चन्द्रकांता सन्तति 4/16.6

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चंद्रकांता संतति भाग 4  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

[ २१० ]जिस राह से कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को राजा गोपालसिंह इस बाग में लाये थे उसी राह से जाकर ये दोनों भाई उस कमरे में पहुंचे जो कि बाजे वाले कमरे में जाने के पहले पड़ता था और जिसमें महराबदार चार खम्भों के सहारे एक बनावटी आदमी फाँसी पर लटक रहा था। इस कमरे का खुलासा हाल एक दफे लिखा जा चुका है, इसलिए यहाँ पुनः लिखने की कोई आवश्यकता नहीं जान पड़ी। पाठकों को यह भी याद होगा कि इन्दिरा का किस्सा सुनने के पहले ही कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह उस तिलिस्मी बाजे की आवाज ताली देकर अच्छी तरह सुन-समझ चुके हैं। यदि याद न हो तो तिलिस्म सम्बन्धी पिछला किस्सा पुनः पढ़ जाना चाहिए क्योंकि अब ये दोनों भाई तिलिस्म तोड़ने में हाथ लगाते हैं।

कमरे में पहुंचने के बाद दोनों भाइयों ने देखा कि फाँसी लटकते हुए आदमी के नीचे जो मूरत (इन्दिरा के ढंग की) खड़ी थी, वह इस समय तेजी के साथ नाच रही है। कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने तिलिस्मी खंजर का एक वार करके उस मूरत के दो टुकड़े कर दिए, अर्थात् कमर से ऊपर वाला हिस्सा काटकर गिरा दिया। उसी समय उस मूरत का नाचना बन्द हो गया और वह भयानक आवाज भी जो बड़ी देर से तमाम बाग में और इस कमरे में भी गूंज रही थी एकदम बन्द हो गई। इसके बाद दोनों भाइयों ने उस बची हुई आधी मूरत को भी जोर करके जमीन से उखाड़ डाला। उस समय मालूम हुआ कि उसके दाहिने पैर के तलवे में लोहे की एक जंजीर जड़ी है, इसके खींचने से दाहिनी तरफ वाली दीवार में एक नया दरवाजा निकल आया।

तिलिस्मी खंजर की रोशनी के सहारे दोनों भाई उस नये दरवाजे के अन्दर चले गए और थोड़ी दूर जाने के बाद और एक खुला हुआ दरवाजा लाँधकर एक छोटी-सी कोठरी में पहुँचे जिसके ऊपर चढ़ जाने के लिए दस-बारह सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। दोनों भाई सीढ़ियों पर चढ़कर ऊपर के कमरे में पहुँचे जिसकी लम्बाई पचास हाथ और चौड़ाई चालीस हाथ से कम न होगी। यह कमरा काहे को था, एक मन मोहने वाला छोटा-सा बनावटी बगीचा था। यद्यपि इसमें फूल-बूटों के जितने पेड़ लगे हुए थे सब बनावटी थे, मगर फिर भी जान पड़ता था कि फूलों की खुशबू से वह कमरा अच्छी तरह बसा हुआ है। इस कमरे की छत में बहुत मोटे-मोटे शीशे लगे हुए थे जिसमें से बे-रोक-टोक पहुंचने वाली रोशनी के कारण कमरे भर में उजाला हो रहा था। वे शीशे चौड़े या चपटे न थे; बल्कि गोल गुम्बज की तरह बने हुए थे।

इस छोटे बनावटी बगीचे में छोटी-छोटी मगर बहुत खूबसूरत क्यारियाँ बनी हुई थीं और उन क्यारियों के चारों तरफ की जमीन पत्थर के छोटे-छोटे रंग-बिरंगे टुकड़ों से बनी हुई थी। बीच में एक गोलाम्बर(चबूतरा)बना हुआ था और उसके ऊपर एक औरत खड़ी हुई मालूम पड़ती थी, जिसके बाएँ हाथ में एक तलवार और दाहिने में हाथ भर लम्बी एक ताली थी। [ २११ ]कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने तिलिस्मी खंजर की रोशनी बन्द करके आनन्दसिंह की तरफ देखा और कहा, "यह औरत निःसन्देह लोहे या पीतल की बनी हुई होगी और यह ताली भी वही होगी जिसकी हम लोगों को जरूरत है, मगर तिलिस्मी बाजे ने तो यह कहा था कि 'ताली किसी चलती-फिरती से प्राप्त करोगे', यह औरत तो चलती-फिरती नहीं है, खड़ी है!"

