चन्द्रकांता सन्तति 4/16.12

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चंद्रकांता संतति भाग 4  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

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किशोरी, कामिनी और कमला जिस मकान में रखी गई थीं, वह नाम ही को तिलिस्मी मकान था। वास्तव में न उस मकान में कोई तिलिस्म था और न किसी तिलिस्म से उसका सम्बन्ध ही था। तथापि वह मकान और स्थान बहुत सुन्दर और दिलचस्प था। ऊँची-ऊँची चार पहाड़ियों के बीच में बीस-बाईस बीघे के लगभग जमीन थी जिसमें तरह-तरह के कुदरती गुलबूटे लगे हुए थे जो केवल जमीन ही की तरावट से सरसब्ज बने रहते थे। पूरब की तरफ वाली पहाड़ी के ऊपर साफ और मीठे जल का झरना गिरता था जो उस जमीन में चक्कर देता हुआ पश्चिम की तरफ की पहाड़ी के नीचे जाकर लोप हो जाता था और इस सबब से वहाँ की जमीन हमेशा तर बनी रहती थी। बीच में छोटा-सा दो मंजिल का मकान बना हुआ और उत्तर की तरफ वाली पहाड़ी पर सौ सवा सौ हाथ ऊँचे जाकर एक छोटा-सा बँगला और भी था। शायद बनाने वाले ने इसे जाड़े के मौसम के लिए आवश्यक समझा, क्योंकि नीचे वाले मकान में तरी ज्यादा रहती थी। किशोरी, कामिनी और कमला इसी बँगले में रहती थीं और उनकी हिफाजत के लिए जो दो-चार सिपाही और लौंडियाँ थीं, उन सभी का डेरा नीचे मकान में था, खाने-पीने का सामान तथा बन्दोबस्त भी उसी में था।

उन तीनों की हिफाजत के लिए जो सिपाही और लौंडियाँ वहाँ थीं उन सभी की [ २३५ ]सूरत भी ऐयारी ढंग से बदली हुई थी और यह बात किशोरी, कामिनी तथा कमला से कह दी गई थी जिसमें उन तीनों को किसी तरह का खुटका न रहे।

ये तीनों जानती थीं कि ये सिपाही और लौंडियाँ हमारी नहीं हैं, फिर भी समय की अवस्था पर ध्यान देकर उन्हें इन सभी पर भरोसा करना पड़ता था। इस मकान में आने के कारण इन तीनों की तबियत बहुत ही उदास थी। रोहतासगढ़ से रवाना होते समय इन तीनों को निश्चय हो गया था कि हम लोग बहुत जल्द चुनारगढ़ पहुंचने वाले हैं जहाँ न तो किसी दुश्मन का डर रहेगा और न किसी तरह की तकलीफ ही रहेगी, इससे भी बढ़कर बात यह होगी कि उसी चुनारगढ़ में हम लोगों की मुराद पूरी होगी। मगर निराशा ने रास्ते ही में पल्ला पकड़ लिया और दुश्मन के डर से इन्हें इस विचित्र स्थान में आकर रहना पड़ा जहाँ सिवाय गैर के अपना कोई भी दिखाई नहीं पड़ता था।

जिस दिन ये तीनों यहाँ आई थीं, उसी दिन कृष्ण जिन्न भी यहाँ मौजूद था। ये तीनों कृष्ण जिन्न को बखूबी जानती थीं और यह भी जानती थीं कि कृष्ण जिन्न हमारा सच्चा पक्षपाती तथा सहायक है, तिस पर तेजसिंह ने भी उन तीनों को अच्छी तरह समझाकर कह दिया था कि यद्यपि तुम लोगों को यह नहीं मालूम कि वास्तव में कृष्ण जिन्न कौन है और कहां रहता है तथापि तुम लोगों को उस पर उतना ही भरोसा रखना चाहिए जितना हम पर रखती हो और उसकी आज्ञा भी उतनी ही इज्जत के साथ माननी चाहिये जितनी इज्जत के साथ हमारी आज्ञा मानने की इच्छा रखती हो। किशोरी, कामिनी और कमला ने यह बात बड़ी प्रसन्नता से स्वीकार की थी।

जिस समय ये तीनों इस मकान में आई थीं, उसके दो ही घण्टे बाद सब सामान ठीक करके कृष्ण जिन्न और तेजसिंह चले गये थे और जाते समय इन तीनों को कृष्ण जिन्न कहता गया कि तुम लोग अकेले के कारण घबराना नहीं, मैं बहुत जल्द लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाड़िली को भी तुम लोगों के पास भिजवाऊंगा और तब तुम लोग बड़ी प्रसन्नता के साथ रह सकोगी। मैं भी जहाँ तक हो सकेगा तुम लोगों को लेने के लिए जल्द ही यहाँ आऊँगा।

तीसरे ही दिन भैरोंसिंह भी उस विचित्र स्थान में जा पहुंचे जिन्हें देख किशोरी; कामिनी और कमला बहुत खुश हुई।

हमारे प्रेमी पाठक जानते ही हैं कि कमला और भैरोंसिंह का दिल घुल-मिलकर एक हो रहा था अस्तु इस समय यह स्थान उन्हीं दोनों के लिए मुबारक हुआ और उन्हीं को यहाँ आने की विशेष प्रसन्नता हुई, मगर उन दोनों को अपने से ज्यादा अपने मालिकों का खयाल था। उनकी प्रसन्नता के बिना अपनी प्रसन्नता वे नहीं चाहते थे और उनके मालिक भी इस बात को अच्छी तरह जानते थे।

उस स्थान में पहुँचकर भैरोंसिंह ने वहाँ के रास्ते की बड़ी तारीफ की और कहा कि इन्द्रदेव के मकान में जाने का रास्ता जैसा गुप्त और टेढ़ा है वैसा ही यहाँ का भी है, अनजान आदमी यहाँ कदापि नहीं आ सकता। इसके बाद भैरोंसिंह ने राजा वीरेन्द्रसिंह के लश्कर का हाल बयान किया।

भैरोंसिंह की जुबानी लश्कर का हाल और मनोरमा के हाथ से भेष बदली हुई [ २३६ ]तीनों लौंडियों के मारे जाने की खबर सुनकर किशोरी और कामिनी के रौंगटे खड़े हो गए। किशोरी ने कहा, "निःसन्देह कृष्ण जिन्न देवता हैं। उनकी अद्भुत शक्ति, उनकी बुद्धि और उनके विचारों की जहाँ तक तारीफ की जाये उचित है। उन्होंने जो कुछ सोचा, ठीक ही निकला।"

भैरोंसिंह–इसमें कोई शक नहीं। तुम लोगों को यहाँ बुलाकर उन्होंने बड़ा ही काम किया। मनोरमा तो गिरफ्तार हो गई और भाग जाने लायक भी न रही और उसके मददगार भी अगर लश्कर के साथ होंगे तो अब गिरफ्तार हुए बिना नहीं रह सकते, इसके अतिरिक्त...

कमला-हम लोगों को मरा जानकर कोई पीछा भी न करेगा और जब दोनों कुमार तिलिस्म तोड़कर चुनारगढ़ में आ जायेंगे, तब तो यही दुनिया हम लोगों के लिए स्वर्ग हो जायेगी।

बहुत देर तक इन चारों में बातचीत होती रही। इसके बाद भैरोंसिंह ने वहाँ की अच्छी तरह सैर की और खा-पीकर निश्चिन्त होने के बाद इधर-उधर की बातों से उन तीनों का दिल बहलाने लगे और जब तक वहाँ रहे, उन लोगों को उदास न होने दिया।