच्छा हआ जो आप लोग आ गये!"

तेजसिंह--मालूम होता है कि आप ही ने दुश्मनों के आने से हम लोगों को सचेत किया।

कृष्ण जिन्न--हां, वह आवाज मेरी ही थी और मुझी से आप लोग बातचीत कर रहे थे।

तेजसिंह--तो क्या आप ही ने यह कहा था कि 'कोई शैतान बेचारी किशोरी को पकड़े लिए जाता है?'

कृष्ण जिन्न--हाँ, यह मैंने ही कहा था, किशोरी को ले जाने वाला स्वयं उस का बाप शिवदत्त था और वह मेरे हाथ से मारा गया।

कृष्ण जिन्न और भी कुछ कहना चाहता था कि कोई आवाज उसके तथा कमलिनी और तेजसिंह के कानों में पड़ी। आवाज यह थी--"हरी, हरी, तुम लोग भागो और हमारे पीछे-पीछे चले आओ, धन्नसिंह की मदद से हम लोग निकल जायेंगे।" इस आवाज को सुनकर वे लोग भी पीछे की तरफ भाग गये जिन्होंने कृष्ण जिन्न और तेजसिंह के आगे तलवारें फेंक दी थीं मगर कृष्ण जिन्न और तेजसिंह ने उन लोगों को रोकना या मारना उचित न जाना और चुपचाप खड़े रहकर भागने वालों का तमाशा देखते रहे। थोड़ी देर में ही उनके सामने की जमीन दुश्मनों से खाली हो गई और सामने से आती हुई मनोरमा दिखाई पड़ी। मनोरमा को देखते ही कमलिनी तिलिस्मी खंजर उठाकर उसकी तरफ झपटी और उस पर वार करना ही चाहती थी कि मनोरमा ने कुछ पीछे हटकर कहा, "हैं हैं श्यामा, जरा देख के, समझ के !"

मनोरमा की बात और श्यामा का शब्द सुनकर कमलिनी रुक गई और बड़े गौर से मनोरमा का मुंह देखने के बाद बोली, "तू कौन है?"

मनोरमा--बीरूसिंह! कमलिनी-निशान ? मनोरमा-चन्द्रकला।

कमलिनी--तुम अकेले हो या और भी कोई है?

बीरूसिंह--शिवदत्त के सिपाही धन्नूसिंह की सूरत बनाकर मेरे गुरु सरयूसिंह भी आये हैं। उन्होंने दुश्मनों को बाहर निकलने का रास्ता बताया है। इस तहखाने में जितने दरवाजे कल्याणसिंह ने बन्द किये थे वे सब भी गुरुजी ने खोल दिये क्योंकि उनके सामने ही कल्याणसिंह ने सब दरवाजे बन्द किये थे और उन्होंने उसकी तरकीब देख ली थी।

कृष्ण जिन्न--शाबाश ! (कमलिनी से) अच्छा इन लोगों का किस्सा दूसरे समय सूनना, इस समय तुम किशोरी को लेकर राजा वीरेन्द्रसिंह के पास चली जाओ जिसे हमने शिवदत्त के पंजे से छुड़ाया है और जो (हाथ का इशारा करके) उस तरफ जमीन पर बदहवास पड़ी है। अब इस काम में देर मत करो। मैं यहाँ से पुकार कर कह देता हूँ, जिस राह से तुम आई हो उस कोठरी का दरवाजा इन्द्रदेव खोल देंगे, तेजसिंह और बीरूसिंह को मैं थोड़ी देर के लिए अपने साथ लिए जाता हूँ, ये लोग किले में तुम लोगों के पास आ जायेंगे।

कमलिनी--क्या आप राजा वीरेन्द्रसिंह के पास नहीं चलेंगे?

कृष्ण जिन्न--नहीं।

कमलिनी--क्यों?