आनन्दसिंह--उसके पास तो चलिए, देखें, वह ताली कैसी है।

इन्द्रजीतसिंह--चलो।

दोनों भाई उस गोलाम्बर की तरफ बढ़े मगर उसके पास न जा सके। तीन-चार हाथ इधर ही थे कि एक प्रकार की आवाज के साथ वहाँ की जमीन हिली और गोलाम्बर (जिस पर पुतली थी) तेजी से चक्कर खाने लगा और उसी के साथ वह नकल औरत (पुतली) भी घूमने लगी जिसके हाथ में तलवार और ताली थी। घूमने के समय उसका ताली वाला हाथ ऊँचा हो गया और तलवार वाला हाथ आगे की तरफ बढ़ गया जो उसके चक्कर की तेजी में चक्र का काम कर रहा था।

आनन्दसिंह--कहिए, भाई जी, अब यह औरत या पुतली चलती-फिरती हो गई या नहीं?

इन्द्रजीतसिंह--हाँ, हो तो गई।

आनन्दसिंह--अब जिस तरह हो सके; हमें इसके हाथ से ताली ले लेनी चाहिए, गोलाम्बर पर जाने वाला तो तुरन्त दो टुकड़े हो जायेगा।

इन्द्रजीतसिंह--(पीछे हटते हुए) देखें, हट जाने पर इसका घूमना बन्द होता है या नहीं।

आनन्दसिंह--(पीछे हटकर) देखिये, गोलाम्बर का घूमना बन्द हो गया ! बस, यही चार हाथ के लगभग चौड़ा काला पत्थर जो इस गोलाम्बर के चारों तरफ लगा है, असल करामात है। इस पर पैर रखने ही से गोलाम्बर घूमने लगता है। (काले पत्थर के ऊपर जाकर) देखिये घूमने लग गया, (हटकर) अब बन्द हो गया। अब समझ गया, इस पुतली के हाथ से ताली और तलवार ले लेना कोई बड़ी बात नहीं। इतना कहकर आनन्दसिंह ने एक छलाँग मारी और काले पत्थर पर पैर रखे बिना ही कूदकर गोलाम्बर के ऊपर चले गये। गोलाम्बर ज्यों-का-त्यों अपने ठिकाने जमा रहा और आनन्दसिंह पुतली के हाथ से ताली तथा तलवार लेकर जिस तरह वहाँ गए थे उसी तरह कूदकर अपने भाई के पास चले आये और बोले- 'कहिये, क्या मजे में ताली ले आए !"

इन्द्रजीतसिंह--बेशक ! (ताली हाथ में लेकर) यह अजब ढंग की बनी हुई है। (गौर से देखकर)इस पर कुछ अक्षर भी खुदे हुए मालूम पड़ते हैं, मगर बिना तेज रोशनी के इनका पढ़ा जाना मुश्किल है!

आनन्दसिंह--मैं तिलिस्मी खंजर की रोशनी करता हूँ, आप पढ़िये।

इन्द्रजीतसिंह ने तिलिस्मी खंजर की रोशनी में उसे पढ़ा और आनन्दसिंह को समझाया, इसके बाद दोनों भाई कूद कर उस गोलाम्बर पर चले गये जिस पर हाथ में [ २१२ ]के सिवाय और कुछ भी दिखाई न दिया, उस समय इन्द्रजीतसिंह ने अपने तिलिस्मी ताली लिए हुए वह पुतली खड़ी थी। ढूंढ़ने और गौर से देखने पर दोनों भाइयों को मालूम हुआ कि उसी पुतली के दाहिने पैर में एक छेद ऐसा है, जिसमें वह तलवार जो पुतली के हाथ से ली गई थी बखूबी घुस जाय। भाई की आज्ञानुसार आनन्दसिंह ने वही पुतली वाली तलवार उस छेद में डाल दी, यहाँ तक कि पूरी तलवार छेद के अन्दर चली गई और केवल उसका कब्जा बाहर रह गया। उस समय दोनों भाइयों ने मजबूती के साथ उस पुतली को पकड़ लिया। थोड़ी देर बाद गोलाम्बर के नीचे से आवाज आई और पहले की तरह पुनः वह गोलाम्बर पुतली सहित घूमने लगा। पहले धीरे-धीरे, मगर फिर क्रमशः तेजी के साथ वह गोलाम्बर घूमने लगा। उस समय दोनों भाइयों के हाथ उस पुतली के साथ ऐसे चिपक गये कि मालूम होता था छुड़ाने से भी नहीं छूटेंगे। वह गोलाम्बर घूमता हुआ जमीन के अन्दर धंसने लगा और सिर में चक्कर आने के कारण दोनों भाई बेहोश हो गए।

जब वे होश में आये तो आँखें खोलकर चारों तरफ देखने लगे, मगर अंधकार खंजर के जरिये से रोशनी की और इधर-उधर देखने लगे। अपने छोटे भाई को पास ही में बैठे पाया और उस पुतली को भी टुकड़े-टुकड़े हुई उसी जगह देखा, जिसके टुकड़े कुछ गोलाम्बर के ऊपर और कुछ जमीन पर छितराये हुए थे।

