चन्द्रकांता सन्तति 4/16.11

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चंद्रकांता संतति भाग 4  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

[ २३१ ]

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दोनों कुमार यद्यपि सरयू को पहचानते न थे, मगर इन्दिरा की जुबानी उसका हाल सुन चुके थे, इसलिए उन्हें शक हो गया कि यह सरयू है। दूसरे राजा गोपालसिंह [ २३२ ]ने भी पुकारकर दोनों कुमारों से कहा कि इन्दिरा की मां सरयू यही हैं और इन्द्रदेव ने कुमारों की तरफ बताकर सरयू से कहा कि "राजा वीरेन्द्रसिंह के दोनों लड़के यही कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह हैं जो तिलिस्म तोड़ने के लिए यहाँ आए हैं। इन्हीं की बदौलत तुम आफत से छूटोगी।"

दोनों कुमारों को देखते ही सरयू दौड़कर पास चली आई और कुंअर इन्द्रजीत- सिंह के पैरों पर गिर पड़ी। सरयू उम्र में कुंअर इन्द्रजीतसिंह से बहुत बड़ी थी। मगर इज्जत और मर्तबे के खयाल दोनों को अपना-अपना हक अदा करना पड़ा। कुमार ने उसे पैर पर से उठाया और दिलासा देकर कहा, "सरयू, इन्दिरा की जुबानी मैं तुम्हारा हाल पूरा-पूरा तो नहीं, मगर बहुत-कुछ सुन चुका हूँ और हम लोगों को तुम्हारी अवस्था पर बहुत ही रंज है। परन्तु अब तुम्हें चाहिए कि अपने दिल से दुःख को दूर करके ईश्वर को धन्यवाद दो, क्योंकि तुम्हारी मुसीबत का जमाना अब बीत गया और ईश्वर इस कैद से बहुत जल्द छुड़ाने वाला है। जब तक हम इस तिलिस्म में हैं, तुम्हें बराबर अपने साथ रखेंगे और जिस दिन हम दोनों भाई तिलिस्म के बाहर निकलेंगे, उस दिन तुम भी दुनिया की हवा खाती हुई मालूम करोगी कि तुम्हें सताने वालों में से अब कोई भी स्वतन्त्र नहीं रह गया और न अब तुम्हें किसी तरह का दुःख भोगना पड़ेगा। तुम्हें ईश्वर को बहुत धन्यवाद देना चाहिए कि दुष्टों के इतना ऊधम मचाने पर भी तुम अपने पति और अपनी प्यारी लड़की को सिवाय कपनी जुदाई के और किसी तरह के रंज और दुःख से खाली पाती हो। ईश्वर तुम लोगों का कल्याण करे।"

इसके बाद कुमार ने कमरे की तरफ सिर उठाकर देखा। राजा गोपालसिंह ने इन्द्रदेव की तरफ इशारा करके कहा, "इन्दिरा के पिता इन्द्रदेव को हमने बुलवा भेजा है। शायद आज के पहले आपने इन्हें न देखा होगा।"

उस समय पुनः इन्द्रदेव ने झुककर कुमार को सलाम किया और कुंअर इन्द्रजीत- सिंह ने सलाम का जवाब देकर कहा, "आपका आना बहुत अच्छा हुआ। आप इन दोनों को अपनी आँखों से देखकर प्रसन्न हुए होंगे। कहिये, रोहतासगढ़ का क्या हाल है ?"

इन्द्रदेव--सब कुशल है। मायारानी और दारोगा तथा और कैदियों को साथ लेकर राजा वीरेन्द्रसिंह चुनारगढ़ की तरफ रवाना हो गये। किशोरी, कामिनी और कमला को अपने साथ लेते गये। लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाड़िली तथा नकली बल- भद्रसिंह को उनसे माँगकर मैं अपने घर ले गया और उन्हें उसी जगह छोड़कर राजा गोपालसिंह की आज्ञानुसार यहाँ चला आया हूँ। यह हाल संक्षेप में मैंने इसलिए बयान किया कि राजा गोपालसिंह की जुबानी वहाँ का कुछ हाल आपको मालूम हो गया है। यह मैं सुन चुका हूँ।

इन्द्रजीतसिंह--लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाड़िली को आप यहाँ क्यों न ले आये?

