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चन्द्रकांता सन्तति 4/15.9

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चंद्रकांता संतति भाग 4
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ १७१ से – १७४ तक

 

लक्ष्मीदेवी, कमलिनी, लाड़िली और नकली बलभद्रसिंह को लिए हुए इन्द्रदेव अपने गुप्त स्थान में पहुंच गये। दोपहर का समय है। एक सजे हुए कमरे के अन्दर ऊँची गद्दी के ऊपर इन्द्रदेव बैठे हुए हैं, पास ही में एक दूसरी गद्दी बिछी हुई है जिस पर लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाडिली बैठी हुई हैं, उनके सामने हथकड़ी-बड़ी और रस्सियों पे जकड़ा हुआ नकली बलभद्रसिंह बैठा है, और उसके पीछे हाथ में नंगी तलवार लिए इन्द्रदेव का ऐयार सरयूसिंह खड़ा है।

नकली बलभद्रसिंह--(इन्द्रदेव से) जिस समय मुझसे और भूतनाथ से मुलाकात हुई थी, उस समय भूतनाथ की क्या दशा हुई, वो स्वयं तेजसिंह देख चुके हैं। अगर भूतनाथ सच्चा होता तो मुझसे क्यों डरता ? मगर बड़े अफसोस की बात है कि राजा वीरेन्द्र सिंह ने कृष्ण जिन्न के कहने से भूतनाथ को छोड़ दिया और जिस सन्दूकची को मैंने पेश किया था उसे न खोला, वह खुलती तो भूतनाथ का बाकी भेद छिपा न रहता।

इन्द्रदेव--जो भी हो, मैं राजा साहब की बातों में दखल नहीं दे सकता। मगर इतना कह सकता हूँ कि भूतनाथ ने चाहे तुम्हारे साथ हद से ज्यादा बुराई की हो, मगर लक्ष्मीदेवी के साथ कोई बुराई नहीं की थी, इसके अतिरिक्त छोड़ दिये जाने पर भी भूतनाथ भागने का उद्योग नहीं करता और समय पड़ने पर हम लोगों का साथ देता है।

नकली बलभद्रसिंह--अगर भूतनाथ आप लोगों का काम न करे तो आप लोग उस पर दया न करेंगे, यही समझकर वह...

इन्द्रदेव--(चिढ़कर) ये सब वाहियात बातें हैं, मैं तुमसे बकवास करना पसन्द नहीं करता, तुम यह बताओ कि जयपाल हो या नहीं?

नकली बलभद्रसिंह--मैं वास्तव में बलभद्रसिंह हूँ।

इन्द्रदेव--(क्रोध के साथ) अब भी तू झूठ बोलने से बाज नहीं आता, मालूम होता है कि तेरी मौत आ चुकी है, अच्छा देख मैं तुझे किस दुर्दशा के साथ मारता हूँ ! (सरयूसिंह से) तुम पहले इसकी दाहिनी आँख उँगली डालकर निकाल लो।

नकली बलभद्रसिंह--(लक्ष्मीदेवी से) देखो, तुम्हारे बाप की क्या दुर्दशा हो रही है!

लक्ष्मीदेवी--मुझे अब अच्छी तरह से निश्चय हो गया कि तू हमारा बाप नहीं है। आज जब मैं पुरानी बातों को याद करती हूँ तो तेरी और दारोगा की बेईमानी साफ मालूम हो जाती है। सबसे पहले जिस दिन तू कैदखाने में मुझसे मिला था, उसी दिन मझे तुझ पर शक हुआ था, मगर तेरी इस बात पर कि 'जहरीली दवा के कारण मेरा बदन खराब हो गया है' मैं धोखे में आ गयी थी।

नकली बलभद्रसिंह--और यह मोड़े वाला निशान?

लक्ष्मीदेवी--यह भी बनावटी है, अच्छा अगर तू मेरा बाप है तो मेरी एक बात का जवाब दे। नकली बलभद्रसिंह--पूछो।

लक्ष्मीदेवी--जिन दिनों मेरी शादी होने वाली थी और जमानिया जाने के लिए मैं पालकी पर सवार होने लगी थी, तब मेरी क्या दुर्दशा हुई थी और मैं किस ढंग से पालकी पर बैठाई गई थी?