इस समय भी दोनों भाइयों ने अपने को उसी गोलाम्बर पर पाया और इससे वे समझे कि यह गोलाम्बर ही धंसता हुआ इस नीचे वाली जमीन के साथ आ लगा है, मगर जब छत की तरफ निगाह की तो किसी तरह का निशान या छेद न देखकर छत को बराबर और बिल्कुल साफ पाया। अब जहाँ पर दोनों भाई बैठे थे, वह कोठरी बनिस्बत ऊपर वाले (या पहले) कमरे के बहुत छोटी थी। चारों तरफ तरह-तरह के कल-पुर्जे दिखाई दे रहे थे। जिनमें से निकलकर फैले हुए लोहे के तार और लोहे की जंजीरें जाल की तरह विल्कुल कोठरी को घेरे हुए थीं। बहुत-सी जंजीरें ऐसी थीं, जो छत में, बहुत-सी दीवार में, और बहुत-सी जमीन के अन्दर घुसी हुई थीं। इन्द्रजीतसिंह के सामने की तरफ एक छोटा-सा दरवाजा था। जिसके अन्दर दोनों कुमारों को जाना पड़ता। अस्तु दोनों कुमार गोलांबर के नीचे उतरे और तारों तथा जंजीरों से बचते हुए उस दरवाजे के अन्दर गए। वह रास्ता एक सुरंग की तरह था जिसकी छत, जमीन और दोनों तरफ की दीवारें मजबूत पत्थर की बनी हुई थीं। दोनों कुमार थोड़ी दूर तक उसमें बराबर चलते गये और इसके बाद एक ऐसी जगह पहुंचे, जहां ऊपर की तरफ निगाह करने से आसमान दिखाई देता था। गौर करने से दोनों कुमारों को मालूम हुआ कि यह स्थान वास्तव में कुएँ की तरह है। इसकी जमीन (किसी कारण से) बहुत ही नरम और गुदगुदी थी। बीच में एक पतला लोहे का खंभा था और खंभे के नीचे जंजीर के सहारे एक खटोली बंधी हुई थी जिस पर दो-तीन आदमी मजे में बैठ सकते थे। खटोली से ढाई-तीन हाथ ऊंचे (खंभे में) एक ची लगी हुई थी और ची के साथ एक ताम्र- पत्र बँधा हुआ था। इन्द्रजीतसिंह ने ताम्रपत्र को पढ़ा, बारीक-बारीक हरफों में यह लिखा था[ २१३ ]"यहाँ से बाहर निकल जाने वाले को खटोली के ऊपर बैठ कर यह ची सीधी घुमानी चाहिए। ची सीधी तरफ घुमाने से यह खंभा खटोली को लिए हुए ऊपर जायगा और उल्टी तरफ घुमाने से यह नीचे की तरफ उतरेगा। पीछे हटने वाले को अब वह रास्ता खुला नहीं मिलेगा जिधर से वह आया होगा।"

पत्र पढ़कर इन्द्रजीतसिंह ने आनन्दसिंह से कहा, "यहाँ से बाहर निकल चलने के लिए यह बहुत अच्छी तरकीब है, अब हम दोनों को भी इसी तरह बाहर हो जाना चाहिए। लो, तुम भी इसे पढ़ लो।

आनन्दसिंह-(पत्र पढ़कर) आइये, इस खटोली में बैठ जाइये!

दोनों कुमार उस खटोली में बैठ गये और इन्द्रजीतसिंह ची घुमाने लगे। जैसे- जैसे चर्बी घुमाते थे, वैसे-वैसे वह खंभा खटोली को लिए हुए ऊपर की तरफ उठता जाता था। जब खंभा कुएँ के बाहर निकल आया, तब अपने चारों तरफ की जमीन और इमारतों को देखकर दोनों कुमार चौंके और इन्द्रजीतसिंह की तरफ देख कर आनन्द- सिंह ने कहा-

आनन्दसिंह--यह तो तिलिस्मी बाग का वही चौथा दर्जा है, जिसमें हम लोग कई दिन तक रह चुके हैं!

इन्द्रजीतसिंह--बेशक वही है, मगर यह खंभा हम लोगों को (हाथ का इशारा करके) उस तिलिस्मी इमारत तक पहुँचावेगा।

पाठक, हम सन्तति के नौवें भाग के पहले बयान में इस बाग के चौथे भाग का हाल जो कुछ लिख चुके हैं, शायद आपको याद होगा। यदि भूल गये हों तो उसे पुनः पढ़ जाइए। उस वयान में यह भी लिखा जा चुका है कि इस बाग के पूरब तरफ वाले मकान के चारों तरफ पीतल की दीवार थी। इसलिए उस मकान का केवल ऊपर वाला हिस्सा दिखाई देता था और कुछ मालूम नहीं होता था कि उसके अन्दर क्या है। हाँ, छत के ऊपर लोहे का एक पतला महराबदार खंभा था, जिसका दूसरा सिरा उसके पास वाले कुएँ के अन्दर गया था। उस मकान के चारों तरफ पीतल की जो दीवार थी उसमें एक बन्द दरवाजा भी दिखाई देता था और उसके दोनों तरफ पीतल के दो आदमी हाथ में नंगी तलवारें लिए खड़े थे, इत्यादि।