इसका जवाब इन्द्रदेव ने तो कुछ भी न दिया, मगर राजा गोपालसिंह ने कहा, "ये असली बलभद्रसिंह का पता लगाने के लिए अपने मकान से रवाना हो चुके थे, जब रास्ते में मेरा पत्र इन्हें मिला। परसों एक पत्र मुझे कृष्ण जिन्न का भेजा हुआ मिला [ २३३ ]था। उसके पढ़ने से मालूम हुआ कि मनोरमा भेष बदलकर राजा साहब के लश्कर में जा मिली थी जिसका पता लगाना बहुत ही कठिन था और वह किशोरी, कामिनी को मार डालने की सामर्थ्य रखती थी, क्योंकि उसके पास तिलिस्मी खंजर भी था। इसलिए कृष्ण जिन्न ने राजा साहब को लिख भेजा था कि बहाना करके गुप्त रीति से किशोरी, कामिनी और कमला को हमारे फलाने तिलिस्मी मकान में (जिसका पता-ठिकाना और हाल भी लिख भेजा था) शीघ्र भेज दीजिए, मैं वहां मौजूद रहूँगा और उनके बदले में अपनी लौंडियों को किशोरी, कामिनी और कमला बनाकर भेज दूंगा जो आपके लश्कर में रहेंगी। ऐसा करने से यदि मनोरमा का वार चल भी गया तो हमारा बहुत नुकसान न होगा। राजा साहब ने भी यह बात पसन्द कर ली और कृष्ण जिन्न के कहे मुताबिक किशोरी, कामिनी और कमला को तेजसिंह रथ पर ले जाकर कृष्ण जिन्न के तिलिस्मी मकान में छोड़ आए तथा उनकी जगह भेष बदली हुई लौंडियों को अपने लश्कर में ले गये। आज रात को कृष्ण जिन्न का दूसरा पत्र मुझे मिला जिससे मालूम हुआ कि राजा साहब के लश्कर में नकली किशोरी, कामिनी और कमला मनोरमा के हाथ मारी गयीं और मनोरमा गिरफ्तार हो गई। आज पत्र में कृष्ण जिन्न ने यह भी लिखा है कि तुम इन्द्रदेव को एक पत्र लिख दो कि वह लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाड़िली को भी बहुत जल्द उसी तिलिस्मी मकान में पहुंचा दें जिसमें किशोरी, कामिनी और कमला हैं, मैं (कृष्ण जिन्न) स्वयं वहां मौजूद रहूंगा और दो-तीन दिन के बाद दुश्मनों का रंग-ढंग देखकर किशोरी, कामिनी, कमला, लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाड़िली को जमानिया पहुँचा दूंगा। इसके बाद राजा वीरेन्द्रसिंह की आज्ञा होगी या जब उचित होगा तो सभी को चुनारगढ़ पहुंचाया जायगा और उन सबके सामने वहाँ भूतनाथ का मुकदमा होगा। कृष्ण जिन्न का यह लिखना मुझे बहुत पसन्द आया, वह बड़ा ही बुद्धिमान और नेक आदमी है। जो काम करता है उसमें कुछ न कुछ फायदा समझ लेता है। अब मैं चाहता हूँ कि (इन्द्रदेव की तरफ इशारा करके) इन्हें आज ही यहां से बिदा कर दूं जिसमें ये उन तीनों औरतों को ले जाकर कृष्ण जिन्न के तिलिस्मी मकान में पहुंचा दें। वहाँ दुश्मनों का डर कुछ भी नहीं है और किशोरी तथा कामिनी को भी इन लोगों से मिलने की बड़ी चाह है जैसा कि कृष्ण जिन्न के पत्र से मालूम होता है।"

ये बातें जो राजा गोपालसिंह ने कहीं दोनों कुमारों को खुश करने के लिए वैसी ही थीं जैसी चातक के लिए स्वाति की बूंद। दोनों कुमारों को किशोरी और कामिनी के मिलने की आशा ने हद से ज्यादा प्रसन्न कर दिया। इन्द्रजीतसिंह ने मुस्कुराकर गोपाल- सिंह से कहा, "कृष्ण जिन्न की बात मानना आपके लिए उतना ही आवश्यक है जितना हम दोनों भाइयों के लिए तिलिस्म तोड़कर चुनारगढ़ पहुँचना। आप बहुत जल्द इन्द्रदेव को यहाँ से रवाना कीजिए।"

गोपालसिंह--ऐसा ही होगा।

आनन्दसिंह--कृष्ण जिन्न का वह तिलिस्मी मकान कहाँ पर है और यहाँ से कितने दिन की राह

गोपालसिंह--यहाँ से कुल पन्द्रह कोस पर है। [ २३४ ]इन्द्रजीतसिंह--वाह-वाह, तब तो बहुत ही नजदीक है, (इन्द्रदेव से) मेरी तरफ से कृष्ण जिन्न को प्रणाम कर बहुत धन्यवाद दीजिएगा, क्योंकि उन्होंने बड़ी चालाकी से किशोरी, कामिनी और कमला को बचा लिया।

इन्द्रदेव--बहुत अच्छा।

इन्द्रजीतसिंह--आप तो असली बलभद्रसिंह का पता लगाने के लिए घर से निकले थे, उनका

इन्द्रजीतसिंह--(राजा गोपालसिंह की तरफ इशारा करके) आप कहते हैं कि नकली बलभद्रसिंह ने तुम्हें धोखा दिया, तुम अब उनकी खोज मत करो, क्योंकि भूतनाथ ने असली बलभद्रसिंह का पता लगा लिया और उन्हें छुड़ाकर चुनारगढ़ ले गया।

इन्द्रजीतसिंह--(गोपालसिंह से) क्या यह बात सच है?

गोपालसिंह--हाँ, कृष्ण जिन्न ने मुझे यह भी लिखा था।

इन्द्रजीतसिंह--तब तो इस खबर में किसी तरह का शक नहीं हो सकता। इसके बाद दुनिया के पुराने नियमानुसार और बहुत दिनों से बिछड़े हुए प्रेमियों के मिलने पर जैसा हुआ करता है, उसी के मुताबिक इन्द्रदेव और सरयू में कुछ बातें हुईं, इन्दिरा ने भी मां से कुछ बातें कीं, और तब इन्दिरा और इन्द्रदेव को साथ लेकर राजा गोपालसिंह कमरे के बाहर हो गये।