कृष्ण जिन्न--हमारी खुशी। राजा वीरेन्द्रसिंह से कह दीजिये कि सभी को लिए हुए इसी समय तहखाने के बाहर चले जायें।

इतना कहकर कृष्ण जिन्न उस जगह कमलिनी को ले गया जहाँ बेचारी किशोरी बदहवास पड़ी हुई थी। दुश्मन लोग सामने से बिल्कुल भाग गये थे, सिवाय जख्मियों और मुर्दो के वहां पर कोई भी मुकाबला करने वाला न था और दुश्मनों के हाथों से गिरी हुई मशालें इधर-उधर पड़ी हई कुछ बल रही थीं और कुछ ठंडी हो गई थीं। बेचारी किशोरी बिल्कुल बदहवास पड़ी हुई थी मगर तेजसिंह की तरकीब से वह बहुत जल्द होश में आ गई और कमलिनी उसे अपने साथ लेकर राजा वीरेन्द्रसिंह के पास चली गई।कृष्ण जिन्न ने उसी सूराख में से इन्द्रदेव को दरवाजा खोलने के लिए आवाज दे दी और तेजसिंह तथा बीरूसिंह को लिए दूसरी तरफ का रास्ता लिया।

किशोरी को साथ लिए हए थोड़ी ही देर में कमलिनी राजा वीरेन्द्रसिंह के पास जा पहुंची और जो कुछ उसने देखा-सुना था, सब कहा। वहाँ से भी बचे-बचाये दुश्मन लोग भाग गये थे और मुकाबला करने वाला कोई मौजूद नहीं था।

इन्द्रदेव--(राजा वीरेन्द्रसिंह से) कृष्ण जिन्न ने जो कुछ कहला भेजा है उसे मैं पसन्द करता हूँ, सभी को लेकर इसी समय तहखाने के बाहर हो जाना चाहिए।

वीरेन्द्रसिंह--मेरी भी यही राय है, ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए कि आज की ग्रहदशा सहज में कट गई। निःसन्देह आपके दोनों ऐयारों ने दुश्मनों के साथ यहाँ आकर कोई अनूठा काम किया होगा और कृष्ण जिन्न ने मानो पूरी सहायता ही की और किशोरी की जान बचा ली।

इन्द्रदेव--निःसन्देह ईश्वर ने बड़ी कृपा की मगर इस बात का अफसोस है कि कृष्ण जिन्न यहाँ न आकर ऊपर-ही-ऊपर चले गये और मैं उन्हें देख न सका तथा इस तहखाने की सैर भी इस समय आपको न करा सका।

वीरेन्द्रसिंह--कोई चिन्ता नहीं, फिर कभी देखा जायेगा, इस समय तो यहाँ से चल ही देना चाहिए।

राजा वीरेन्द्रसिंह की इच्छानुसार कैदियों को भी साथ लिए हुए सब कोई तहखाने के बाहर हुए। कैदियों को कैदखाने भेजा, औरतें महल में भेज दी गई और उनकी हिफाजत का विशेष प्रबन्ध किया गया, क्योंकि अब राजा वीरेन्द्रसिंह को इस बात का विश्वास न रहा कि रोहतासगढ़ किले के अन्दर और महल में दुश्मनों के आने का खटका नहीं है क्योंकि तहखाने के रास्तों का हाल दिन-ब-दिन खुलता ही जाता था।

इन्द्र देव को राजा वीरेन्द्रसिंह ने अपने कमरे के बगल में डेरा दिया और बड़ी इज्जत के साथ रक्खा। आज की बची हुई रात सोच-विचार और तर दुद ही में बीती। शेरअलीखां भूतनाथ और कल्याणसिंह का हाल भी सभी को मालूम हुआ और यह भी मालूम हुआ कि कल्याणसिंह और उसके कई आदमी कैदखाने में बन्द हैं।

दूसरे दिन सवेरे जब राजा वीरेन्द्र सिंह ने कैदखाने में से कल्याणसिंह को अपने पास बुलाया तो मालूम हुआ कि रात ही को होश में आने के बाद कल्याणसिंह ने जमीन पर सिर पटक कर अपनी जान दे दी। वीरेन्द्रसिंह ने उसकी अवस्था पर शोक प्रकट किया और उसकी लाश को इज्जत के साथ जला कर हड्डियां गंगाजी में डलवा देने का हक्म दिया और यही हुक्म शिवदत्त की लाश के लिए भी दिया।

