चन्द्रकांता सन्तति 4/16.5

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चंद्रकांता संतति भाग 4  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

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कुमार की आज्ञानुसार इन्दिरा ने पुनः अपना किस्सा कहना शुरू किया।

इन्दिरा--चम्पा ने मुझे दिलासा देकर बहुत-कुछ समझाया और मेरी मदद करने का वादा किया और यह भी कहा कि “आज से तू अपना नाम बदल दे। मैं तुझे अपने घर ले चलती हूँ मगर इस बात का खूब ध्यान रखना कि यदि कोई तुझसे तेरा नाम पूछे तो 'सरला' बताना और यह सब हाल जो तूने मुझसे कहा है अब और किसी से बयान न करना।" मैंने चम्पा की बात कबूल कर ली और वह मुझे अपने साथ चुनारगढ़ ले गई। वहां पहुंचने पर जब मुझे चम्पा की इज्जत और मर्तबे का हाल मालूम हुआ तो मैं अपने दिल में बहुत खुश हुई और मुझे यह विश्वास हो गया कि यहाँ रहने में मुझे किसी तरह का डर नहीं है और इनकी मेहरबानी से मैं अपने दुश्मनों से बदला ले सकूँगी।

चम्पा ने मुझे हिफाजत और आराम से अपने यहाँ रखा और मेरा सच्चा हाल अपनी प्यारी गरवी चपला के सिवाय और किसी से भी न कहा। निःगन्देह उसने मुझे [ २०८ ]अपनी लड़की के समान रखा और ऐयारी की विद्या भी दिल लगाकर सिखलाने लगी, मगर अफसोस, किस्मत ने मुझे बहुत दिनों तक उसके पास रहने नहीं दिया और थोड़े ही समय के बाद (इन्द्रजीतसिंह की तरफ इशारा करके) आपको गया की रानी माधवी ने धोखा देकर गिरफ्तार कर लिया। चम्पा और चपला आपकी खोज में निकलीं, मुझे भी उनके साथ जाना पड़ा और उसी जमाने में मेरा-चम्पा का साथ छूटा।

आनन्दसिंह--तुम्हें यह कैसे मालूम हुआ कि भैया को माधवी ने गिरफ्तार कराया था?

इन्दिरा--माधवी के दो आदमियों को चम्पा और चपला ने अपने काबू में कर लिया। पहले छिपकर उन की बातें सुनीं जिससे विश्वास हो गया कि माधवी के दोनों नौकर कुँअर साहब को गिरफ्तार करने की मुहिम में शरीक थे, मगर फिर भी यह समझ न आया कि जिसके ये लोग नौकर हैं, वह माधवी कौन है और कुंअर साहब को ले जाकर उसने कहाँ रखा है। लाचार चम्पा ने धोखा देकर उन लोगों को अपने काबू में किया और कुंअर साहब का हाल उनसे पूछा। मैंने उन दोनों के जैसा जिद्दी आदमी कोई भी न देखा होगा। आपने स्वयं देखा था कि चम्पा ने उस खोह में उसे कितना दुःख देकर मारा मगर उस कम्बख्त ने ठीक पता नहीं दिया। उस समय वहाँ चम्पा का नौकर भी हब्शी के रूप में काम कर रहा था, आपको याद होगा। आनन्दसिंहः वह माधवी ही का आदमी था ? इन्दिरा-जी हां, और उसकी बातों का आपने दूसरा ही मतलब लगा लिया था।

आनन्दसिंह--अच्छा, ठीक है, फिर उस दूसरे आदमी की क्या दशा हुई, क्योंकि चम्पा ने तो दो आदमियों को पकड़ा था?

इन्दिरा--वह दूसरा आदमी भी चम्पा के हाथ से उसी रोज उसके थोड़ी देर पहले मारा गया था।

आनन्दसिंह--हां, ठीक है, उसके थोड़ी देर पहले चम्पा ने एक और आदमी को मारा था। जरूर यह वही होगा जिसके मुंह से निकले हुए टूटे-फूटे शब्दों ने हमें धोखे में डाल दिया था। अच्छा, उसके बाद क्या हुआ ? तुम्हारा साथ उनसे कैसे छूटा?

