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चन्द्रकांता सन्तति 4/15.5

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चंद्रकांता संतति भाग 4
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ १६१ से – १६५ तक

 

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किशोरी कामिनी, कमला इत्यादि तथा और बहुत से आदमियों को लिए हुए राजा वीरेन्द्र सिंह चुनार की तरफ रवाना हुए। किशोरी और कामिनी की खिदमत के लिए साथ में एक सौ पन्द्रह लौडियाँ थी जिनमें से बीस लौंडियां तो उनमें से थीं जो राजा दिग्विजयसिंह की रानी के साथ रोहतासगढ़ में रहा करती थीं और रोहतासगढ़ के फतह हो जाने के बाद राजा वीरेन्द्रसिंह की ताबेदारी स्वीकार कर चुकी थीं, बाकी लौंडियां नई रक्खी गई थीं। इसके अतिरिक्त रोहतासगढ़ से बहुत-सी चीजें भी राजा वीरेन्द्रसिंह ने साथ ले ली थीं जिन्हें उन्होंने बेशकीमत या नायाब समझा था। रवाना होने के समय राजा साहब ने उन ऐयारों को भी अपने चुनारगढ़ जाने की इत्तिला दिलवा दी थी जो राजगृह तथा गयाजी इन्तजाम करने के लिए मुकर्रर किये गए थे।

जिस समय राजा वीरेन्द्रसिंह चुनारगढ़ की तरफ रवाना हुए, रात घण्टे भर से कुछ ज्यादा बाकी थी और पांच हजार फौज के अतिरिक्त चार हजार दूसरे काम-काज के आदमी भी साथ में थे। इसी भीड़ में मिली-जुली साधारण लौंडी का भेष धारण किये मनोरमा भी जाने लगी। उसे अपना काम पूरा होने की पक्की उम्मीद थी और वह इस धुन में लगी हुई थी कि किशोरी और कामिनी की लौंडियों में से कोई लौंडी किसी तरह पीछे रह जाय तो काम चले।

पहर दिन चढ़े तक राजा वीरेन्द्रसिंह का लश्कर बरावर चलता गया। जब धूप हुई तो एक हरे-भरे जंगल में पड़ाव डाला गया जहाँ डेरे-खेमे का इन्तजाम पहले ही से हो चुका था। पड़ाव पड़ जाने के थोड़ी देर बाद डेरों-खेमों से लदे हुए सैकड़ों ऊँट आगे की तरफ रवाना हुए जिनसे दूसरे दिन के पड़ाव का इन्तजाम होने वाला था। बाकी का दिन और तीन पहर रात तक वह जंगल गुलजार रहा और पहर रात रहते फिर वहाँ से लश्कर का कूच शुरू हुआ।

इसी तरह कूच-दर-कूच करते वीरेन्द्रसिंह का लश्कर चुनारगढ़ की तरफ रवाना हुआ। तीन दिन तक तो मनोरमा का काम कुछ भी न हुआ, पर चौथे दिन उसे अपना काम निकालने का मौका मिला जब किशोरी की एक लौंडी, जिसका नाम दया था, हाथ में लोटा लिए मैदान जाने की नीयत से पड़ाव के बाहर निकली। उस समय घड़ी-भर रात जा चुकी थी और चारों तरफ अंधकार छाया हुआ था। दया रोहतासगढ़ के राजा दिग्विजयसिंह की लौंडियों में से थी और जब किशोरी कैदियों की तरह रोहतासगढ़ में रहती थी, दया ने उसकी खिदमत बड़ी हमदर्दी के साथ की थी।

दया को मैदान की तरफ जाते देख मनोरमा ने उसका पीछा किया। दवे पाँव उसके साथ बराबर चली गई और जब जाना कि अब वह आगे न बढ़ेगी, तो एक पेड़ की आड़ देकर खड़ी हो गई। थोड़ी देर बाद जब दया जरूरी काम से छुट्टी पाकर लौटी तो मनोरमा बेधड़क उसके पास चली गई और फर्ती के साथ तिलिस्मी खंजर उसके मोढ़े पर रख दिया। उसी दम दया काँपी और थरथरा कर जमीन पर गिर पड़ी। मनोरमा ने उसे घसीटकर एक झाड़ी के अन्दर डाल दिया और निश्चय कर लिया कि जब राजा वीरेन्द्रसिंह का लश्कर यहाँ से कूचकर जायेगा और दिन निकल आवेगा तब सुभीते से दया की सुरत बनाकर इसको जान से मार डालूंगी और फिर तेजी के साथ चलकर लश्कर में जा मिलूंगी, आखिर ऐसा ही हुआ।

