चन्द्रकांता सन्तति 4/15.1

विकिस्रोत से
चंद्रकांता संतति भाग 4  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

[ १३५ ] [ १३६ ]उन लाशों को देखने के लिए जमा हो गये थे। उस समय मैंने बेईमान और विश्वासघाती दारोगा को बुलाने के लिए आदमी भेजा मगर उस आदमी ने वापस आकर कहा कि दारोगा साहब छत पर से गिर कर जख्मी हो गए हैं, सिर फट गया है और उठने लायक नहीं हैं। मैंने उस बात को सच मान लिया था, लेकिन वास्तव में दारोगा भी उस सभा में जख्मी हुआ था जिसमें मेरे खजांची ने जान दी थी। मगर अफसोस, मेरी किस्मत में तो तरह-तरह की तकलीफें बदी हई थीं, मैं उस दुष्ट की तरफ से क्योंकर होशियार होता। (इन्दिरा से) खैर, तुम आगे का हाल कहो, यह सब तुम्हारी ही जबान से अच्छा मालूम होता है।

इन्दिरा--हाँ, तो अब मैं संक्षेप ही में यह किस्सा बयान करती हूँ। तीनों लाशे ठिकाने पहुँचा दी गईं और राजा साहब मेरे पिता का हाथ थामे यह कहते हुए महल के अन्दर चले कि "चलो सरयू से पूछे कि वह क्योंकर उन दुष्टों के फन्दे में फंस गई था और उस सभा में कौन-कौन आदमी शरीक थे शायद उसने सभी को बिना नकाब के देखा हो।" मगर जब महल में गये तो मालूम हआ कि सरयू यहाँ आई ही नहीं। यह सुनते ही राजा साहब घबरा गये और बोल उठे, "क्या हमारे यहाँ के सभी आदमी उस कमेटी से मिले हुए हैं!"

गोपालसिंह--उस समय तो मैं पागल सा हो गया था, कुछ भी अक्ल काम नहीं करती थी और यह किसी तरह मालूम नहीं होता था कि हमारे यहाँ कितने आदमी विश्वास करने योग्य हैं और कितने उस कमेटी से मिले हए हैं। जिन तीन विश्वासा आदमियों के साथ मैंने सरयू को महल में भेजा था, वे तीनों आदमी भी गायब हो गए थे। मुझे तो विश्वास हो गया था कि मेरी और इन्द्रदेव की जान भी न बचेगी मगर वाह रे इन्द्रदेव, उसने अपने दिल को खूब ही सम्हाला और बड़ी मुस्तैदी और बुद्धिमानी स महीने भर के अन्दर बहुत से आदमियों का पता लगाया जो मेरे ही नौकर होकर उस कमेटी में शरीक थे और मैंने उन सभी को तोप के आगे रखकर उड़वा दिया और सर तो यह है कि उसी दिन से वह गुप्त कमेटी टूट गई और फिर कायम नहीं हुई।

इन्दिरा--जिस समय मेरे पिता को मालम हआ कि मेरी माँ महल के अन्दर नहीं पहुँची, बीच ही में गायब हो गई, उस समय उन्हें बड़ा ही रंज हआ और वे अपन घर जाने के लिए तैयार हो गये। उन्होंने राजा साहब से कहा कि मैं पहले घर जाकर यह मालूम किया चाहता हूँ कि वहाँ से केवल मेरी स्त्री ही को दुश्मन लोग ले गए थे या मेरी लडकी इन्दिरा को भी। मगर मेरे पिता घर की तरफ न जा सके, क्योंकि उसी समय घर से एक दूत आ पहुंचा और उसने इत्तिला दी कि सरयू और इन्दिरा दोनों यकायक गायब हो गई। इस खबर को सुनकर मेरे पिता और भी उदास हो गए। फिर भी उन्होंने बड़ी कारीगरी से दुश्मनों का पता लगाना आरम्भ किया और बहुतों को पकड़ा भी, जैसा कि अभी राजा साहब कह चुके हैं।

इन्द्रजीत सिंह--क्या तुम दोनों को दुश्मनों ने गिरफ्तार कर लिया था ?

इन्दिरा--जी हाँ।

आनन्दसिंह--अच्छा तो पहले अपना और अपनी माँ का हाल कहो कि किस [ १३७ ]तरह दुश्मनों के फन्दे में फंस गई?

इन्दिरा--जो आज्ञा। यह तो मैं कह ही चुकी हूँ कि मेरे पिता जब जमानिया में आये तो अपने दो ऐयारों को साथ लाये थे, जो दुश्मनों का पता लगाते ही लगाते गायब हो गये थे।

इन्द्रजीत सिंह--हाँ, कह चुकी हो, अच्छा तब ?

इन्दिरा-इन्हीं दोनों ऐयारों की सूरत बनाकर दुश्मनों ने हम लोगों को धोखा दिया।

इन्द्रजीत सिंह--दुश्मन उस मकान के अन्दर गये कैसे ? तुम कह चुकी हो कि . वहाँ का रास्ता बहुत टेढ़ा और गुप्त है?

इन्दिरा--ठीक है, मगर कम्बख्त दारोगा उस रास्ते का हाल बखूबी जानता था और वही उस कमेटी का मुखिया था। ताज्जुब नहीं कि उसी ने उन आदमियों को भेजा हो।

इन्द्रजीतसिंह ठीक है, निःसन्देह ऐसा ही हुआ होगा, फिर क्या हुआ? उन्होंने क्योंकर तुम लोगों को धोखा दिया?