यह उसी मकान के साथ वाला कुआँ था, जिसमें से इन्द्रजीतसिंह और आनन्द- सिंह निकले थे। धीरे-धीरे ऊँचे होकर दोनों भाई उस मकान की छत पर जा पहुंचे जिसके चारों तरफ पीतल की दीवार थी। खटोली को मकान की छत पर पहुँचा कर वह खंभा अड़ गया और दोनों कुमारों को उस पर से उतर जाना पड़ा। पहले जब दोनों कुमार इस बाग के (चौथे दरजे के) अन्दर आये थे, तब इस मकान के अन्दर का हाल कुछ जान नहीं सके थे। मगर अब तो इत्तिफाक ने खुद ही इन दोनों को उस मकान में पहुँचा दिया। इसलिए बड़े उत्साह से दोनों भाई इस जगह का तमाशा देखने के लिए तैयार हो गए।

इस मकान की छत पर एक रास्ता नीचे उतर जाने के लिए था। उसी राह से दोनों भाई नीचे वाली मंजिल में उतर कर एक छोटे-से कमरे में पहुंचे। जहाँ की [ २१४ ]छत, जमीन और चारों तरफ की दीवारों में कलई किये हुए दलदार शीशे बड़ी कारी- गरी से जड़े हुए थे। अगर एक आदमी भी उस कमरे में जाकर खड़ा हो तो अपनी हजारों सूरतें देख कर घवरा जाय। सिवाय इस बात के उस कमरे में और कुछ भी न था, और न यही मालूम होता था कि यहाँ से किसी और जगह जाने के लिए कोई रास्ता है। उस कमरे की अवस्था देखकर इन्द्रजीतसिंह हँसे और आनन्दसिंह की तरफ देख कर बोले-

इन्द्रजीतसिंह--इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस कमरे में इन शीशों की बदौलत एक प्रकार की दिल्लगी है, मगर आश्चर्य इस बात का होता है कि तिलिस्म बनाने वालों ने यह फजूल कार्रवाई क्यों की है ! इन शीशों के लगाने से कोई फायदा या नतीजा तो मालूम नहीं होता!

आनन्दसिंह--मैं भी यही सोच रहा हूँ। मगर विश्वास नहीं होता कि तिलिस्म बनाने वालों ने इसे व्यर्थ ही बनाया होगा, कोई-न-कोई बात इसमें जरूर होगी। इस मकान में इसके सिवाय अभी तक कोई दूसरी अनूठी बात दिखाई नहीं दी, अगर यहाँ कुछ है तो केवल यही एक कमरा है। अस्तु इस कमरे को फजूल समझना इस इमारत भर को फजूल समझना होगा, मगर ऐसा हो नहीं सकता। देखिये, इसी मकान से उस लोहे वाले खंभे का संबंध है, जिसकी बदौलत हम (रुक कर) सुनिए-सुनिए, यह आवाज कैसी और कहाँ से आ रही है?

बात करते-करते आनन्दसिंह रुक गये और ताज्जुब-भरी निगाहों से अपने भाई की तरफ देखने लगे, क्योंकि उन्हें दो आदमियों के जोर-जोर से बातचीत की आवाज सुनाई देने लगी। वह आवाज यह थी--

एक--तो क्या दोनों कुमार उस कुएँ से निकल यहाँ आ जाएँगे?

दूसरा–-हाँ, जरूर आ जाएंगे। उस कुएँ में जो लोहे का खंभा गया हुआ है उसमें एक खटोली बँधी है। उस खटोली पर बैठकर एक कल घुमाते हुए दोनों आदमी यहाँ आ जाएंगे।

पहला--तब तो बड़ी मुश्किल होगी, हम लोगों को यह जगह छोड़ देनी पड़ेगी।

दूसरा--हम लोग इस जगह को क्यों छोड़ने लगे ? जिसके भरोसे पर हम लोग यहाँ बैठे हैं, क्या वह दोनों राजकुमारों से कमजोर है ? खैर उसे जाने दो, पहले तो हमी लोग उन्हें तंग करने के लिए बहुत हैं।

पहला--इसमें तो कोई शक नहीं कि हम लोग उनकी ताकत और जवामर्दी को हवा खिला सकते हैं, मगर एक काम जरूर करना चाहिए।

दूसरा--वह क्या?