पहर दिन चढ़ने के बाद जब राजा वीरेन्द्र सिंह स्नान और संध्या-पूजा से छुट्टी पा कुछ अन्न-जल ले निश्चिन्त हुए तो महल में अपने आने की इत्तिला करवाई और उसके बाद इन्द्रदेव को साथ लिए हुए महल में जाकर एक सजे हुए सुन्दर कमरे में बैठे। उनकी इच्छानुसार किशोरी, कामिनी, कमला, कमलिनी, लाडिली और लक्ष्मीदेवी अदब के साथ सामने बैठ गई। किशोरी का चेहरा उसके बाप के गम में उदास हो रहा था, राजा वीरेन्द्रसिंह ने उसे समझाया और दिलासा दिया। इसी समय तारासिंह ने राजा साहब के पास पहुँच कर तेजसिंह, भूतनाथ, सरयूसिंह और बीरूसिंह के आने की इत्तिला की और मर्जी होने पर ये लोग राजा वीरेन्द्रसिंह के सामने हाजिर हुए तथा सलाम करने के बाद हुक्म पाकर जमीन पर बैठ गये। इन लोगों के आने का सभी को इन्तजार था, शिवदत्त और कल्याणसिंह की कार्रवाई तथा उनके काम में विघ्न पड़ने का हाल सभी कोई सुनना चाहते थे।

वीरेन्द्रसिंह--(भूतनाथ से) मैंने सुना था कि शेरअलीखाँ को तुम अपने साथ ले गए थे?

भूतनाथ--जी हाँ, शेरअलीखाँ को मैं अपने साथ ले गया था और साथ लेता भी आया, तेजसिंह की आज्ञा से वे अपने डेरे पर चले गए जहाँ रहते थे।

वीरेन्द्रसिंह--(तेजसिंह से)कृष्ण जिन्न तुमको अपने साथ क्यों ले गए थे?

तेजसिंह--कुछ काम था, जो मैं आपसे किसी दूसरे समय कहूँगा। आप पहले सरयूसिंह और भूतनाथ का हाल सुन लीजिये।

वीरेन्द्रसिंह--अच्छी बात है, आज के मामले में निःसन्देह सरयूसिंह ने बड़ो मदद पहुँचाई और भूतनाथ की होशियारी ने भी दुश्मनों का बहुत-कुछ नुकसान किया।

तेजसिंह--जिस तरफ से दुश्मन लोग इस तहखाने के अन्दर आये थे, भूतनाथ और शेरअलीखाँ उसी मुहाने पर जाकर बैठ गए और भाग कर जाते हए दुश्मनों को खब ही मारा, यहाँ तक कि एक भी जीता बचकर न जा सका।

इन्द्रदेव--(सरयूसिंह से) अच्छा, तुम अपना हाल कह जाओ।

इन्द्रदेव की आज्ञा पाकर सरयूसिंह ने अपना और भूतनाथ का हाल बयान किया। मनोरमा और धन्नू सिंह का हाल सुनकर सब कोई हँसने लगे, इसके बाद भूतनाथ का मनोरमा को अपने लड़के नानक के साथ घर भेजकर शेरअलीखां के पास आना, कल्याणसिंह और उसके आदमियों का मुकाबला करना, फिर शेरअलीखाँ को अपने साथ लेकर सुरंग के मुहाने पर जाकर बैठना और दुश्मनों का सत्यानाश करना इत्यादि बयान किया। इसके बाद तेजसिंह ने एक चिट्ठी राजा वीरेन्द्रसिंह के हाथ में दी और कहा, "कृष्ण जिन्न ने यह चिट्ठी आपके लिए दी है।"

राजा वीरेन्द्रसिंह ने यह चिट्ठी ले ली और मन में पढ़ जाने के बाद इन्द्रदेव के हाथ में देकर कहा,--'आप इसे जोर से पढ़ जाइये, जिसमें सब कोई सुन लें!"