इन्दिरा--संध्या का समय था जब मैं अपनी माँ के साथ उस छोटे से नजरबाग में टहल रही थी जो बंगले के बगल ही में था। यकायक मेरे पिता के वे ही दोनों ऐयार वहाँ आ पहुँचे जिन्हें देख मेरी माँ बहुत खुश हुई और देर तक जमानिया का हालचाल पूछती रही। उन ऐयारों ने ऐसा बयान किया, "इन्द्रदेवजी ने तुम दोनों को जमानिया बुलाया है हम लोग रथ लेकर आये हैं, मगर साथ ही इसके उन्होंने यह भी कहा है कि यदि वे खुशी से आना चाहें तो ले आना नहीं तो लौट आना।" मेरी माँ को जमानिया पहुँचकर अपनी मां को देखने की बहुत ही लालसा थी, वह कब देर करने वाली थी, तुरन्त ही राजी हो गयी और घण्टे भर के अन्दर ही सब तैयारी कर ली। ऐयार लोग मातबर समझे ही जाते हैं अस्तु ज्यादा खोज करने की कोई आवश्यकता न समझी, केवल दो लौंडियों को और मुझे साथ लेकर चल पडी, कलमदान भी साथ ले लिया। हमारे दूसरे ऐयारों ने भी कुछ मना न किया क्योंकि वे भी धोखे में पड़ गये थे और उन ऐयारों को सच्चा समझ बैठे थे। आखिर हम लोग खोह के बाहर निकले और पहाडी के नीचे उतरने की नीयत से थोड़ी ही दूर आगे बढ़े थे कि चारों तरफ से दस-पन्द्रह दुश्मनों ने घेर लिया। अब उन ऐयारों ने भी रंगत पलटी, मुझे और मेरी मां को जबर्दस्ती बेहोशी की दवा सुंघा दी। हम दोनों तुरन्त ही बेहोश हो गईं। मैं नहीं कह सकती कि दोनों लौंडियों की क्या दुर्दशा हुई। मगर जब मैं होश में आई तो अपने को एक तहखाने में कैद पाया और अपनी माँ को अपने पास देखा जो मेरे पहले ही होश में आ चुकी थी और मेरा सिर गोद में लेकर रो रही थी। हम लोगों के हाथ-पैर खुले हुए थे, जिस कोठरी में हम लोग कैद थे, वह लम्बी-चौड़ी थी और सामने की तरफ दरवाजे की जगह लोहे का जंगला लगा हुआ था। जंगले के बाहर दालान था और उसमें एक तरफ चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थीं तथा सीढ़ी के बगल ही में एक आले के ऊपर चिराग जल रहा था। मैं पहले बयान कर चुकी हूँ कि उन दिनों जाड़े का मौसम था। इसलिए हम लोगों को [ १३८ ]गर्मी की तकलीफ न थी। जब मैं होश में आई, मेरी माँ ने रोना बन्द किया और मुझे बड़ी देर तक धीरज और दिलासा देने के बाद बोली, "बेटी, अगर कोई तुझसे उस कलमदान के बारे में कुछ पूछे तो कह देना कि कलमदान खोला जा चुका है। मगर मैं उसके अन्दर का हाल नहीं जानती। हाँ, मेरी माँ तथा और भी कई आदमी उसका भेद जान चुके हैं। अगर उन आदमियों का नाम पूछे तो कह देना कि मैं नाम नहीं जानती, मेरी माँ को मालूम होगा।" मैं यद्यपि लड़की थी, मगर समझ-बूझ बहुत थी और उस बात को मेरी माँ ने कई दफे अच्छी तरह समझा दिया था। मेरी मां ने कलमदान के विषय में ऐसा कहने के लिए मुझसे क्यों कहा सो मैं नहीं जानती। शायद उससे और दुष्टों से पहले कुछ बातचीत हो चुकी हो। मगर मुझे जो कुछ माँ ने कहा था उसे मैंने अच्छी तरह निबाहा। थोड़ी देर के बाद पाँच आदमी उसी सीढ़ी की राह से धड़धड़ाते हुए नीचे उतर आए और मेरी मां को जबर्दस्ती ऊपर ले गए। मैं जोर-जोर से रोती और चिल्लाती रह गई, मगर उन लोगों ने मेरा कुछ भी खयाल न किया और अपना काम करके चले गए।

मैं उन लोगों की सूरत-शक्ल के बारे में कुछ भी नहीं कह सकती। क्योंकि वे लोग नकाब से अपने चेहरे छिपाये हुए थे। थोड़ी देर के बाद फिर एक नकाबपोश मेरे पास आया, जिसके कपड़े और कद पर खयाल करके मैं कह सकती हूँ कि वह उन लोगों में से नहीं था जो मेरी माँ को लेकर गए थे बल्कि वह कोई दूसरा ही आदमी था। वह नकाबपोश मेरे पास बैठ गया और मुझे धीरज और दिलासा देता हुआ कहने लगा कि "मैं तुझे इस कैद से छुड़ाऊँगा।" मुझे उसकी बातों पर विश्वास हो गया और इसके बाद वह मुझसे बातचीत करने लगा।

नकाबपोश--क्या तुझे उस कमलदान के अन्दर का हाल पूरा-पूरा मालूम है ?

मैं--नहीं। नकाबपोश—क्या तेरे सामने कलमदान खोला नहीं गया था?

मैं--खोला गया था, मगर उसका हाल मुझे नहीं मालूम, हाँ मेरी माँ तथा और कई आदमियों को मालूम है, जिन्हें मेरे पिता ने दिखाया था।

नकाबपोश--उन आदमियों के नाम तू जानती है?