पहला--इस कमरे का वह दरवाजा खोल देना चाहिए, जिसमें भयानक अजगर रहता है। जब दोनों उसे खुला देख उसके अन्दर जाएंगे तो निःसंदेह वह अजगर


1.यदि दो बड़े शीशे आमने-सामने रखकर देखिए तो शीशों में दो-चार ही नहीं बल्कि हजारों शीशे एक-दूसरे के अन्दर दिखाई देंगे। [ २१५ ]उन दोनों को निगल जायगा।

दूसरा--और वाकी के दरवाजे मजबूती के साथ बन्द कर देने चाहिए जिसमें वे और किसी तरफ जा न सकें।

पहला–-बेशक, इसके अतिरिक्त एक काम और भी करना चाहिए, जिसमें वे दोनों उस दरवाजे के अन्दर जरूर जाएँ-अर्थात् उन दोनों लड़कियों को भी उस अजगर वालो कोठरी में हाथ-पैर बांधकर पहुँचा देना चाहिए, जिन पर दोनों कुमार आशिक हैं।

दूसरा--यह तुमने बहुत अच्छी बात कही। जब वह अजगर उन लड़कियों को निगलना चाहेगा तो वे जरूर चिल्लायेंगी, उस समय आवाज पहचानने पर वे दोनों अपने को किसी तरह रोक न सकेंगे और उस दरवाजे के अन्दर जाकर अजगर की खुराक बनेंगे।

पहला--यह भी अच्छी बात कही। अच्छा उन उन दोनों को पकड़ लाओ और हाथ-पैर बांध कर उस कोठरी में डाल दो। अगर इस कार्रवाई से काम न चलेगा, तो दूसरी कार्रवाई की जायगी, मगर उन्हें इस मकान के बाहर न जाने देंगे।

इसके बाद वह बातचीत की आवाज वन्द हो गई और यकायक सामने आईने में कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने अपने प्यारे ऐयार भैरोंसिंह और तारासिंह की सूरत देखी, सो भी इस ढंग से कि दोनों ऐयार अकड़ते हुए एक तरफ से आए और दूसरी तरफ को चले गये। इसके बाद दो औरतों की सूरत नजर आई। पहले तो पहचानने में कुछ शक हुआ, मगर तुरन्त ही मालूम हो गया कि वे दोनों कमलिनी और लाडिली हैं। उन दोनों की कमर में लोहे की जंजीरें बँधी हुई थीं और एक मजबूत आदमी उन्हें अपने हाथ में लिए उन दोनों के पीछे-पीछे जा रहा था। यह भी देखा कि कमलिनी और लाड़िली चलते-चलते रुकी और उसी समय पिछले आदमी ने उन दोनों को धक्का दिया जिससे वे झुक गईं और सिर हिला कर आगे बढ़ती हुई नजरों की ओट हो गई।

भैरोंसिंह और तारासिंह यहाँ कैसे आ पहुँचे ? और कमलिनी तथा लाडिली को कैदियों की तरह ले जाने वाला वह कौन था ? इस शीशे के अन्दर उन सभी की सूरत कैसे दिखाई पड़ी? चारों तरफ से बन्द रहने पर भी यहाँ आवाज कैसे आई ? इन बातों को सोचते हुए दोनों कुमार बहुत दुःखी हुए।

आनन्दसिंह--भैया, यह तो बड़े आश्चर्य की बात मालूम पड़ती है। यह लोग (अगर वास्तव में कोई हों तो) कहते हैं कि अजगर कुमारों को निगल जायगा। मगर हम लोग तो खुद ही अजगर के मुंह में जाने के लिए तैयार हैं क्योंकि तिलिस्मी बाजे की यही आज्ञा है। अव कहिए तिलिस्मी बाजे की बात झूठी है या ये लोग कोई धोखा देना चाहते हैं?

इन्द्रजीतसिंह--मैं भी इन्हीं बातों को सोच रहा हूँ। तिलिस्मी बाजे की आवाज को झूठा समझना तो बुद्धिमानी की बात नहीं होगी क्योंकि उसी आवाज के भरोसे पर हम लोग तिलिस्म तोड़ने के लिए तैयार हुए हैं। मगर हाँ, इस बात का पता लगाये बिना अजदहे के मुंह में जाने की इच्छा नहीं होती कि यह आवाज आखिर थी कैसी,और इस आईने में जिन लोगों के बातचीत की आवाज सुनाई दी है, वे वास्तव में कोई हैं भी या सब बिल्कुल तिलिस्मी खेल ही है ? कलई किए हुए आईने में किसी ऐसे आदमी [ २१६ ]की सूरत भला क्योंकर दिखाई दे सकती है, जो उसके सामने हो?