इन्द्रदेव ने चिट्ठी पढ़कर सभी को सुनाई। उसका मतलब यह था--

"इत्तिफाक से आज इस तहखाने में पहुंच गया और किशोरी की जान बच गई। सरयूसिंह और भूतनाथ ने निःसन्देह बड़ी मदद की, सच तो यह है कि आज इन्हीं के बदौलत दुश्मनों ने नीचा देखा, मगर भूतनाथ ने एक काम बड़ी बेवकूफी का किया, अर्थात् मनोरमा को नानक के हाथ में दे दिया और उसे घर ले जाकर असली बलभद्रसिंह का पता लगाने के लिए कहा। यह भूतनाथ की भूल है कि वह नानक को किसी काम के लायक समझता है यद्यपि नानक के हाथ से आज तक कोई काम ऐसा न निकला जिसकी तारीफ की जाये, वह निरा बेवकूफ और गदहा है कोई नाजुक काम उसके हाथ में देना भी भारी भूल है। मनोरमा को उसके हाथ में देकर भूतनाथ ने बुरा किया। नानक कमीने को मालिक के काम का तो कुछ खयाल न रहा और मनोरमा के साथ शादी की धुन सवार हो गई, जिसका नतीजा यह निकला कि मनोरमा ने नानक को खूब जूतियाँ लगाई और तिलिस्मी खंजर भी ले लिया, मैं बहुत खुश होता यदि मनोरमा नानक का कान-नाक भी काट लेती। आपको और आपके ऐयारों को होशियार करता हूँ और कहे देता हूँ कि औरत के गुलाम नानक बेईमान पर कोई भी कभी भरोसा न करे। आप जरूर अपने एक ऐयार को नानक के घर तहकीकात करने के लिए भेजें, तब आपको नानक और नानक के घर की हालत मालूम होगी। अतः अब आपका रोहतासगढ़ में रहना ठीक नहीं है, आप कैदियों और किशोरी, कामिनी, कमलिनी और लक्ष्मीदेवी इत्यादि सभी को लेकर चुनार चले जायें। मैं यह बात इस खयाल से नहीं कहता कि यहां आपको दुश्मनों का डर है, नहीं-नहीं, अव्वल तो अब आपका कोई ऐसा दुश्मन ही नहीं रहा, जो रोहतासगढ़ तहखाने का रत्ती-बराबर भी हाल जानता हो, दूसरे, इस तहखाने के कुछ दरवाजे (दीवानखाने वाले एक सदर दरवाजे को छोड़कर) जो गिनती में ग्यारह थे, मैंने अच्छी तरह बन्द कर दिये और उनका हाल तेजसिंह को बता दिया है। मैं समझता हूँ, इनसे ज्यादा रास्ते तहखाने में आने-जाने के लिए नहीं हैं, इतने रास्तों का हाल यहाँ का राजा दिग्विजयसिंह भी न जानता होगा, हाँ कमलिनी जरूर जानती होगी, क्योंकि वह 'रिक्तगन्य' पढ़ चुकी है। यदि आप तहखाने की सैर किया चाहते हैं, तो इस इरादे को अभी रोक दीजिये, कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्द सिंह के आने पर यह काम कीजियेगा, क्योंकि यहाँ का सबसे ज्यादा हाल उन्हीं दोनों भाइयों को मालूम होगा, हाँ बलभद्रसिंह का पता लगाने का उद्योग करना चाहिए और यहाँ के तहखाने की भी अच्छी तरह सफाई हो जानी चाहिए, जिसमें एक भी मुर्दा इसके अन्दर रह न जाये। यदि इन्द्रदेव चाहें तो नकली बलभद्रसिंह को आप इन्द्रदेव के हवाले कर दीजियेगा और असली बलभद्रसिंह तथा इन्दिरा का पता लगाने का बोझ इन्द्रदेव ही के ऊपर डालियेगा। भूतनाथ को भी चाहिए कि इन्द्रदेव के साथ रहकर अपनी खैरख्वाही दिखाये और पुरानी कालिख अपने चेहरे से अच्छी तरह धो डाले नहीं तो उसके हक में अच्छा न होगा, और आप अपने एक ऐयार को हरामखोर नानक की तरफ रवाना कीजिए। मैं आपका ध्यान पुनः मनोरमा की तरफ दिलाता हूँ और कहता हूँ कि तिलिस्मी खंजर का उसके हाथ लग जाना बहुत ही बुरा हुआ। मनोरमा साधारण औरत नहीं है, उसकी तारीफ आप सुन ही चुके होंगे, तिलिस्मी खंजर को पाकर अब वह जो न कर डाले, वही आश्चर्य। उसके कब्जे से खंजर निकालने का शीघ्र उद्योग कीजिये और इस कामको सबसे ज्यादा जरूरी समझिये। इसके अतिरिक्त तेजसिंह की जबानी जो कुछ मैंने कहला भेजा है उस पर भी ध्यान दीजिये।"