मैं---नहीं। उसने कई दफे कई तरह से उलट-फेर कर पूछा, मगर मैंने अपनी बातों में फर्क न डाला, और तब मैंने उससे अपनी मां का हाल पूछा लेकिन उसने कुछ भी न बताया और मेरे पास से उठकर चला गया। मुझे खूब याद है कि उसके दो पहर बाद मैं जब प्यास के मारे बहत दुःखी हो रही थी, तब फिर एक आदमी मेरे पास आया। वह भी अपने चेहरे को नकाब से छिपाये हुए था। मैं डरी और समझी कि फिर उन्हीं कम्बख्तों में से कोई मुझे सताने के लिए आया है, मगर वह वास्तव में गदाधरसिंह थे और मुझे उस कैद से छडाने के लिए आए थे। यद्यपि मुझे उस समय यह खयाल हुआ कि कहीं यह भी उन दोनों ऐयारों की तरह मुझे धोखा न देते हों जिनकी बदौलत मैं घर से निकल कर कैदखाने में पहुंची थी। मगर नहीं, वे वास्तव में गदाधरसिंह ही थे और उन्हें मैं [ १३९ ]अच्छी तरह पहचानती थी। उन्होंने मुझे गोद में उठा लिया और तहखाने के ऊपर निकल कई पेचीले रास्तों से घूमते-फिरते मैदान में पहुंचे। वहां उनके दो आदमी एक घोड़ा लिए तैयार थे। गदाधरसिंह मुझें लेकर घोड़े पर सवार हो गए, अपने आदमियों को ऐयारी भाषा में कुछ कहकर बिदा किया, और खुद एक तरफ रवाना हो गए। उस समय रात बहुत कम बाकी थी और सवेरा हुआ चाहता था। रास्ते में मैंने उनसे अपनी मां का हाल पूछा, उन्होंने उसका कुल हाल अर्थात् मेरी माँ का उस सभा में पहुँचना, मेरे पिता का भी कैद होकर वहाँ जाना, कलमदान की लूट, तथा मेरे पिता का अपनी स्त्री को लेकर निकल जाना बयान किया और यह भी कहा कि कलमदान को लूट कर ले भागने वाले का पता नहीं लगा। लगभग चार-पाँच कोस चले जाने के बाद वे एक छोटी-सी नदी के किनारे पहुँचे, जिनमें घुटने बराबर से ज्यादा जल न था। उस जगह गदाधरसिंह घोड़े से नीचे उतरे और मुझे भी उतारा, खुर्जी से से कुछ मेवा निकाल कर मुझे खाने को दिया। मैं उस समय बहुत भूखी थी। अस्तु मेवा खाकर पानी पिया, इसके बाद वह फिर मुझे लेकर घोड़े पर सवार हुए और नदी पार होकर एक तरफ को चल निकले। दो घण्टे तक घोड़े को धीरे-धीरे चलाया और फिर तेज किया। दो पहर दिन के समय हम लोग एक पहाड़ी के पास पहुंचे जहाँ बहुत ही गुंजान जंगल था और गदाधरसिंह के चार-पांच आदमी भी वहाँ मौजूद थे। हम लोगों के पहुँचते ही गदाधरसिंह के आदमियों ने जमीन पर कम्बल बिछा दिया, कोई पानी लेने के लिए चला गया, कोई घोड़े को ठंडा करने लगा और कोई रसोई बनाने की धुन में लगा, क्योंकि चावल, दाल इत्यादि उन आदमियों के पास मौजूद था। गदाधरसिंह भी मेरे पास बैठ गये और अपने वटुए में से कागज-कलम-दवात निकाल कर कुछ लिखने लगे। मेरे देखते-ही-देखते तीनचार घण्टे तक गदाधरसिंह ने बटुए में से कई कागजों को निकालकर पढ़ा और उनकी नकल की, तब तक रसोई भी तैयार हो गई। हम लोगों ने भोजन किया और जब विछावन पर आकर बैठे तो गदाधरसिंह ने फिर उन कागजों को देखना और नकल करना शुरू किया। मैं रात भर की जगी हुई थी, इसलिए मुझे नींद आ गई। जब मेरी आँखें खुली तो घण्टे भर रात जा चुकी थी। उस समय गदाधरसिंह फिर मुझे लेकर घोड़े पर सवार हुए और अपने आदमियों को कुछ समझा-बुझा कर रवाना हो गये। दो-तीन घण्टे रात बाकी थी, जब हम लोग लक्ष्मीदेवी के बाप बलभद्रसिंह के मकान पर जा पहुंचे। वलभद्रसिंह में और मेरे पिता में बहुत मित्रता थी। इसलिए गदाधरसिंह ने मुझे वहीं पहुँचा देना उत्तम समझा। दरवाजे पर पहुँचने के साथ ही बलभद्रसिंहजी को इत्तिला करवाई गई। यद्यपि वे उस समय गहरी नींद में सोये हुए थे, मगर सुनने के साथ ही निकल आए और बड़ी खातिरदारी के साथ मुझे और गदाधरसिंह को घर के अन्दर अपने कमरे में ले गए जहाँ सिवाय उनके और कोई भी न था। बलभद्रसिंह ने मेरे सिर पर हाथ फेरा और बड़े प्यार से अपनी गोद में बैठा कर गदाधरसिंह से हाल पूछा। गदाधरसिंह ने सब हाल, जो मैं बयान कर चुकी हूँ, उनसे कहा और इसके बाद नसीहत की कि "इन्दिरा को बड़ी हिफाजत से अपने पास रखिये, जब तक दुश्मनों का अन्न न हो जाय, तब तक इसका प्रकट होना उचित नहीं है, मैं फिर जमानिया जाता हूँ और देखता हूँ कि [ १४० ]वहाँ क्या हाल है। इन्द्रदेव से मुलाकात होने पर मैं इन्दिरा को यहाँ पहुँचा देना बयान कर दूंगा।" बलभद्रसिंह ने बहुत ही प्रसन्न होकर गदाधरसिंह को धन्यवाद दिया और वे थोड़ी देर तक बातचीत करने के बाद सवेरा होने के पहले ही वहाँ से रवाना हो गये। गदाधरसिंह के चले जाने के बाद बलभद्रसिंहजी मुझसे बातचीत करते रहे और सवेरा हो जाने पर मुझे लेकर घर के अन्दर गए। उनकी स्त्री ने मुझे बड़े प्यार से गोद में ले लिया और लक्ष्मीदेवी ने तो मेरी ऐसी कदर की जैसे कोई अपनी जान की कदर करता है। मुझे वहाँ बहुत दिनों तक रहना पड़ा था। इसलिए मुझसे और लक्ष्मीदेवी से हद से ज्यादा मुहब्बत हो गई थी। मैं बड़े आराम से उनके यहां रहने लगी। मालूम होता है कि गदाधरसिंह ने जमानिया में जाकर मेरे पिता से मेरा सब हाल कहा क्योंकि थोड़े ही दिन बाद मेरे पिता मुझ को देखने के लिए बलभद्र सिंह के यहाँ आये और उस समय उनकी जुबानी मालूम हुआ कि मेरी मां पुनः मुसीबत में गिरफ्तार हो गई अर्थात् महल में पहुँचने के साथ ही गायब हो गई। मैं अपनी माँ के लिए बहुत रोई। मगर मेरे पिता ने मुझे दिलासा दिया। केवल एक दिन रहकर मेरे पिता जमानिया की तरफ चले गए और मुझे वहाँ ही छोड़ गए।

मैं कह चुकी हूँ कि मुझसे और लक्ष्मीदेवी से बड़ी मुहब्बत हो गई थी। इसीलिए मैंने अपने नाना साहब और कलमदान का कुल हाल उससे कह दिया था और यह भी कह दिया था कि उस कलमदान पर तीन तस्वीरें बनी हुई हैं, दो को तो मैं नहीं जानती, मगर बिचली तस्वीर मेरी है और उसके नीचे मेरा नाम लिखा हुआ है। जमानिया जाकर मेरे पिता ने क्या-क्या काम किया, सो मैं नहीं कह सकती। परन्तु यह अवश्य सुनने में आया था कि उन्होंने बड़ी चालाकी और ऐयारी से उन कमेटी वालों का पता लगाया और राजा साहब ने उन सभी को प्राण-दण्ड दिया।