नकली बलभद्रसिंह--(कुछ सोचकर) अब इतनी पुरानी बात तो मुझे याद नहीं है। मगर मैं सच कहता हूँ कि मैं ही बलभद्र

इन्द्रदेव--(क्रोध से सरयूसिंह से) बस, अब विलम्ब करने की आवश्यकता नहीं।

इतना सुनते ही सरयूसिंह ने धक्का देकर नकली बलभद्र को गिरा दिया और औजार डालकर उसकी दाहिनी आँख निकाल ली। नकली बलभद्रसिंह, जिसे अब हम जयपाल के नाम से लिखेंगे, दर्द से तड़पने लगा और बोला, "अफसोस, मेरे हाथ-पैर बंधे हुए हैं, अगर खुले होते तो बेदर्दी का मजा चखा देता।"

इन्द्रदेव--अभी अफसोस क्या करता है, थोड़ी देर में तेरी दूसरी आँख भी निकाली जायगी और उसके बाद तेरा एक-एक अंग काटकर अलग किया जायगा ! (सरयूसिंह से) हाँ, सरयूसिंह, अब इसकी दूसरी आँख भी निकाल लो और इसके बाद। - दोनों पैर काट डालो।

जयपालसिंह--(चिल्लाकर) नहीं-नहीं ! जरा ठहरो ! मैं तुम्हें बलभद्रसिंह का सच्चा हाल बताता हूँ।

इन्द्रदेव--अच्छा बताओ।

जयपालसिंह--पहले मेरी आँख में कोई दवा लगाओ जिसमें दर्द कम हो जाय, तब मैं तुमसे सब हाल कहूँगा।

इन्द्रदेव--ऐसा नहीं हो सकता, बताना हो तो जल्द बता, नहीं तेरी दूसरी आँख भी निकाल ली जायगी।

जयपालसिंह--अच्छा, मैं अभी बताता हूँ। दारोगा ने उसे अपने बँगले में कैद कर रखा था, मगर अफसोस, मायारानी ने उस बँगले को वारूद के जोर से उड़ा दिया, उम्मीद है, उसी में उस बेचारे की हड्डी-पसली भी उड़ गई होगी।

इन्द्रदेव--(सरयूसिंह से) सरयूसिंह, यह हरामजादा अपनी बदमाशी से बाज न आवेगा, अब तुम एक काम करो, इसकी जो आँख तुमने निकाली है, उसके गडहे में पिसी हुई लाल मिर्च भर दो। इतना सुनते ही जयपाल चिल्ला उठा और हाथ जोड़कर बोला जयपालसिंह-माफ करो, माफ करो, अब मैं झूठ न बोलूंगा, मुझे जरा दम ले लेने दो, जो कुछ हाल है मैं सच-सच कह दूंगा। इस तरह तड़प-तड़पकर जान देना मझे मंजर नहीं। मुझे क्या पड़ी है जो दारोगा का पक्ष करके इस तरह अपनी जान दं, कभी नहीं, अब मैं कदापि तुमसे झूठ न बोलूंगा।

इन्द्रदेव--अच्छा-अच्छा, दम ले ले। कोई चिन्ता नहीं, जब तू बलभद्रसिंह का हाल बताने को तैयार ही है तो मैं तुझे क्यों सताने लगा।

जयपालसिंह--(कुछ ठहर कर) इसमें कोई शक नहीं कि बलभद्रसिंह अभी तक जीता है और इन्दिरा तथा इन्दिरा की माँ के विषय में भी मैं आशा करता हूँ कि दोनों जीती होंगी।

इन्द्रदेव--बलभद्रसिंह के जीते रहने का तो तुझे निश्चय है, मगर इन्दिरा और उसकी मां के बारे में 'आशा है' से क्या मतलब?

जयपाल सिंह---इन्दिरा और इन्दिरा की माँ को दारोगा ने तिलिस्म में बन्द करना चाहा था, उस समय न मालूम किस ढंग से इन्दिरा तो छूटकर निकल गई, मगर उसकी माँ जमानिया तिलिस्म के चौथे दर्जे में कैद कर दी गई। इसी से उसके बारे में निश्चय रूप से नहीं कह सकता, मगर बलभद्रसिंह अभी तक जमानिया में उस मकान के अन्दर कैद है जिसमें दारोगा रहता था। यदि आप मुझे छुट्टी दें या मेरे साथ चलें तो मैं उसे बाहर निकाल लूं या आप खुद जाकर जिस ढंग से चाहें उसे छुड़ा लें।

इन्द्रदेव--मुझे तेरी यह बात भी सच नहीं जान पड़ती।

जयपालसिंह--नहीं-नहीं, अबकी दफे मैंने सच बता दिया है।

इन्द्रदेव--यदि मैं वहाँ जाऊँ और बलभद्रसिंह न मिले तो!

