चन्द्रकांता सन्तति 4/15.8

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चंद्रकांता संतति भाग 4  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

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अब हम थोड़ा-सा हाल इन्द्रदेव का बयान करते हैं जो लक्ष्मीदेवी, कमलिनी, लाडिली और नकली बलभद्रसिंह को साथ लेकर अपने घर की तरफ रवाना हुए थे और जिनके साथ कुछ दूर तक भूतनाथ भी गया।

नकली बलभद्रसिंह हथकड़ी-बेड़ी से जकड़ा हुआ एक डोली पर सवार कराया गया था और कुछ फौजी सिपाही उसे चारों तरफ से घेरे हुए जा रहे थे। लक्ष्मीदेवी, कमलिनी तथा लाड़िली पालकियों पर सवार कराई गई थी और उन तीनों पालकियों के आगे-पीछे बहुत से सिपाही जा रहे थे। इन्द्रदेव एक उम्दा घोड़े पर सवार थे और भूतनाथ पैदल उनके साथ-साथ जा रहा था। दोपहर दिन चढ़े बाद जब इन लोगों का डेरा एक सुहावने जंगल में पड़ा तो भूतनाथ ने इन्द्रदेव से बिदा माँगी। इन्द्रदेव ने कहा, "मुझे तो कोई उज्र नहीं, मगर लक्ष्मीदेवी और कमलिनी से पूछ लेना जरूरी है। तुम मेरे साथ उनके पास चलो, मैं उन लोगों से तुम्हें छुट्टी दिला देता है।"

लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाड़िली की पालकियाँ एक घने पेड़ के नीचे आमनेसामने रखी हुई थी और उनके चारों तरफ कनात घिरी हुई थी। बीच में उम्दा फर्श बिछा हुआ था और तीनों बहिनें उस पर बैठी बातें कर रही थीं। इन्द्रदेव अपने साथ भूतनाथ को लिए उन तीनों के पास गये और कमलिनी की तरफ देखकर बोले, "भूतनाथ [ १६९ ]बिदा होने की आज्ञा मांगता है।"

इन्द्रदेव को देखकर तीनों बहिनें उठ खड़ी हुईं और कमलिनी ने भूतनाथ को भी अपने सामने फर्श पर बैठने का इशारा किया। भूतनाथ बैठ गया तो बातें होने लगीं--

कमलिनी--(भूतनाथ से) भूतनाथ, तुम्हारे मामले ने तो हम दोनों को बहुत परेशान कर रखा है। पहले तो यही विश्वास हो गया था कि तुम ही मेरे पिता के घातक हो और यह जयपालसिंह वास्तव में हमारा पिता है, वह खयाल तो अब जाता रहा, मगर तुम अभी तक बेकसूर साबित न हुए।

भूतनाथ--कसूरवार तो मैं जरूर हूँ, पहले ही तुमसे कह चुका हूँ कि 'मेरे हाथ से कई बुरे काम हो चुके हैं, जिनके लिए मैं अब भी पछता रहा हूँ और अब नेक काम करके दुनिया में नेक नाम होना चाहता हूँ और तुमने मेरी सहायता करने की प्रतिज्ञा भी की थी। तब से तुम स्वयं देख रही हो कि मैं कैसे-कैसे काम कर रहा हूँ। यह सब कुछ है। मगर मैंने तुम्हारे पिता, माता या तुम तीनों बहिनों के साथ कभी कोई बुराई नहीं की, इसे तुम निश्चय समझो, शायद यही सबब है कि ऐसे नाजुक समय में भी कृष्ण जिन्न ने मेरी सहायता की, मालूम होता है कि वह मेरा हाल अच्छी तरह जानता है।

कमलिनी--खैर, यह तो जब तुम्हारा मुकदमा होगा, तब मालूम हो जायगा, क्योंकि मैं विल्कुल नहीं जानती कि कृष्ण जिन्न कौन है, उसने तुम्हारा पक्ष क्यों लिया, और राजा वीरेन्द्रसिंह ने क्यों कृष्ण जिन्न की बात मानकर तुम्हें कैद से छुट्टी दे दी।

लक्ष्मीदेवी-(भूतनाथ से) मगर मैं जहाँ तक समझती हूँ यही जान पड़ता है कि तुम कृष्ण जिन्न को अच्छी तरह पहचानते हो।

भूतनाथ-नहीं-नहीं, कदापि नहीं। (खंजर हाथ में लेकर) मैं कसम खाकर कहता हूँ कि कृष्ण जिन्न को बिल्कुल नहीं पहचानता, मगर उसकी कुदरत देखकर जरूर आश्चर्य करता हूँ और उससे डरता भी हूँ। यद्यपि उसने मुझे कैद से छुड़ा दिया, मगर तुम देखती हो कि भागकर जान बचाने की नीयत मेरी नहीं है। कई दफे स्वतन्त्र हो जाने पर भी मैंने तुम्हारे काम से मुंह नहीं फेरा और समय पड़ने पर जान तक देने को तैयार हो गया।

कमलिनी--ठीक है, ठीक है ! और अबकी दफे रोहतासगढ़ में पहुँचकर भी तुमने बड़ा काम किया, मगर इस बारे में मुझे एक बात का आश्चर्य मालूम होता है।

भूतनाथ--वह क्या ?