गोपालसिंह--निःसन्देह उन दुष्टों का पता लगाना इन्द्रदेव ही का काम था। जैसी-जैसी ऐयारियाँ इन्द्रदेव ने की वैसी कम ऐयारों को सूझेंगी। अफसोस, उस समय वह कलमदान हाथ न आया, नहीं तो सहज ही में सव दुष्टों का पता लग जाता और यही सबब था कि दुष्टों की सूची में दारोगा, हेलासिंह या जयपालसिंह का नाम न चढ़ा और वास्तव में ये ही तीनों उस कमेटी के मुखिया थे जो मेरे हाथ से बच गये और फिर उन्हीं की बदौलत मैं गारत हुआ।

इन्द्रजीतसिंह--ताज्जुब नहीं कि दारोगा के बारे में इन्द्रदेव ने सूस्ती कर दी हो और गुरुभाई का मुलाहिजा कर गये हों।

गोपालसिंह--यह भी हो सकता है।

आनन्दसिंह--(इन्दिरा से) क्या उस कलमदान के अन्दर का हाल तुम्हें भी मालूम न था?

इन्दिरा--जी नहीं, अगर मुझे मालूम होता तो ये तीनों दुष्ट क्यों बचने पाते? हाँ, मेरी माँ उस कलमदान को खोल चुकी थी और उसे उसके अन्दर का हाल मालूम था, मगर वह तो गिरफ्तार कर ली गई थी फिर उन भेदों को कौन खोलता?

आनन्दसिंह--आखिर उस कलमदान के अन्दर का हाल तुम्हें कब मालूम हआ? [ १४१ ]इन्दिरा--अभी थोड़े ही दिन हुए जब मैं कैदखाने में अपनी माँ के पास पहुंची तो उसने उस कलमदान का भेद बताया था।

आनन्दसिंह--मगर फिर उस कलमदान का पता न लगा?

इन्दिरा--जी नहीं, उसके बाद आज तक उस कलमदान का हाल मुझे मालूम न हुआ। मैं नहीं कह सकती कि उसे कौन ले गया या वह क्या हुआ। हाँ, इस समय राजा साहब की जुबानी सुनने में आया है कि वही कलमदान कृष्ण जिन्न ने राजा वीरेन्द्रसिंह के दरबार में पेश किया था।

गोपालसिंह--उस कलमदान का हाल मैं जानता हूँ। सच तो यह है कि सारा बखेड़ा उस कलमदान ही के सबब से हुआ। यदि वह कलमदान मुझे या इन्द्रदेव को उस समय मिल जाता तो लक्ष्मीदेवी की जगह मुन्दर मेरे घर न आती और मुन्दर तथा दारोगा की बदौलत मेरी गिनती मुर्दो में न होती और न भूतनाथ ही पर आज इतने जुर्म लगाये जाते। वास्तव में उस कलमदान को गदाधरसिंह ही ने उन दुष्टों की सभा में से लूट लिया था जो आज भूतनाथ के नाम से मशहूर है। इसमें कोई शक नहीं कि उसने इन्दिरा की जान बचाई। मगर कलमदान को छिपा दिया गया और उसका हाल किसी से न कहा। बड़े लोगों ने सच कहा है कि "विशेष लोभ आदमी को चौपट कर देता है।" वही हाल भूतनाथ का हुआ। पहले भूतनाथ बहुत नेक और ईमानदार था और आज कल भी वह अच्छी राह पर चल रहा है। मगर बीच में थोड़े दिनों तक उसके ईमान में फर्क पड़ गया था, जिसके लिए आज वह अफसोस कर रहा है। आप इन्दिरा का और हाल सुन लीजिए, फिर कलमदान का भेद मैं आपसे बयान करूँगा।

इन्द्रजीतसिंह--जो आज्ञा। (इन्दिरा से) अच्छा, तुम अपना हाल कहो कि बलभद्रसिंह के यहाँ जाने के बाद फिर तुम पर क्या बीती?

इन्दिरा--मैं बहुत दिनों तक उनके यहाँ आराम से अपने को छिपाए हुए बैठी रही और मेरे पिता कभी-कभी वहाँ जाकर मुझसे मिल आया करते थे। यह मैं नहीं कह सकती कि पिता ने मुझे बलभद्रसिंह के यहाँ क्यों छोड़ रखा था। जब बहुत दिनों के बाद लक्ष्मीदेवी की शादी का दिन आया और बलभद्रसिंहजी लक्ष्मीदेवी को लेकर यहाँ आये तो मैं भी उनके साथ आई। (गोपालसिंह की तरफ इशारा करके) आपने जब मेरे आने की खबर सुनी तो मुझे अपने यहाँ बुलवा भेजा। अस्तु मैं लक्ष्मीदेवी को जो दूसरी जगह टिकी हुई थी, छोड़ कर राजमहल में चली आई। राजमहल में चले आना ही मेरे लिए काल हो गया क्योंकि दारोगा ने मुझे देख लिया और अपने पिता तथा राजा साहब की तरह मैं भी दारोगा की तरफ से बेफिक्र थी। इस शादी में मेरे पिता मौजूद न थे। मुझे इस बात का ताज्जुब हुआ। मगर जब राजा साहब से मैंने पूछा तो मालूम हुआ कि वे बीमार हैं, इसीलिए नहीं आये। जिस दिन मैं राजमहल में आई उसी दिन रात को लक्ष्मीदेवी की शादी थी। शादी हो जाने पर सवेरे जब मैंने लक्ष्मीदेवी की सूरत देखी तो मेरा कलेजा धक से हो गया, क्योंकि लक्ष्मीदेवी के बदले मैंने किसी दूसरी औरत को घर में पाया। हाय उस समय मेरे दिल की जो हालत थी मैं बयान नहीं कर सकती। मैं घबराई हुई बाहर की तरफ दौड़ी। जिसमें राजा साहब को इस बात की खबर दूं [ १४२ ]और इनसे उसका सबब पूछ्। राजा साहब जिस कमरे में थे, उसका रास्ता जनाने महल से मिला हुआ था, अतएव मैं भीतर-ही-भीतर उस कमरे में चली गई, मगर वहाँ राजा साहब के बदले दारोगा को बैठे हुए पाया। मेरी सुरत देखते ही एक दफे दारोगा के चेहरे का रंग उड़ गया मगर तुरन्त ही उसने अपने को सम्हाल कर मुझसे पूछा, "क्यों इन्दिरा, क्या हाल है ? तू इतने दिनों तक कहाँ थी?" मुझे उस चाण्डाल की तरफ से कुछ भी शक न था। इसलिए मैं उसी से पूछ बैठी कि "लक्ष्मीदेवी के बदले में मैं किसी दूसरी औरत को देखती हूँ, इसका क्या सबब है ?" यह सुनते ही दारोगा घबरा उठा और बोला, "नहीं-नहीं, तूने वास्तव में किसी दूसरे को देखा होगा, लक्ष्मीदेवी तो उस बाग वाले कमरे में है। चल, मैं तुझे उसके पास पहुँचा आऊँ !" मैंने खुश होकर कहा कि 'चलो पहुँचा दो !' दारोगा झट उठ खड़ा हुआ और मुझे साथ लेकर भीतर ही भीतर बाग वाले कमरे की तरफ चला। वह रास्ता बिल्कुल एकान्त था, थोड़ी ही दूर जाकर दारोगा ने एक कपड़ा मेरे मुंह पर डाल दिया। ओह, उसमें किसी प्रकार की महक आ रही थी, जिसके सबब दो-तीन दफे से ज्यादा मैं साँस नहीं ले सकी और बेहोश हो गई। फिर मुझे कुछ भी खबर न रही कि दुनिया के परदे पर क्या हुआ या क्या हो रहा है।