आनन्दसिंह--बेशक यह एक नई बात है। अगर किसी के सामने हम यह किस्सा बयान करें, तो वह यही कहेगा कि तुमको धोखा हुआ। जिन लोगों को तुमने आईने में देखा था वे तुम्हारे पीछे की तरफ से निकल गये होंगे और तुमने उस बात का खयाल न किया होगा। मगर नहीं, अगर वास्तव में ऐसा होता तो आईने में भी हम उन्हें अपने पीछे की तरफ से जाते हुए देखते। जरूर इसका सबब कोई दूसरा ही है, जो हम लोगों की समझ में नहीं आ रहा है।

इन्द्रजीतसिंह–-खैर, फिर अब किया क्या जाए? इस मंजिल से नीचे उतर जाने या किसी और तरफ जाने के लिए रास्ता भी तो दिखाई नहीं देता। (उँगली का इशारा करके) सिर्फ वह एक निशान है, जहाँ से अपने-आप एक दरवाजा पैदा होगा या हम लोग दरवाजा पैदा कर सकते हैं। मगर वह दरवाजा उसी अजदहे वाली कोठरी का है, जिसमें जाने के लिए हम लोग यहां आए हैं।

आनन्दसिंह--ठीक है, मगर क्या हम लोग तिलिस्मी खंजर से इस शीशे को तोड़ या काट नहीं सकते?

इन्द्रजीतसिंह--जरूर काट सकते हैं। मगर यह कार्रवाई अपने मन की होगी।

आनन्दसिंह--तो क्या हर्ज है, आज्ञा दीजिए तो मैं एक हाथ शीशे पर लगाऊँ!

इन्द्रजीतसिंह–-सो ही कर देखो। मगर कहीं कोई बखेड़ा न पैदा हो!

अब जो होना हो सो हो !” इतना कहकर आनन्दसिंह तिलिस्मी खंजर लिए हुए आईने की तरफ बढ़े। उसी वक्त एक आवाज हुई और बाएँ तरफ की शीशे वाली दीवार में ठीक उसी जगह एक छोटा-सा दरवाजा निकल आया जहाँ कुमार ने हाथ का इशारा करके आनन्दसिंह को बताया था; मगर दोनों कुमारों ने उसके अन्दर जाने का खयाल भी न किया और आनन्दसिंह ने तिलिस्मी खंजर का एक भरपूर हाथ अपने सामने वाले शीशे पर लगाया। जिसका नतीजा यह हुआ कि शीशे का एक बहुत बड़ा टुकड़ा भारी आवाज देकर पीछे की तरफ हट गया और आनन्दसिंह इस तरह उसके अन्दर घुस गए जैसे हवा के किसी खिंचाव या बवन्डर ने उन्हें अपनी तरफ खींच लिया हो। इसके बाद वह शीशे का टुकड़ा फिर ज्यों-का-त्यों बराबर मालूम होने लगा।

हवा के खिंचाव का असर कुछ-कुछ इन्द्रजीतसिंह पर भी पड़ा। मगर वे दूर खड़े थे, इसलिए खिच कर वहाँ तक न जा सके, पर आनन्द सिंह उसके पास होने के कारण खिच कर अन्दर चले गये।

आनन्दसिंह का यकायक इस तरह आफत में फंस जाना बहुत ही बुरा हुआ, इस बात का जितना रंज इन्द्रजीतसिंह को हुआ सो वे ही जान सकते हैं। उनकी आँखों में आँसू भर आये और वे बेचैन होकर धीरे से बोले -"अब जब तक कि मैं इस शीशे के अन्दर न चला जाऊँगा अपने भाई को छुड़ा न सकूँगा और न इस बात का ही पता लगा सकूँगा कि उस पर क्या मुसीबत आई।" इतना कह वे तिलिस्मी खंजर लिए हुए शीशे की तरफ बढ़े मगर दो ही कदम जाकर रुक गये और सोचने लगे, "कहीं ऐसा न हो कि जिस मुसीबत में आनन्द पड़ गया है, उसी मुसीबत में मैं भी फंस जाऊँ ! यदि [ २१७ ]ऐसा हुआ तो हम दोनों इसी तिलिस्म में मर कर रह जायेंगे ! यहाँ कोई ऐसा भी नहीं जो हम लोगों की सहायता करेगा, लेकिन अगर ईश्वर की कृपा से तिलिस्म के इस दर्जे को मैं अकेला तोड़ सकू तो निःसन्देह आनन्द को छुड़ा लूंगा। मगर कहीं ऐसा न हो कि जब तक हम तिलिस्म तोड़ें तब तक आनन्द की जान पर आ बने ? बेशक इस आवाज ने हम लोगों को धोखे में डाल दिया, हमें तिलिस्मी बाजे पर पूरा भरोसा करके बेखौफ अजदहे के मुंह में चले जाना चाहिए था।" इत्यादि तरह-तरह की बातें सोचकर इन्द्र- जीतसिंह रुक गये और आनन्दसिंह की जुदाई में आँसू गिराते हुए उसी अजदहे वाली कोठरी में चले गये जिसका दरवाजा पहले ही खुल चुका था।

