चन्द्रकान्ता सन्तति 5/17.10

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चंद्रकांता संतति भाग 5  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

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रात अनुमान दो पहर के जा चुकी है। खाप्त बाग के दूसरे दर्जे में दीवानखाने की छत पर कुबेरसिंह; भीमसेन और उसके चारों तरफ ऐयार तथा माधवी के पास बैठी हुई मायारानी बड़ी प्रसन्नता से बातें कर रही है। चाँदनी खूब छिटकी हुई है और बाग की हर एक चीज जहाँ तक निगाह बिना ठोकर खाये जा सकती है, साफ दिखाई दे रही है। बातचीत का विषय अब यह था कि "राजा गोपालसिंह से तो छुट्टी मिल गई, अब राज्य तथा राजकर्मचारियों के लिए क्या प्रबन्ध करना चाहिए?"

जिस छत पर ये लोग बैठे हुए थे, उसके दाहिनी तरफ वाली पट्टी में भी एक सुन्दर इमारत और उसके पीछे ऊँची दीवार के बाद तिलिस्मी बाग का तीसरा दर्जा पड़ता था। इस समय मायारानी का मुँह ठीक उसी इमारत और दीवार की तरफ था, और उस तरफ की चाँदनी दरवाजों के अन्दर घुसकर बड़ी बहार दिखा रही थी। बात [ ३६ ]करते-करते मायारानी चौंकी और उस तरफ हाथ का इशारा करके बोली––"हैं! उस छत पर कौन जा पहुँचा है?"

माधवी––हाँ, एक आदमी हाथ में नंगी तलवार लेकर टहल तो रहा है।

भीमसेन––चेहरे पर नकाब डाले हुए है।

कुबेरसिंह––हमारे फौजी सिपाहियों में से शायद कोई ऊपर चला गया होगा, मगर उन्हें बिना हुक्म ऐसा नहीं करना चाहिए!

मायारानी––नहीं-नहीं, उस मकान में सिवा मेरे और कोई नहीं जा सकता।

माधवी––तो फिर वहाँ गया कौन?

मायारानी––यही तो ताज्जुब है! देखिए, एक और भी आ पहुँचा, यह तीसरा आया, मामला क्या है?

अजायबसिंह––कहीं राजा गोपालसिंह कुएँ में घुसकर वहाँ न जा पहुँचे हों! मगर वे तो केवल दो ही आदमी थे!

मायारानी––और ये तीन हैं! (कुछ रुककर) लीजिए, अब पाँच हो गये।

मायारानी और उसके संगी-साथियों के देखते-देखते उस छत पर पचीस आदमी हो गये। उन सभी के हाथों में नंगी तलवारें थीं। जिस छत पर वे सब थे, वहाँ पर से ऊपर मायारानी के पास तक आने में यद्यपि कई तरह की रुकावटें थीं, मगर ऐयारों के लिए यह कोई मुश्किल बात न थी इसीलिए मायारानी के पक्ष वालों को भय हुआ और उन्होंने चाहा कि अपने फौजी आदमियों में से कुछ को ऊपर बुला लें और ऐसा करने के लिए अजायबसिंह को कहा गया।

अजायबसिंह फौजी सिपाहियों को लाने के लिए चला गया, मगर मकान के नीचे न जा सका और तुरन्त लौट आकर बोला, "जाने का हर दरवाजा बन्द है, कोई तरकीब मायारानी करें तो शायद वहां तक पहुँचने की नौबत आवे?"

अजायबसिंह की इस बात ने सभी को चौंका दिया और साथ ही इसके सभी को अपनी-अपनी जान की फिक्र पड़ गई। मायारानी के दिलाये हुए भरोसे से जो कुछ उम्मीद की जड़ इन लोगों के दिलों में जमी थी, वह हिल गई और अब अपने किए पर पछताने की नौबत आई, मगर मायारानी अब भी बात बनाने से न चूकी, यह कहती हुई अपनी जगह से उठी कि "कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह इस तिलिस्म को तोड़ रहे हैं, इस- लिए ताज्जुब नहीं कि ये सब बातें कुछ उन्हीं से सम्बन्ध रखती हों।"

मायारानी स्वयं नीचे उतरी थी, मगर जा न सकी और अजायबसिंह की तरह लाचार होकर बैरग लौट आई। उस समय उसके दिल में भी तरह-तरह के खुटके पैदा और वह ताज्जुब की निगाह से उन लोगों की तरफ देखने लगी, जो उसके मुकाबले में एकाएक आकर अब गिनती में पचीस हो गये थे।