गोपालसिंह--इन्दिरा की कथा के सम्बन्ध में गदाधरसिंह (भूतनाथ) का हाल छटा जाता है। क्योंकि इन्दिरा उस विषय में कुछ भी नहीं जानती, इसलिए बयान नहीं कर सकती। मगर बिना उसका हाल जाने किस्से का सिलसिला ठीक न होगा। इसलिए मैं स्वयं गदाधरसिंह का हाल बीच ही में बयान कर देना उचित समझता हैं।

इन्द्रजीतसिंह–-हाँ-हाँ, जरूर कहिये। कलमदान का हाल जाने बिना आनन्द नहीं मिलता।

गोपालसिंह--उस गुप्त सभा में यकायक पहुँच कर कलमदान को लूटने वाला वही गदाधरसिंह था। उसने कलमदान को खोल डाला और उसके अन्दर जो कुछ कागजात थे, उन्हें अच्छी तरह पढ़ा। उसमें एक तो वसीयतनामा था जो दामोदरसिह ने इन्दिरा के नाम लिखा था और उसमें अपनी कुल आयदाद का मालिक इन्दिरा का दी बनाया था। इसके अतिरिक्त और सब कागज उसी गुप्त कमेटी के और सब सभासदों के नाम लिखे हुए थे, साथ ही इसके एक कागज दामोदरसिंह ने अपनी तरफ स कमेटी के विषय में लिख कर रख दिया था। जिसके पढ़ने से मालूम हुआ कि दामोदरसिंह उस सभा के मंत्री थे, दामोदरसिंह के खयाल से वह वह सभा अच्छे कामा के लिए स्थापित हुई थी और उन आदमियों को सजा देना उसका काम था जिन्हें मेरे पिता दोष साबित होने पर भी प्राण-दण्ड न देकर केवल अपने राज्य से निकाल दिया करते थे और ऐसा करने से रिआया में नाराजी फैलती जाती थी। कुछ दिनों के बाद उस सभा में बेईमानी शुरू हो गई और उसके सभासद लोग उसके जरिए से रुपया पैदा करने लगे, तभी दामोदरसिंह को भी उस सभा से घृणा हो गई। परन्तु नियमानुसार वह उस सभा को छोड़ नहीं सकते थे और छोड़ देने पर उसी सभा द्वारा प्राण जाने का भय था। एक दिन दारोगा ने सभा में प्रस्ताव किया कि बड़े महाराज को मार डालना चाहिए। इस प्रस्ताव का दामोदरसिंह ने अच्छी तरह खण्डन किया। मगर दारोगा की [ १४३ ]बात सबसे भारी समझी जाती थी। इसलिए दामोदरसिंह की किसी ने भी न सुनी और बड़े महाराज को मारना निश्चय हो गया। ऐसा करने में दारोगा और रघुबरसिंह का फायदा था क्योंकि वे दोनों आदमी लक्ष्मीदेवी के बदले में हेलासिंह की लड़की मुन्दर के साथ मेरी शादी करना चाहते थे और बड़े महाराज के रहते यह बात बिल्कुल असम्भव थी। आखिर दामोदरसिंह ने अपनी जान का कुछ खयाल न किया और सभा-सम्बन्धी मुख्य कागज और सभा के सभासदों (मेम्बरों) का नाम तथा अपना वसीयतनामा लिख कर कलमदान में बन्द किया और कलमदान अपनी लड़की के हवाले कर दिया जैसा कि आप इन्दिरा की जुबानी सुन चुके हैं। जब गदाधरसिंह को सभा का पूरा हाल, जितने आदमियों को सभा मार चुकी थी, उनके नाम और सभा के मेम्बरों के नाम मालूम हो गये, तब उसे लालच ने घेरा और उसने सभा के सभासदों से रुपये वसूल करने का इरादा किया। कलमदान में जितने कागज थे, उसने सभी की नकल ले ली और असल कागज तथा कलमदान कहीं छिपा कर रख आया। इसके बाद गदाधरसिंह दारोगा के पास गया और उससे एकान्त में मुलाकात करके बोला कि "तुम्हारी गुप्त सभा का हाल अब खुलना चाहता है और तम लोग जहन्नम में पहुँचना चाहते हो। वह दामोदरसिंह वाला कलमदान तुम्हारी सभा से लूट ले जाने वाला मैं ही हूँ, और मैंने उस कलमदान के अन्दर का बिल्कुल हाल जान लिया। अब वह कलमदान मैं तुम्हारे राजा साहब के हाथ में देने के लिए तैयार हूँ। अगर तुम्हें विश्वास न हो तो इन कागजों को देखो जो मैं अपने हाथ से नकल करके तुम्हें दिखाने के लिए ले आया हूँ।"