थोड़ी रात रहे राजा वीरेन्द्रसिंह का लश्कर वहाँ से कूच कर गया और जब पहर दिन चढ़े अगले पड़ाव पर पहुँचा तो किशोरी ने दया की खोज की, मगर दया का पता क्योंकर लग सकता था। बहुत-सी लौंडियाँ चारों तरफ फैल गईं और दया को ढूंढ़ने लगीं। दोपहर होते तक दया भी लश्कर में आ पहुँची जो वास्तव में मनोरमा थी। किशोरी ने पूछा, "दया, कहाँ रह गई थी? तेरी खोज में सब लौंडियाँ अभी तक परेशान हो रही हैं।"

नकली दया ने जवाब दिया, "जिस समय लश्कर कूच हुआ तो मेरे पेट में कुछ गड़गड़ाहट मालूम हुई। थोड़ी दूर तक तो मैं जी कड़ाकर चलती गई, आखिर जब गड़गड़ाहट ज्यादा हुई और रास्ते में एक कुआँ भी नजर आया तो लोटा-डोरी लेकर वहाँ ठहर गई। दो दफे तो टट्टी गई और तीन कै हुई, कै में बहुत-सा खट्टा पानी निकला। मैंने समझा कि बस अब किसी तरह लश्कर के साथ नहीं मिल सकती और यहाँ पड़ी बहुत दुःख भोगूंगी मगर ईश्वर ने कुशल की, थोड़ी देर तक मैं उसी कुएँ पर लेटी रही, आखिर मेरी तबीयत ठहरी तो मैं धीरे-धीरे रवाना हुई और मुश्किल से यहाँ तक पहुँची। कै करने में मुझे बहुत तकलीफ हुई और मेरा गला भी बैठ गया।"

किशोरी ने दया की अवस्था पर दुःख प्रकट किया और उसे दया की बातों पर विश्वास हो गया ! अब दया को किशोरी के साथ मेल-जोल पैदा करने में किसी तरह का खुटका न रहा और दो ही चार दिन में उसने किशोरी को अपने ऊपर बहुत ज्यादा मेहरबान बना लिया।

रोहतासगढ़ से चुनारगढ़ जाने के लिए यद्यपि भली-चंगी सड़क बनी हुई थी मगर राजा वीरेन्द्रसिंह का लश्कर सीधी सड़क छोड़ जंगल और मैदान ही में पड़ाव डालता हुआ चला जा रहा था क्योंकि हजारों आदमियों को जंगल और मैदान ही में आराम मिलता था, सड़क के किनारे उतनी ज्यादा जगह नहीं मिल सकती थी।

एक दिन जब राजा वीरेन्द्रसिंह का लश्कर एक बहुत रमणीक और हरे-भरे जंगल में पड़ाव डाले हुए था, संध्या के समय राजा वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह टहलते हुए अपने खेमे से कुछ दूर निकल गये और एक छोटे से टीले पर चढ़कर अस्त होते हुए सूर्य की शोभा देखने लगे। यकायक उनकी निगाह एक सवार पर पड़ी जो बड़ी तेजी के साथ घोड़ा दौड़ाता हुआ वीरेन्द्रसिंह के लश्कर की तरफ आ रहा था। दोनों की निगाहें उसी की तरफ उठ गईं और उसे बड़े गौर से देखने लगे। थोड़ी ही देर में वह सवार टीले के पास पहुंच गया और उस समय उस सवार की भी निगाह राजा वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह पर पड़ी। सवार ने तुरत घोड़े का मुंह फेर दिया और बात-की-बात में राजा वीरेन्द्रसिंह के पास पहुँचकर घोड़े से नीचे उतर पड़ा। जिस टीले पर वे दोनों खड़े थे वह बहुत ऊँचा न था अतएव उस सवार ने नेजा गाड़कर घोड़े की लगाम उसमें अटका दी और बेखौफ टीले के ऊपर चढ़ गया। इस सवार के हाथ में एक चिट्ठी थी जो उसने सलाम करने के बाद राजा वीरेन्द्रसिंह को दे दी। राजा साहब ने चिट्ठी खोलकर बड़े गौर से पढ़ी और तेजसिंह के हाथ में दे दी। तेजसिंह ने भी उसे पढ़ा और राजा साहब की तरफ देखकर कहा, "निःसन्देह ऐसा ही है।"