थोड़ी देर बाद वे ऊपर से कूदते-फाँदते मायारानी की तरफ आते हुए दिखाई दिए। उस समय मायारानी और उसके संगी-साथी सभी उठ खड़े हुए और अपनी-अपनी जान बचाने की नीयत से तलवारें खींच मुस्तैद हो गये।

बात-की-बात में वे पचीसों आदमी उस छत पर चले आये, जिस पर मायारानी

च॰ स॰-5-2

[ ३७ ]थी, मगर मायारानी या उसके साथियों से किसी ने कुछ भी न कहा, बल्कि उनकी तरफ आँख उठाकर देखा भी नहीं और मस्तानी चाल से चलते हुए छत के नीचे उतर गए। इन लोगों ने भी यह सोचकर कि वे लोग गिनती में हमसे ज्यादा हैं, रोक-टोक नहीं की, मगर इस बात का खयाल जरूर रहा कि नीचे जाने के रास्ते तो सब बन्द हैं, खुद मायारानी भी न जा सकी और लौट आई, इन सभी को भी निःसन्देह लौट आना पड़ेगा, मगर थोड़ी देर में यह गुमान जाता रहा जब कि पचीसों नीचे उतर कर बाग के बीच में चलते हुए दिखाई दिए।

माधवी ने समझा कि हमारे फौजी सिपाही उन लोगों को जरूर टोकेंगे और वास्तव में बात ऐसी ही थी। उन पचीसों को बाग में देख फौजी सिपाहियों में खलबली मच गई और बहुतों ने उठकर उन लोगों को रोकना चाहा, मगर वे लोग देखते-ही-देखते पेड़ों की झुरमुट में घुसकर ऐसा गायब हुए कि किसी का पता भी न लगा और सब लोग आश्चर्य से देखते रह गए। उस समय माधवी ने मायारानी से कहा, "बहिन, यहाँ तो मामला बेढब नजर आता है!"

मायारानी––कुछ समझ में नहीं आता कि ये लोग कौन थे, यहाँ क्यों आये और हम लोगों को बिना रोके-टोके इस तरह क्यों और कहाँ गायब हो गये!

माधवी––यह तो ठीक ही है मगर मैं पूछती हूँ कि आप तिलिस्म की रानी कहलाकर भी इस बाग का हाल क्या जानती हैं? मैं तो समझती हूँ कि कुछ भी नहीं जानतीं। खास अपने कमरे का मामूली दरवाजा भी आपसे नहीं खुलता और हम लोगों की जान मुफ्त में जाना चाहती है!

भीमसेन––अब आपकी कोई कार्रवाई हम लोगों को भरोसा नहीं दिला सकती।

मायारानी––इस समय मैं मजबूर हो रही हूँ इसलिए टेढ़ी-सीधी जो जी में आवे सुनाओ, लेकिन अगर इस मकान के नीचे उतरने की नौबत आयेगी, तो दिखा दूँगी कि मैं क्या कर सकती हूँ।

कुबेरसिंह––नोचे जाने की नौबत ही क्यों आवेगी! गैर लोग आवें, और चले जायें, मगर यहाँ की रानी होकर तुम कुछ न कर सको, यह बड़े शर्म की बात है।

मायारानी इसका जवाब कुछ देना ही चाहती थी कि सीढ़ी की तरफ से आवाज आई, "तुम लोगों के कलपने पर मुझे दया आती है, अच्छा आओ हम दरवाजा खोल देते हैं, तुम लोग नीचे उतर आओ और अपनी जान बचाओ!" इसके बाद सीढ़ी वाले दरवाजे के खुलने की आवाज आई।

सभी को ताज्जुब हुआ और सीढ़ी की तरफ जाते डर मालूम हुआ, मगर यह सोचकर कि यहाँ पड़े रहने से भी जान बचने की आशा नहीं है, सभी ने जी कड़ा करके नीचे उतरने का इरादा किया।

वास्तव में दरवाजे जो बन्द हो गये थे खुले हुए दिखाई दिये और सब कोई जल्दी के साथ नीचे उतर गये, उस समय मायारानी ने एक लम्बी साँस लेकर कहा, "अब कोई चिन्ता नहीं।"

बाकरअली––मगर यह न मालूम हुआ कि दरवाजा खोलने वाला कौन था? [ ३८ ]यारअली––अब उसने हम लोगों के साथ यह नेकी का बर्ताव क्यों किया?

इतने ही में ऊपर से आवाज आई, "दरवाजा खोलने वाला मैं हूँ।"

सभी ने घबराकर ऊपर की तरफ देखा। एक आदमी मुँह पर नकाब डाले बरामदे से झाँकता हुआ दिखाई दिया। कुबेरसिंह ने उससे पूछा, "तुम कौन हो?"