जयपालसिंह--मिलने न मिलने से मुझे कोई मतलब नहीं, क्योंकि उस मकान में से ढूंढ़ निकालना आपका काम है, अगर आप ही पता लगाने में कसर कर जायेंगे, तो मेरा क्या कसूर ! हाँ, एक बात और है, इधर थोड़े दिन के अन्दर दारोगा ने किसी दूसरी जगह उन्हें रख दिया हो तो मैं नहीं जानता, मग र दारोगा का रोजनामचा यदि आपका मिल जाय और उसे पढ़ सकें तो बलभद्र सिंह के छूटने में कुछ कसर न रहे।

इन्द्रदेव--क्या दारोगा रोजनामचा बराबर लिखा करता था?

जयपालसिंह--जी हाँ, वह अपना रत्ती-रत्ती हाल रोजनामचे में लिखता था।

इन्द्रदेव--वह रोजनामचा क्योंकर मिलेगा?

जयपालसिंह--जमानिया के पक्के घाट के ऊपर ही एक तेली रहता है, उसका मकान बहुत बड़ा है और दारोगा की बदौलत वह भी अमीर हो गया है। उसका नाम भी जयपाल है और उसी के पास दारोगा का रोजनामचा है, यदि आप उससे ले सकें तो अच्छी बात है, नहीं तो कहिये मैं उसके नाम की एक चिट्ठी लिख दूंगा।

इन्द्रदेव--(कुछ सोचकर) बेशक, तुझे उसके नाम की एक चिट्ठी लिख देनी होगी, मगर इतना याद रखना कि यदि बात झूठ निकली तो मैं बड़ी दुर्दशा के साथ तेरी जान लूंगा!

जयपालसिंह--और अगर सच निकली तो क्या मैं छोड़ दिया जाऊँगा?

इन्द्रदेव--(मुस्कुराकर) हाँ, अगर तेरी मदद से बलभद्रसिंह को हम पा जायेंगे तो तेरी जान छोड़ दी जायगी, मगर तेरे दोनों पैर काट डाले जायेंगे या तेरी दूसरी आँख भी बेकाम कर दी जायगी।

जयपालसिंह--सो क्यों?

इन्द्रदेव--इसलिए कि तू फिर किसी काम के लायक न रहे और न किसी के साथ बुराई कर सके।

जयपालसिंह--फिर मुझे खाने को कौन देगा? इन्द्रदेव--मैं दूंगा।

जयपाल--खैर, जैसी आपकी मर्जी ! मुझे स्वीकार है, मगर इस समय तो मेरी आँख में कोई दवा डालिये नहीं तो मैं मर जाऊंगा।

इन्द्रदेव--हाँ-हाँ, तेरी आँख का इलाज भी किया जायगा, मगर पहले तू उस तेली के नाम की चिट्ठी लिख दे।

जयपाल--अच्छा, मैं लिख देता हूँ, मेरे हाथ खोल कर कलम-दवात-कागज मेरे आगे रक्खो।

यद्यपि आँख की तकलीफ बहत ज्यादा थी मगर जयपाल भी बड़े ही कड़े दिल का आदमी था। उसका एक हाथ खोल दिया गया, कलम-दवात-कागज उसके सामने रक्खा गया, और उसने जयपाल तेली के नाम एक चिट्ठी लिखकर अपनी निशानी कर दी। चिट्ठी में यह लिखा हुआ था

"मेरे प्यारे जयपाल चक्री,

दारोगा बाबा वाला रोजनामचा इन्हें दे देना, नहीं तो मेरी और दारोगा की जान न बचेगी। हम दोनों आदमी इन्हीं के कब्जे में हैं।"

इन्द्रदेव ने वह चिट्ठी लेकर अपनी जेब में रक्खी और सरयूसिंह को जयपाल को दूसरी कोठरी में ले जाकर कैद करने का हक्म दिया तथा जयपाल की आँख में दवा लगाने के लिए भी कहा।

धूर्तराज जयपाल ने निःसन्देह इन्द्रदेव को धोखा दिया। उसने जो तेली के नाम चिट्ठी लिखकर दी उसके पढ़ने से दोनों मतलब निकलते हैं। "हम दोनों आदमी इन्हीं के कब्जे में हैं" ये ही शब्द इन्द्रदेव को फंसाने के लिए काफी थे, अतः देखना चाहिए वहाँ जाने पर इन्द्रदेव की क्या हालत होती है।

लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाड़िली को हर तरह से समझा-बुझाकर दूसरे दिन प्राःतकाल इन्द्रदेव जमानिया की तरफ रवाना हुए।