कमलिनी--तुमने अपना हाल बयान करते समय कहा था कि 'मैंने तिलिस्मी खंजर से शेरअलीखाँ की सहायता की थी।'

भूतनाथ--हाँ, बेशक कहा था।

कमलिनी--तुम्हें जो तिलिस्मी खंजर मैंने दिया था, वह तो मायारानी ने उस समय अपने कब्जे में कर लिया था जब जमानिया तिलिस्म के अन्दर जाने वाली सुरंग में उसने तुम लोगों को बेहोश किया था। उसने राजा गोपालसिंह का भी तिलिस्मी खंजर लेकर नागर को दे दिया था। नागर वाला तिलिस्मी खंजर तो भैरोंसिंह ने (इन्द्रदेव की तरफ इशारा कर) आपसे ले लिया था जो मेरी इच्छानुसार अब तक 'भैरोंसिंह [ १७० ]के पास है, परन्तु तुम्हारे पास तिलिस्मी खंजर कहाँ से आ गया जिससे तुमने काम लिया और जो अब तक तुम्हारे पास है।

भूतनाथ--आपको मालूम हुआ होगा कि मेरा खंजर जो मायारानी ने ले लिया था उसे कृष्ण जिन्न ने रोहतासगढ़ किले के अन्दर उस समय मायारानी से छीन लिया था जब वह शेरअलीखाँ को लेकर वहाँ गई थी।

कमलिनी–-हाँ, ठीक है, तो क्या वही खंजर कृष्ण जिन्न ने फिर तुम्हें दे दिया ?

भूतनाथ--जी हाँ, (तिलिस्मी खंजर और उसके जोड़ की अंगठी कमलिनी के आगे रखकर) अब यदि मर्जी हो तो ले लीजिये, यह हाजिर है।

कमलिनी--(कुछ सोचकर) नहीं, अब यह खंजर तुम अपने ही पास रखो, जब कृष्ण जिन्न ने जिन्हें राजा वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह मानते हैं, तुम्हें दे दिया तो अब बिना उनकी इच्छा के छीन लेना मैं उचित नहीं समझती। (ऊँची साँस लेकर) क्या कहा जाय, तुम्हारे मामले में अक्ल कुछ भी काम नहीं करती।

इन्द्रदेव--भूतनाथ तुम देखते हो कि नकली बलभद्र सिंह को मैं अपने साथ लिए जाता हूँ, अगर तुम भी मेरे साथ चल के उससे बातचीत करते तो...

भूतनाथ--नहीं-नहीं, आप मुझे अपने साथ ले चलकर उसका मुकाबला न कराइये, उसका सामना होने से ही मेरी जान सूख जाती है ! यह तो मैं जानता ही है कि एक न एक दिन मेरा और उसका सामना धूमधाम के साथ होगा और जो कछ कसर मैंने किया है या उसका बिगाड़ा है, खुले बिना न रहेगा, परन्तु अभी आप क्षमा करें, थोड़े दिनों में मैं अपने बचाव का सामान इकट्ठा कर लूंगा और तब तक बलभद्रसिंह का भी पता लग जायगा, उनसे भी सहायता मिलने की मुझे आशा है। हाँ, यदि आप मेरी प्रार्थना स्वीकार न करें तो लाचार मैं साथ चलने के लिए हाजिर हैं।

इन्द्रदेव--(कुछ सोचकर) खैर, कोई चिन्ता नहीं। तुम जाओ, वलभद्रसिंह को खोज निकालने का उद्योग करो, और इन्दिरा का भी पता लगाओ। अब मुझसे कब मिलोगे?

भूतनाथ--आठ-दस दिन के बाद आपसे मिलूंगा, फिर जैसा मौका हो। कमलिनी--अच्छा जाओ, मगर जो कुछ करना है, उसे दिल लगा के करो।

भतनाथ--मैं कसम खाकर कहता हूँ कि बलभद्रसिंह को खोज निकालने की फिक्र सबसे ज्यादा दुनिया में जिस आदमी को है वह मैं हूँ।

इतना कहकर भूतनाथ उठ खड़ा हुआ और अपने अड्डे की तरफ चल दिया। तीसरे दिन अपने अड्डे पर पहुँचा जो 'बराबर' की पहाड़ी पर था। वहाँ उसने अपने आदमी दाऊ बाबा की जुवानी नानक का हाल सुना और क्रोध में भरा हुआ केवल दो घण्टे वहाँ रहने के बाद पहाड़ी के नीचे उतरकर उस जंगल की तरफ रवाना हो गया जहाँ पहले-पहले श्यामसुन्दरसिंह और भगवनिया के सामने नकली बलभद्रसिंह से उसकी मुलाकात हुई थी।