वीरेन्द्रसिंह--तुमने तो इस विषय में मुझसे कुछ भी नहीं कहा था।

तेजसिंह--कुछ कहने की आवश्यकता न थी और अभी मैं इन बातों का निश्चय ही कर रहा था।

वीरेन्द्रसिंह--इस राय को तो मैं पसन्द करता हूँ। तेजसिंह-राय पसन्द करने योग्य है और इसका जवाब भी लिख देना चाहिए।

वीरेन्द्रसिंह--हाँ, इसका जवाब लिख दो।

"बहुत अच्छा" कहकर तेजसिंह ने अपनी जेब से जस्ते की एक कलम निकाली और उस चिट्ठी की पीठ पर जवाब लिखकर वीरेन्द्रसिंह को दिखाया। राजा साहब ने उसे पसन्द किया और चिट्ठी उसी सवार के हाथ में दे दी गई। सवार सलाम करके टीले से नीचे उतर आया और घोड़े पर सवार हो उसी तरफ चला गया जिधर से आया था। सवार के चले जाने के बाद राजा वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह भी टीले से नीचे उतरे और गुप्त विषय पर बातें करते हुए लश्कर की तरफ रवाना होकर थोड़ी ही देर में अपने खेमे के अन्दर जा पहुँचे।

इस सफर में राजा वीरेन्द्रसिंह का कायदा था कि दिन-रात में एक दफे किसी समय किशोरी और कामिनी के डेरे में जरूर जाते, थोड़ी देर बैठते और हर तरह के ऊँच-नीच समझा-बुझाकर तथा दिलासा देकर अपने डेरे में लौट आते। इसी तरह उन दोनों के पास दो दफे तेजसिंह के जाने का भी मामूल था। जिस समय किशोरी और कामिनी के पास राजा साहब या तेजसिंह जाते, उस समय प्रायः सब लौंडियाँ अलग कर दी जातीं, केवल कमला उन दोनों के पास रह जाती थी। आज भी टीले पर से लौटने के बाद थोड़ी देर दम लेकर राजा वीरेन्द्रसिंह किशोरी और कामिनी के खेमे में गये और दो घड़ी तक वहाँ बैठे रहे, कुल लौंडियां हटा दी गई थीं।

दो घड़ी तक वहाँ ठहरने के बाद राजा साहब अपने खेमे में लौट आये और तेजसिंह के साथ बैठकर तरह-तरह की बातें करने लगे। जब रात ज्यादा चली गई तो राजा साहब ने चारपाई की शरण ली। तेजसिंह भी अपने खेमे में चले गये और खापीकर सो रहे।

तेजसिंह को चारपाई पर गये अभी आधा घण्टा भी न बीता था कि चोबदार ने किशोरी की लौंडियों के आने की इत्तिला की। तेजसिंह तुरन्त उठ बैठे और इन लौंडियों को अपने पास हाजिर करने की आज्ञा दी। थोड़ी ही देर में दो लौंडियाँ तेजसिंह के सामने आईं, जिनमें से एक वही दया थी जिसे वास्तव में मनोरमा कहना चाहिए।

तेजसिंह--(लौंडियों से) इस समय तुम लोगों के आने से मुझे आश्चर्य मालूम होता है।

दयावती--निःसन्देह आश्चर्य होता होगा परन्तु क्या किया जाये, किशोरीजी की आज्ञा से हम लोगों को आना पड़ा।

तेजसिंह--क्या समाचार है?