इस चिट्ठी को सुनकर सभी को ताज्जुब हुआ। राजा वीरेन्द्रसिंह तो चुप ही रहे, सिर्फ इन्द्रदेव के हाथ से चिट्ठी लेकर तेजसिंह को दे दी और बोले, "सब काम इसी के मुताबिक होना चाहिए।" इसके बाद एक-एक के चेहरे को गौर से देखने लगे। भूतनाथ का चेहरा मारे क्रोध के लाल हो रहा था, नानक की अवस्था और नालायकी पर उसे बड़ा ही रंज हुआ था। लक्ष्मीदेवी के चेहरे पर भी हद से ज्यादा उदासी छाई हुई थी, बाप की फिक्र के साथ-ही-साथ उसे इस बात का बड़ा रंज और ताज्जुब था कि राजा गोपालसिंह ने सब हाल सुनकर भी उसकी कुछ खबर न ली, न तो मिलने के लिए आये और न कोई चिट्ठी ही भेजी। वह हजार सोचती और गौर करती थी, मगर इसका सबब कुछ भी उसके ध्यान में न आता था और न उसका दिल इसी बात को कबूल करता था कि राजा गोपालसिंह उसे इसी अवस्था में छोड़ देंगे। ज्यादा ताज्जुब तो उसे इस बात का था कि राजा गोपालसिंह ने मायारानी के बारे में भी कोई हुक्म नहीं लगाया जिसकी बदौलत वह हद से ज्यादा तकलीफ उठा चुके थे। अब इस खयाल ने उसे और सताना शुरू किया कि हम लोगों को चुनार जाना होगा, जहाँ गोपालसिंह का पहुँचना और भी कठिन है, इत्यादि तरह-तरह की बात वह सोच रही थी और न रुकने वाले आँसूओं को रोकने का जी-जान से उद्योग कर रही थी। कमलिनी का चेहरा भी उदास था, राजा गोपालसिंह के विषय में वह भी तरह-तरह की बातें सोच रही थी और उनसे तथा नानक से स्वयं मिलना चाहती थी, मगर राजा वीरेन्द्रसिंह की मर्जी के खिलाफ कुछ करना भी उचित नहीं समझती थी।

राजा वीरेन्द्रसिंह ने इन्द्रदेव की तरफ देखकर कहा, आप क्या सोच रहे हैं? कृष्ण जिन्न पर मुझे बहुत बड़ा विश्वास है और उसने जो कुछ लिखा है, मैं उसे करने के लिए तैयार हूँ।"

इन्द्रदेव--आप मालिक हैं, आपको हर तरह पर अख्तियार है, जो चाहें करें और मुझे भी जो आज्ञा दें, करने के लिए तैयार हूँ। कृष्ण जिन्न की तो मैंने सूरत भी नहीं देखी है इसलिए उनके विषय में कुछ भी नहीं कह सकता, मगर मुझे अफसोस इस बात का है कि मैं यहाँ आकर कुछ भी न कर सका, न तो बलभद्रसिंह ही का पता लगा और न इन्दिरा के विषय में ही कुछ मालूम हुआ।

वीरेन्द्रसिंह--नकली बलभद्र सिंह जब तुम्हारे कब्जे में हो जाएगा, तो मैं उम्मीद करता हूँ कि तुम इन दोनों ही का पता लगा सकोगे और कृष्ण जिन्न के लिखे मुताबिक मैं नकली बलभद्रसिंह को तुम्हारे हवाले करने के लिए तैयार हूँ। मैं तुम पर भी बहुत विश्वास रखता हूँ और तुम्हें अपना समझता हूँ। अगर कृष्ण जिन्न ने न भी लिखा होता और तुम नकली बलभद्रसिंह को मांगते तो भी मैं तुम्हें दे देता, अब भी अगर तुम मायारानी या दारोगा को लेना चाहो तो मैं देने को तैयार हूँ, केवल इतना ही नहीं, इसके अतिरिक्त तुम अगर और भी कोई बात कहो तो करने के लिए तैयार हूं।

