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चन्द्रकांता सन्तति 4/15.4

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चंद्रकांता संतति भाग 4
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ १५९ से – १६१ तक

 

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रात लगभग घण्टे भर के जा चुकी है। नानक के घर में उसकी स्त्री शृंगार कर चुकी है और कपड़े बदलने की तैयारी कर रही है। वह एक खुले हुए संदूक के पास खड़ी तरह-तरह की साड़ियों पर नजर दौड़ा रही है और उनमें से एक साड़ी इस समय पहनने के लिए चुना चाहती है। हाथ में चिराग लिए हुए हनुमान उसके पास खड़ा है।

हनुमान--मेरी प्यारी भावज, यह काली साड़ी बड़ी मजेदार है, बस इसी को निकाल लो और यह चोली भी अच्छी है।

म्यामा--यह मुझे पसन्द नहीं। तू घड़ी-घड़ी मुझे 'भावज' क्यों कहता है?

हनुमान--क्या तुम मेरी भावज नहीं हो?

श्यामा--भावज तो जरूर हैं, यदि तू दूसरी मां का बेटा होता तो हमारी आधी दौलत बँटवा लेता और ऐसा न होने पर भी मैं तुझे देवर समझती हूँ, मगर भावज पुकारने की आदत अच्छी नहीं, अगर कोई सुन लेगा तो क्या कहेगा!

हनुमान--यहां इस समय सुनने वाला कौन है?

श्यामा--इस समय यहाँ चाहे कोई न हो, मगर पुकारने की आदत पड़ी रहने से कभी न कभी किसी के सामने...

हनुमान--नहीं-नहीं, मैं ऐसा बेवकूफ नहीं हूँ। देखो, इतने दिनों से मुझसे तुमसे गुप्त प्रेम है, मगर आज तक किसी को मालूम न हुआ। अच्छा देखो यह साड़ी बढ़िया है इसको जरूर पहनो। श्यामा--अरे बाबा, इस साड़ी को तो देखते हो मुझे क्रोध चढ़ आता है। उस दिन यह साड़ी पहन कर मैं बिरादरी में उनके यहाँ गई थी, बस एक ने झट से टोक ही तो दिया, कहने लगी कि 'यह साड़ी फलाने की दी हुई है।' इतना सुनते ही मैं लाल हो गई, मगर कर क्या सकती थी, क्योंकि बात सच थी, आखिर चुपचाप उठकर अपने घर चली आई। मैं यह साड़ी कभी न पहनूंगी।

हनुमान--अच्छा, यह हरी साड़ी पहनो।

श्यामा--हां, इसे पहनूंगी और यह चोली।

हनुमान--लाओ, चोली मैं पहना दूं।

श्यामा--(हनुमान के गाल पर चपत लगाकर) चल दूर हो।

हनुमान--(चौंककर) अरे हाँ देखो तो सही कैसी भूल हो गई।

श्यामा--(ताज्जुब से) सो क्या ?

हनुमान--तुम्हें तो मर्दाना कपड़ा पहन के चलना चाहिए।

श्यामा--हाँ, है तो ऐसा ही, मगर वहाँ क्या करूँगी?

हनुमान--यह साड़ी मैं बगल में दवाकर लिए चलता हूँ, वहां पहन लेना।

श्नामा--अच्छा, यही सही।

थोड़ी देर बाद मरदाने कपड़े पहने और सिर पर मुंडासा बाँधे हुए श्यामा सड़क पर दिखाई देने लगी। आगे-आगे उसका प्यारा नौकर हनुमान बगल में कपड़े की गठरी दबाए हुए जा रहा था। इस जगह से वह मकान बहुत दूर न था, जिसमें तारा सिंह ने डेरा डाला था इसलिए थोड़ी ही देर में वे दोनों उस मकान के पिछले दरवाजे पर जा पहुँचे। दरवाजा खुला हुआ था, और तारासिंह का नौकर पहले ही से दरवाजे पर बैठा हुआ था। उसने दोनों को मकान के अन्दर करके दरवाजा बन्द कर लिया।

तारासिंह एक कोठरी के अन्दर फर्श पर बैठा हुआ तरह-तरह की बातों पर विचार कर रहा था, जब उसके नौकर ने पहुँच कर श्यामा के आने की इत्तिला की और कहा कि वह मर्दानी पोशाक पहन कर आ गई है और अब पूरब वाले कमरे में कपड़े बदल रही है।

तारासिंह का नौकर (चेला) तो इतना कहकर चला गया, मगर तारासिंह बड़े फेर में पड़ गया। वह सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए? उसकी चाल-चलन का पता तो पूरा-पूरा लग गया, मगर अब उसे यहाँ से क्यों कर टालना चाहिए। उसके साथ अधर्म करना तो उचित न होगा, हम ऐसा कदापि नहीं कर सकते, मगर असफोस ! वाह रे निर्लज्ज नानक, क्या तुझे इन बातों की खबर न होगी? जरूर होगी, तू इन सब बातों को जरूर जानता होगा, मगर आमदनी का रास्ता खुला देख बेहयाई की नकाब डाले बैठा है। परन्तु भूतनाथ को इन बातों की खबर नहीं, वह हयादार आदमी है, अपनी थोड़ी-सी भूल के लिए कैसे-कैसे उद्योग कर रहा है, और तेरी यह दशा ! लानत है तेरी औकात पर और तुफ है, तेरी शौकीनी पर!

तारासिंह इन बातों को सोच ही रहा था कि श्यामारानी मटकती हई उसके पास जा पहुँची। तारासिंह ने बड़ी खातिर से उसे अपने पास बैठाया और उसके रूप-

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गुण की प्रशंसा करने लगा।

श्यामारानी को वैठे अभी कुछ भी देर न हुई थी कि कोठरी के बाहर से चिल्लाने की आवाज आई। यह आवाज नानक के प्यारे नौकर हनुमान की थी और साथ ही किसी औरत के बोलने की आवाज भी आ रही थी।