इतना कहकर गदाधरसिंह ने वे कागज दारोगा के सामने फेंक दिये। दारोगा के तो होश उड़ गये और मौत भयानक रूप से उसकी आँखों के सामने नाचने लगी। उसने चाहा कि किसी तरह गदाधरसिंह को खपा (मार) डाले, मगर यह बात असम्भव थी। क्योंकि गदाधरसिंह बहुत ही काइयां और हर तरह से होशियार तथा चौकन्ना था, अतएव सिवाय उसे राजी करने के दारोगा को और कोई बात न सूझी। आखिर बीस हजार अशर्फी चार रोज के अन्दर दे देने के वादे पर दारोगा ने अपनी जान बचाई और कलमदान भूतनाथ से मांगा, भूतनाथ ने बीस हजार अशर्फी लेकर दारोगा की जान छोड़ देने का वादा किया और कलमदान देना भी स्वीकार किया, अतः दारोगा ने उतने ही को गनीमत समझा और चार दिन के बाद बीस हजार अशर्फी गदाधरसिंह को अदा करके आप पूरा कंगाल बन बैठा। इसके बाद गदाधरसिंह ने और मेम्बरों से भी कुछ वसूल किया और कलमदान दारोगा को दे दिया, मगर दारोगा से इस बात का इकरारनामा लिखा लिया कि वह किसी ऐसे काम में शरीक न होगा और न खुद ऐसा काम करेगा जिसमें इन्द्रदेव, सरयू, इन्दिरा और मुझ (गोपालसिंह)को किसी तरह का नुकसान पहुँचे। इन सब कामों से छुट्टी पाकर गदाधरसिंह दारोगा से अपने घर के लिए विदा हुआ, मगर वास्तव में वह फिर भी घर न गया और भेष बदल कर इसलिए जमानिया में घूमने लगा कि रघुबरसिंह के भेदों का पता लगाये जो बलभद्रसिंह के साथ विश्वासघात करने वाला था। वह फकीरी सूरत में रोज रघुबरसिंह के यहां आकर नौकरों और सिपाहियों में बैठने और हेलमेल बढ़ाने लगा। थोड़े ही दिनों में उसे मालूम हो गया कि रघुबरसिंह [ १४४ ]अभी तक हेलासिंह से पत्र-व्यवहार करता है और पत्र ले जाने और ले आने का काम केवल बेनीसिंह करता है जो रघुबरसिंह का मातबर सिपाही है। जब एक दफे बेनीसिंह देलासिंह के यहाँ गया तो गदाधरसिंह ने उसका पीछा किया और मौका पाकर उसे गिरफ्तार करना चाहा, लेकिन वेनीसिंह इस बात को समझ गया और दोनों में लडाई हो गई। गदाधरसिंह के हाथ से बेनीसिंह मारा गया और गदाधरसिंह, बेनीसिंह बनकर रघवरसिंह के यहां रहने तथा हेलासिंह के यहाँ पत्र लेकर जाने और जवाब ले आने लगा। इस हीले से तथा कागजों की चोरी करने से थोड़े ही दिनों में रघुबर सिंह का सब भेद उसे मालूम हो गया और तब उसने अपने को रघुबरसिंह पर प्रकट किया, लाचार हो रघुबरसिंह ने भी उसे बहुत-सा रुपया देकर अपनी जान बचाई, यह किस्सा बहुत बड़ा है और इसका पूरा-पूरा हाल मुझे भी मालूम नहीं है, जब भूतनाथ अपना किस्सा आप बयान करेगा, तब पूरा हाल मालूम होगा, फिर भी मतलब यह कि उस कलमदान की बदौलत भूतनाथ ने रुपया भी बहुत पैदा किया और साथ ही अपने दुश्मन भी बहुत बनाये जिसका नतीजा वह अब भोग रहा है और कई नेक काम करने पर भी उसकी जान को अभी तक छुट्टी नहीं मिलती। केवल इतना ही नहीं, जब भूतनाथ असली बलभद्रसिंह का पता लगावेगा, तब और भी कई विवित्र बातों का पता लगेगा, मैंने तो सिर्फ इन्दिरा के किस्से का सिलसिला बैठाने के लिए बीच ही में इतना बयान कर दिया है।

इन्द्रजीतसिंह--यह सब हाल आपको कब और कैसे मालूम हुआ ? गोपाल सिंह-जब आपने मुझे कैद से छुड़ाया उसके बाद हाल ही में ये सब बातें मुझे मालूम हुई हैं, और जिस तरह मालूम हुईं, सो अभी कहने का मौका नहीं। अब आप इन्दिरा का किस्सा सुनिये, फिर जो कुछ शंका रहेगी, उसके मिटाने का उद्योग किया जायगा।

इन्दिरा--जो आज्ञा ! दारोगा ने फिर मुझे बेहोश कर दिया और जब मैं होश में आई तो अपने को एक लम्बे-चौड़े कमरे में पाया ! मेरे हाथ-पैर खुले हुए थे और वह कमरा भी बहत साफ और हवादार था। उसके दो तरफ की लकड़ी की दीवार थी और एक तरफ की ईंट और चूने से बनी हुई थी। एक तरफ की दीवार में दो दरवाजे थे और दूसरी तरफ की पक्की दीवार में छोटी-छोटी तीन खिड़कियाँ बनी हुई थीं जिनमें से हवा बखबी आ रही थी। मगर वे खिड़कियां इतनी ऊँची थीं कि उन तक मेरा हाथ नहीं जा सकता था। बाकी दोनों तरफ की दीवारों में, जो लकड़ी की थीं, तरह-तरह की सुन्दर और बड़ी तस्वीरें बनी हुई थीं और छत में दो रोशनदान थे जिनमें से सूर्य की चमक आ रही थी तथा उस कमरे में अच्छी तरह उजाला हो रहा था। एक तरफ की पक्की दीवार में दो दरवाजे थे, उनमें से एक दरवाजा खुला हुआ और दूसरा बन्द था। मैं जब होश में आई तो अपना सिर किसी की गोद में पाया। मैं घबराकर उठ बैठी और उस औरत की तरफ देखने लगी जिसकी गोद में मेरा सिर था। वह मेरे ननिहाल की वही दाई थी जिसने मुझे गोद में खिलाया था और जो मुझे बहुत प्यार करती थी। यद्यपि मैं कैद में थी और माँ-बाप की जुदाई में अधमरी हो रही थी, फिर भी अपनी दाई को देखते ही

च० स०-4-9

[ १४५ ]थोड़ी देर के लिए सब दुःख भूल गई और ताज्जुब के साथ मैंने उस दाई से पूछा, "अन्ना, तू यहाँ कैसे आई ?' (मैं अपनी दाई को 'अन्ना' कह के पुकारा करती थी।)

अन्ना--बेटी, मैं यह तो नहीं जानती कि तू यहाँ कब से है, मगर मुझे आये अभी दो घण्टे से ज्यादा नहीं हुए हैं। मुझे कम्बख्त दारोगा ने धोखा देकर गिरफ्तार कर लिया और बेहोश करके यहाँ पहुँचा दिया, मगर इस जगह तुझे देखकर मैं अपना दुःख बिल्कुल भूल गई। तू अपना हाल तो बता कि यहाँ कैसे आई ?