उस कोठरी में सिवाय उस एक अजदहे के और कुछ भी न था। इस अजदहे को मोटाई दो गज घेरे से कम न होगी। उसका खुला मुंह इस योग्य था कि उद्योग करने से आदमी उसके पेट में बखूबी घुस जाय। वह एक सोने के चबूतरे के ऊपर कुण्डली मारे वैठा था और अपने डील-डौल और खुले हुए भयानक मुँह के कारण बहुत ही डरावना मालूम पड़ता था। झूठा और बनावटी मालूम हो जाने पर भी उसके पास जाना या खड़ा होना बड़े जीवट का काम था।

इन्द्रजीतसिंह बेखौफ उस अजदहे के मुंह में घुस गए और कोशिश करके आठ या नौ हाथ के लगभग नीचे उतर गए। इस बीच में उन्हें गर्मी तथा सांस लेने की तंगी से बहुत तकलीफ हुई और उसके बाद उन्हें नीचे उतरने के लिए दस-बारह सीढ़ियाँ मिलीं। नीचे उतरने पर कई कदम एक सुरंग में चलना पड़ा और इसके बाद वे उजाले में पहुँचे।

अब जिस जगह इन्द्रजीतसिंह पहुँचे वह एक छोटा-सा तिमंजिला मकान संग- मर्मर के पत्थरों से बना हुआ था, जिसका ऊपरी हिस्सा बिल्कुल खुला हुआ था, अर्थात् चौक में खड़े होने से आसमान दिखाई देता था। नीचे वाले खंड में जहाँ इन्द्रजीतसिंह खड़े थे चारों तरफ चार दालान थे और चारों दालान अच्छे बेशकीमत सोने के जड़ाऊ सिंहासनों, नुमाइशी बर्तनों तथा हों से भरे थे। कुमार उस बेहिसाब दौलत तथा अन- मोल चीजों को देखते हुए जब बाईं तरफ वाले दालान में पहुँचे तो यहाँ की दीवार में भी उन्होंने एक छोटा-सा दरवाज़ा देखा। झाँकने से मालूम हुआ कि ऊपर के खण्ड में जाने के लिए सीढ़ियाँ हैं। कुँअर इन्द्रजीतसिंह सीढ़ियों की राह ऊपर चढ़ गये। उस खण्ड में भी चारों तरफ दालान थे। पूरब तरफ वाले दालान में कल-पुरजे लगे हुए थे, उत्तर तरफ वाले दालान में एक चबूतरे के ऊपर लोहे का एक सन्दूक ठीक उसी ढंग का था जैसा कि तिलिस्मी बाजा कुमार देख चुके थे। दविखन तरफ वाले दालान में कई पुत- लियाँ खड़ी थीं जिनके पैरों में गड़ारीदार पहिये की तरह बना हुआ था, जमीन में लोहे की नालियाँ जड़ी हुई थी और नालियों में पहिया चढ़ा हुआ था अर्थात् वे पुतलियाँ इस लायक थीं कि पहियों पर नालियों की बरकत से बँधे हुए (महदूद) स्थान तक चल-फिर सकती थीं, और पश्चिम की तरफ वाले दालान में सिवाय एक शीशे की दीवार के और कुछ भी दिखाई नहीं देता था।

उन पुतलियों में कुमार ने कई अपने जान-पहचान वाले और संगी-साथियों की की मूरतें भी देखी। उन्हीं में भैरोंसिंह, तारासिंह, कमलिनी, लाड़िली, राजा गोपाल[ २१८ ]सिंह और अपनी तथा अपने छोटे भाई की भी मूरतें देखीं जो डील-डौल और नक्शे में बहुत साफ बनी हुई थीं। कमलिनी और लाड़िली की मूरतों की कमर में लोहे की जंजीर बँधी हुई थी और एक मजबूत आदमी उसे थामे हुए था। कुमार ने मूरतों को हाथ का धक्का देकर चलाना चाहा, मगर वे अपनी जगह से एक अंगुल भी न हिलीं। कुमार ताज्जुब से उनकी तरफ देखने लगे।