राजा वीरेन्द्रसिंह की बात सुनकर इन्द्रदेव उठ खड़ा हुआ और झुककर सलाम करने के बाद हाथ जोड़ कर बोला, "यह जानकर बहुत ही प्रसन्न हुआ कि महाराज मुझ पर विश्वास रखते हैं और नकली बलभद्रसिंह को मेरे हवाले करने के लिए तैयार हैं तथा और भी जिसे मैं चाहूँ ले जाने की प्रार्थना कर सकता हूँ। यदि महाराज की मुझ पर इतनी ही कृपा है तो मैं कह सकता हूँ कि सिवाय नकली बलभद्रसिंह के और किसी कैदी को ले जाना नहीं चाहता, मगर लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाड़िली को अपने साथ ले जाने की प्रार्थना करता हूँ। अपनी धर्म की प्यारी लड़की लक्ष्मीदेवी पर बहुत स्नेह रखता हूँ और अभी बहुत कुछ उसके हाथ से (रुककर) हाँ, तो यदि महाराज मुझ पर विश्वास कर सकते हैं, तो इन लोगों को और उस कलमदान को मुझे दे दें, जिस पर 'इन्दिरा' लिखा हुआ है। भूतनाथ के कागजात अपने साथ लेते जायें, मैं असली बलभद्रसिंह का पता लगाकर सेवा में उपस्थित हो जाऊँगा और उस समय अपने सामने भूतनाथ के मुकदमे का फैसला कराऊँगा। आप भूतनाथ को आज्ञा दें कि कृष्ण जिन्न ने उसके विषय में जो कुछ लिखा है उसे नेकनीयती के साथ पूरा करें।"

इन्द्रदेव की बात सुनकर राजा वीरेन्द्रसिंह गौर में पड़ गये। वे लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाड़िली को अपने साथ चुनार ले जाना चाहते थे और कृष्ण जिन्न ने भी ऐसा करने को लिखा था, मगर इन्द्रदेव की अर्जी भी नामंजूर नही कर सकते थे क्योंकि इन्द्रदेव का लक्ष्मीदेवी पर हक था और उसी ने लक्ष्मीदेवी की रक्षा की थी। कमलिनी और लाडिली पर राजा वीरेन्द्रसिंह का कोई अधिकार न था क्योंकि वे बिल्कुल स्वतन्त्र थीं। वीरेन्द्रसिंह ने कुछ देर तक गौर करने के बाद इन्द्रदेव से कहा, "मुझे कुछ उज्र नहीं है, लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाड़िली यदि आपके साथ रहने में प्रसन्न हैं तो आप उन्हें ले जायें और वह कलमदान भी आपको मिल जायेगा।"

इन्द्रदेव और राजा वीरेन्द्रसिंह की बातें सुनकर लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाडिली बहुत प्रसन्न हुईं और हाथ जोड़कर राजा वीरेन्द्रसिंह से बोली, "हम लोग अपने धर्म के पिता इन्द्रदेव के घर जाने में बहुत प्रसन्न हैं, वहां हमें अपने बाप का पता लगने का हाल बहुत जल्द मिलेगा।"

वीरेन्द्र सिंह--बहुत अच्छा, (तेजसिंह से) वह कलमदान इन्द्रदेव को दे दो और इन लोगों के तथा नकली बलभद्रसिंह के जाने का बन्दोबस्त करो। हम भी आज चुनारगढ़ की तरफ कूच करेंगे। भैरोंसिंह को मनोरमा की गिरफ्तारी के लिए रवाना करो और तारासिंह को नानक के घर भेजो। (देवीसिंह की तरफ देखकर) एक बहुत ही नाजुक काम तुम्हारे सुपुर्द करने की इच्छा है जो तुम्हारे कान में कहेंगे।

देवीसिंह राजा वीरेन्द्रसिंह के पास चले गये और उनकी तरफ सिर झुका दिया। वीरेन्द्रसिंह ने देवीसिंह के कान में कहा, "लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाडिली की निगहवानी तुम्हारे जिम्मे, मगर गुप्त।"

देवीसिंह सलाम करके पीछे हट गये और दरबार बरखास्त हो गया।