मैं--मुझे भी कम्बख्त दारोगा ने ही बेहोश करके यहाँ तक पहुँचाया है। राजा गोपालसिंहजी की शादी हो गयी। मगर जब मैंने अपनी प्यारी लक्ष्मीदेवी के बदले में किसी दूसरी औरत को वहाँ देखा तो घबराकर इसका सबब पूछने के लिए राजा साहब के पास गई, मगर उनके कमरे में केवल दारोगा बैठा हुआ था, मैं उसी से पूछ बैठी। बस यह सुनते ही वह मेरा दुश्मन हो गया, धोखा देकर दूसरे मकान की तरफ ले चला और रास्ते में एक कपड़ा मेरे मुंह पर डालकर बेहोश कर दिया। उसके बाद की मुझे कुछ भी खबर नहीं है। दारोगा ने तुझे क्या कहकर कैद किया?

अन्ना--मैं एक काम के लिए बाजार में गई थी। रास्ते में दारोगा का नौकर मिला। उसने कहा कि इन्दिरा दारोगा साहब के घर में आई है, उसने मुझे तुझको बुलाने के लिए भेजा है और बहुत ताकीद की है कि खड़े-खड़े सुनती जाओ। तो उसकी बात सच समझ उसी वक्त दारोगा के घर चली गई, मगर उस हरामजादे ने मेरे साथ भी बेईमानी की, बेहोशी की दवा मुझे जबर्दस्ती सुंघाई। मैं नहीं कह सकती कि एक घण्टे तक बेहोश रही या एक दिन तक, पर जब मैं यहाँ पहुँची तब मैं होश में आई, उस समय केवल दारोगा नंगी तलवार लिए सामने खड़ा था। उसने मुझसे कहा, "देख, तू वास्तव में इन्दिरा के पास पहुंचाई गई है। लड़की कैदखाने में रहने योग्य नहीं है, इसलिए तू भी इसके साथ कैद की जाती है और तुझे हुक्म दिया जाता है कि हर तरह इसकी खातिर और तसल्ली करना और जिस तरह हो, इसे खिलाना-पिलाना। देख, उस कोने में खाने-पीने का सब सामान रखा है।"

मैं--मेरी नानी का क्या हाल है ? असोस, मैं तो उससे मिल भी न सकी, अब इस आफत में फंस गई !

अन्ना--तेरी नानी का मैं क्या हाल बताऊँ, वह तो नाममात्र को जीती है, अब उसका बचना कठिन है।

अन्ना की जुबानी अपनी नानी का हाल सुन के मैं बहुत रोई-कलपी। अन्ना ने मुझे बहुत समझाया और धीरज देकर कहा कि ईश्वर का ध्यान कर, उसकी कृपा से हम लोग जरूर इस कैद से छूट जायेंगे। मालूम होता है कि दारोगा तेरे जरिये से कोई काम निकालना चाहता है, अगर ऐसा न हो तो वह तुझे मार डालता और तेरी हिफाजत के लिए मुझे यहाँ न लाता, अव जहाँ तक हो उसका काम पूरा न होने देना चाहिए। खैर, जब वह यहाँ आकर तुझसे कुछ कहे-सुने तो तू मुझ पर टाल दिया करना। फिर जो-कुछ होगा मैं समझ लूंगी। अब तू कुछ खा-पी ले। फिर जो कुछ होगा देखा जायगा। अन्ना के समझाने से मैं खाना खाने के लिए तैयार हो गई। खाने-पीने का सामान सब उस घर [ १४६ ]में मौजूद था, मैंने भी खाया-पीया, इसके बाद अन्ना के पूछने पर मैंने अपना सब हाल शुरू से आखिर तक उसे कह सुनाया, इतने में शाम हो गई। मैं कह चुकी हूँ कि उस कमरे की छत में रोशनदान बना हुआ था जिसमें से रोशनी बखूबी आ रही थी, इसी रोशनदान के सबब से हम लोगों को मालूम हुआ कि संध्या हो गयी। थोड़ी ही देर बाद दरवाजा खोलकर दो आदमी उस कमरे में आये, एक ने चिराग जला दिया और दूसरे ने खाने-पीने का ताजा सामान रख दिया और बासी बचा हुआ उठाकर ले गया। उसके जाने के बाद फिर मुझसे और अन्ना से बातचीत होती रही और दो घण्टे के बाद मुझे नींद आ गई।

इन्द्रजीतसिंह--(गोपालसिंह से) इस जगह मुझे एक बात का सन्देह हो रहा है।

गोपालसिंह--वह क्या?

इन्द्रजीतसिंह--इन्दिरा, लक्ष्मीदेवी को पहचानती थी, इसलिए दारोगा ने उसे तो गिरफ्तार कर लिया, मगर इन्द्रदेव का उसने क्या बन्दोबस्त किया, क्योंकि लक्ष्मीदेवी को तो इन्द्रदेव भी पहचानते थे।

गोपालसिंह--इसका सबब शायद यह है कि व्याह के समय इन्द्रदेव यहां मौजूद न थे और उसके बाद भी लक्ष्मीदेवी को देखने का उन्हें मौका न मिला। मालूम होता है कि दारोगा ने इन्द्रदेव से मिलने के बारे में नकली लक्ष्मीदेवी को कुछ समझा दिया था जिससे वर्षों तक मुन्दर ने इन्द्रदेव के सामने से अपने को बचाया और इन्द्रदेव ने भी इस बात की कुछ परवाह न की। अपनी स्त्री और लड़की के गम में इन्द्रदेव ऐसा डूबे कि वर्षों बीत जाने पर भी वह जल्दी घर से नहीं निकलते थे, इच्छा होने पर कभी-कभी मैं स्वयं उनसे मिलने के लिए जाया करता था। कई वर्ष बीत जाने पर जब मैं कैद हो गया और सभी ने मुझे मरा हुआ जाना, तब इन्द्रदेव के खोज करने पर लक्ष्मीदेवी का पता लगा और उसने लक्ष्मीदेवी को कैद से छुड़ाकर अपने पास रखा। इन्द्रदेव को भी मेरे मरने का निश्चय हो गया था, इसलिए मुन्दर के विषय में उन्होंने ज्यादा बखेड़ा उठाना व्यर्थ समझा और दुश्मनों से बदला लेने के लिए लक्ष्मीदेवी को तैयार किया। कैद से छटने के बाद मैं खुद इन्द्रदेव से मिलने के लिए गुप्त रीति से गया था, तब उन्होंने लक्ष्मीदेवी का हाल मुझसे कहा था।