इन सब चीजों को गौर और ताज्जुब की निगाह से कुमार देख ही रहे थे कि यकायक दो आदमियों की बातचीत की आवाज उनके कान में पड़ी। वे चौंककर चारों तरफ देखने लगे मगर किसी आदमी की सूरत न दिखाई पड़ी, थोड़ी ही देर में इतना जरूर मालूम हो गया कि उत्तर की तरफ वाले दालान में चबूतरे के ऊपर जो लोहे वाला सन्दूक है उसी में से यह आवाज निकल रही है। कुमार समझ गये कि वह सन्दूक उसी तरह का कोई तिलिस्मी बाजा है जैसाकि पहले देख चुके हैं अस्तु वे तुरत उस बाजे के पास चले आये और आवाज सुनने लगे। यह बातचीत या आवाज ठीक वही थी जो कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह शीशे वाले कमरे में सुन चुके थे अर्थात् एक ने कहा, "तो क्या दोनों कुमार कुएँ में से निकलकर यहाँ आ जायेंगे !" उसी के बाद दूसरे आदमी के बोलने की आवाज आई मानो दूसरे ने जवाब दिया, "हाँ जरूर आ जायेंगे, उस कुएँ में लोहे का खम्भा गया हुआ है उसमें एक खटोली बँधी हुई है, उस खटोली पर बैठकर कल घुमाते हुए दोनों आदमी यहाँ आ जायेंगे-' इत्यादि जो-जो बातें दोनों कुमारों ने उस शीशे वाले कमरे में सुनी थीं ठीक वे ही बातें उसी ढंग की आवाज में कुमार ने इस बाजे में भी सुनीं। उन्हें बड़ा ताज्जुब हुआ और उन्होंने इस बात का निश्चय कर लिया कि अगर वह शीशे वाला कमरा इस दीवार के बगल में है तो निःसन्देह यही आवाज हम दोनों भाइयों ने सुनी थी। इसके साथ ही कुमार की निगाह पश्चिम तरफ वाले दालान में शीशे की दीवार के ऊपर पड़ी और वे धीरे से बोल उठे, "वेशक इसी दीवार के उस तरफ वह कमरा है और ताज्जुब नहीं कि उस कमरे में इस तरफ यही शीशे की दीवार हम लोगों ने देखी भी हो।"

इतने ही में दक्खिन तरफ वाले दालान में से धीरे-धीरे कुछ कल-पुों के घूमने की आवाज आने लगी। कुमार ने जब उस तरफ को देखा तो भैरोंसिंह और तारासिंह की मूरतों को अपने ठिकाने से चलते हुए पाया। उन दोनों मूरतों की अकड़कर चलने वाली चाल भी ठीक वैसी ही थी जैसी कुमार उस शीशे के अन्दर देख चुके थे। जिस समय वे दोनों मूरतें चलती हुई उस शीशे वाली दीवार के पास पहुँची, उसी समय दीवार में एक दरबाजा निकल आया और दोनों मूरतें उसके अन्दर घुस गईं। इसके बाद कम- लिनी और लाड़िली की मूरतें चली और उनके पीछे वाला आदमी जो जंजीर थामे हुए था पीछे-पीछे चला, ये सब उसी तरह शीशे वाली दीवार के अन्दर जाकर थोड़ी देर के बाद फिर अपने ठिकाने लौट आये और वह दरवाजा ज्यों का त्यों बन्द हो गया। अब कुँअर इन्द्रजीतसिंह के दिल में किसी तरह का शक नहीं रहा, उन्हें निश्चय हो गया कि उस शीशे वाले कमरे में जो कुछ हम दोनों ने सुना और देखा, वह वास्तव में कुछ भी न था, या अगर कुछ था तो वही जो कि यहाँ आने से मालूम हुआ है, साथ ही इसके कुमार [ २१९ ]यह भी सोचने लगे कि 'ये हमारे संगी-साथियों और मुलाकातियों की मूरतें पुरानी बनी हुई हैं या उन तस्वीरों की तरह इन्हें भी राजा गोपालसिंह ने स्थापित किया है, और इन मूरतों का चलना-फिरना तथा इस बाजे का बोलना किसी खास वक्त पर मुकर्रर है या घण्टे-घण्टे दो-दो घण्टे पर ऐसा ही हुआ करता है ? मगर नहीं, घड़ी-घड़ी व्यर्थ ऐसा होना अनुचित है। तो क्या जब शीशे वाले कमरे में कोई जाता है तभी ऐसी बातें होती हैं ! क्यों- कि हम लोगों के वहां पहुंचने पर यही दृश्य देखने में आया था। अगर मेरा यह खयाल ठीक है तो अब भी उस शीशे वाले कमरे में कोई पहुँचा होगा। किसी गैर आदमी का वहाँ पहुँचना तो असम्भव है। अगर कोई वहाँ पहुँचता है तो चाहे वह आनन्दसिंह हों या राजा गोपालसिंह हों। कौन ठिकाना, फिर किसी कारण से आनन्दसिंह वहाँ जा पहुँचा हो। जिस तरह इस बाजे की आवाज उस कमरे में पहुँचती है उसी तरह मेरी आवाज भी वहाँ वाला सुन सकता है।' इत्यादि बातें कुमार ने जल्दी-जल्दी सोची और इसके बाद ऊँचे स्वर में बोले, "शीशे वाले कमरे में कौन है?"

जवाब--मैं हूँ आनन्दसिंह, क्या मैं भाई साहब की आवाज सुन रहा हूँ ?

इन्द्रजीतसिंह–-हाँ, मैं यहाँ आ पहुँचा हूँ, तुम भी जहाँ तक जल्दी हो सके उस अजदहे के मुँह में चले जाओ और हमारे पास पहुँचो।

जवाब--बहुत अच्छा।