इन्दिरा-चम्पा और चपला जब वहाँ से जाने लगी तो ऐयारी का बहुत-कुछ सामान और खाने-पीने की चीजें उसी खोह में रखकर मुझसे कह गईं कि जब तक हम दोनों या दोनों में से कोई एक लौटकर न आवे तब तक तू इसी जगह रहना-इत्यादि, मगर मुझे बहुत दिनों तक उन दोनों का इन्तजार करना पड़ा, यहाँ तक कि जी ऊब गया और मैं ऐयार का कुछ सामान लेकर उस खोह से बाहर निकली क्योंकि चम्पा की बदौलत मुझे कुछ-कुछ ऐयारी भी आ गई थी। जब मैं उस पहाड़ और जंगल को पार करके मैदान में पहुँची तो सोचने लगी कि अब क्या करना चाहिए, क्योंकि बहुत-सी बँधी हुई उम्मीदों का उस समय खून हो रहा था और अपनी मां की चिन्ता के कारण मैं बहुत ही दुखी हो रही थी। यकायक मेरी निगाह एक ऐसी चीज पर पड़ी जिसने मुझे चौंका दिया और मैं

च० स०-4-13

[ २०९ ]घवराकर उस तरफ देखने लगी...

इन्दिरा और कुछ कहना ही चाहती थी कि यकायक जमीन के अन्दर से बड़े जोर- शोर के साथ घड़घड़ाहट की आवाज आने लगी जिसने सभी को चौंका दिया और इन्दिरा घबराकर राजा गोपालसिंह का मुंह देखने लगी। सवेरा हो चुका था और पूरब तरफ से उदय होने वाले सूर्य को लालिमा ने आसमान का कुछ भाग अपनी बारीक चादर के नीचे ढांक लिया था।

गोपालसिंह--(कुमार से) अब आप दोनों भाइयों का यहाँ ठहरना उचित नहीं जान पड़ता, यह आवाज जो जमीन के नीचे से आ रही है निःसन्देह तिलिस्मी कल-पुरजों के हिलने या घूमने के सबब से है। एक तौर पर आप तिलिस्म तोड़ने में हाथ लगा चुके हैं अस्तु अब इस काम में रुकावट नहीं हो सकती। इस आवाज को सुनकर आपके दिल में भी यही खयाल पैदा हुआ होगा, अस्तु अब क्षण भर भी विलम्ब न कीजिए।

कुमार--बेशक ऐसी ही बात है। आप भी यहां से शीघ्र ही चले जाइये। मगर इन्दिरा का क्या होगा?

गोपाल--इन्दिरा को इस समय मैं अपने साथ ले जाता हूँ फिर जो कुछ होगा देखा जायेगा।

कुमार--अफसोस कि इन्दिरा का कुल हाल सुन न सके। खैर, लाचारी है।

गोपालसिंह--कोई चिन्ता नहीं, आप तिलिस्म का काम तमाम करके इसकी माँ को छुड़ावें फिर सब हाल सुन लीजिएगा। हां, आपसे वादा किया था कि अपनी तिलिस्मी किताब आपको पढ़ने के लिए दूंगा मगर वह किताब गायब हो गई थी इसलिए दे न सका था, अब (किताब दिखाकर) इन्दिरा के साथ ही यह किताब भी मुझे मिल गई है। इसे पढ़ने के लिए मैं आपको दे सकता हूँ। यदि आप इसे अपने साथ ले जाना चाहें तो ले जायें।

इन्द्रजीतसिंह--समय की लाचारी इस समय हम लोगों को आपसे जुदा करती है, और यह भी नहीं कह सकता कि पुनः कव आपसे मुलाकात होगी और यह किताब जिसको हम लोग ले जायेंगे कब वापस करने की नौबत आयेगी। तिलिस्मी किताब जो मेरे पास है उसके पढ़ने और बाजे की आवाज के सुनने से मुझे विश्वास होता है कि आपकी किताब पढ़े बिना भी हम लोग तिलिस्म तोड़ सकेंगे। यदि मेरा यह खयाल ठीक है तो आपके पास से यह किताब ले जाकर आपका बहुत बड़ा हर्ज करना समयानुकूल न होगा।

गोपालसिंह--ठीक है, इस किताब के विना आपका कोई खास हर्ज नहीं हो सकता और इसमें कोई शक नहीं कि इसके बिना मैं बे-हाथ-पैर का हो जाऊँगा।

इन्द्रजीतसिंह--तो इस किताब को आप अभी अपने पास ही रहने दीजिए, फिर जब मुलाकात होगी देखा जायगा, अब हम लोग बिदा होते हैं।

गोपालसिंह--खैर, जाइए, हम आप दोनों भाइयों को दयानिधि ईश्वर के सुपुर्द करते हैं।

इसके बाद राजा गोपालसिंह ने जल्दी-जल्दी कुछ बातें दोनों कुमारों को समझा कर विदा किया और आप भी इन्दिरा को साथ ले महल की तरफ रवाना हो गए।