इन्द्रजीतसिंह--इन्द्रदेव ने लक्ष्मीदेवी को कैद से क्योंकर छुड़ाया था और उस विषय में क्या किया सो मालूम न हुआ।

राजा गोपालसिंह ने लक्ष्मीदेवी का कुल हाल जो हम ऊपर लिख आये हैं, बयान किया और इसके बाद फिर इन्दिरा ने अपना किस्सा कहना शुरू किया।

इन्दिरा--उसी दिन आधी रात के समय जब मैं सोई हुई थी और अन्ना भी मेरे बगल में लेटी हई थी, यकायक इस तरह की आवाज आई जैसे किसी ने अपने सिर पर से कोई गठरी उतारकर फेंकी हो। उस आवाज ने मुझे तो न जगाया, मगर अन्ना झट उठ बैठी और इधर-उधर देखने लगी। मैं बयान कर चुकी हूँ कि इस कमरे में दो दरवाजे थे। उनमें से एक दरवाजा तो लोगों के आने-जाने के लिए था और वह बाहर से बन्द रहता, मगर दूसरा खुला हुआ था जिसके अन्दर मैं तो नहीं गई थी, मगर अन्ना हो [ १४७ ]आई थी और कहती थी कि उसके अन्दर तीन कोठरियाँ हैं, एक पायखाना है और दो कोठरियां खाली पड़ी हैं। अन्ना को शक हुआ कि उसी कोठरी के अन्दर से आवाज आई है। उसने सोचा कि शायद दारोगा का कोई आदमी यहाँ आकर उस कोठरी में गया हो। थोड़ी देर तक तो वह उसके अन्दर से किसी के निकलने की राह देखती रही, मगर इसके बाद उठ खड़ी हुई। अन्ना थी तो औरत मगर उसका दिल बड़ा ही मजबूत था, वह मौत से भी जल्दी डरने वाली न थी। उसने हाथ में चिराग उठा लिया और उस कोठरी के अन्दर गई। पैर रखने के साथ ही उसकी निगाह एक गठरी पर पड़ी, मगर इधर-उधर देखा तो कोई आदमी नजर न आया। दूसरी कोठरी के अन्दर गई और तीसरी कोठरी में भी झांक के देखा, मगर कोई आदमी नजर न आया, तब उसने चिराग एक किनारे रख दिया और उस गठरी को खोला। इतने ही में मेरी आँख खुल गई और घर में अँधेरा देखकर मुझे डर मालूम हुआ। मैंने हाथ-पैर फैलाकर अन्ना को उठाना चाहा, मगर वह तो वहाँ थी ही नहीं। मैं घबराकर उठ बैठी। यकायक उस कोठरी की तरफ मेरी निगाह गई और उसके भीतर चिराग की रोशनी दिखाई दी। मैं घबराकर जोर-जोर से 'अन्ना-अन्ना' पुकारने लगी। मेरी आवाज सुनते ही वह चिराग और गठरी लिए बाहर निकल आई और बोली "ले बेटी, मैं तुझे एक खुशखबरी सुनाती हूँ।"

अन्ना ने यह कहकर गठरी मेरे आगे रख दी कि 'देख, इसमें क्या है !' मैंने बड़े शौक से वह गठरी खोली, मगर उसमें अपनी प्यारी माँ के कपड़े देखकर मुझे रुलाई आ . गई। ये वे ही कपड़े थे जो मेरी माँ पहनकर घर से निकली जब उन दोनों ऐयारों ने उसे गिरफ्तार कर लिया था और ये ही कपड़े पहने हुए कैदखाने में मेरे साथ जब दुश्मनों ने जबर्दस्ती उसे मुझसे जुदा किया था। उन कपड़ों पर खून के छींटे पड़े हुए थे और उन्हीं छींटों को देखकर मुझे रुलाई आ गई। अन्ना ने कहा, "तू रोती क्यों है, मैं कह जो चुकी कि तेरे लिए खुशखबरी लाई हूँ, इन कपड़ों को मत देख, बल्कि इनमें एक चिट्ठी तेरी माँ के हाथ की लिखी हुई है उसे देख !" मैंने उन कपड़ों को अच्छी तरह खोला और उनके अन्दर से वह चिट्ठी निकाली। मालूम होता है जब मैं 'अन्ना-अन्ना' कह के चिल्लाई तब वह जल्दी में उन सभी को लपेटकर बाहर निकल आई थी। खैर, जो हो, मगर वह चिट्ठी अन्ना पढ़ चुकी थी क्योंकि वह पढ़ी-लिखी थी। मैं बहुत कम पढ़-लिख सकती थी, केवल नाम लिखना भर जानती थी, मगर अपनी माँ के अक्षर अच्छी तरह पहचानती थी, क्योंकि वही मुझे पढ़ना-लिखना सिखाती थी। अतः चिट्ठी खोलकर मैंने अन्ना को पढ़ने को कहा और अन्ना ने पढ़ कर मुझे सुनाया। उसमें यह लिखा हुआ था--

"मेरी प्यारी बेटी इन्दिरा,

जितना मैं तुझे प्यार करती थी निःसन्देह तू भी मुझे उतना ही चाहती थी, मगर अफसोस, विधाता ने हम दोनों को जुदा कर दिया और मुझे तेरी भोली सूरत देखने के लिए तरसना पड़ा। परन्तु कोई चिन्ता नहीं, यद्यपि मेरी तरह तू भी दुःख भोग रही है मगर तू चाहेगी तो मैं कैद से छूट जाऊंगी और साथ ही इसके तू भी कैदखाने से बाहर [ १४८ ]होकर मुझसे मिलेगी। अब मेरा और तेरा दोनों का कैद से छूटना तेरे ही हाथ है और छूटने की तरकीब केवल यही है कि दारोगा साहब जो कुछ तुझे कहें उसे बेखटके कर दे।

अगर ऐसा करने से इनकार करेगी तो मेरी और तेरी दोनों की जान मुफ्त ही में जायगी।

तेरी प्यारी मा—सरयू"