दयावती--किशोरीजी ने हम लोगो को आपके पास भेजा है और कहा है कि 'यहाँ से थोड़ी दूर पर कोई ऐसी इमारत है जिसके अन्दर तिलिस्म होने का शक है। जब मैं कैदियों की तरह रोहतासगढ़ में रहती थी तो यह बात राजा दिग्विजयसिंह की जुबानी सुनने में आई थी। यदि यह बात ठीक तो आपकी कृपा से मैं इस इमारत को देखना चाहती हूँ!'

तेजसिंह--किशोरी का कहना तो ठीक है, निःसन्देह यहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक इमारत है जिसमें तरह-तरह की अद्भुत बातें देखने में आती हैं और मैं उस इमारत को देख चका है, मगर एक साथ कई आदमियों का उस इमारत के अन्दर जाना बहुत कठिन है। (कुछ सोचकर) अच्छा तुम लोग चलो, मैं महाराज से वहां जाने की आज्ञा लेकर बहुत जल्द किशोरी के पास आता हूँ।

दयावती--जो आज्ञा।

दोनों लौंडियां सलाम करके किशोरी के पास चली गई और जो कुछ तेजसिंह ने उनसे कहा था वह किशोरी के सामने अर्ज किया। इस समय वहाँ किशोरी, कामिनी और कमला एक साथ बैठी हुई थीं और कई लौंडियां भी मौजद थीं।

थोडी देर बाद तेजसिंह के आने की इत्तिला मिली और कमला उनको लेने के लिए खेमे के बाहर गई। जब तेजसिंह खेमे के अन्दर आये तो उन्हें देख किशोरी और कामिनी उठ खड़ी हुई और जब तेजसिंह बैठ गये तो अदब के साथ उनके सामने बैठ गई। तेजसिंह-(किशोरी से)उस इमारत की याद यकायक कैसे आ गई?

किशोरी-अकस्मात् उस इमारत की याद आ गई। कामिनी बहिन को भी उसके देखने का बहुत शौक है। मैंने सोचा कि ऐसा मौका फिर काहे को मिलेगा। वह इमारत रास्ते में ही में पड़ती है, यदि आपकी कृपा होगी तो हम लोग उसे देख लेंगी।

तेजसिंह--बात तो ठीक है, और वह इमारत भी देखने योग्य है, मैं तुम्हें वहाँ ले जा सकता हैं और महाराज से आज्ञा भी ले आता हूँ मगर तुम अपने साथ किसी लौंडी को वहाँ न ले जा सकोगी।

किशोरी–-कामिनी बहिन और कमला का चलना तो आवश्यक है और ये दोनों न जायेंगी तो मुझे उसके देखने का आनन्द ही क्या मिलेगा? तेजसिंह--इन दोनों के लिए मैं मना नहीं करता, मैं रथ जोतने के लिए हुक्म दे आया हूँ अभी आता होगा, तुम तीनों उस रथ पर सवार हो जाओ, घोड़े की रास मैं लूंगा और तुम लोगों को वहाँ ले चलूंगा, सिवाय हम चार आदमियों के और कोई भी न जायेगा।

किशोरी-–जब स्वयं आप हम लोगों के साथ हैं तो हमें और किसी की जरूरत क्या है?

तेजसिंह--यदि इस समय हम लोग रथ पर सवार होकर रवाना होंगे तो घण्टे भर के अन्दर ही वहाँ जा पहुँचेंगे, छः-सात घण्टे में उस इमारत को अच्छी तरह से देख लेंगे, इसके बाद यहाँ लौटने की कोई जरूरत नहीं है, अगले पड़ाव की तरफ चले जायेंगे, जब तक हमारा लश्कर यहाँ से कूच करके अगले पड़ाव पर पहुँचेगा तब तक हम लोग भी वहाँ पहुँच जायेंगे।

किशोरी--जैसी मर्जी।

थोड़ी ही देर बाद इत्तिला मिली कि दो घोड़ों का रथ हाजिर है। तेजसिंह उठ खड़े हुए, पर्दे का इन्तजाम किया गया। किशोरी, कामिनी और कमला उस पर सवार कराई गईं, तेजसिंह ने घोड़ों की रास सम्हाली और रथ तेजी के साथ वहाँ से रवाना हुआ।