नकाबपोश––मैं इस तिलिस्म का दारोगा हूँ।

मायारानी––इस तिलिस्म का दारोगा तो राजा वीरेन्द्रसिंह के कब्जे में है।

नकाबपोश––वह तुम्हारा दारोगा था और मैं राजा गोपालसिंह का दारोगा हूँ,

आज कल यह बाग मेरे ही कब्जे में है।

मायारानी––जिस समय हम लोग यहाँ आये, तुम कहाँ थे?

नकाबपोश––इसी बाग में।

मायारानी––फिर हम लोगों को रोका क्यों नहीं?

नकाबपोश––रोकने की जरूरत ही क्या थी? मैं जानता ही था कि तुम लोग अपने पैर में आप कुल्हाड़ी मार रहे हो। तुम लोगों की बेबकूफी पर मुझे हँसी आती है।

मायारानी––बेबकूफी काहे की?

नकाबसिंह––एक तो यही कि तुम लोगों ने इतनी फौज को बाग के अन्दर घुसेड़ तो लिया, मगर यह न सोचा कि इतने आदमी यहाँ आकर खायेंगे क्या? अगर घास और पेड़-पत्तों को भी खाकर गुजारा किया, चाहें तो भी दो-एक दिन से ज्यादा का काम नहीं चल सकता। क्या तुम लोगों ने समझा था कि बाग में पहुँचते ही राजा गोपालसिंह को मार लेंगे?

मायारानी––गोपालसिंह को तो हम लोगों ने मार ही लिया, इसमें शक ही क्या है? बाकी रही हमारी फौज, सो एक दिन का खाना अपने साथ रखती है, कल तो हम लोग इस बाग के बाहर हो ही जायेंगे।

नकाबपोश––दोनों बातें शेखचिल्ली की-सी हैं। न तो राजा गोपालसिंह का तुम लोग कुछ बिगाड़ सकते हो और न इस बाग के बाहर की हवा ही खा सकते हो।

मायारानी––तो क्या गोपालसिंह किसी दूसरी राह से निकल जायेंगे?

नकाबपोश––बेशक।

मायारानी––और हम लोग बाहर न जा सकेंगे?

नकाबपोश––कदापि नहीं, क्योंकि मैंने सब दरवाजे अच्छी तरह बन्द कर दिए हैं। तुम तो तिलिस्म की रानी बनने का दावा व्यर्थ ही कर रही हो! तुम्हें तो यहाँ का हाल रुपये में एक पैसा भी नहीं मालूम है। अभी मैंने तुम लोगों के उतरने की राह रोक दी थी, सो तुम्हारे किये कुछ भी न बन पड़ा! जब तुम लोग छत पर थे, पचीस आदमी तुम्हारे सामने से होकर नीचे चले आये, अगर तुम्हें तिलिस्म की रानी होने का दावा था तो उन्हें रोक लेती! मगर राजा साहब के हौसले को देखो कि तुम लोगों के यहाँ आने की खबर पाकर भी अकेले सिर्फ भैरोंसिंह को साथ लेकर इस बाग में चले आए?

मायारानी––उन्हें हमारे आने की खबर कैसे मिली?

नकाबपोश––(जोर से हँसकर) इसके जवाब में तो इतना ही कहना काफी है कि [ ३९ ]तुम्हारी लीला इस बाग में आने के पहले ही गिरफ्तार कर ली गई।

माधवी––तो क्या हम लोग किसी तरह अब इस बाग के बाहर नहीं जा सकते?

नकाबपोश––जीते जी तो नहीं जा सकते, मगर जब तुम लोग मर जाओगे, तब सभी की लाशें जरूर फेंक दी जायेंगी!

जिस मकान में मायारानी उतरी थी, उसी के बरामदे में वह नकाबपोश टहल रहा था। बरामदे के आगे किसी तरह की आड़ या रुकावट न थी। मायारानी उससे बातें करती जाती और छिपे ढंग से अपने तिलिस्मी तमंचे को भी दुरुस्त करती जाती थी तथा रात होने के सबब यह बात उस नकाबपोश को मालूम न हुई। जब वह माधवी से बातें करने लगा, उस समय मौका पाकर मायारानी ने तिलिस्मी तमंचा उस पर चलाया। गोली उसकी छाती में लगकर फट गई और बेहोशी का धुआँ बहुत जल्द उसके दिमाग में चढ़ गया, साथ ही वह आदमी बेहोश होकर जमीन पर लुढ़कता हुआ मायारानी के आगे आ पड़ा। भीमसेन ने झपट कर उसकी नकाब हटा दी और चौंककर बोल उठा, "वाह-वाह! यह तो राजा गोपालसिंह हैं।"